- स्वामी वाहिद काज़मी यह भला कैसे संभव है कि मैं भूल जाऊँ. कदापि नहीं ! मुझे ठीक मरते दम तक स्मरण रहेगा कि वह इक्कीसवीं शती में लुढ़कती बीसव...
- स्वामी वाहिद काज़मी
यह भला कैसे संभव है कि मैं भूल जाऊँ. कदापि नहीं !
मुझे ठीक मरते दम तक स्मरण रहेगा कि वह इक्कीसवीं शती में लुढ़कती बीसवीं शती के 96 वें साल के पांचवें मास की दसवीं तारीख़ थी. दोपहर के तीन बजे थे. महीना भर से रोग-पीड़ित मेरा शरीर मृत्यु की कामना एवं प्रार्थना करते-करते थक कर शान्त-क्लान्त पड़ा था.
अचानक कमरे में एक अजीब सी सुगन्ध भर गई महसूस हुई. बड़ी कठिनाई से पलकों से पलकें जुदा कीं तो क्या देखता हूँ कि बन्दों की रूह खींचने के कार्य पर नियुक्त अल्लाह मियाँ का ख़ास फ़रिश्ता इज़राईल मेरे दाँयी ओर, और हिन्दू धारणाओं के अनुसार, प्राणियों के प्राण हरण करने के ख़ास अधिष्ठाता यमराज बाँयी ओर मौजूद हैं. महीना भर पहले एकदम और अचानक बहरे हो गए कानों में पता नहीं कैसे श्रवण क्षमता भी पुनः लौट आई थी. उन दोनों में हुए संवाद के संपादित अंश यहाँ प्रस्तुत हैं :
इज़राईल - ‘यमराज जी, ख़ुद आपने क्यों ज़हमत फ़रमाई? आपके मातहतों का – यमदूतों तो पूरा स्टाफ़ है.’
यमराज - ‘इज़राईल भैया, आप सत्य कहते हैं. किन्तु अति सज्जन पुरुषों के प्राण हरने मेरे दूत नहीं, मैं स्वयं आता हूँ.’
इज़राईल - ‘अच्छा.’
यमराज - ‘यह बड़ा सज्जन पुरुष था. जब यह आठवीं कक्षा में पढ़ता था तभी से इसने हिन्दू धर्मशास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया था और शायद आप जानते हों कि सबसे पहले इसने जो धर्म ग्रन्थ पढ़ा उसे कोई आम मुसलमान कदाचित स्पर्श करना भी पसंद न करे. वह था – सत्यार्थ प्रकाश. आगे चलकर तो गीता, वेद, पुराण, मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों में इसकी इतनी अधिक रुचि रही कि क्या किसी आधुनिक हिन्दू को होगी. हिन्दू धर्मशास्त्रों का इत्र निकाल कर अपने वस्त्र बसाता था. अभी कोई एक वर्ष पूर्व इसने गीता पर जो रेडियो वार्ता प्रसारित की थी उसे सुनकर तो देवलोक में भगवान् विष्णु भी हर्षित हो उठे थे.’
इज़राईल - ‘सच फ़रमाते हैं आप. वो वार्ता हम ने भी सुनी थी. उसमें इसने श्रीकृष्ण जी को पैग़म्बर के दर्जे की हस्ती बताया था. जिस तरह उर्दू और हिन्दी इसे अपनी दोनों आँखों की तरह अजीज थीं उसी तरह इसके खून में हिन्दू-मुसलिम तेहज़ीब के रंग घुले हुए थे. शायद आपको याद हो, सूफ़ी संतों और सूफ़ी दरवेशों पर इसने ढेरों मज़मून लिखे थे जो एक तरह से इसके ज़मीर की आवाज़ थे. इसके लिखे वो मज़मून और मक़ाले आसमानों पर पढ़े जाते थे तो कितने ही दरवेश और वली अल्लाह इसकी तारीफ़ करते अघाते नहीं थे.’
यमराज - ‘मुझे ज्ञात है भाई. यह भी पता है कि परलोक वासी उन्हीं संतों-ज्ञानियों की परोक्ष छाया इसके सिर पर कवच की भान्ति सतत रही. अन्यथा इसके भितरघाती परिजन तथा विरोधियों ने तो इसकी तिक्का-बोटी करने में तनिक कसर नहीं छोड़ी थी.’
