**-** -विजय उरसुला ने ईंटों के चूल्हे पर चढ़ी देगची संडासी से उतारी और चूल्हे के आगे जमा हुई राख पर रख दी. चूल्हे में सूखी लकड़ियाँ चट-चट की...
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-विजय
उरसुला ने ईंटों के चूल्हे पर चढ़ी देगची संडासी से उतारी और चूल्हे के आगे जमा हुई राख पर रख दी. चूल्हे में सूखी लकड़ियाँ चट-चट की आवाज कर रही थीं. उरसुला को लगा कि दूर झितिज पर जैसे आकाश जल रहा हो. उसे महसूस हुआ कि बत्तीस तैंतीस की उम्र तक आते-आते चटख चटखकर उसका अस्तित्व भी राख बन गया है.
ध्यान टूटते ही उसने दूसरी देगची में सांभर चढ़ा दिया, मिर्च कुछ चटख ही डाली क्योंकि लड़कों को पसंद है. सी सी करते हुए वे एक दूसरे को खूब छेड़ते हैं. उनकी छेड़छाड़ के बीच उरसुला भी जी लेती है. चूल्हे की दो लकड़ियों को उसने अंदर की तरफ कोंचा जिससे आग धीमी हो जाए. सांभर की दाल में सौंधापन आ जाए और वह ठीक से गल जाए.
आग धीमी तो हो गई मगर बुझे हुए हिस्सों से धुंआ भी फूट पड़ा. उरसुला को लगा कि धुंआ-धुंआ होकर वह भी राख बन गई है.... राख जो दूसरों के खाने को कुछ देर गर्म रख पाती है. पेड़ से टूटी लकड़ी जैसा ही उसका हश्र हुआ.
चावल का मांड निकालने के लिए उरसुला कपड़े से देगची पकड़ती है... कपड़ा कहाँ? एक लड़के की झीनी चदरिया सी बनियान है. उरसुला की मूक ठिठकन को भांप कुर्ता उतार बनियान उछाल दी थी और पुनः कुर्ता धारण कर लिया था. बाकी के तीन लड़के हँसे थे... ‘त्याग!’
हँसा था लड़का भी, “त्याग कैसा? जिस दिन पुलिस के हत्थे चढ़ गया, ये सारे कपड़े फेक एनकाउंटर में खून से रंग जाएंगे. न मेरे काम आएंगे और न अम्मा की उंगलियाँ जलने से बचा पाएंगे.”
जेब से पॉलीथीन की छोटी थैली से कुछ निकाल दूसरा लड़का कहता है, “अपन तो इसे खाकर चैन की नींद सो जाएंगे, कपड़े पहने पहने स्वर्ग पहुँच जाएंगे.”
“स्वर्ग!” तीसरा लड़का कड़वाहट के साथ कहता है, “स्वर्ग अगर होता तो न्यूक्लीयर बम दिखा कर अमरीका इंद्र से कभी का छीन लेता और वहाँ रोज अपनी इंडस्ट्री के माल का बाज़ार लगाता.”
चौथा लड़का सब को डांटता है, “चुप! स्वर्ग में सब नंगे जाते हैं. खुद फोर्ड का वहाँ से ख़त आया है कि यहाँ तो मेरे पास फटा कोट भी नहीं है.”
चारों लड़के हंसे थे पर संजीदा हो गई थी उरसुला. उसे नन्हे बच्चों को मौत की बातें करना अच्छा नहीं लगा था.
उरसुला को कभी कोई और कभी कोई लड़का अपनी कोख से जाया लगता... पर कोख! आठ साल पहले बाप या शायद उसके बेटे के तेजाब से जाग उठी थी कोख पर लालची कुतिया जो सफाई करने आती थी खुफिया बन गई, बोल दिया इनाम के लालच में मालिकों से... “नाई मालिक, कोई कापुड़ नाई गिरा इस महीने.” फिर क्या था, बिस्तर ही बन गया बूचड़ खाना... भल.. भल.. खून बह उठा था जाँघों की दीवारों को नकारते हुए.
