**-** उस दिन शरद अचानक भड़क उठा. एकदम अचानक गालियाँ बकने लगा, ‘सारी व्यवस्था चोर है. सब साले कुत्ते हैं.’ इससे पहले सारी बहसों में वह नई व्य...
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उस दिन शरद अचानक भड़क उठा. एकदम अचानक गालियाँ बकने लगा, ‘सारी व्यवस्था चोर है. सब साले कुत्ते हैं.’ इससे पहले सारी बहसों में वह नई व्यवस्था का सबसे बड़ा समर्थक होता था. वह तर्क देता था- ‘एक मेघावी आदमी और अयोग्य के बीच फर्क तो रखना ही होगा. सरकार नहीं रख रही है इसी लिए तो रसातल को जा रही है. इससे बचने का नाम ही नई व्यवस्था है.’ हर तरह से पूंजी, भोग और शोषण को जायज ठहराने के लिए वह तर्क गढ़ देता था.
उस समय उस महाजोट में शामिल पत्रकार उदितनाथ ‘घायल’ बहुत घायल हो जाते थे. उन्हें लगता था कि यह लड़का दुनिया के बदलाव से नावाकिफ एक ऐसी दुनिया में जी रहा है जिसे सपनों और खालिस सपनों की दुनिया कहा जाए तो गैर मुनासिब नहीं होगा. बकौल घायल जी ऐसे लोग फूल्स पैराडाइज में जीने वाले लोग हैं और जब तक लात नहीं खाते इन्हें अक्ल नहीं आती.
तब की बात है जब उदितनाथ घायल बिहार के एक छोटे से कस्बे से दुनिया बदलने की हसरत और हौसले के साथ दिल्ली की भीड़ में अपनी पहचान खड़ी करने आए थे. घायल कवि थे और उनकी कविताएँ कुछेक जगहों पर छप चुकी थीं. हिन्दी साहित्य उन्होंने पढ़ा था और उन्हें विश्लेषण करना आता था. एक अख़बार में बतौर रिपोर्टर काम करने का भी अनुभव था और उस अख़बार में इज्जत के साथ छप चुके थे. उन्हें भरोसा था कि उनकी प्रतिभा के कायल लोग उन्हें ‘जगह’ दिला देंगे, लेकिन यहाँ आकर मालूम हुआ कि इस पेशे का बाजार क्या है और यहाँ किस प्रकार की प्रतिभाओं की दरकार है?
जीने के लिए उन्होंने एक बिल्डर के अख़बार की नौकरी कर ली और संघर्ष का मोर्चा खोल दिया. उस अख़बार में बस इतना ही मिल पाता था कि या तो कमरा ले सकते थे या फिर खाना खा सकते थे. दोनों सुविधाएँ एक साथ मिल पाना असम्भव था. इस अवस्था ने घायल जी जैसे अड़ियल आदमी में एक परिवर्तन ला दिया. उन्होंने सामंजस्य से काम लेने का फैसला लिया.
घायल जी ने कामरेड वीआई लेनिन को पढ़ा था. रूसी क्रान्ति के दस्तावेज़ से बावस्ता थे. ऐसे में कम्यूनिस्टों के सौ कदम पीछे, एक कदम आगे वाले फ़ॉर्मूले पर उन्होंने अमल किया और महाजोट में शामिल हो गए. रहने और खाने के लिए. वैसे उन्होंने कभी महाजोट को अपने काबिल नहीं माना. वे यह मानकर चलते थे कि यह टोली बुद्धिहीनों का जमावड़ा है. यही वजह थी कि वे मुद्दों पर बात करने से कतराते थे.
उस टोली में शरद ही एक ऐसा लड़का था जिसके पास कलेक्टर बनने का सपना था. वह पढ़ाकू था और खुद को महान मानता था. घायल जी से वही उलझता था और घायल तमाम उदाहरणों के जरिए उस पर हावी होने का प्रयत्न करते, लेकिन हर बार वह रूसी समाजवाद के बिखराव और रोमानियाँ के कम्यूनिस्ट शासक चाउसेस्कू जैसों को उनके सामने ला पटकता.
