**-** - स्वामी वाहिद काज़मी उस नगर का नाम है – अब्दालगंज और अब्दालगंज का एक घना और बारौनक़ बाज़ार है- बड़ा बाज़ार. वहीं बारह-पंद्रह ...
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- स्वामी वाहिद काज़मी
उस नगर का नाम है – अब्दालगंज और अब्दालगंज का एक घना और बारौनक़ बाज़ार है- बड़ा बाज़ार. वहीं बारह-पंद्रह मुसलमान रंगरेज़ों की बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, जो कपड़े रंगने का अपना पुश्तैनी व्यवसाय करते-करते इतने कुशल व धनवान हो गए हैं कि अब वह अपना रंगरेज़ी का धंधा त्यागकर दूसरे व्यवसाय करने लगे हैं. उनमें से अधिकतर शामियाने, कन्नातें, क्रॉकरी आदि किराए पर देने की ठेकेदारी करते हैं. किसी-किसी के तो ट्रक और टेम्पो भी चलते हैं.
छिद्दू खां अपने इन्हीं स्वजातीय बंधुओं के चौधरी हैं. आयु यही कोई चालीस-पैंतालीस वर्ष, सांवला रंग, मध्यम क़द, कुर्ता-पायजामा पहनने वाले. उनकी कपड़े की एक बड़ी दुकान थी. दुकान के पीछे तीन-चार मकान भी थे उनके. एक में रहते थे, बाक़ी किराए पर उठा रखे थे. उनकी दुकान के ऊपर एक मस्जिद थी, जो बड़ा बाज़ार की मस्जिद कहलाती थी. अल्लाह तेरी शान! चौधरी छिद्दू खां वैसे अंगूठा टेक व्यक्ति थे, किंतु धन-सम्पन्न और अच्छी-ख़ासी साख वाले होने के कारण उस मस्जिद के स्वयंभू मुतवल्ली (प्रबंधक) भी वही थे और सार्वजनिक मस्जिद को एक प्रकार से अपनी निजी संपत्ति में ही गिनते थे.
प्रत्येक वर्ष जब रमज़ान का पवित्र महीना शुरू होता, तो रात्रिकालीन तरावीह की विशेष नमाज़ पढ़ाने के लिए दिल्ली के एक युवा हाफ़िज़जी बब्बन मियाँ को सादर आमंत्रित किया जाता, जो एक माह तक उसी मस्जिद के हुजरे में निवास करते और बड़े मनोयोग से नमाज़ें पढ़ाया करते. कुरआन का सस्वर पाठ (क़िरअत) करने में हाफ़िज़जी का गला अत्यंत सुरीला था (यह तो वैसे कहूँ कि उनके गले में सरस्वती विराजती थी!) कहना चाहिए की उनके गले में स्वर नहीं जादू था! जब वे नमाज़ पढ़ाते तो पीछे खड़े नमाज़ी उनकी स्वर लहरी में डूबकर किसी अलौकिक आनंद से भर जाते थे. हाफ़िज़जी क्योंकि मेरे हम उम्र और हमख़्याल भी थे और सर्वप्रथम उन्हें मेरे ही मुहल्ले की मस्जिद में दिल्ली से बुलाया गया था. एक माह तक वे हमारे ही घर मेहमान रहे थे. अतः हम दोनों में गहरी मित्रता हो गई थी.
मेरा अधिकतर समय क्योंकि अपने मित्र हाफ़िज़जी के पास मस्जिद में गुजरता था. इसलिए छिद्दू खां से मिलना होता रहता था. मुझे यह बात कुछ समझ में नहीं आती थी कि किसी दिन तो छिद्दू खाँ बड़े प्रसन्न वदन और प्रफुल्लित नज़र आते थे तो किसी दिन बेहद खीझभरे और चिड़चिड़े.
साल में एक मास अर्थात् रमज़ान के अलावा बाक़ी दिनों में एक निपट अकेले सज्जन शरीफ़ मियाँ मस्जिद के उसी हुजरे में रहा करते थे. जोरू न जाता होने से अल्लाह मियाँ से उनका नाता था. मस्जिद की देख-रेख वही करते थे इसलिए छिद्दू खां की ओर से ही उनके भरण-पोषण की सुविधा जुटाई जाती थी. जब भी छिद्दु खां मुझसे कोई मज़हबी अथवा दीन-ईमान की बात करते तो शरीफ़ मियाँ उन्हें घूरकर देखते रहते और उनके इधर-उधर होते ही घृणा से मुँह बनाकर पिच्च से ज़मीन पर थूककर मुझसे कहते- “सुनी जनाब आपने चौधरी की बात?”
