**-** {घड़ी के अलार्म की आवाज़, साथ ही बीवी जाग उठती है.} पत्नी – उह हूँह ... उहूँ हू हूँ. पति – आख्ख़ाह .... आ आ ... ख़ाह... पत्नी – तौबा ह...
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{घड़ी के अलार्म की आवाज़, साथ ही बीवी जाग उठती है.}
पत्नी – उह हूँह ... उहूँ हू हूँ.
पति – आख्ख़ाह .... आ आ ... ख़ाह...
पत्नी – तौबा है, यह आख़िर आधी रात के लिए अलार्म किसने लगा दिया था?
पति – आधी रात है यह. जरा देखो तो लिहाफ़ से मुँह निकाल कर दिन निकल आया है, छः बजने को हैं.
पत्नी – मगर यह अलार्म लगाया किसने था?
पति – मैंने लगा दिया था, परेड देखने जाना है ना.
पत्नी – परेड ?
पति – हाँ परेड. आज पहली जनवरी है ना.
पत्नी – ठीक है आज पहली जनवरी है और तुमने नए साल की मुबारकबाद भी न दी. खैर मैं ही तुमको नए साल की मुबारकबाद देती हूँ.
पति – तुमको भी नया साल मुबारक ! खुदा करे, यह साल हम सब के लिए भागवान गुज़रे!
पत्नी – अच्छा देखो, आज किसी बात पर ग़ुस्सा न करना और न कोई झगड़ा खड़ा करना. नहीं तो पूरा साल इसी किलकिल में गुज़रेगा. समझे कि नहीं?
पति – मगर एक बात है कि तुम भी आज ग़ुस्सा दिलाने की कोई बात न करना. मैं तो ख़ुद चाहता हूँ हम दोनों इस तरह हँसी-खुशी रहा करें कि दूसरे मियाँ-बीवी हम से सबक़ लें.
पत्नी – मैं गुस्सा दिलाने की कौन सी बात करती हूँ और अगर कोई बात हो भी जाय तो आदमी टाल दे, मगर तुम तो बाज. औक़ात लड़ाई के बहाने ढूंढते हो. चलती हुई हवा से लड़ते हो.
पति – इस क़िस्म के मौक़ों पर तुम हँस दिया करो.
पत्नी – हाँ, मैं हँस दिया करूँ और तुम ग़ुस्सा किया करो जैसे मैं तो मनुष्य हूँ ही नहीं.
पति – भला यह भी तो ग़ौर करो कि तुम पर ग़ुस्सा न करूंगा तो फिर किस पर करूंगा? क्या सड़क चलते आदमी से ग़ुस्सा करूंगा? और तुम ही मेरे ग़ुस्से को बर्दाश्त न करोगी तो कौन करेगा?
पत्नी – तो क्या मैं बर्दाश्त नहीं करती हूँ ? मैंने जैसा तुम्हारे ग़ुस्से को बर्दाश्त किया है उसको मेरा ही दिल जानता है.
पति – कहीं भी नहीं. मैंने तो हमेशा यही देखा है कि मेरे ग़ुस्से पर तुमको भी ऐसा ग़ुस्सा आता है कि मैं अपना ग़ुस्सा भूल कर अपनी जान बचाने की फिक्र करता हूँ. और तुम ऐसा हाथ धोकर पीछे पड़ती हो कि तौबा ही भली.
पत्नी – और क्या ऐसे ही तो बेचारे नेक हैं. ग़ुस्से में तुमको अगर पलट कर जवाब भी दे दूँ तो आफ़त आ जाय. मैं बेचारी क्या ग़ुस्सा करूंगी.
पति – भई, अगर ईमान की पूछती हो तो बात यह है कि दोनों तेज मिज़ाज हैं. और हम दोनों नाक पर मक्खी नहीं बैठने देते.
पत्नी – हाँ तो मैं यह कब कहती हूँ कि मेरे मिज़ाज में ग़ुस्सा है ही नहीं. मगर खुदा न करें कि तुम्हारी तरह ग़ुस्से में आपे से बाहर हो जाऊँ. अगर मुझमें भी तुम्हारी तरह ग़ुस्सा होता तो एक दिन भी बसर न होती.
पति – यह तो ख़ैर आपकी परवरिश है कि आप मेरे साथ बसर कर रही हैं. मगर आपकी सारी ख़ता यह है कि अपने ग़ुस्से को कभी ग़ुस्सा ही नहीं समझतीं और मेरी ज़रा सी बात आपके लिए ग़ुस्सा हो जाता है.
पत्नी – अब मेरी जबान न खुलवाओ. अगर खरी-खरी कहूँगी तो बुरा मानोगे. मैं तो यह कहती हूँ कि जब तुमको ग़ुस्सा आता है तो कुछ सुझाई नहीं देता. खुदा न करे कि तुम्हारा ऐसा ग़ुस्सा किसी में हो.
