(पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विशेष संदर्भ में, करीब ढ़ाई महीने के दौरान अनिल पांडेय ने सराय – सीएसडीएस दिल्ली के स्वतंत्र फ़ेलोशिप के तहत जो शोध...
(पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विशेष संदर्भ में, करीब ढ़ाई महीने के दौरान अनिल पांडेय ने सराय – सीएसडीएस दिल्ली के स्वतंत्र फ़ेलोशिप के तहत जो शोध किया है उसका संक्षिप्त व रोचक विवरण, साभार प्रस्तुत है.)
आपने मशहूर फिल्म शोले जरूर देखी होगी। क्या आपने वह 'शोले' देखी है जिसमें बसंती तांगे की बजाय बुग्गी (भैंसा गाड़ी) पर और गब्बर सिंह घोड़े के बजाय गधों पर आता है? वह 'धूम' फिल्म देखी हैजिसमें हाइटेक चोर सुपर रेसर मोटर साइकिल की बजाय साइकिल पर आते हैं? या फिर बंटी और बबली को भैंस चुराते देखा है? नहीं देखी है तो जरूर देखिए। आप हँसते-हँसते लोट पोट हो जाएंगे। इस फिल्म का नाम है 'देशी शोले', देशी धूम' और 'यूपी के बंटी और बबली'। इन फिल्मों की सीडी आपको देश की राजधानी दिल्ली सहित हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कहीं भी मिल जाएगी। इतना ही नहीं बालीवुड की तमाम सुपरहिट फिल्मों के देशी संस्करण भी आपको यहां मिल जाएंगे। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं देशी फिल्मों की।
संचार तकनीक के क्षेत्र में आई क्रांति ने लोगों को जन संचार माध्यमों के करीब लाने का काम किया है। अखबार, टेलीविजन और रेडियो तो घर-घर पहुंच ही चुका है, अब फिल्में भी लोगों के घरों तक पहुंच रही हैं। डीवीडी और वीसीडी ने घरों को 'होम थिएटरों' में तब्दील कर दिया है। संचारतकनीक के विकास ने देश भर में कई स्थानों पर 'नए बालीवुड' को जन्म दिया है। जहां अपनी भाषा और परिवेश को ध्यान में रखकर फिल्में बनाई जा रही हैं। देशी फिल्मों का यह सफर महाराष्ट्र के मालेगांव से शुरू होकर बाया दिल्ली मेरठ पहुंच गया है। इन देशी फिल्मों की खासियत यह होती हैकि मामूली बजट में तैयार ये फिल्में सिनेमाहाल में नहीं सीडी पर रीलीज होती हैं। यानी इन्हें सिर्फ सीडी प्लेयर के माध्यम से छोटे पर्दे पर देखा जा सकता है। ये फिल्में शहरों में कम गांवों में ज्यादा देखी जाती हैं।
देशी फिल्मों के लिहाज से बात करें तो ठेठ खड़ी हिंदी में संभवत: सबसे ज्यादा फिल्में बन रही हैं। इनमें से ज्यादातर फिल्में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनाई जाती हैं। कुछ फिल्मों का निर्माण हरियाणा में भी होता है। इनमें से ज्यादातर फिल्में हास्य प्रधान होती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ठेठभाषा इसके लिए सबसे उपयुक्त होती है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भाषा गुदगुदी और चुटीली है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देशी फिल्मों का कारोबार देश के दूसरे हिस्सों से शायद कहीं ज्यादा है।
मेरठ के केबल चैनलों के लिए कार्यक्रम निर्माण करने वाले अनीस भारती कहते हैं, ''मेरठ में हर महीने तकरीबन दर्जन भर नई फिल्में बन जाती हैं। करीब पचास हजार लागत वाली ये फिल्में डेढ़ से दो लाख का कारोबार कर लेती हैं।''
तीन-चार वर्षों में मेरठ में एक 'नए बालीवुड' का अवतार हुआ है। यह है 'देशी बालीवुड'। हम यहां इसी देशी बालीवुड की चर्चा कर रहे हैं। दिल्ली से सटे होने और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के समृद्ध होने के कारण मेरठ में देशी फिल्म उद्योग के फलने-फूलने में मदद मिली है। देश की राजधानी दिल्ली में फिल्म निर्माण से संबंधित उपकरण व तकनीक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। दूसरा कारण मेरठ का रंगमंच से गहरा जुड़ाव है। मेरठ के वरिष्ठ रंगकर्मी, फिल्म निर्माता, निर्देशक और सभासद जगजीत सिंह के मुताबिक मेरठ रंगकर्मियों का गढ़ रहा है। यहां के थिएटर से निकले तमाम कलाकारबालीवुड में काम कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से यहां नाटय गतिविधियां बंद सी हो गई हैं।लिहाजा थिएटर से जुड़े लोगों ने देशी फिल्मों का निर्माण शुरू कर दिया। मशहूर निर्देशक केदार शर्मा के शागिर्द रह चुके जगजीत ने 'दोस्ती के हाथ' नामक हिंदी फिल्म का निर्माण किया है जो जल्दी ही रीलीज होने वाली है।
