वही है धर्म-ईमान -स्वामी वाहिद काज़मी मुमकिन है शीर्षक पढ़ते ही कुछ पाठकों के मन में विचार उठे कि आगे शायद कुछ कविता जैसी चर्चा होगी। नहीं, ...
वही है धर्म-ईमान
-स्वामी वाहिद काज़मी
मुमकिन है शीर्षक पढ़ते ही कुछ पाठकों के मन में विचार उठे कि आगे शायद कुछ कविता जैसी चर्चा होगी। नहीं, मैं कविता-चर्चा करने नहीं बैठा बल्कि अब जिस माहौल में एक-एक सांस कठिनाई से लेकर जीने को अभिशप्त हूँ, उससे उपजी मानसिक पीड़ा सहृदय पाठकों के साथ शेयर करने के इरादे से बैठा हूँ। कहाँ से शुरू करूं? जब यह सोचता हूँ तो एकदम से कोई सिरा तो लेखनी की नोक पकड़ नहीं पाती। आँसुओं की रुकी हुई धारा अवश्य आँखों से फूट पड़ना चाहती है।
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन
वैसे तो शायद मन्ना डे का गाया हुआ किसी फिल्मी गीत का यह मुखड़ा है। न मैंने वह फिल्म देखी, न फ़िल्में देखता हूँ। किन्तु जब भी यह पंक्ति मेरे कानों में पड़ती है, तत्क्षण थोड़ी देर के लिए जैसे मैं इस दुनिया में नहीं रह जाता हूँ। इस पंक्ति के बहाने मुझे अतीत के स्वर्णिम दिन बेसाख्ता स्मरण हो आते हैं। विशेष रूप से उस जमाने का सामाजिक एवं धार्मिक व्यवहार, वह पूरा वातावरण जिसमें किसी प्रकार की जातिगत द्वेष भावना तो दूर, संकीर्णता और भेद-भाव भी नहीं था। बेशक इसे आज कोई यह कहे कि मैं अतीत-जीवी या माजीपसंद हूँ, पर क्या किया जाए? जिन संस्कारों से मेरे व्यक्तित्व के एक-एक रेशे का निर्माण हुआ, उनकी जड़ें अतीत में ही हैं। आँधी-तूफ़ानों में भी जड़ों से न उखड़ पाना मेरी कमजोरी ही है।
ग्वालियर (मध्य प्रदेश) से कोई तीस किलोमीटर के फासले पर शेरशाह सूरी राष्ट्रीय राजमार्ग उर्फ जी.टी. रोड के किनारे एक छोटा-सा ऐतिहासिक कस्बा है-आंतरी. दरबारे-अकबरी के एक मशहूर रत्न अबुल फज़्ल यहाँ चिर विश्राम की निद्रा में लीन हैं। अबुल फज़्ल की आखिरी आरामगाह इसी कस्बे आंतरी में मेरा जन्म हुआ। अबुल फज़्ल की मज़ार पर खेलते-कूदते और वहाँ की ख़ाक में लोट-पोट होते हुए, बाल्यावस्था पार कर उसी खुशगवार फ़िज़ा में तरूणाई की चौखट पर कदम रखा। मिडिल स्कूल मैंने यहीं से पास किया था। इस लिहाज से मेरे मनो-मस्तिष्क पर, संस्कार रूप में, आंतरी के बहुत अहसान हैं। सबसे खास है वह सुखद माहौल जिसमें स्वाभाविक भाई-चारे की सुगंध बहती थी और हकीकी अपनत्व तथा सद्भाव दूध-मिसरी की भांति घुले-मिले रहते थे। कहना न होगा कि मेरे भीतर बहते लहू की एक-एक बूंद उन्हीं रंगों व रसायनों से रची-बसी है. मेरे रोम-रोम का निर्माण उसी आब-ओ-हवा ने किया है। उसे कैसे भूल सकता हूँ।
न कोई अफसर, न कोई चाकर
ग्वालियर हाई कोर्ट से संबद्ध एक छोटी सी अदालत वहाँ थी। एक मजिस्ट्रेट रहता था। पाँच वकील थे- विद्याधर शर्मा, विश्वेश्वर दयाल, जयनारायण सक्सेना, मनोहर लाल और मेरे पिताजी सैयद इम्तियाज़ अली। जो वकील उनके हम उम्र थे, वे सब हमारे चाचा थे और मनोहर लाल जी उम्र में बड़े होने से बाबा थे। ग्रामवासियों के साथ इस सभी का अपनापन रहता था। घनिष्ठता ऐसी कि जब कचहरी की इमारत में अदालत लगी होती, तो वे ही लोग जो अपनी-अपनी कुर्सियों पर मजिस्ट्रेट, वकील, पेशकार, अहलकार थे; अदालत उठ जाने के बाद सिर्फ एक इंसान रह जाते थे। कहीं बैठकर गपशप करते। बैडमिंटन खेलते। गर्मियों में तरबूज़-खरबूजों और ठंडाई की, बरसात में आमों की और सर्दियों में कबाब-पकौड़ों की पार्टियाँ उड़ाते। कभी शिकार पर जाते तो कभी जंगल में सहभोज (गोठ) के लुत्फ़ उठाए जाते। ग्राम उत्सवों में पूरे मन और उत्साह से शरीक होते।
