-संजय विद्रोही " बाजार तो जाने को धर्म ही ना रह्यो, आजकल तो. इतनो ट्रेफ़िक, इतनो धुँआ और इतनो शोर. बाप रे बाप. इससे तो अपनो घर ही भलो. प...
-संजय विद्रोही
" बाजार तो जाने को धर्म ही ना रह्यो, आजकल तो. इतनो ट्रेफ़िक, इतनो धुँआ और इतनो शोर. बाप रे बाप. इससे तो अपनो घर ही भलो. पर, बगैर जाय सरतो भी तो ना है. गली वालो बनियो, एक रुपय्या की चीज के सवा रुपय्या ले लेवे है मरो. बजार में ये तो है कि रिपिया की चीज रिपिया में मिल जावै है. गिरस्ती में इन सब बातन को भी तो ख्याल करनो पडे है लाली." विमला मौसी साड़ी के पल्लू से पसीने पोंछती हुई बोले जा रही थी.
"हाँ, सो तो है." मैंने छोटा-सा उत्तर देकर निजात पा ली. रिक्शेवाला हम दोनों की बातों से बे-खबर अपने काम में लगा था.
" तुम्हारी कसम लाली, ना ना करते पाँच हजार को तो राशन आ ही जातो है घर में महिना पै. अब तुम ही कहो, दूध ना पीयें, या घी ना खायें. साग सब्जिन कू भी मरिन कू आग लगि पडी है. कोई सब्जी दस रिपिया पाव से कम है ही ना मण्डी में. तुम्हारे अंकल कहेंगे, दाल बनाओ. तो दाल क्या मुफ़्त में आवै है? वाके भाव भी तो आसमान पै हैं."
" हाँ मौसी, सो तो है."
" अब तुम ही कहो शक्कर कितनी मंहगी है आजकल? और तुम्हारे अंकल की आदत तो तुम जानो ही हो, कित्ती खराब है? ना जाने कहाँ कहाँ से यार-भायले पकड़ के ले आवें हैं चाय पीने कूं? दिन भर गैस पे पतीली चढ़ी रहे घर में. जिस पर यूं और कहें मुझ से, कि तू खरचा जादा करती है. तुम ही बताओ शक्कर क्या मेरे पीहर से लाऊँ?" मौसी ने होठों में भर आए थूक को हाथ से पोंछते हुए मन की व्यथा कह सुनाई. लाल बत्ती हो गई थी. सारे ट्रैफ़िक के साथ हमारा रिक्शा भी रुक गया था. मैं भी सोच रही थी कि आज विमला मौसी के साथ बुरी फ़ंसी. मम्मी से मिलने आई थी. जाने लगी तो बीच ही में इन्होंने पकड़ लिया. "चल लाली, नेक बजार चली चल मेरे संग" ओर मैं मना नहीं कर पाई. बाजार में जिस भी दुकान पर गई, उल्टा सीधा कह-सुन कर उठी मौसी और नाहक माफी मांगते-मांगते थक गई मैं.....
.....अचानक एक मोटर बाइक तेजी से हमारे रिक्शे के ऐन बगल में आकर झटके से रुकी. बाइक पर एक लड़का और एक लड़की बैठे थे. लड़की, लड़के से बिल्कुल सटकर बैठी थी. बाइक के रुकते ही पीछे बैठी हुई लड़की पूरी की पूरी , बाइक चला रहे लड़के पर आ पड़ी. लड़की ने पीले रंग की पटियाला सलवार कमीज वाला शॉर्ट-सूट पहन रखा था और गले में मैचिंग का दुपट्टा डाले थी. चेहरे पर उसने हरे रंग का स्कार्फ़ इस तरह से लपेट रखा था कि वो धूप से बचने के लिए कम , पहचान छुपाने के लिए लपेटा गया ज्यादा प्रतीत हो रहा था. आँखों के अलावा चेहरा जरा भी नहीं दिख रहा था. मौसी ने उनकी ओर घूर कर देखा तो लड़की थोड़ा सकुचा कर संभलकर बैठ गई. मौसी धीरे से मेरे कान में फ़ुसफ़ुसाई- " देख लाली, लड़किन कैसा कैसा चरितर करें हैं आजकल? मुँह पर फ़ेंटो बाँध लेवैं हैं, जा मारे कि कोई पहचान ना ले मिलने वालो और छोरा के साथ फ़टफ़टिया पर चिपक चिपक के बैठे हैं. बता का गिरस्ती बसायेंगी ये आगले घर जाकर? सबकछु तो ये अभी ही कर लेंगी, बाद में तो निरी फ़ोर्मल्टी रह जाएगी ब्याह के बाद. देख, मरी कैसी बैठी है भिड़के?" मैंने भी देखा, वाकई लड़की बाइक पर लड़के से चिपक कर बैठी थी. किन्तु अब थोड़ा सलीके से थी. थोड़ा असहज भी. शायद वो समझ गई थी कि हम उसी की बात कर रहे हैं. इतने में ही हरी बत्ती हो गई और वो फ़र्रररर...से निकल गए. हमारा रिक्शा भी सरकने लगा.........
