परिकथाओं सी मोहक तारों भरी वह रात-इतनी संपूर्ण और जादूभरी थी कि उसके आकर्षण की डोर में बंधे हम सभी गोल-गोल घेरा बनाकर बैठ गए. मंद-मंथर बहती ...
परिकथाओं सी मोहक तारों भरी वह रात-इतनी संपूर्ण और जादूभरी थी कि उसके आकर्षण की डोर में बंधे हम सभी गोल-गोल घेरा बनाकर बैठ गए. मंद-मंथर बहती हवा, महकते बेला फूल और देवदारू के झुटपुटों से छनकर आती चांदनी ..हम पर अलौकिकता का वह दौरा पड़ा कि हम सभी रोटी-लंगोटी की बात भूल जीवन और अनुभूतियों की बातें करने लगे. एकाएक श्यामली दी ने मुझसे पूछा, जानते हो दुनिया का सबसे बड़ा सुख क्या है? मैं गोबर गणेश की तरह आसमान की ओर ताकने लगा, जैसे वहीं से उतरेगा कोई जवाब. वे मुसकराई और बोली, दुनिया का सबसे बड़ा सुख है निस्वार्थ सात्विक सुख.
हमारी टोली के सबसे छोटे सदस्य श्रीकांत के माथे पर सिलवटें गहराई, यह किस चिड़िया का नाम?
ज़िंदगी का सारा रहस्य जान लेने वाले आत्मविश्वास के साथ वे मुस्कराई, 'जिसने यह नहीं जाना, जानो उसका जीवन डस्टबिन पर मंडराते आत्मतृप्त कॉकरोच-सा.'श्रीकांत ताव खा गया, 'तो बताइए, आपने ही कब भोगा इसे?' कुछ उस रात का तिलिस्म, कुछ हमारा आग्रह..रफ्ता-रफ्ता श्यामली दी पीछे घूम गई. रसीले फानूस आम की तरह टप-टप टपकती स्मृतियां. चांदनी सी एक उज्ज्वल रेखा उनके अधरों पर उभरी.सरसराते पत्तों की आवाज़ों के बीच गूंजने लगी उनकी आवाज़-
''मेरे जीवन के सबसे मचलते हुए दिन थे वे. पक्षी की पहली उड़ान की तरह ही रोमांचित. मैं उन दिनों सिनी आशा में थी.''सिनी आशा? वह क्या?'' मैंने और श्रीकांत ने एक साथ पूछा.''कोलकाता में रहते हो और 'सिनी आशा' का नाम नहीं जानते?''स्ट्रीट चिन्ड्रेन के लिए सबसे नामी- स्वयं-सेवी संस्था है यह सिनी आशा. उन्होंने दाएं हाथ की चूड़ियां ऊपर खिसकाई और फिर प्रवाह में बहने लगी-
हां, तो मैं बता रही थी कि अनुभवों की पूंजी बटोरने के वे मेरे सबसे समृद्ध दिन थे..हर दिन कुछ-न-कुछ अजूबा देखने को मिलता. पहले दिन ही मज़ा आ गया. जैसे ही सिनी आशा की दहलीज पार करने लगी कि देखा बाहरी दीवाल पर किसी मसखरे ने लिख मारा था, 'देखो, देखो, गधा मूत रहा है.' मैं अवाक् इतनी साफ़-सफ़ाक सफेद दीवाल पर कोयले से यह किसने लिख मारा? सुरक्षा गार्ड ने हँसते हुए बताया, 'यह 'तपती' दी की खोपड़ी से निकला है. जिसको देखो जीप खोलता और गंगाजल बहा देता..रात को मारे बदबू के हम लोग सोने न सकता. कितनी ही बार लिखा, 'पिसाब' करना मना..पर कौन सुनता..सो तपती दी ने गुस्साकर ऐसा लिख मारा.' बहुत ख़ूब. मैं ऊपर पहुंची तो देखा झुंड के झुंड में पसीने की गंध से बजबजाती, उठंग साड़ी पहने क़रीब चालीस-पचास महिलाएं एक बड़े से कमरे में उजबक की तरह बैठी हुई हैं. पता चला सियालदह प्लेटफार्म, झुग्गी-झोंपड़ियों और फुटपाथों पर रहने वाली ये वे महिलाएं हैं जिनके बच्चे सिनी आशा द्वारा किसी चैरिटेबिल या अर्द्ध चैरिटेबिल हॉस्टल में भेज दिए गए हैं. इन सबके बीच तृप्ति दी बड़े तृप्त भाव से उन्हें समझा रही थी-दया करके आपलोग महीने में कम-से-कम एक बार अपने बच्चों से अवश्य मिलने जाएं..आपको ताकते-ताकते आंखें बाहर निकल आती है बेचारों की.
