***.*** - नरेन्द्र कोहली कहां तो वह मेरी बात भी नहीं सुनती थी और कहाँ उस दिन बोली, “मैं तैयार हूँ. जहाँ तुम्हारा मन चाहे, ले चलो.” मेरे मस्त...
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- नरेन्द्र कोहली
कहां तो वह मेरी बात भी नहीं सुनती थी और कहाँ उस दिन बोली, “मैं तैयार हूँ. जहाँ तुम्हारा मन चाहे, ले चलो.”
मेरे मस्तिष्क की कार्य-प्रणाली दिल्ली टेलिफोन-व्यवस्था से बहुत साम्य रखती है. उसकी स्वीकृति पाई और इधर गलत लाइन मिल गई. मेरे मन में अपनी मां का चेहरा उभरा. कब से मां कह रही है, “बेटा! वह कौन-सा दिन होगा जब तू एक चाँद-सी बहू मुझे ला देगा.” मेरे मन ने कहा, “यही अवसर है नरेन्द्र कोहली. दोनों की इच्छाएँ पूरी कर दे. इसकी इच्छा है कि इसे कहीं ले चल और मां की इच्छा है कि उसे बहू ला दे. बस! अब सोच मत. सास-बहू का मिलाप करा दे.”
ऐसा सुखी भी कौन होगा, जैसा कि उस समय मैं था : एक ओर प्रिया तैयार खड़ी थी - ‘ले चल जहाँ चाहे.’ और दूसरी ओर मां बाहें फैलाए खड़ी थी- ‘ले आ बेटा, जिसे चाहे.’
“जी तो चाहता है,” मैं बोला, “तुम्हें अपनी मां के पास ले चलूं.”
“मुझे अपने लिए रिजर्व कल लेना चाहते हो?” वह मुसकराई.
“हाँ! ताकि फिर तुम कहीं और न जा सको.”
“अच्छा, इस कार्यक्रम को कुछ दिनों के लिए अभी स्थगित ही रखो,” वह बोली, “मुझे एक काम याद आ गया है.”
मैं एक सहृदय प्रेमी के समान उसकी बात मान गया और वह चली गई. गई तो ऐसी गई कि भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास का नाम हो गई, अर्थात् – वह फिर नहीं आई.
तब समझ नहीं पाया था, पर आज मैं समझता हूँ कि वह क्या था. वस्तुतः श्रृंगार और वात्सल्य का मिश्रण बड़ी भयंकर भूल है. श्रृंगार और वात्सल्य का संबंध – बहू और सास का संबंध है. काव्य-शास्त्र की इसी भ्रांति में मार खा गया. भला बहू जाकर सास के पास रहना क्यों चाहेगी?
नारी-मनोविज्ञान का मेरा ज्ञान खासा अधकचरा और आउट-ऑफ़-डेट है. उसके इस वाक्य का अर्थ दस वर्ष बाद मेरी समझ में आया, और वह भी यारों के समझाने पर आया. वह कह रही थी कि किसी होटल में ले चलो, किसी रेस्ट्रां में ले चलो, किसी थियेटर में ले चलो, किसी पार्क में ले चलो. मैंने उसके सम्मुख सास के पास ले चलने का प्रस्ताव रख दिया. साहित्य के रसराज श्रृंगार रस के विषय में पढ़-पढ़ाकर आंखें फोड़ लीं और जीवन में व्यवहार का अवसर आया तो वात्सल्य जोर मार गया. यह रसों की त्रासदी भी...
पर मेरे साथ प्रेम के क्षेत्र में एक यही त्रासदी हुई हो – ऐसी बात नहीं है. ऐसी कुछ त्रासदियाँ और भी हैं.
हम कालेज के टूर पर निकले हुए थे. वह अकसर मेरे साथ ही घूमती थी. मेरे साथ ही बातें करती थी. अब बस में भी वह मेरे साथ ही बैठी थी. थोड़ी देर तो मेरी टाई और मेरे बालों की प्रशंसा करती रही, फिर बोली, “मुझे नींद आ रही है. जरा सीधे होकर बैठ जाओ.”
