- भारतेंदु हरिश्चंद्र आप कौन हैं ? मैं हूँ भंडाचार्य. कहाँ से आ रहे हैं? मैं अनादि कब्रिस्तान से उठा हूँ. विशेषता क्या है? क्या मतलब? तो आप ...
- भारतेंदु हरिश्चंद्र
आप कौन हैं ?
मैं हूँ भंडाचार्य.
कहाँ से आ रहे हैं?
मैं अनादि कब्रिस्तान से उठा हूँ.
विशेषता क्या है?
क्या मतलब?
तो आप वसंत हैं।
इसमें संदेह क्या? खालिस वसंत हूँ.
चैत्रनंदन या वैशाखनंदन?
ओह! आक्षेप क्यों करता है? मैं मधुकैटभ के बड़े भाई का बेटा नहीं हूँ. मैं हिन्दू नामधारी हूँ, अतः माधवनंदन हूँ.
तब आपका स्वागत है. आइए माधवनंदन जी.
प्रणाम करता हूँ.
आइए, विराजिए.
हः हः हः आप भी बैठिए.
यह व्यर्थ शिष्टाचार का समय नहीं है, अतः बैठिए. यह आसन है.
मैं इस आसन पर बैठता हूँ.
(दोनों बैठते हैं)
किसलिए निकले हैं?
कहाँ से? घर से या माता की गर्भ गठरी से?
गर्भ गठरी से ही निकले जान पड़ते हैं, पहला प्रश्न फिर पूछता हूँ कि किस लिए निकले हैं?
होली खेलने के लिए.
वाह! ऐसे कठिन समय भी आप जैसे लोग होली खेलने का समर्थन करते हैं!! यह नहीं जानते कि यह समय होली खेलने का नहीं. भारतवर्ष का धन विदेश जाने से जनता भूख प्यास से पीड़ित है. यह क्या होली खेलने का समय है?
हम जैसों के घर सदा होली है. मैं लोगों का रोना नहीं सुनता. लोग तो हमेशा रोते ही रहते हैं.
तो आप ढुंढा के वंश में उत्पन्न हुए हैं?
मैं ढुंढिराज नहीं हूँ.
नहीं जी, मैंने तो यह पूछा कि क्या आप ढुंढा के कुल में पैदा हुए हैं?
मैं जयपुरी नहीं हूँ.
कौन कहता है कि आप जयपुरी, दिल्लीपुरी, गोरखपुरी, गिरी, भारती हैं?
तब तो मैंने ढुंढा शब्द का अर्थ नहीं समझा।
ढुंढा नाम की राक्षसी का ही यह होलिका पर्व है.
ओह, फिर राक्षस वंश का कलंक लगाकर मुझ पर आरोप करता है. मैंने मधुनंदन कहा, मैं मधुवंशी नहीं हूँ, माधवनंदन हूँ.
अच्छा, किसके साथ होली खेलेंगे?
जो भी मिल जाएगा, विश्व परिवार है उदार वृत्त वालों का.
किस चीज से आप होली खेलेंगे?
सफेद धूल, लाल पाउडर, काले कीचड़, पीले अगुरू आदि चीजों से और चोवा चंदन से भी. अबीर पिचकारी और इन जैसे वाक्यों से.
आजकल भारत में वैसे कीर्तिशाली नहीं रह गए हैं, सफेद धूल कहाँ से आएगी?
आपको मालूम नहीं? चुंगी रचित शाही सड़क से.
शाही सड़क हो या देवताओं की सड़क, परंतु बराबर बहुत छिड़काव होने से वहां धूल कहाँ?
अरे नामानुरूप गुण वाले! धूल की कमी नहीं है. भारत में प्रायः सभी की आँखों में धूर्तों द्वारा झोंकी गई धूल मिलेगी.
तब लाल पाउडर कहाँ से आएगा? क्या मेडिकल हाल से?
आप नहीं जानते, लाल पाउडर का नाम अबीर है. लाह है जो पाउडर यह समास हुआ.
लाल और पाउडर क्या दो वस्तुएँ हैं?
आप भी कितने घोंघा हैं. नहीं, नहीं, दूसरे रंगों को पृथक करने वाले लाल रंग से युक्त एक विशिष्ट वस्तु का बोधक सहज गुण वाले चूर्ण का नाम पाउडर है.
