**-** आत्म-कथ्य : हृदयेश ने हड्डियाँ निकलवा दी हैं, चोट नहीं लगती. **-** -हृदयेश हृदयेश ग्यारह बजे के आसपास बाहर आ गए थे, सड़क पर, डाक की प्...
**-**
आत्म-कथ्य : हृदयेश ने हड्डियाँ निकलवा दी हैं, चोट नहीं लगती.
**-**
-हृदयेश
हृदयेश ग्यारह बजे के आसपास बाहर आ गए थे, सड़क पर, डाक की प्रतीक्षा में. ऐसा वह रोज करते थे. इस आदत की लत से आदत लत की होती है- वह कभी-कभी अवकाश के दिन भी सड़क पर आ जाते थे. किन्तु फिर ध्यान आ जाने पर कि अरे, आज तो डाक बंटना नहीं है, वह अपनी बेवकूफ़ी पर हंसते, लज्जाते, अकसर झुंझलाते भी हुए हट आते थे. डाक उनको बहुत-कुछ साहित्य की अपनी दुनिया के करीब लाती थी, उससे उन्हें जोड़ती थी. पिछले तीन दिन से कोई डाक आई नहीं थी. प्रतीक्षा इसलिए भूखी थी.
पोस्टमैन आ गया था. उनकी डाक भी थी उनके पास.
वह डाक लेकर अन्दर आ गए.
डाक में एक पत्रिका थी, मोड़े मुखड़े और दुर्बल काया वाली. उन्होंने उसे एक ओर डाल
दिया. एक कार्ड था. किसी अपरिचित पत्रिका के संपादक ने रचनात्मक सहयोग के रूप में
कहानी की मांग की थी. पत्र इसी आशय का किसी नामचीन पत्रिका से भी आया होता तब भी वह
उससे नहीं जुड़ते. जो उन्होंने तय कर रखा था कि अब उनको उपन्यास ही लिखना है, उस पर
वह अडिग थे. कहानी या अन्य कुछ लिखने का मतलब होगा कि उपन्यास के प्रति अपनी चाहत
या प्यास को कम कर देना. कुछ छोटा थाम लेना बड़े लक्ष्य की प्राप्ति से विचलित हो
जाना क्या नहीं है? साहित्य और कला में पैशन यानी जुनून ही कुछ अति महत्वपूर्ण करा
लेता है.
एक लिफ़ाफ़ा था. उसमें रायल्टी का स्टेटमेण्ट था. साथ ही यह सूचना कि विगत वित्तीय वर्ष में विक्रित पाँच पुस्तकों की देय रायल्टी राशि 35 रुपये धनादेश द्वारा भेजी जा रही है. सात-आठ वर्ष पूर्व इस प्रकाशक ने उनका एक कहानी-संग्रह साया किया था. दो-तीन वर्षों से प्रकाशक बस एक दिन की साग-सब्जी लायक रायल्टी एक बार आ जाती थी. दहाई के अंकों में सिकुड़ जाने वाले रुपयों को राशि बताना ‘राशि’ की सरासर फजीहत करना है.
एक पत्र और भी था, अंतर्देशीय. बाहर प्रेषक का नाम नहीं था. अन्दर जो नाम था उसने
एकदम उत्कंठा जगा दी. जगा नहीं दी, भड़का दी. एक मुद्दत से वह चेतन वसिष्ठ नामक इस
व्यक्ति के पत्र की बाट जोह रहे थे. पूरा पत्र पढ़ डाला. पत्र में जो अनुकूल सूचना
होनी चाहिए थी, जिसकी उनको विश्वासगर्भित आशा थी, वह न होकर प्रतिकूल सूचना थी.
सूचना प्रतिकूल थी, इसीलिए उसे कारणों के बेलन से फैलाया गया था. फैलाना प्रतिकूलता
को नरम करना होता है.
सात-आठ माह पहले तीसरे पहर घंटी की आवाज से खिंचे हुए जब वह दरवाजे पर पँहुचे थे, तीस-पैंतीस वर्ष के एक व्यक्ति को उन्होंने मुस्कुराहट की रेशमी चमक के साथ उपस्थित पाया था. उस व्यक्ति के गोल साँवले चेहरे पर ठुड्डी तक सीमित दाढ़ी थी, व्यक्तित्व को पैनापन देती हुई. वह जींस के साथ रंगीन खादी का अधबांहा कुर्ता पहने था. कंधे पर शनील का झोला था. उसने यह पुष्टि कर कि वह इच्छित जन के ही सामने है उनको दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया था. वह चेतन वसिष्ठ नामक इस युवक को अन्दर ले आए थे.
चेतन वसिष्ठ दिल्ली का रहने वाला था. यों वह यू.टी.आई में सेवारत था, किन्तु उसे साहित्य में अच्छी खासी रुचि थी. उसने पत्रकारिता में डिप्लोमा कोर्स भी कर रखा था. उसका एक मित्र यहाँ जनरल इंश्योरेंस में ब्रांच मैनेजर था. मित्र एक सड़क दुर्घटना में घायल हो गया था. उसकी पत्नी भी थी. वह उन दोनों को देखने आया था. हाथ और पसलियों में जो फ्रैक्चर हुआ था, वह गंभीर किस्म का नहीं था. पंकज को जब पता चला कि वह शाहजहाँपुर जा रहा है तो बोले कि वह हृदयेश जी से जरूर मिलकर आए. अवसर का भी सदुपयोग होता है और वह सदुपयोग इस अवसर का भी होना चाहिए. वह हृदयेश जी का साक्षात्कार लेकर आए.
वसिष्ठ से लगभग दो माह पूर्व एक अन्य व्यक्ति उनका साक्षात्कार लेने विराजा था. वह अन्य व्यक्ति हलद्वानी का था और यहाँ अपने एक निकट संबंधी की बेटी की शादी में शिरकत करने आया था. हलद्वानी से निकल रही साहित्यिक पत्रिका ‘आधारशिला’ के लिए उसके उनका साक्षात्कार चाहिए था. वह व्यक्ति पी.टी. अध्यापक था और गीत, ग़ज़ल लिखता था. पत्रिका के संपादक भट्ट जी के साथ उसका उठना बैठना था. भट्ट जी ने उससे साक्षात्कार लेने के वास्ते कहा था.
उन्होंने उस व्यक्ति से जानना चाहा कि उसने उनकी कौन-कौन सी पुस्तक पढ़ी है. जब
उसने उनकी एक भी पुस्तक न पढ़ने की बात स्वीकार की और कहा कि कुछ समय पहले उसने
भट्ट जी के यहाँ ‘कथादेश’ में कहानी के साथ उनका फोटो देखा था और यह कि उस कहानी की
बहुत प्रशंसा सुनकर उसने बाद में उसे पढ़ना चाहा था, पर पत्रिका किसी और के पास चली
जाने पर वह उसको मिल नहीं पायी थी, उन्होंने साक्षात्कार देने से क्षमा मांग ली थी,
‘आप मेरी रचना धर्मिता से अवगत होते तो मुझे भी उस पर बात करना अच्छा लगता.
निरर्थकता कोशिश करने पर भी सार्थकता बन नहीं पाती है. औपचारिकता से मुझे गुरेज़
है.’
नारायण बाबू ने पता लगने पर उनकी इस इन्कारी को सही नहीं ठहराया था. हाथ आया अवसर गंवा दिया.
