-स्वामी वाहिद काज़मी आगामी शतियों में यदि कोई शती ऐसे धरती-पुत्रों का इतिहास लिखने बैठी जो जमीन पर उत्पन्न होकर भी, पहाड़ सी ऊँचाइयों जैसा स...
-स्वामी वाहिद काज़मी
आगामी शतियों में यदि कोई शती ऐसे धरती-पुत्रों का इतिहास लिखने बैठी जो जमीन पर उत्पन्न होकर भी, पहाड़ सी ऊँचाइयों जैसा साहस तथा जीवट और ऐसी ही अडिग पराक्रम रखते थे, तो कश्मीर के रसूल गलबान का मान उस इतिहास में सबसे पहले, सबसे ऊपर और बड़े गर्व से दर्ज किया जाएगा. ‘गलबान’ शब्द गल्लाबानी (पशुपालन) से बना प्रतीत होता है. पहले यह ‘गल्लाबान’ रहा होगा. कालांतर में ‘गलबान’ हो गया! बहरहाल, इससे इतना तो अवश्य साबित होता है कि रसूल मियाँ के पुरखों का व्यवसाय पशुपालन था.
रसूल गलबान के नाम-काम से आज कम ही लोग परिचित होंगे. पेशेवर पर्वतारोही और पर्वतारोहण का शौक़ रखने वाले दल पहाड़ों पर चढ़ने वाले दलों का असबाब उठाने के साथ-साथ उनका पथ प्रदर्शन करना उसकी जीविका का एकमात्र साधन था. बचपन से वह इसी में लगा था. उन दिनों पर्वतारोहण का शौक़ विदेशियों को अधिक था. खासकर अंग्रेजों को! रसूल गलबान कहीं भी पढ़ा-लिखा नहीं था. मगर अंग्रेज़ों के साथ रहते-रहते इतनी बढ़िया अंग्रेजी सीख गया था कि आगे चलकर उसने अंग्रेजी में ही अपनी आत्मकथा भी लिखी. ऐसी अच्छी भाषा व हृदयग्राही शैली में कि सुशिक्षित अंग्रेज उसेक अंग्रेजी-ज्ञान पर दांतों तले उँगली दबाकर रह गए! अंग्रेजी में अपनी जीवन-गाथा लिखने वाला वह प्रथम कश्मीरी है.
‘इनसे है मुझको प्यार क्यूं, ये न बता सकूंगा मैं’ किसी गीत की यह पंक्ति रसूल गलबान के व्यक्तित्व पर अक्षरशः चरितार्थ होती है. भारत का वह सबसे साहसी, सबसे विलक्षण, सबसे संकल्पवान पर्वतारोही, पहाड़ों में पैदा होने, पत्थरों-चट्टानों से खेलने, बर्फ़ीले तूफ़ानों-आंधियों के सामने सीना तानकर चलने से प्रेम के कारण कितने ही अगम्य-दुर्गम स्थानों पर पहुँचा. जोखिम भरी ऐसी अनेक यात्राओं पर गया और हर यात्रा पर सफलता ने अदब से झुककर उसके क़दम चूमें, जिन यात्राओं के नाम से पर्वतारोहियों के कलेजे कांपते थे.
काराकोरम का अभियान पर्वतारोहियों के लिए उन दिनों मानों लोहे के चने चबाने जैसा मामला था. किंतु वही लोहे के चेने रसूल मियाँ ने ऐसे स्वाद से खाए जैसे कुरकुरे शामी कबाब का चटख़ारा लिया जा रहा हो! काराकोरम का वह विश्व-प्रसिद्ध अभियान उसी के मार्गदर्शन और निर्देशों के कारण ही सफल हो सका जिसके बड़े अच्छे और दूरगामी परिणाम सामने आए. उसी अभियान के नतीजे में बनी सड़कें भारत को बाहर के अन्य भू-भागों से जोड़ने का सर्वप्रमुख साधन हैं.
भारत आए एक अंग्रेज लॉर्ड के साथ जो प्रशिक्षित और चयनित पर्वतारोहियों का एक दल ‘विश्व की सबसे ऊँची धत’ अर्थात् पामीर पर पहुँचा था. वह अपने उद्देश्य में इतनी सरलता से कामयाब नहीं हो पाता, यदि रसूल गलबान उस दल का नेतानुमा रहबर न बना होता. दूसरे शब्दों में, उसी ने उस दल का हाथ थामकर पामीर पर चढ़ाया था.
