- नरेन्द्र कोहली सवेरे नींद खुली तो देखा, काफी देर हो चुकी है. समझ गया, गीता का कर्म-सिद्धांत एकदम सत्य है. रात को देर से सोया था, इसलिए प्र...
- नरेन्द्र कोहली
सवेरे नींद खुली तो देखा, काफी देर हो चुकी है. समझ गया, गीता का कर्म-सिद्धांत एकदम सत्य है. रात को देर से सोया था, इसलिए प्रातः देर से उठा. पर कर्म-श्रृंखला यहीं पूरी नहीं हुई. उसका प्रभाव दूर तक चलता चला गया. कुछ सिर भारी था और कुछ समय अधिक खिसक गया था.
आँखों में प्रेम के सागर उंडेलकर पत्नी से कहा, “प्रिये! आज दूध लेने नहीं जा सकूंगा.”
पर यहाँ कर्म-सिद्धांत ने काम नहीं किया, प्रेम के बदले मुझे प्रेम नहीं मिला. पत्नी की आँखों में मुझे न्यूटन का क्रिया और विपरीत क्रिया का सिद्धांत कार्य करता दिखाई पड़ा.
वह नाराज होकर बोली, “तो क्या बच्चे भूखे रहेंगे?”
मन में आया कि कह दूँ कि दूध न पीने का अर्थ भूखे रहना नहीं होता, और यदि रह भी लेंगे तो आसमान नहीं गिर पड़ेगा- संसार के लाखों-करोड़ों बच्चे प्रतिदिन एक समय भूखे रहने को बाध्य हैं. यह वैज्ञानिक सत्य है. पर मैं यह भी जानता था कि वैज्ञानिक सत्य पत्नी के सम्मुख कभी नहीं कहना चाहिए. और फिर उसमें कहीं अधिक राष्ट्रीय भावना है. देश की अगली पीढ़ी को भूखे रखने की सलाह मैं कैसे दे सकता था!
दूसरा मार्ग ढूंढा, “वे भूखे नहीं रह सकते, तो क्या मैं अपने प्राण दे दूँ?”
“अगली पीढ़ी के निर्माण के लिए प्राण देना हमारा राष्ट्रीय दायित्व है.” वह बोली, “ऐसे लोग ही शहीद कहलाते हैं.”
“तो मैं हड़ताल पर हूँ.” मुझे वह शोषक उद्योगपति दिखाई पड़ने लगी थी.
“तुम दूध लाने की हड़ताल नहीं कर सकते.” वह टस-से-मस नहीं हुई.
“क्यों?”
“दूध अनिवार्य सेवा के अंतर्गत आता है.”
मुझे याद आ गया कि फेरों से पहले ही उसने कैकेयी के समान मुझसे वरदान ले लिया था कि घर में अनिवार्य सेवाओं को अस्त-व्यस्त करने का अधिकार मुझे नहीं होगा. मैं वरदान देने को, दशरथ और स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेताओं के समान आतुर था- उसकी वरमाला जो चाहिए थी. पर, वरमाला गले में पहन लेने के बाद मैं उन्हीं दोनों के समान, वरदान को भूल गया था. ‘वर’ द्वारा दिया गया ‘दान’ ही ‘वरदान’ है, और कहते हैं न, कि दान करके भूल जाना चाहिए, सो मैंने यही किया था.
“मेरे ही वरदान में बांधकर मेरी जान लोगी क्या?” मेरी आँखों के सामने कैकेयी के चरणों पर सिर पटकते हुए दशरथ का चित्र उभर आया था.
“तुम्हारी जान तो मैं हूँ.” वह रसिक कूटनीति से मुस्कराई, “जान लेने और देने का प्रश्न ही कहाँ है?”
“अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं. क्या हम अपने घर के संविधान में परिवर्तन नहीं कर सकते?” मैं कातर हो आया था.
“संशोधन तो देशों के संविधान में होते हैं.” वह तनिक भी विचलित नहीं हुई, “घरेलू संविधान इतना कच्चा और अपूर्ण नहीं होता.”
“यहाँ गणतंत्र नहीं है क्या?” मैंने विवाद उठाया.
“गणतंत्र ही है.” वह बोली, “दो तिहाई बहुमत से संशोधन हो सकता है.”
