- राजकुमार कुम्भज अपने आका को ‘सर’ कहने की प्रथा का आविष्कार अंग्रेज़ों ने किया. हम भारतीयों में अपने आकाओं को ‘सर’ कहने की प्रथा को प्रतिष्...
- राजकुमार कुम्भज
अपने आका को ‘सर’ कहने की प्रथा का आविष्कार अंग्रेज़ों ने किया. हम भारतीयों में अपने आकाओं को ‘सर’ कहने की प्रथा को प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी अंग्रेजों को ही जाता है. अंग्रेज़ों ने हम भारतीयों पर बड़ा उपकार किया, जो वे यहाँ आए, दो सौ बरस तक हमें दास बनाए रखा और अपने आकाओं-चाकरों को ‘सर’ कहने-कहलाने की सीख दे गए. अगर अंग्रेज भारत नहीं आते, हमें दास नहीं बनाते, हम पर कोड़े नहीं बरसाते, तो हम अपने सिर में ‘सर’ कैसे घुसा पाते? अब तो हर तरफ़ ‘सर’ ही ‘सर’ दिखाई देते हैं. ऐसे में कभी किसी को लगता नहीं क्या कि अब ‘सर’ का सर कलम करने का समय आ चुका है.
हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ऑक्सफ़ोर्ड जाकर अंग्रेजों की प्रशंसा कर आए. हमें भी करना चाहिए. हमारे प्रधान मंत्री हमारे ‘सर’ हैं. उधर हमारे ‘सर’ के भी कई-कई ‘सर’ हैं. जैसे – लालू ‘सर’, पासवान ‘सर’, सुरजीत ‘सर’, येचुरी-करात ‘सर’ वग़ैरा वग़ैरा. ‘सर’ कहते रहने के अनेकानेक लाभ हैं. पाँव में रहने का दासत्व स्वीकारने वाला जूता कभी क्रांतिकारी बन कर किसी ‘सर’ के सिर की कपाल क्रिया कर सकता है. अतः जो महानुभाव अपनी कपाल क्रिया करवाने से बचे रहना चाहते हैं वे अपने आकाओं को अदब से ‘सर’ कहना न छोड़ें. इस मूल मंत्र का ध्यान हमेशा रखें-
मनुष्यता का अस्तित्व कहीं हो या न हो, किंतु ‘सर’ का अस्तित्व हर कहीं सहज ही उपलब्ध है. मुंशी मुनीम को ‘सर’ कहता है, मुनीम मालिक को ‘सर’ कहता है, मालिक ग्राहक को ‘सर’ कहता है, ग्राहक बैंक-मैनेजर को ‘सर’ कहता है, बैंक-मैनेजर, म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के दारोग़ा को ‘सर’ कहता है, दारोग़ा अपने बॉस को सर कहता है और बॉस, इलेक्शन में जीते मुंशी को ‘सर’ कहता है. सर कहने का यह चक्र बड़ा लंबा और सर्वव्यापी है. ‘सर’ आदि है, अनादि है. ‘सर’ अनंत है. ‘सर’ अमर है. संसार भले ही असत्य लगे, मिथ्या लगे, परंतु ‘सर’ अकाट्य सत्य है- वैसे ही- जैसे राम नाम सत्य है.
‘सर’ कहना आधुनिकता है या पिछड़ापन? गांव का पिछड़ा ‘सर’ को नहीं जानता. लिहाजा, ‘सर’ कहना अवश्य ही आधुनिकता है. जो पिछड़े हैं वे अपने आका को ‘सर’ नहीं कहते हैं- पर जो आधुनिक हैं वे ‘सर’ कह-कह कर अपने आकाओं का सिर खा जाते हैं. ‘सर’ कहने कहलाने वालों का कर्तव्य है कि वे इससे मुक्ति पाने का प्रयास कभी नहीं करें. ऑस्ट्रेलिया के लोग तो पिछड़े हैं जिन्होंने ‘सर’ कहने-कहलाने से मुक्ति पा ली है. वहाँ ‘सर’ की बजाए ‘मेट’ बोला जाता है, जिसका अर्थ होता है ‘साथी’. किसी समय वहां के कुछ आधुनिक सांसदों-मंत्रियों तथा अन्य नौकरशाहों को अपने सुरक्षा कर्मियों – ड्राइवरों द्वारा ‘मेट’ पुकारा जाना चुभने लगा तो आदेश जारी कर दिया गया कि ‘मेट’ नहीं ‘सर’ पुकारा जाए. पर इस आदेश के विरूद्ध समूचा ऑस्ट्रेलिया सिर के बल खड़ा हो गया. हंगामा खड़ा हो गया कि क्यों किसी को ‘सर’ कहे? यह तो औपनिवेशिक मानसिकता है, जिसमें ‘सर’ सुनने वाला मालिक है और ‘सर’ कहने वाला ‘दास’. तब झख़ मारकर ऑस्ट्रेलियन सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा. वो तो पिछड़े लोग थे, ऑस्ट्रेलिया के, इसी लिए इस आदेश को वापस ले लिए. देखो, अपना भारत, कितना आधुनिक है, अभी भी ‘सर’ को सर पर पहने हुए शान से चल रहा है.
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रचनाकार - राजकुमार कुम्भज जाने माने कवि-व्यंग्यकार हैं. आपकी कविताएँ तथा व्यंग्य रचनाएँ तमाम प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.
