व्यंग्य : त्रासदी एक धोबन की

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- नरेन्द्र कोहली मैंने दरवाजा खोला तो सामने एक इतनी मोटी स्त्री खड़ी थी, जितनी मोटी सिवाय धोबन के और कोई नहीं हो सकती थी. धोबी कहा करता था, ...



- नरेन्द्र कोहली

मैंने दरवाजा खोला तो सामने एक इतनी मोटी स्त्री खड़ी थी, जितनी मोटी सिवाय धोबन के और कोई नहीं हो सकती थी. धोबी कहा करता था, “साब, ट्रक से टकराकर कोई बच जाए, तो बच जाए, हमारी धोबन से टकराकर तो उसके चीथड़े ही उड़ जाएंगे.”

पर वह धोबन नहीं भी हो सकती थी. यह ठीक है कि वह इतनी मोटी थी, और यह धोबी के आने का समय भी था. उसमें कुछ ऐसा था भी कि वह मुझे धोबन ही लग रही थी. पर शायद वह धोबन थी नहीं.

उसने बड़ी शिष्टता से पहला प्रश्न पूछा, “आपने शायद मुझे पहचाना नहीं.”

जी में आया कह दूँ - “आपको पहचाना हो या ना पहचाना हो, आपकी आत्मा को पहचान गया हूँ : वह एक धोबन की आत्मा है.” पर ऐसी बातें मैं कह नहीं सकता था. संभव है वह किसी फर्म की ओर से नमूने की चीज़ें मुफ़्त देने आई हो और मेरी इस बात से नाराज होकर वह चीज़ें मुझे दिए बिना ही लौट जाए. लोग चाहे मुझे कुछ भी कहें, पर मैं आज भी स्वयं को एक शिष्ट व्यक्ति मानता हूँ. बचने का एक ही तरीका था : मैंने वही अपनाया. मैं दार्शनिक हो गया, “आज के युग में कौन किसी को पहचानता है जी.”

जब मैं किसी को पहचान नहीं पाता तो अकसर दार्शनिक हो जाता हूँ. इसकी प्रेरणा मुझे एक शराबी पड़ोसी से मिली थी. एक रोज वह सड़क के बीच नशे में लड़खड़ा रहा था. मैं उसे सहारा देकर घर तक लाया था. मैंने भी उससे यही प्रश्न किया था. उसने कहा था, “आपको कौन नहीं पहचानता. आप एक मनुष्य हैं.”

तभी से मैं ऐसे अवसरों पर दार्शनिक हो जाता हूँ. लोगों ने दार्शनिक बनकर बड़े-बड़े स्वार्थ साधे हैं, मैं क्या अपनी एक छोटी-सी दुर्बलता नहीं छिपा सकता.

पर मेरा मन अब भी चीख रहा था- ‘धोबन! धोबन! !’

उसने मुझे बताया, “आप मुझसे प्रेम करते थे. मैं आपकी भूतपूर्व प्रेमिका हूँ.”

मैं उसे पहचान तो गया, पर थोड़ी-सी कठिनाई हुई. काफी हिसाब किताब लगाना पड़ा. बात यह है कि सदा ही किसी-न-किसी से प्रेम करता रहा हूँ. मैट्रिक तक के प्रेम मैं अब उसी तरह भुला चुका हूँ जिस प्रकार तब तक लिखी गई अपनी कहानियाँ रद्दी समझ कर नष्ट कर चुका हूँ (हायर सैकेण्डरी का फैशन मेरे बाद चला था). इंटर में दो वर्षों में मैंने चार प्रेम किए थे- एक के बाद एक. बी.ए. में मैं साइमलटेनियसली पाँच-सात प्रेम इकट्ठे ही करता रहा था. एम.ए. में मैं हर पीरियड में अलग-अलग लड़की से प्रेम करता रहा हूँ. पी-एच.डी. में यदि उनके पति ने वार्निंग न दी होती तो मैं अपनी लेडी-सुपरवाइजर से ही प्रेम कर बैठा था. असल में यह सब कुछ धोखे में ही होता चला गया था. लड़कियाँ लंच पर मेरे खाने के लिए चीज़ें ले आती थीं, कभी-कभी मुझे अपने घर बुला लेती थीं, तो वे मुझे अच्छी लगने लगती थीं. बाद में वे यह कह कर मुझे बदनाम करती थीं कि मैं उन्हें प्रेम करता हूँ.