इधर माताएं मुड़ीं कि उधर तृप्ति दी फिर चालू-अब इन्हें भी क्या दोष दूं..यहां हर चीज़ का टोटा, अब बच्चों को मुफ्त हॉस्टल में डाल भी दिया तो जाने-आने के भाड़े का जुगाड़ मुश्किल..और किसी के पास भाड़े का जुगाड़ हो गया तो दिन-भर की खटनी से समय निकाल पाना और भी मुश्किल. तो यह तो है हाल..कमर में पल्लू खोंसते हुए तृप्ति दी ने चिंता भरे स्वर में कहा.'यह तो है हाल' तृप्ति दी का, सबसे प्यारा जुमला था, जिसे वे गाहे-बगाहे जब-तब हर व्यक्ति और स्थिति पर जड़ दिया करती थी. उस दिन शाम को वे घर के लिए मेरे साथ ही निकली. मौक़ा पाकर मैंने पूछा-यह सिनी आशा क्या किसी बंगाली बाबू की देन है. वे फिर चालू हो गई-अरे नहीं, यह तो किसी आयरलैंडवासी ने बनवाया था. अब देखो, यह तो है हाल, आया तो था यहां तफरीह करने, आत्मा-परमात्मा, जन्म-पूर्वजन्म, मंदिरों और विभिन्न आस्थाओं वाले इस देश को जानने-बूझने, पर मन रमा यहां की कालाहांडी में. कहते हैं कि धूल में रेंगते-रिसते, फुटपाथों पर रोते-कलपते, बच्चों, नशे एवं कुटेवों के शिकार किशोरों और लालबत्ती इलाक़ों की ज़ख्म खाई किशोरियों को देख वह विचलित हो उठा और और उसने इस संस्था की नींव डाली और जाते-जाते कह गया..जिस परम तत्व और परमात्मा की खोज में मैं आया था, उसके मर्म को पा लिया..
पान की गिलौरी को दाएं से बाएं घुमाते हुए वे फिर चालू हो गई-अब तुम्हीं देखो, इतने बड़े कोलकाता में जितने भी नशेड़ियों, फुटपाथियों और अनाथ बच्चों, दबे-कुचले बच्चों या वासना की शिकार हुई युवतियों के लिए स्वयंसेवी संस्थान हैं वे सब ईसाइयों द्वारा स्थापित हैं, तो यह है हाल..हम भारतीयों को तो पूजा-पाठ, धर्मशालाएँ, तीर्थ-यात्रा और मंदिर-निर्माण से ही कहां फुरसत है.'इन्हें विदेशों से फंड मिल जाता है' मैं बीच में ही बोल पड़ी थी.
मुझे तेजी से काटते हुए कहा, न..न..ऐसी बात नहीं, वरना मुझे तो लगता है कि यह इसलिए है कि इन्होंने धर्म को जीवन और रोटी से सीधा जोड़ इसे फुटपाथों और झुग्गी-झोपड़ियों तक पहुंचाया है जबकि हमने धर्म की ऊंची उड़ानें भरी है. अपने परिष्कृत रूप में हमारे यहां धर्म की शुरुआत अंतर्यात्रा से होती हुई अंत:करण की शुद्धता और परम तत्व की प्राप्ति पर ख़त्म हो जाती है. अब तुम्हीं देखो..उस आयरलैंडवासी के हृदय में कितनी मानवीय और महीन बात आई कि जिन किशोरियों को हम भविष्य नहीं दे सकते कम-से-कम रात भर के लिए नाईट-शेल्टर की व्यवस्था कर उन्हें भविष्य के लिए बचाकर तो रख सकते हैं.
पान की गिलौरी को बाएं से दाएं घुमाते हुए किसी तत्व-दर्शक की तरह फिर उन्होंने एक पते की बात कही-जानती हो श्यामली, मैं कई बार सोचती हूं कि हमारे यहां क्रिश्चिएनिटी जैसे स्थूल धार्मिक सिध्दांतों की ज़रूरत है क्योंकि हम तो अभी तक रोटी और लंगोटी की ज़रूरत से ही ऊपर नहीं उठ पाए हैं और उनको चेतना, अन्तरात्मा, वेदान्त और उपनिषद् की..जिससे अतिभोग और अतिचार के मारे वे यहां की त्याग और तपस्या की अवधारणा से संतुलित और अनुशासित हो सकें.
बात पूरी कर भी नहीं पाई थी तृप्ति दी कि तभी हल्का सा हो-हल्ला सुनाई दिया. एक फील्ड वर्कर दौड़ती आई-तृप्ति दी-तृप्ति दी, झुनिया और मंगला के माई-बाप आए हैं.कमर में पल्लू खोंसे जीवन से झल्लाई किसी बूढ़ी की तरह तृप्ति दी फिर बड़बड़ाई-जीना हराम कर रखा है इन लोगों ने. सीढ़ी की रेलिंग को पकड़े किसी बोरी की तरह लुढ़कते-ठुमकते तृप्ति दी नीचे ऑफ़िस में.