“तो इसमें झूठ भी क्या है, शरीफ़ मियाँ”, मैं कहता.
“अजी जनाब, आप क्या जानें उसके पेट में कितनी लंबी दाढ़ी है.” वे कहते- “अंदर किन ने देखा है, सब ज़ाहिरा में देखते हैं.”
“तो चौधरी की ऐसी बातें सचाई नहीं हैं.”
“अजी साहब तौबा कीजिए.”
“फिर क्या बात है?” मेरे इस सवाल पर वे कुछ नहीं बताते. किंतु इतना आश्वासन अवश्य देते कि वक़्त आने पर आप खुद देख लेना.
रियासती युग में अब्दालगंज भी एक रियासती शान वाला नगर रहा था. वहाँ के राजा-महाराजा भी यद्यपि अन्य रियासती नरेशों के समान विलास प्रिय तथा अय्याश हुआ करते थे. मगर इसके साथ ही वे बेहद कला-प्रेमी भी होते थे. कला के पारखी व गुण ग्राहक भी. ललित कलाओं में परम प्रवीण गुणीजनों के अलावा उनके दरबार से जुड़ी ऐसी दर्जनों स्त्रियाँ रहती थीं, जो नृत्य एवं गान-कला की कुशल कलाकार होती थीं. यद्यपि राजा से उनके शारीरिक संबंध हों या न हों, पर वे बाज़ार में कोठा सजाकर नहीं बैठती थीं. नाच-गाना ही उनका व्यवसाय होता था. और अधिकतर वेश्या पुत्रियाँ होती थीं इसलिए उन्हे तवायफ़ ही कहा जाता था. ऐसी नृत्यांगनाएं सरकारी या महल की तवायफ़ें कही जाती थीं और रियासत की ओर से उनको अच्छा-ख़ासा वेतन तो मिलता ही था. समय-समय पर इनाम-इकराम से भी नवाज़ी जाती थीं. उनका मुख्य कार्य रियासत के किसी उत्सव या समारोह आदि के अवसर पर गाना होता था. जन-साधारण से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता था. स्वभाव से वे धर्म भीरु होती थीं अतः धर्म-कर्म के कार्यों में मुक्त-हस्त पैसा ख़र्च करती थीं. रियासतें समाप्त होने के बाद ऐसी तवायफ़ों में से अधिकतर ने अपने पिछले अर्जित धन और यशः कीर्ति के बल पर शरीफ़ आदमियों से निकाह कर लिए और पूर्णतः गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगीं.
अब्दालगंज की अपने समय में नामी तवायफ़ शबनम उर्फ़ शब्बो भी एक ऐसी ही सरकारी तवायफ़ रही थी. मस्जिद बड़ा बाज़ार से आगे जाकर उसकी एक छोटी-सी शानदार कोठी थी. उसने किसी प्रतिष्ठित आदमी से निकाह कर लिया था. उसके दो युवा पुत्र स्थानीय मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे. एक पुत्री थी जिसने एमए कर लिया था और किसी बड़े सरकारी अफ़सर से ब्याही गई थी.
शब्बो हर वर्ष रमज़ान के महीने में नगर की कई मस्जिदों में एक-एक दिन अपनी ओर से शाम के समय, रोज़ेदारों के लिए अफ़तारी (भोज्य सामग्री) भेजा करती थी. उसके नौकर, स्वल्पाहार से भरे बड़े-बड़े थाल, गोटे-पट्टे के ख्वानपोशों से दबे अदब से अपने सिरों पर रखे मस्जिदों में पहुँचाया करते थे. मुझे मालूम था कि अन्य मस्जिदों में तो शब्बो की भेजी अफ़तारी ले ली जाती है. किंतु बड़ा बाज़ार की मस्जिद में छिद्दू खां उसकी भेजी अफ़तारी वापस कर दिया करते थे.