देशी फिल्मों को चार श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो बालीवुडफिल्मों का देशी रूपांतरण होती हैं। ऐसी फिल्मों की भरमार है। मशहूर फिल्म शोले पर आधारित अब तक यहां तीन फिल्में बन चुकी हैं। देशी तेरे नाम, देशी युवा, देशी धूम, देशी गदर और देशी हीरो नंबर वन व यूपी के बंटी और बबली आदि फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। दूसरी श्रेणी में हास्य प्रधान फिल्में आती हैं। जिनकी भाषा चुटीली व संवादों में हंसी के फौव्वारे होते हैं। हालांकि कई बार इन फिल्मों के संवाद द्विअर्थी व भाषा फूहड़ होती है। टी सीरीज की ताऊ रंगीला इस श्रेणी की सुपर-डुपर हिट फिल्म है। इसके अलावा इस श्रेणी की छिछोरों की बारात, ताऊ बहरा, ब्याह और गौंणा घोल्लू का, दुधिया हरामी, करे मनमानी रम्पत हरामी, बेवकूफ खानदान और सालीदिल्ली वाली जैसी फिल्में भी खूब देखी जाती हैं।
तीसरी श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो यहां के सांस्कृतिक ताने-बाने पर तैयार की जाती हैं। जिन्हें हम मौलिक देशी फिल्म कह सकते हैं। इनमें भी बम्बइया फिल्मों की तरह कई बार मसाला मिला दिया जाता है। ये फिल्में शालीन होती हैं। इसीलिए गांव के लोग इसे पसंद करते हैं। इन फिल्मों में सामाजिक उद्देश्य भी छिपा होता है।
'धाकड़ छोरा' इस श्रेणी की चर्चित और सुपरहिट फिल्म है। इसके अलावा निकम्मा, कर्मवीर और बुध्दूराम भी इसी श्रेणी की सुपरहिट फिल्में हैं। चौथी श्रेणी में धार्मिक फिल्में आती हैं। इनकी भी खूब मांग है। कृष्ण सुदामा, चारों धाम, माता-पिता के चरणों में, द्रौपदी चीर हरण, सतीसुनोचना और पिंगला भरथरी जैसी फिल्में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खूब देखी जाती हैं।देशी फिल्मों का सबसे मजबूत पक्ष चुटीली भाषा और किरदारों के संवाद अदायगी का खालिस देशी अंदाज है। बालीवुड की फिल्मों का देशी रूपांतरण तो बहुत ही रोचक होता है। कहानी और संवादोंका स्थानीयकरण कर दिया जाता है। यहां देशी शोले का उदाहरण दिया जा सकता है। फिल्म का एक प्रसिध्द सीन है। वह है जब 'कालिया' जय और बीरू के हाथों पिटकर वापस आता है तो ''अब तेरा क्या होगा कालिया'' की जगह देशी शोले का संवाद देखिए। गब्बर कहता है, ''के समझ रख्या था गब्बर तने पनीर के पकोड़े खिलावगा.... तने तो गब्बर का नाम मूत में लड़ा दिया।'' इसी फिल्म में एक जगह बीरू बसंती को गब्बर के समाने नाचने को मना करता है तो गब्बर का एक डायलाग बहुत प्रसिध्द हुआ था, ''बहूत याराना लगता है।'' तो देशी शोले के गब्बर की सुनिए। वह बसंती सेकहता है, ''घणी सेटिंग लग री है।''
ऐसी फिल्मों में एक और प्रयोग किया जाता है। बालीवुड फिल्मों के पात्रों और किरदारों में 'लोकल टच' डालकर फिल्म की कहानी का स्थानीयकरण कर दिया जाता है। मसलन गोविंदा की हीरो नंबर-वन पर आधारित फिल्म देशी नंबर वन की कहानी एक गांव के बनिए (लाला) और उसके नौकरकी कहानी है। लाला नौकरी देते हुए नौकर के सामने शर्त रखता है कि अगर वह नौकरी छोड़करजाएगा तो लाला उसके नाक कान काट लेगा। नौकर भी शर्त रखता है कि अगर लाला ने उसे नौकरी से निकाला तो वह भी मालिक के नाक कान काट लेगा और उसकी बेटी से ब्याह करेगा। नौकर के रूप में होता है 'देशी हीरो नंबर वन'। वह अपने कारनामों से लाला को परेशान कर दर्शकों को खूब हंसाता है। देशी हीरो की वेश भूषा असली फिल्म के हीरो गोविंदा की नकल है। हाफ पेंट और चमकीली शर्ट के साथ देशी हीरो ने गले में टाई व कंधो पर गमछा लटका रखा है। सिर पर गांधी टोपी पहने देशी हीरो देखते ही बनता है।
इसके अलावा फिल्मों को हास्य का पुट देने के लिए दृश्यों को रोचक बनाया जाता है। जैसे शोले में गब्बर चट्टान पर खड़ा होता है तो देशी शोले में वह गोबर के उपलों के ढेर पर खड़ा होता है। दूसरी बनी 'देशी शोले' में डाकू घोड़े की बजाय गधों पर आते हैं और बंदूक की बजाय उनके हाथों में लाठियां होती हैं। फिल्मों में गाने भी होते हैं उन्हें भी देशी भाषा में अनुवादित कर दिया जाता है।