जिंदगी का बोझ लिए झुनिया के पिता ने हाथ जोड़े. थोड़ी ही देर बाद खोखले तने की तरह सूखी एक मरगिल्ली स्त्री भीतर आई और उस पुरुष के पार्श्व में सहमी-सी सिमटी बैठ गई. हवा में कडघवे तेल और पसीने की मिली-जुली गंध फैल गई.अपनी भेदती तिरछी आंखों से तृप्ति दी ने दोनों का ऊपर से नीचे तक का मुआयना किया. उनकी बदहवासी और घबड़ाहट देख तृप्त हुई और फिर कड़कती आवाज़ में गरजी-बेटियां हैं या शैतान की औलाद! क्या खाकर पैदा किया था? दुर्गा-दुर्गा, हमारे तो स्टाफ की जान ही चली जाती..आपनि एक्खुन ही निये जान..दरकार नहीं बाबा (आप अभी तुरंत ले जाइए इन्हें..हमें ज़रूरत नहीं इनकी) मांगो कि, दुस्साहस! (बाप रे! कितना दुस्साहस).
दोनों के चेहरों पर काली रात का अंधेरा पसर गया. आख़िर उस पुरुष ने हिम्मत कर हाथ जोड़ते हुए मुंह खोला, माई-बाप बस एक बार दया करें. इन लड़कियों का उतना दोष नहीं, हम लोगन ने ही उन्हें समझाया था कि किसी भी अनजान आदमी के साथ मत निकलना-वे बच्चा-चोर होते हैं, बच्चों को मार डालते हैं..बोलते-बोलते वह अपनी उठंग धोती के छोर से माथे पर उग आए पसीनों को पोंछने लगा.सामने से टूटा हुआ दांत और चेहरे का पिलपिलापन उसे अजीब बना रहा था...
क़िस्सा कोताह यह कि मंगला और झुनिया का पिता रंग मिस्त्री था और मां सब्जी बेचती थी. दोनों बच्चियां घर में अकेली रहती थीं, इस कारण उनके पिता ने उन्हें समझाया था कि वे किसी भी अनजान स्त्री-पुरुष के साथ नहीं हो लें. इस बीच पाड़े (मुहल्ले) के किसी ने रंग-मिस्त्री को सिनी आशा के बारे में बताया. सिनी आशा द्वारा उसकी दोनों बेटियों को लक्खीपुर स्थित काकदीप हॉस्टल (सियालदह से 90 किलोमीटर दूर, अर्ध्द चैरिटेबल हॉस्टल) में भेज दिया गया. मां-बाप भी हॉस्टल साथ गए. मां-बाप को वापस लौटते देख दोनों फूट-फूटकर रोने लगीं तो रंग मिस्त्री ने दोनों बेटियों के हाथ में दस-दस का एक-एक नोट थमा दिया और खुद सियालदह लौट आए.
आज़ाद परिन्दे की तरह दिन भर सड़क पर गश्त लगाने की दोनों की आदत..और हॉस्टल की नियमों वाली सख्त ज़िदगी. उस पर वार्डन की मार-पीट, डांट-फटकार और चौबीस घंटों की झिकझिक-झिकझिक. दोनों बच्चियों को घर बुरी तरह पुकारता और उस पर हाथ में बीस रुपए की पूंजी का भोला विश्वास. एक शाम दोनों हिम्मत कर हॉस्टल से भाग खड़ी हुई. जैसे-तैसे वे स्टेशन तक पहुंची, पर स्टेशन पर भीड़-भाड़ और ट्रेनों की कतार देख रोने लगीं.
बच्चियों को रोता देख किसी ने उन्हें थाने तक पहुंचा दिया. थाने वालों ने बच्चियों से पूछताछ की. उन्हें सिनी आशा की हॉट लाईन की जानकारी थी. पिछले बीस वर्षों में सिनी आशा ने अच्छा-खासा नेटवर्क तैयार कर लिया था. ओ. सी. ने नंबर घुमाया-1098 और झुनिया और मंगला के बारे में जानकारी दी. सिनी आशा वालों ने लड़कियों को थाने में ही रुकवा कर रखा और अपनी एक महिला स्टाफ को भेज दिया उन्हें लाने के लिए. महिला कार्यकर्ता दोनों लड़कियों को लेकर ट्रेन में बैठी, जैसे ही ट्रेन छूटी दोनों लड़कियां भयभीत हो गला फाड़ने लगीं-हम इस मैडम को नहीं जानते, पता नहीं ये हमें कहां ले जाएंगी. ये हमें बदमाशों को बेच देंगी. ट्रेन यात्रिायों ने भी अपना 'यात्राी-धर्म' निभाते हुए 'बच्चा चोर' 'बच्चा चोर' का हल्ला मचाया और देखते-देखते महिला की जूते-चप्पलों और घूसों से ठुकाई होने लगी. उत्तोजित और विचार-शून्य भीड़ से महिला ने हाथ जोड़कर विनती की-मुझे थाने ले चलिए. सच्चाई का पता चल जाएगा.-थाने वाने में कुछ नहीं होता, वहां तो कुर्सी पर चोर-डकैतों की मांएं बैठी हैं. जो होना है यहीं हो जाए, फेंक दो साली को चलती ट्रेन से.