उस रोज़ जुमे का दिन था. सदा की भांति जब मैं संध्याबेला में मग़रिब की नमाज़ पढ़ने पहुँचा तो वहाँ एक हंगामा सा मचा हुआ था. शब्बो का नौकर एक बड़े थाल में रोज़ा अफ़्तार करने की सामग्री लिए मस्जिद के दरवाज़े पर खड़ा था और छिद्दू खां लाल-पीले होते हुए उस पर बरस रहे थे- “तुझसे बोला न! वापस ले जा ये अफ़तारी और पटक दे अपनी मालकिन के सर पर. यहाँ नमाज़ी परहेज़गार लोग आते हैं. हम हराम की कमाई वाली चीज़ें खिलाकर उनका ईमान नहीं बिगाड़ सकते. यहाँ रंडी-मुंडियों का भेजा हुआ खाना कोई नहीं छुएगा. ले जा यह थाल और खिला दे कुत्तों को.”
कुछ क्षण तो मैं यह तमाशा देखता-सुनता रहा. किंतु जब सहन करना कठिन हो गया तो छिद्दू खाँ के कंधे पर हाथ रखते हुए मैंने नर्मी से कहा- “चौधरी, आपको इतना गर्म नहीं होना चाहिए! अफ़तारी किसके यहाँ से आई है और भेजने वाला कौन है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. जो भी सच्चे दिल और अक़ीदत से ऐसा करे, उसे बुरा कैसे कहा जा सकता है. फिर ये चीज़ें हलाल की कमाई की हैं या हराम की, इसका फ़ैसला आप कैसे कर सकते हैं. अफ़तारी मस्जिद में भेजी गई है. किसी के घर नहीं भेजी गई है. आप इसे रख लें.”
उन्होंने मेरी ओर आँखें तरेरकर देखा और बोले- “राशिद मियाँ, आप इते पढ़े-लिखे सैयदज़ादे होकर ऐसा कहते हैं. ज़रा सोचिए, रंडी-मुंडियों की कमाई क्या हलाल की होती है? क्या ये रोज़ेदारों के लिए जायज़ है? नहीं साब, ये अफ़तारी हम लोग नहीं ले सकते.”
अब मुझे भी ज़रा ताव आ गया. अतः इनकी ईंट का जवाब छोटे-से पत्थर से देते हुए कहा- “मस्जिद में भेजी किसी भी चीज़ को स्वीकार-अस्वीकार करने का आपको कोई हक़ नहीं है. आप इसे वापस नहीं कर सकते.”
“मगर मैं इस मस्जिद का मुतवल्ली हूँ. यहाँ जो मैं चाहूँगा वही होगा,” वे आवेश से तमतमाते हुए बोले. आँखें तो उनकी यों भी लाल-लाल रहती थीं. (जिसका कारण वे रात भर नफ़िल नमाज़ें पढ़ना बताते थे) अब गुस्से से और लाल हो गईं!
“हरगिज़ नहीं होगा!” मैंने भी उतने ही आवेश से कहा- “देखता हूँ कौन इस अफ़तारी को वापस करता है.” इतना कहकर मैंने थाल में से आधी सामग्री मस्जिद के द्वार पर इसीलिए भीड़ लगाए बच्चों में बांट दी और बाक़ी को खुद ऊपर ले जाकर रोजा खोलने के लिए दस्तरख़्वान के पास बैठे रोज़ेदारों के सामने रख दिया. कोई कुछ नहीं बोला! छिद्दू खाँ मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरते रहे! रोज़ा खोलने का समय हो गया था. अतः इस सामग्री में से पहला कौर हाफ़िज़ बब्बन मियाँ ने उठाया, दूसरा मैंने! जब लोगों ने इस सैयदज़ादे और इसके साथ हाफ़िज़जी को उसी सामग्री से रोज़ा खोलकर खाते देखा तो उनका भी हौसला बढ़ा और खाना शुरू कर दिया. केवल छिद्दू खाँ ऐसे थे जो उस समय दस्तरख़्वान पर भी नहीं बैठे!
इस घटना के बाद से छिद्दू खां मुझसे रुष्ट रहने लगे. मगर उनका इतना साहस नहीं था कि मुझसे कुछ कहा-सुनी कर पाते! रात को तरावीह की नमाज़ के बाद मैं और हाफ़िज़जी हुजरे में बड़ी देर तक बैठे इधर-उधर की बातें कर रहे थे. उस दिन शरीफ़ मियाँ मुझसे बोले- “राशिद साहब, आज रात आप यहीं सो जाइए.”