प्रतिपक्षियों का याराना
मुवक्किल के हित को सर्वोपरि रख सभी वकील पूरी मेहनत, ईमानदारी तथा नेकनीयती से काम करते, आपस में मिल बांटकर। यदि किसी वकील के पास काम कम रहता तो दूसरे वकील अपने पास आया मुकदमा खुद उसे दे देते थे। आज की भांति दलालों की तिकड़म से मुवक्किल को फांस कर लाने या छल-प्रपंच से दूसरे को मिलता मुकदमा खुद हथिया लेने की हीन मनोवृत्ति उन्हें छूकर भी नहीं गुजरती थी। आज तो इस बात पर मुश्किल से ही यकीन आएगा कि कभी-कभी आंतरी के मुवक्किल लश्कर (ग्वालियर) जाकर वकील कर आते थे। फिर जब वे वकील तारीख पेशी पर आंतरी आते तो बिना किसी भेदभाव के सिर्फ हमारे यहाँ ठहरते। यहाँ तक कि जब पिताजी के विपक्षी वकील आते तो वे भी हमारे ही मेहमान होते थे। अदालत में जिरह-बहस के दौरान दौनों की कट्टर प्रतिद्वंद्विता मानों गजब ढाती थी, पर अदालत से बाहर आते ही उनका याराना – क्या पूछना!
कहाँ खो गया आदमी?
होली के वे हसीन रंग आज भी मेरे मन से धुल-पुँछ नहीं गए हैं कि बस्ती में सभी छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, हिन्दू-मुसलमान, रंगों-गुलालों से सराबोर एक मंडली बनाकर ढोलकी-मंजीरे की ताल-बेताल पर थिरकते-झूमते, स्वांग बनाए, होली खेलते घूमते थे। जब हमारे यहाँ आते तो बड़े तो बड़े, घर के बच्चे तक उनके साथ बेढब शरारतों के साथ होली खेलते! भीतर जनानखाने में औरतों का तो जिक्र क्या, नाइनें व धोबिनें तक हमारे परिवार की पर्देनशीन महिलाओं से होली खेलकर निहाल हो जाती थीं। मेरे इन्हीं हाथों ने एक बार गोलमटोल थानेदार साहब की आधे तरबूज जैसी मोटी तोंद पर गाढ़ा कोलतार (डामर) लेस दिया था। थानेदार, वकील, न्यायाधीश, डॉक्टर आदि अब पहले से कई गुना अधिक हैं, पर आदमी पता नहीं कहाँ खो गया। आँखें तलाश करती हैं और तरस कर रह जाती हैं।
देव-विग्रह की मुस्कानें
मुहर्रम पर बड़े-बड़े ताज़ियों का जुलूस निकाला जाता। सबके आगे बड़ा पंचायती ताज़िया रहता। इसके निर्माण पर पूरी बस्ती का धन व श्रम लगा होता। जुलूस वाले दिन बाजार में दिनभर उस्ताद जंगीखां रंगरेज और गुरु परमानंद दुबे के अखाड़ों में तैयार पट्ठे लाठी, बिनौट, पटा, चक्र, बल्लम, तलवार के खेल दिखाते। गयासीराम तेली मलखंभ पर कलाबाजी के कौशल पेश करते। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही बड़े जोश-खरोश से ढोल-ताशे बजाते। गंगाबाई के पंचायती मंदिर के ठीक सामने जुलूस ठहरता। सामूहिक स्वरों में हजरत हसन हुसैन की शान में मर्सिये गाए जाते। यह आवाज केवल एक इंसानी आवाज होती थी, जिसमें हिन्दू-मुसलिम दोनों के सुर गले मिलते थे। मंदिर में प्रतिष्ठापित श्रीराम और हनुमान की प्रतिमाएं मानों मुस्कानें बिखेरने लगती थीं। आज के भक्तों, सुना तुमने!