महाजोट के लड़के मजा लेने के लिए कभी-कभार बहस में शामिल होते थे. उनके पल्ले बहस नहीं पड़ती थी इसलिए इससे बाहर रहना उनकी मजबूरी थी. उनके लिए तो यह बहस एक फालतू और बिलावजह बकवास थी.
उन्हीं दिनों की बात है एक दिन घायल जी ने झल्लाकर शरद से कह दिया - ‘अभी सड़कें नहीं नापे हो बबुआ जब नापनी पड़ेगी और निजी क्षेत्र की कारगुजारियाँ झेलनी पड़ेंगी तब समझोगे कि निजीकरण और भूमंडलीकरण गरीब लोगों को छलने के शाब्दिक मायाजाल के सिवाय कुछ भी नहीं है. नयी व्यवस्था कुछ और नहीं है, बस यह चन्द लुटेरों की लूट को जायज बनाने की साजिश है. दुनिया बाजार हो रही है. लोग या तो खरीदार हो रहे हैं या फिर बिकाऊ. जो दोनों में से कुछ भी होने के काबिल नहीं हैं, बाजार उन्हें निकाल बाहर कर रहा है. वे कहीं के नहीं हैं.’
तब शरद ने व्यंग्य भरे लहजे में कहा था ‘घायल जी अव्वल तो दुनिया में वही सरवाइव करते हैं जो दुनिया के हिसाब से फिट हैं, और फिर ऐसे लोगों की फिक्र करने के लिए आप जैसे घायल तो हैं ही. हम जैसे एडमिनिस्ट्रेटर माइंडेड यह सब नहीं सोचते. हमारा काम तो बस स्मूथली सिस्टम को चलाना होगा.’
उसने उनकी औकात बताते हुए कहा था ‘और घायल जी सच तो यह है कि आप जिस अख़बार में अपनी कलम घसीट रहे हैं वह भी किसी ‘मन्दिर के महन्त’ का या आपके किसी कामरेड का नहीं है. खालिस पूंजीवादी आदमी का अख़बार है. आपके आदि कामरेड मार्क्स को भी उनके पूंजीपति मित्र एंजेल्स का सहारा नहीं मिला होता तो आपका समाजवाद उन्हीं के साथ दफन हो गया होता.’
यह सुनकर घायल जी बहुत घायल हो गए थे. उन्हें लगा था ऐसे ही संवेदना से रहित लोग व्यवस्था चला रहे हैं और ऐसे ही लोगों के दम पर यह व्यवस्था टिकी है. मध्यम वर्ग का यही हिस्सा अपनी दोगली सोच और मक्कारी से किसी भी देश के वंचितों को और वंचित और शोषकों के हितों का पोषण करता है. तब घायल जैसे नास्तिक ने भी भगवान को याद किया था और यह प्रार्थना की थी कि यह सात जन्म में भी प्रशासनिक अधिकारी नहीं हो पाए.
उस समूह में घायल जी के अलावा तीन और लड़के थे. सभी का पेशा अलग-अलग था. एक देश के सबसे बड़े कम्प्यूटर संस्थान का छात्र था. उसका नाम प्रवीण था और वह बस अमेरिका की समृद्धि और वैभव का बखान करता था. भारत में रहते हुए भी वह अमेरिका में जी रहा था. वह कुछ इस अन्दाज में बातें करता मानों दर्जनों बार अमेरिका हो आया हो. उसके सपने में पैसा और लड़की के अलावा और कुछ था ही नहीं. उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं था कि दुनिया कहाँ जा रही है.