‘यार, उसने मेरा लिखा एक भी शब्द नहीं पढ़ा था. एकदम खाली डिब्बा था.’ ‘मानता हूँ कि अपने को पूरा खाली डिब्बा न साबित करने के लिए वह चालू किस्म के ही सवाल करता कि आपने लिखना कब प्रारम्भ किया, लिखने की प्रेरणा आपको कहाँ से प्राप्त हुई, परिवार में वैसा वातावरण था या नहीं, नए लिखने वालों के लिए आपका क्या संदेश है? ये और इन जैसे दो-चार और सवाल. लेकिन इनके आप जो भी उत्तर देते, उन उत्तरों के बहाने आपका प्रचार तो होता ही. प्रचार की सार्थकता, भाई साहब, न जाने आप क्यों बिसार देते हैं?’
नारायण बाबू ने यह कहने के तुरन्त बाद पूछा था, ‘आपने उन महानुभाव को खाली डिब्बा पाकर सूखा ही टरका दिया था या चाय, नाश्ता से तरमातर कर विदा किया?’
‘सो आपकी भाभी जी ने मेरे बिना कहे ही सत्कार में मिठाई, नमकीन और चाय रख गयी थीं.’
‘लीजिए, खर्चा भी हुआ और उसका लाभ भी नहीं लिया. ज्यादा सिद्धांतवादिता, भाई साहब, ठीक नहीं है वैसे ही जैसे ज्यादा भोजन स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है. आपको थोड़ा व्यवहारिक भी होना चाहिए.’ व्यवहारिक होने को जानदार बनाने के लिए उन्होंने ‘बी प्रेक्टिकल’ का टुकड़ा भी जड़ दिया था.
वह, यानी हृदयेश, चेतन वसिष्ठ को साक्षात्कार देने के लिए तैयार हो गए थे. एक तो इसलिए की चेतन ने उनकी सब तो नहीं, फिर भी कई पुस्तकें पढ़ रखी थीं, पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित दो-तीन ताजा कहानियाँ भी. दूसरे इसलिए भी कि नारायण बाबू की व्यवहारिकता वाली पिलायी गयी घुट्टी का असर अभी पूरी तरह उतरा नहीं था.
चेतन अपने साथ जेबी टेपरिकार्डर लाया था. उसने लगभग डेढ़ घंटे तक साक्षात्कार लिया था. उसके प्रश्न उनकी साहित्यिक यात्रा, ‘साहित्य के लामबंद संगठनों की जरूरतों तथा समय-समय पर किए जाने वाले विभिन्न आन्दोलनों की सकारात्मकता और नकारात्मकता के साथ-साथ आज के सांस्कृतिक और राजनीतिक माहौल, माफिया के वर्चस्व और बढ़ते बाजारवाद जैसे अनेक ज्वलंत बिन्दुओं पर उनके विचारों, उनकी सोच को लेकर भी थे.
टेपरिकार्डर का स्विच ऑफ करने के बाद बोला था, ‘पूछने को तो दिमाग में अभी कई और भी प्रश्न हैं, मगर आपको अब अधिक कष्ट दूंगा नहीं. जो पा लिया वह भी काफी महत्वपूर्ण है. इसके आलोक में आपके कृतित्व और व्यक्तित्व का मूल्यांकन सहजता से किया जा सकता है.’ यह भी कहा था कि पूरा साक्षात्कार तो किसी पत्रिका में ही दिया जाएगा, कुछ चुने हुए अंश वह किसी राष्ट्रीय दैनिक पत्र के रविवारीय अंक में भी देगा. ऐसा सब बताते हुए उसके चेहरे पर आश्वस्ति का भाव था.
वह अपने साथ कैमरा भी लाया था, जिससे उसने तीन-चार विभिन्न कोणों से फोटो भी खींचे थे.
हल्द्वानी वाले व्यक्ति ने साक्षात्कार की बात चलाते हुए कहा था कि उनके पास अपने फोटोग्राफ के कुछ फालतू प्रिन्ट्स होंगे. फोटो नया हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा नहीं तो पुराने से भी काम चल जाएगा.
उन्होंने सब कुछ निपट जाने का बाद चेतन से इच्छा प्रकट की थी कि साक्षात्कार की पाण्डुलिपि कहीं प्रकाशन से पूर्व वह एक बार देखना चाहेंगे. टेपरिकार्डर के सामने उत्तर देते हुए कई स्थानों पर उन्हें लगता है कि उनका वाक्य विन्यास या तो गड़बड़ा गया है या वाक्य खंडित हो गए हैं. दो-एक प्रश्नों के उत्तर जिस तरह खुलना चाहिए था, वे भी उस तरह खुले नहीं हैं. स्पष्टता के लिए वह कुछ और जोड़ सकते हैं.
चेतन ने एक पखवाड़े के अन्दर लिपिबद्ध साक्षात्कार अवलोकनार्थ भेज दिया था. उसने
बाद में पढ़े गए उनके एक उपन्यास पर भी एक प्रश्न सम्मिलित किया था जिसका उत्तर भी
उन्होंने लिख दिया था. लिपिबद्ध रूप में साक्षात्कार दस पृष्ठों का हो गया था. इस
साक्षात्कार को उन्होंने अगले ही दिन अनुमोदित कर लौटा दिया था. उधर से यथाशीघ्र
लौटा देने का निवेदन था भी.
इसके बाद चेतन की ओर से एक लम्बी खामोशी रही थी. उन्होंने जो दो पत्र माह, डेढ़ माह के अन्तराल से डाले थे, वे भी इस खामोशी के शिकार हो गए थे.
अब चेतन का जो पत्र आया था उसमें साक्षात्कार प्रकाशित होने की सूचना के बजाय साक्षात्कार प्रकाशित न होने के पीछे की स्थितियों और कारणों से उनको अवगत कराया गया था. साक्षात्कार चेतन ने ‘जनसत्ता’ को तुरन्त दे दिया था. उसके बाद वह छह सप्ताह के लिए मुम्बई ट्रेनिंग के वास्ते चला गया था. मुम्बई से वह पंकज जी व ‘जनसत्ता’ के साहित्य संपादक से सम्पर्क बनाए रहा. मुम्बई से वापस आने पर साहित्य संपादक ने अपनी विवशता जाहिर कर दी कि साहित्यकारों के साक्षात्कारों को विराम दिया जा चुका है. अब दूसरे कला-अनुशासनों की चुनी हुई हस्तियों को पाठकों के सामने लाने की योजना है. चेतन ने तब साक्षात्कार ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ को दे दिया था. काफी समय तक वहां आश्वासन दिया जाता रहा कि वह शीघ्र ही प्रकाश में आएगा. उसके बाद बताया गया कि वह कहीं खो गया है. इस खो जाने की बात से चिढ़कर उसने साक्षात्कार में से कुछ अंश पुनः चुनकर ‘नवभारत टाइम्स’ को दे दिए थे. उस पत्र में साहित्य की डेस्क वाले व्यक्ति ने कुछ दिनों बाद यह सलाह दी कि हृदयेश हिन्दी कथा-साहित्य का एक सुपरिचित नाम है. उनके तथा पाठकों के साथ न्याय तभी होगा जब उनका पूरा साक्षात्कार प्रकाशित हो. पूरा साक्षात्कार किसी पत्रिका में ही स्थान पा सकता है. पंद्रह-बीस पंक्तियों का अंश निकालना निरी औपचारिकता ही होगी.
चेतन ने साक्षात्कार लेते समय दिल्ली से प्रकाशित होने वाले इन तीनों राष्ट्रीय दैनिक पत्रों के केवल नाम ही नहीं लिए थे, वहाँ कार्यरत पंकज जी, सलिल जी, मानव जी, नागर जी कई पत्रकारों से अपने घनिष्ठ संबंध होने की बात भी कही थी.
