· संजय विद्रोही अपने आप को सामान्य दिखाने की फ़िकर में मैं कुछ ज्यादा ही बन संवर कर निकला था, ऑफिस के लिए. लोग मेरे चेहरे से मेरी मनोदशा भां...
· संजय विद्रोही
अपने आप को सामान्य दिखाने की फ़िकर में मैं कुछ ज्यादा ही बन संवर कर निकला था, ऑफिस के लिए. लोग मेरे चेहरे से मेरी मनोदशा भांप न लें, सो शेव किए चेहरे पर अतिरिक्त मुस्कुराहट चस्पा करना भी नहीं भूला था. रास्ते में जो भी मिला उसने 'जंच रहे हो यार' या 'क्या बात है? आज तो!' या 'बिजली गिरा रहे हो गुरू, आज तो!' कह कर हाथ मिलाया और मैं मुस्कुरा कर 'बस यूं ही' के सिवा कुछ नहीं बोल पाया. अपनी आदत के विपरीत आज रास्ते में मिले जूनियरों के अभिवादन के जवाब में मेरी गर्दन तत्परता से हिल रही थी. अपने आप को सामान्य दिखाने की भरसक कोशिश कर रहा था मैं. किन्तु भीतर ही भीतर कुछ जोर जोर से हुड़क रहा था. तेज कदमों से आफिस में गया और सीधा जाकर अपने चैम्बर की कुशन वाली चेयर में धंस गया. भीतर बहुत कुछ उमड़ घुमड़ रहा था, जो शायद एकांत पा कर अब आंखों से भी झांकने लगा था. बाहर वालों के सामने मुस्कुराते रहना या अपने आप को व्यस्त दिखाना, खुद मुझको अपने आप में नाटकीय प्रतीत हो रहा था. किन्तु एकांत में अपने आप से अभिनय नहीं कर पा रहा था .
पूरी जिन्दगी मानो आंखों के सामने सिनेमा के रील की तरह चलने लगी.
'वो' एकाध बार सामने भी पड़ी, किन्तु बगैर नजर उठा के देखे तेज कदमों से आगे निकल गयी. मैं भीतर तक तिलमिला गया. किन्तु चेहरे पर वही रोज-सी गंभीरता ओढ़े रहा.
परसों अचानक मैंने उसके व्यवहार में बदलाव देखा. कोई 'गुड मार्निंग' नहीं. कोई बातचीत नहीं. कोई छेड़छाड़ नहीं.. एकाध बार मैंने बात करने की कोशिश भी की, तो कोई 'रिस्पांस' नहीं मिला.
मैंने फोन किया, 'क्या बात है ?’
'कुछ नहीं.' उसका नीरस- सा जवाब था.
'कुछ तो है.'
'कहा ना, कुछ भी नहीं.'
'फिर क्यों इस तरह कटी कटी हो?’
'बस यूं ही'
'अचानक?’
' ..... ' मौन दूसरी तरफ.
'अचानक?' - मैं, फिर से.
'आपको पता है, दफ्तर में सब हमारी ही बारे में बातें कर रहे हैं … ' - वो सुबक पडी.
'क्या बातें ? कैसी बातें?’
'यही कि हमारे बीच कुछ चल रहा है.'
'कौन कहता है ?’
'कौन नहीं कहता ये पूछिए? अब तो लोगों में ये ह्यूमर है कि आप अपनी पत्नी से 'सेपरेट' हो गए हैं और आजकल आपका और मेरा चक्कर चल रहा है.' वो सुबकती जा रही थी.
'सारिका, लेकिन इन सब बातों से क्या फर्क पडता है?' मैंने समझाने की गरज से कहा.
'पड़ता है रोहित, मुझे पड़ता है. अब आप शादीशुदा हैं और मैं अपना नाम किसी शादीशुदा आदमी के साथ जुड़वाना पसंद नहीं करती.'
'मुझे पसन्द करती हो ?’
'उससे क्या फर्क पड़ता है ? आप तो पुरुष हैं , उंगली तो सदा स्त्री की तरफ ही उठती है.'
'किसने उठाई उंगली? कोई मेरे सामने बोले.'
'जरूरी नहीं है कि आपके सामने आकर ही हरेक बात बोली जाए….' वो बार बार हिचकी ले रही थी.
'मुझसे प्यार करती हो?’
'हुं….च्च' उसकी हां हिचकी में फंस कर रह गई.
मैंने दुबारा पूछा, 'बोलो. करती हो?’
'हां'
'फिर किस बात का डर है ?’
'आपके साथ पहले भी मेरा नाम जुड़ चुका है. तब और बात थी. आप बैचलर थे. लेकिन अब आप शादीशुदा हैं और मैं भी उस पुराने सम्बन्ध को एक सपना मान कर लगभग भुला चुकी हूं.'
'जीवन में प्यार सिर्फ एक बार ही हो आवश्यक है क्या?’
'नहीं. किन्तु आपकी पत्नी है, एक बच्ची है. कुछ फायदा है क्या इस रिश्ते को हवा देने का ?' उसके स्वर में दूर तक बस सन्नाटा सुनाई दे रहा था.
'क्या शादी ही सबकुछ होता है जीवन में ? माना मेरी पत्नी है बच्चा है. तो क्या मुझे प्यार करने का हक नहीं ? ’
' .... ' - मौन उस तरफ.