दो सदस्यों के सदन में दो-तिहाई बहुमत नहीं हो सकता था. मैं पत्नी के अध्यादेश की शक्ति को समझ गया था.
मैं बंधा-बंधाया, जाकर दूध ले आया. अपनी खीझ को चाय के कप और ताज़ा समाचारों में डुबोने का प्रयत्न करने के लिए समाचार-पत्र उठाया ही था कि आदेश हुआ, “बच्चों को बस-स्टैंड पर पहुँचाकर आओ. स्कूल बस के आने का समय हो गया है.”
जला-भुना मैं बच्चों को बस-स्टैंड तक पहुँचाकर ही नहीं आया, बल्कि लौटते हुए बाजार से साग-भाजी भी लेता आया- जानता था, यह भी अनिवार्य सेवा ही है और संविधान में बड़ी शक्ति है.
कहते हैं न कि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं. मैंने जो अपनी आंखों में प्यार के महासागर भर कर पत्नी की ओर देखा था, उस कर्म का फल अगले दिन फला.
दफ्तर से लौटकर देखा- आज न केवल पत्नी की आँखों में प्रेम के महासागर की शरद्पूर्णिमा का स्वरूप उमड़-घुमड़ रहा था, बल्कि अपने प्रेम को रेखांकित करने के लिए वह सोलहों-श्रृंगार किए बैठी थी. यह तो निष्काम की तरह फला, अर्थात् मूल के साथ ब्याज भी मिल रहा था.
“कहीं जाने की तैयारी है क्या?” मैंने पूछा.
उसकी मुस्कान सरकारी प्रचार के समान चारों ओर शांति बरसा गई.
“आज मेरा जन्म-दिन है न!”
“ओह! मेनी हैप्पी रिटर्न्स ऑफ़ द डे.” मैं बोला, “सोलह वर्षों की हो गईं तुम?”
“हाँ! आज तीन सोलह पूरे किए हैं.”
“तो?” मैंने अपनी त्रि-षोडशी प्रिया की ओर देखा.
“आज खाना बाहर खाएँगे.” वह बोली.
मुझे लगा, कर्म-सिद्धांत केवल मेरे लिए ही नहीं है. वह उस पर भी लागू होता है. उसके भी कर के कर्म आज फल रहे थे.
“मैं बाहर खाना नहीं खाऊँगा.” मैं अपना सत्याग्रह ध्वनित करता हुआ बोला, “बाहर के खाने से मेरा पेट खराब हो जाता है.”
शूर्पणखा के ही समान अपना वास्तविक रूप प्रकट करने में उसे क्षण-भर भी नहीं लगा, “तो आज भूखे ही रहना पड़ेगा!”
“क्यों मेरी अन्नपूर्णा?”
“घर में खाना नहीं पकेगा.”
“हड़ताल?”
“हाँ! हड़ताल!”
“यह अनिवार्य सेवा है.” मैं अत्यंत निश्चिंत स्वर में बोला, “इसे तुम अस्त-व्यस्त नहीं कर सकतीं.” मैंने उसी के अध्यादेश में उसे बाँध लिया था.
पर वह बंधी नहीं. वह खिलखिलाकर हंस बड़ी, “बड़े भोले हो! वर तुमने मुझे दिया था, मैंने तुम्हें नहीं दिया था.”
“तो क्या संविधान दोनों पर लागू नहीं होता?” मैंने विवश जनता के-से याचना भरे स्वर में पूछा.
“कभी सरकार भी अपने अध्यादेशों में बंधी है?” उसने मुस्कराकर पूछा.
मैंने अपील नहीं की. उस शाम का खाना हमने बाहर ही खाया.
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रचनाकार – नरेन्द्र कोहली की यह त्रासदी आपने भी कभी भुगती है? आपकी अन्य त्रासदियाँ रचनाकार में यहां पढ़ें-
http://rachanakar.blogspot.com/2005/12/blog-post_23.html
चित्र: - अलेक्स मैथ्यू की कलाकृति – ए ब्लो अप ऑफ़ हर्ट, लकड़ी के रिलीफ़ कार्य पर एक्राइलिक रंग.
वाह क्या व्यंग्य है
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