पर उसी भीड़ में एक-दो का विवेक भी उनके साथ था. उन्हें लगा, महिला निर्दोष है. उन्होंने किसी प्रकार बीच-बचाव करते हुए महिला को थाने तक जिंदा रखा.घटना का बखान करते-करते तृप्ति दी फिर अपने मूल एजेंडे पर आ गई और मुझसे कहने लगी-श्यामली, तुम इन सब बच्चों की केस हिस्ट्री लिखो. कुछ की तो लगभग तैयार है, बस तुम्हें उन्हें फिर से टाईप करवाकर फाइल करनी है. पर कुछेक की केस हिस्ट्री आधी परती है. तुम्हें उनकी फाइल पूरी करनी है. पर इन बच्चों में सबसे टेढ़ी लकीर है पिंकी. बाप रे! साल भर हो गया उसे यहां आए पर उसकी फाइल अभी तक आगे नहीं बढ़ी. अरे, पलक झपकते जितना आसान नहीं है उसकी फाइल तैयार करना.पिंकी? पिंकी कौन? वही घुंघरूवाली?
तृप्ति हँस पड़ी. आंखों में मद झलका-हां, हां शेई, घुंघरूवाली (हां, हां, वही घुंघरूवाली).ध्यान आया, जब पहली बार पिंकी के दीदार हुए तो उसके पांवों में घुंघरू बंधे हुए थे. नृत्य और संगीत जैसे उसकी रगों में था. दिन में एक बार वह नृत्य अवश्य करती थी और तब पूरा सिनी आशा उसकी रुनझुन की मादक-मादक झंकार से गूंज उठता था. यहां के फुटपाथी बच्चों के बीच किसी दूसरे सौर मंडल की नक्षत्रा सी अलग से झिलमिलाती थी वह. हरेक हृदय में यौवन और सौंदर्य के स्वप्न जगाती वह जिधर से भी गुजरती, दिलचस्प आंखें उठ जाती थीं उसकी ओर.वह मूक-मौन, पर चेहरा बोलता हुआ.
थोड़ी देर बाद ही किसी भारी-भरकम बोरी की तरह लुढ़कते-ठुमकते तृप्ति दी फिर मेरे पास आई और गुलाबी रंग की एक फ्लैट फाइल पकड़ाते हुए मुझसे बोली-लो पढ़ लो इसे, पिंकी के बारे में हम लोगों ने जो कुछ भी जाना है, वाया दिस फाइल.वे फिर फुसफुसाई-यह लड़की अपने कूल-किनारे छूने तक नहीं देती, बहुत सावधानी से बात करना इससे. भई, सभी अपने हगे-मूते पर मिट्टी डालते हैं. पिंकी भी क्या करे. इसकी मां सोनागाछी में रहती है. अरे मां क्या मां के नाम पर कलंक है. खुद रंडी बनी और पिंकी को भी उसी नरक में घसीटा. पिंकी की फाइल में स्पष्ट लिखा है कि 11 वर्ष से 14 वर्ष की उम्र तक उसके साथ कई बार बलात्कार हुआ और वह भी उसकी मां के ग्राहकों द्वारा ही. सबसे पहले वह 'ऑल बंगाल चिल्ड्रेन वेल्फेयर होम' में थी. वहां पर उसकी किसी सहेली को पिंकी की मां के बारे में पता चल गया था. एक दिन उसने पिंकी से पूछ डाला-तोर मां की वेश्या छीलो. (तुम्हारी मां क्या वेश्या थी) बस पिंकी के चोले को फाड़कर एक नई पिंकी निकली और गुस्से में उस लड़की का सिर दीवाल से भिड़ा दिया. इस घटना के बाद उसकी फाइल में लिख दिया गया-मेंटल केस और उसी आधार पर उसे अंताराग्राम मेंटल हास्पिटल में भेज दिया गया. वहां उसे विक्षिप्तों और मंदबुध्दियों के साथ रखा जाता. पर पिंकी मानसिक रोगी तो थी नहीं. फिर भी कुछ दिनों तक खामोशी ओढ़ी रखी उसने, पर जब स्थिति नाकाबिले बर्दाश्त हो गई तो उसने चेक करने आए डॉक्टर से कहा-मुझे नहीं रहना इन पागलों के बीच. दिन भर ये लोग लड़ती-झगड़ती हैं और मेरे बिस्तर कपड़ों पर थूक देती हैं.
एक-एक शिफ्ट में दर्जनों विक्षिप्तों को निपटानेवाले डॉक्टर की सारी संवेदनाएं सूख चुकी थी. उसका सिर्फ़ दो ही काम था, हर महीने वेतन का चेक उठाना और पागलों को नियंत्रिात रखना..इस कारण जब-जब पिंकी कहती-वह उसे डपट देता-बेशी कोथा कोरले चेने बेंदे दिवो. (अधिक बक-झक किया तो चेन से बांध दूंगा.) एक बार गुस्से में आकर पिंकी ने डॉक्टर का हाथ काट लिया. उस दिन उसे दिन भर कुत्तों की तरह चेन से बांधकर रखा गया.फिर किसी चमत्कार की तरह जाने किस बुध्दिमान और सहृदय साईकियास्ट्रिस्ट की मेहरबानी से उसे हमारे यहां भेज दिया गया.