कई बार कुछ फिल्में हास्य पैदा करने के चक्कर में फूहड़ता और अश्लीलता की हदों को पार कर जाती हैं। यहां फिल्मों का जिक्र लाजिमी है। ये हैं कलियुग की रामायण और कलियुग का महाभारत। इन दोनों फिल्मों पर धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने के कारण प्रतिबंध लगा दिया गया है। कलियुग की रामायण में सीता को बीड़ी पीते हुए और राम को मुजरा सुनते हुए दिखाया गया था तो कलियुग का महाभारत में कृष्ण रथ की बजाय मोटर साईकिल पर आते हैं और अर्जुन और दूसरे योद्धा तीर धनुष की बजाय हाकी लेकर युध्द करने जाते हैं। देशी फिल्मों में बढ़ती फूहड़ता से चिन्तित जगजीत सिंह कहते हैं, ''यह सब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। लोग ऐसी फिल्मों को देखना पसंद नहीं करते।''लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसी फिल्में देखी भी खूब जाती हैं और कारोबार की दृष्टि से सफल भी मानी जाती हैं। टी सीरीज ने छिछोरों की बारात' नामक एक फिल्म बनाई और खूब बिकी। इस फिल्म केनिर्देशक एस. गोपाल टाटा ने फिल्म का नाम सुनकर पहले तो इसे बनाने से इनकार कर दिया। लेकिन बाद में व्यावसायिक मजबूरियों के चलते जब फिल्म बनाई तो यह चल निकली। बकौल श्री टाटा, ''इस फिल्म को देखकर जब लोग मेरी तारीफ करते हैं तो मुझे अपने आप पर हंसी आती है।''देशी फिल्मों का कारोबार निकटता के सिद्धांत पर आधारित है। अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त युवा निर्देशक यतीश यादव इसे भारतीय लोगों के अपनी संस्कृति से गहरे लगाव के रूप में देखते हैं। उनके मुताबिक, ''भारतीयों को अपनी जमीन और भाषा से बड़ा प्यार होता है। यही वजह है कि मेरठ का दूधिया या किसान अमोल पालेकर की 'पहेली' की बजाय 'धाकड़ छोरा' देखना ज्यादा पसंद करेगा। इसमें उन्हें अपनापन सा लगता है।
देशी फिल्मों के निर्माण और प्रचलन का एक महत्वपूर्ण कारण गांवों से मनोरंजन के पारंपरिक साधानों मसलन लोक नृत्य, लोक गीत व नाटकों का लुप्त होना है। गांव के लोक कलाकार रोजी रोटी कीतलाश में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसे में शाम को चौपालों पर 'गवइयों' की जगह अब देशी फिल्मों ने ले ली है। सचार क्रांति ने इसे और भी आसान बना दिया है।
बालीवुड की पहुंच शहरों तक है। देशी बालीवुड ने मुंबई और गांव की दूरी को कम कर दिया है। इसनेफिल्मों को गांवों तक और सही कहें तो आम लोगों तक पहुंचा रहा है। देशी बालीवुड ने साबित करदिया है कि फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। अभी तक इसका उपयोग केवल मनोरंजन के लिएकिया जा रहा है। जबकि सामाजिक चेतना पैदा करने और लोगों को जागरुक करने में इस माध्यम को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
कैसे बनती हैं फिल्में
तकनीक और गुणवत्ता के आधार पर देशी फिल्मों को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो गुणवत्ता व तकनीकी दृष्टि से बेहतर होती हैं। इन फिल्मों की समयावधि 2 से 3 घंटे होती है। प्रोफेशनल कलाकारों के साथ यह फिल्म बनाई जाती है। इसे बनाने में 2 से 3 लाख रूपए खर्च होते हैं। 20 से ज्यादा देशी फिल्मों के निर्देशक के रूप में काम कर चुके एस.गोपाल टाटा के मुताबिक, ''अच्छी फिल्म बनाने में करीब एक महीने का वक्त और करीब तीन लाख रूपये खर्च होते हैं। 10 दिन शूटिंग में लगते हैं और करीब 15 दिन पोस्ट प्रोडक्शन में।''
दूसरी श्रेणी की फिल्में गुणवत्ता और तकनीक के हिसाब से कमतर होती हैं। ये फिल्में 50-60 हजार रूपये में तैयार कर ली जाती हैं। कई लोग तो 30 से 40 हजार रूपए के बजट में भी फिल्में बना लेते हैं। कई बार तो फिल्मों का निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार व अभिनेता एक ही व्यक्तिहोता है। ये फिल्में 'वन मैन शो' की तरह होती हैं। शादी वाले कैमरे से पूरी फिल्म शूट कर ली जाती है। कई बार कुछ लोग मिलकर पैसा इकट्ठा कर भी फिल्में बना लेते हैं। मेरठ के पास स्थित सरधाना में एक सिनेमाहाल के मालिक जीसान कुरैशी बताते हैं कि उनके यहां के चार लड़कों ने आपस में पैसा इकट्ठा कर फिल्म बनाई है। हीरो भी उनमें से एक है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आजकल यह आम बात है।
कैसे होता है देशी फिल्मों का कारोबार
