**-** - एन. के. राय उस जिले के कप्तान साहब आंग्ल-भारतीय सज्जन थे. उनका रहन-सहन राजा-महाराजों-जैसा था. अंग्रेज तो भारत छोड़ गए थे, परन्तु उनक...
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- एन. के. राय
उस जिले के कप्तान साहब आंग्ल-भारतीय सज्जन थे. उनका रहन-सहन राजा-महाराजों-जैसा था. अंग्रेज तो भारत छोड़ गए थे, परन्तु उनका तौर-तरीका अँग्रेज़ों जैसा ही था. वे अपने को सामान्य जनता का शासक और प्रभु समझा करते थे. उसी प्रकार अहमन्य थे. तनख्वाह के रुपयों में गुजारा होना संभव नहीं था, इसलिए उत्कोच लेने में सकुचाते न थे.
उनकी मेम साहब तो और भी भयानक थीं. ...वे अकसर बाजार में जाकर सामान खरीदा करती थीं. साथ कोतवाल रहा करता. कीमत न देकर महीन स्वर में कहा करतीं, ‘बिल साहब को भेज देना...’
साहब उन मूर्खों में से नहीं थे जो बिल का भुगतान करते! मामला फैल रहा था. मेम साहब की गाड़ी जिस दुकान पर रुकती, उसका दुकानदार सोंठ हो जाता – अब देखो, कितना सामान लेती हैं.
एक बार वे एक ऐसी गली में खरीददारी कर रही थीं जो संकरी थी और जहाँ सर्राफ़े की दुकानें भी थीं. वहां सवारियों के आने-जाने में बड़ी परेशानी होने लगी. मगर मेम साहब को गाड़ी हटाने के लिए कौन कहे?
वहीं से एक दो पन्ने का संवादपत्र निकलता था. उनके पत्रकार संपादक और प्रकाशक एक सज्जन थे. उन्हें जर्नलिज्म का खब्त था. पत्र-प्रकाशन का खर्च अदालती सम्मन और विज्ञापन से निकलता था.
स्थानीय समाचार वे छापा करते थे. विशेष रूप से लच्छेदार समाचार – वे जानते थे, उनका अख़बार इसी प्रकार की खबरें छापने से बिकेगा. इसलिए खोजकर मनोरंजक समाचार एकत्र किया करते थे. जिले के विभिन्न विभागों के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायतों को उपयुक्त टिप्पणी के साथ वे अवश्य छापते!
एक बार उन्होंने अपने पत्र में लिखा- स्थानीय कप्तान साहब की मेम साहिबा अकसर सरकारी गाड़ी पर हीरा-मोती खरीदने जाया करती हैं, और गाड़ी इस तरह सड़क पर खड़ी करती हैं कि यातायात रुक जाए.
कप्तान साहब तो ‘गटर प्रेस’ की हिम्मत देखकर बौखला उठे. “अभी ऐक्शन मांगता – साला गटर प्रेसवाला हमारा मेम साहब का इनसल्ट करेगा और हम चुप रहेगा? – हरगिज नहीं.”
सम्पादकजी स्थानीय राजा ओयल साहब के सर्वेन्ट क्वार्टर में किराएदार थे. किसी जमाने में जब राजा-रजवाड़ों का बोलबाला था तो असंख्य नौकर-चाकर थे और कदाचित् वे सब उन क्वार्टरों में रहा करते थे. जमींदारी – उन्मूलन के बाद राजा-रजवाड़ों ने नौकर – चाकरों को विदा करके व्यय संकोच किया और उन परित्यक्त क्वार्टरों को भाड़े पर उठा दिया.
चार-पाँच साल से सम्पादकजी उसमें रहा करते थे. और राजा साहब को किराया अदा करते थे. छपी हुई रसीद मिलती थी. दिन भर समाचार संग्रह करने, पेपर छपवाने और बेचने में लग जाया करता. केवल रात को चन्द घण्टे घर पर विश्राम करते थे. इसलिए आसपास के लोगों से विशेष परिचय नहीं था, अन्तरंगता कौन कहे!
उस दिन रात को थका-मांदा वह लौटा तो देखा, उसका क्वार्टर खुला है और उसमें कोई औरत बैठी है! उसे आश्चर्य हुआ – कौन है यह औरत? उसका ताला किसने खोला? आगे बढ़कर उसने उस रमणी से पूछा, “तुम कौन हो जी?” उस औरत ने उखड़कर प्रश्न किया, “तू कौन है? अकेली औरत से बतियाने आता है!”