उरसुला चाहती है कि वजूद और इंसाफ की लड़ाई छेड़े इन लड़कों को बढ़िया खाना खिलाए. इनके साथ हंसने बोलने के लिए लड़कियाँ भी आएँ, पर अपनी बात कहे कैसे? दस साल से झूठ के सहारे मौन साधे हैं, मलयाली! नौ तेलुगू!
कभी इन्हीं लोगों को उरसुला डाकू समझ बैठी थी. जब समझी तो मन कातर हो उठा... स्कूल कॉलेज जाने के दिनों में ये जंगलों में बिखरे पड़े हैं. बल्लम, छुरा, देसी पिस्तौल क्या हजारों पुलिस फौज वालों के चमचमाते हथयारों से इन्हें बचा सकेंगे? कभी-कभी ढेर सारे लड़के अंधेरे में जमा हो जाते और बड़े जंगल से आकर राजैया समझाता, “लोगों में जमींदार, किसान, सेठ और पुलिस हमें बागी कहकर बदनाम करते हैं. पर क्या हम अपने सुख के लिए लड़ते हैं? हम क्या किसी निर्दोष को छूते हैं? कानून की संगीनों के सहारे आदमी को गुलाम बनाए रखने वाले भेड़ियों पर हम हमला करते हैं. भ्रष्ट लोगों की पुलिस सुरक्षा करती है. एक-एक कर हम सब जल्दी-जल्दी मरेंगे क्योंकि जिनके लिए हम लड़ रहे हैं वे धर्मभीरू और सहमे हुए हैं. गम बर्बर कहाँ हैं? हम तो अपनी गुलाम माताओं को आजाद कराना चाहते हैं. औरत गिरवी रखने का हक समाप्त करना चाहते हैं. जीने का हक छीनने वालों को यहाँ सरकार सुरक्षा देती है और जीने का हक मांगने वालों को गोली.”
पहली बार यह सब सुनकर सघन वृक्षों के मध्य मलमल कर नहाई थी उरसुला और तलैया में मुँह देखते हुए कंघी की थी. जिस्म के अलावा देने के लिए उसके पास था ही क्या? ...मगर शर्म से गड़ गई थी जब टोल के चारों लड़कों ने उसकी ओर बिना देखे दो बार अम्मा कहते हुए चावल मांगा. सोते में बूढ़ी हो जाने की आशंका भी जागी थी. फिर मुट्ठियाँ बंध गई थीं... कमीना. बड़े घर का मालिक आदिशंकराचार्य का फोटो फार्महाउस पर भी लगाए था और कर्म! ये बच्चे तो क्राइस्ट का संस्करण हैं जिन्हें एक-एक कर सलीब पर चढ़ जाना है. ...आह, जब कभी चावल कम पड़ जाता है तो कोई पेट थपथपाते कहता है... टैंक फुल हो गया, दूसरा जोर की डकार लेते हुए सोने के लिए खंडहर के कोने में चला जाता है. एक दिन सूखे पत्ते जमाकर कह रहे थे- आज डबल बैड पर सोकर देखते हैं. सुना है, बड़ा गहरा नींद आता है
उरसुला को याद आया था वह दिन जब उसका पति माइकिल बड़े आदमी के घर बहाने से छोड़ गया था. उस घर की औरतें दिन भर फल खाती रहीं क्योंकि उस दिन एकादशी थी. रसोई बनी नहीं इसलिए नौकरानियों को निराहार रहना पड़ा.
उसे घर में देख दादी अम्मा से लेकर बहू और बेटी तक ने खूब गालियाँ दीं. तीर से तेज प्रश्नों के जवाब में उरसुला गूंगी बन गई और यह जाहिर किया कि उसे तेलगू नहीं आती है. फिर वे हँसने लगीं... “जरूर इसकी मां के पास कोई बड़ा आदमी सोया होगा, इसीलिए तो इतनी सुन्दर है यह. अब यह हमारे हक के वीर्य को निरर्थक करेगी.”