चेतन ने इस पत्र में फिर जिस अनियतकालीन पत्रिका में वह पूरा साक्षात्कार
प्रकाशनार्थ पड़ा हुआ है, उसका तज्किरा किया था. साथ में अनुरोध भी कि वह इस
पत्रिका को अपनी एक ताज़ा कहानी अवश्य भेज दें. पत्रिका के संपादक को यह शिकायत है
कि कई बार मांगने पर भी हृदयेश जी ने अपनी कोई कहानी अभी तक उनको नहीं दी है. उस
अनुरोध के साथ इस अनुरोध का भी पुछल्ला जोड़ा गया था, जो अनुरोध से अधिक सलाह थी,
कि कहानी भेजते हुए वह सम्पादक जी को यह लिख दें ज्यादा सही स्थिति यह होगी कि
साक्षात्कार और कहानी पत्रिका में एक साथ स्थान पाएँ.
उन्होंने पत्र को गुड़ी-मुड़ी किया. संपादक ने साक्षात्कार छापने के लिए कहानी दी जाने की शर्त लगाई है. बल्कि माना जाए कि साक्षात्कार वाला काम तभी होगा जब कहानी की घूस दी जाएगी. उनको इस तरह घुटने टेकना कभी स्वीकार नहीं है. उन्होंने फिर गुड़ीमुड़ी किया वह पत्र फाड़ डाला.
सन् 1998 में भगवान सिंह शाहजहाँपुर आए थे. वह सुप्रसिद्ध इतिहासकार के साथ-साथ उपन्यासकार और आलोचक भी हैं. उनके छोटे भाई इस शहर में नहर विभाग में अधिशासी अभियन्ता थे, जिनके पास कैन्टुनमेंट क्षेत्र में अंग्रेजों के जमाने का बना हुआ कई एकड़ में विस्तृत सरकारी बँगला था, ऐसा बँगला जिसमें आम, जामुन, बेल जैसे फलों के पचासों दरख्त थे और साग-सब्जी व अनाज उगाने के लिए पर्याप्त खाली जमीन भी. ऐसे बंगलों में फूल और फूल की बिरादरी में आदर पाने वाले रंग-बिरंगे पौधों के लिए जैसी सुव्यवस्था रहती है, वह वहाँ थी ही. भगवान सिंह को दिल्ली के मुकाबले में, जहाँ वह रहते थे, यह जगह अपने सर्जनात्मक लेखन के लिए आदर्श लगी थी- शोर शराबे, धुआँ-धूल, जुलूस-धरना जैसे कुछ नहीं. दिल्ली में वह अपने नए उपन्यास ‘उन्माद’ को आधा-पौना लिख चुके थे. शेष भाग को लिखने के लिए वह शाहजहाँपुर में ही रुक गए.
भगवान सिंह की भिजवायी सूचना पाकर कि वह अब उनके ही शहर में हैं, हृदयेश मिलने गए
थे. फिर यह जाना सात-आठ दिन के अंतराल से होने लगा था. अंतराल लंबा खिंच जाने पर
भगवान सिंह का फोन आ जाता था कि स्वास्थ्य तो ठीक है? अधिक व्यस्तता है क्या? बँगला
दूर था, श्रद्धा पगी आत्मीयता रखने वाला मित्र चन्द्रमोहन दिनेश वाहन की व्यवस्था
कर देता था और वह पहुँच जाते थे.
भगवान सिंह से उनका परिचय सन् 1993 में हुआ था, शाहजहाँपुर में ही. उनको ‘पहल सम्मान’ देने वाले आयोजन में वह भी सम्मिलित हुए थे और दिल्ली वापस होने से पहले सात-आठ घंटे उनके निवास स्थान पर ही ठहरे थे. वह भगवान सिंह की बेबाकी, स्पष्टवादिता और अपने लेखकीय दायित्व के प्रति उनकी ईमानदारी से प्रभावित थे. वह सम्मान देने वाले सत्र में अध्यक्ष मंडल के एक सदस्य के रूप में मंच पर बैठे थे, किन्तु अन्य सदस्यों की भांति उन्होंने कोई वक्तव्य नहीं दिया था. बाद में सफाई देते हुए बताया था कि वह उनके तब तक प्रकाशित उपन्यासों से प्रभावित नहीं हैं और वह उस औपचारिक प्रशंसा, जो मंच से ऐसे अवसरों पर बढ़ा-चढ़ाकर की जाती है, उससे करने से बचते हैं. उन्होंने यह भी कहा था कि उनके मित्र आयकर अधिकारी विनोद कुमार श्रीवास्तव ने, जो उनके लेखकीय व्यक्तित्व का आदर करते हैं, उन पर उस सम्मान आयोजन में भाग लेने का दबाव बनाया था. इसके साथ वह गोपनीय सूचना भी दी थी कि उस वर्ष के सम्मान की दौड़ में काशीनाथ सिंह भी शामिल थे, किन्तु जूरी के सदस्यों ने बहुमत से उनके नाम की संस्तुति की थी.
भगवान सिंह बंगले पर उनका सोत्साह मेवा, मिठाई और चाय से स्वागत करते थे. आम की फसल तैयार हो जाने पर तरह-तरह के स्वाद वाले आम खिलाते थे. उनको अगर अंगूर की बेटी से परहेज नहीं होता तो वह उनको उसकी संगत से हसीन हो जाने वाली शाम के शबाब का पुरलुत्फ आनन्द उठाने का भी मौका देने में कोताही न करते. लेकिन सकल पदारथ हैं जग मांही, करम हीन नर पावत नाहीं. भगवान सिंह के अन्दर उनके प्रति तरस का कुछ ऐसा ही भाव होता, मगर वह उस भाव पर स्वयं तरस खाने से अपने को बचाते थे. मदिरा से हृदयेश का कैसा रिश्ता है, इसको एक वाक़या से अच्छी तरह समझा जा सकता है. वाक़या का बयान ठोस होता है बिला मिलावट का. और यह वाक़या भगवान सिंह से ही जुड़ा हुआ है. अवसर था ‘पहल-सम्मान’ का जब भगवान सिंह उनके घर ठहरे हुए थे. अँधेरा घिर आने पर वह बोले थे, ‘हृदयेश जी, आप तो शौक करते नहीं, लेकिन मेरी शाम बिना शराब का साथ पाए गुजर नहीं सकती है. आसपास कही दुकान होगी. चलिए वहां से ले आते हैं.’ हृदयेश अपने ही चौक क्षेत्र में स्थित उनको अंग्रेजी शराब की दुकान पर ले गए थे. बदनामी के डर से वह दूर दूसरी पटरी पर खड़े रहे थे. भगवान सिंह ने अपने ही पैसों से रम का एक क्वार्टर खरीदा था. घर लौटकर गिलास और पानी की जरूरत बताए जाने पर उन्होंने वे दोनों चीज़ें मुहैया करा दी थीं. रम की चुस्कियाँ लेते-लेते भगवान सिंह उखड़ गए थे. आवाज में तमक आ गयी थी, ‘शराब के साथ चीखना भी जरूरी होता है. क्या पापड़ या नमकीन चने तक की भी व्यवस्था यहाँ नहीं हो सकती है?’ नीचे दुकान से तली मूंगफली के दाने ले आए गए. हृदयेश बाद में आदरणीय मेहमान के साथ अपने उस भदेस रवैये पर कई बार सोचकर हँसे थे. यह हंसना अपनी अबोधता पर तरस खाना भी होता था, साथ ही बेवकूफी की सीमा को छूती अपनी अव्यावहारिकता की खिल्ली उड़ाना भी.