तीसरे सज्जन चन्दन कुमार एक थ्री स्टार होटल में ट्रेनी मैनेजर थे. एक कपड़े की दुकान के मुंशी के बेटे चन्दन कुमार ने खातों की लीपापोती का पुश्तैनी ज्ञान हासिल कर लिया था और वाणिज्य की कामचलाऊ पढ़ाई ने उसके इस ज्ञान को और माँज दिया था. महाजोट में उसकी बड़ी चलती थी. उसके कई कारण थे. वह अकसर होटल से खाना और किसी विदेशी-देशी सम्पन्न ग्राहक से बख़्शीश में मिली शराब मुहैया करा देता था. घायल उसे बात करने के लायक नहीं समझते थे. हालांकि वह उनकी बड़ी इज्जत करता था.
महाजोट में रोजगार में आने वाला तीसरा सदस्य प्रवीण बना. देश की नामी बिल्डिंग कन्सट्रक्शन कम्पनी में कम्प्यूटर ऑपरेटर का ओहदा मिला था. प्रवीण ने इस नौकरी को टाइम पास कहा था. उसकी दृष्टि में भारत वह देश ही नहीं जहाँ आदमी काम कर सके. उसकी बातों से यही लगता था कि उसे इस देश में पैदा होने का दुःख है. प्रवीण को नौकरी लगे कुछ ही दिन हुए थे. सभी के किस्से पुराने थे. चन्दन के होटल में आने वाले यात्रियों और उनकी अय्याशी, यहाँ तक कि किस तरह की लड़कियाँ उन देशी-विदेशी कस्टमरों के लिए बिछती हैं, इसके सिवाय कुछ नहीं होता था.
प्रवीण के नौकरी में आने के बाद दफ़्तरी संस्मरणों में थोड़ा रस आ गया था. प्रवीण के एक साहब थे. उन साहब के भी साहब थे और इन सबकी बड़ी फौज थी. ढेर सारे कर्मचारी थे. एक बड़ी बिल्डिंग में पूरा दफ़्तर था. रोज कम्पनी की बस से आते-जाते थे. प्रवीण ने एक दिन खुलासा किया कि दफ़्तर के कम्प्यूटर पर कैसे-कैसे काम होते हैं. उसने बताया कि दफ़्तर के कम्प्यूटर पर उन फ़िल्मों को आसानी से देखा जाता था, जिसे देखना नैतिक और क़ानूनी तौर पर गलत माना जाता है. इस काम में उसके बॉस मेहरा साहब तो सबसे आगे रहते थे.
प्रवीण के साथ उस कम्पनी में एक लड़की को भी नौकरी मिली थी. यह संयोग था कि दोनों के सरनेम एक जैसे थे और एक दिन एक ही समय दोनों का साक्षात्कार हुआ था. दोनों को एक साथ नौकरी पर बहाल किया गया था और साथी कर्मचारी से लेकर उसके बॉस तक को यह लगता था कि दोनों पूर्व परिचित हैं और दोनों के बीच कुछ है. एक सप्ताह बाद ही दफ़्तर के एक बुजुर्ग साथी ने प्रवीण को टोक दिया था - ‘और भाई, कब तक शादी-वादी कर रहे हो. अभी रोमांस का ही इरादा है या फिर यूँ ही मजे ले रहे हो.’ इस सवाल ने प्रवीण जैसे मॉड दिमाग के लड़के को थोड़ी देर के लिए निरूत्तर कर दिया था. उसने बहुत कोशिश करके पूछा और तब उसे मालूम हुआ कि उसके बारे में कैसी कथा चल रही है.
सिर्फ प्रवीण को ही नहीं, उस लड़की को भी महिला साथियों ने पूछा था. एक दिन दोपहर को खाने की छुट्टी में दोनों कैंटीन में एक ही टेबल पर मिले. दोनों दफ़तर में चल रही चर्चाओं पर खूब हँसे. प्रवीण को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि उसके कम्प्यूटर पर जो कुछ होता है वही सब कुछ लड़की के कम्प्यूटर पर भी होता है.
