-कृश्न चंदर नोबल पुरस्कार विजेता शोलोखोव मेरे प्रिय लेखकों में से हैं. लेकिन कभी-कभी वे भी विचित्र दकियानूसी की बात कर जाते हैं. इधर हाल मे...
-कृश्न चंदर
नोबल पुरस्कार विजेता शोलोखोव मेरे प्रिय लेखकों में से हैं. लेकिन कभी-कभी वे भी विचित्र दकियानूसी की बात कर जाते हैं. इधर हाल में उनका एक वक्तव्य प्रकाशित हुआ है, जिसमें उन्होंने कहा है कि साहित्य का क्षेत्र पुरुषों के लिए है और यह कि साहित्य-सर्जन स्त्रियों के वश की बात नहीं. अब यदि वे होते भारत में तो हम मिलाते उन्हें उर्दू की अस्मत चुगताई से, रज़िया सज्जाद ज़हीर से, कर्तुलैन हैदर से, सलमा सिद्दीकी से, जीलानी बानो से. हिन्दी की महादेवी वर्मा से, ऊषा देवी मित्रा, कमला चौधरी और मन्नू भंडारी से. पंजाबी की अमृता प्रीतम और प्रभजोत कौर से. फिर ये स्त्रियाँ जो अपनी-अपनी भाषा की प्रथम श्रेणी की लेखिकाएँ हैं, स्वयं समझ लेतीं शोलोखोव महोदय से. या अगर वे होते जर्मनी में तो आना सीघर्स से मुठभेड़ हो जाती उनकी, जो आधुनिक जर्मन लेखकों में अग्रणी उपन्यासकार मानी जाती हैं. या अगर वे होते मीराबाई के काल में, जेन ऑस्टिन या एमली ब्रांटे के युग में या इससे बहुत पहले प्रसिद्ध कवयित्री सोफो के जीवन में तो वह जीना दूभर कर देती उनका. वास्तव में अब तक सन्तानोत्पत्ति की महत्वपूर्ण समस्या ने स्त्रियों को फुर्सत ही कब दी कि वे किसी अन्य काम के प्रति पूरा ध्यान दे सकतीं. फिर उन्हें इतना अधिक पिछड़ा हुआ रखा गया, इतना अनपढ़ रखा गया, इतना अधिक पर्दे में या घर की चारदीवारी में बन्द रखा गया कि जीवन के अन्य विभागों की तरह ज्ञान और साहित्य के क्षेत्र में भी वे अधिक संख्या में अपनी प्रतिभा न दिखा सकीं- तो इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. और उनपर छींटाकशी की तो कोई गुंजाइश ही नहीं है.
मैंने शोलोखोव और स्त्रियों की चर्चा इसलिए की कि ‘कहानी की कहानी’ का वर्णन करने के सिलसिले में इनकी चर्चा आवश्यक थी. बहुत से लोग यह भूल जाते हैं कि कहानी की कला का आरम्भ सबसे पहले स्त्री ने ही किया था. बाद में पुरुष अपनी धांधली और घपलेबाजी से उससे आगे बढ़ गया. लेकिन इस तथ्य पर अधिकतर वैज्ञानिक और अन्वेषक सहमत हैं कि कहानी कहने की कलाकार सबसे पहले स्त्री ही थी – खेती बाड़ी की तरह. शायद इस बात से आप भी सहमत होंगे कि खेती-बाड़ी करना पुरुष को सबसे पहले स्त्री ने सिखाया था. जब मानव जंगलों में रहते थे तो अधिकतर पुरुष शिकार के लिए चले जाते थे – और शिकार खेलना आज के शिकार की तरह आसान भी न था. न बन्दूक थी उन दिनों, न राइफल, न कारतूस. तीर-धनुष भी बाद के आविष्कार हैं. इससे पहले मनुष्य के लिए किसी जन्तु को मारना और उसका मांस प्राप्त करना जान जोखिम का काम था. कई बार अपने जाल में स्वयं आखेटक आ जाता था और किसी का मांस प्राप्त करने की बजाए स्वयं उसके खाने का मांस बन जाता था. इधर तो यह दुर्घटना हुई, उधर घर पर या किसी खोह में बीवी-बच्चे भूखे हैं. ऐसी स्थिति में स्त्री ने वे पौधे ढूंढे जिनके बीज खाकर जीवित रहा जा सकता था. स्त्री ने न केवल पुरुष को गेहूँ का दाना खाने पर प्रेरित किया, बल्कि उसे उगाना भी सिखाया. चावल भी स्त्रियों ही की खोज है. फिर पत्थर के हल या किसी जंगली पशु की हड्डी से भूमि खोदकर बीजों द्वारा नए पौधे उगाना – यह भी स्त्रियों ही की देन है. आज का किसान खेत में हल चलाता है और समझता है वह अपनी स्त्री को रोटी खिला रहा है, हालांकि रोटी पकाकर खिलाने की कला भी स्त्रियों का ही आविष्कार है.