“क्यों जनाब,” मैंने मुस्कुराकर प्रश्न किया, “ख़ैर तो है?”
“कोई ख़ास बात ही होगी,” उन्होंने अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए कहा- “आपको एक मज़ेदार तमाशा दिखाना है.”
“मंजूर है,” मैंने कह दिया!
उसी दिन. रात का कोई डेढ़ बजा होगा. शरीफ़ मियाँ ने चुपके से हुजरे में आकर धीरे से मुझे जगाया और अपने होठों पर उँगली रखकर ख़ामोश रहने का संकेत करते हुए अपने पीछे आने को कहा. मैं उठ कर ख़ामोशी से उनके पीछे चल पड़ा. मस्जिद का जीना उतरकर वे मुझे नीचे ले गए. छिद्दू खां की दुकान के भीतर मंद रोशनी हो रही थी और आहिस्ता-आहिस्ता बातें करने की आवाज़ें भी आ रही थीं. शरीफ़ मियां ने धीरे से किवाड़ का एक पट भीतर की ओर धकेलते हुए मुझे भीतर जाने का इशारा किया.
मैंने भीतर प्रवेश किया तो देखता यह हूँ कि फ़र्श पर बिछे गद्दे पर छिद्दू खां सहित चार व्यक्ति अपने-अपने हाथों में थामे ताश के पत्तों में गुम हैं और बीच में नोटों की एक संक्षिप्त-सी ढेरी लगी है! दारू की ख़ाली बोतल कोने में लुढ़की पड़ी है और चार-पाँच गिलास भी पड़े हैं. उनमें से दो व्यक्तियों को मैं बस इतना जानता था कि वे नमाज़ पढ़ने नियमपूर्वक आते थे!
उस समय सभी लोग अपनी-अपनी चालों में कुछ इतने ध्यानस्थ थे कि बस इतना ही आभास पा सके कि कोई भीतर आया है, कौन है यह देखने की फुर्सत ही नहीं थी. छिद्दू खां ने ताश के पत्तों पर से दृष्टि हटाए बिना अपना एक हाथ मेरी ओर बढ़ाया और बेध्यानी में बोले- “क्यों रे, ले आया बीड़ी का बंडल?”
मैंने उनका बढ़ा हुआ हाथ अपने हाथ में लिया और व्यंग्य से मुस्कुराकर कहा- “हैलो, चौधरी साहब.”
मेरे शब्दों से वे एकदम चौंक उठे और मेरी ओर दृष्टि उठाई तो ताश के सारे पत्ते उनके हाथ से छूट गए! उनके तीनों साथियों ने मुर्दा हाथों से ताश के पत्ते नीचे रख दिए!
“खेलिए-खेलिए.” मैं बोला.
“र...राशिद मियाँ, अ... आप इस वक्त यहाँ...” छिद्दू खां बड़ी कठिनाई से थूक निगलकर बोले. उनके साथी भौंचक्के होकर मुझे घूरने से लगे!
कुछ मिनट बाद उनके तीनों साथी तो उठ कर चले गए. मैं और छिद्दू खां रह गए!
“तो ये हैं आपकी नफ़िल नमाज़ें और तहज्जुद की नमाज़, जो आप रात भर, रमज़ान के पाक महीने में भी पढ़ते रहते हैं,” मैं बोला!
मेरी बात को वह सिर झुकाए चुपचाप सुना किए. फिर ग्लानि भरे स्वर में बोले- “शर्मिंदा हूँ राशिद भाई! कसम खाता हूँ आगे फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा. खुदा मुझे माफ़ करे. आप लोगों के सामने मुझे बेइज़्ज़त मत कीजिएगा.” इन शब्दों के साथ उन्होंने आदतन अपने मुँह पर तड़ातड़ तमाचे जड़ लिए!
मैं उन्हें इसी हालत में छोड़कर बाहर निकल आया!