मैंने भौंचक हो उल्लू के समान उसकी ओर देखा - ‘सीधे बैठ जाओ’ तक तो ठीक था. मां भी यही कहा करती थी कि मैं झुककर बैठता हूँ. ऐसे में कमर झुक जाती है. मुझे सीधे होकर बैठना चाहिए. बाद में ड्रिल-मास्टर से लेकर क्लास-टीचर तक सबने यही कहा था - ‘सीधे बैठो !’ आज भी वह यही चाहती थी कि मैं सीधा बैठा करूं तो हर्ज क्या है ? दिन भर के घूमने-फिरने से थका हुआ तो था, पर उसकी बात मानकर सीधे बैठना श्रेयस्कर था. किंतु उसकी नींद से मेरे सीधे बैठने का क्या सम्बन्ध ? मन तर्कशास्त्र की ओर भागने की जगह पर काव्यशास्त्र की ओर भागा. समझ गया कि यह असंगति अलंकार है- कारण कहीं होता है, कार्य कहीं और होता है. नींद उसे आ रही थी और सीधा मुझे बैठना था. असंगति अलंकार का ऐसा सुन्दर, जीवन्त और आधुनिक उदाहरण सामने देख मैं गद् गद हो उठा. मेरा ध्यान उसकी ओर से हटकर परीक्षा की ओर चला गया. परीक्षा में यदि असंगति अलंकार के विषय में पूछा गया तो यही उदाहरण लिखूंगा. परीक्षक भी चित हो जाएगा...
अभी तो मेरा ध्यान परीक्षा-फल और उसके आधार पर मिलने वाली नौकरी तक जाता, पर उसकी हरकत से मेरी चिन्तन-प्रक्रिया में बाधा पड़ी, विचारों की शृंखला टूट गई और मेरा ध्यान पलट आया. हुआ यह कि मेरे सीधे बैठते ही उसने अपना सिर मेरे कंधे से टिका दिया था और सोने के लिए आँखें बन्द कर ली थीं...
मेरा मस्तिष्क काव्यशास्त्र के खेत को चरना छोड़, सरपट भागता हुआ नागरिकशास्त्र में जा घुसा ! यह कैसा शिष्टाचार है. इसे नींद आई है तो मैं तन कर रात-भर ड्यूटी पर बैठा रहूँ कि कहीं मेमसाब की नींद में विघ्न न पड़े. यह कैसा समाज है – स्वार्थी. केवल अपनी ही सुविधा का ध्यान है, दूसरे के आराम की तनिक भी चिन्ता नहीं. एक आदमी को आराम से सोने के लिए दूसरे का कंधा चाहिए, और दूसरे को जरा ढीले होकर बैठने की भी सुविधा नहीं...
पर मैं न तो उसे इस अशिष्टता के लिए फटकार सका, न नागरिक शास्त्र पर व्याख्यान दे सका. मरे कंधे से टिकी वह बड़ी प्यारी लग रही थी. मन भी पिघल रहा था और वह कंधा भी, जिससे लगी वह सो रही थी. दूसरा कंधा अपने भाग्य पर आठ-आठ आँसू रो रहा था... पर तभी मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कार दिया, ‘दुष्ट ! तू मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं है. एक अबला नारी, सैर-सपाटे से थकी-हारी, यदि तेरे सहारे से कुछ विश्राम कर लेना चाहती है तो तेरे मन में दूषित विचारों का मेला लग रहा है. तेरे घर में मां-बहन नहीं हैं क्या ? यह मानव-तन क्यों पाया है तूने, यदि कष्ट में किसी की तनिक सहायता भी तू नहीं कर सकता...’