बंगले पर होने वाली बातचीत में भगवान सिंह बात पर कब्जा स्वयं जमाए रहते थे. बोलने का धर्म वह निभाते और सुनने का हृदयेश और अपना-अपना धर्म निभाने में दोनों सुख पाते थे. वह उपन्यास के पूरा कर लिए गए अध्याय को भी सुनाते थे और उनकी प्रतिक्रिया चाहते थे. जब वह कहते थे कि हर बिन्दु पर अध्याय में लम्बे-लम्बे विमर्श हैं और वह बौद्धिकता से बोझिल है, तो वह हँस देते थे, ‘मैं बौद्धिक तो हूँ ही.’ उनका वह दावा असत्य नहीं है;, हृदयेश ऐसा अनुभव करते थे. साहित्य के अलावा भी विभिन्न सामाजिक अनुशासनों पर उनकी पुख्ता पकड़ थी. वह पढ़े और गुणे हुए दोनों थे.
उन्होंने दिल्ली से अपना कंप्यूटर मंगवा लिया था और सीधे उसी पर लिखते थे. वह छह-सात घंटे कम्प्यूटर पर बैठकर दस-पन्द्रह पृष्ठ तक का लेखन मजे से कर लेते थे.
हृदयेश अपनी मेज पर इतने समय तक बैठकर एक-एक वाक्य को कलम से जोड़ते-बैठाते हुए बमुश्किल एक या डेढ़ पृष्ठ लिख पाते थे. भगवान सिंह को आश्चर्य होता था, इतना कम.
‘भाई साहब, आप पेट्रोल पीकर लिखते हैं जबकि मैं पानी पीकर. रफ्तार में फर्क तो होगा ही.’
भगवान सिंह का उपन्यास ‘अपने अपने राम’ उन्होंने पढ़ रखा था. उसमें लोग मानस में
गहरी पैठ बना चुके राम, भरत, वसिष्ठ जैसे देव-पात्रों से संबंधित मिथकों को खंडित
किया गया था, किन्तु कथा-प्रवाह को संवेदनात्मक बनाए रखकर. वह बातचीत में जब तब उस
उपन्यास की सराहना करते थे. भगवान सिंह ने उनको इसके बाद का अपना लिखा दूसरा
उपन्यास ‘परमगति’ पढ़ने को दिया था, एकदम उसे नए शिल्प में रचा हुआ बताते हुए. वह
पूरा पद्य में लिखा गया था. उसकी सार्थक प्रयोगधर्मिता को लेकर वह आत्मसंतुष्ट थे.
प्रौढ़ रचनाकार भी अपने लिखे हुए का सही मूल्यांकन करने से प्रायः चूक जाता है भले
ही वह दूसरों का सही-सही करता हो. उन्होंने पढ़कर प्रतिक्रिया में कहा था, यह अपने
से केवल अतिसहिष्णु, अति उदार और अति धैर्यवान पाठक ही जोड़ सकता है.
भगवान सिंह को अपने को ताजा रखने के लिए उनके साथ की जरूरत थी और उनको अपने ज्ञान के संवर्धन के लिए उनकी.
‘उन्माद’ पूरा कर भगवान सिंह दिल्ली लौट गए थे. पोढ़ी लेखकीय हैसियत व अपने मानीखेज रसूखों की वजह से उन्होंने प्रथम पंक्ति के प्रकाशकों में से एक से उपन्यास के प्रकाशन की बात पहले ही पक्की कर ली थी.
आठ-नौ माह बाद भगवान सिंह शाहजहाँपुर फिर आए थे. भाई अभी यहीं तैनात थे. इस बार वह विदेश में बस गए अपने एक मित्र के लिए अप्रकाशित उपन्यास की पुनःरचना करने के उद्देश्य से आए थे. उनके अपने शब्दों में ‘उद्धार करने.’
उनके दुबारा आगमन की सूचना पाकर हृदयेश का उनके पास बैठने, गपियाने, कुछ अर्जित करने का सिलसिला फिर शुरू हो गया था. वह आम का ही मौसम था, जून-जुलाई का महीना. भगवान सिंह ने बताया था कि आम खिलाने के वास्ते वह साथ में नामवर सिंह को भी लाना चाहते थे. बात तय हो चुकी थी. किन्तु नामवर सिंह के इस बीच एकाएक बन गए कुछ महत्वपूर्ण कार्यक्रमों के कारण उनका यहाँ आना रद्द हो गया. नामवर सिंह जाते तो वह उनकी भी उनसे भेंट-मुलाकात कराते. नामवर सिंह की बौद्धिकता उनकी कद्दावर शख्सियत को लेकर हृदयेश में आतंक था. नामवर सिंह से मिलते, बात करते हुए वह सहज नहीं रह पाते.
भगवान सिंह को, जो उनके तब तक पढ़े गए उपन्यासों से संतुष्ट नहीं थे, और जिन्होंने उनमें से कई के अच्छे बनते-बनते रह जाने के लिए दो-बार चूकों या कुछ जरूरी तत्वों, सावधानियों की अनदेखियों की ओर इशारा किया था, उनको उन्होंने अपना बाद में प्रकाशित उपन्यास ‘पगली घंटी’ पढ़ने को दिया था. पढ़ चुकने के बाद बोले थे, ‘यह बेहतर रचना है. हिन्दी में जेल जीवन पर लिखा गया कोई उपन्यास है भी नहीं.’ उन्होंने अपने भाई से उस उपन्यास की पढ़ने की सिफारिश की थी और उसे रोक भी लिया था.
प्रतिक्रिया से उत्साहित होकर उन्होंने अपना ताजा निकाला कहानी-संग्रह ‘सम्मान’ पढ़ने को दिया. उनकी कहानियाँ उन्होंने बहुत कम पढ़ी थीं. संग्रह पर उनकी प्रतिक्रिया और भी सराहना लगी थी, ‘उपन्यासकार के मुकाबले आपका कहानीकार कही अधिक वयस्क, कहीं अधिक समझदार है. संग्रह की कई कहानियों में औपन्यासिक विस्तार है.’
इस बार वह दिल्ली जल्द ही लौट गए थे.
कुछ समय बाद भगवान सिंह का पत्र आया था, ‘आपकी कहानियों पर मेरा लिखने का मन बना है’
उन्होंने उनको अपना वह विचार कुछ समय के लिए स्थगित करने की सलाह दी थी, ‘मेरा किताबघर से नयी कहानियों का संग्रह दो-एक माह में आने वाला है. कृपया इस संग्रह की कहानियों पर भी आप पहले नजर डाल लें.’
उत्तर आया, ‘लिखने का ताप मुझमें अभी है. ताप ठंडा नहीं होना चाहिए. आप प्रकाशक से कहकर मुझे संग्रह की डमी तुरन्त भिजवा दें.’
डमी उनको भिजवा दी गयी.
हृदयेश ने उससे पूर्व नेशनल पब्लिशिंग हाउस से निकला संग्रह ‘नागरिक’ भी प्रकाशक को लिखकर भिजवा दिया. फिर अपनी चार-पाँच प्रतिनिधि कहानियों की छाया प्रतियाँ भी. उनका मानना था कि सही और पूर्ण मूल्यांकन के लिए पर्याप्त सामग्री सामने होनी चाहिए.
उन्हीं दिनों डॉ. प्रदीप सक्सेना का अलीगढ़ से पत्र आया था कि ‘समय माजरा’ पत्रिका से उन्होंने उसमें एक लेख देने का वादा कर रखा है. वह चाहते हैं कि उनकी कहानियों पर लिखकर इस वादे को वह पूरा कर दें. एक वादा उन्होंने उनसे भी कर रखा है कि वह उनकी कहानियों पर लिखेंगे. उनके कहानीकार को विषय बनाने से दोनों ही वादे एक साथ पूरे हो जाएंगे.
