**-** - स्वामी वाहिद काज़मी अपने सीने में दहकते अंगारे भरे, सिर से धुएँ के बादल उड़ाती, मेल ट्रेन धड़धड़ाती हुई आकर, प्लेटफ़ॉर्म पर विश्राम ...
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- स्वामी वाहिद काज़मी
अपने सीने में दहकते अंगारे भरे, सिर से धुएँ के बादल उड़ाती, मेल ट्रेन धड़धड़ाती हुई आकर, प्लेटफ़ॉर्म पर विश्राम के लिए ठहरी. इस स्टेशन पर उसका पाँच मिनट का स्टॉप था. नाश्ते का समय था. यात्री अपने जलपान और भोजनादि के सरंजाम में व्यस्त हो गए.
चीकट कपड़ों में लिपटा, अधनंगे भिखमंगे बच्चों का एक छोटा-सा समूह बिखरकर, हर डिब्बे के पास जाकर, किसी यात्री को कुछ खाते-पीते देख अपना पिचका कटोरा या हाथ फैलाकर गिड़गिड़ाने लगा. उन्हीं में थी चीथड़ेनुमा पेटीकोट, उटंगा ब्लाउज़ और नाममात्र की ओढ़नी पहने, दस बारह वर्षीया एक भिखारन बालिका. वह साधारण डिब्बों की ओर न जाकर, एक थ्री-टियर शयनयान में लपककर चढ़ गई और समस्त माताओं-बहनों के सामने बेहद दुःखी सूरत और कातर स्वर में कुछ खाने को मांगने लगी.
जब वह डिब्बे से नीचे उतरी तो उसके हाथों में पूरी-परांठों के आधे-चौथाई टुकड़े, कुछ साबुत रोटियों के अलावा कूढ़ी सूखी सब्जी और अचार की एकाध फांक भी थी. यकीनन वह खुश थी कि दाताओं की इस उदारता के कारण आज उसे द्वार-द्वार मांगने की झंझट नहीं उठानी पड़ी. और कम से कम रात तक का भोजन उसके पास जुट गया है.
बाकी बच्चे अपने-अपने भाग्य का खाते या अपने रीते हाथों पर कुढ़ते हुए, उसकी प्रचुर खाद्य-संपदा को इस प्रकार तकने लगे मानों उन्हें उसके भाग्य पर ईर्ष्या हो रही हो. एकाध छोटे बालक ने उसके सामने हाथ पसारकर कुछ देने की याचना उसी ढंग से की जैसे उसकी साथिन एक भिखारी नहीं, दाता हो. बालिका ने उसे ऐसे अंदाज में झिड़क दिया जैसे कोई कंजूस सेठ किसी भिखारी को दुरदुराए.
वह सीधी प्लेटफ़ॉर्म के कोने में, पेड़ के नीचे बने बाथरूम में घुस गई. खाद्य-संपदा को उसने अपनी ओढ़नी में लपेटकर पेड़ की जड़ के पास एक ईंट से दबाकर रख दिया.
थोड़ी देर बाद जब वह बाथरूम से निकली तो एक ऐसा दृश्य उसके सामने था जिसकी उसे कल्पना भी नहीं हो सकती थी. एक भिखमंगा बालक कलुआ बड़े इत्मीनान से पैर पसारे वहीं बैठा, उसकी रोटियाँ आराम से खा रहा था. साफ पता लग रहा था कि उसने कुछ हिस्सा तो जल्दी-जल्दी उदरस्थ कर लिया था. अब जो बचा था उसे वह धीरे-धीरे चबाकर ठूंसना चाहता था.
बालिका उस ‘कलूटे’ को बहुत दिनों से जानती है. कभी-कभी अपना बड़प्पन क़ायम रखती हुई वह उससे बोल-बतरा भी लिया करती है. जिस दिन उसे बिल्कुल भी रोटी नहीं मिल पाती थी और उसके पास जरूरत से कुछ अधिक रोटियाँ होतीं, तो वह बड़ी उदारता पूर्वक एकाध रोटी उसे भी अहसान जताते हुए, दे देती थी. मगर कलुओ एक दिन ऐसा दुःसाहस कर पाएगा, यह तो उसने सोचा तक नहीं था.