इज़राईल - ‘जी हाँ, हर मोर्चे पर इसने बड़ी सख्त जद्दोजहद की.’
यमराज - ‘चलिए, अब हम इसे सारे संतापों से मुक्ति दिलाएँ.’
इसके पश्चात् दोनों ने मिलकर मेरे प्राण निकाले और एक सुनहरी डिबिया में बंद कर मेरे सिर के ऊपर लगी खूंटी में टाँग दिया. फिर वे बाहर इस मंत्रणा के लिए चले गए कि मेरे मृत शरीर का अंतिम संस्कार किस विधि से सम्पन्न किया जाए. क्योंकि मैंने तो हिन्दू-मुसलमान के भेद-भाव से परे केवल एक इन्सान की भान्ति जीवन व्यतीत किया था इसलिए मेरा अपना कोई ऐसा आग्रह या इच्छा ही नहीं थी कि मेरा अंतिम संस्कार किस विधि से किया जाए. जलाया जाने अथवा दफ़नाया जाने, दोनों से बेन्याज़ था. अतः उन दोनों फ़रिश्तों ने यह उचित ही इरादा किया कि कोई मध्यम मार्ग सोचकर मेरे मित्रों के मन में चुपके से ऐसी प्रेरणा जमा देंगे कि बिना किसी कठिनाई के राज़ी-खुशी मेरा अन्तिम संस्कार सम्पन्न हो सके.
अचानक भड़ाक से द्वार खुला और एक युवक ने धड़धड़ाते हुए भीतर प्रवेश कर बड़े जोर से मानो नारा मारा - ‘स्वामी ऽ ऽ जी, नमस्ते ऽ ऽ !’
यह वही युवक था जो अकसर मेरे पास भेजा चाटने आया करता था और उसका व्यवहार कुछ छिछोरपन, कुछ असभ्यता का मिश्रित रूप होता था. हस्बे आदत धम्म-से सोफे पर बैठते-बैठते पता नहीं उसे कैसे यह आभास हो गया कि यह सामने पलंग पर खुली आँखें लिए स्वामी जी नहीं उनकी लाश पड़ी है. मानों साक्षात् कोई भूत देख लिया हो ऐसी बदहवासी के साथ वह उठा और तीर की तरह कमरे से बाहर चला गया.
थोड़ी देर बाद खुले दरवाजे से मेरे एक हिन्दू मित्र ने प्रवेश किया जिसके चेहरे पर गिलहरी की दुम जैसी बेतरतीब बड़ी घनी मूंछें थीं. मैं उन्हें मुच्छड़ कहना अब भी पसन्द करूंगा. ये एक तथाकथित डॉक्टर थे. भीतर घुसते ही उन्होंने होठों से अलग कर सिगरेट बाहर फेंकी और झुककर मेरे मृत शरीर का मुआयना किया. जब यक़ीन हो गया कि मेरा शरीर वाक़ई निष्प्राण है तो उन्होंने हस्बे आदत पुलिसिया ऐँठ व स्वाभाविक ठसक से चारों ओर दृष्टि घुमाकर कमरे का जायज़ा लिया, फिर एक अलमारी खोलकर कुछ उठाया-धरी करनी चाही.
अभी मुच्छड़ साहब ने अपने इरादे को क्रियान्वित नहीं किया था कि नीली लुंगी, ढीला कुर्ता, गंजी चाँद वाले एक मुल्ला टाइप मियाँ जी ने मानों हाँफते हुए भीतर प्रवेश किया और मुच्छड़ साहब को देखकर मानो चौंकते हुए उन पर सीधा सवाली प्रहार किया - ‘आप यहाँ क्या कर रहे हैं ? मैं खलील खां हूँ.’
मुच्छड़ साहब ने उन्हें घूरते हुए मोर्चा सँभाला और सख्त तेवरों के साथ जवाब दाग़ा - ‘मैं स्वामी जी का इस शहर में इकलौता दोस्त हूँ. चूंकि इनका कोई वली वारिस नहीं है और ये बहुत महान् साहित्यकार थे. तन, मन, धन क्या सारा जीवन उन्होंने साहित्य सेवा के लिए अर्पित कर दिया था. उनकी इच्छा थी कि उनके सारे संग्रह को सुरक्षित कर एक स्मारक बनवाया जाए. वह योजना मेरी ही थी. अतः उनका सारा संग्रह यहाँ से उठा ले जाने के लिए आया हूँ, पूर्व इसके कि उनकी मृत देह यहाँ से उठे.’