देशी फिल्में सीडी के जरिए लोगों तक पहुंचती हैं। एक फिल्म के सीडी की कीमत 25 से 50 रूपए के बीच होती है। यह फिल्म की गुणवत्ता और समयावधि पर निर्भर करती है। देशी फिल्में ज्यादातरग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली देहात और हरियाणा, जहां येफिल्में देखी जाती हैं, के किसानों की गिनती समृध्द लोगों में होती है। यहां के गांवों में बिजली पहुंच चुकी है। लोगों के घरों में टीवी और सीडी प्लेयर तो आम बात है। वीडियो पार्लर भी यहां खूब फल फूल रहे हैं। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''चाइनीज सीडी वडीवीडी प्लेयर ने देशी फिल्म उद्योग को फलने-फूलने में बड़ी सहायता की है। काफी सस्ता होने की वजह से यह आम लोगों के घरों तक पहुंच चुका है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तो देशी फिल्मों की सीडी तो मिलती ही है। दिल्ली केपालिका बाजार और लाजपत राय मार्केट में भी इनकी सीडी खूब बिकती है। पालिका बाजार में सीडी बेचने वाले दुकानदार प्रमोद के मुताबिक वह हर रोज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली देशीफिल्मों की 60-70 सीडी बेच लेता है। प्रमोद कहते हैं, ''ये फिल्में केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोग ही नहीं खरीद कर ले जाते, क्योंकि इनमें ज्यादातर फिल्में हंसने हंसाने की होती हैं, इसलिए दूसरे लोग भी इन फिल्मों को खूब देखते हैं।
देशी फिल्म उद्योग भी उसी संकट से गुजर रहा है जिससे बालीवुड। देशी फिल्मों की भी 'पायरेटेड सीडी' काफी सस्ते में बाजार में उपलब्ध हो जाती है।देशी फिल्मों के निर्माण व विपणन से जुड़ी सोनोटे कंपनी के मालिक व निर्माता-निर्देशक हंसराज के मुताबिक इससे फिल्म निर्माताओं को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। नकली सीडी असली सीडी के मुकाबले आधी कीमत पर बाजार में उपलब्ध हो जाती है।
कहां से आते हैं कलाकार
देशी फिल्मों में काम करने वाले ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। इनमें से ज्यादातर कलाकारों को कोई मेहनताना नहीं दिया जाता है। ये कलाकार बस पर्दे पर किसी तरह दिख जाएं, इसी उद्देश्य से काम करते हैं। देशी फिल्मों के अभिनेता भूपेंद्र तितारिया की मानें तो कई लोग उलटे पैसे देकर इन फिल्मों में काम करते हैं। श्री तितारिया के मुताबिक ग्लैमर और फिल्मी दुनिया की चकाचौंध लोगों को आकर्षित करती है और हर कोई अपने को पर्दे पर देखना चाहता है। यही वजह है किपश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिसके पास थोड़ा पैसा हुआ वह बतौर हीरो अपनी फिल्में बनाने लगता है। ऐसी फिल्में सफल भी नहीं होती। लेकिन इनका उद्देश्य मुनाफा कमाना कम अपने आपको परदे पर दिखाना ज्यादा होता है।
देशी फिल्मों में काम करने वाले प्रोफेशनल कलाकारों की संख्या सीमित है। ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। निर्देशक रोल के मुताबिक उन्हें ट्रेंड करता है। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''शूटिंग शुरू करने से पहले उन्हें कलाकारों को अभिनय के गुर भी सिखाने पड़ते हैं। यह देशी फिल्मों के निर्देशकों के लिए एक चुनौती होती है। फिल्म की सफलता इस पर निर्भर करती है कि कलाकारों ने पात्रों को कितना जीवंत किया है।''
ऐसा भी नहीं है कि सारे कलाकार मुफ्त में ही काम करते हैं। कई कलाकारों ने शुरुआत तो मुफ्त या फिर मामूली मेहनताने से की थी लेकिन नाम और शोहरत मिलने से अब उन्हें 50 हजार रूपये से लेकर एक लाख रूपए तक मेहनताना मिलता है। सुमन नेगी प्रत्येक फिल्म के लिए एक लाख रूपए की मांग करती है तो भूपेंद्र तितोरिया का कहना है 'बुध्दूराम' फिल्म में बतौर नायक काम करने का मेहनताना 51 हजार रूपए मिला था। वैसे आमतौर पर कलाकारों को प्रत्येक फिल्म 5 से 10 हजार रूपए मेहनताना मिलता है। देशी फिल्मों में नायक के मुकाबले नायिकाओं को ज्यादा मेहनताना मिलता है। यह ट्रेंड बालीवुड के विपरीत है। वहां नायकों को नायिकाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा मेहनताना मिलता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली देशी फिल्मों में काम करने वाले जाने माने कलाकारों में उत्तर कुमार, संतराम बंजारा, कमल आजाद, मुन्ना बाज, भूपेंद्र तितोरिया, सुमन नेगी, पुष्पा गुसाईं, राजू प्रिन्स और पूनम त्यागी के नाम प्रमुख हैं। देशी फिल्मों में काम करने कलाकारों की भी बालीवुड के कलाकारों की तरह स्थानीय स्तर पर पहचान और ग्लैमर कायम रहता है। बकौल सुमन नेगी, ''अक्सर लोग उन्हें पहचान जाते हैं और आटोग्राफ मांगते हैं।''
देशी फिल्मों के कलाकारों का सपना भी बालीवुड पहुंचना होता है। सुमन नेगी और भूपेंद्र तितोरियाबाया मेरठ बालीवुड पहुंच चुके हैं। ये फिल्में देशी कलाकारों के बालीवुड पहुंचने की सीढ़ी भी है।
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रचनाकार – अनिल पांडेय सराय सीएसडीएस (सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़) के स्वतंत्र शोध फ़ैलो रहे हैं.