वैसे, मुझे आज तक यह समझ नहीं आया कि प्रेम करने में बदनामी कैसी है. एम.ए. में एक लड़की एक दिन बहुत रोई. मैंने कारण पूछा तो बोली, “लड़कियाँ कहती हैं ‘क’ उस पर बहुत मरता है”. मेरी समझ में तब भी नहीं आया था कि मरता है तो ‘क’ मरता है, रोएंगे उसके घर वाले. आखिर उस लड़की को रोने की क्या आवश्यकता थी!

मेरे एक मित्र हैं, उन्हें मुहल्ले की एक लड़की ने पत्र लिख दिया कि वह उनसे प्रेम करती है. वे बहुत तड़पे. पत्र लेकर मुहल्ले के बुजुर्गों के पास फटफटाते रहे कि लोग उस लड़की को मना करें कि वह ऐसे पत्र न लिखे. नहीं तो वे बदनाम हो जाएंगे.

मैंने पूछा, “भले आदमी. इसमें चिल्ल-पों मचाने की क्या बात है? उसने यह तो नहीं लिखा कि वह तुमसे घृणा करती है. प्यार ही तो करती है. तुम्हारा क्या लेती है. किए जाने दो प्यार. साला मुफ़्त का काम है, एक पैसा तक खर्च नहीं होता.”

तब वे नहीं समझे थे, पर अब समझते हैं. अब बड़ी शान से अपनी पत्नी को बताते हैं कि लड़कियाँ उन्हें प्रेम-पत्र लिखती थीं. यदि अपने इस बड़प्पन को वे पहले ही समझ जाते तो मुहल्ले के बुजुर्गों को कष्ट देने की उन्हें आवश्यकता ही न पड़ती.

मैं आरम्भ से इस विषय में वैज्ञानिक दृष्टिकोण लेकर चला हूँ. मुझे जब भी किसी लड़की ने कहा कि वह मुझसे प्रेम करती है, मैं बहुत खुश हुआ. मैंने उसे तुरन्त बता दिया, “तुम्हें पता है, कृष्णा भी मुझसे प्रेम करती है, निर्मला भी...” परिणाम यह हुआ कि उन तीनों ने मुझसे प्रेम करना छोड़ दिया.

वैसे, ऐसे अवसर कम ही आए. मेरा अपना व्यवहार लड़कियों से इतना अच्छा था कि बहुधा वे यह कहकर मुझे बदनाम करती रहती थीं कि मैं उनसे प्रेम करता हूँ. वैसे वे मेरे प्रेम से घबराया करती थीं, क्योंकि वे प्रेम को छिपाने की वस्तु मानती थीं, और मैं दिखावे की. बस इसी सैद्धांतिक मतभेद से मेरे प्रेम अकसर अधूरे ही रह गए. पर पता नहीं, वे अब भी मेरे उस मित्र के समान अपने पतियों के साथ अपने प्रेम की बात बता कर, गर्व कर पाई हैं या नहीं.

तो मैंने हिसाब लगाया कि वे जो बैठी थीं, उनसे मैं एम. ए. में बुधवार के दिन तीसरे पीरियड में प्रेम करता था. बात यह थी कि वह वैकल्पिक पर्चे का पीरियड था. और उस पीरियड में क्लास की सारी सुंदर लड़कियाँ अपने-अपने ऑप्शनल्स के लिए दूसरे कमरों में चली जाती थीं. हमारी क्लास में एक ही लड़की थी. प्रेम करना ही पड़ता था. बात उपलब्ध होने की है. जो चीज़ बाजार में मिलती होगी, उसी का तो प्रयोग होगा.

पर किसी समय उसके साथ मेरा प्रेम गंभीर हो उठा था. जिंदगी में किसी क्षण ब्राह्मण महत्वपूर्ण हो जाता है, कभी चमार! तो, किसी समय वह भी महत्वपूर्ण हो उठी थी. हमने आपस में शादी की भी बात की थी. पर शादी हो नहीं सकी. उसका कहना था कि वह मुझसे प्रेम तो करती है, क्योंकि प्रेम तो किसी से भी किया जा सकता है. पर वह शादी मुझसे नहीं कर सकती, क्योंकि मैं ज्यादा से ज्यादा एक लैक्चरर बनूंगा. शादी वह किसी ऊँची चीज़ से करेगी.