ब्रिटिश शासन के जमाने में कुछ अंग्रेज यहाँ ऐसे भी पहुँचे थे जो प्रतिभा के परिस्तार और गुण-ग्राहक भी थे. रसूल गलबान के व्यक्तित्व से वे इतने अधिक प्रभावित रहे कि अनेक अँग्रेज़ लेखकों ने अपने लेखों के अलावा संस्मरणों, निजी डायरियों, रिपोर्टों व अन्य तहरीरों में उसकी सराहना भी की है और आभार भी माना है.
सन् 1868 ई. में पैदा रसूल गलबान को पर्वतारोहण और नित-नए दुर्गम पर्वतीय रास्तों को तलाशने और उन्हें अपने पैरों से नापते रहने से इश्क की हद तक दीवानावार प्रेम था. इसके आगे उसे संसार भर में सब कुछ तुच्छ था. इसी दीवानगी के कारण उसने न तो विवाह किया और न स्थायी ठिकाना बनाकर गृहस्थों जैसा जीवन गुजारना पसंद किया. उसके सगे संबंधियों को उसका यह मिज़ाज समझ में नहीं आता था अथवा पागलपन जैसा प्रतीत होता था. परिजन चाहते थे कि वह घर बसाकर आराम से जीवन-सुख भोगे! किन्तु उन्हें क्या पता कि रसूल गलबान का निर्माण किसी और ही मिट्टी से और किसी और ही उद्देश्य के लिए कुदरत ने किया है.
एक बार उसके एक दौलतमंद रिश्तेदार ने बहुत सहृदयतापूर्वक समझाते हुए आत्मीयपूर्ण प्रस्ताव किया था- ‘भाई, जितनी माल-दौलत चाहो ले लो. किसी भी पसंदीदा लड़की से शादी कर लो. घर बसाकर इत्मीनान से आराम की जिंदगी गुजारो. आज यहाँ, कल वहाँ, पहाड़ों में सख्तियाँ झेलते क्यों भटकते रहते हो.
रसूल गलबान क्या कहता! इस निश्छल हमदर्दी और आत्मीयता के जवाब में बड़े अदब से इतना ही बोला- ‘जनाब! आपकी यह हमदर्दी और ऐसा नेक ख़याल अपनी जगह ठीक है. मगर जो सुख मुझे पहाड़ों पर चढ़ने और जैसा सुकून घाटियों में भटकते फिरने में आता है वह किसी और से कहीं भी नहीं मिल सकता.’
अनजानी वादियाँ मानों उसके लिए कल्पना-सुंदरी जैसी किसी प्रेयसी की उलझी हुई जुल्फ़ें थीं जिनसे खेलना उसका प्रिय व्यसन था. पहाड़ों की हर चोटी मानों उसे प्यार से पुकारती थीं और वह रुक नहीं पाता था. उम्र भर उसने यही किया. अनेक दुर्गम स्थानों की घुमक्कड़ी की. ऐसे-ऐसे स्थलों के भीतर तक पहुँचा कि दूसरा कोई शायद ही पहुँच पाया हो. एक अज्ञात घाटी जो उसी ने तलाश की थी आज भी ‘गलबान घाटी’ के नाम से मशहूर है.
अँग्रेज़ उसके पराक्रम, उसके कारनामों से उसके जीवट युक्त व्यक्तित्व से प्रभावित थे ही. अंग्रेज़ी में लिखी उसकी आत्मकथा उन्हें बेहद प्रिय और प्रेरणास्पद भी थी. सन् 1923 ई. में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, लंदन से उसकी आत्मकथा बड़ी सान से प्रकाशित हुई.
उम्रभर पहाड़ों पर आशिक रहने वाला वह साहस और जीवट का अद्भुत पुतला, जिसका नाम रसूल गलबान था, सन् 1925 में एक दिन पहाड़ों से लिपटकर चिरविश्रामलीन हो गया. लेह के कब्रिस्तान में उसे सम्मानपूर्वक दफ़न किया गया. आज भी उसकी कब्र वहाँ विद्यमान बताई जाती है. अंग्रेज़ों ने ही उसकी कब्र छोटी-सी किंतु बड़ी सुंदर तैयार कराई और उसके कतबे पर प्रशंसायुक्त शब्दों में उसका परिचय उत्कीर्ण कराके स्थायित्व बख़्शा.
कोई पर्यटक, कोई पर्वतारोही लद्दाख़ स्थित उसकी कब्र पर दो फूल चढ़ाने भले न जाए, पर उसकी कब्र के कतबे पर उत्कीर्ण विवरण के एक-एक अक्षर को सूर्य-रश्मियाँ मुहब्बत से चूमती रहती होंगी. हवाएँ अपनी खामोशी में भी उसका नाम उसकी दास्तान दोहराती अघाती नहीं होंगी. फ़िज़ाएँ सरगोशी करती होंगी- प्यारे रसूल गलबान, तुम्हें हमारा सलाम.