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सीडी तथा सीडी-प्लेयरों और डिज़िटल कैमकार्डरों के जमीन चाटते भावों ने निसंदेह नई रचनात्मकता को जन्म दिया है. छत्तीसगढ़ जैसे छोटे प्रदेशों में भी क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्मों का कारोबार बुलंदियों पर है. कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ी फ़िल्म लपरहा टूरा (बकबक करने वाला लड़का) मैंने देखी थी, जिसमें किसी गांव में शूटिंग की गई थी और महज चार-पाँच लोगों ने मिलकर पूरे एक घंटे की मज़ेदार फ़िल्म बना डाली थी – जिसमें न कोई स्क्रिप्ट था, न ढंग के संवाद और न ही स्टोरी लाइन. परंतु गम्मत (छत्तीसगढ़ी नाचा – या गीत संगीत युक्त नाटक) शैली में बनाई गई यह फ़िल्म दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करने में किसी भी आम बॉलीवुड की फ़िल्म से टक्कर लेती प्रतीत हो रही थी. - रविरतलामी
आपने मशहूर फिल्म शोले जरूर देखी होगी। क्या आपने वह 'शोले' देखी है जिसमें बसंती तांगे की बजाय बुग्गी (भैंसा गाड़ी) पर और गब्बर सिंह घोड़े के बजाय गधों पर आता है? वह 'धूम' फिल्म देखी हैजिसमें हाइटेक चोर सुपर रेसर मोटर साइकिल की बजाय साइकिल पर आते हैं? या फिर बंटी और बबली को भैंस चुराते देखा है? नहीं देखी है तो जरूर देखिए। आप हँसते-हँसते लोट पोट हो जाएंगे। इस फिल्म का नाम है 'देशी शोले', देशी धूम' और 'यूपी के बंटी और बबली'। इन फिल्मों की सीडी आपको देश की राजधानी दिल्ली सहित हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कहीं भी मिल जाएगी। इतना ही नहीं बालीवुड की तमाम सुपरहिट फिल्मों के देशी संस्करण भी आपको यहां मिल जाएंगे। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं देशी फिल्मों की।
संचार तकनीक के क्षेत्र में आई क्रांति ने लोगों को जन संचार माध्यमों के करीब लाने का काम किया है। अखबार, टेलीविजन और रेडियो तो घर-घर पहुंच ही चुका है, अब फिल्में भी लोगों के घरों तक पहुंच रही हैं। डीवीडी और वीसीडी ने घरों को 'होम थिएटरों' में तब्दील कर दिया है। संचारतकनीक के विकास ने देश भर में कई स्थानों पर 'नए बालीवुड' को जन्म दिया है। जहां अपनी भाषा और परिवेश को ध्यान में रखकर फिल्में बनाई जा रही हैं। देशी फिल्मों का यह सफर महाराष्ट्र के मालेगांव से शुरू होकर बाया दिल्ली मेरठ पहुंच गया है। इन देशी फिल्मों की खासियत यह होती हैकि मामूली बजट में तैयार ये फिल्में सिनेमाहाल में नहीं सीडी पर रीलीज होती हैं। यानी इन्हें सिर्फ सीडी प्लेयर के माध्यम से छोटे पर्दे पर देखा जा सकता है। ये फिल्में शहरों में कम गांवों में ज्यादा देखी जाती हैं।
देशी फिल्मों के लिहाज से बात करें तो ठेठ खड़ी हिंदी में संभवत: सबसे ज्यादा फिल्में बन रही हैं। इनमें से ज्यादातर फिल्में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनाई जाती हैं। कुछ फिल्मों का निर्माण हरियाणा में भी होता है। इनमें से ज्यादातर फिल्में हास्य प्रधान होती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की ठेठभाषा इसके लिए सबसे उपयुक्त होती है क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भाषा गुदगुदी और चुटीली है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देशी फिल्मों का कारोबार देश के दूसरे हिस्सों से शायद कहीं ज्यादा है।
मेरठ के केबल चैनलों के लिए कार्यक्रम निर्माण करने वाले अनीस भारती कहते हैं, ''मेरठ में हर महीने तकरीबन दर्जन भर नई फिल्में बन जाती हैं। करीब पचास हजार लागत वाली ये फिल्में डेढ़ से दो लाख का कारोबार कर लेती हैं।''
तीन-चार वर्षों में मेरठ में एक 'नए बालीवुड' का अवतार हुआ है। यह है 'देशी बालीवुड'। हम यहां इसी देशी बालीवुड की चर्चा कर रहे हैं। दिल्ली से सटे होने और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के समृद्ध होने के कारण मेरठ में देशी फिल्म उद्योग के फलने-फूलने में मदद मिली है। देश की राजधानी दिल्ली में फिल्म निर्माण से संबंधित उपकरण व तकनीक आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। दूसरा कारण मेरठ का रंगमंच से गहरा जुड़ाव है। मेरठ के वरिष्ठ रंगकर्मी, फिल्म निर्माता, निर्देशक और सभासद जगजीत सिंह के मुताबिक मेरठ रंगकर्मियों का गढ़ रहा है। यहां के थिएटर से निकले तमाम कलाकारबालीवुड में काम कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से यहां नाटय गतिविधियां बंद सी हो गई हैं।लिहाजा थिएटर से जुड़े लोगों ने देशी फिल्मों का निर्माण शुरू कर दिया। मशहूर निर्देशक केदार शर्मा के शागिर्द रह चुके जगजीत ने 'दोस्ती के हाथ' नामक हिंदी फिल्म का निर्माण किया है जो जल्दी ही रीलीज होने वाली है।
