माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव का सद्यःप्रकाशित उपन्यास ‘बबलू श्रीवास्तव का अधूरा ख्वाब’ अंडरवर्ल्ड और भारतीय प्रशासन के क्रियाकलापों-संबंधों प...
माफिया डॉन बबलू श्रीवास्तव का सद्यःप्रकाशित उपन्यास ‘बबलू श्रीवास्तव का अधूरा ख्वाब’ अंडरवर्ल्ड और भारतीय प्रशासन के क्रियाकलापों-संबंधों पर एक अत्यंत पठनीय, रोचक और ज्ञानवर्धक उपन्यास है. यूँ तो इसके डिस्क्लेमर में यह बताया गया है कि उपन्यास के पात्र व घटनाएँ काल्पनिक हैं, परंतु निश्चित ही वे वास्तविक घटनाओं से लिए गए प्रतीत होते हैं. उपन्यास को संवाद शैली में बहुत ही नए-निराले अंदाज में लिखा गया है और अगर एक बार पाठक उन संवादों के बीच फंस जाता है तो वह उपन्यास को अंततः खत्म करके ही छोड़ता है.
उपन्यास के चंद शुरुआती पृष्ठों में ही भारत में पनपते भयानक भ्रष्टाचार की कलई खोली गई है. वार्तालाप शैली में लिखी गई उपन्यास के कुछ दिलचस्प अंश-
....अच्छा ये बताओ, वे इतना पैसा कैसे कमाते हैं?
बेईमानी से. भाई वे लोग कस्टम में अपनी सेटिंग करके ड्यूटी बचाते हैं. ये जो केमिकल्स विदेशों से इम्पोर्ट करते हैं, यहाँ पर उसकी कीमत कम बताते हैं. यह सब इसलिए हो जाता है, क्योंकि पोर्ट पर ए.सी. इनका अपना होता है और कर्मचारी भी सेट होते हैं. भाई यहाँ तक ये लोग एक-एक असिस्टेन्ट कलेक्टर की नियुक्ति के लिए पच्चीस से पचास लाख तक खर्च कर उसका अपने पोर्ट पर स्थानान्तरण करवाते हैं, जहाँ इन लोगों का माल आता है. ये लोग स्टील का भी काम करते हैं. ये विदेश से नया स्टील का पाइप मंगवाते हैं और उसको पोर्ट पर पुराना दिखाकर ड्यूटी बचाते हैं. भाई, ये लोग एक-एक कन्टेनर पर 40 से 50 लाख कमाते हैं और लगभग हर महीने 10 से 15 कन्टेनर मंगवाते हैं....
..... नहीं जाएंगे. पुलिस के पास जाकर क्या बताएँगे, 5-10 करोड़ दिया है? पुलिस इन्हीं लोगों से पूछेगी कि इतना पैसा कहाँ से आया. नहीं, ये ऐसा कतई नहीं करेंगे. फिर इस बात से भी डरते हैं कि अख़बार में इनकी बात खुल जाएगी. ये इससे भी डरा करते हैं कि यदि कहीं लोगों को पता चल गया कि हमारे पास इतना पैसा है या हमने इतना दिया है तो और दूसरे गैंग भी इनके पीछे लग सकते हैं. फिर पैसा भी सारा दो नंबर का है इनके पास....
....देखो कक्कड़, हम ये मानते हैं कि अगर पचास करोड़ के आदमी से दस करोड़ मांगे जाएंगे तो वह जरूर पुलिस के पास भागेगा, मरने-मिटने को तैयार हो जाएगा, पर यही पैसा अरब पति से आराम से मिलेगा भी और वो कहीं जाएगा भी नहीं....