मारे गुस्से के पेचोताब खाती कुछ पल तो वह सोच ही नहीं सकी कि कलूटे को ऐसी कौन-सी नंगी और नुकीली गाली दे जो उसको वास्तव में चुभकर तिलमिला दे. फिर शायद यह सोचकर कि ऐसी गाली भी उसके पेट से रोटी तो वापस नहीं निकाल लेगी, वह पेटीकोट से अपने गीले हाथ पोंछना छोड़, पैर पटककर चिल्लाई, “क्यों बे कलूटे, ये रोटियाँ तूने यहाँ से उठाई हैं, ऐं?”
“हाँ.” कलुआ निर्विकार भाव से कौर निगलते हुए, ऐसे उत्तर दिया मानों यह कोई बात ही न हो और रोटियों से हाथ खींच लिया.
“अबे कुत्ते ! क्यों उठाई तूने मेरी रोटियाँ ?” वह और जोर से चीख़ी.
“मैं रातभर से भूखा था,” कलुआ बोला, “इस टैम बी एक टुकड़ा तक नईं मिला. तू इत्तीसारी रोटियों का, का करती ऐं ?”
“भूख लगी तो क्या मैं तेरी अम्मा लगूं हूँ के लुगाई, जो मेरी रोटियाँ खा गया. कुच्छ नईं मिला था तो मेरे से मांग लेता. मेरी रोटियाँ तूने उठाईं क्यों !”
“जोरों की भूख लगी थी न.” कलुआ मिनमिनाया, “क्या पता तू देती बी के नईं.”
वह तिलमिलाकर दाँत पीसती हुई बोली, “मैं बी तो रात से भूखी हूँ ! कित्ती मुसकल से मैंने जे पाई थीं... और... तूने... ! ”
“मरी काहे जाती है !” कलुआ उसकी बात काटकर जल्दी से बोला, “सारी तो नईं भकस लीं, इत्ती जो बची है तू खा ले !”
“कुत्ते-कमीने ! हरामी के पिल्ले ! रंडी के जने !” बालिका के मुँह से एकदम गालियों की बौछार शुरू हो गई, जिसे वह अब तक दबाए हुए थी !
गालियाँ बकते-बकते ही उसने झपटकर बाकी बची रोटियाँ उठाई और उस तरफ फेंक दी जहाँ पटरियों के बीच गंदी कीचड़ और पानी जमा हो गया था ! तीन-चार कौए कहीं से ताककर आए और अपनी-अपनी चोंच में जितने समाए उतने टुकड़े छपटकर उड़ गए. एक मरियल कुत्ता बूते भर भौंकता लपका और जो कुछ बच गया था उस पर जीभ लपलपाने लगा.
रोटियाँ फेंककर वह मुड़ी तो कलुआ वहां से तिड़ी हो चुका था. अब बालिका के मुँह पर क्रोध व आवेश का स्थान एक प्रकार के मलाल ने ले लिया था. वह रूआँसी हो रही थी.
ऐसे विवाद का मज़ा लेने के लिए इस बीच दो-तीन भले-मानस वहाँ आदतन जमा हो गए थे. बालिका को रुआँसी देखकर एक व्यक्ति ने उससे कहा, “क्यों री, तूने रोटियाँ फेंक क्यों दीं ?”
“अब क्या खाएगी ? अपनी सास का कलेजा ?” दूसरे ने व्यंग्य किया.
“यों ही झूठ बक रही थी कि रात से भूखी हूँ.” तीसरे ने तनिक त्यौरी चढ़ाकर टिप्पणी की.
“नईं बाऊजी, मैं झूठ नईं बोल रई. मेरे को रात से कुच्छ बी खाने को नईं मिला. कित्ती मुसकल से तो इत्ती चीज़ें मांगी थीं के पेट भर खाने को होती.” वह रुआँसे स्वर में बोली.
“मरी ! तो तूने उन्हें फेंक क्यों दिया ?” पहले वाले महाशय ने अपना प्रश्न दोहराया.
बालिका एक-दो क्षण तक बेहद घृणा से उस ओर घूरती-सी रही जिस तरफ कलुआ गया था. फिर बोली, “ये कलुआ न, ये स्साला भंगी है.”
इन शब्दों के साथ उसने पच्च-से जमीन पर थूक दिया और उदासी में डूबी एक ओर चल पड़ी.
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रचनाकार – चर्चित साहित्यकार स्वामी वाहिद काज़मी की कुछ अन्य रचनाएँ रचनाकार पर यहाँ पढ़ें :
http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_03.html
http://rachanakar.blogspot.com/2005/08/blog-post_26.html
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