प्रदीप सक्सेना ने उनके उपन्यासों पर ‘गांठ’ से लेकर ‘सांड’ तक पर, जो तब तक प्रकाशित हुए थे, एक आलोचनात्मक आलेख लिखा था. इस आलेख में उनके सोच व सरोकार की सकारात्मकता के साथ उनकी नकारात्मकता पर भी अंगुलि रखी गयी थी. विकास-क्रम का ग्राफ कहाँ नीचे गिरा इसको भी बेबाकी से बताया गया था. उस आलेख में सब-कुछ पक्ष में नहीं था. फिर भी ‘आलोचना’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका में उन पर लिखा जाना उनकी लेखकीय सेहत के लिए वह टॉनिक था. फोकस डाला जाना उनके अंधेरे से निकालना जैसा था. प्रदीप सक्सेना और उनके बीच खुलापन था, कुछ इतना कि संकोचता निस्संकोचता में बदली जा सकती थी. उन्होंने ही प्रदीप सक्सेना से कहा था कि उपन्यासों के बाद वह अब उनकी कहानियों पर भी कहीं लिखें. तीन-बार अपनी इस इच्छा का स्मरण भी कराया था. प्रदीप सक्सेना ने वैसा मन बना लिया है, यह जानकर उन्होंने प्रदीप सक्सेना को उनके पास गैर मौजूद संग्रहों को यथाशीघ्र मौजूद करवा दिया था. कई पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित नई कहानियों की जीराक्स कापियाँ भी रवाना कर दी थीं.
फिर इसी के आसपास एक और प्रस्ताव, वैसा ही सुहावना, मनभावना और उत्साहवर्धक. बल्कि कहा जाए अपने में पारस पत्थर जैसा बहुमूल्यवान. यह प्रस्ताव इलाहाबाद से विद्याधर शुक्ल का आया था, जिन्होंने अपनी पत्रिका ‘लेखन’ के कुछ अंक निकाले थे, जिनमें से निराला स्मृति अंक अति महत्वपूर्ण था. विद्याधर ने पत्र में लिखा था कि ‘लेखन’ के 6,7 व 8 सामान्य अंक होंगे. वह ‘लेखन’ 6 से नयी कहानी के बाद के जनधर्मी कहानीकारों पर मूल्यांकनपरक एक लेखमाला शुरू कर रहे हैं. अंक 6 में इसराइल पर और अंक 7 में उनपर उनके लम्बे लेख होंगे. वह उनके चहेते कहानीकार हैं, एक मुद्दत से. वह सही को सही और गलत को गलत कहे बिना रह नहीं सकते हैं. उनको साहित्य से कुछ पाना नहीं है, देना ही देना है. ‘वर्तमान साहित्य’ के कहानी महाविशेषांक में प्रकाशित उनकी कहानी ‘मनु’ ही सर्वश्रेष्ठ थी, लेकिन खंजड़ी बजी ‘ए लड़की’ की. ‘ए लड़की’ यानी खाए अघाए लोगों की आत्मरति.
विद्याधर शुक्ल ने पत्र के अंत में लिखा था कि उनकी सम्पूर्ण कहानियों से गुजरना अब उनके लिए अत्यावश्यक हो गया है. उनके पास बस दो ही संग्रह हैं. अकिंचनता के चलते उनके लिए अन्य संग्रह खरीदना सम्भव नहीं हो पाया है. यदि उनके पास संग्रहों की अतिरिक्त प्रतियां हों तो वह उनको भिजवा दें.
उन्होंने विद्याधर शुक्ल को भी संग्रहों की प्रतियां जुटाकर भिजवा दी थीं.
पाँच-छह माह के समय के छोटे से टुकड़े में आगे-पीछे तीन महती संभावना गर्भित प्रस्तावों का द्वार पर आकर मुखर थापें देना उनको लगा था कि उनके भाग्य की शुभ रेखाएँ जाग्रत हो गयी हैं, या शनि जैसे उत्पाती ग्रहों ने भी अनुकूल ग्रहों में स्थान ग्रहण कर लिया है. उन्होंने अपनी हस्तरेखाएँ कभी किसी सामुद्रिक से परखवायीं नहीं थीं यों बड़े भाई के परिवार में इस विषय में गहरी आस्था होने के कारण जब-तब इस विद्या के पंडित बने व्यक्ति पधारते रहते थे. उनका जन्म-पत्र एक मुद्दत से गुम था, चालीस-पचास वर्षों से और इसको लेकर उनको कभी कोई खास मलाल नहीं हुआ था. उनकी राशि क्या है, इसका उन्होंने कभी पता नहीं लगाया. उनके नाम के आद्याक्षर के आधार पर किसी ने राशि मिथुन निश्चित की थी. उसे यदि उन्होंने सही नहीं माना था तो गलत भी नहीं. हस्तरेखाओं या ग्रहों के प्रभावों पर उन्होंने कभी विश्वास नहीं किया. उनके पत्रकार पुत्र ने उनको बताया था कि जब कभी उसके दैनिक-पत्र में साप्ताहिक भविष्यफल के लिए संबंधित ज्योतिषी से किसी कारणवश समय पर सामग्री नहीं आ पाती है, कभी पहले प्रकाशित हो चुकी सामग्री को पच्ची कर दिया जाता है. बावजूद इस सबके कभी-कभी घिर आयीं एकदम प्रतिकूल या अनुकूल स्थितियों ने हस्तरेखाओं या ग्रहों की भूमिका के बारे में उनमें एक जिज्ञासा भाव कुनमुनाया था. गूढ़ संस्कारों से मुक्त हो जाने के बाद भी उसके कुछ रग-रेशे अन्दर बने जो रहते हैं.
फिर प्रस्तावों का मात्र प्रस्ताव रह जाना या उनका मरीचिका बन जाना या उनमें गर्भित महत्ती संभावनाओं का भ्रूणपात हो जाना.
विद्याधर शुक्ल की ओर से एक लम्बी चुप्पी की ओट खड़ी कर ली गयी. दीवार में सेंघ लगाने के लिए उन्होंने तीन-चार माह बाद पत्र लिखा. मगर सेंघ लग नहीं सकी. फिर बड़े अंतराल के बाद प्रयास किया, मगर सफलता नहीं मिली. ठहर-ठहर कर किए गए कई प्रयासों के बाद ईंट हिली.
‘हृदयेश जी, लघु-पत्रिका निकालने के लिए जिन साधनों की जरूरत होती है, विशेषकर धन की, उसकी व्यवस्था अभी कर नहीं सका हूँ. अंक निकालने में अभी समय लगेगा.’
उन्होंने सुझाव दिया, ‘क्या यह ठीक नहीं रहेगा कि इन स्थितियों में आप अपना प्रस्तावित लेख किसी उस दूसरी पत्रिका को दे दें जिसे आप सही समझते हों.’
हिली ईंट को मजबूती से जड़ दिया गया.
दो वर्ष बाद ‘लेखन’ का अंक आया. उत्सुकता से लौटने पर देखने को मिली उनके अपने एक कहानी-संग्रह पर मात्र छोटी-सी समीक्षा, वह भी थी आलोचना का ककहरा सीख रहे किसी विद्यार्थी की लिखी हुई.
प्रदीप सक्सेना ने भी चुप्पी की ओट ले ली थी. पत्र डालने पर उत्तर आया, ‘भाई साहब, मैं अपने बेटे को लेकर मानसिक विचलन में हूँ. ट्यूशन लगवा देने के बावजूद बेटे की पढ़ाई की गाड़ी ठीक से बढ़ नहीं पा रही है.’
इसके बाद डाले गए पत्र का उत्तर था, ‘मकान बन रहा है. इधर सारी शिक्षेत्तर गतिविधियां उसी को लेकर हैं.’
अगले पत्र का उत्तर था, ‘कुछ बड़ी योजनाएँ हाथ में ले ही हैं. अभी उन्हीं पर काम करना है.’