मैं अवाक्. यह जानकारी की नई परत थी और अभी जाने कितनी परतें और खुलनेवाली थी. एकाएक मैंने पूछा-आपने क्या कभी उसमें कोई पागलपन का लक्षण देखा?अपने दाएं हाथ के पंजे निकाल- निकालकर तृप्ति दी ने कहा-अरे नहीं, वह तो खुद मानसिक रोगियों को ठीक कर दे. उसका नृत्य, उसका सेवा-भाव, उसका व्यवहार देख सभी निहाल हैं यहां. बस ज़रा सी प्रॉब्लम चाईल्ड है..विशेषकर यदि कोई उसके अतीत को छूना भी चाहे तो काटने दौड़ती है. मां का तो नाम तक सुनना नहीं चाहती..इसीलिए उसकी फाइल अभी तक अधूरी पड़ी है. इस संस्था का नियम है-जितने बच्चे उतनी फाइलें. वे फिर मेरी ओर आशा भरी निगाहों से देखने लगी तूमि पारबी तो (तुम सकोगी तो)
मैंने आत्म-विश्वास से सिर हिलाया-अरे, इतने उग्रवादियों का, नक्सलवादियों का, साधुओं का, तवायफों का-इंटरव्यू लिया तो यह किस खेत की मूली.वे आश्वस्त हुई-खूब भालो (बहुत अच्छा).और ग्रहों की अंगूठीवाली अपनी उंगलियों से मेरे गाल को हल्के से थपथपाया.उस दिन अपने विलक्षण रूप में थी पिंकी.
समय और सृष्टि के बाहर खड़ी प्रेम पुजारिन मीरा की तरह नाच रही थी वह. सिनी आशा में वार्षिकोत्सव की तैयारियां चल रही थीं. मैं भी फाइलों को परे खिसकाकर नृत्य देखने पहुंच गई.ऐसा स्वाभिमानी सौन्दर्य! ओस बूंद की तरह शीतल और अग्नि की तरह दहकती हुई. लगा जैसे कोणार्क के सूर्य मंदिरों की दीवारों पर उत्कीर्ण कोई रूपसी ज़मीन पर उतर आई है. उसके प्रभा-मंडल से चौंधियाए पास ही हैपी होम और सिक विंग के कई बच्चे बुखार में भी आकर खड़े हो गए. मस्त मोरनी की तरह अपने मन के मधुवन में नाच-नाचकर पूरे वातावरण को मीरामय बनाने के बाद जब वह थककर बैठ गई तो जाने किसर् ईष्यालु लड़की ने गुस्ताखी से पूछ डाला-बिना नृत्य स्कूल में दाखिला लिए इतना भव्य नृत्य तो तुमने अपनी मां से सीखा होगा..बस देखते ही देखते उल्लास, सौंदर्य और उमंग की वह देवी जंगली बिल्ली बन चीं चीं करने लगी. श्वेत कण से चमकता उसका चेहरा गोबर के अधजले उपले की तरह बदरंग हो गया. उसकी गुलाबी आंखों से चिनगारियां फूटने लगीं. वह अपनी सहेली पर टूट पड़ी और उसका बायां हाथ इतनी जोर से मरोड़ा कि यदि पास में ही बैठी गिटारवादिका ने उसे नहीं छुड़ा लिया होता तो हड्डी ही टूट जाती उसकी.
इस घटना के बाद पिंकी फिर सिकुड़ती गई. खामोशी उसके भीतर फैलती गई. आहिस्ता-आहिस्ता.उसे फिर मानसिक अस्पताल में भेजने की बात होने लगी.तृप्ति दी के घोड़ा छाप लम्बोतरे चेहरे पर विषाद की हल्की परत फैल गई. उन्होंने फिर मुझे आगाह किया-अभी तक आपने पिंकी की फाइल पर काम करना शुरू नहीं किया..यह तो है हाल पिंकी का..कभी भी उसे मेंटल हॉस्पिटल में भेजा जा सकता है. नहीं, यदि दूसरे बच्चों को उससे ख़तरा हो तो उसे कैसे रखा जा सकता है?
कुछ दिनों बाद ही दुर्गापूजा आ गई. कोलकाता का सबसे बड़ा जातीय त्यौहार. पूरे चार दिनों तक दुल्हन की तरह सजा-धजा कोलकाता और रोशनी के झालरों से झिलमिल-झिलमिल करते यहां के पंडाल. कोई पंडाल ताजमहल की अनुकृति तो कहीं दिल्ली का संसद भवन तो कहीं हाईकोर्ट तो कहीं जयपुर का हवा महल. पूजा की वह धूम कि जिसने पूजा नहीं देखी वह अजन्मा. कोलकाता ही नहीं, आसपास के गांवों क़स्बों से भी लोग बहते हुए चले आते यहां, ज़िंदगी का स्वाद लूटने के लिए.
