-स्वामी वाहिद काज़मी **-** दिल्ली से एक पाठक ने किसी आवश्यकतावश पत्र लिखा और इस प्रकार चार-छः पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला रहा. मैं उन्ह...
-स्वामी वाहिद काज़मी
**-**
दिल्ली से एक पाठक ने किसी आवश्यकतावश पत्र लिखा और इस प्रकार चार-छः पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला रहा. मैं उन्हें अपने पत्रों में ‘आदरणीय’ ही लिखता था. एक बार उन्होंने मुझे लिखा- “मेरी उम्र मात्र तीस वर्ष है और मेरे पिताजी छियासठ वर्ष के हैं. आप मुझे ‘प्रिय’ ही संबोधित करेंगे, न कि आदरणीय.”
उनकी आपत्तिनुमा दिक्कत मेरी समझ में आई. ‘आदरणीय’ तो बड़े बूढ़ों, बुज़ुर्गों को लिखना चाहिए, न कि युवाओं को. उनके टोकने के पीछे यही मंशा रही. ‘आदरणीय’ संबोधन के लिए मैं उम्र का हिसाब या लिहाज़ नहीं रखता. मेरे लिए सभी पाठक, इन्सान होने के नाते, आदर योग्य यानी आदरणीय ही हैं. इतना ही नहीं, मैं पते पर ‘सेवा में’ और नाम से पूर्व ‘श्रीयुत’ लिखना भी नहीं भूलता. चाहे पाने वाला चौराहे पर बैठा जूतियाँ गांठता चमार या आपकी-हमारी क्या – सारे समाज की गंदगी ढोने वाला भंगी ही क्यों न हो. अपने जीविकोपार्जन हेतु ऐसे पेशे से जुड़े हैं तो क्या वे आदर-योग्य नहीं रह गए? घृणा या अपमान के योग्य कैसे हो गए?
इसके पीछे किसी भी प्रकार की औपचारिकता या दिखावा नहीं है. बल्कि यही मेरी तालीम व तर्बियत (शिक्षण-प्रशिक्षण) और समझ रही है. अदब, क़ायदा, तमीज़-तहज़ीब आदि तमाम चीज़ें जिस एक शब्द में समाई हुई हैं वह शब्द है- संस्कार. इसे अब धर्म कर्म जैसी पुरानी व रूढ़िग्रस्त चीज़ों से जोड़ दिया जाता है जबकि इसका सीधा सा अर्थ है- ऐसे सभी शिष्टाचार तमीज़, तहज़ीब, अदब, क़ायदे इस हद तक सीखना-सिखाना कि आदत में शुमार हो जाए. अलग से सम्प्रास प्रयोग नहीं करना पड़े.
एक शब्द जिसे आज रोज़मर्रा के जीवन से तो क्या, बोली-बानी के देश से ही मानो निर्वासित कर दिया गया है, वह है- आदाब! इसका सामान्य अर्थ अभिवादन ही है, पर इसकी सीमा यहीँ तक नहीं है. अरबी भाषा का शब्द ‘आदाब’ बहुवचन है ‘अदब’ का. और इसका अर्थ है – अदब, सलीका, तमीज़, शिष्ट आचरण. जब हमने बोलना भी नहीं सीखा था तभी से यह हमें घुट्टी में घोल-घोलकर पिलाया जाने लगा था. खाने-पीने के आदाब, बोलने-बतलाने के आदाब, बैठने-उठने के आदाब, दूसरों से व्यवहार करने यानी हर बात, हर व्यवहार का शिष्टाचार हमारे तमाम क्रिया-कलाप और व्यवहार का कंठहार बन गया.
मूंगफली जैसी मामूली चीज़ चलते-फिरते तो दूर, खड़े-खड़े भी नहीं खा सकते थे. कोई भी चीज़ खाओ तो बैठकर ङी खाओ! खड़े-खड़े खाद्य पदार्थ का निरादर होगा. पानी पियो तो बैठकर पियो, दाहिने हाथ से पियो. किसी को कोई चीज़ दो तो दाहिने हाथ से. लो तो भी दाहिने हाथ से. भोजन फ़र्श पर चटाई पर दस्तरख़्वान बिछाकर, अदब से. भोजन करते समय व्यर्थ की गपशप, ठी-ठी, खी-खी, ज़रा भी नहीं. ये करना भोजन का, अन्न का अपमान जैसा होगा. ये सब हमें सिखाए गए आदाब थे. नतीज़ा ये कि आज भी मैं किसी विवाह समारोह आदि में अव्वल तो जाता ही नहीं हूँ, जाना ही पड़े तो भोजन क़तई नहीं करता. क्योंकि अब खड़े-खड़े तो दूर, खी-खी करते, चलते-फिरते, धकियाते, ठेलते हुए भोजन का रिवाज मुझे सरासर बदतमीज़ी, बेअदबी और अन्न का अपमान प्रतीत होता है.