पति – वही ना कि मेरा ग़ुस्सा तो ग़ुस्सा है और तुम्हारा ग़ुस्सा गोया कुछ भी नहीं. तुम हमेशा मज़लूम बनी रहती हो. काश, तुमने कभी अपनी ज़्यादती भी समझी होती !
पत्नी – अच्छा तो मैं पूछती हूँ कि कल आख़िर मेरी क्या ज़्यादती थी ? मैंने यही तो कहा था कि तुमको अपने दोस्तों के पीछे घर का होश नहीं है.
पति – अच्छा तुम ही बताओ यह कौन सी कहने की बात थी ? दुनिया में किसके दोस्त नहीं होते ?
पत्नी – होते हैं और जरूर होते हैं, मगर यह मैंने कहीं नहीं देखा कि बस सुबह से शाम तक और फिर आधी-आधी रात तक दोस्तों ही में आदमी हा हा हू-हू किया करें.
पति – तुम्हारा मतलब यह है कि मैं सारी दुनिया को छोड़कर बस घर में घुसकर बैठ रहूँ, क्यों ?
पत्नी – और तुम यह चाहते हो कि बस घर को छोड़कर और सारी दुनिया से मतलब रहे.
पति – तो तुमने मुझसे इसी तरह समझा कर कह दिया होता.
पत्नी – ऐ और क्या, ऐसे ही तो तुम मेरी सुनने वाले हो ! बग़ैर कुछ कहे तो यह आफ़त आई कि हमसाई तक सोते में उछल पड़ीं...
पति – इसके मानी ये हुए कि हमसाई के डर से अपने घर में कोई बोले ही नहीं. और यह हमसाई का क़िस्सा आपको कैसे मालूम हुआ. उनसे भी मेरे ग़ुस्से का रोना रोया गया होगा.
पत्नी – हाँ क्यों नहीं ? मैं दुनिया भर में तुम्हारे ग़ुस्से का रोना ही तो रोती फिरती हूँ. उन्होंने खुद ही पूछा तो अलबत्ता मैंने भी कह दिया कि ख़फ़ा हो रहे थे.
पति – हाँ, हाँ वह तो मैं पहले ही समझता था कि तुम मुझको बदनाम करने से बाज नहीं आ सकतीं. अपने मैके में मेरा ग़ुस्सा तुमने मशहूर किया. अपनी एक-एक बहन को मेरी बदमिज़ाजी का रोना रोईं. अब पास-पड़ोस में मेरी दिमाग़ की ख़राबी का डंका पीटो.
पत्नी – देखो, इस वक्त मैके का कोई जिक्र न था.
पति – था कैसे नहीं, जब बात पैदा होगी तो कहीँ भी जाएगी.
पत्नी – अच्छा तो तुम क़सम खाकर कह दो कि मैंने तुमको बदनाम किया है.
पति – क़सम खाकर कह दूँ, गोया मैं झूठा हूँ, दरोग़गो हूँ, कज़्ज़ाब हूँ !
पत्नी – देखो, अब तुम ही को ग़ुस्सा आ रहा है और बेकार को बात बढ़ रही है.
पति – ग़ुस्सा क्या आ रहा है, जब मिज़ाज ही ख़राब है तो ग़ुस्सा आना क्या मानी ? मगर मैंने तो ख़ुद आपके घर में किसी को फ़रिश्ता नहीं देखा. अपने वालिद साहब को देखिए खाने में नमक तेज़ हो जाए तो दस्तरख़्वान उलट देते हैं. भाई साहब क़िब्ला हैं कि बारूद के बने हुए हैं. मगर साहब, बदनाम हैं तो हम ही.
पत्नी – आ गया न ग़ुस्सा ? मैं तो पहले ही डर रही थी.
पति – फिर वही ग़ुस्सा ! अरे साहब, यह ग़ुस्सा नहीं वाक़या है कि तुमने मुझको बदनाम किया है, मेरा ग़ुस्सा मशहूर किया है और तुम्हारी वजह से सब मुझको बदमिजाज कहते हैं.
पत्नी – अब तुम ही बताओ कि यह ग़ुस्सा नहीं तो आखिर क्या है ? और इसमें मेरे मशहूर करने की क्या बात है. क्या कोई तुम्हारी यह आवाज नहीं सुनता.
पति – आवाज़ नहीं सुनता, आवाज़ नहीं सुनता. कोई आवाज़ सुनेगा तो मेरा क्या करेगा. जो कोई मुझे कुछ देता हो न दे. तुम्हारे घर वाले मुझको बदमिज़ाज कहते हैं तो समझ में नहीं आता कि बदमिज़ाज से आखिर ताल्लुक़ात ही क्यों रखते हैं ?