नारायण बाबू ने हस्तक्षेप किया, ‘भाई साहब, आप अपने मित्र प्रदीप सक्सेना की विवशताओं को समझदारी से समझिए. उनके पास करने को जो अब काम आ गए हैं, वे आप वाले काम से ज्यादा जरूरी होंगे. आपने ही एक बताया था कि लेनिन को किसी पत्रिका के लिए गोर्की के एक लेख की आवश्यकता थी. गोर्की से उसके लिए आग्रह करते हुए लेनिन ने लिखा था कि यदि उनकी संलिप्तता किसी अधिक महत्वपूर्ण कार्य में हो तो वह उनकी मांग को निस्संकोच नजर अन्दाज कर सकते हैं. लेनिन जैसा आचरण, भाई साहब, आप भी अपनाइए.’
भगवान सिंह के सान्निध्य से प्राप्त अपने अनुभवों के आधार पर वह उनको सहज ही ईमानदार मान सकते थे बतौर एक लेखक और व्यक्ति दोनों. उनके व्यवहार में खरेपन की खुरखुराहट थी, पर साथ ही वहां बनी पारदर्शिता उस खुरखुराहट को महसूस नहीं होने देती थी. प्रदीप सक्सेना में भी यों ये ही विशेषताएँ थीं, पर स्थितियाँ जन्य विवशताएँ वहां बड़ी बन गयी थीं. भगवान सिंह अपनी वचनबद्धता निभाएंगे, उनसे ऐसी आशा अधिक थी. इसलिए भी कि ढांचों में वही अंतिम व्यक्ति थे.
भगवान सिंह को यथास्थिति जानने के लिए पत्र डाला गया. उत्तर आया, ‘ताप जाता रहा है. उसके वापस आने की प्रतीक्षा है.’
एक बड़े वक्फे के बाद फिर पत्र डाला, ‘ताप वापस आया या अभी दूरस्थ है?’
उत्तर, ‘इधर एक पुस्तक की समीक्षा करने को आ गई थी. दो-एक लेख भी लिखने पड़े. आ गया दूसरा काम पहले वाले काम को पीछे ठेल देता है.’
एक और बड़े वक्फे के बाद फिर पत्र डाला. इस बार उत्तर की बजाय खामोशी. नारायण बाबू ने कहा कि हो सकता है आपका पत्र कहीं रास्ते में गुम हो गया हो. आपको मुद्दे पर सीधे लिखते हुए अगर संकोच होता हो तो दीपावली, नववर्ष पर शुभकामनाएँ भेजिए. ये शुभकामनाएँ भी उनको आप वाले काम का स्मरण कराती रहेंगी.
भेजी गयी शुभकामनाओं की एवज में कभी प्रतिशुभकामनाएँ आ जाती थीं, कभी वे भी नहीं.
चन्द्रमोहन दिनेश ने भगवान सिंह को फोन किया था. भगवान सिंह के शाहजहाँपुर प्रवास
के दिनों में चन्द्रमोहन प्रायः उनके साथ भगवान सिंह से मिलने जाते थे और उनका
बताया हुआ कोई काम भी सोत्साह कर देते थे. वह जिलाधीश के वैयक्तिक सचिव थे.
उन्होंने यह फोन अपनी ओर से किया था, यो ही हालचाल लेने के लिए. उनको इस बात का
इल्म भी नहीं था कि भगवान सिंह ने कोई लेख लिखने का वादा हृदयेश से कर रखा है. फोन
पर हुई बातचीत में भगवान सिंह ने चन्द्रमोहन से कहा कि वह हृदयेश जी को बता दें कि
उनपर उनको लेख लिखना है, पर वह लेख कब लिखा जाएगा इसे वह स्वयं भी नहीं जानते हैं.
संदेश पाने पर मन बसा रहे दूध से दही बन गया. भगवान सिंह ने फोन के चोंगे के पीछे
उनकी उपस्थिति पायी थी.
उन्होंने नारायण बाबू से कहा, ‘आप सलाह देंगे तब भी मैं इस विषय में अब किसी भी प्रकार का कोई सम्पर्क नहीं साधूंगा. वैसा करने पर मैं खुद अपनी निगाह से गिर जाऊँगा.’
उनकी ओर से भी खामोशी.
नहीं, उन्होंने फिर पत्र लिखा ता, कई माह बाद और एक दूसरे संदर्भ में. रवीन्द्र वर्मा का उपन्यास ‘पत्थर ऊपर पानी’ पूरा का पूरा ‘कथादेश’ के एक अंक में प्रकाशित हुआ था. भगवान सिंह ने पत्रिका में पाठकीय प्रतिक्रिया स्वरूप उस उपन्यास की जमकर प्रशंसा की थी. उतनी प्रशंसा उनको सही नहीं लगी थी. उन्होंने पत्रिका को न लिखकर सीधे भगवान सिंह को लिखा था कि वह उनकी धारणा से असहमत हैं क्योंकि उपन्यास में दर्शन की बघार ज्यादा है. इसने उसे पाठकीय स्वाद की दृष्टि से कुछ बेस्वाद कर दिया है. भगवान सिंह ने उत्तर देते हुए लिखा था कि कृति में दर्शन का होना बुरा नहीं होता है. असल में जैसे हमारी रुचि, प्रकृति, अनुभव, की भिन्नता हमारी सर्जना को प्रमाणित करती है और हमें एक खास तरह का लेखक बनाती है, उसी तरह हमें एक खास तरह का पाठक भी बनाती है. फिर इसी पत्र में उन्होंने उनपर न लिख सकने का स्वतः स्पष्टीकरण दिया था कि वह अभी निष्क्रियता के दौर से गुजर रहे हैं. उनपर जो कुछ लिखना शुरू किया था वह अभी वहीं ठहरा हुआ है जहाँ व्यवधान आया था. लिखा हुआ अंश वह साथ में भेज रहे हैं. पर यह इस बात का संकेत नहीं कि इसकी यहीं इतिश्री है. संकेत यह कि इसे लिखने की भीतर से उठी उमंग अभी स्थगित है.
उनपर लिखा वह अंश पाँच-छह सौ शब्दों का था. शीर्षक दिया गया था ‘मिट्टी के भी होते हैं अलग-अलग रंग.’ भगवान सिंह ने लेख की शुरूआत यह बताते हुए की थी कि हृदयेश हिन्दी के उन रचनाकारों में हैं जिनका अपना रंग है और इसके बाद भी वह बहुतों के इतने करीब पड़ते हैं कि उनका अलग रंग पहचान में नहीं आता. इस प्रसंग में अन्य रचनाकारों के साथ प्रेमचंद का नाम भी लिया गया है. यदि हृदयेश किसी परम्परा में आने का प्रयत्न करते तो वह हृदयेश नहीं हो सकते थे. खुदा जैसा बनने का प्रयत्न करने पर खुदी को गंवाना पड़ता है.
फिर उन्होंने हृदयेश की ओर लोगों का उचित ध्यान न देने के लिए इसका एक कारण उनके शहर शाहजहाँपुर का बताया था जो भारत के मुख्य भू-भाग से अलग छिटके हुए एक द्वीप जैसा है. यह भी संभावना उनके नाम के आधार पर प्रकट की थी कि उन्होंने अपने लेखन का प्रारम्भ कविता से किया होगा.