उसे माइकिल से नफरत हो गई थी. माइकिल भी उसकी तरह इसी प्रदेश में मलयाली माता-पिता से जन्मा था. उरसुला के बाप की चिरौरी करके उसे ब्याह सका था मगर शादी के एक साल बाद यहाँ के कसबे में स्थानांतर होते ही बदल गया. बड़े घर के बाप और बेटे खूब दारू पिलाते. एक रात बेटे के साथ आया था नशे में गाफिल माइकिल. सिंहनी बन गई थी उरसुला तो चीखते हुए गया था बेटा, “इसे तो मेरा बाप नथेगा.”
होश आने पर उरसुला ने माइकिल के सीने पर मुक्के मारे थे मगर माइकिल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. उसे सिर्फ शराब के अलावा सारे रिश्ते और पवित्र ग्रंथ अनजाने लगते थे. जिससे शराब मिले वही अपना, ठीक सिक्कों की तरह. एक मुक्का शायद जोर का लगा था, चीखा था माइकिल- “हरामजादी! बढ़िया अंग्रेज़ी पिलाता है. एक बार सो लेती तो क्या घिस जाती. औरत लोग उसका तलवा चाटता है.” दूसरे दिन बहाने से माइकिल उसे बड़े आदमी के घर छोड़ आया था.
शाम होते ही नौकरानी ने बेसन मल के नहलाया. वह गुनगुना रही थी- “तू भाग्यशाली घोड़ी है, तुझ पर मख़मली जीन पड़ेगी. हम तो गधे का बोझ उठाते रहे” फिर ये समझते हुए कि उरसुला तेलगू नहीं जानती है अपने मर्द की चालाकी गाती रही जिसने खेत बचाने के नाम पर उसे गिरवी रख महीनों शराब पी होगी. धरम के नाम पर वह भागने से भी लाचार है.
अँधेरा होने से पहले बंद गाड़ी उसे फार्म हाउस पर छोड़ गई, जहाँ बड़े दाँतों वाला दत्तू उसको निगरानी में अन्दर ले गया. उसे देख हँसा था, ग्यारह टेढ़े दाँत हलकी कालिमा में बाहर निकल आए थे. रात बूढ़ी सलमा ने कई तरह के गोश्त बनाए और खुदा को गवाह बना उरसुला को सुनाती रही कि बदजात आदमी की सज़ा में औरत पराए बिस्तर पर पहुँच जाती है. अल्लाह ने औरत को सज़ा भुगतने के लिए ही बनाया है... फिर समझाया सराहा था- “तुम तो फार्म हाउस की रौनक बनी हो, घर पर तो दस जनानियाँ लहूलुहान रहती हैं काम से, घर का काम, फसल का काम... तुम्हारा हुस्न तुम्हारे काम आया. ऐश की कमी नहीं है यहाँ,” कहते हुए शराब की केबिनेट खोल दी थी. उस रात बूढ़े ने खूब उछलकूद की. हैरान थी हारे थके इंसान की हवस पर उरसुला. फिर गटागट शराब पी बेहोश हो गई थी. विजयी भाव से सोया था बूढ़ा. पाँच दिन खूब आराम किया उसने. छटे दिन बड़े आदमी का बेटा आ गया. सात दिन बाद छुट्टी वाले दिनों में बूढ़ा फिर आ गया... घिना उठी. बूढ़े की भूख पर उरसुला, पर लाचार थी.
खाना, सजना और फिर देह के खेल. पिंजरे में फड़फड़ाती उरसुला के दो ढाई वर्ष कट गए. पैंतरा बदला था उरसुला ने, गर्मी की भरी दोपहर में कई बार उपकृत किया दत्तू को, शराब पिलाई और उत्तेजित किया, बेहोश होने की हद तक. मालिक के बिस्तर पर उसकी रखैल के साथ लेटकर खुद को बादशाह मान मस्त हो जाता दत्तू.
एक दिन अवसर मिलते ही भागी थी. थाने में रोते और हाँफते हुए बलात्कारों की दास्तान सुनाई थी. सुनकर ए.एस.आई. ने जीप में तफतीश के बहाने बैठा बड़े आदमी के घर उसे छोड़ दिया था. समझ गई थी कि इस समाज में औरत पैसे वाले आदमी की वासना का नाश्ता और खुराक है. उस पैसे से व्यवस्था खरीद औरत रूपी आधी दुनिया को वह आसानी से कनीज बनाए रखता है. उसे धर्म, कानून और समाज बाँध नहीं सकते हैं.