हमारी सिनी आशा के भी अधिकांश बच्चे घर चले गए थे, अपने परिवार के साथ पूजा मनाने. घने पेड़ों के झुरमुटों के बीच इक्के-दुक्के ठूंठ की तरह गिने-चुने वे ही बच्चे रह गए थे जो या तो बेहद बीमार थे या जिन्होंने दुनिया में अपने लिए बहुत ही कम जगह घेरी थी. ऐसे बे-ठौर-ठिकानों वाले बच्चों को संभालना बहुत जानलेवा होता था, क्योंकि सावन की घटाओं की तरह हर पल इनके भीतर अपने उजड़े घर की धुंधली यादें उमड़ती-घुमड़ती रहतीं. ये छुट्टियां उन्हें खुशनसीबों से अलग कर लहर-दर-लहर इनकी उदासी बढ़ाती जाती. सिनी आशा के बरामदे में खड़े ये बच्चे पथरीली आंखों से अपने हमउम्र बच्चों को अपने मां-बाप और भाई-बहनों के साथ जश्न मनाते देखते और लहूलुहान होते रहते थे. हम चाहकर भी उन दिनों उनके चेहरे पर हँसी नहीं उगा पाते थे.
ज़िंदगी के जाने कितने रहस्यों को अपने भीतर समेटे पिंकी भी अपनी वीरान आंखें और ग़मगीन चेहरा लिए बरामदे में खड़ी थी.मैंने पीछे से उसके कंधों पर हाथ रखा-वह चिहुंकी.-ओह, आंटी.-चलो पूजा दिखा लाती हूं.
पूजा? क्षण भर के लिए उसकी आंखें चमकीं, पर अगले ही क्षण उनमें सयानापन भर आया.-नहीं आंटी, आज मैं खाली नहीं हूं..उसने किसी बेहद व्यस्त गृहस्थिन के अंदाज़ में कहा.-तुम्हें क्या काम है?
उसने उंगली 'सिक विंग' की ओर उठाई. जहां कोई नया परिंदा जगह घेर रहा था. भोला. सिनी आशा के फिल्ड वर्कर उसे सियालदह स्टेशन के प्लेटफॉर्म नंबर पांच से उठा लाए थे. उसके घुटने फूले हुए थे. वह दर्द के मारे ऐंठ रहा था. वह पत्ताखोर (नशेबाज) था. उसके पिता वैन चलाते थे. सियालदह स्टेशन के पास ही पुल के नीचे उसकी खोलाबाड़ी थी, जहां उसकी मां पांच-पांच रुपयों में पत्ताखोरों को नशे के सेवन के लिए खोलाबाड़ी किराए पर देती थी. भोला-पत्ताखोर को पन्नी, ब्लेड, मोमबत्ती, दियासलाई पकड़ाते-पकड़ाते स्वयं कब नशे की टान मारने लगा, उसे भी पता नहीं चला. देखते-देखते यह लत बन गई. पत्ता (नशे की एक डोज) नहीं मिलता तो वह नशे की तलब मिटाने के लिए डेनड्राइट का सॉल्युशन ही खाने लगा.
ओ मां, मांगो, भोला दर्द से ऐंठ रहा था. पिंकी उसे प्यार से डांट पिला रही थी-और टान पत्ता. कर टपोरिगिरी. (और कर नशा और कर टपोरिगिरी)पिंकी ने हाथ के सहारे से उसे उठाया और उसे पेन किलर दी और फिर उसे सुलाते हुए डांट पिलाई-चोक मूंदे सुए थाक (आंख बंद कर पड़ा रह).-तो तुम कब चलोगी?-जब तक इसका दर्द कम नहीं हो जाता.चीं चीं कर दरवाज़ा बंद हुआ और मैं झल्लाती हुई बाहर.
तीसरे दिन भोला को आराम मिल गया था और पेन किलर के प्रभाव से वह जमकर सो रहा था. उसके सिरहाने बैठी थी पिंकी-उदास और अवसन्न. आंखों से टपकते टप-टप आंसू- जैसे महाकाल के कपोल पर लुढ़कती कुछ बूंदें.
मुझे देखते ही वह फफक पड़ी. आप मुझे पूजा दिखाने ले चलने वाली थीं न. मुझे पूजा नहीं देखनी. मुझे अपनी ठाकुर मां से मिलना है, वे बहुत बूढ़ी हैं. मुझसे मिलने नहीं आ सकतीं. आप मुझे मेरी ठाकुर मां के पास ले चलिए..मुझे मिलना है उनसे. उन्हें देखे चौदह महीने हो गए. जाने किस हाल में होंगी वे.
पिंकी के दिल में अपनी ठाकुर मां की यादों का इकतारा बज रहा था. पर मैं उसे कैसे समझाती कि तृप्ति दी ने मुझे पिंकी को ठाकुर मां के पास भी ले जाने को मना किया है. उसकी ठाकुर मां के घर के पास ही उसकी मां का भी घर है. उसकी मां को भनक पड़ते ही वह पिंकी को लेने वहां आ सकती थी. तृप्ति दी की चेतावनी मेरे कानों में गूंज रही थी.आप नहीं जानती उसकी मां को, किसी भी प्रकार बहला-फुसलाकर वह वापस पिंकी को उसी गंदगी में धकेल सकती है. आप नहीं जानती उसकी मां को. यदि सप्ताह भर भी पिंकी रह जाए अपनी मां के साथ तो, उसीकी भाषा बोलने लगेगी. यहां आई थी पिंकी तो बड़ी गंदी जुबान और आदतें थीं उसकी. बिना भोंसड़ी के और मादर..के बात ही नहीं करती थी. और कमीज के गले तो इतने गहरे पहनती थी कि आधा माल बाहर से ही दिखे. हमने उसे सरस्वती वन्दना सिखाई. उसे अच्छे भावों के नृत्य सिखाए.