अगले पैराग्राफ में उनका कथन था कि यदि हृदयेश अधिक पढ़े होते तो वह जो कुछ लिखते
उसमें हृदयेश की दुनिया से लेकर किताबों की वह दुनिया भी समाई होती जिसके होने से
उनका रचा हुआ संसार फैलने के अनुपात में ही बेगाना भी होता जाता. संभाल न पाने पर
कुछ बोझिल और अनगढ़ भी. उनकी कहानियाँ जिन्दगी से, खासकर उस जिन्दगी से, जिसमें
मुक्तिबोध के मुहावरे के अनुसार आदमी जमीन में धंसकर भी जीने की कोशिश करता है,
पैदा हुई हैं. कुछ लेखक सीधे जमीन फोड़कर निकलते हैं. उसी में अपनी जड़ों का
विस्तार करते हैं और नम्र भाव से अपने रेशे से उस जमीन से ही अपनी शक्ति, खाद-पानी
लेकर बढ़ते हैं और अपने और जमीन के बीच आसमान को नहीं आने देते हैं. वे इस सत्य को
बखूबी समझते हैं कि आसमान जितना भी ऊँचा हो, उस पर किसी के पाँव नहीं टिकते. औंधा
लटका हुआ बिरवा तो किसी को छाया तक नहीं दे सकता. मंटो हों या हृदयेश या छेदीलाल
गुप्त, ये कलम से लिखते हैं तो भी लगता है जैसे कोई जमीन पर धूल बिछाकर उस पर अपनी
उँगली घुमाता हुआ कोई तस्वीर बना रहा हो. उनकी उंगलियों के स्पर्श में ही कुछ होगा
कि आंधियां तक वहाँ आकर विराम करने लगती हैं और उनकी लिखत, जिसने भांड लेख होने तक
का भ्रम नहीं पाला था, शिलालेख बनने के करीब आ जाता है.
फिर इसके आगे यह बताते हुए कि हृदयेश ने बीच-बीच में आने वाले तमाम आंदोलनों को गुजर जाने दिया बिना अपने लेखकीय तेवर या प्रकृति में बदलाव लाए हुए, कि वह चुनाव पूर्वक अपनी जमीन पर टिके रहे न दैन्यं न पलायनम्, कि हृदयेश एक साथ कई परम्पराओं से जुड़ते हैं क्योंकि प्रत्येक रचानाकार अपने वरिष्ठों, समवयस्कों, यहाँ तक कि अल्पवयस्कों की कृतियों के प्रभाव को अपनी अनवधानता में सोख लेता है जैसे पौधे की जड़ें खाद के रस को सोख लेती हैं, लेख को असमाप्त छोड़ दिया था, कोई व्यवधान आ जाने के कारण.
अंश को पढ़कर उनमें हूक उठी थी गर्म उसांसों से भरी हुई. काश भगवान सिंह लेख को पूरा कर डालते भले ही उसे अधिक न बढ़ाते. उन्होंने जो लिखा है सराहना भरा, उनको जमीन से दो इंच नहीं पूरे दो मीटर ऊँचा करता हुआ, सिद्धों की पंक्ति में बैठाने वाला, उनका वह अभिमत उन्हीं तक रह गया है, केवल उन्हीं तक, किसी बंद कमरे में दो मौजूद व्यक्तियों में से एक के द्वारा दूसरे के बारे में कोई उम्दा टिप्पणी की गयी जैसा. लेख प्रकाशित होने पर दूसरे उनके लेखन की विशेषताओं के बारे में जानते. आलोचकों, संपादकों और प्रकाशकों के बीच उनकी स्वीकार्यता सुदृढ़ हो जाती. तब मोर जंगल में न नाचकर बस्ती में नाचता.
अंश वह दुबारा-तिबारा पढ़ लेते और हर बार यह चाहना बेचैनी भरी हो जाती. किन्तु उन्होंने भगवान सिंह को लेख पूरा कर लेने के लिए लिखा नहीं. पहले लिखे गए अपने किसी पत्र में उन्होंने उनको उस वचनबद्धता से मुक्त कर दिया था, ‘बाप अपने को उस वादे से बंधा हुआ न मानिए. सहज भाव से अन्य महत्वपूर्ण कार्य करिए.’
जब एक लम्बा समय बीत जाने पर भी व्यवधान को परे ढकेल देने वाली उमंग उधर न उठी, उन्होंने मान लिया कि उस लेख की वही नियति थी.
और पीछे. काफी पीछे, यानी सन् 1968 या 69 का वर्ष.
आहत प्रसंग मानव-स्मृति में अपने निशान गहरे छोड़ते हैं, वर्षों-वर्षों तक बने रहने वाले. उन प्रसंगों की छटपटाहट, खड़क अन्तस के कोमल पटल को रगड़ती, छीलती जो रहती है. या फिर यह कि मानव-स्मृति दुःखी, पीड़ित प्रसंगों को संरक्षा देने में अधिक सचेत, अधिक उदार रहती है.
हृदयेश को कहानियाँ लिखते लम्बा समय हो गया था, पन्द्रह-सोलह वर्ष का. प्रकाशित
कहानियों की संख्या पचास-साठ हो गई थी, जिसमें से अनेक ‘कल्पना’, ‘कहानी’
‘ज्ञानोदय’ ‘धर्मयुग’ जैसी प्रथम पंक्ति की पत्रिकाओं में स्थान पा चुकी थीं.
किन्तु उनका कोई कहानी संग्रह आया नहीं था. उनमें इसको लेकर बेकली थी, कुछ तेज ही.
कई प्रकाशकों को लिखा था. या तो उधर से मौन साधकर मनाही या लिखित शब्दों द्वारा.
जारी प्रयासों के क्रम में उन्होंने इलाहाबाद के अभिव्यक्ति प्रकाशन से सम्पर्क
किया था. प्रकाशक नया है किन्तु सही पुस्तकें सही ढंग से निकाल रहा है, ऐसा पता चला
था. लिखते हुए उन्होंने यह भी लिखा था कि अपने ‘लेखकीय अवदान की दृष्टि से वैसा
हकदार होते हुए भी उनकी अभी तक कोई पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई है और बहुत जरूरी होने
पर वह पाँच-सौ रुपए तक बतौर सहयोग राशि दे सकते हैं. प्रकाशक का तुरन्त उत्तर आ गया
कि उनकी यह बात उसको छुई है कि पुस्तक निकालने के हकदार होते हुए भी वह अभी तक यह
हक पा नहीं सके हैं. वह उनकी पुस्तक अवश्य प्रकाशित करेगा. सवा-सौ से डेढ़ सौ
पृष्ठों के संग्रह के लिए वह चुनकर अपनी कहानियाँ भेज दें. साथ में पाँच सौ रूपए का
ड्राफ़्ट भेजना वक्त का तकाजा ही मानें.’
उन्होंने वह सब भेज दिया था. उस समय पाँच-सौ रुपए एक बड़ी रकम होती थी. उन जैसी दुर्बल आर्थिक स्थिति वालों के लिए और भी बड़ी. उन रुपयों का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने उधार लेकर जुटाया था.
संग्रह छह माह के भीतर निकलना था, मगर निकला नहीं था. पत्र डालने पर उत्तर आया कि प्रकाशन शिड्यूल गड़बड़ा गया था. व्यवस्था ठीक होते ही संग्रह निकल जाएगा.
गड़बड़ाया शिड्यूल ठीक हो नहीं रहा था. समय बीतता जा रहा था.
उनका इलाहाबाद जाना हुआ था. प्रकाशक से मिले. प्रकाशक ने बताया कि पाण्डुलिपि खो गई है. उनके यह जाहिर करने पर कि पाण्डुलिपि तैयार कर दुबारा सौंपी जा सकती है, प्रकाशक ने पूर्व प्रकाशित पुस्तकें न उठने और कागज व मुद्रण के बढ़ते खर्चे का रोना रोकर अपनी असमर्थता प्रकट कर दी. उदारता यह दिखाई की दिए गए पाँच सौ रूपए की एवज में वह अपनी पसंद की पुस्तकें ले जा सकते हैं. इस उदारते में यह उदारता और जोड़ी कि पुस्तकों पर बीस प्रतिशत जो छूट दूसरों को देते हैं, उस छूट के प्रति सौ रुपए की पुस्तकें वह और उठा सकते हैं.