अपने आका को ‘सर’ कहने की प्रथा का आविष्कार अंग्रेज़ों ने किया. हम भारतीयों में अपने आकाओं को ‘सर’ कहने की प्रथा को प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी अंग्रेजों को ही जाता है. अंग्रेज़ों ने हम भारतीयों पर बड़ा उपकार किया, जो वे यहाँ आए, दो सौ बरस तक हमें दास बनाए रखा और अपने आकाओं-चाकरों को ‘सर’ कहने-कहलाने की सीख दे गए. अगर अंग्रेज भारत नहीं आते, हमें दास नहीं बनाते, हम पर कोड़े नहीं बरसाते, तो हम अपने सिर में ‘सर’ कैसे घुसा पाते? अब तो हर तरफ़ ‘सर’ ही ‘सर’ दिखाई देते हैं. ऐसे में कभी किसी को लगता नहीं क्या कि अब ‘सर’ का सर कलम करने का समय आ चुका है.
हमारे प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ऑक्सफ़ोर्ड जाकर अंग्रेजों की प्रशंसा कर आए. हमें भी करना चाहिए. हमारे प्रधान मंत्री हमारे ‘सर’ हैं. उधर हमारे ‘सर’ के भी कई-कई ‘सर’ हैं. जैसे – लालू ‘सर’, पासवान ‘सर’, सुरजीत ‘सर’, येचुरी-करात ‘सर’ वग़ैरा वग़ैरा. ‘सर’ कहते रहने के अनेकानेक लाभ हैं. पाँव में रहने का दासत्व स्वीकारने वाला जूता कभी क्रांतिकारी बन कर किसी ‘सर’ के सिर की कपाल क्रिया कर सकता है. अतः जो महानुभाव अपनी कपाल क्रिया करवाने से बचे रहना चाहते हैं वे अपने आकाओं को अदब से ‘सर’ कहना न छोड़ें. इस मूल मंत्र का ध्यान हमेशा रखें-
सौ बला की एक बला
‘सर’ कहा तो सब भला
और इसी में भाई बाबा-
बोतलदास का भी भला
मनुष्यता का अस्तित्व कहीं हो या न हो, किंतु ‘सर’ का अस्तित्व हर कहीं सहज ही उपलब्ध है. मुंशी मुनीम को ‘सर’ कहता है, मुनीम मालिक को ‘सर’ कहता है, मालिक ग्राहक को ‘सर’ कहता है, ग्राहक बैंक-मैनेजर को ‘सर’ कहता है, बैंक-मैनेजर, म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के दारोग़ा को ‘सर’ कहता है, दारोग़ा अपने बॉस को सर कहता है और बॉस, इलेक्शन में जीते मुंशी को ‘सर’ कहता है. सर कहने का यह चक्र बड़ा लंबा और सर्वव्यापी है. ‘सर’ आदि है, अनादि है. ‘सर’ अनंत है. ‘सर’ अमर है. संसार भले ही असत्य लगे, मिथ्या लगे, परंतु ‘सर’ अकाट्य सत्य है- वैसे ही- जैसे राम नाम सत्य है.
‘सर’ कहना आधुनिकता है या पिछड़ापन? गांव का पिछड़ा ‘सर’ को नहीं जानता. लिहाजा, ‘सर’ कहना अवश्य ही आधुनिकता है. जो पिछड़े हैं वे अपने आका को ‘सर’ नहीं कहते हैं- पर जो आधुनिक हैं वे ‘सर’ कह-कह कर अपने आकाओं का सिर खा जाते हैं. ‘सर’ कहने कहलाने वालों का कर्तव्य है कि वे इससे मुक्ति पाने का प्रयास कभी नहीं करें. ऑस्ट्रेलिया के लोग तो पिछड़े हैं जिन्होंने ‘सर’ कहने-कहलाने से मुक्ति पा ली है. वहाँ ‘सर’ की बजाए ‘मेट’ बोला जाता है, जिसका अर्थ होता है ‘साथी’. किसी समय वहां के कुछ आधुनिक सांसदों-मंत्रियों तथा अन्य नौकरशाहों को अपने सुरक्षा कर्मियों – ड्राइवरों द्वारा ‘मेट’ पुकारा जाना चुभने लगा तो आदेश जारी कर दिया गया कि ‘मेट’ नहीं ‘सर’ पुकारा जाए. पर इस आदेश के विरूद्ध समूचा ऑस्ट्रेलिया सिर के बल खड़ा हो गया. हंगामा खड़ा हो गया कि क्यों किसी को ‘सर’ कहे? यह तो औपनिवेशिक मानसिकता है, जिसमें ‘सर’ सुनने वाला मालिक है और ‘सर’ कहने वाला ‘दास’. तब झख़ मारकर ऑस्ट्रेलियन सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा. वो तो पिछड़े लोग थे, ऑस्ट्रेलिया के, इसी लिए इस आदेश को वापस ले लिए. देखो, अपना भारत, कितना आधुनिक है, अभी भी ‘सर’ को सर पर पहने हुए शान से चल रहा है.
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रचनाकार - राजकुमार कुम्भज जाने माने कवि-व्यंग्यकार हैं. आपकी कविताएँ तथा व्यंग्य रचनाएँ तमाम प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं.
अगर सर शब्द न होता हिन्दुस्तान के चाटुकारों का क्या होता?
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