पिताजी वकील थे. जब कभी वे अपने बैठक में न होकर भीतर हम लोगों के पास होते थे और बाहर कोई आवाज़ देता तो हमें यही सिखाया गया था कि सबसे पहले आगंतुक को माथे तक हाथ उठाकर सलाम करो फिर उसका नाम और काम पूछ कर आओ. हम उसी सांचे में ढले हैं. और, विश्वास मानिए, आप अपने बच्चों को जिस सांचे में आप ढालना चाहेंगे, वे उसी में ढलेंगे. आज बहुतों को यह विश्वास ही नहीं होगा कि हमारी इस अदब-तमीज़ के कारण कुछ लोग तो भावुक हो जाते थे- अरे, जिन्हें लोग किसी गिनती में नहीं गिनते. पास नहीं बिठाते. झिड़ककर, घृणा से बात करते हैं उन्हें ये बच्चे इतने अदब से सलाम करते हैं. धन्य हैं वकील साहब और धन्य हैं उनकी संतानें! कोई निम्नतम श्रेणी का, छोटी से छोटी जाति का व्यक्ति क्यों न हो, पिताजी उसे अपने पास कुर्सी पर ही बैठाते थे. उधर वह संकोच, शर्म, लिहाज से दोहरा हुआ जा रहा है. ज़मीन पर बैठना चाह रहा है, मगर नहीं! पिताजी का आग्रह – बैठो कुर्सी पर.
मेरे बचपन में गांव-भर में ग़ैर औरतें रहती ही नहीं थी. यदि वे हिन्दू होतीं तो कोई जिज्जी होती तो कोई काकी. यह मौसी तो वह मामी. हम उम्र या हमसे छोटी उम्र की बालिकाओं को ही उनके नाम से पुकार सकते थे. मेहतरानियों तक को उनके नाम से नहीं उनके मायके के गांव-शहर के नाम से पुकारा जाता था. काम निपटाकर जब वे पानी पीने या सुस्ताने अंदर ज़नानख़ाने में आतीं तो दुरदुराया नहीं जाता था. उन्हें खाना-पीना भी दिया जाता था. आप सोच सकते हैं कि जब हर जाति-बिरादरी की स्त्रियों के प्रति इतना आदर-भाव बरता जाता था तो पुरुषों के प्रति कितना होता होगा.
घर के हर बच्चे पर तमाम बड़ों की दृष्टि रहती थी कि किसी से बेअदबी से तो पेश नहीं आता. बदतमीज़ी, जुबानदराज़ी, बदकलामी तो नहीं करता. मैं उन्हीं पुराने संस्कारों को पीये हुए जिया हुआ आदमी हूँ. बहुत लोग होंगे जिन्हें ये बातें व्यर्थ के बंधन प्रतीत होंगें. रूढ़ियों जैसे लगेंगे. फ़िज़ूल की पाबंदियों जैसे महसूस होंगे. मगर उन दिनों आदमी को इनसान बनाने का रसायन यही चीज़ें, यही बातें थी. आज आदमी और आदमियत के पैमाने बदल डाले गए तो क्या हुआ. हमारी और आपकी भी जड़ें तो वही हैं. जो सच है, है. कोई माने, न माने इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है. आज जो अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, उद्दंडता आदि हर ओर नज़र आ रही है, यह कोई आसमान से नहीं बरसी है, इसी धरती से उपजी है. क्योंकि हम एडवांस्ड, माडर्न होने की अंधी दौड़ में उन संस्कारों से पल्ला झाड़कर अलग हो गए जो हमारी पहचान थे. कभी इस पर सोचिएगा अवश्य! तहज़ीब की पहली पहचान और क्या है?
