मोहन द्विवेदी की दो कविताएँ : जब चला था छोड़कर **-** उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर संबंध अभिशापित हुए अनुबंध सारे तोड़कर। धूल प...
मोहन द्विवेदी की दो कविताएँ :
जब चला था छोड़कर
**-**
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर
संबंध अभिशापित हुए अनुबंध सारे तोड़कर।
धूल पगडंडी की पूछी लौटकर कब आओगे?
दौड़ नंगे पाँव मुझको देह से लिपटाओगे।
खिलखिलाकर हँस रहा था चन्दा मामा गांव में,
लोरियाँ नानी की छोड़ा श्वेत आँचल छांव में।
सब दूरियाँ बढ़ती गयीं मजबूरियों को जोड़कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
खो गयी सावन की कजरी और होरी-फाग भी,
छिन गयीं अगहन की सांझें और साझी आग भी।
हो गयी हैं मौन, गलियों की मधुर किलकारियाँ,
मन के उपवन में हमेशा चल रहीं अब आरियाँ।
संवेदना आहत हुई अभिव्यंजना झकझोर कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
शान्त था चौखट पुराना रो रही थीं ड्योढ़ियाँ,
पग बढ़े तो पास आ पूछीं पुरानी पीढ़ियाँ।
रह गयी थी क्या कमी मेरी कमाई में बता?
कौन है अपना सहारा इस बुढ़ाई में बता?
तब कल्पना कुंठित हुई करूणा चली मुँह मोड़कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
छीनकर अंधे की लाठी भाग आया गांव से,
ठोकरें खाने लगा हूँ अब शहर के पाँव से।
स्वप्न-सी लगने लगीं अनुभूतियाँ अब प्यार की,
यंत्रवत् जीने लगा हूँ जिन्दगी औज़ार सी।
सुख-चैन निद्रा में रमे दुःख-दर्द सारे ओढ़कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
**-/**
गीतः रे! मन
**-**
तुम वेदना के तीर का, कब तक सहोगे वार रे मन,
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
वीरान हो जाएंगी ये, खिलते कुसुम की घाटियाँ,
छूट जाएंगी धरा पर, धर्म की परपाटियाँ।
सहज तो इतना नहीं है, फूल काँटों को बनाना,
रोक पाओगे न उनको, काम जिनका है सताना।
अज के गले में फूल का, कब तक बनोगे हार रे मन।।
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
पथ छोड़कर तुम सत्य का, भटकोगे कब तक राह में,
मरते रहोगे हर घड़ी तुम, जिन्दगी की चाह में।
सुनसान रह जाएंगी ये, कोमल हृदय की धड़कनें,
कुछ न कर पाओगे तुम, आती रहेंगी अड़चनें।
इस मदभरी मझधार को, कैसे करोगे पार रे मन।।
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
भूल जाओ वह दुपहरी, कूप बट की छांव में,
नाचती गाती थी परियाँ, जब क्षितिज के गांव में।
खो गई वह हवन ज्वाला, चिमनियों के गर्भ में,
अब नहीं चर्चा घरों में, ज्ञान के सन्दर्भ में।
तुम गीत फागुन का लिखे थे, आ गया है क्वार रे मन।।
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
उड़ रहे जो पास तेरे, छुद्र भौरों की तरह,
चूस रस ये भी तो, हट जाएंगे औरों की तरह।
शेष रह जाएंगी बस, बीते जनम की ठठरियाँ,
आवागमन होता रहेगा, ढोते रहोगे गठरियाँ।
मूर्ति जो उर में बसाए आँखें करो अब चार रे मन।।
तुम वेदना के तीर का, कब तक सहोगे वार रे मन।।
**-**
रचनाकार – टेक्नोक्रेट मोहन द्विवेदी की कविताएँ, गीत एवं कथा साहित्य देश की प्रतिष्ठित शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. आपको अनेकों साहित्यिक सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं. आप काव्य मंचों में काव्यपाठ भी करते हैं.