हाँ, अब समझा आप वैयाकरण भी हैं और नैयायिक भी.
सच है, यह तो प्रसिद्ध ही है कि जहाँ शब्द शास्त्री वहां तर्क-शास्त्री!
अच्छा लाल पाउडर लाइएगा कहाँ से? आर्यों के सिर पर तो रह नहीं गया है.
अहा-हा! मेरे नारीभंड के लिए रक्त रज का भी अभाव है, खासकर वसंत ऋतु में.
समझा! परंतु क्या जयचंद से शुरू कर आर्य वंश के लिए अनर्थ और विग्रह की जड़ के जन्म दाताओं के मुँह से या नारियों के आँसू भरे नेत्रों से काला कीचड़ लाइएगा.
नहीं, इत्र फरोशों के बाजार से.
अगुरू कहां से लाइएगा? क्या आर्यों की मुख कान्ति से?
पंजाब से, कश्मीर से. हम लोगों की गति सभी जगह है अतः कहीं से भी लाकर खेलूंगा.
आप बेफिक्र खेलिए. अफसोस हम जैसे देश की चिन्ता से ग्रस्त लोगों की खेल में क्या रुचि.
आप व्यर्थ ही देश की चिन्ता से व्याकुल हैं, आपके चिन्ता करने से क्या होगा?
शौक से खेलिए कूदिए. वह यौवन फिर कहाँ? रोने से क्या होता है? भारत ही होली में झोंक जाएगा. यहाँ तो यमघट छल का खेल ही बच रहेगा या चिंता रह जायेगी भारत में अगणित अंग्रेजों की राजधानी की चोटी पर बैठे हुए राजनीतिज्ञों के पास.
मित्र, उत्साह तो तुम्हारा खूब है, परंतु क्या इसका कारण भी जानते हो.
नहीं, दुनिया के सभी कामों में शिष्टाचार ही प्रधान माना जाता है अतः वही कारण होगा या देख लो आजकल के विद्यार्थियों को.
अच्छा, ऐसा ही करूंगा.
**-**
भारतेंदु हरिश्चंद्र की कुछ अन्य व्यंग्य रचनाएँ यहाँ पढ़ें-http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_07.html http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_08.html
http://rachanakar.blogspot.com/2005/09/blog-post_29.html
http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_04.html
आप कौन हैं ?
मैं हूँ भंडाचार्य.
कहाँ से आ रहे हैं?
मैं अनादि कब्रिस्तान से उठा हूँ.
विशेषता क्या है?
क्या मतलब?
तो आप वसंत हैं।
इसमें संदेह क्या? खालिस वसंत हूँ.
चैत्रनंदन या वैशाखनंदन?
ओह! आक्षेप क्यों करता है? मैं मधुकैटभ के बड़े भाई का बेटा नहीं हूँ. मैं हिन्दू नामधारी हूँ, अतः माधवनंदन हूँ.
तब आपका स्वागत है. आइए माधवनंदन जी.
प्रणाम करता हूँ.
आइए, विराजिए.
हः हः हः आप भी बैठिए.
यह व्यर्थ शिष्टाचार का समय नहीं है, अतः बैठिए. यह आसन है.
मैं इस आसन पर बैठता हूँ.
(दोनों बैठते हैं)
किसलिए निकले हैं?
कहाँ से? घर से या माता की गर्भ गठरी से?
गर्भ गठरी से ही निकले जान पड़ते हैं, पहला प्रश्न फिर पूछता हूँ कि किस लिए निकले हैं?
होली खेलने के लिए.
वाह! ऐसे कठिन समय भी आप जैसे लोग होली खेलने का समर्थन करते हैं!! यह नहीं जानते कि यह समय होली खेलने का नहीं. भारतवर्ष का धन विदेश जाने से जनता भूख प्यास से पीड़ित है. यह क्या होली खेलने का समय है?
हम जैसों के घर सदा होली है. मैं लोगों का रोना नहीं सुनता. लोग तो हमेशा रोते ही रहते हैं.
तो आप ढुंढा के वंश में उत्पन्न हुए हैं?
मैं ढुंढिराज नहीं हूँ.
नहीं जी, मैंने तो यह पूछा कि क्या आप ढुंढा के कुल में पैदा हुए हैं?
मैं जयपुरी नहीं हूँ.