*-*-*
रचनाकार - स्वामी वाहिद काज़मी - प्रतिष्ठित, वरिष्ठ साहित्यकार हैं
**-**
दिल्ली से एक पाठक ने किसी आवश्यकतावश पत्र लिखा और इस प्रकार चार-छः पत्रों के आदान-प्रदान का सिलसिला रहा. मैं उन्हें अपने पत्रों में ‘आदरणीय’ ही लिखता था. एक बार उन्होंने मुझे लिखा- “मेरी उम्र मात्र तीस वर्ष है और मेरे पिताजी छियासठ वर्ष के हैं. आप मुझे ‘प्रिय’ ही संबोधित करेंगे, न कि आदरणीय.”
उनकी आपत्तिनुमा दिक्कत मेरी समझ में आई. ‘आदरणीय’ तो बड़े बूढ़ों, बुज़ुर्गों को लिखना चाहिए, न कि युवाओं को. उनके टोकने के पीछे यही मंशा रही. ‘आदरणीय’ संबोधन के लिए मैं उम्र का हिसाब या लिहाज़ नहीं रखता. मेरे लिए सभी पाठक, इन्सान होने के नाते, आदर योग्य यानी आदरणीय ही हैं. इतना ही नहीं, मैं पते पर ‘सेवा में’ और नाम से पूर्व ‘श्रीयुत’ लिखना भी नहीं भूलता. चाहे पाने वाला चौराहे पर बैठा जूतियाँ गांठता चमार या आपकी-हमारी क्या – सारे समाज की गंदगी ढोने वाला भंगी ही क्यों न हो. अपने जीविकोपार्जन हेतु ऐसे पेशे से जुड़े हैं तो क्या वे आदर-योग्य नहीं रह गए? घृणा या अपमान के योग्य कैसे हो गए?
इसके पीछे किसी भी प्रकार की औपचारिकता या दिखावा नहीं है. बल्कि यही मेरी तालीम व तर्बियत (शिक्षण-प्रशिक्षण) और समझ रही है. अदब, क़ायदा, तमीज़-तहज़ीब आदि तमाम चीज़ें जिस एक शब्द में समाई हुई हैं वह शब्द है- संस्कार. इसे अब धर्म कर्म जैसी पुरानी व रूढ़िग्रस्त चीज़ों से जोड़ दिया जाता है जबकि इसका सीधा सा अर्थ है- ऐसे सभी शिष्टाचार तमीज़, तहज़ीब, अदब, क़ायदे इस हद तक सीखना-सिखाना कि आदत में शुमार हो जाए. अलग से सम्प्रास प्रयोग नहीं करना पड़े.
एक शब्द जिसे आज रोज़मर्रा के जीवन से तो क्या, बोली-बानी के देश से ही मानो निर्वासित कर दिया गया है, वह है- आदाब! इसका सामान्य अर्थ अभिवादन ही है, पर इसकी सीमा यहीँ तक नहीं है. अरबी भाषा का शब्द ‘आदाब’ बहुवचन है ‘अदब’ का. और इसका अर्थ है – अदब, सलीका, तमीज़, शिष्ट आचरण. जब हमने बोलना भी नहीं सीखा था तभी से यह हमें घुट्टी में घोल-घोलकर पिलाया जाने लगा था. खाने-पीने के आदाब, बोलने-बतलाने के आदाब, बैठने-उठने के आदाब, दूसरों से व्यवहार करने यानी हर बात, हर व्यवहार का शिष्टाचार हमारे तमाम क्रिया-कलाप और व्यवहार का कंठहार बन गया.
मूंगफली जैसी मामूली चीज़ चलते-फिरते तो दूर, खड़े-खड़े भी नहीं खा सकते थे. कोई भी चीज़ खाओ तो बैठकर ङी खाओ! खड़े-खड़े खाद्य पदार्थ का निरादर होगा. पानी पियो तो बैठकर पियो, दाहिने हाथ से पियो. किसी को कोई चीज़ दो तो दाहिने हाथ से. लो तो भी दाहिने हाथ से. भोजन फ़र्श पर चटाई पर दस्तरख़्वान बिछाकर, अदब से. भोजन करते समय व्यर्थ की गपशप, ठी-ठी, खी-खी, ज़रा भी नहीं. ये करना भोजन का, अन्न का अपमान जैसा होगा. ये सब हमें सिखाए गए आदाब थे. नतीज़ा ये कि आज भी मैं किसी विवाह समारोह आदि में अव्वल तो जाता ही नहीं हूँ, जाना ही पड़े तो भोजन क़तई नहीं करता. क्योंकि अब खड़े-खड़े तो दूर, खी-खी करते, चलते-फिरते, धकियाते, ठेलते हुए भोजन का रिवाज मुझे सरासर बदतमीज़ी, बेअदबी और अन्न का अपमान प्रतीत होता है.