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रचनाकार – स्वामी वाहिद काज़मी की कुछ अन्य रचनाएँ रचनाकार पर यहाँ पढ़ें :
http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_03.html http://rachanakar.blogspot.com/2005/08/blog-post_26.html
- स्वामी वाहिद काज़मी
उस नगर का नाम है – अब्दालगंज और अब्दालगंज का एक घना और बारौनक़ बाज़ार है- बड़ा बाज़ार. वहीं बारह-पंद्रह मुसलमान रंगरेज़ों की बड़ी-बड़ी दुकानें हैं, जो कपड़े रंगने का अपना पुश्तैनी व्यवसाय करते-करते इतने कुशल व धनवान हो गए हैं कि अब वह अपना रंगरेज़ी का धंधा त्यागकर दूसरे व्यवसाय करने लगे हैं. उनमें से अधिकतर शामियाने, कन्नातें, क्रॉकरी आदि किराए पर देने की ठेकेदारी करते हैं. किसी-किसी के तो ट्रक और टेम्पो भी चलते हैं.
छिद्दू खां अपने इन्हीं स्वजातीय बंधुओं के चौधरी हैं. आयु यही कोई चालीस-पैंतालीस वर्ष, सांवला रंग, मध्यम क़द, कुर्ता-पायजामा पहनने वाले. उनकी कपड़े की एक बड़ी दुकान थी. दुकान के पीछे तीन-चार मकान भी थे उनके. एक में रहते थे, बाक़ी किराए पर उठा रखे थे. उनकी दुकान के ऊपर एक मस्जिद थी, जो बड़ा बाज़ार की मस्जिद कहलाती थी. अल्लाह तेरी शान! चौधरी छिद्दू खां वैसे अंगूठा टेक व्यक्ति थे, किंतु धन-सम्पन्न और अच्छी-ख़ासी साख वाले होने के कारण उस मस्जिद के स्वयंभू मुतवल्ली (प्रबंधक) भी वही थे और सार्वजनिक मस्जिद को एक प्रकार से अपनी निजी संपत्ति में ही गिनते थे.
प्रत्येक वर्ष जब रमज़ान का पवित्र महीना शुरू होता, तो रात्रिकालीन तरावीह की विशेष नमाज़ पढ़ाने के लिए दिल्ली के एक युवा हाफ़िज़जी बब्बन मियाँ को सादर आमंत्रित किया जाता, जो एक माह तक उसी मस्जिद के हुजरे में निवास करते और बड़े मनोयोग से नमाज़ें पढ़ाया करते. कुरआन का सस्वर पाठ (क़िरअत) करने में हाफ़िज़जी का गला अत्यंत सुरीला था (यह तो वैसे कहूँ कि उनके गले में सरस्वती विराजती थी!) कहना चाहिए की उनके गले में स्वर नहीं जादू था! जब वे नमाज़ पढ़ाते तो पीछे खड़े नमाज़ी उनकी स्वर लहरी में डूबकर किसी अलौकिक आनंद से भर जाते थे. हाफ़िज़जी क्योंकि मेरे हम उम्र और हमख़्याल भी थे और सर्वप्रथम उन्हें मेरे ही मुहल्ले की मस्जिद में दिल्ली से बुलाया गया था. एक माह तक वे हमारे ही घर मेहमान रहे थे. अतः हम दोनों में गहरी मित्रता हो गई थी.
मेरा अधिकतर समय क्योंकि अपने मित्र हाफ़िज़जी के पास मस्जिद में गुजरता था. इसलिए छिद्दू खां से मिलना होता रहता था. मुझे यह बात कुछ समझ में नहीं आती थी कि किसी दिन तो छिद्दू खाँ बड़े प्रसन्न वदन और प्रफुल्लित नज़र आते थे तो किसी दिन बेहद खीझभरे और चिड़चिड़े.
साल में एक मास अर्थात् रमज़ान के अलावा बाक़ी दिनों में एक निपट अकेले सज्जन शरीफ़ मियाँ मस्जिद के उसी हुजरे में रहा करते थे. जोरू न जाता होने से अल्लाह मियाँ से उनका नाता था. मस्जिद की देख-रेख वही करते थे इसलिए छिद्दू खां की ओर से ही उनके भरण-पोषण की सुविधा जुटाई जाती थी. जब भी छिद्दु खां मुझसे कोई मज़हबी अथवा दीन-ईमान की बात करते तो शरीफ़ मियाँ उन्हें घूरकर देखते रहते और उनके इधर-उधर होते ही घृणा से मुँह बनाकर पिच्च से ज़मीन पर थूककर मुझसे कहते- “सुनी जनाब आपने चौधरी की बात?”
“तो इसमें झूठ भी क्या है, शरीफ़ मियाँ”, मैं कहता.