महाजोट में यह विवरण काफी रोचक था. सिर्फ घायल जी को छोड़ सभी ने मजा लिया. घायल जी ने इसे तकनीक के अनैतिक उपभोग के तहत वर्गीकृत किया था. इसके अलावा घायल जी इस नतीजे पर भी पहुँचे कि बाजार आदमी को दिमागी रुप से पंगु बनाने के लिए हर चीज का इस्तेमाल करता है. उनके अनुसार आदमी को सीयर रोमांटिसिज्म में डुबोना और फिर उसे किसी लायक नहीं छोड़ना व्यवस्था के कायम रहने की पहली और आखिरी शर्त होती है. उन्होंने यह भी माना कि असन्तोष और कुव्यवस्था के खिलाफ एकजुट और एकमुश्त आवाज नहीं उठने देने के लिए सिर्फ लोगों को खेमों में बांटना ही जरूरी नहीं है. बल्कि उनके बीज इतने सपने पलने चाहिए कि लोग उन्हें पूरी करने के जायज-नाजायज तरीके ही आजमाते रह जाएँ. व्यवस्था इस बात को अच्छी तरह जानती है और उसे बड़ी सावधानी से आजमाया जा रहा है, ताकि लोगों में विरोध की ताकत ही न रहे.
स्थितियाँ तेजी से बदल रही थीं. नई तकनीक के नाम पर नई तरकीब सामने आ रही थी. नौकरी से छंटनी के लिए वी.आर.एस की तरकीब से लोग निकाले जा रहे थे. बीमार बताकर उद्योगों में तालाबन्दी हो रही थी. बीमार बनाने के लिए तरकीब आजमाई जाती थी फिर विनिवेश के नाम पर उनका निजीकरण किया जा रहा था. छोटे-छोटे घपले बड़े घपलों की आंधी में छिपते जा रहे थे. इन सबके बीच ईमानदारी और कानून के शासन का ढोंग चल रहा था. उदारीकरण के विरोधी सत्ता में आते ही इसके प्रबल समर्थक बन गए थे और धीमी गति से चल रही पूंजीकरण की प्रक्रिया तेज हो गई थी. निजी क्षेत्र में छोटी मछलियों को बड़ी मछलियाँ निगल रही थीं. कमजोर अर्थव्यवस्था उदारीकृत होकर मजबूत अर्थव्यवस्था को और मजबूत बना रही थी और खुद का अस्तित्व मिटा रही थी.
इस बदलाव ने सबसे पहले घायल जी का रोजगार छीना. एक दिन उनके मालिक ने उन्हें बुलाकर कहा, ‘घायल जी, आप तो योग्य आदमी हैं. आपके पास योग्यता है, कहीं भी नौकरी मिल जाएगी. मेरे यहाँ काम ही कितना है. सच पूछिए तो मेरे अख़बार की हैसियत ही क्या है. आप जैसे प्रतिभावान व्यक्तियों को सहारा मिल जाता है यही इस अख़बार का गौरव है.’ घायल जी जैसे सीधे-साधे आदमी को बात बहुत सम्मानजनक लगी थी. उन्हें लगा था कि यह आदमी उन्हें अपने से ज्यादा आंकता है. पर महाजोट में शामिल लड़कों ने उनकी सोच की धज्जियाँ उड़ा दी थीं.
शरद ने कहा था, ‘घायल जी दुनिया को अक्ल देने से पहले खुद अक्ल से काम लेना सीखिए.’ तब घायल जी भी बुद्धू बन गए थे. घायल जी का मालिक एक छोटा सा बिल्डर था, इसलिए सबसे पहले उनका मालिक ही धराशायी हुआ था. सरकारी जमीनों की हेराफेरी और फिर उस पर बड़े भवन बनाकर बेचने के धन्धे में बड़ी मन्दी छा गई और इस धन्धे में कुछ और बड़ी फर्में कूद गई थीं. जिन जमीनों की हेराफेरी वह निचले स्तर के नेता और अफसरों से सांठगांठ कर लेता था, उसमें ऊपर से ही डीलिंग शुरू हो गई थी. इसलिए आमदनी कम हो गई थी. मालिक की माली हालत खराब हो गई थी इसलिए वह अख़बार नहीं चला पा रहा था.