अपने ही घर में बाहरी औरत और उसी से पूछती है कि वह कौन है? वाह री हिम्मत! सम्पादकजी उखड़ गए. दिन-भर मेहनत के बाद घर लौटकर विश्राम करेंगे कि यह बवाल! वे बड़े नाराज हुए. कठोर स्वर में बोले, “मेरे घर के अन्दर तुम घुसी कैसे? मैं तुमको पुलिस के हवाले करूंगा.”
वह भला पुलिस के नाम से क्यों डरती! उसने भी बौखलाकर जवाब दिया, “हरामी, पुलिस का डर दिखाता है मुझे?” कर्कश स्वर ध्वनित हो उठा.
गाली सुनकर सम्पादक जी तिलमिला उठे, बोले, “ठहर जा, मैं अभी तुझे गर्दन पकड़ कर निकाल बाहर करता हूँ.” – कहते हुए अकड़ कर सम्पादकजी जो आगे बढ़े कि वह मुसम्मात चिल्ला पड़ी, “अरे कोई बचइहो – यह मुआ मेरी इज्जत लूट लिया...” और अंधेरे में पहले से आत्मगोपन किए हुए सिपाही फौरन ‘मार’ ‘मार’ कहते हुए निकल आए और सम्पादकजी को पकड़कर पिटाई शुरू कर दी, “साला, बहू-बेटी छेड़ता है. घर में घुसकर औरतबाजी करेगा” - प्रभूति टिप्पणियों के साथ निर्मम पिटाई आरंभ की. हल्ले गुल्ले में सम्पादकजी की कौन सुनता! पीटने के बाद उन्हें थाने ले जाकर बन्द कर दिया.
मुकदमा कायम हो गया – शीलभंग के इरादे से अनधिकार प्रवेश!
उस बेचारे के खिलाफ चार्जशीट पुलिस ने लगा दी. उसकी बातों पर दारोग़ाजी ने रंचमात्र ध्यान नहीं दिया कि बहुत दिनों से वह राजा साहब के किराएदार के रूप में रह रहा है, जाँच कर ली जाए! उस औरत से मकान का कोई मतलब नहीं था. उसे वे जानते तक नहीं थे. उस रमणी ने इल्जाम लगाया कि वह उस घर की मालकिन है – यह आदमी रात को घुसकर उससे छेड़खानी करना चाहता था – लोगों ने बचाया.
पर मुक़दमे के दौरान रमणी लापता थी. पुलिसवाले दिन-भर के बाद शाम को तारीख लेकर चले जाया करते थे. कचहरी में हज़ारों आदमी आया-जाया करते थे. पत्रकार महोदय को देखकर पूछा करते, कैसे वहाँ हैं? और यह कहने में वे लज्जा से गड़ जाते कि औरत छेड़ने के केस में उनका चालान हुआ है. उसके बाद जब वे विस्तार में अपनी बेगुनाही सिद्ध करने को उद्यत होते तो श्रोता बहाना बनाकर खिसक जाता, शायद यह सोचकर कि सभी लम्पट सफाई दिया करते हैं. साला आवारा, पत्रकारिता की आड़ में मौज कर रहा है!
उनका कामधाम बन्द हो गया. मुक़दमे की पैरवी करे कि पत्रकारिता करे? मैं समझ गया, मुकदमा झूठा है! उनकी परेशानी देखकर मैं पसीजा. यद्यपि क़ानूनन मुझे साक्ष्य सुनने से पहले निर्णय करने का अधिकार नहीं था – फिर भी मैंने उन्हें दोषमुक्त कर दिया.
मैंने उनसे कहा कि वह कहीं और चले जाएं, क्योंकि कप्तान की दुश्मनी.... अधिक नहीं कहना पड़ा. छूटने के बाद नगर छोड़कर वे खुद ही चले गए.
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रचनाकार – एन.के.राय प्रसिद्ध कानून विद् रहे हैं. प्रस्तुत संस्मरण उनकी प्रकाशित पुस्तक ‘पुलिसनामा’ से साभार.
बहुत ही अच्छा, बिलकुल वास्तविकता के करीब
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