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चर्चित, जुनूनी लेखक - स्वामी वाहिद काज़मी की कई कहानियाँ, वैचारिक लेख, व्यंग्य एवं अन्य रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
आगामी शतियों में यदि कोई शती ऐसे धरती-पुत्रों का इतिहास लिखने बैठी जो जमीन पर उत्पन्न होकर भी, पहाड़ सी ऊँचाइयों जैसा साहस तथा जीवट और ऐसी ही अडिग पराक्रम रखते थे, तो कश्मीर के रसूल गलबान का मान उस इतिहास में सबसे पहले, सबसे ऊपर और बड़े गर्व से दर्ज किया जाएगा. ‘गलबान’ शब्द गल्लाबानी (पशुपालन) से बना प्रतीत होता है. पहले यह ‘गल्लाबान’ रहा होगा. कालांतर में ‘गलबान’ हो गया! बहरहाल, इससे इतना तो अवश्य साबित होता है कि रसूल मियाँ के पुरखों का व्यवसाय पशुपालन था.
रसूल गलबान के नाम-काम से आज कम ही लोग परिचित होंगे. पेशेवर पर्वतारोही और पर्वतारोहण का शौक़ रखने वाले दल पहाड़ों पर चढ़ने वाले दलों का असबाब उठाने के साथ-साथ उनका पथ प्रदर्शन करना उसकी जीविका का एकमात्र साधन था. बचपन से वह इसी में लगा था. उन दिनों पर्वतारोहण का शौक़ विदेशियों को अधिक था. खासकर अंग्रेजों को! रसूल गलबान कहीं भी पढ़ा-लिखा नहीं था. मगर अंग्रेज़ों के साथ रहते-रहते इतनी बढ़िया अंग्रेजी सीख गया था कि आगे चलकर उसने अंग्रेजी में ही अपनी आत्मकथा भी लिखी. ऐसी अच्छी भाषा व हृदयग्राही शैली में कि सुशिक्षित अंग्रेज उसेक अंग्रेजी-ज्ञान पर दांतों तले उँगली दबाकर रह गए! अंग्रेजी में अपनी जीवन-गाथा लिखने वाला वह प्रथम कश्मीरी है.
‘इनसे है मुझको प्यार क्यूं, ये न बता सकूंगा मैं’ किसी गीत की यह पंक्ति रसूल गलबान के व्यक्तित्व पर अक्षरशः चरितार्थ होती है. भारत का वह सबसे साहसी, सबसे विलक्षण, सबसे संकल्पवान पर्वतारोही, पहाड़ों में पैदा होने, पत्थरों-चट्टानों से खेलने, बर्फ़ीले तूफ़ानों-आंधियों के सामने सीना तानकर चलने से प्रेम के कारण कितने ही अगम्य-दुर्गम स्थानों पर पहुँचा. जोखिम भरी ऐसी अनेक यात्राओं पर गया और हर यात्रा पर सफलता ने अदब से झुककर उसके क़दम चूमें, जिन यात्राओं के नाम से पर्वतारोहियों के कलेजे कांपते थे.
काराकोरम का अभियान पर्वतारोहियों के लिए उन दिनों मानों लोहे के चने चबाने जैसा मामला था. किंतु वही लोहे के चेने रसूल मियाँ ने ऐसे स्वाद से खाए जैसे कुरकुरे शामी कबाब का चटख़ारा लिया जा रहा हो! काराकोरम का वह विश्व-प्रसिद्ध अभियान उसी के मार्गदर्शन और निर्देशों के कारण ही सफल हो सका जिसके बड़े अच्छे और दूरगामी परिणाम सामने आए. उसी अभियान के नतीजे में बनी सड़कें भारत को बाहर के अन्य भू-भागों से जोड़ने का सर्वप्रमुख साधन हैं.
भारत आए एक अंग्रेज लॉर्ड के साथ जो प्रशिक्षित और चयनित पर्वतारोहियों का एक दल ‘विश्व की सबसे ऊँची धत’ अर्थात् पामीर पर पहुँचा था. वह अपने उद्देश्य में इतनी सरलता से कामयाब नहीं हो पाता, यदि रसूल गलबान उस दल का नेतानुमा रहबर न बना होता. दूसरे शब्दों में, उसी ने उस दल का हाथ थामकर पामीर पर चढ़ाया था.
ब्रिटिश शासन के जमाने में कुछ अंग्रेज यहाँ ऐसे भी पहुँचे थे जो प्रतिभा के परिस्तार और गुण-ग्राहक भी थे. रसूल गलबान के व्यक्तित्व से वे इतने अधिक प्रभावित रहे कि अनेक अँग्रेज़ लेखकों ने अपने लेखों के अलावा संस्मरणों, निजी डायरियों, रिपोर्टों व अन्य तहरीरों में उसकी सराहना भी की है और आभार भी माना है.