ख़लील ख़ां पैर पटकते हुए भन्नाए - ‘ये एक लावारिस मुसलमान का माल है. इसे कोई ग़ैर-मुसलिम नहीं ले सकता. आपकी योजना की ऐसी तैसी ! मैं पुलिस में रिपोर्ट कराके आया हूँ. खैरियत इसी में है कि चुपचाप सिधार जाओ वरना अभी पुलिस आकर सारा दिमाग दुरुस्त कर देगी. ’
मुच्छड़ साहब ने गुस्से से मूंछे फड़काते डपटकर कहा - ‘ऐ मुल्ले ! जबान संभालकर बात कर वरना एक घूंसे में बत्तीसी बाहर आ जाएगी.’
‘मेरे भी हाथ बंधे नहीं हैं मुच्छड़ !’ ख़लील मियाँ भभके- ‘उधर हाथ उठा नहीं कि इधर से धोबी पाट के एक ही वार में कमर टूट जाएगी.’
इस हंगामें की पृष्ठभूमि स्पष्ट करनी आवश्यक है.
मुच्छड़ का एक शिष्य – खुश लिबास, गोरा-चिट्ठा, खूबसूरत आदमी था. पुरानी धुरानी चीज़ों, किताबों, चित्रों आदि का संग्रह करने का उसे शौक़ था. वह मुच्छड़ साहब की नीयत भली प्रकार जानता था कि स्वामी जी के नाम पर स्मारक बनाने की हवाइयाँ उड़ाकर वे सारा संग्रह अपने घर ले जाएंगे और फिर कहाँ का स्मारक कैसा स्मारक. वह यह चाहता था कि स्मारक, बने या न बने किन्तु संग्रह बरबाद न हो. मुच्छड़ साहब की सम्पत्ति नहीं बनना चाहिए. उसकी हार्दिक इच्छा थी और इस आशय की वसीयत लिख देने को उसने मुझसे कई बार संजीदगी से कहा भी था – कि मेरे मरने के बाद सारा संग्रह उसके खाली पड़े एक कमरे में पहुँचा दिया जाए, फिर बाद में यह तय किया जाए कि क्या करना चाहिए. उसे यह भी पता था कि मुच्छड़ साहब के सामने न उसकी दाल गलेगी और न कोई बात बनेगी. मुझे मरा पाकर वर युवक बदहवास-सा भागा. उसने इस गोरे चिट्टे डाक्टर से जाकर फूंक दिया कि स्वामी जी तो इस संसार से कूच कर गए. गोरे-चिट्टे डाक्टर के बंगले के निकट ही इस शहर की सबसे बड़ी मस्जिद थी. एकदम से उसे कुछ और तो उपाय सूझा नहीं, मस्जिद में जाकर उसने वहां के मुल्ला जी को सूचित किया कि एक लावारिस मुसलमान फलां जगह अल्लाह को प्यारा हो गया है और उसके सामान पर एक हिन्दू आदमी कब्जा करना चाहता है. नतीजा यह कि इधर डाक्टर मुच्छड़ भागे आए उधर से ख़लील मियाँ चले आए. अब आगे चलें.
‘देखिए मुल्ला जी’ डाक्टर मुच्छड़ ने, हस्बे आदत, चालाकी के साथ नर्मी घोलकर कहा - ‘स्वामी जी का मुसलमानों से कोई सम्बन्ध नहीं था. वे जीवन भर हिन्दी में पढ़ते, हिन्दी में लिखते, हिन्दी की रोटी खाते रहे. उर्दू में उन्होंने कभी एक पंक्ति भी नहीं छपवाई. उनका उठना-बैठना उनकी मित्रता, उनका सम्पर्क हिन्दुओं से रहा. न वे गोश्त खाते थे. न उन्हें कभी मस्जिद में जाते देखा गया. क़ुरान पढ़ते या रोज़े रखते भी नहीं देखा गया. वे एक हिन्दू संत के विधिवत् दीक्षा प्राप्त मुरीद थे. जितनी भी स्त्रियों से उनकी मेल-मुलाकात रही वे हिन्दू थीं और तो और, वे कपड़े तक हिन्दू सन्यासियों जैसे गेरुआ रंग के पहनते थे. यह देखिए.’