मंदिर में मुसलमान
हिन्दू-मुसलमान में हमारे यहाँ कभी रंचमात्र भी भेदभाव नहीं बरता गया। वालिद साहब जिस श्रद्धाभाव से मीलाद शरीफ (पैगम्बर हजरत मुहम्मद के जीवन चरित्र का सस्वर सामूहिक पाठ जो गद्य-पद्य दोनों में होता है) में शरीक होते, उसी श्रद्धा भाव से हिन्दू-मित्रों के यहाँ अखंड रामायण पाठ, भागवत सप्ताह अथवा अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में शरीक रहते। आंतरी में जितने देव मंदिर हैं उनमें सबसे बड़ा मंदिर ‘महन्त साहब वाला मंदिर’ कहलाता है। इस मंदिर की संपत्ति व जायदाद से संबंधित तमाम मुकदमे पिता जी के ही पास थे। मंदिर के वयोवृद्ध महंत गुसाईं गोकुलदास और उनके प्रमुख शिष्य श्री राधिका दास में किसी बात पर उग्र मतभेद हो जाने से जब नौबत अदालत तक जाने की आई, तो पिताजी ने ही दोनों में सुलह-सफाई कराई थी। जब पिताजी यों ही कभी टहलते हुए उधर जा पहुँचते तो महंत जी प्रसन्नवदन उनकी आगवानी में सादर खड़े हो जाते और आग्रहपूर्वक अपनी गद्दी पर ही बिठाते। मंदिर में दो बार विशेष पर्वों पर विशाल सामूहिक भोज का आयोजन होता। बस्ती भर की सातों जात जिमाई जाती। आज के मंदिर वालों को शायद झूठ प्रतीत हो कि मंदिर के भीतर ठीक गर्भगृह के सामने आसन देकर पिताजी (एक मुस्लिम) को वृद्ध महंतजी स्वयं पत्तल परोसकर भोजन कराते थे!
मस्जिद में हिन्दू नमाजी
होली, दीपावली, ईद, बक़र-ईद आदि बड़े त्यौहार बिना किसी भेदभाव के सभी एकसाथ, एक समान हुँसी-खुशी से मिलकर मनाते थे। ईद और बक़र-ईद के वे दृश्य मुझसे कभी भुलाए नहीं जा सकते, जब कस्बे की एकमात्र ईदगाह में (जो कभी एक मुसलमान नाई ने बनवाई थी) सामूहिक नमाज़ पढ़ने के लिए मुसलमान विधिवत पंक्तिबद्ध खड़े होते, तो उनके पीछे हिन्दू भाई भी अपनी एक पंक्ति बना लेते और न केवल नमाज़ की अदायगी में शरीक रहते, बल्कि जब नमाज़ के बाद सामूहिक प्रार्थना (दुआ) की जाती, तो वे भी सबके स्वर में स्वर मिलाए ‘आमीन’ (अर्थात् कुबूल हो) बोलते जाते थे। वह आवाज़ न किसी हिन्दू न किसी मुसलमान की, बल्कि एक इंसानी हृदय से बुलंद होती आवाज़ होती थी।
वह चाहे अयोध्या-कांड से उपजे आँसुओं की चीत्कारें हों या हृदयविदीर्ण रहम की भीख मांगती गोधरा-नरसंहार की दर्दनाक गुहारें, जब मुझे सुनाई पड़ती हैं, तो अतीत की वही एक इंसानी आवाज़ रात गए सन्नाटे में कानों में गूँजती है और आँखों में नमी भर देती है। किसने उस इंसानी आवाज का गला घोंटकर खून कर दिया? धर्म-ईमान के मेरे समकालीन रखवालों, बोलो!
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चर्चित, जुनूनी लेखक - स्वामी वाहिद काज़मी की कई कहानियाँ, वैचारिक लेख, व्यंग्य एवं अन्य रचनाएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
स्वामी वाहिद काज़मी की कहानी रचनाकार के अगले किसी अंक में आप पढ सकेंगे.
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