पिंकी लगातार झंझोड़ रही थी मुझे. आंटी मुझे ले चलिए अपनी ठाकुर मां के यहां. एकाएक मुझे एक उपाय सूझा. मैंने सोचा कि कुछ ऐसा किया जाए कि पिंकी भी खुश हो जाए और मुझे भी इस खूबसूरत शाम की कुछ मलाई हाथ लगे.
मैंने पिंकी से कहा. पिंकी, नहीं मामा थेके काना मामा भालो (बिना मामा से काना मामा अच्छा). मैं ऐसा करती हूं कि टैक्सी में तुम्हारी ठाकुर मां को ही लेकर यहां आ जाती हूं, क्योंकि मुझे तुम्हें वहां ले जाने की इजाजत नहीं है. तुमसे मिलवाकर मैं तुम्हारी ठाकुर मां को वापस वहां छोड़ आऊंगी. पर इसके बदले तुम्हें भी मेरा एक काम करना होगा.
हां, हां क्यों नहीं बोलिए मुझे क्या करना होगा?
पिंकी मचल उठी थी.
मैंने कहा. पिंकी मैं जो कुछ भी तुमसे पूछूं, तुम्हें उसका जवाब देना होगा..देखो, मुझे तुम्हारी फाइल तैयार करनी है. तुम्हारी पूरी केस हिस्ट्री..ई..
मैं बात पूरी कर भी नहीं पाई थी कि उसकी आवाज़ अकस्मात रामपुरी चाकू की तरह धारदार हो गई. क्या फाइल?
और देखते-देखते लोकगीत सी लुभावनी पिंकी शोक-गीत में बदल गई.
मैंने हिम्मत कर कहा. तुम्हारी भलाई के लिए ही तो तैयार की जा रही है यह फाइल.
वह धम्म से बैठ गई, जैसे कोई बुलंद इमारत
ज़ाहिर था ज़िंदगी से लड़ते-लड़ते वह जैसे थक गई थी.
उसे बात समझ में आती है पर इन फाइलों ने क्या बिगाड़ा है तुम्हारा.
मेरी बात सुन रेत पर पड़ी सोन मछली सी वह तड़पी. सुरमा सजी उसकी आंखें मिचमिचाईं. एक दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए उसने कहा.अब कैसे समझाऊं आपको कि जितना नुकसान मेरी मां ने मेरा नहीं किया उससे ज्यादा फाइलों के इन खुले जबड़ों ने किया है. निगल ली है इसने मेरी सारी खुशियां. आप इज्ज़त की डाल पर झूलते लोग क्या कभी सोच भी सकते हैं यह सत्य कि 11 से 14 वर्ष तक मेरा कई बार बलात्कार हुआ, जब तक इन फाइलों में दर्ज रहेगा, समझ लीजिए यह मेरे माथे पर दर्ज रहेगा. जो मेरे साथ हुआ उसके लिए मैं दोषी नहीं, यह सोच मैं अपने अतीत को भूल ज़िंदगी में रुचि लेने लगी थी. एक लड़के से प्रेम भी करने लगी थी. वह सचमुच मेरी ज़िंदगी का उजाला था. उसे देख मैंने पहली बार महसूसा कि आदमी जीना तभी सीखता है जब किसी से प्यार करता है. वह भी मुझे बेइंतहा चाहने लगा था. मैंने उसे बताया कि मेरी मां सोनागाछी में रहती अवश्य है पर वह बुरा काम नहीं करती..वह आसपास के घरों में खाना पकाती है. मेरी ठाकुर मां (दादी) बहुत बूढ़ी हैं, इस कारण मां ने मुझे सिनी आशा में रख रखा है. वह मुझे प्यार भी करता रहा, पर भीतर ही भीतर मेरे बारे में खोज-ख़बर भी करता रहा. एक दिन मेरी अनुपस्थिति में उसने ऑफ़िस के क्लर्क को घूस-वूस देकर पटा लिया और मेरी फाइल पढ़ डाली. उसके बाद से उसने मुझसे मिलना छोड़ दिया.
कई दिन की छटपटाहट के बाद एक बार मैं उसके घर पहुंची तो उसने मुझे बाहर से ही चलता किया. मैंने जब इस बेरुखी का कारण पूछा तो उसने मुझे ऐसी नज़र से देखा जैसे मैं कितनी गंदी और घिनौनी जानवर हूं. उसके शब्द-शब्द मेरी आत्मा को दाग गया. उसने मुझसे कहा. मैंने तुम पर कितना विश्वास किया..पर तुम..रंडी की बेटी रंडी ही निकली.