इतना कहकर डाक्टर मुच्छड़ ने खूंटी पर टंगा मेरा गेरुआ चोग़ा उतारा और ख़लील मियाँ के आगे लहराते हुए बोले - ‘यह गेरुआ चोग़ा उनका पसंदीदा लिबास था और पता है पिछली ईद पर यह चोग़ा उन्हें मैंने बनवाकर सादर-सप्रेम-भेंट किया था.’ उन्होंने हस्बे आदत बड़े फ़ख्र से पहले तो सीना फुलाकर मियाँ जी को देखा फिर उस चोग़े को मेरे मृत शरीर पर पैरों से गर्दन तक आहिस्ता से इस प्रकार ढंक दिया मानों फूलों की चादर हो. फिर सिगरेट सुलगा ली.
ख़लील ख़ां ने इस कल्ले में दबा पान उस कल्ले में घुमाकर अपनी आँखें कमरे में घुमाईं और संयत स्वर में बोले - ‘यह हमें भी पता है कि काज़मी साहब नमाज़-रोजे की पाबन्दी नहीं करते थे. मुसलमानों के मुल्लापन की जमकर खिल्ली उड़ाते थे. स्वामी जी कहलाते थे. पर साहब ! थे तो असल सैयदज़ादे, अपनी असलियत तो नहीं भूले, नाम तो वाहिद काज़मी ही रहा. कोई शुद्धि तो नहीं कराई थी. माना कि वो इस्लाम की राह से भटक गए थे. बे-दीन हो गए थे. मगर इससे हमें क्या. इसका यानी उनके आमालों का अज़ाब-सवाब अल्लाह मियाँ जाने. रहा उनके लिबास का सवाल तो यह देखिए.’
इतना कह कर वे लपके और गेरुए चोग़े के पास टंगे सफेद चोगे को डाक्टर मुच्छड़ के चेहरे पर लहराते हुए बोले - ‘वो ये सफेद चोग़ा भी पहनते थे. ये सफेद चोग़ा सूफ़ी दरवेशों के रंग का है. अब कह दीजिए कि यह सफेद चोग़ा उन्हें किसी हिन्दू औरत ने पेश किया होगा.’ इन शब्दों के साथ उन्होंने क़ुराने-पाक के एक अंश का सस्वर पाठ करते हुए सफेद चोग़ा, मेरी मृत देह को ढंके गेरुई चोग़े पर आहिस्ता से ओढ़ा दिया.
‘ख़लील ख़ां’, डाक्टर मुच्छड़ भन्नाए - ‘जीते जी इस आदमी को एक धज्जी तक नहीं दी, अब इसका संग्रह हथियाने चले आए. हद है बेशर्मी की.’
‘बेशर्मी क्यों, यह तो हमारा फ़र्ज है.’ ख़लील ख़ां बोले - ‘कुछ भी सही, मरहूम वाहिद काज़मी साहब हमारे भाई थे. क्या हुआ अगर अपने भाइयों से नाराज़ रहे. रहा धज्जी का सवाल, जीते जी हम उनके लिए कुछ नहीं कर सके तो क्या. अब हम पूरा चौबीस गज बढ़िया टैरीकॉट का कपड़ा लाकर उनका कफ़न तैयार कराएँगे और बड़ी धूम से जनाज़ा उठाएँगे. उनके सामान को हिन्दुओं के हाथों में नहीं पड़ने देंगे.’
अब तक दस-पाँच हिन्दू भाई और इतने ही मुसलमान बिरादर कमरे में आ चुके थे और ख़लील खां व मुच्छड़ को अपना अघोषित मुखिया मान उनके चेहरों को इस प्रकार ताक रहे थे मानों अलादीन के चराग़ से प्रकट जिन्न अपने आक़ा के आदेश की प्रतीक्षा में हो.
डा. मुच्छड़ ने झपटकर एक आलमारी का पट खोला और ऊपर से नीचे तक ख़ानों में चुनी पुस्तकों में से जल्दी-जल्दी दस-पाँच पुस्तकें निकाल उन्हें खोल-खोल कर मियाँ जी को दिखाते हुए दहाड़े - ‘ये सारी किताबें, आँखें खोल कर देख लो, हिन्दी में हैं जिसका एक अक्षर भी तुम्हारे फ़रिश्ते तक नहीं पढ़ सकते. ऐसे अनपढ़ों के हाथ स्वामी जी का संग्रह लगे यह नहीं हो सकता.’