आत्मा के धिक्कार का तत्काल प्रभाव हुआ. मेरे भीतर का सोया हुआ सामाजिक कार्यकर्ता जाग उठा और प्रेमी पुरूष सो गया. मैंने अपनी चेतना को जगाया और उसे याद दिलाया – यह शरीर दूसरों की सेवा के लिए ही था. विशेषकर यह कंधा तो बना ही इसीलिए था. मैंने वहीं बैठे-बैठे भीष्म प्रतिज्ञा की कि यह कंधा आज से जन-कल्याण के लिए ही अर्पित है- चाहे किसी कन्या के सोने के काम आए, या किसी की अर्थी उठाने के. आज से जो भी मेरा कंधा मांगेगा- यह उसी को अर्पित होगा...
पर उसे शायद नींद नहीं आ रही थी. वह सीधी होकर बैठ गई और ध्यान से मेरा चेहरा देखने लगी. कदाचित् देख रही थी कि उसके द्वारा मेरे कंधे का उपयोग मुझे बुरा तो नहीं लगा. सामान्यतः तो ऐसी हरकत मुझे बुरी ही लगती है. मैं अपना शेविंग सेट तो किसी और को देता नहीं, अपना कंधा कैसे दे देता ! पर उस क्षण मेरी आत्मा उदात्तता और उदारता के ऊँचे-से-ऊँचे शिखरों पर उड़ रही थी, इसलिए उसके द्वारा अपने कंधे के इस दुरूपयोग के लिए मैंने अपनी अप्रसन्नता नहीं जताई. बड़ी उदारता से बोला, “सो जाओ. सो जाओ. मैं बुरा नहीं मानूंगा.”
उसकी आँखों में मेरे प्रति प्रशंसा का भाव नहीं जागा. वह मुझे ऐसे देख रही थी जैसे मैं आदमी न होकर छछूंदर या ऊदबिलाव होऊँ. फिर स्वयं को बलात् संयत कर बोली, “मुझे नींद नहीं आ रही.”
जी में आया, उससे कहूँ कि नींद नहीं आ रही तो थोड़ी देर के लिए किसी और सीट पर जा बैठे, मैं ही अपनी कमर सीधी कर लूँ. पर तत्काल ही मेरे विवेक ने मुझे धिक्कारा. वह स्त्री है, कोमल है. मैं पुरूष हूँ, कठोर हूँ. मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए-
“क्यों ? नींद क्यों नहीं आ रही ?” मैंने पूछा.
“सिर में कुछ दर्द है.” वह बोली, “लगता है, ज्वर भी हो गया है. तुम मेरा सिर दबा दोगे ?”
इच्छा हुई कि उसे बता दूँ कि अभी-अभी मैंने स्वयं को दूसरों के कष्ट-निवारण के लिए समर्पित किया है और थोड़ा-बहुत ज्ञान अपने जीवन के आदर्शों का भी दे दूं. पर उसके सामने जुबान खुल नहीं पाई. मन में जाने कैसी गुदगुदी हो रही थी. वह मुझसे अनुचित लाभ उठा रही थी, फिर भी अच्छी लग रही थी.
हल्के से बोला, “दबा दूंगा.”
“थैंक यू.” वह बोली.
और इससे पहले कि मैं कुछ समझ सकता, वह अधलेटी-सी हो गई और अपना सिर मेरी गोद में रख दिया. मुझे अपनी दादी और अपने पिताजी याद आ गए. बचपन से ही वे लोग मुझसे सिर दबवाते रहे हैं. मेरी घंटे-घंटे की मेहनत के पश्चात् हल्की-सी प्रशंसा कर देते, “तुम बहुत अच्छा सिर दबाते हो.”
अपनी गोद में लेटी वह मुझे अपनी दादी लग रही थी. मैं अब इसका सिर दबाता रहूँगा और यह आराम से सो जाएगी. मेरी दादी भी यही किया करती थी. मैं उसका सिर दबाता रहता और वह खर्राटे लेती रहती. मेरी कलाइयाँ दुःख जातीं और उसके कान पर जूँ तक नहीं रेंगती. अपने कोमल और भीरू बच्चे को इस शोषण से बचाने के लिए मेरी मां अपनी सास से डरती-डरती, दरवाजे के पीछे से ही मुझे उठ आने का इशारा करती तो मैं उठने का साहस करता. पर मेरे उठते ही किसी जादू से मेरी सोई हुई दादी की नींद उचट जाती और वह करवट बदल कर कहती, “कहाँ जा रहा है ?”