'क्या आज मैं वो रोहित नहीं रहा जिसे तुमने कभी दिल की गहराईयों से चाहा था? बोलो ?' - मैं पुन: .
'लोग हमारे बीच शारीरिक सम्बन्ध होने की कानाफूसी करते हों , तो बताइए मैं क्या करूं ?’
'कुछ नहीं.'
'कुछ कैसे नहीं?' वो चीख पड़ी.
' तो क्या करें ? कहो.' मैं असमंजस में था.
'हम अब मिलना बंद कर देंगे. बातें करना बंद कर देंगे बस.'
'उससे क्या होगा जानती हो? उससे ये बात और अधिक पुख्ता हो जाएगी कि हम प्रीकाशन लेकर चल रहे हैं. हमारे बीच जरूर कुछ केमिस्ट्री है.'
'लोगों को बातें बनाने का मौका तो नहीं मिलेगा, कम से कम.'
'कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना' माहौल को सामान्य करने की गरज से मैं गुनगुनाने लगा.
'आपके लिए तो सब मजाक है. आपको क्या फर्क पड़ता है ?' उसका स्वर तल्ख था. मैं स्तब्ध रह गया.
' अच्छा बताओ तुम क्या चाहती हो ?' मैं एकाएक गंभीर हो गया था.
'हमें अब मिलना बंद कर देना चाहिए.'
'पक्का ?’
'हां.'
'कब से ?’
'अभी से.'
'ठीक है.... मगर क्या तुम मुझ से दूर रह पाओगी ?’
'हां………' कह कर वो पुनः सुबक पड़ी. मैंने उसका 'हां' नहीं सुन उसकी सुबकी सुनी. मुझे अपना उत्तर मिल गया था. बगैर एक भी शब्द बोले मैंने रिसीवर रख दिया.
दूसरे ही दिन से मैं 'इनडिफरेंट' हो गया. अपने काम से काम. खाली समय में प्लांट विजिट करना और शाम को कमरे में लेट कर सिगरेट फूंकना. रात के करीब आठ बज रहे थे . मुझे ना जाने क्या सूझा, मैंने उसके घर के फोन पर दो बार घंटी दी. ये हमारा 'कोड' था. उसका रिएक्शन क्या होता है? इंतजार में मैं इधर उधर टहलने लगा .
'सारी आजमाईशें मेरी ही क्यों? वो भी तो इम्तिहान दे मालिक.' किसी शायर की पंक्तियां बार-बार जेहन में आ जा रही थी.
अचानक मेरा फोन घनघनाया. देखा, कालर आईडी पर 'उसका' नम्बर था. पढ़कर मैं उसकी बेबसी पर मुस्कुरा दिया और तत्काल फोन उठाया 'हैलो.'
'हां ,बोलो' वही हमेशा वाला स्वर. हमेशा वाले चिरपरिचित अंदाज में. एक पल को लगा जैसे कुछ नहीं बदला हमारे बीच. वही तत्परता वही अधीरता और वही प्यार. सबकुछ वैसा ही तो था उसकी आवाज में.
'कौन ?' मैं अनजान बन गया.
'मैं सारिका.'
'हां, बोलो.'
'आपने घंटी दी थी अभी ?' उसने मुझसे 'हां' सुनने की उम्मीद में पूछा.
'नहीं.' मेरा सपाट सा उत्तर था.
'दो बार घंटी बजी. मैंने सोचा आप हैं. बात करना चाहते हैं.'
'नहीं, मैंने नहीं दी घंटी.'
'आप अपसेट हो ना?’
'नहीं तो. अपसेट होने की क्या बात है ?’
'नहीं ,आप अपसेट हो. पता है, आपकी आवाज बता रही है. इतना तो मैं भी जानती हूं आपको.'
'ऐसा कुछ भी नहीं है. तुम ख़्वामख़्वाह परेशान हो रही हो. ठीक है रखता हूं.' कहकर बिना कुछ सुने मैंने फोन काट दिया. उसके जी की तड़फ देखकर मन रो पड़ा. वाकई मैं तो परूष हूं किन्तु उसका क्या……
……..मन ही मन एक प्रण ले लिया. अब कभी उससे नहीं बोलूंगा, नहीं मिलूंगा, नहीं छुऊंगा.
…….. आज पन्द्रहवाँ दिन है. उससे बगैर बोले, बगैर नजरें मिलाए, बगैर उसको छुए….
कड़ा इम्तिहान है. पर शायद यूं ही सही… धीरे-धीरे प्यार मिट जाएगा. अचानक घड़ी पर नजर गई साढ़े बारह हो रहे थे. एक बजे बोर्ड की मीटिंग थी. तुरन्त चश्मा संभाला और तेज कदमों से गाड़ी की तरफ बढ़ गया.
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रचनाकार- संजय विद्रोही की, एक अलग ट्रीटमेंट – एक अलग लहज़े की कहानी रचनाकार में आप यहाँ पर -http://rachanakar.blogspot.com/2005/08/blog-post_23.html पढ़ सकते हैं. इनकी विद्रोही स्वरों की कहानियाँ, कविताएँ और ग़ज़लें इनके ब्लॉग स्थल http://pratimanjali.blogspot.com/ पर पढ़ सकते हैं
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