“अजी जनाब, आप क्या जानें उसके पेट में कितनी लंबी दाढ़ी है.” वे कहते- “अंदर किन ने देखा है, सब ज़ाहिरा में देखते हैं.”
“तो चौधरी की ऐसी बातें सचाई नहीं हैं.”
“अजी साहब तौबा कीजिए.”
“फिर क्या बात है?” मेरे इस सवाल पर वे कुछ नहीं बताते. किंतु इतना आश्वासन अवश्य देते कि वक़्त आने पर आप खुद देख लेना.
रियासती युग में अब्दालगंज भी एक रियासती शान वाला नगर रहा था. वहाँ के राजा-महाराजा भी यद्यपि अन्य रियासती नरेशों के समान विलास प्रिय तथा अय्याश हुआ करते थे. मगर इसके साथ ही वे बेहद कला-प्रेमी भी होते थे. कला के पारखी व गुण ग्राहक भी. ललित कलाओं में परम प्रवीण गुणीजनों के अलावा उनके दरबार से जुड़ी ऐसी दर्जनों स्त्रियाँ रहती थीं, जो नृत्य एवं गान-कला की कुशल कलाकार होती थीं. यद्यपि राजा से उनके शारीरिक संबंध हों या न हों, पर वे बाज़ार में कोठा सजाकर नहीं बैठती थीं. नाच-गाना ही उनका व्यवसाय होता था. और अधिकतर वेश्या पुत्रियाँ होती थीं इसलिए उन्हे तवायफ़ ही कहा जाता था. ऐसी नृत्यांगनाएं सरकारी या महल की तवायफ़ें कही जाती थीं और रियासत की ओर से उनको अच्छा-ख़ासा वेतन तो मिलता ही था. समय-समय पर इनाम-इकराम से भी नवाज़ी जाती थीं. उनका मुख्य कार्य रियासत के किसी उत्सव या समारोह आदि के अवसर पर गाना होता था. जन-साधारण से उनका कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता था. स्वभाव से वे धर्म भीरु होती थीं अतः धर्म-कर्म के कार्यों में मुक्त-हस्त पैसा ख़र्च करती थीं. रियासतें समाप्त होने के बाद ऐसी तवायफ़ों में से अधिकतर ने अपने पिछले अर्जित धन और यशः कीर्ति के बल पर शरीफ़ आदमियों से निकाह कर लिए और पूर्णतः गृहस्थ जीवन व्यतीत करने लगीं.
अब्दालगंज की अपने समय में नामी तवायफ़ शबनम उर्फ़ शब्बो भी एक ऐसी ही सरकारी तवायफ़ रही थी. मस्जिद बड़ा बाज़ार से आगे जाकर उसकी एक छोटी-सी शानदार कोठी थी. उसने किसी प्रतिष्ठित आदमी से निकाह कर लिया था. उसके दो युवा पुत्र स्थानीय मेडिकल कॉलेज में पढ़ते थे. एक पुत्री थी जिसने एमए कर लिया था और किसी बड़े सरकारी अफ़सर से ब्याही गई थी.
शब्बो हर वर्ष रमज़ान के महीने में नगर की कई मस्जिदों में एक-एक दिन अपनी ओर से शाम के समय, रोज़ेदारों के लिए अफ़तारी (भोज्य सामग्री) भेजा करती थी. उसके नौकर, स्वल्पाहार से भरे बड़े-बड़े थाल, गोटे-पट्टे के ख्वानपोशों से दबे अदब से अपने सिरों पर रखे मस्जिदों में पहुँचाया करते थे. मुझे मालूम था कि अन्य मस्जिदों में तो शब्बो की भेजी अफ़तारी ले ली जाती है. किंतु बड़ा बाज़ार की मस्जिद में छिद्दू खां उसकी भेजी अफ़तारी वापस कर दिया करते थे.
उस रोज़ जुमे का दिन था. सदा की भांति जब मैं संध्याबेला में मग़रिब की नमाज़ पढ़ने पहुँचा तो वहाँ एक हंगामा सा मचा हुआ था. शब्बो का नौकर एक बड़े थाल में रोज़ा अफ़्तार करने की सामग्री लिए मस्जिद के दरवाज़े पर खड़ा था और छिद्दू खां लाल-पीले होते हुए उस पर बरस रहे थे- “तुझसे बोला न! वापस ले जा ये अफ़तारी और पटक दे अपनी मालकिन के सर पर. यहाँ नमाज़ी परहेज़गार लोग आते हैं. हम हराम की कमाई वाली चीज़ें खिलाकर उनका ईमान नहीं बिगाड़ सकते. यहाँ रंडी-मुंडियों का भेजा हुआ खाना कोई नहीं छुएगा. ले जा यह थाल और खिला दे कुत्तों को.”