ख़लील खां पहले तो थोड़ा सिटपिटाए फिर पता नहीं क्या सोचकर दूसरी अलमारी की ओर बढ़े और उसमें ऊपर से नीचे तक चुनीं पुस्तकों को खोलकर डा. मुच्छड़ को दिखाते हुए चीखे - ‘जरा चश्मा लगाकर देख लो! ये सारी किताबें उर्दू में, फारसी में, हैं और ये देखो यह तो अरबी में है.’ एक नन्हीं-सी कितबिया – जो वास्तव में क़ुरान की कुछ विशेष दुआओं का संक्षिप्त संग्रह मात्र था – बड़े सम्मान से चूमते हुए कहा - ‘ये ज़बानें आपके देवता भी नहीं बांच सकते, समझे! नहीं, क़तई नहीं! ऐसी पाकीज़ा और मुक़द्दस किताबें हिन्दुओं के नापाक हाथों में पहुँचें, यह नहीं हो सकता.’
डा. मुच्छड़ ने मानों खा जाने वाली आँखों से खलील खां को घूरा. ख़लील ख़ां ने क़हर बरसाती नज़रों से डा. मुच्छड़ को घूरा.
सहसा डा. मुच्छड़ ने अपने हिन्दू साथियों को मानो ललकार कर कहा - ‘उठाओ सारा सामान, देखते हैं कोई साला क्या करता है?’
ख़लील ख़ां ने अपने मुसलमान साथियों को उकसाया - ‘जल्दी करो! आज देखना है कोई हरामजादा कैसे एक मुसलमान की मिल्कियत पर क़ाबिज़ होता है?’
अब दोनों दल मेरा असबाब उठाने के लिए पिल पड़े. जो जिसके हाथ लगा उठा-उठाकर बाहर बरामदे में रखने लगा. मेरा बिस्तरा किसी के हाथ में था तो होल्डाल मात्र दूसरे के कब्जे में. किसी ने सोफा उठाया, किसी ने टेबल झपटी. एक ने कुर्सी उठाई तो दूसरे ने तिपाई. इसने टेबल फ़ैन उठाया तो उसने ट्यूब लाइटें खींच लीं. कपड़ों के बक्स और बर्तनों का भी यही हश्र हुआ. इसके हाथ मेरे बाएँ पैर का तो उसके हाथ मेरे दाएँ पैर का जूता पड़ा. एक ने पीकदान उठाया तो दूसरे ने गुलदान. साबुनदानी और सुराही एक दल के कब्जे में पहुँची तो बाल्टी और मग दूसरे दल के कब्जे में. देखते ही देखते बेहद क़रीने से रखा मेरा सारा सामान तहस-नहस होकर बरामदे में ढेर हो गया. ग़नीमत यह थी कि सारी पुस्तकें आदि चूंकि कमरे की दीवारों में बनी अलमारियों में थीं इसलिए उनकी छीना-झपट नहीं हो सकी थी.
बाहर बरामदे में तहस-नहस हुए सामान के दोनों ढेरों के दरम्यान पता नहीं किसने एक चाक से रेखा भी खींच दी और वहाँ अपने-अपने दल के दो लठैत भी तैनात कर दिए.
यह सब देखकर मेरे प्राण रो उठे. इसलिए नहीं कि मेरा सारा असबाब बरबाद हो गया था. बल्कि इस लिए कि यह मेरी दृष्टि में लगभग वैसा ही बेहद हृदय विदारक दृश्य था जब अमानवीय पागलपन के हाथों एक खुशहाल सरजमीन की छाती चीरकर दो टुकड़े कर दिए गए थे और आपसी प्रेम, एकता, भाईचारे, सद् भाव, खुलूस आदि तमाम मानवीय गुणों का शैतानी ताक़तों ने एक साथ झटका कर डाला था. फिर धरती माँ के दोनों टुकड़ों पर अपना-अपना क़ब्जा करके शैतानी ताक़तों ने संगीनों से ख़ून की गहरी रेखा बनाकर इस टुकड़े को एक मुल्क दूसरे टुकड़े को दूसरा मुल्क क़रार देकर चिरस्थाई वैरभाव का बीज बो दिया था जिसके कड़वे फल दोनों टुकड़ों के निवासियों को खाने पड़ रहे थे.