कौन कहता है कि आप जयपुरी, दिल्लीपुरी, गोरखपुरी, गिरी, भारती हैं?
तब तो मैंने ढुंढा शब्द का अर्थ नहीं समझा।
ढुंढा नाम की राक्षसी का ही यह होलिका पर्व है.
ओह, फिर राक्षस वंश का कलंक लगाकर मुझ पर आरोप करता है. मैंने मधुनंदन कहा, मैं मधुवंशी नहीं हूँ, माधवनंदन हूँ.
अच्छा, किसके साथ होली खेलेंगे?
जो भी मिल जाएगा, विश्व परिवार है उदार वृत्त वालों का.
किस चीज से आप होली खेलेंगे?
सफेद धूल, लाल पाउडर, काले कीचड़, पीले अगुरू आदि चीजों से और चोवा चंदन से भी. अबीर पिचकारी और इन जैसे वाक्यों से.
आजकल भारत में वैसे कीर्तिशाली नहीं रह गए हैं, सफेद धूल कहाँ से आएगी?
आपको मालूम नहीं? चुंगी रचित शाही सड़क से.
शाही सड़क हो या देवताओं की सड़क, परंतु बराबर बहुत छिड़काव होने से वहां धूल कहाँ?
अरे नामानुरूप गुण वाले! धूल की कमी नहीं है. भारत में प्रायः सभी की आँखों में धूर्तों द्वारा झोंकी गई धूल मिलेगी.
तब लाल पाउडर कहाँ से आएगा? क्या मेडिकल हाल से?
आप नहीं जानते, लाल पाउडर का नाम अबीर है. लाह है जो पाउडर यह समास हुआ.
लाल और पाउडर क्या दो वस्तुएँ हैं?
आप भी कितने घोंघा हैं. नहीं, नहीं, दूसरे रंगों को पृथक करने वाले लाल रंग से युक्त एक विशिष्ट वस्तु का बोधक सहज गुण वाले चूर्ण का नाम पाउडर है.
हाँ, अब समझा आप वैयाकरण भी हैं और नैयायिक भी.
सच है, यह तो प्रसिद्ध ही है कि जहाँ शब्द शास्त्री वहां तर्क-शास्त्री!
अच्छा लाल पाउडर लाइएगा कहाँ से? आर्यों के सिर पर तो रह नहीं गया है.
अहा-हा! मेरे नारीभंड के लिए रक्त रज का भी अभाव है, खासकर वसंत ऋतु में.
समझा! परंतु क्या जयचंद से शुरू कर आर्य वंश के लिए अनर्थ और विग्रह की जड़ के जन्म दाताओं के मुँह से या नारियों के आँसू भरे नेत्रों से काला कीचड़ लाइएगा.
नहीं, इत्र फरोशों के बाजार से.
अगुरू कहां से लाइएगा? क्या आर्यों की मुख कान्ति से?
पंजाब से, कश्मीर से. हम लोगों की गति सभी जगह है अतः कहीं से भी लाकर खेलूंगा.
आप बेफिक्र खेलिए. अफसोस हम जैसे देश की चिन्ता से ग्रस्त लोगों की खेल में क्या रुचि.
आप व्यर्थ ही देश की चिन्ता से व्याकुल हैं, आपके चिन्ता करने से क्या होगा?
शौक से खेलिए कूदिए. वह यौवन फिर कहाँ? रोने से क्या होता है? भारत ही होली में झोंक जाएगा. यहाँ तो यमघट छल का खेल ही बच रहेगा या चिंता रह जायेगी भारत में अगणित अंग्रेजों की राजधानी की चोटी पर बैठे हुए राजनीतिज्ञों के पास.
मित्र, उत्साह तो तुम्हारा खूब है, परंतु क्या इसका कारण भी जानते हो.
नहीं, दुनिया के सभी कामों में शिष्टाचार ही प्रधान माना जाता है अतः वही कारण होगा या देख लो आजकल के विद्यार्थियों को.
अच्छा, ऐसा ही करूंगा.
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भारतेंदु हरिश्चंद्र की कुछ अन्य व्यंग्य रचनाएँ यहाँ पढ़ें-http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_07.html http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_08.html
http://rachanakar.blogspot.com/2005/09/blog-post_29.html
http://rachanakar.blogspot.com/2005/10/blog-post_04.html
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