....नहीं, राजू, ऐसा होता नहीं है. हम हवाला पहली बार नहीं ले रहे हैं. फिर भी हम तुम्हें इसके विषय में सब कुछ बता देते हैं. ये प्राइवेट बैंक हैं और कई हैं. जैसे पटेल वॉल स्ट्रीट बैंक, विल्ली एक्सचेंज, सिंगापुर एक्सचेंज, अल जुबैर कम्पनी या अल मसरुक कम्पनी, ये सभी प्राइवेट बैंक हैं. इनकी हर देश में अपनी ब्रांच है. जब ये शक हो कि आदमी पैसा लेते वक्त पकड़ा जा सकता है, वैसे कोई भी पार्टी यह नहीं चाहेगी कि पैसा देते समय किसी को पकड़वा दें क्योंकि जो पकड़ा जाएगा, उसे तो ये पता नहीं होगा कि बम्बई में ‘पकड़’ किया गया आदमी रखा कहाँ गया है, फिर भी एहतियातन यह कर सकते हैं कि इन सभी बैंकों में अपना कहीं भी खाता खोल सकते हैं, क्योंकि ये सब प्राइवेट बैंक होते हैं. मान लो आपका एक सौ तेरह नम्बर का खाता पटेल वॉल स्ट्रीट में हैं. हम पार्टी से कहते हैं कि आप एक सौ तेरह नम्बर के खाते में पाँच खोखा जमा करा दें. अगर पार्टी जमा कर देती है तो हम फोन से पता कर लेते हैं कि एक सौ तेरह में कितना जमा हुआ है... साथ में हम वहां के नोट का नम्बर भी देते हैं कि फलां नोट वाला आदमी को वहां पैसा दे दो. बस, पटेल वॉल स्ट्रीट वाले अपना कमीशन काटकर जहाँ पैसा चाहें वहाँ देते हैं या जो भी बैंक डीलिंग में होगा, ये कर देगा....
वैसे, पूरी पुस्तक में अपहरण-फिरौती से संबंधित सफल-असफल ऑपरेशनों की ही कहानियाँ बताई गई हैं, जो एक दूसरे से कहीं कोई तारतम्य नहीं रखतीं. खल पात्रों वार्तालाप जो अपहरणों को अंजाम देते हैं, कभी-कभी घटनाओं को समझने में भ्रमित करते हैं. कहानियों में भी कोई तारतम्यता नहीं है, और न ही कोई नया पन. जिससे उपन्यास कहीं-कहीं बोझिल भी हो जाता है. और, चूंकि उपन्यास वार्तालाप शैली में है, इसलिए यह घोर एकरसता भी पैदा करता है. ऊपर से, वार्तालाप में पात्रों का परिचय भी नहीं है, जिससे अनुमान के आधार पर कथानक का खाका पाठक के मन में बनता है. हाँ, जैसा कि सबको पता है, बिहार का अपहरण उद्योग इधर कुछ दिनों से काफी फल फूल रहा है – तो संभवतः इसके पीछे अपहरण का अत्यंत आसान होना और अपहरणों से बिग रिटर्न मिलने वाला फ़ॉर्मूला ही काम आ रहा है, - जैसा कि पुस्तक में कई मर्तबा बताया गया है.
माफ़िया डॉन एक दूसरे के दुश्मन भी होते हैं और जब तब कोई न कोई प्रयास एक दूसरे को खत्म करने के होते रहते हैं. इस पुस्तक में ऐसे ही कुछ नाटकीय घटनाक्रमों के बारे में भी प्रकाश डाला गया है. एक माफ़िया डॉन ‘भाई’ को खत्म करने का किस्सा यूं बयां किया गया है कि पढ़ते-पढ़ते आप उस किस्से के हिस्से-से बन जाते हैं और चाहने लगते हैं कि जैसे भी हो, ‘भाई’ बच निकले. एक खल पात्र के प्रति उपज रही संवेदनशीलता उपन्यासकार को सफल होने का प्रमाण देती है.
सवा दो सौ से अधिक पृष्ठों वाले इस उपन्यास की कीमत- 85 रुपए भी वाजिब प्रतीत होती है. टाइपसेट भी पढ़ने में आसान है और काग़ज़ भी उत्तम कोटि का प्रयोग किया गया है.
****.
उपन्यास – बबलू श्रीवास्तव का अधूरा ख्वाब
लेखक – ओमप्रकाश श्रीवास्तव ‘बबलू’
प्रकाशक – नई सदी बुक हाउस, ए-7 कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स, मुखर्जी नगर, दिल्ली-110009
मूल्य – 85 रुपए
आईएसबीएन क्र. 81-87335-51-3
**-**
COMMENTS