घृणा से बाप बेटे ने दुत्कारा था. रखैल से दासी हो गई उरसुला. घर की औरतें अपने आदमी के अभाव में आधी रात तक पैर दबवातीं, सुबह पानी भरवाकर उन्हें खेतों की तरफ हांक दिया जाता. कुछ ऐसी ही औरतें उस पर हंसतीं- “इसे कहते हैं अपना भाग्य खुद फोड़ना” बत्तीस तैंतीस की होते उरसुला बूढ़ी हो गई.
उरसुला का ध्यान टूटता है... एक दिन बहुत खुश थे लड़के. एक लड़का पुराना अख़बार पढ़ते हुए बता रहा था- “बड़े मन्दिर हैं चेन्नई में, भक्त नंगे पाँव देवल जाते हैं और वहाँ सोना चाँदी चढ़ाते हैं. घरों में आदिशंकराचार्य का चित्र लटका रहता है. कुछ लोग राम विरोधी भी हैं, पर बात रईसों की है. रईस लोग देर रात ऐश करके लौटते हैं. पुलिस वाला रास्ते में रोक पाकिट से नोटबुक निकाल पूछता है- कहाँ गया था? आपने कहा कि किसी को देखने अस्पताल गया था या रिश्ते वालों में तो नंबर नोट... कल थाने में आएं. अगर कह दिया कि रखैल के यहाँ तो पुलिसवाला फौरन सलाम मारता है. समझ जाता है कि खानदानी रईस और रसूख वाला आदमी है.”
उरसुला को याद आई वह रात जब बड़े आदमी का बेटा रात फार्म हाउस पहुँच गया था. उरसुला ने इशारों में फरियाद की थी... “परसों तेरा बाप मेरे साथ...”
“झाड़ू मार बूढ़े को. सांप है, दौलत छुपा के रखा है नहीं तो मार के इधर गाड़ देता.” वह क्रोध में भुनभुनाया. फिर डुप्लीकेट चाबी से अलमारी खोल व्हिस्की निकाल ली थी.
सीने पर झुका बड़े आदमी का बेटा तो उरसुला की छाती में चेन से बंधा कास चुभा, सिसकी ली उरसुला और बेटा हिंस्र हो गया था. उरसुला को लगा कि शैतान वाचाल हो रहा. अब वह बेवल की मीनार उठाके ही रहेगा. सुबह नहाने से पहले बाहर परकोटे में पेड़ के नीचे बनी सांप की बांबी में क्रास सरका दिया था... जब इतने बलात्कारों से गुजर गई तो कब्र तक क्यों लादे रहे. इसे भी सहने दो सर्पदंश.
एक दिन जमादारिन ने बताया- “बाप बेटा त्रिपुति जाकर केश दे आया है. मैंने बेटे से पूछा तो बोला- मरने से पहले बूढ़े का क्रियाकर्म कर आया हूँ.” कहने के साथ हँसी थी जमादारिन बख्शीश की उम्मीद में.
उरसुला के अन्दर दर्द ने हिलोर ली थी... कुटनी तूने ही बाप बेटे को खबर दी... इस माह कोई कपड़ा नहीं मालिक... और ले आए थे वे डायन दाई. खाली कर गई थी पेट... भल-भल खून उसकी जांघों के बीच बह रहा था और दाई शाबासी पा रही थी.
उरसुला ने जमादारिन के सामने ही अपनी नफरत छुपाने के लिए शराब गिलास में डाल कर पीना शुरू कर दिया था. अचानक पीते-पीते हंसी थी उरसुला- “बच्चा हो जाता तो बाप बेटा लड़ता... मेरा है, मेरा है. फिर मुझसे पूछते.”
“क्या तुम बता सकती थीं कि किसका था?” जमादारिन ने पूछा था.
कहकहा लगाया था उरसुला ने... “तेरे होते कमीनी यह अवसर क्या कभी आ सकता है,” कहते हुए जमादारिन को धक्के देकर बाहर निकाल दिया था.