घायल जी बुद्धू बनकर उस अख़बार से बाहर हो गए थे. वैसे भी वह अख़बार घायल जी जैसे ‘मिशनरी’ आदमी के लिए था ही क्या? सिर्फ ठहराव का एक साधन. बेरोजगारी की दौड़ शुरू होते ही घायल जी ने देखा सबसे पहले उनके जिगरी अलग हो गए. उन्हें लगा कि लोग बस रस्मी तौर पर उनसे मिल रहे हैं. एक दिन घर के लोगों को मालूम पड़ा और सबसे खास पत्नी का जो पत्र मिला उससे घायल जी ‘रिश्तों का अर्थशास्त्र’ जैसे गम्भीर विषय पर सोचने के लिए मजबूर हुए और अन्ततः उन्होंने एक सिद्धान्त प्रतिपादित किया - ‘संवेदनशील रिश्तों तक बाजार की दखल.’
काफ़ी दिनों तक घायल जी बाजार की मारामारी में शामिल रहे. जीने के लिए इस बीच फुटकर काम से काम चलाते रहे. कुछ समय बाद एक अख़बार में नौकरी मिल गई. इस अख़बार की खूबी अपनी थी. जिस अख़बार में घायल जी काम कर रहे थे उसका मालिक 32 अख़बार निकाला करता था. विज्ञापन के दम पर वह अख़बार निकालता था. उस अख़बार ने यह ज्ञान दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पैसे कमाने की स्वतन्त्रता के सिवाय कुछ नहीं है.
यह संयोग ही था कि घायल जी के फिर से रोजगार में आने के चन्द रोज पहले जिस शख्स की नौकरी गई वह प्रवीण था. नौकरी जाने के दिन तो प्रवीण बिल्कुल निस्पृह दिखा था, पर एक सप्ताह बाद ही उसमें अजीबो-गरीब परिवर्तन दिखने लगे थे. भारत को नौकरी के लायक नहीं समझने वाले लड़के में एक समझदार परिवर्तन था. वह घायल जी के जैसा शब्दों का जाल बुनने में उस्ताद नहीं था और नहीं शरद के जैसा वाक चातुर्य सम्पन्न व्यक्ति कि वह कुछ ज्यादा कह पाता. वह सपाट भाषा में सब कुछ बयान करने वाला आदमी था अतः उसकी व्यथा सपाट थी.
उसके एक साथ कई दुःख थे. नौकरी जाने का दुःख. बैठे रहने का दुःख. और सबसे ज्यादा उसकी प्रेम कहानी अधूरी रहने का दुःख. शुरू में उसने यही जाहिर किया था कि उसे कोई गम नहीं है, पर धीरे-धीरे उसमें परिवर्तन आते गए. उसे यह मालूम नहीं हो सका था कि कब और कैसे वह उस लड़की से प्यार कर बैठा था. दोनों अकसर दोपहर की छुट्टी में मिलते थे और दफ़्तरी प्रेम कथा के नए संस्करणों का मजा लेते थे. यह क्रम नौकरी जाने से पहले तक जारी रहा. नौकरी जाते ही यह घनिष्ठता सिर्फ परिचय तक सिमटकर रह गई. यही प्रवीण के दुःख का कारण था.