“कहिए- आपकी शादी हो गई?”

“हाँ! हो गई. तभी तो इतनी ‘हैल्दी’ हो गई हूँ.”

तो यह आपकी हैल्थ है- मैंने सोचा- शादी का सर्टिफ़िकेट. मैं कितना बाल-बाल बचा. यदि कहीं इससे शादी हो गई होती, तो आज कहीं इसकी ‘हैल्थ’ का इलाज कराता फिरता.

सहसा मुझे वैज्ञानिकों पर बड़ा क्रोध आया. दुनिया भर के अल्लम गल्लम पर रिसर्च कर मारी है, पर इतनी महत्वपूर्ण चीज़ की ओर इनका ध्यान क्यों नहीं गया. अभी तक इन्होंने ऐसी मशीन क्यों नहीं बनाई, जो शादी के पूर्व यह पता लगा सके कि शादी के पश्चात् लड़की की हैल्थ कितनी सुधरेगी. इनलार्जमेंट की इस क्षमता को नापना बहुत जरूरी है. मैं तो बच गया - मेरी किस्मत अच्छी थी. पर मेरे साथ के कितने लड़के, अपनी पत्नियों के सुपर हेल्थ को लेकर परेशान हैं.

मैं कुछ संकोच का अनुभव तो अवश्य कर रहा था, पर बात तो कोई करनी ही थी. पूछा, “आपके पति क्या करते हैं?”

“जी! हमारा अपना बिजनेस है!” वे बोलीं, “दिल्ली में हमारी ड्राइक्लीनिंग की चार दुकानें हैं.”

तभी-तभी – मैंने सोचा - धोबन! धोबन! तो वह सचमुच धोबन थी. मैं बाल-बाल बचा. वह चाहती थी कि मैं कोई ऊँची चीज़ बनूं तो वह मुझसे विवाह करे. ऊँची चीज़ अर्थात् धोबी. बड़ी किस्मत से बचा मैं. यदि कहीं विवाह हो गया होता, तो वह मुझे अवश्य ही धोबी बनाकर छोड़ती. पर, जिसकी जन्म-कुण्डली में धोबी से विवाह करना लिखा था, वह मुझसे विवाह कैसे करती.

“कहिए, कैसे कष्ट किया?” मैं औपचारिक हो उठा था.

“जी! हम अपने बच्चे को जिस स्कूल में एडमीशन दिलाना चाहते हैं, उसमें वे उसे ले नहीं रहे. स्कूल के प्रिंसिपल ने कहा कि वे लोग बुद्धिजीवियों के बच्चों को बिज़नेसमैनों के बच्चों पर प्रेफ़रेंस देते हैं. बिज़नेसमैनों के घरों में इंटलैक्चुअल एटमॉसफ़ियर नहीं होता.”

“ठीक कहते हैं प्रिसिपल.” मैंने कहा.

“हमें इससे कब इनकार है. पर यदि आप कोई एप्रोच....”

“मैं देखूंगा.”

वह प्रसन्न हो गई. पर मैं उसकी प्रसन्नता से डर गया. वह प्रसन्न होकर कुछ और ‘हैल्दी’ हो जाती थी.

“अच्छा जी.” वह उठ खड़ी हुई, “कभी हमारे योग्य कोई सेवा हो तो...”

“जरूर-जरूर.” मैं बोला, “कभी कहीं से कपड़े साफ धुलवाने होंगे तो आपकी सिफारिश की आवश्यकता पड़ेगी ही.”

“आप की मजाक की आदत अभी गई नहीं,” वह हँस पड़ी. और मैं उसकी प्रसन्नता से डर कर एक कोने में दुबक गया.

****.

रचनाकार – नरेन्द्र कोहली की अन्य त्रासदियाँ यहाँ पढ़ें:
http://rachanakar.blogspot.com/2005/12/blog-post_23.html
http://rachanakar.blogspot.com/2005/12/blog-post_26.html

***.
चित्र – कैनवस पर तैलरंगों में तपन दास की कलाकृति.

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रचनाकार: व्यंग्य : त्रासदी एक धोबन की
व्यंग्य : त्रासदी एक धोबन की
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