बड़े आदमी के घर में बेटे की बहू घंटों रात में पैर दबवाती. बेटे की बहू खोदती रहती- “तू रहता था न फार्म हाउस पर! उधर आता था न वह. सुना है अब कोई जहांनारा पहुँच गई है.”
उरसुला गुमसुम रहती तो लात झटक देती बेटे की बहू- “आठ दिन का बिल्ली का बच्चा भी म्याऊँ बोलना सीख जाता है... तू न सीखी न बोली.”
खेतों पर अपनी-अपनी माँ का दस से बारह बरस के लड़के लड़कियाँ हाथ बटाते. बड़े होते होते वे माँ पर होते अत्याचारों पर, हथेली पर मुक्का मार विरोध जताते. कुछ दिनों बाद बड़े होते ही अधिकांश भाग जाते. बाप आकर धर्म की कसम खाता और उसकी माँ की गुलामी की अवधि बढ़ा जाता. उनमें से कई मर्दों ने नई औरतें घर में रख ली थीं.
रात खुले में या जानवरों से बची जगहों पर औरतें सोतीं. एक दूसरे को छेड़तीं और फिर लिपटकर रोतीं... भगवान जाने कब हमारे अपराध क्षमा करेगा. अंधेरी रातों में पेट के ऊपर से कांप सरसराते हुए निकल जाते.
एक रात पहले भोर में जब अंतिम तारा आकाश से धरती पर निगाह जमाए था पंद्रह वर्ष की आनंदी ने आत्महत्या कर ली थी. लाश पर रोई भी दबे स्वर में थी उसकी माँ... बहुत मिन्नत की थी छोकरी ने,... मुझे छोड़ दे. तेरा बाप मेरा भी बाप है. पर माना नहीं.
लाश उठने से पहले पुलिस आई थी. चायपानी के बाद मुंशी ने पंचनामा सुनाया था... सर्पदंश से मृत्यु. मन ही मन कसमसाई थी उरसुला... हाँ सर्पदंश! पर सर्प का फन क्यों वहीं कुचलती है पुलिस. रिटायर्ड इंजीनियर दीक्षित ने जहाँ लाश रखी थी वहाँ हवन करा मोटी दक्षिणा लेते हुए बूढ़े से कहा था... कभी हमें भी...
उसी रात कुछ बागी लड़कों ने पक्के मकान के चारों ओर पेट्रोल छिड़क आग लगाकर उन्हें जगाकर कहा था... भागो. वे भागीं तो खेत खलिहान में भी आग लगा दी. चूहे, कुत्ते, औरतें और गाय बैल भाग रहे थे. अंदर चीखने की आवाज़ें उठ रही थीं. बड़े आदमी और उसके कुनबे को आग सूअर की तरह भून रही थी, बाहर लड़के हँस रहे थे.
भागी थी उरसुला भी. भागते भागते कहीं टकराकर गिरी तो बेहोश हो गई. होश आने पर खुद को लड़कों के बीच जंगल में पाया.
हाथ मुँह धोकर उरसुला चूल्हे के पास पहुँच जाती है. एक एक कर लड़के लौट रहे थे... रवि, पॉल, सत्यनारायण. उरसुला केले के पाँच पत्तों पर चावल रख बीच में गड्ढा कर सांभर डाल देती है. पूछना चाहती है कि असलम कहाँ है?
तभी रवि एक पत्ता सरकाते हुए कहता है... “असलम नहीं आएगा!”
“क्यों?”
उंगलियों में चिपके चावल छिड़क कर रवि चीखता है..., “वह मर गया. पुलिस ने उसे मार डाला.”
कुछ ठहरकर रुआँसे स्वर में रवि कहता है, “अंधी अम्मी ने खबर कराई थी कि नज़्मा को यहाँ से निकाल ले जा. नज़्मा को लेकर भाग रहा था असलम कि शाह के फोन पर पुलिस ने उसे मार दिया. लाश शहर भेज दी... एनकाउंटर में मारा गया आतंकवादी.”
उरसुला के हाथों में असलम की फटी बनियान आ जाती है, उरसुला चीख रही थी... “आतंकवादी? बच्चा था वह. पुलिस क्या बच्चों को भी मारने लगी है. अपनी बहन को गारत होने से बचाना क्या आतंकवाद है?”