सन् 1868 ई. में पैदा रसूल गलबान को पर्वतारोहण और नित-नए दुर्गम पर्वतीय रास्तों को तलाशने और उन्हें अपने पैरों से नापते रहने से इश्क की हद तक दीवानावार प्रेम था. इसके आगे उसे संसार भर में सब कुछ तुच्छ था. इसी दीवानगी के कारण उसने न तो विवाह किया और न स्थायी ठिकाना बनाकर गृहस्थों जैसा जीवन गुजारना पसंद किया. उसके सगे संबंधियों को उसका यह मिज़ाज समझ में नहीं आता था अथवा पागलपन जैसा प्रतीत होता था. परिजन चाहते थे कि वह घर बसाकर आराम से जीवन-सुख भोगे! किन्तु उन्हें क्या पता कि रसूल गलबान का निर्माण किसी और ही मिट्टी से और किसी और ही उद्देश्य के लिए कुदरत ने किया है.
एक बार उसके एक दौलतमंद रिश्तेदार ने बहुत सहृदयतापूर्वक समझाते हुए आत्मीयपूर्ण प्रस्ताव किया था- ‘भाई, जितनी माल-दौलत चाहो ले लो. किसी भी पसंदीदा लड़की से शादी कर लो. घर बसाकर इत्मीनान से आराम की जिंदगी गुजारो. आज यहाँ, कल वहाँ, पहाड़ों में सख्तियाँ झेलते क्यों भटकते रहते हो.
रसूल गलबान क्या कहता! इस निश्छल हमदर्दी और आत्मीयता के जवाब में बड़े अदब से इतना ही बोला- ‘जनाब! आपकी यह हमदर्दी और ऐसा नेक ख़याल अपनी जगह ठीक है. मगर जो सुख मुझे पहाड़ों पर चढ़ने और जैसा सुकून घाटियों में भटकते फिरने में आता है वह किसी और से कहीं भी नहीं मिल सकता.’
अनजानी वादियाँ मानों उसके लिए कल्पना-सुंदरी जैसी किसी प्रेयसी की उलझी हुई जुल्फ़ें थीं जिनसे खेलना उसका प्रिय व्यसन था. पहाड़ों की हर चोटी मानों उसे प्यार से पुकारती थीं और वह रुक नहीं पाता था. उम्र भर उसने यही किया. अनेक दुर्गम स्थानों की घुमक्कड़ी की. ऐसे-ऐसे स्थलों के भीतर तक पहुँचा कि दूसरा कोई शायद ही पहुँच पाया हो. एक अज्ञात घाटी जो उसी ने तलाश की थी आज भी ‘गलबान घाटी’ के नाम से मशहूर है.
अँग्रेज़ उसके पराक्रम, उसके कारनामों से उसके जीवट युक्त व्यक्तित्व से प्रभावित थे ही. अंग्रेज़ी में लिखी उसकी आत्मकथा उन्हें बेहद प्रिय और प्रेरणास्पद भी थी. सन् 1923 ई. में कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस, लंदन से उसकी आत्मकथा बड़ी सान से प्रकाशित हुई.
उम्रभर पहाड़ों पर आशिक रहने वाला वह साहस और जीवट का अद्भुत पुतला, जिसका नाम रसूल गलबान था, सन् 1925 में एक दिन पहाड़ों से लिपटकर चिरविश्रामलीन हो गया. लेह के कब्रिस्तान में उसे सम्मानपूर्वक दफ़न किया गया. आज भी उसकी कब्र वहाँ विद्यमान बताई जाती है. अंग्रेज़ों ने ही उसकी कब्र छोटी-सी किंतु बड़ी सुंदर तैयार कराई और उसके कतबे पर प्रशंसायुक्त शब्दों में उसका परिचय उत्कीर्ण कराके स्थायित्व बख़्शा.
कोई पर्यटक, कोई पर्वतारोही लद्दाख़ स्थित उसकी कब्र पर दो फूल चढ़ाने भले न जाए, पर उसकी कब्र के कतबे पर उत्कीर्ण विवरण के एक-एक अक्षर को सूर्य-रश्मियाँ मुहब्बत से चूमती रहती होंगी. हवाएँ अपनी खामोशी में भी उसका नाम उसकी दास्तान दोहराती अघाती नहीं होंगी. फ़िज़ाएँ सरगोशी करती होंगी- प्यारे रसूल गलबान, तुम्हें हमारा सलाम.
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चर्चित, जुनूनी लेखक - स्वामी वाहिद काज़मी की कई कहानियाँ, वैचारिक लेख, व्यंग्य एवं अन्य रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
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