मैं चिंतित हो उठा : मैं सिर दबाता रहा और यह सो गई, तो मेरा क्या होगा ? यहाँ तो मेरी मां भी नहीं है जो अपनी सास के पंजे से मुझे छुड़ाने का प्रयत्न करती और यह मेरी दादी की दादी मेरी गोद में सिर रखे आराम से लेटी हुई थी...
मैंने मन को समझाया. अपने आदर्शों को याद किया और उसका सिर दबाना आरम्भ किया. पर थोड़ी ही देर में मैं अपने मन के पाप को पहचानने लगा. उसका सिर दबाते-दबाते मेरी अंगुलियाँ बहक-बहक कर उसके गालों तक जाने लगी थीं. मैंने भयभीत दृष्टि से उसकी ओर देखा: कहीं उसे मालूम तो नहीं हो गया ? पर नहीं ! उसकी नींद, मेरी दादी की नींद से बहुत भिन्न थी. उसे मालूम नहीं हो रहा था कि मैंने उसके गालों को छुआ था. वह बड़ी सन्तुष्ट मुद्रा में, आँखें बन्द किए निश्चिंत पड़ी थी.
मैंने अपने मन को धिक्कारा : एक पराई स्त्री ज्वरग्रस्त हो, उसके सिर में पीड़ा हो रही हो, वह मुझसे सहायता मांग रही हो और मुझ में पाप जाग रहा है. धिक्कार है मुझे ! किसी की विपत्ति का लाभ उठाना कहाँ की मानवता है ! ... बस, इतना ही धिक्कार पर्याप्त हुआ. फिर मेरे सात्विक मन में तनिक भी पान नहीं जागा. मैं पूरी निष्ठा से उसकी दवा करता रहा और वह चुपचाप पड़ी रही. पर जब उसकी नींद मेरी दादी की नींद से भी लम्बी हो गई और मैं रोगी की सेवा-सुश्रूषा से ऊब गया तो सहायता के लिए मैंने अपने साथियों की ओर याचना-भरी दृष्टि से देखा. किन्तु, उनमें से किसी को भी मेरी स्थिति पर दया नहीं आई, न लड़कों को, न लड़कियों को (कितना कठोर है यह समाज और कितने दुष्ट होते हैं लोग.) उलटे वे लोग परिहास की मुद्रा में मुसकराते जा रहे थे. अन्ततः मुझे कहना ही पड़ा, “भई ! कोई आ जाओ. इसकी तबीयत ठीक नहीं है.”
पर तभी वह उठ कर सीधी बैठ गई. घूर कर यूँ देखा, जैसे मेरी कठोर भर्त्सना करने वाली हो. किन्तु वह इतनी कृतघ्न कैसे हो सकती थी ? क्रोध में भी उसके मुख से मेरे लिए प्रशंसा का वाक्य निकला, “तुम्हें काव्यशास्त्र ही समझ में आ सकता है.”
मुझे यह अधूरी प्रशंसा अच्छी नहीं लगी. आत्मप्रशंसा को दोष मानते हुए भी शालीनता की सीमा के भीतर से बोला, “नहीं, भाषा-विज्ञान में भी अधिकतम अंक मेरे ही थे.”
उसने सिर पीट लिया, “कौन सी भाषा समझते हो तुम ! मैं तुम्हारे निवेदन की प्रतीक्षा में हृदय थामे, बेशर्मों के समान तुम्हारी गोद में पड़ी थी और तुम अपने मित्रों को मेरा सिर दबाने के लिए बुला रहे थे... बौड़म कहीं के !”