" याने जैसो सूट पहन रखो ना, एसो को एसो हमारी सीला के पास भी है. आजकल फ़ैसन है, इनको. पटियाला सलवार और सोर्ट सूट कहें हैं इन कूं." मौसी यूं आँखें घुमाई, मानो मेरे सम्मुख किसी रहस्य का उदघाटन किया हो. वो बोलती जा रही थी," पन देख लाली, हमारी सीला कू. मजाल, बिना काम नेक भी घर से बाहर रहती हो. बस, घर से कालेज और कालेज से घर. गर में भी वा भली, वाको कमरो भलो. बंद करके पढ़ाई करती रहे. एक इन लड़किन कूं देख, कैसो बेसरमपनो उठा रखो है? मान- मर्यादा कछु है ही नाय."
" हाँ, मौसी." मैं और क्या कहती?
" मैं तो कहूँ, या में इन्के घर वारन की भी गलती है. उनकी आँख फ़ूट जायें हैं क्या, पतो ही ना? तुम्हारे अंकल ने तो या मारे ही सीला कू कोई लूना-वूना नय दिलाई. छोरिन के पास लूना हो तो, घूमती फ़िरैं इत-उत कू. तेरे अंकल ने साफ़ कह दी, बस से आओ- बस से जाओ. ठीक है ना, लाली. बस में आए जाए तो टेम से आ जाए चली जाए. अब या लड़किन कूं ही देख, मरी कैसी लदी जा रही छोरा पर. छोरन को का जाए? खा-पीकर,मुँह पूंछ कर चल देवें. लड़की जात की तो लाज चली जाये, तो का बचे फ़िर? बोल."
" सही बात है मौसी. जमान ही एसा है. लड़के लडकियाँ कहाँ सुनते हैं किसी की?"
" ये बात ना है लाली. सुनते क्यूं ना हैं? हमारी सीला सुनै है कि ना? घर वालन को कंटरोल होनो चाहिए, बस. छोरिन कूं क्यूं इत्ती आजादी देवें कि नाक कटाती डोलें बजार में. तुम्हारे अंकल तो सख्त खिलाफ़ हैं, इन सब के."
घर आने ही वाला था. तीन बज चुके थे. मैंने सोचा, आज रात मम्मी के पास ही रुक जाती हूँ. 'वो' इन्तजार ना करें, सो तुरन्त मोबाईल मिलाया.
"हैलो! मैं बोल रही हूँ.......एसा है आज मैं मम्मी के यहाँ ही रुक जाती हूँ, आप कहें तो."
"ठीक है, मुझे भी आफ़िस में आज देर हो जाएगी."
"खाने का?"
"ऑफ़िस में ही कुछ मँगवा लूँगा, चिन्ता मत करना. ओके." कह कर 'उन्होंने' फ़ोन बंद कर दिया.
थोड़ी ही देर में घर आ गया. हमारा घर गली में मुड़ते ही और नुक्कड़ से ही नजर आता है जबकि मौसी का घर थोड़ा अन्दर चलके है, जो कि नुक्कड़ से नजर नहीं आता है.
....मम्मी के घर में शाम हमारी छत पर ही गुज़रती है. मेरी शादी से पहले भी और आज भी. वहीं चाय बनाकर दे जाती है भाभी. बच्चे भी वहीं धमाचौकड़ी मचाते रह्ते हैं. मम्मी- पापा भी वहीं बैठे बतियाते रहते हैं. मम्मी उन्हें दिन भर के समाचार देती रहती है और वो जवाब में "हाँ-हूँ" करते-करते अपना अखबार पढ़ते रहते हैं. आज भी ऐसा ही हुआ. भाभी चाय दे गई, सब व्यस्त हो गए. मैं छत पर घूम-घूम कर चाय पीने लगी. मेरी पुरानी आदत है.
अचानक मैंने देखा कि दूर नुक्कड़ से थोड़ा पहले ही एक मोटर बाइक आकर रुकी . 'अरे! ये तो वो ही लड़का-लड़की हैं सुबह वाले' बरबस ही मेरे मुँह से निकल पड़ा और उत्सुकता वश मैं खड़ी होकर दीवार की ओट से उनको देखने लगी. लड़की ने उतर कर लड़के को "बाय" किया और लड़का हाथ हिलाता हुआ चला गया. इसके बाद लड़की ने इधर-उधर देखते हुए अपना स्कार्फ़ खोला और तहाकर उसे पर्स के सुपुर्द किया. अब वो जरा नॉर्मल लग रही थी, किन्तु अभी भी उसका मुँह दूसरी तरफ ही था. फिर उसने हाथों से अपने बालों को ठीक किया और संयमित कदमों से गली की तरफ घूमी.
"शीला!!?" मैं एकदम चौंक पड़ी.
(समाप्त)
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रचनाकार – संजय विद्रोही की अन्य रचनाएँ रचनाकार पर यहाँ पढ़ें: बहाने से, इम्तिहान , चंद ग़ज़लें
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