आपने सबसे पहली कहानी अपनी नानी मां से सुनी होगी या दादी मां से या अपनी मां से. आज से हजारों वर्ष पहले की कहानी अर्थात् सबसे पहली कहानी भी इसी प्रकार रात के सन्नाटे में कही गई थी – अंधेरे के भय को मिटाने के लिए. बच्चे के मन में जीवन की सुखद कल्पना को जगाने के लिए. मां की मेहरबान गोद में सुलाने के लिए. इसी प्रकार लोरी, गीत, कविता और कहानी की कला का प्रारंभ हुआ. चेखोव, शोलोखोव, मोपासां, माम, प्रेमचन्द, मण्टो, राजेन्द्रसिंह बेदी बाद में आए. पहले तो एक स्त्री आई थी. आज की भी कोई कहानी स्त्री के बिना पूर्ण नहीं होती और नहीं दिलचस्प समझी जाती है.
जिस प्रकार खेती-बाड़ी की कला स्त्री के हाथ से निकलकर एक पेचीदा और मिश्रित क्रिया बन गई है, उसी प्रकार कहानी मां की लोरियाँ और परीकथाएँ आगे बढ़कर जीवन की व्याख्या बन गई हैं और बेहद पेचीदा और मिश्रित हो गई हैं.
बहुत समय तक कहानी की कला एशिया में भाटों के और योरुप में प्रोउबाडौर्ज के सुपुर्द रही. ये घुमक्कड़ गायक विभिन्न किस्से-कहानियों को काव्य का रुप देकर और उन्हें राग में ढालकर साज पर सुनाते थे. इन दिनों कहानियाँ गाई जाती थीं. कविता, संगीत और कहानी एक ही सांचे में ढल जाते थे – और क्या-क्या दिलचस्प किस्से होते थे. शूरवीरों के और बहादुरी के, नाईट्स के, राजाओं के और राजकुमारियों के, सफल और असफल प्रेमियों के, उन अप्राकृतिक दैत्यों के जो कोमलांगी सुन्दरियों को काठ के पिंजरे में या एक छोटी-सी डिबिया में बन्द करके अपनी जेब में रख लेते थे और ‘मानस गंध, मानस गंध’ कहते हुए मनुष्य के शिकार की तलाश में निकल पड़ते थे.
आज कहानी उस काल से बहुत दूर निकल आई है. प्रत्यक्ष रुप से उसका सम्बन्ध कविता से, संगीत से, राग और साज से कट गया है. अब कहानी गद्य की भाषा में ढल गई है, लेकिन आज की कहानी भी भीतरी संगीत, भीतरी राग और उसकी लय से वंचित नहीं हो सकती जो साहित्य और कला की हर शाखा में एक अच्छी रचना को एक बुरी रचना से विशिष्ट बतलाती है. आज की अच्छी कहानी भी उसी पहले उद्देश्य को पूरा करती है, जिसकी आवश्यकता मां ने अपने बच्चे के लिए समझी थी. अर्थात् अंधेरे के भय को मिटाने के लिए और जीवन की सुखद कल्पना को मानव-मन में जगाने के लिए आज भी कहानी प्रयोग में लाई जाती है, और भविष्य में लाई जाएगी. और यही इसका समुचित उद्देश्य भी होगा. क्योंकि मनुष्य यद्यपि बहुत उन्नति कर गया है तथापि वह आज भी जंगल में रहता है. चारों खूंट जंगल बसे हैं और उनमें दीवारों के वृक्ष उगे हुए हैं और दानव-शक्तियाँ जीवन के सुन्दर और मृदुल मूल्यों को काठ के पिंजर में कैद किए या जेब की किसी डिबिया में डाले ‘मानस गंध, मानस गंध’ करती हुई मनुष्य के शिकार की तलाश में घूम रही हैं. समुदायों, जातियों और देशों के सरदार, महाराजे और सुल्तान गए तो तेल के बादशाह आ गए. लोहे के शहनशाह और जूट के सुलतान. भाट यदि प्रशंसा-गायक नहीं हैं तो उनका सिर कलम होगा. घुमक्कड़ों, सफल और असफल प्रेमियों के लिए कहानी कहना आज भी उतना ही कठिन है चितना उन पिछले जमाने में था.