कुछ क्षण तो मैं यह तमाशा देखता-सुनता रहा. किंतु जब सहन करना कठिन हो गया तो छिद्दू खाँ के कंधे पर हाथ रखते हुए मैंने नर्मी से कहा- “चौधरी, आपको इतना गर्म नहीं होना चाहिए! अफ़तारी किसके यहाँ से आई है और भेजने वाला कौन है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. जो भी सच्चे दिल और अक़ीदत से ऐसा करे, उसे बुरा कैसे कहा जा सकता है. फिर ये चीज़ें हलाल की कमाई की हैं या हराम की, इसका फ़ैसला आप कैसे कर सकते हैं. अफ़तारी मस्जिद में भेजी गई है. किसी के घर नहीं भेजी गई है. आप इसे रख लें.”
उन्होंने मेरी ओर आँखें तरेरकर देखा और बोले- “राशिद मियाँ, आप इते पढ़े-लिखे सैयदज़ादे होकर ऐसा कहते हैं. ज़रा सोचिए, रंडी-मुंडियों की कमाई क्या हलाल की होती है? क्या ये रोज़ेदारों के लिए जायज़ है? नहीं साब, ये अफ़तारी हम लोग नहीं ले सकते.”
अब मुझे भी ज़रा ताव आ गया. अतः इनकी ईंट का जवाब छोटे-से पत्थर से देते हुए कहा- “मस्जिद में भेजी किसी भी चीज़ को स्वीकार-अस्वीकार करने का आपको कोई हक़ नहीं है. आप इसे वापस नहीं कर सकते.”
“मगर मैं इस मस्जिद का मुतवल्ली हूँ. यहाँ जो मैं चाहूँगा वही होगा,” वे आवेश से तमतमाते हुए बोले. आँखें तो उनकी यों भी लाल-लाल रहती थीं. (जिसका कारण वे रात भर नफ़िल नमाज़ें पढ़ना बताते थे) अब गुस्से से और लाल हो गईं!
“हरगिज़ नहीं होगा!” मैंने भी उतने ही आवेश से कहा- “देखता हूँ कौन इस अफ़तारी को वापस करता है.” इतना कहकर मैंने थाल में से आधी सामग्री मस्जिद के द्वार पर इसीलिए भीड़ लगाए बच्चों में बांट दी और बाक़ी को खुद ऊपर ले जाकर रोजा खोलने के लिए दस्तरख़्वान के पास बैठे रोज़ेदारों के सामने रख दिया. कोई कुछ नहीं बोला! छिद्दू खाँ मुझे खा जाने वाली नज़रों से घूरते रहे! रोज़ा खोलने का समय हो गया था. अतः इस सामग्री में से पहला कौर हाफ़िज़ बब्बन मियाँ ने उठाया, दूसरा मैंने! जब लोगों ने इस सैयदज़ादे और इसके साथ हाफ़िज़जी को उसी सामग्री से रोज़ा खोलकर खाते देखा तो उनका भी हौसला बढ़ा और खाना शुरू कर दिया. केवल छिद्दू खाँ ऐसे थे जो उस समय दस्तरख़्वान पर भी नहीं बैठे!
इस घटना के बाद से छिद्दू खां मुझसे रुष्ट रहने लगे. मगर उनका इतना साहस नहीं था कि मुझसे कुछ कहा-सुनी कर पाते! रात को तरावीह की नमाज़ के बाद मैं और हाफ़िज़जी हुजरे में बड़ी देर तक बैठे इधर-उधर की बातें कर रहे थे. उस दिन शरीफ़ मियाँ मुझसे बोले- “राशिद साहब, आज रात आप यहीं सो जाइए.”
“क्यों जनाब,” मैंने मुस्कुराकर प्रश्न किया, “ख़ैर तो है?”
“कोई ख़ास बात ही होगी,” उन्होंने अर्थपूर्ण मुस्कान बिखेरते हुए कहा- “आपको एक मज़ेदार तमाशा दिखाना है.”