और, तब हमारी समझ में आया कि हमारे जीवन में प्रेम की एक और त्रासदी घट गई है...
मेरे साथ प्रेम की एक छोटी-सी त्रासदी और भी घटी है- पर वह बस में नहीं, रेलगाड़ी में घटी थी. इस त्रासदी को उसकी पूर्ण समग्रता में समझने के लिए आपको थोड़ा-सा वातावरण का वर्णन भी सुनना पड़ेगा.
उन दिनों भी अभी मैं कालेज में ही पढ़ता था. उस दिन कहीं बाहर जाना पड़ रहा था... जब बात इतनी खुलकर हो रही है, तो फिर आपसे क्या छुपाना. भैया के साथ भी प्रेम की त्रासदी घट रही थी. भाभी मायके जाकर बैठ गई थीं और भैया के पत्रों का उत्तर नहीं दे रही थीं, इसलिए मुझे जाना पड़ रहा था. मुझे जाकर देखना था कि भाभी स्वस्थ तो हैं.
वह यात्रा भी बड़ी त्रासद थी साहब ! बिना आरक्षण का रेल का डिब्बा और कुंभ के मेले जैसी भीड़. अभी तो संध्या का ही समय था, पर यात्रा रात भर की थी. सोच रहा था कि रात कैसे कटेगी कि प्लेटफ़ॉर्म पर वह आती दिखाई दी. जैसा कि प्रेमकथाओं में होता है- वह हमारे कालेज में पढ़ती थी. पर साहब ! मैं अपनी रचना को घटिया रोमानी रचना नहीं बनाना चाहता इसलिए पहले से ही स्पष्ट कर दूं कि वह मेरी कक्षा में नहीं थी. मुझसे दो साल पीछे थी, और जब तक मैं पढ़ता रहा, वह मुझसे दो साल पीछे ही रही, अर्थात् हमारी दूरी निरन्तर बनी ही रही. पर उस दिन वह निकट आ गई. जिस खिड़की की सीट के साथ मैं तना बैठा था, उसी के पास आकर वह रुक गई और मुझे देखकर मुसकराई.
मैंने पहले तो गर्दन घुमाकर इधर-उधर देखकर पुष्टि की कि वह मुझे देखकर ही मुसकुरा रही है न ! जब पुष्टि हो गई कि मुस्कान मेरे लिए ही थी तो मेरे कान गर्म होने आरम्भ हो गए.
वह मुसकुराकर ही नहीं टली. बोली, “नमस्ते !”
शिष्टाचार का मारा मैं बोला, “नमस्ते !”
उसने परिचय कराया, “ये मेरे पिताजी हैं.”
समझ नहीं पाया कि यदि उसके साथ उसके पिताजी हैं तो मैं क्या करूँ. मैंने तो उससे पूछा भी नहीं था कि उसके साथ यह पुरूष कौन है. उसे मुझको स्पष्टीकरण देने की क्या आवश्यकता थी कि वह कोई पर-पुरूष नहीं- उसके पिताजी हैं. कोई किसी के साथ घूमता रहे, मुझे किसी से क्या लेना-देना. मैं कोई फिल्मों में चित्रित समाज हूँ कि दूसरों के निजी मामलों में हस्तक्षेप करता फिरूं. कोई अपने पिता के साथ घूमे या अपने बच्चों के पिता के साथ- मुझे किसी से क्या लेना-देना...
इससे पहले कि मैं कठोर स्वर में पूछूं कि ये तुम्हारे पिताजी हैं, तो मैं क्या करूं- ‘राम की शक्ति-पूजा’ की दुर्गा के समान मेरी मां की मूर्ति मेरे मन में उदित हुई और वह वाक्य बोली, जो ऐसे प्रत्येक अवसर पर मैं बचपन से सुनता आ रहा हूँ, ‘नमस्ते करो !’
“नमस्ते जी !” मैंने आज्ञा का पालन किया.