इधर कहानी के क्षेत्र में कुछ नए लोग आए हैं. ये लोग कहने को ‘नई पीढ़ी’ के हैं लेकिन हैं बिल्कुल हमारे जैसे. हमारे जैसे ही कपड़े पहनते हैं, उसी प्रकार शेव करते हैं. उसी भाषा में बातचीत करते हैं, जिसमें हम करते हैं. उसी प्रकार रोटी-रोजी की तलाश में मारे-मारे फिरते हैं. बिलकुल सामान्य लोगों की तरह उद्देश्य पूर्ति के लिए खुशामद भी करते हैं. इनके जीवन के प्रत्येक विभाग में व्यवस्था है, सन्तुलन है, उद्देश्य है, मार्ग है, मंजिल है – और अगर कहीं पर कुछ नहीं है तो केवल साहित्य के क्षेत्र में नहीं है. वे जीवन के प्रत्येक अंग में किसी न किसी उद्देश्य को सामने रखते हैं लेकिन साहित्य में नहीं. आप जब उनसे बात करेंगे तो उनकी बातचीत बिलकुल ठीक-ठीक आपकी समझ में आ जाएगी. लेकिन जब कहानी लिखेंगे तो आपके पल्ले कुछ नहीं पड़ेगा. सिवाय ऊटपटांग, अनबूझ पहेली के. वे कॉफी हाउस का रास्ता जानते हैं लेकिन अपनी कहानी के नहीं. उन्हें अपनी नौकरी का उद्देश्य मालूम है, अपनी कहानी का नहीं. जब वे अपने घर जाते हैं तो दो टांगों के सहारे कदम उठाते हुए जाते हैं, लेकिन अपनी कहानी में सिर के बल रेंगते हैं, और उसे आर्ट कहते हैं. उन्हें कहानीकार नहीं, मदारी कहता हूँ. ये लोग रंगीन शब्दों के फीते अपने मुँह से निकालते हैं. अपनी झोली से खरगोश, अपनी जेब से अंडा – और आपको आश्चर्यचकित छोड़कर चल देते हैं. बाद में आप सोचते हैं कि आपकी जेब की आखिरी चवन्नी भी इसी तमाशे की भेंट हो गई और मिला कुछ भी नहीं. और आपको कुछ मिले भी क्यों? क्योंकि ये लोग आपसे केवल लेने के काइल हैं, बदले में कुछ देने के नहीं – और समाज में आप जानते हैं, लोग कुछ काम करते हैं. उस काम का कोई क्रम होता है, प्रबन्ध होता है, कोई उद्देश्य होता है. उस काम से किसी की सेवा की जाती है और उसका पारिश्रमिक भी मिलता है. लेकिन ये नए कहानीकार समाज को केवल इस सीमा तक मानते हैं कि समाज इनको कुछ दे और बराबर देता रहे. उसके एवज़ में ये समाज को क्या देते हैं, इसकी इन्हें कोई परवाह नहीं है. न ये इस प्रकार की बातों के काइल हैं. कहानी लिखते समय ये बिल्कुल निरूद्देश्य होंगे लेकिन कहानी छपते ही तुरन्त उद्देश्य के काइल हो जाएंगे – यानी पारिश्रमिक के, ख्याति के, सम्मान और प्रशंसा के – अर्थात् उन समस्त उद्देश्यों के, जिनके लिए सामान्य व्यक्ति प्रायः संघर्षशील रहते हैं.