यह दृश्य कुछ और रूप धारण करे इसके पूर्व ही शिष्ट, शालीन व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया. उसे देखते ही डा. मुच्छड़ और ख़लील ख़ां ने मानों चकित भाव से अभिवादन किया. आगन्तुक ने संकेत से उनके अभिवादन का उत्तर दिया और ताजे फूलों की एक माला मेरे मृत शरीर पर चढ़ा कर हाथ जोड़कर प्रणाम किया फिर कमरे में मौजूद लोगों से सम्बोधित होकर बोला - ‘स्वामी जी के स्वर्गवास की सूचना जिला प्रशासन तक पहुँच चुकी है. नगर में कुछ ऐसा वातावरण बन गया कि उनके अन्तिम संस्कार को लेकर साम्प्रदायिक दंगा होने की आशंका है. अभी थोड़ी देर में पुलिस आकर लाश को ले जाएगी फिर बाद में तय किया जाएगा कि अन्तिम संस्कार किस प्रकार किया जाए. तब तक आप लोग शान्ति बनाए रखें.’ यह कहकर वह कमरे से निकल गया.
यह व्यक्ति कुछ वर्ष पूर्व इस शहर में सिटी मजिस्ट्रेट होकर आया था. साहित्यिक अभिरुचि का होने से मेरा बहुत सम्मान करता था और अकसर मिलने आया करता था. अब वह जिला प्रशासन का बड़ा पदाधिकारी था.
उसके साथ नामी गरामी अख़बारों के कुछ पत्रकार भी आए थे जो सब कमरे के बाहर बालकनी में खड़े, नीचे सड़क के दोनों ओर हिन्दू मुसलमानों की बढ़ती जा रही भीड़ को बड़ी रूचिपूर्वक देख रहे थे.
मैंने देखा कि कमरे के रोशनदान पर मौत के फ़रिश्ते इज़राईल और यमराज मौजूद थे. वे डिबिया में बंद मरे प्राण लेने के लिए आए थे किन्तु सारा मामला भांप कर वहीं से कूच कर गए.
डा. मुच्छड़ ने राष्ट्रीय स्तर के एक पत्र के जिला संवाददाता से चुपके-चुपके कुछ कहा. पत्रकार ने बेहयाई से अट्टहास कर उनके हाथ पर हाथ मारकर मानों शाबासी दी.
डा. मुच्छड़ ने अपने दल को कोई संकेत किया और दो मुसटंडे जवान हिन्दी वाली पुस्तकों की ओर बढ़े. मियाँ जी ने अपने दल वालों को इशारा किया तो उधर से भी दो पहलवान उर्दू वाली अलमारी की ओर बढ़े. देखते ही देखते दोनों दलों के चारों व्यक्ति आपस में गुत्थम-गुत्था होकर एक दूसरे की माँ बहनों से अशोभनीय सम्बन्धवाचक किस्म की गालियाँ बकने लगे.
अब हालत यह थी कि छीना-झपटी और नोच-खसोट में एक-एक पुस्तक की जिल्द ऐसे उतर रही थी मानों कसाई जानवर की खाल उतारे. पन्नों की चिंदियाँ हुई जा रही थीं. पांडुलिपियाँ नीचे पड़ी पैरों तले रौंदी जा रही थीं. पत्र-पत्रिकाओं के ढेर बिखर गए थे और मेरे बनाए तमाम रेखाचित्र मियाँ जी और डाक्टर मुच्छड़ के जूतों तले फट रहे थे. पिस रहे थे.
पता नहीं किसने पत्रकारों से मिनमिना कर कहा - ‘आप तमाशा देख रहे हैं. इस बरबादी को रोकते क्यों नहीं हैं.’
राष्ट्रीय स्तर के अख़बार के जिला संवाददाता ने उपस्थित पत्रकारों के अघोषित प्रतिनिधि के रूप में बड़ी जहरीली हँसी उछालते हुए जवाब दिया - ‘हम कौन होते हैं जी! स्वामी जी हम से तो कोई सरोकार ही नहीं रखते थे. अपने स्तर और अपने ज़ौक का कोई लेखन या पत्रकार उन्हें लगता ही न था. हमेशा दिमाग़ आसमान पर रहता था. बहुत बड़े साहित्यकार थे न.’
बाकी पत्रकारों ने भी हँसी उड़ाते हुए उसकी बात का समर्थन कर दिया.