अचानक रवि उरसुला से पूछता, “अम्मा तुमको तेलगू नहीं आता था न!”
भरभरा के रो पड़ती है उरसुला, रवि गंभीर हो जाता है क्योंकि रूदन की भाषा नहीं होती है, अहसास होता है रूदन. उरसुला फटी बनियान सीने से दबाए रोती रहती है. पॉल पास आकर कंधा सहलाता है, “रो मत अम्मा. आंसू बचाकर रख. हम सब इसी तरह एक-एक कर मरेंगे क्योंकि अपनी बंधक माताओं को हम आजाद कराना चाहते हैं. क्योंकि रिलीजन, व्यवस्था और खुद हमारे बाप हमारे खिलाफ हैं. हमारी मौत निश्चित है और यह भी निश्चित है कि हम कम नहीं होंगे.”
उरसुला पॉल का हाथ घबरा कर थाम लेती है. पॉल हाथ छुड़ाकर अपनी जगह बैठ जाता है, वह कह रहा था- “क्योंकि हमें शीघ्र मरना है, हमें दुःखी मत कर और चावल खाने दे. इसी चावल के प्रयोजन में हमारी माँ बंधक हैं. तू भी खा अम्मा. आज पाँच लोगों का चावल चार लोग खाकर ठीक से पेट भर सकेंगे.”
खाते हुए लड़के सामान्य हो जाते हैं. उरसुला को लगता है कि जीवन की विभीषिका के मुकाबले इन्हें मौत सहज लगती है.
अचानक सत्यनारायण कहता है, “असलम, शाह की नाजायज औलाद था. किसान बाप और न ही नाजायज बाप लाश लेने जाएगा. कैसी अजीब बात है कि हिंदुस्तान में मुश्किल से बीस लाख समृद्ध या हथियारबंद लोगों से सत्तानवे करोड़ लोग डरते रहते हैं. पुलिस भी कफन का पैसा गोलकर असलम को नंगा ही दफना देगी.”
उरसुला के अंदर कोख से टीस उठती है... काश कुटनी खबर नहीं देती तो उसका बेटा या बेटी असलम की जगह पाँचवे चावल पर बैठा होता.
पॉल के स्वर में तेजाब था- “बूढ़ा अरब का शेख जब नाबालिग लड़की को ले जाना चाहता है तो कानून मानवीयता का बुत बन जाता है मगर हजारों लाखों नाबालिग लड़कियों को चकलों में फंसा देखकर वह दृष्टि चुरा लेता है. हमारी गिरवी पड़ी माताएँ बलात्कार सहती हैं और कानून मुस्कराता रहता है. शाह का गिरवी औरत से जना लड़का पुलिस की गोली से मरता है और लाश को कफन नसीब नहीं.”
“नहीं!” मैं उढ़ाऊँगी उसे कफन. मैं दफन करूंगी उसे, “मैं दफन करूंगी उसे,” चीखती है उरसुला.
लड़कों के चेहरे पर दर्प झलक उठता है, “अम्मा हमारी बोली बोलती है. वह हमारी बंधुआ माताओं जैसी कमजोर, लाचार और धर्म के खूंटे से बंधी गाय नहीं है.”
खोजी कुत्ते की तरह असलम की फटी बनियान नाक पर लगा उरसुला दौड़ पड़ती है. पॉल चीखता है- “रुक जा अम्मा.”
रवि कहता है- “वह रुकेगी नहीं क्योंकि पहली बार वह अपने निजी दुःख की परछाईं से मुक्त हुई है.”
“शायद वह लौट आए!” सत्यनारायण कहता है.
“क्या हम सब हमेशा वापस लौट सकेंगे?” रवि पूछता है.
“लेकिन हमें अम्मा को तलाशना होगा. लौटाना होगा. मुद्दतों बाद कोई जंगल में हमारे लिए चावल पकाने के लिए रुका था.”
उरसुला और असलम के पत्तों के चावल को तीनों आपस में बांट लेते हैं.