जब चला था छोड़कर
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उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर
संबंध अभिशापित हुए अनुबंध सारे तोड़कर।
धूल पगडंडी की पूछी लौटकर कब आओगे?
दौड़ नंगे पाँव मुझको देह से लिपटाओगे।
खिलखिलाकर हँस रहा था चन्दा मामा गांव में,
लोरियाँ नानी की छोड़ा श्वेत आँचल छांव में।
सब दूरियाँ बढ़ती गयीं मजबूरियों को जोड़कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
खो गयी सावन की कजरी और होरी-फाग भी,
छिन गयीं अगहन की सांझें और साझी आग भी।
हो गयी हैं मौन, गलियों की मधुर किलकारियाँ,
मन के उपवन में हमेशा चल रहीं अब आरियाँ।
संवेदना आहत हुई अभिव्यंजना झकझोर कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
शान्त था चौखट पुराना रो रही थीं ड्योढ़ियाँ,
पग बढ़े तो पास आ पूछीं पुरानी पीढ़ियाँ।
रह गयी थी क्या कमी मेरी कमाई में बता?
कौन है अपना सहारा इस बुढ़ाई में बता?
तब कल्पना कुंठित हुई करूणा चली मुँह मोड़कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
छीनकर अंधे की लाठी भाग आया गांव से,
ठोकरें खाने लगा हूँ अब शहर के पाँव से।
स्वप्न-सी लगने लगीं अनुभूतियाँ अब प्यार की,
यंत्रवत् जीने लगा हूँ जिन्दगी औज़ार सी।
सुख-चैन निद्रा में रमे दुःख-दर्द सारे ओढ़कर।
उस रास्ते के मोड़ को जब मैं चला था छोड़कर।।
**-/**
गीतः रे! मन
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तुम वेदना के तीर का, कब तक सहोगे वार रे मन,
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
वीरान हो जाएंगी ये, खिलते कुसुम की घाटियाँ,
छूट जाएंगी धरा पर, धर्म की परपाटियाँ।
सहज तो इतना नहीं है, फूल काँटों को बनाना,
रोक पाओगे न उनको, काम जिनका है सताना।
अज के गले में फूल का, कब तक बनोगे हार रे मन।।
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
पथ छोड़कर तुम सत्य का, भटकोगे कब तक राह में,
मरते रहोगे हर घड़ी तुम, जिन्दगी की चाह में।
सुनसान रह जाएंगी ये, कोमल हृदय की धड़कनें,
कुछ न कर पाओगे तुम, आती रहेंगी अड़चनें।
इस मदभरी मझधार को, कैसे करोगे पार रे मन।।
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
भूल जाओ वह दुपहरी, कूप बट की छांव में,
नाचती गाती थी परियाँ, जब क्षितिज के गांव में।
खो गई वह हवन ज्वाला, चिमनियों के गर्भ में,
अब नहीं चर्चा घरों में, ज्ञान के सन्दर्भ में।
तुम गीत फागुन का लिखे थे, आ गया है क्वार रे मन।।
इस निर्दयी संसार को, कितना करोगे प्यार रे मन।
उड़ रहे जो पास तेरे, छुद्र भौरों की तरह,
चूस रस ये भी तो, हट जाएंगे औरों की तरह।
शेष रह जाएंगी बस, बीते जनम की ठठरियाँ,
आवागमन होता रहेगा, ढोते रहोगे गठरियाँ।
मूर्ति जो उर में बसाए आँखें करो अब चार रे मन।।
तुम वेदना के तीर का, कब तक सहोगे वार रे मन।।
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रचनाकार – टेक्नोक्रेट मोहन द्विवेदी की कविताएँ, गीत एवं कथा साहित्य देश की प्रतिष्ठित शताधिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. आपको अनेकों साहित्यिक सम्मान भी प्राप्त हो चुके हैं. आप काव्य मंचों में काव्यपाठ भी करते हैं.
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