प्रवीण की कम्पनी एक बड़ी निर्माण कम्पनी थी. बड़े ठेके और गगन चुम्बी भवनों का निर्माण करने में उसका बड़ा नाम था. उदारीकरण की इस व्यवस्था में उसके डूबने का कोई खतरा नहीं था, लेकिन उसकी प्रतिद्वन्द्वी कम्पनियों ने पूर्व के एक ठेके में हुई गड़बड़ी के आधार पर उसकी जमीन खिसकानी शुरू कर दी. इस खेल में राजनीति से लेकर सबसे तेज बढ़ते अख़बार और सबसे पहले सूचना देने का दावा करते हुए टीवी चैनल भी शामिल हुए. मीडिया वार के इस कुचक्र को प्रवीण की कम्पनी भेद नहीं पाई. नई कम्पनियों ने ठेके हथियाने के लिए और भी कई हथकंडे आजमाए थे. कई नेताओं को भागीदारी दी थी या उन्हें दूसरी तरह का लाभ पहुँचाया था. नए काम के नहीं मिलने और पुराने के विवाद ने कम्पनी की हालत पतली कर दी.
इन सारी सूचनाओं को पाकर घायल जी ने एक निष्कर्ष निकाला कि पूँजीवाद अन्ततः अपने ही अन्तर्विरोधों का शिकार होगा. उनके हिसाब से अंश, हिस्सेदारी और वर्चस्व की लड़ाई इस व्यवस्था के लिए वाटलरू साबित होगी. यह व्यवस्था भी अपने प्रतिद्वन्द्वियों से भिड़ने में उसी तरह तबाह होगी जिस तरह उपनिवेशवाद का खात्मा हुआ.
यह न्यायिक सक्रियता का दौर था. भ्रष्ट व्यवस्था में अदालती फैसलों की गूंज सुनाई दे रही थी. देश की राजनीति में मंडल-कमंडल के अलावा और कोई मुद्दा नहीं था. घायल जी को लगता था कि उनके सारगर्भित लेखों का जमाना अभी है ही नहीं, इसलिए उन्हें उन अखबारों में काम मिलता है जिनकी पहुँच नदी-नाले से लेकर भाजी बेचने वाले की दुकान या फिर कूड़ेदान तक है. इसके विपरीत सर्वाधिक प्रसार वाले अखबारों में या तो अमेरिका या फिर पश्चिमि दुनिया की नकल छपती है या फिर मुद्दाहीन राजनीति की बकवास. इन सबके अलाबा जनता के वाजिब सवालों को बड़ी बेदर्दी से दबाया जा रहा था. आंकड़े छप रहे थे. अमुक राज्य ने नई आर्थिक नीतियाँ अपनाकर अमुक क्षेत्र में इतना प्रतिशत तरक्की की है. अमुक राज्य ने सूचना-तकनीक से अपने शासन में इतना सुधार किया है. तब यह समाचार कहीं बिसूर रहा होता था कि उन्हीं अगुआ राज्यों में कितने किसान घाटे नहीं सह पाने के कारण आत्महत्या कर बैठे. तब यह खबर सिर्फ चौंकाऊ अन्दाज में आती और गुम हो जाती कि उड़ीसा के अमुक जिले में आदिवासी जहरीले पौधे का व्यंजन खाकर मर गए. जैसे ही इन खबरों की विक्रय क्षमता खत्म हो जाती थी वैसे ही खबर भी लापता हो जाती थी. अलबत्ता हालीवुड और बालीवुड की खबरों से लेकर दिल्ली के पंचसितारा संस्कृति की खबरें प्रमुखता पाती जा रही थीं. घायल जी को लगा कि समाचारों का भी उदारीकरण हो चुका है और पत्रकारिता अपना वैश्विक रूप ले चुकी है.
उसी दौरान घायल जी के जीवन में एक और युगान्तरकारी घटना घटी. उन्हें पता चला कि उनका मालिक जिन लड़कियों को नौकरी पर रखता है, उन्हीं की बदौलत विज्ञापन पाता है. इतना ही नहीं मालिक की बीवी और साली भी विज्ञापन हासिल करने की इस नायाब विद्या में साझीदार थीं. इस स्थिति में खुद को नैतिक रूप से छल पाने में असमर्थ घायल जी ने एक दिन नौकरी छोड़ दी.