पर उरसुला लौटी नहीं. लड़के सच्चाई, हक और इंसानियत के परचम लेकर गाँव गाँव घूमते. जिनके लिए वे संघर्ष कर रहे थे वे सामने आने से कतरा जाते. और एक रात जंगल में ही गोलियाँ चलीं. बचा था घायल रवि. अस्पताल से जेल आया था और जेल से उसे धक्का देकर अदालत जाने वाली गाड़ी के अंदर पहुँचा दिया गया था. चकित रह गया था रवि... कोने में बैंच पर बैठी थी उरसुला. सामने के दाँत टूट गए थे और अब बासठ की लग रही थी. रवि को देखा तो चहक उठी..., “चार दिन शाह ने रौंदा, पाँचवे दिन उसे खलास कर दिया मैंने.”
रवि उँगली होंठ पर रख चुप रहने के लिए कहता है मगर हुलस उठी थी उरसुला, “बाकी कहाँ हैं?”
रवि आकाश की तरफ ऊँगली उठा चुप हो जाता है.
अन्य कैदियों को अंदर धकेल संगीनधारी सिपाही खुद भी बैठते हुए द्वार बंद कर लेता है. ड्राइवर की बगल में बैठने वाला सिपाही बाहर ताला जड़कर ड्राइवर की बगल में आ बैठता है. गाड़ी चल पड़ती है.
उरसुला सिसक रही थी. सिपाही डपटता- “चुप कुतिया.”
भभक उठती है उरसुला- “तुम कमीनों के पहरेदार हो. शैतान के कहने पर बन रही बेवर की मीनार की हिफाजत करते हो. एक दिन ऊपर जाओगे तो रोओगे.”
सिपाही बन्दूक का बट उसकी तरफ बढ़ाता है. उरसुला का स्वर तेज हो जाता है- “मार डालो जिससे खेतों का बचा चावल और गले से खींचे मंगलसूत्र का सोना भी तुम्हें मिल जाए. तुम शैतान के सांप हो, इस बार तुम्हें नोहा की नाव में जगह नहीं मिलेगी.”
सिपाही तिरछी राइफल का बट उरसुला के मुँह पर मारता है. उरसुला के होठों खून चू उठता है.
सात खून के इल्जाम में पकड़ा गया सनमखान सिपाही की कलाई पकड़ लेता है. सिपाही चूजे की तरह नर्म होते हुए याचना भरी दृष्टि से कसाई जैसे कैदी की ओर देखता है. रवि को लगता है कि सिपाही और डकैत मौसेरे भाई हैं.
सनमखान कहते है, “भीमा को कल फांसी हो गई. साला दस दिन से अपना आधा चावल खाता था और आधा चिड़ियों को डाल देता था. अजीब तरह की खैरात है न!”
“क्या किया था उसने?” रवि पूछता है.
“अपने बहनोई को मारा था जिसने उसकी बहन को कोठे पर बेच दिया था.”
“फिर फाँसी क्यों?” लहूलुहान होठों से पूछती है उरसुला.
सनमखान सिपाही को कोहनी मार कहता है- “कानून कमीनों के हाथ बिक गया है. समझता नहीं है कि कुछ कत्ल फ़र्ज होते हैं.”
सिपाही हिम्मत बटोर कर कहता है- “चुप रहो.”
रवि को लगता है कि भीमा की तरह उरसुला को भी जरूर फाँसी होगी क्योंकि वह भी अपना ज्यादा से ज्यादा चावल लड़कों को खिलाने की कोशिश करती थी.
चलती हुई पुलिस वैन में सन्नाटा फैल जाता है. हर कैदी दूसरे के गले में फाँसी के फंदे की आशंका में सिहर कर खामोश हो गया था.
**-** रचनाकार – विजय – रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन से सेवानिवृत्त वैज्ञानिक – के कोई दो दर्जन उपन्यास/कहानीसंग्रह/बाल कथा संग्रह/किशोर उपन्यास प्रकाशित हैं. स्थान विशेष पर लिखी विशिष्ट-विविध रूपों में लिखी गई कहानियों की श्रेणी में से खास तौर पर रचनाकार के लिए चुनी गई है यह कहानी.
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