पिताजी वकील थे. जब कभी वे अपने बैठक में न होकर भीतर हम लोगों के पास होते थे और बाहर कोई आवाज़ देता तो हमें यही सिखाया गया था कि सबसे पहले आगंतुक को माथे तक हाथ उठाकर सलाम करो फिर उसका नाम और काम पूछ कर आओ. हम उसी सांचे में ढले हैं. और, विश्वास मानिए, आप अपने बच्चों को जिस सांचे में आप ढालना चाहेंगे, वे उसी में ढलेंगे. आज बहुतों को यह विश्वास ही नहीं होगा कि हमारी इस अदब-तमीज़ के कारण कुछ लोग तो भावुक हो जाते थे- अरे, जिन्हें लोग किसी गिनती में नहीं गिनते. पास नहीं बिठाते. झिड़ककर, घृणा से बात करते हैं उन्हें ये बच्चे इतने अदब से सलाम करते हैं. धन्य हैं वकील साहब और धन्य हैं उनकी संतानें! कोई निम्नतम श्रेणी का, छोटी से छोटी जाति का व्यक्ति क्यों न हो, पिताजी उसे अपने पास कुर्सी पर ही बैठाते थे. उधर वह संकोच, शर्म, लिहाज से दोहरा हुआ जा रहा है. ज़मीन पर बैठना चाह रहा है, मगर नहीं! पिताजी का आग्रह – बैठो कुर्सी पर.
मेरे बचपन में गांव-भर में ग़ैर औरतें रहती ही नहीं थी. यदि वे हिन्दू होतीं तो कोई जिज्जी होती तो कोई काकी. यह मौसी तो वह मामी. हम उम्र या हमसे छोटी उम्र की बालिकाओं को ही उनके नाम से पुकार सकते थे. मेहतरानियों तक को उनके नाम से नहीं उनके मायके के गांव-शहर के नाम से पुकारा जाता था. काम निपटाकर जब वे पानी पीने या सुस्ताने अंदर ज़नानख़ाने में आतीं तो दुरदुराया नहीं जाता था. उन्हें खाना-पीना भी दिया जाता था. आप सोच सकते हैं कि जब हर जाति-बिरादरी की स्त्रियों के प्रति इतना आदर-भाव बरता जाता था तो पुरुषों के प्रति कितना होता होगा.
घर के हर बच्चे पर तमाम बड़ों की दृष्टि रहती थी कि किसी से बेअदबी से तो पेश नहीं आता. बदतमीज़ी, जुबानदराज़ी, बदकलामी तो नहीं करता. मैं उन्हीं पुराने संस्कारों को पीये हुए जिया हुआ आदमी हूँ. बहुत लोग होंगे जिन्हें ये बातें व्यर्थ के बंधन प्रतीत होंगें. रूढ़ियों जैसे लगेंगे. फ़िज़ूल की पाबंदियों जैसे महसूस होंगे. मगर उन दिनों आदमी को इनसान बनाने का रसायन यही चीज़ें, यही बातें थी. आज आदमी और आदमियत के पैमाने बदल डाले गए तो क्या हुआ. हमारी और आपकी भी जड़ें तो वही हैं. जो सच है, है. कोई माने, न माने इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है. आज जो अनुशासनहीनता, उच्छृंखलता, उद्दंडता आदि हर ओर नज़र आ रही है, यह कोई आसमान से नहीं बरसी है, इसी धरती से उपजी है. क्योंकि हम एडवांस्ड, माडर्न होने की अंधी दौड़ में उन संस्कारों से पल्ला झाड़कर अलग हो गए जो हमारी पहचान थे. कभी इस पर सोचिएगा अवश्य! तहज़ीब की पहली पहचान और क्या है?
*-*-*
रचनाकार - स्वामी वाहिद काज़मी - प्रतिष्ठित, वरिष्ठ साहित्यकार हैं
COMMENTS