उसके बाद वह मुझे फिर कभी नहीं मिला. मेरे जीवन में काली रात का अंधेरा भर वह सदा के लिए चला गया.
भीगे कबूतर की तरह मैं बैठी रही. मूक-मौन. कनखियों से देखा मैंने, बूंद-बूंद उदासी पिंकी के चेहरे से टपकते हुए अनंत में डूबती जा रही थी. लगा जैसे यह पिंकी नहीं, कोई आदिम शकुंतला थी. फ़र्क़ बस इतना ही कि वह अपनी अंगूठी और यह अपनी फाइल वापस मांग रही थी मुझसे.
पिंकी से बिना कुछ कहे मैं वहां से खिसक गई. धीरे-धीरे और बेआवाज़. पतझड़ के सूखे पत्तों की तरह.
पूजा की छुट्टियां अभी चल ही रही थीं.
दूसरे दिन मैं फिर पिंकी के पास. पर आज मुझे देख उसमें कुछ भी नहीं जागा. उसके भीतर की बुलबुल मर गई थी. वह वैसे ही बैठी रही. खामोश, अडोल. मैंने फिर उसके कंधे पर हाथ रखा और उसे उत्तोजित करने को कहा. मैंने तो तुम्हें होशियार समझा था, पर तुम तो मूर्ख निकली. महामूर्ख.
वह सचमुच भड़क उठी जैसे वामपंथी कांग्रेस की आर्थिक नीतियों से भड़क उठते हैं.
.क्या..क्या मतलब?
.यह देखो तुम्हारी फाइल..बताओ कहां लिखा है इसमें तुम्हारे या तुम्हारी मां के बारे में.
क्षण भर के लिए पिंकी सोच में पड़ गई..पर दूसरे ही पल उसने फिर पलटवार किया. यदि इसमें नहीं लिखा होता तो समीर, हां वही लड़का, को मेरी मां का नाम, मेरे पाड़े (मुहल्ले) का नाम का पता कैसे चलता? उसे यह भी पता कैसे चलता कि 11 वर्ष से 14 वर्ष के बीच..
.बताओ कहां लिखा है?. मैंने फिर उसे कुरेदा.
पिंकी ने फाइल उलटाई. और एक जगह उंगली दिखाई. बैक ग्राउंड हिस्ट्री..देखिए आंटी यहीं कहीं लिखा होगा..उतनी अंग्रेज़ी मुझे नहीं आती.
कहां..और देखते- देखते मेरे फाउंटेन पेन की स्याही ने उसकी पूरी बैक ग्राउंड हिस्ट्री को काली स्याही में बदल दिया.
पिंकी भौंचक्की? यह क्या किया आंटी?
कुछ नहीं? ज़िंदगी की जंग ऐसे भी लड़ी जाती है. यह भी एक दुर्घटना थी. ठीक वैसे ही जैसे तुम्हारे साथ हुई थी. अब तुम्हीं बताओ..दुर्घटनाओं के लिए कोई भी दोषी हो सकता है क्या?
.पर तृप्ति दी को आप क्या जवाब देंगी? पिंकी मेरी चिंता में फूं-फा करने लगी थी.
मन ही मन मैं अपनी पीठ थपथपा रही थी. भले ही तृप्ति दी के समक्ष मैं लाजवाब हो जाऊं..पर इतिहास ने मेरे सिरहाने खड़ा होकर कभी यदि पूछा कि तुमने क्या किया? तो मैं उसे कुछ जवाब दे पाऊंगी. पर प्रत्यक्षत: यही कहा. जवाब क्या देना है, फाइलों का यह देश, यहां फाइलें सिर्फ़ तैयार की जाती हैं, पढ़ी कहां जाती हैं. पहले भी तीन बच्चों की फ़ाइल निपटा चुकी हूं. उन्होंने पलटकर भी नहीं देखा, मैंने कह दिया..पूरी हो गई और फ़ाइल को रैक में लगा दिया.. तुम्हारे साथ भी वैसा ही होगा.
बतलाते-बतलाते श्यामली दी का चेहरा भोर की किरणों सा जगमगा उठा था.. भाव-विभोर हो वे बोली..वह एक अतीन्द्रिय अनुभव था. लगा, जैसे मैंने धरती के एक घिनौने धब्बे को साफ़ कर दिया है. और पिंकी..वह तो जैसे सेमल के फूल की तरह हल्की हो आसमान में उड़ रही थी.
हम सब उठ गए थे पर श्यामली दी के मन का पर्दा अब भी उन्हीं चित्रों से भरा हुआ था.
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रचनाकार - चर्चित लेखिका मधु कांकरिया के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगभग पचास कहानियां प्रकाशित हैं. 'खुले गगन के लाल सितारे', 'सलाम आखिरी', 'पत्ताखोर' (उपन्यास), 'बीतते हुए', 'अंतहीन मरुस्थल' (कहानी-संग्रह) प्रकाशित हैं.
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चित्र: रेखा श्रीवास्तव की कलाकृति
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