मैंने अपनी बूढ़ी नानी मां से भी कहानियाँ सुनी हैं और स्वयं अपनी मां से भी. इसलिए मेरी कहानी की कला भी उतनी ही पुरानी है. अर्थात् कहानी सुनने वाले को कहानी का आनन्द आए. रात, मौत और अंधेरे का भय दूर हो. जीवन की सुखद और प्रकाशमान कल्पनाएँ जागें क्योंकि हम सूर्य की सन्तान हैं. यदि हम अंधकार की संतान होते तो हमारी आँखें न होतीं और हमारी अनुभूतियों की कुछ और ही स्थिति होती. लेकिन हम सूरज की संतान हैं. अग्नि हमारा देश है. प्रकाश हमारा भोजन है. चाँदनी हमारे प्रियतम का बदन है. हम आँखों में आँखें डालते हैं और प्रेम करते हैं क्योंकि हम अंधे नहीं हैं. इस संसार में आँखों से अधिक पवित्र कोई वस्तु नहीं है.
इसीलिए मेरी कहानियाँ आँखें रखती हैं. वे मार्ग देखती हैं और आसपास के मनोरंजक दृश्य भी, लेकिन प्रतिक्षण दृष्टि उधर ही रहती है जहाँ जाना है. जिसे उद्देश्य या गन्तव्य कुछ भी कह लीजिए. मैं उसे हाथीदांत का टावर कहता हूँ. सौ वर्ष से मेरे सपनों की सुन्दर राजकुमारी उस टावर में सो रही है. केवल वही नहीं सो रही, उसके आस-पास सौ-सौ मील तक सारा जंगल सो रहा है और मेरी नानी मां ने मुझे बताया था कि जब भी कोई व्यक्ति उस घने जंगल को पार करके और उस टावर का दरवाजा तोड़कर उस राजकुमारी की आँखों पर चुम्बन देने में सफल हो जाएगा राजकुमारी उसी क्षण जाग उठेगी और उसी क्षण सारा सोया हुआ जंगल भी जाग जाएगा और चारों ओर प्रकाश, प्रसन्नता फैल जाएगी.
क्या यह कहानी सचमुच इतनी पुरानी है कि आज की परिस्थिति से मेल नहीं खाती? क्या आज हाथीदांत के टावर में कोई राजकुमारी नहीं सोई हुई? क्या आस-पास सौ वर्ष से तो क्या कई वर्षों से कोई जंगल सोया हुआ नहीं – अंधकार में, भय में, निराशा के अंधेरे में और मृत्यु के भयानक सायों में, जिन्होंने जीवन पर जादू करके उस मायूस राजकुमार की आँखों में नींद भर दी है?
मैं उन मूर्खों में से हूँ जो घने अंधेरे जंगल को पार करके हाथीदांत के टावर का दरवाजा तोड़कर सोई हुई राजकुमारी की आँखों पर चुम्बन देने के इच्छुक हैं. मेरी कहानियाँ उसी इच्छा का प्रतीक होती हैं...
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रचनाकार - -कृश्न चंदर भारत के जाने माने कहानीकार-उपन्यासकार थे. एक गधे की आत्मकथा नामक उनका व्यंग्यात्मक उपन्यास खासा चर्चित रहा था. प्रस्तुत आलेख उन्होंने अपने कहानी संकलन – मेरी प्रिय कहानियाँ में प्रस्तावना स्वरुप लिखा था.
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चित्र – रज़ा की कैनवस पर एक्राइलिक रंगों से बनी कलाकृति.
सटीक! कहानी से रस निचोड़ कर उसमें मसाला भरने वाले साहित्यकार हत्यारे हैं। भारत का दुर्भाग्य है की प्राचीन काल के बाद या तो पंडिताऊ रचनाएँ लिखी गईं या अश्लील, और जब बात आधुनिक होने की आयें तो इन हत्यारों ने साहित्य को आखाडा बना डाला। प्रेमचंद के बाद कोई ऐसा कहानीकार नहीं है जो जनलोकप्रिय हो। कोई ऐसी रचना नहीं जो लोगों को जोड़ सके। बस हर चीज़ को दलित, राजनीति, देह के संदर्भ में बांटेट जाओ पर जीवन का स्पंदन कहाँ है?
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