मिली पुस्तकों को साइकिल पर झोला लटकाकर उन्होंने बेचा था. दो छोटे भाइयों के शिक्षा संस्थानों में होने के कारण इस सेल्समैनी को करने में उनको जितनी दिक्कत होनी चाहिए थी, उतनी हुई नहीं थी.
और फिर एक अन्य बिंधी हुआ प्रसंग. पहले का नहीं, कुछ बाद का, यानी सन् 1971 के आसपास का. ‘गांठ’ के बाद उन्होंने अपना दूसरा उपन्यास ‘हत्या’ लिखा था. उन दिनों सारिका पत्रिका ने अपने अंकों में पूरा लघु उपन्यास देने की योजना बनाई थी और दो एक उपन्यास वह प्रकाशित भी कर चुकी थी. उन्होंने भी ‘हत्या’ को इस योजना के अंतर्गत भेजा था. उन्हीं दिनों समानांतर कथा-आंदोलन का सम्मेलन मुम्बई में हुआ था, शायद पहला. इस आंदोलन के जनक और नायक कमलेश्वर थे, वही ‘सारिका’ के उस समय संपादक भी. मित्र से. रा. यात्री ने उस सम्मेलन में शिरकत की थी. यात्री ने पत्र द्वारा सूचना दी थी कि टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग की एक-एक ईंट बोल रही है कि हृदयेश का उपन्यास ‘हत्या’ छपना है. कमलेश्वर को उनका उपन्यास बेहद पसंद आया है. उनको अग्रिम बधाई, बहुत-बहुत.
बाद में दिल्ली जाना हुआ था. राजेन्द्र यादव ने भी मुलाकात के दौरान यही बताया था कि पहले ‘हत्या’ ‘सारिका’ में प्रकाशित हो जाए, उसके बाद ही वह पुस्तकाकार अक्षर प्रकाशन से आए, ऐसा कमलेश्वर उनसे कह गए थे. राजेन्द्र यादव ने जानना चाहा था कि आखिर फिर ‘सारिका’ में उपन्यास क्यों नहीं आया?
क्यों नहीं आया का कारण वह नहीं जानते थे. साहित्य की राजनीति से वह बहुत दूर थे.
कारण को लेकर वह बस इस सोच के इर्द-गिर्द भटक सकते थे कि आमंत्रण आने पर भी वह
मुम्बई सम्मेलन में नहीं गए थे या यह मान लिया गया था कि हृदयेश समानांतर आंदोलन के
एक अंध समर्पित और विश्वसनीय सिपाही नहीं बन सकते हैं.
और फिर एक ओर चुभता, वेधता, नश्तर लगाता प्रसंग. पहले के आसपास का. कुछ माह पश्चात् का. मुम्बई से एक सज्जन महेन्द्र विनायक का पत्र मिला, साथ में राम अरोड़ा का भी कि विनायक उनके उपन्यास ‘गांठ’ पर फिल्म बनाना चाहते हैं. इससे पहले इस संभावना की जानकारी यात्री और ‘सारिका’ में कमलेश्वर के संपादन सहयोगी सुदीप से भी प्राप्त हो चुकी थी. फिर कमलेश्वर का भी पत्र आया था. कमलेश्वर ने लिखा था कि चूँकि वह इस क्षेत्र की स्थितियों और दांव पेंचों से अनभिज्ञ हैं, बेहतर होगा कि विनायक से फिल्मीकरण की शर्तों के संबंध में वही बातचीत करें ताकि पारिश्रमिक की राशि आदि को लेकर उनके साथ पूर्ण न्याय हो सके. उनकी ओर से बात करने की उन्होंने सहमति मांगी थी. सहमति तो उन्होंने तुरन्त भेज दी थी. महेन्द्र विनायक एक ओर तो कमलेश्वर से भेंट कर बात आगे बढ़ा रहे थे, दूसरी ओर उनसे भी पत्रों द्वारा बराबर संपर्क बनाए हुए थे. विनायक चाहते थे कि बात सीधे उन्हीं से हो पर उन्होंने साफ जता दिया था कि शर्तें कमलेश्वर ही तय करेंगे. ऐसा फिर लगा था कि शर्तों को पक्की शक्ल लेने के लिए बस कागज पर उतरना है. लेकिन फिर विनायक ने उनको एक ओर परे खिसका कर जैनेन्द्र कुमार से उनके उपन्यास ‘त्यागपत्र’ पर फिल्म बनाने का अनुबंध कर लिया था.
‘सारिका’ में ‘गर्दिश के दिन’ स्तम्भ के अंतर्गत उन्होंने आत्मकथ्य में कुछ और
हादसों का जिक्र करते हुए लिखा था कि जब-तब उन्हें लोग चोटी पर ले जाकर नीचे ढकेल
देते हैं. किन्तु पूर्व अनुभवों से हासिल सीख से उन्होंने अपने जिस्म से हड्डियाँ
निकलवा दी हैं. उन्हें अब चोट नहीं लगती है.
चोट न लगने का वह कथन सही भी था और गलत भी. सही इस अर्थ में कि अपने साहित्यिक संघर्षों से उन्होंने पलायन नहीं किया था. गलत इस अर्थ में कि ऐसे हादसे टीस देते थे ही और दिनों तक.
रचनाकार – हृदयेश के कई उपन्यास और कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. प्रतिबद्ध सृजन यात्रा के लिए उप्र हिन्दी संस्थान से पुरस्कृत हो चुके हैं तथा ‘पहल’ सम्मान से सम्मानित भी.
पता नहीं भइया ये संस्मरण कहां छपा लेकिन खटकता है। अगर यह हृदयेशजी ने लिखा है तब हम कुछ कह नहीं सकते। लेकिन जिस तरह भगवान सिंह का जिक्र है उससे लगता है कि जैसे हृदयेश जी परेशान रहे हों अपने बारे में लिखवाने के लिये। मैं हृदयेशजी के संपर्क में करीब आठ साल रहा। पूरा शाहजहांपुर उनका सम्मान करता है।
जवाब देंहटाएंजिस उपन्यास का जिक्र यहां नहीं आया वह है हृदयेशजी का उपन्यास 'सफेद घोड़ा काला सवार'। भारतीय न्याय-व्ववस्था पर इससे बढ़िया उपन्यास कोई नहीं आया। हृदयेशजी कचहरी में काम करते थे। वहां के अनुभवों के उपर आधारित यह उपन्यास
भारतीय न्याय-व्ववस्था के बारे में तमाम बाते बताता है। यह सच है कि हृदयेशजी की शिक्षा-दीक्षा शायद मात्र इन्टरमीडियेट तक हुई लेकिन इससे उनकी कहानी कला कहीं प्रभावित नहीं हुयी। छोटे शहर के बड़े लेखक के रूप में जाने जाने वाले हृदयेश जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं । अनुरोध है कि इस बातचीत का विवरण बतायें ताकि जो यह लेख बताता है कि हृदयेशजी अपने बारे में लिखाने के लिये इतने परेशान रहे उसके बारे
में सच जान सकूं।
यह संस्मरण कथाक्रम के जुलाई-सितम्बर 2005 में छपा है.
जवाब देंहटाएंyeh unki aatmakatha jokhim se liya gaya hai.
जवाब देंहटाएंyeh unki aatmakatha jokhim se liya gaya hai.
जवाब देंहटाएं