महाजोट अब भी कायम था. नौकरशाह बनने का सपना लिए शरद जी घूमते-घामते जमीन पर आ गए थे. उनके पास प्रबन्धन की डिग्री थी और इन्जीनियर थे ही. तैयारी करने के दौरान इतिहास और सामान्य ज्ञान भी हासिल कर लिया था. इतनी योग्यता उन्हें जीने-खाने लायक तो दिला ही देती, पर उन्हें इतने से सन्तोष नहीं था. फिर नौकरशाही की एक मानसिकता होती है. सब मिलाकर शरद जी नई व्यवस्था में मिसफिट महसूस कर रहे थे और सरकारी नौकरियों के भाव के हिसाब से दाम न दे पाने की मजबूरी ने उन्हें हिलाकर रख दिया था. इसके अलावा निजी क्षेत्र की नौकरी के पचड़े अब दिख रहे थे. इसीलिए अब वे मुद्दों पर चुप हो गए थे. उनकी चुप्पी शराब के प्याले से टूटती थी और फिर उसमें डूब जाती थी.
महानगरीय जीवन में प्रेम का दर्शन पढ़कर प्रवीण जी सूफ़ियाना अन्दाज में बातें करने लगे थे. महाजोट में एक ही आदमी नहीं बदला था वह था चन्दन. उसके होटल व्यवसाय में कोई मन्दी नहीं थी. भला हो सरकार की विनिवेश नीति का कि कई सरकारी होटल भी उसके मालिक के कब्जे में आ गए थे. चन्दन की कमाई बढ़ गई थी और फिर भी वह महाजोट में ही था.
सड़क पर आने के बाद घायल जी ने एक बार फिर अपने मन के लायक अख़बार की तलाश शुरू कर दी थी. जिन्दगी में रास्तों की तलाश में घायल जी एक शाम को दिल्ली के कनाट प्लेस में थे. हर रोज की तरह आज भी फुटपाथ से सड़क पर भागती हुई जिन्दगी थी. सड़क के किनारे अपनी दुनिया की तलाश कर ठिकाने की ओर भागते लोगों की भीड़ का हिस्सा वह भी थे. नौकरी में रहते हुए घायल जी को दिल्ली की शाम कभी ऐसी नहीं लगी थी. पटरी की दूसरी ओर एक लड़का एक लड़की से चिपटा चला जा रहा था. एक जोड़ा जोरदार चुम्बन लेते हुए दिखा, पर इससे बेखबर एक भीड़ सबको रौंदते हुए आगे बढ़ने को उतावली दिख रही थी. घायल जी इसी भीड़ का हिस्सा थे. उन्हें लगा इस भीड़ में वे लोग शामिल हैं जो सपने की तलाश में हैं. मगर वह सपना क्या है? वे लोग जो दूसरी और किनारे पर दिख रहे हैं क्या वही सपना है? क्या वही मंजिल है? या फिर पंचसितारा होटलों के कमरे या पॉश कॉलोनियों की कोठियाँ? मंजिल क्या है, सपना क्या है? ये लोग क्या पाना चाहते हैं? यह पहला मौका था जब घायल जी को किसी निष्कर्ष पर पहुंचने में कठिनाई हुई. उन्हें लगा कि सभी एक अन्तहीन यात्रा में शामिल हैं. वह, प्रवीण, शरद और चन्दन सभी इसी भागती हुई भीड़ का हिस्ता हो गए हैं.
वे तेज कदमों से बस स्टैंड की तरफ बढ़ने लगे जहाँ से उन्हें हौजख़ास के लिए बस पकड़नी थी.
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रचनाकार – नरेन्द्र अनिकेत के विभिन्न विषयों पर आलोचनात्मक आलेख देश की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं. संप्रति दैनिक भास्कर के सेंट्रल डेस्क पर उप-सम्पादक हैं.
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