मेरे मृत शरीर का चेहरा खुला हुआ था. आँखें तक अभी किसी ने बन्द नहीं की थीं. मेरी पानीदार आँखों की नम पुतलियों को मक्खियों का एक समूह बड़े स्वाद से चाट रहा था. दूसरा समूह पलकों पर जमा था. चींटियों को भी भनक लग गई थी. वे अलग-अलग दल बनाकर नाक के नथुनों और कानों में निःसंकोच घुस रही थीं. काले रंग के बड़े मोटे-मोटे चींटों तक यह सूचना ‘प्रसारित’ हो चुकी थी कि एक इन्सान की नर्म-गर्म लाश यहाँ असुरक्षित पड़ी है. चींटों के प्रमुख अपनी-अपनी मूंछ रूपी एंटीना से मेरी पिंडलियाँ स्पर्श करके कोई उपयुक्त मार्ग ऐसा खोज रहे थे जिसे पाकर इन्सान के नर्म गोश्त की दावत उड़ाई जा सके.
अपने शरीर की मुझे जीते-जी भी कोई खास परवाह नहीं थी. अब जब वह मिट्टी हो गया था तो भला उसकी दुर्गति की क्या परवाह करता. पर हाँ, डिबिया में बन्द मेरे प्राण अवश्य मेरी खिल्ली उड़ा रहे थे - ‘स्वामी वाहिद काज़मी साहिब! ये है आपके जिस्म की असलियत. इसी मिट्टी के बल पर बहुत ऐश उड़ाए थे. अच्छे भोजन से इसका पोषण और लिबास से सजाया था. बहुत इतराते थे इस पर. अब शीघ्र ही यह कीड़ों का भोजन बनेगा.’
तो मृत देह की क़तई नहीं किन्तु आधी शती की लम्बी मुद्दत में जाने कहाँ-कहाँ से खोज-खोजकर संग्रह किए गए दुर्लभ ग्रन्थों-चित्रों, पेट काट कर जोड़ी गई पसीने की कमाई से खरीदी गई पुस्तकों आदि की ऐसी दुर्दशा मुझे असह्य थी. संग्रह की ऐसी बरबादी पर मेरे प्राण बुरी तरह छटपटाने और तड़पने लगे. इसी छटपटाहट में डिबिया जोर से हिली और पता नहीं कैसे मेरी ठोढ़ी पर गिर कर खुल गई. –डिबिया का खुलना था कि मेरे प्राण सर्र से नाक के नथुनों में घुस गए. प्राणों का प्रवेश होते ही नस-नस में जीवन का संचार हो गया. मुझे एक इतने जोर की छींक आई कि छींक के वेग से मैं आधा उठ कर बैठ गया. अजीब बात थी कि अब फिर से जीवित होते ही मेरी रोगी काया में शक्ति एवं ऊर्जा का मानों दरिया लहराने लगा. मैं जल्दी जल्दी चींटे-चींटियों-मक्खियों को भगाने-उड़ाने लगा.
डा. मुच्छड़ और ख़लील ख़ां को मेरी छींक की आवाज़ मानो बम फटने से कम नहीं लगी. दोनों ने बदहवास सा होकर पहले तो मुझे देखा और फिर एक दूसरे को देखते हुए मानों घबराकर कहा - ‘भूत!’
डा. मुच्छड़ ने जल्दी से हनुमान चालीसा का सस्वर पाठ शुरू कर दिया - ‘भूत पिशाच निकट नहीं आवे...’
ख़लील ख़ां ने क़ुरआन की एक सूरह पढ़नी शुरू कर दी - ‘कुल आउजो बि रब्बिन नास...’ जो दुष्ट आत्माओं से रक्षा के निमित्त कारगर समझी जाती है.
दोनों के समर्थक जहां के तहाँ जड़वत रह गए.
मैंने दोनों को विषैली मुस्कान के साथ देखते हुए कहा - ‘शैतान की औलादो! मेरी आँखें बंद होते ही तुमने पचास साल से कण-कण जोड़ी मेरी सारी सम्पदा तो बरबाद कर ही डाली. मेरी लाश पर भी हिन्दू या मुसलमान का लेबल चिपकाना चाहा जबकि मैं ऐसे तमाम लेबलों से निर्लिप्त एक जन्मा था. हिन्दू-मुसलमान नहीं मात्र इन्सान की तरह जीवन गुज़ार कर इन्सान की तरह मर गया था. मानवता ही मेरा धर्म और मानव-प्रेम ही मेरा ईमान रहा है. यही इबादत है मेरे लिए और यही साधना भी. अब अपनी कुशल चाहो तो फौरन यहाँ से सिधार जाओ और फिर कभी इधर का रुख़ मत करना. जाते हो या उठ कर एक-एक का कचूमर बनाऊँ.’