इस बार उसके पिताजी बोले, “बेटा ! बड़ा अच्छा हुआ, तुम मिल गए. गाड़ी में इतनी भीड़ है और ये बच्चे अकेले जा रहे हैं.”
और तब पहली बार मेरा ध्यान उसके साथ खड़े एक छोटे लड़के और लड़की की ओर गया.
“इन्हें जरा अपने पास बैठा लो.” उसके पिताजी ने कहा, “ये लोग अपनी अटैची पर ही बैठ जाएंगे. तुमको कष्ट नहीं देंगे.”
एक बार तो मन में भारतीय यात्री जागा. इच्छा हुई, डांट कर कह दूं- ‘यहाँ भी कोई जगह नहीं है. मैं स्वयं भी बड़ी कठिनाई से फंसा बैठा हूँ. आप इन्हें कहीं और ले जाइए.’
पर कह देना क्या सरल था ? वह मुझसे एक फुट की दूरी पर खड़ी मुझे देख-देख कर निरन्तर मुस्कराए जा रही थी. उसके छोटे भाई-बहन याचना-भरी दृष्टि से मुझे देख रहे थे. कालेज में जब से उसे देखा था, बात करने का कोई बहाना ढूंढता रहता था. आज अवसर मिला है तो रेल का भारतीय यात्री बन जाऊँ ?
अवसर से चूकना मूर्खता है और अवसर के पीछे भागना अवसर वादिता. समझ नहीं पा रहा था कि मूर्खता तथा अवसरवादिता में से श्रेष्ठ क्या है.... लगता है कि उसके पिदाजी मेरे द्वन्द्व को समझ गए थे. वे नहीं चाहते थे कि मैं अन्तर्द्वन्द्व की इस भयानक यातना में पड़ा अधिक देर तक कष्ट पाऊँ. वे दयानिधान बन कर मुझे इस पीड़ा से उबारने के लिए आगे बढ़े.
उन्होंने अटैची उठा कर मेरी ओर बढ़ाई, “लो बेटा ! पकड़ो.”
मन में एक बड़ा मधुर चित्र जागा कि मेरा और उसका विवाह हो गया है. उसके पिता हमें विदा करने आए हैं और उसके कपड़ों की अटैची मुझे पकड़ा रहे हैं.
मैंने आपसे कहा न कि मुझे ठीक समय पर ठीक बात कभी नहीं सूझती.
ऐसे रोमानी क्षणों में मेरा समाज-सुधारक जाग उठा. जी में आया कि चीख ही नहीं पड़ूं, बल्कि उन्हें डांट कर कहूँ, “मैं दहेज का कट्टर विरोधी हूँ. मैं दहेज में कुछ नहीं लूंगा. यदि आप बाध्य करेंगे तो मैं दहेज के साथ-साथ आपकी लड़की को भी छोड़ जाऊँगा...”
यह तो अच्छा हुआ कि उसकी मुस्कान की उपस्थिति में मेरी वाचालता हवा हो गई थी और मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था. यदि कहीं कुछ बोल पड़ता तो अनर्थ हो जाता. मैं होश में आया. अपने भीतर के समाज-सुधारक के सिर पर एक चपत जमाई और चुपचाप हाथ बढ़ाकर अटैची थाम ली. उसके पश्चात् उसका हाथ भी थामा (जीवन भर के लिए नहीं, खिड़की के मार्ग से गाड़ी में आने के लिए, सहायतार्थ).
फिर उसके पिताजी चले गए. अब उसका और उसके भाई-बहन का अभिभावक मैं ही था. तब पहली बार मुझे ज्ञात हुआ कि और अनेग गुणों के साथ-साथ मुझमें एक बहुत अच्छे अभिभावक के भी गुण हैं. मैं सतर्क हो गया मुझे उनके लिए स्थान बनाना था. चाहे मुझे कितना ही कष्ट क्यों न हो.