देशी फिल्मों को चार श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो बालीवुडफिल्मों का देशी रूपांतरण होती हैं। ऐसी फिल्मों की भरमार है। मशहूर फिल्म शोले पर आधारित अब तक यहां तीन फिल्में बन चुकी हैं। देशी तेरे नाम, देशी युवा, देशी धूम, देशी गदर और देशी हीरो नंबर वन व यूपी के बंटी और बबली आदि फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। दूसरी श्रेणी में हास्य प्रधान फिल्में आती हैं। जिनकी भाषा चुटीली व संवादों में हंसी के फौव्वारे होते हैं। हालांकि कई बार इन फिल्मों के संवाद द्विअर्थी व भाषा फूहड़ होती है। टी सीरीज की ताऊ रंगीला इस श्रेणी की सुपर-डुपर हिट फिल्म है। इसके अलावा इस श्रेणी की छिछोरों की बारात, ताऊ बहरा, ब्याह और गौंणा घोल्लू का, दुधिया हरामी, करे मनमानी रम्पत हरामी, बेवकूफ खानदान और सालीदिल्ली वाली जैसी फिल्में भी खूब देखी जाती हैं।
तीसरी श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो यहां के सांस्कृतिक ताने-बाने पर तैयार की जाती हैं। जिन्हें हम मौलिक देशी फिल्म कह सकते हैं। इनमें भी बम्बइया फिल्मों की तरह कई बार मसाला मिला दिया जाता है। ये फिल्में शालीन होती हैं। इसीलिए गांव के लोग इसे पसंद करते हैं। इन फिल्मों में सामाजिक उद्देश्य भी छिपा होता है।
'धाकड़ छोरा' इस श्रेणी की चर्चित और सुपरहिट फिल्म है। इसके अलावा निकम्मा, कर्मवीर और बुध्दूराम भी इसी श्रेणी की सुपरहिट फिल्में हैं। चौथी श्रेणी में धार्मिक फिल्में आती हैं। इनकी भी खूब मांग है। कृष्ण सुदामा, चारों धाम, माता-पिता के चरणों में, द्रौपदी चीर हरण, सतीसुनोचना और पिंगला भरथरी जैसी फिल्में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में खूब देखी जाती हैं।देशी फिल्मों का सबसे मजबूत पक्ष चुटीली भाषा और किरदारों के संवाद अदायगी का खालिस देशी अंदाज है। बालीवुड की फिल्मों का देशी रूपांतरण तो बहुत ही रोचक होता है। कहानी और संवादोंका स्थानीयकरण कर दिया जाता है। यहां देशी शोले का उदाहरण दिया जा सकता है। फिल्म का एक प्रसिध्द सीन है। वह है जब 'कालिया' जय और बीरू के हाथों पिटकर वापस आता है तो ''अब तेरा क्या होगा कालिया'' की जगह देशी शोले का संवाद देखिए। गब्बर कहता है, ''के समझ रख्या था गब्बर तने पनीर के पकोड़े खिलावगा.... तने तो गब्बर का नाम मूत में लड़ा दिया।'' इसी फिल्म में एक जगह बीरू बसंती को गब्बर के समाने नाचने को मना करता है तो गब्बर का एक डायलाग बहुत प्रसिध्द हुआ था, ''बहूत याराना लगता है।'' तो देशी शोले के गब्बर की सुनिए। वह बसंती सेकहता है, ''घणी सेटिंग लग री है।''
ऐसी फिल्मों में एक और प्रयोग किया जाता है। बालीवुड फिल्मों के पात्रों और किरदारों में 'लोकल टच' डालकर फिल्म की कहानी का स्थानीयकरण कर दिया जाता है। मसलन गोविंदा की हीरो नंबर-वन पर आधारित फिल्म देशी नंबर वन की कहानी एक गांव के बनिए (लाला) और उसके नौकरकी कहानी है। लाला नौकरी देते हुए नौकर के सामने शर्त रखता है कि अगर वह नौकरी छोड़करजाएगा तो लाला उसके नाक कान काट लेगा। नौकर भी शर्त रखता है कि अगर लाला ने उसे नौकरी से निकाला तो वह भी मालिक के नाक कान काट लेगा और उसकी बेटी से ब्याह करेगा। नौकर के रूप में होता है 'देशी हीरो नंबर वन'। वह अपने कारनामों से लाला को परेशान कर दर्शकों को खूब हंसाता है। देशी हीरो की वेश भूषा असली फिल्म के हीरो गोविंदा की नकल है। हाफ पेंट और चमकीली शर्ट के साथ देशी हीरो ने गले में टाई व कंधो पर गमछा लटका रखा है। सिर पर गांधी टोपी पहने देशी हीरो देखते ही बनता है।
इसके अलावा फिल्मों को हास्य का पुट देने के लिए दृश्यों को रोचक बनाया जाता है। जैसे शोले में गब्बर चट्टान पर खड़ा होता है तो देशी शोले में वह गोबर के उपलों के ढेर पर खड़ा होता है। दूसरी बनी 'देशी शोले' में डाकू घोड़े की बजाय गधों पर आते हैं और बंदूक की बजाय उनके हाथों में लाठियां होती हैं। फिल्मों में गाने भी होते हैं उन्हें भी देशी भाषा में अनुवादित कर दिया जाता है।
कई बार कुछ फिल्में हास्य पैदा करने के चक्कर में फूहड़ता और अश्लीलता की हदों को पार कर जाती हैं। यहां फिल्मों का जिक्र लाजिमी है। ये हैं कलियुग की रामायण और कलियुग का महाभारत। इन दोनों फिल्मों पर धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने के कारण प्रतिबंध लगा दिया गया है। कलियुग की रामायण में सीता को बीड़ी पीते हुए और राम को मुजरा सुनते हुए दिखाया गया था तो कलियुग का महाभारत में कृष्ण रथ की बजाय मोटर साईकिल पर आते हैं और अर्जुन और दूसरे योद्धा तीर धनुष की बजाय हाकी लेकर युध्द करने जाते हैं। देशी फिल्मों में बढ़ती फूहड़ता से चिन्तित जगजीत सिंह कहते हैं, ''यह सब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। लोग ऐसी फिल्मों को देखना पसंद नहीं करते।''लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसी फिल्में देखी भी खूब जाती हैं और कारोबार की दृष्टि से सफल भी मानी जाती हैं। टी सीरीज ने छिछोरों की बारात' नामक एक फिल्म बनाई और खूब बिकी। इस फिल्म केनिर्देशक एस. गोपाल टाटा ने फिल्म का नाम सुनकर पहले तो इसे बनाने से इनकार कर दिया। लेकिन बाद में व्यावसायिक मजबूरियों के चलते जब फिल्म बनाई तो यह चल निकली। बकौल श्री टाटा, ''इस फिल्म को देखकर जब लोग मेरी तारीफ करते हैं तो मुझे अपने आप पर हंसी आती है।''देशी फिल्मों का कारोबार निकटता के सिद्धांत पर आधारित है। अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त युवा निर्देशक यतीश यादव इसे भारतीय लोगों के अपनी संस्कृति से गहरे लगाव के रूप में देखते हैं। उनके मुताबिक, ''भारतीयों को अपनी जमीन और भाषा से बड़ा प्यार होता है। यही वजह है कि मेरठ का दूधिया या किसान अमोल पालेकर की 'पहेली' की बजाय 'धाकड़ छोरा' देखना ज्यादा पसंद करेगा। इसमें उन्हें अपनापन सा लगता है।
देशी फिल्मों के निर्माण और प्रचलन का एक महत्वपूर्ण कारण गांवों से मनोरंजन के पारंपरिक साधानों मसलन लोक नृत्य, लोक गीत व नाटकों का लुप्त होना है। गांव के लोक कलाकार रोजी रोटी कीतलाश में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसे में शाम को चौपालों पर 'गवइयों' की जगह अब देशी फिल्मों ने ले ली है। सचार क्रांति ने इसे और भी आसान बना दिया है।
बालीवुड की पहुंच शहरों तक है। देशी बालीवुड ने मुंबई और गांव की दूरी को कम कर दिया है। इसनेफिल्मों को गांवों तक और सही कहें तो आम लोगों तक पहुंचा रहा है। देशी बालीवुड ने साबित करदिया है कि फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माध्यम है। अभी तक इसका उपयोग केवल मनोरंजन के लिएकिया जा रहा है। जबकि सामाजिक चेतना पैदा करने और लोगों को जागरुक करने में इस माध्यम को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
कैसे बनती हैं फिल्में
तकनीक और गुणवत्ता के आधार पर देशी फिल्मों को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो गुणवत्ता व तकनीकी दृष्टि से बेहतर होती हैं। इन फिल्मों की समयावधि 2 से 3 घंटे होती है। प्रोफेशनल कलाकारों के साथ यह फिल्म बनाई जाती है। इसे बनाने में 2 से 3 लाख रूपए खर्च होते हैं। 20 से ज्यादा देशी फिल्मों के निर्देशक के रूप में काम कर चुके एस.गोपाल टाटा के मुताबिक, ''अच्छी फिल्म बनाने में करीब एक महीने का वक्त और करीब तीन लाख रूपये खर्च होते हैं। 10 दिन शूटिंग में लगते हैं और करीब 15 दिन पोस्ट प्रोडक्शन में।''
दूसरी श्रेणी की फिल्में गुणवत्ता और तकनीक के हिसाब से कमतर होती हैं। ये फिल्में 50-60 हजार रूपये में तैयार कर ली जाती हैं। कई लोग तो 30 से 40 हजार रूपए के बजट में भी फिल्में बना लेते हैं। कई बार तो फिल्मों का निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार व अभिनेता एक ही व्यक्तिहोता है। ये फिल्में 'वन मैन शो' की तरह होती हैं। शादी वाले कैमरे से पूरी फिल्म शूट कर ली जाती है। कई बार कुछ लोग मिलकर पैसा इकट्ठा कर भी फिल्में बना लेते हैं। मेरठ के पास स्थित सरधाना में एक सिनेमाहाल के मालिक जीसान कुरैशी बताते हैं कि उनके यहां के चार लड़कों ने आपस में पैसा इकट्ठा कर फिल्म बनाई है। हीरो भी उनमें से एक है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आजकल यह आम बात है।
कैसे होता है देशी फिल्मों का कारोबार
देशी फिल्में सीडी के जरिए लोगों तक पहुंचती हैं। एक फिल्म के सीडी की कीमत 25 से 50 रूपए के बीच होती है। यह फिल्म की गुणवत्ता और समयावधि पर निर्भर करती है। देशी फिल्में ज्यादातरग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश, दिल्ली देहात और हरियाणा, जहां येफिल्में देखी जाती हैं, के किसानों की गिनती समृध्द लोगों में होती है। यहां के गांवों में बिजली पहुंच चुकी है। लोगों के घरों में टीवी और सीडी प्लेयर तो आम बात है। वीडियो पार्लर भी यहां खूब फल फूल रहे हैं। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''चाइनीज सीडी वडीवीडी प्लेयर ने देशी फिल्म उद्योग को फलने-फूलने में बड़ी सहायता की है। काफी सस्ता होने की वजह से यह आम लोगों के घरों तक पहुंच चुका है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में तो देशी फिल्मों की सीडी तो मिलती ही है। दिल्ली केपालिका बाजार और लाजपत राय मार्केट में भी इनकी सीडी खूब बिकती है। पालिका बाजार में सीडी बेचने वाले दुकानदार प्रमोद के मुताबिक वह हर रोज पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली देशीफिल्मों की 60-70 सीडी बेच लेता है। प्रमोद कहते हैं, ''ये फिल्में केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोग ही नहीं खरीद कर ले जाते, क्योंकि इनमें ज्यादातर फिल्में हंसने हंसाने की होती हैं, इसलिए दूसरे लोग भी इन फिल्मों को खूब देखते हैं।