“मंजूर है,” मैंने कह दिया!
उसी दिन. रात का कोई डेढ़ बजा होगा. शरीफ़ मियाँ ने चुपके से हुजरे में आकर धीरे से मुझे जगाया और अपने होठों पर उँगली रखकर ख़ामोश रहने का संकेत करते हुए अपने पीछे आने को कहा. मैं उठ कर ख़ामोशी से उनके पीछे चल पड़ा. मस्जिद का जीना उतरकर वे मुझे नीचे ले गए. छिद्दू खां की दुकान के भीतर मंद रोशनी हो रही थी और आहिस्ता-आहिस्ता बातें करने की आवाज़ें भी आ रही थीं. शरीफ़ मियां ने धीरे से किवाड़ का एक पट भीतर की ओर धकेलते हुए मुझे भीतर जाने का इशारा किया.
मैंने भीतर प्रवेश किया तो देखता यह हूँ कि फ़र्श पर बिछे गद्दे पर छिद्दू खां सहित चार व्यक्ति अपने-अपने हाथों में थामे ताश के पत्तों में गुम हैं और बीच में नोटों की एक संक्षिप्त-सी ढेरी लगी है! दारू की ख़ाली बोतल कोने में लुढ़की पड़ी है और चार-पाँच गिलास भी पड़े हैं. उनमें से दो व्यक्तियों को मैं बस इतना जानता था कि वे नमाज़ पढ़ने नियमपूर्वक आते थे!
उस समय सभी लोग अपनी-अपनी चालों में कुछ इतने ध्यानस्थ थे कि बस इतना ही आभास पा सके कि कोई भीतर आया है, कौन है यह देखने की फुर्सत ही नहीं थी. छिद्दू खां ने ताश के पत्तों पर से दृष्टि हटाए बिना अपना एक हाथ मेरी ओर बढ़ाया और बेध्यानी में बोले- “क्यों रे, ले आया बीड़ी का बंडल?”
मैंने उनका बढ़ा हुआ हाथ अपने हाथ में लिया और व्यंग्य से मुस्कुराकर कहा- “हैलो, चौधरी साहब.”
मेरे शब्दों से वे एकदम चौंक उठे और मेरी ओर दृष्टि उठाई तो ताश के सारे पत्ते उनके हाथ से छूट गए! उनके तीनों साथियों ने मुर्दा हाथों से ताश के पत्ते नीचे रख दिए!
“खेलिए-खेलिए.” मैं बोला.
“र...राशिद मियाँ, अ... आप इस वक्त यहाँ...” छिद्दू खां बड़ी कठिनाई से थूक निगलकर बोले. उनके साथी भौंचक्के होकर मुझे घूरने से लगे!
कुछ मिनट बाद उनके तीनों साथी तो उठ कर चले गए. मैं और छिद्दू खां रह गए!
“तो ये हैं आपकी नफ़िल नमाज़ें और तहज्जुद की नमाज़, जो आप रात भर, रमज़ान के पाक महीने में भी पढ़ते रहते हैं,” मैं बोला!
मेरी बात को वह सिर झुकाए चुपचाप सुना किए. फिर ग्लानि भरे स्वर में बोले- “शर्मिंदा हूँ राशिद भाई! कसम खाता हूँ आगे फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा. खुदा मुझे माफ़ करे. आप लोगों के सामने मुझे बेइज़्ज़त मत कीजिएगा.” इन शब्दों के साथ उन्होंने आदतन अपने मुँह पर तड़ातड़ तमाचे जड़ लिए!
मैं उन्हें इसी हालत में छोड़कर बाहर निकल आया!
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रचनाकार – स्वामी वाहिद काज़मी की कुछ अन्य रचनाएँ रचनाकार पर यहाँ पढ़ें :
http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_03.html http://rachanakar.blogspot.com/2005/08/blog-post_26.html
कहानी आँखें खोलने वाली है.
जवाब देंहटाएंअच्छी कहानी है। कथानक का विकास ऐसे किया गया है कि पाठक की रुचि बनी रहती है। रवि जी, इस कहानी को प्रकाशित करने के लिये धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंस्वामी वाहिद काज़मी साधुवाद के पात्र है.
जवाब देंहटाएंरवी भाई हार्दिक धन्यवाद ऐसी रचनाये नेट पर उपलब्ध कराने के लिये.
आशीष