पर उसने मुझे अधिक कष्ट नहीं करने दिया. उसने पैरों के पास अपनी अटैची बिछा दी और उस पर अपने छोटे भाई-बहन को बैठा दिया. स्वयं वह दीवार से टिक कर खड़ी हो गई.
मैं यह कैसे सहन करता ! उसे बैठने के लिए जगह न मिले और मैं आराम से बैठा रहूँ. मैं उठ कर खड़ा हो गया.
“यहाँ बैठ जाओ”
उसने मुझे देखा और मुसकराई. ऐसी मुस्कान मैंने पहले कभी नहीं देखी थी. लगा, मेरे शरीर का सारा रक्त सनसनाने लगा है. वह आगे बढ़ी. उसने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे मेरी सीट पर बैठाया और स्वयं खिड़की की ओर मुझसे सट कर बैठ गई.
यह तो अद् भुत अनुभव था- जिससे दो बातें करने को सारा कालेज तरसता था, वह यहाँ मुझसे इस प्रकार सटी बैठी थी. इस दृश्य को कालेज का कोई लड़का देख ले, तो जल कर घटना-स्थल पर ही मर जाए.
कालेज का लड़का तो कोई मरा नहीं, मेरे भीतर का समाज-सुधारक जल मरा. उसने बिना चेतावनी दिए ही लाठी-चार्ज कर दिया, ‘साले ! शर्म से डूब क्यों नहीं मरते ? उस भली लड़की को बैठने की जगह नहीं मिल रही है. वह तुम्हें कष्ट नहीं देना चाहती, इसलिए तुम्हारे साथ बैठ गई और तुम उससे सटे जा रहे हो. किसी की मजबूरी का ऐसे लाभ उठाना चाहिए. छिः... !’
दुत्कार इतनी बढ़ी कि मैं डर गया. कहीं ऐसा न हो कि इससे परेशान होकर मैं चलती गाड़ी से कूद जाऊँ.
मैंने स्वयं को सँभाला और यथासंभव दूसरी ओर खिसकता गया. पर मुझे लगा कि मेरे साथ बैठी हुई वह ठोस नहीं, तरल पदार्थ है. जितना मैं खिसकता था, उतनी वह फैल जाती थी. उसका स्पर्श इतना मादक था कि सिर भन्नाने लगा था. एक ओर मन पिघलता जा रहा था और दूसरी ओर विवेक लताड़ता जा रहा था. परिणाम जाने क्या होता कि उसकी छोटी बहन कुनमुनाई, “हम दीदी के साथ बैठेंगे.”
मेरा जाग्रत विवेक आगे बढ़ा. मैं उठ खड़ा हुआ. बच्ची को उठाया और उसके साथ सीट पर बैठा दिया. किंतु, उसकी ओर देखा तो जानने में क्षण भी नहीं लगा कि फिर त्रासदी हो गई थी. अपनी नन्हीं बहन को सुविधाजनक स्थान पर बैठी देखकर वह तनिक भी प्रसन्न नहीं दीख रही थी. उसकी आँखों में मेरे लिए इतनी लताड़ थी, जितनी मेरे विवेक की कल्पना से बाहर थी...
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रचनाकार की टीपः
· व्यंग्य संकलन – त्रासदियाँ, संस्करण 1982, राजपाल एण्ड सन्ज़, कश्मीरी गेट, दिल्ली से चयनित.
· इस त्रासदी कथा में आपको आनंद आया? वैसे भी मनुष्य दूसरे की त्रासदी में ही आनंद लेता है. अगर हाँ, तो नरेन्द्र कोहली की अन्य त्रासदी-व्यंग्य-कथाएँ रचनाकार के अगले अंकों में पढ़िए, जिसके रचनाकार में पुनर्प्रकाशन की विशेष अनुमति नरेन्द्र कोहली ने दी है.
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रचनाकार – नरेन्द्र कोहली हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ रचनाकार हैं. विस्तृत जानकारी के लिए देखें आपका व्यक्तिगत जालस्थल – http://www.narendrakohli.org/
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