यह सुनते ही सारे तमाशबीन दफा हो गए. ख़लील ख़ां और डा. मुच्छड़ को मानों काठ मार गया. कुछ पल बाद –
हस्बे आदत डा. मुच्छड़ ने मन ही मन पेचोताब खाकर ऊपर से नर्मी जतलाते हुए कहा- ‘स्वामी जी! आपकी तबीयत ठीक है न?’
ख़लील ख़ां ने बड़ी हमदर्दी से पूछा- ‘काज़मी साहब, आपकी हालत ठीक है न?’
‘गेट आऊट!’ मैं दाँत पीसकर चीखा और उठ कर खड़ा हो गया.
डा. मुच्छड़ और ख़लील ने ऐसे दोस्ताना अंदाज में एक दूसरे का हाथ थाम लिया और जैसे जिगरी मित्र हों और फिर मुझे घूरते हुए कमरे से निकल गए. जाते-जाते एक खीझ भरा स्वर डा. मुच्छड़ का मेरे कानों तक पहुँचा - ‘अजब बेहया है मरा-मराया जीवित हो गया.’
दूसरा स्वर ख़लील मियां का था - ‘अजी डाक्टर साहब, ऐसा तो कभी देखा न सुना. कमबख़्त मरकर फिर जिंदा हो गया.’
इसकी तफ़सील में जाना व्यर्थ है कि किस प्रकार मैंने अपना असबाब समेटा और सारा संग्रह कैसे सहेजा.
काबिले-जिक्र बात यह है कि अगले दिन के चार स्थानीय अख़बारों में मेरी दुःखद मृत्यु की सूचनाप्रद खबर बाकायदा मौजूद थी.
**-**
सुधी पाठकों से रचनाकार का एक विनम्र आग्रह : आपको पता ही है कि रचनाकार में प्रकाशित बहुत से रचनाकारों के पास उनकी अपनी रचनाओं को कम्प्यूटर-इंटरनेट पर देख-पढ़ पाने का कोई जरिया उनकी पँहुच में नहीं है. वे सिर्फ महसूस कर सकते हैं – कयास लगा सकते हैं – कल्पना कर सकते हैं कि उनका लिखा इंटरनेट पर कैसा प्रतीत होता होगा... शायद दाँतों तले उँगली दबाने जैसा - कि कहानी और उपन्यास भी इंटरनेट पर प्रकाशित हो सकते हैं ! और इन्हें तमाम दुनिया में कहीं भी – कभी भी पढ़ा जा सकता है!
स्वामी जी भी अपनी रचनाएँ इंटरनेट पर देख-पढ़ नहीं पा रहे. दरअसल उनके आसपास ऐसा कोई जरिया ही नहीं है. अगर आपको इनकी रचनाओं में और खासकर उनकी इस रचना में जिसमें उन्होंने अपने विचारों और व्यक्तित्व का आईना इस व्यंग्यात्मक-आत्मकथात्मक रूप में प्रस्तुत किया है, कुछ अच्छाइयाँ नज़र आती हैं, कुछ मूल्य नजर आते हैं, तो कृपया उनके लिए थोड़ा सा वक्त निकाल कर उन्हें एक पोस्टकार्ड अवश्य प्रेषित करें. यह सत्य है कि पोस्ट कार्ड की कीमत कुछ नहीं है- पचास पैसै, परंतु हर एक का समय कीमती है – और आपके विचार तो निश्चित ही बेशकीमती हैं – जो स्वामी जी जैसे लेखकों-चिंतकों-विचारकों और व्यक्तित्वों को संबल प्रदान करेंगे. आपके पोस्टकार्ड के लिए रचनाकार का आपको अग्रिम धन्यवाद.
स्वामी जी का डाक का पता है-
10, राज होटल, पुल चमेली, अम्बाला छावनी (हरियाणा) – 133001 भारत.
**-**
रचनाकार – चर्चित साहित्यकार स्वामी वाहिद काज़मी की कुछ अन्य रचनाएँ रचनाकार पर यहाँ पढ़ें :
रसूल गलबान की कहानी
आलेख : तहज़ीब की पहचान कहानी : लानत कहानी : चिराग़ तले
**-**
COMMENTS