पत्नी – वह तो तुम खुदा से चाहते हो कि किसी बहाने ताल्लुक़ात छूट जाएँ. मगर मैं पूछती हूँ कि आखिर इस वक़्त मेरे घर वालों के ताने क्यों दे रहे हो ? मैंने कभी तुम्हारे घर वालों के लिए एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा.
पति – मेरे घर वालों के मुताल्लिक़ तुम क्या कहतीं? कोई बात होती जब ही तो कहतीं.
पत्नी – अब कहलवाते हो तो सुनो – मेरे वास्ते कौन सी बात उठा रखी गई. तुम्हारे यहाँ बदमिज़ाज हूँ, फूहड़ मैं हूँ, तुमको मैंने उल्लू बना रखा है. एक ही बात हो तो कही जाए.
पति – मेरे घर वालों में से कोई ऐसी बात नहीं कह सकता.
पत्नी – हाँ हाँ, तुम्हारे घरवाले तो सब बड़े सीधे हैं. बड़े शरीफ हैं और बड़े नेक हैं. बुराइयाँ तो बस मेरे घर वालों में हैं.
पति – बेशक ! इसमें क्या कुछ झूठ भी है ! तुम्हारे मैके में छोटे से लेकर बड़े तक सबको मैंने खूब समझा है.
पत्नी – ख़ुदा की मार है मुझ पर कि मेरी वजह से मेरे मैके वाले ख़्वामख़्वाह बटोरे जा रहे हैं. खुदा मुझको मौत भी तो नहीं देता कि क़िस्सा ही पाक हो जाए.
पति – मेरे ज़ुल्म ही इतने ज्यादा हैं कि इन बेचारी के लिए सिवाय मौत के कोई चारा नहीं.
पत्नी – मालूम नहीं किस दिन मेरे मैके वालों ने तुम्हारी बदमिज़ाजी की शिकायत की थी. अलबत्ता अपने ग़ुस्से का चर्चा मैंने तुम्हारे यहाँ बच्चे-बच्चे की ज़बान पर सुना है. अभी कल वह टाँग बराबर का छोकरा बशीर कह रहा था कि भाभीजान ने तो भाईजान को दबा लिया है.
पति – तो क्या झूठ कहता है ? देखता नहीं है वह कि बराबर से लड़ती हो. तुमको तो शायद यही तालीम दी गई है कि शौहर को जूती की नोक पर रख कर मारना.
पत्नी – हाँ तो यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हारी शै पाकर ये छटांक-छटांक भर के बच्चे तक मुझसे जो चाहते हैं कहते हैं.
पति – ख़ैर तुम्हारे यहाँ तो मन-मन भर के बुड्ढे मेरी बदमिज़ाजी का रोना रोते हैं. अरे साहब, मेरा ग़ुस्सा तेज़ है, मैं बदमिज़ाज हूँ, मेरा दिमाग़ ख़राब है तो मुझको मेरा हाल पर पड़ा रहने दें. अगर किसी के आगे हाथ फैलाऊँ तो जो चोर की सज़ा वह मेरी.
पत्नी – अब तुम इतनी जोर-जोर से चीख़ रहे हो तो जो कोई सुनेगा क्या कहेगा ? यही ना कि ग़ुस्सा कर रहे हो.
पति – यह मैं ग़ुस्सा कर रहा हूँ?
पत्नी – तो मुझे क्या मालूम कि ग़ुस्से की तरह तुम्हारी खुशमिज़ाजी भी होती है और इस तरह तुम मज़ाक़ किया करते हो.
पति – मैं मज़ाक़ नहीं कर रहा हूँ, सच कह रहा हूँ कि तुमने मेरे ग़ुस्से का ढिंढोरा पीटा है. तुमने तमाम दुनिया में मुझको बदनाम किया है और तुम्हारी ही वजह से मैं बदमिज़ाज मशहूर हूँ.
पत्नी – अच्छा अब तुम ही बताओ कि इस वक़्त ग़ुस्से की कौन सी बात थी ?
पति – ग़ुस्से की बात, फिर वही ग़ुस्से की बात ! अरे साहब ग़ुस्से की बात यही है कि आप इसको ग़ुस्सा कहती हैं.
पत्नी – तौबै है अल्लाह ! ग़ुस्सा करते जाते हैं और फिर यह भी मुसीबत है कि इसको ग़ुस्सा न कहो.
पति – नहीं, कहो जरूर कहो ! मुझे तो देखना यह है कि तुम मुझको बदनाम करके आखिर पाओगी क्या, और मेरा क्या बिगाड़ लोगी ?
{और, इस तरह यह संवाद निरंतर जारी रहा अगले साल की पहली जनवरी तक....}
(रेडियो एकांकी – पहली जनवरी का संक्षिप्त स्वरुप)
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रचनाकार – शौकत थानवी का नाम उर्दू साहित्य के अति-प्रतिष्ठित हास्य-व्यंग्यकारों में शुमार है.
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