देशी फिल्म उद्योग भी उसी संकट से गुजर रहा है जिससे बालीवुड। देशी फिल्मों की भी 'पायरेटेड सीडी' काफी सस्ते में बाजार में उपलब्ध हो जाती है।देशी फिल्मों के निर्माण व विपणन से जुड़ी सोनोटे कंपनी के मालिक व निर्माता-निर्देशक हंसराज के मुताबिक इससे फिल्म निर्माताओं को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। नकली सीडी असली सीडी के मुकाबले आधी कीमत पर बाजार में उपलब्ध हो जाती है।
कहां से आते हैं कलाकार
देशी फिल्मों में काम करने वाले ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। इनमें से ज्यादातर कलाकारों को कोई मेहनताना नहीं दिया जाता है। ये कलाकार बस पर्दे पर किसी तरह दिख जाएं, इसी उद्देश्य से काम करते हैं। देशी फिल्मों के अभिनेता भूपेंद्र तितारिया की मानें तो कई लोग उलटे पैसे देकर इन फिल्मों में काम करते हैं। श्री तितारिया के मुताबिक ग्लैमर और फिल्मी दुनिया की चकाचौंध लोगों को आकर्षित करती है और हर कोई अपने को पर्दे पर देखना चाहता है। यही वजह है किपश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिसके पास थोड़ा पैसा हुआ वह बतौर हीरो अपनी फिल्में बनाने लगता है। ऐसी फिल्में सफल भी नहीं होती। लेकिन इनका उद्देश्य मुनाफा कमाना कम अपने आपको परदे पर दिखाना ज्यादा होता है।
देशी फिल्मों में काम करने वाले प्रोफेशनल कलाकारों की संख्या सीमित है। ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। निर्देशक रोल के मुताबिक उन्हें ट्रेंड करता है। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''शूटिंग शुरू करने से पहले उन्हें कलाकारों को अभिनय के गुर भी सिखाने पड़ते हैं। यह देशी फिल्मों के निर्देशकों के लिए एक चुनौती होती है। फिल्म की सफलता इस पर निर्भर करती है कि कलाकारों ने पात्रों को कितना जीवंत किया है।''
ऐसा भी नहीं है कि सारे कलाकार मुफ्त में ही काम करते हैं। कई कलाकारों ने शुरुआत तो मुफ्त या फिर मामूली मेहनताने से की थी लेकिन नाम और शोहरत मिलने से अब उन्हें 50 हजार रूपये से लेकर एक लाख रूपए तक मेहनताना मिलता है। सुमन नेगी प्रत्येक फिल्म के लिए एक लाख रूपए की मांग करती है तो भूपेंद्र तितोरिया का कहना है 'बुध्दूराम' फिल्म में बतौर नायक काम करने का मेहनताना 51 हजार रूपए मिला था। वैसे आमतौर पर कलाकारों को प्रत्येक फिल्म 5 से 10 हजार रूपए मेहनताना मिलता है। देशी फिल्मों में नायक के मुकाबले नायिकाओं को ज्यादा मेहनताना मिलता है। यह ट्रेंड बालीवुड के विपरीत है। वहां नायकों को नायिकाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा मेहनताना मिलता है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली देशी फिल्मों में काम करने वाले जाने माने कलाकारों में उत्तर कुमार, संतराम बंजारा, कमल आजाद, मुन्ना बाज, भूपेंद्र तितोरिया, सुमन नेगी, पुष्पा गुसाईं, राजू प्रिन्स और पूनम त्यागी के नाम प्रमुख हैं। देशी फिल्मों में काम करने कलाकारों की भी बालीवुड के कलाकारों की तरह स्थानीय स्तर पर पहचान और ग्लैमर कायम रहता है। बकौल सुमन नेगी, ''अक्सर लोग उन्हें पहचान जाते हैं और आटोग्राफ मांगते हैं।''
देशी फिल्मों के कलाकारों का सपना भी बालीवुड पहुंचना होता है। सुमन नेगी और भूपेंद्र तितोरियाबाया मेरठ बालीवुड पहुंच चुके हैं। ये फिल्में देशी कलाकारों के बालीवुड पहुंचने की सीढ़ी भी है।
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रचनाकार – अनिल पांडेय सराय सीएसडीएस (सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवलपिंग सोसाइटीज़) के स्वतंत्र शोध फ़ैलो रहे हैं.
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सीडी तथा सीडी-प्लेयरों और डिज़िटल कैमकार्डरों के जमीन चाटते भावों ने निसंदेह नई रचनात्मकता को जन्म दिया है. छत्तीसगढ़ जैसे छोटे प्रदेशों में भी क्षेत्रीय भाषा की फ़िल्मों का कारोबार बुलंदियों पर है. कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ी फ़िल्म लपरहा टूरा (बकबक करने वाला लड़का) मैंने देखी थी, जिसमें किसी गांव में शूटिंग की गई थी और महज चार-पाँच लोगों ने मिलकर पूरे एक घंटे की मज़ेदार फ़िल्म बना डाली थी – जिसमें न कोई स्क्रिप्ट था, न ढंग के संवाद और न ही स्टोरी लाइन. परंतु गम्मत (छत्तीसगढ़ी नाचा – या गीत संगीत युक्त नाटक) शैली में बनाई गई यह फ़िल्म दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करने में किसी भी आम बॉलीवुड की फ़िल्म से टक्कर लेती प्रतीत हो रही थी. - रविरतलामी
बहुत अच्छा लेख, पढ़ने के बाद इन फ़िल्मों को देखने की इच्छा तीव्र हो गयी है, परन्तु हमारे यहाँ हैदराबाद में एसी फ़िल्में नही मिलती
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख.
जवाब देंहटाएंइससे यह भी साबित होता है कि आज भी लोगों को हास्य खिंचता है.
जो जितना हसाँयेगा, उतना कमायेगा.
बहुत बढ़िया...मैं इन फ़िल्मों पर डाक्यूमैंट्री बना रहा हूं अगर कोई और सूचना हो तो इस पते पर जानकारी दें ....मुझे मदद मिलेगी
जवाब देंहटाएंvikalptyagi21@gmail.com