आलेखः कार्य का आनंद *-*-* - विक्रम दत्ता *-*-* महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी करते-न-करते छात्र-छात्राओं के सामने उचित रोजगार चुनने का संकट खड़ा ...
आलेखः कार्य का आनंद
*-*-*
- विक्रम दत्ता
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महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी करते-न-करते छात्र-छात्राओं के सामने उचित रोजगार चुनने का संकट खड़ा हो जाता है. लोग कहते हैं कि आज के समय में रोजगार नहीं है. परंतु यह एक सत्य है कि रोजगार पहले की अपेक्षा आज के समय में कहीं ज्यादा हैं. हाँ, ये हो सकता है कि सरकारी नौकरियों के लिए अवसर कुछ कम हो गए हों, परंतु उससे कहीं ज्यादा संख्या में - तमाम निजी क्षेत्रों में चाहे वे बैंकिंग हों या बीमा और निर्माण हो या टेलिकॉम सेवाएँ – रोजगार के अवसर हाल ही के कुछ वर्षों में पैदा हुए हैं- और यह स्थिति आने वाले कुछ वर्षों तक टिकी रहनी है. हां, रोजगार के इन अवसरों को हथियाने के लिए आपको भीड़ में अपनी अलग पहचान बनानी होगी. प्रतियोगिता के इस दौर में आपको अपने प्रतिद्वंद्वियों के बीच पहले के दस-बीस स्थानों में मुकाम बनाना होगा. समस्या यहीं आती है. लोग पीछे रह कर उम्मीद करते हैं कि उन्हें रोजगार मिले – ऐसा कभी न हुआ है ओर न होने वाला है.
अब सवाल यह है कि रोजगार कैसा चुना जाए. रोजगार उस क्षेत्र का चुनें, ऐसा रोजगार चुनें जिसमें आपको मज़ा आए. जैसे कि, अगर आपकी कोई हॉबी है – और आप उस हॉबी को अपना रोजगार बना लेते हैं – तब आप अपने रोजगार के हर क्षण का, काम के हर आयाम का मजा लेंगे. यह तो सोने में सुहागा जैसा होगा.
मेरा अपना ही उदाहरण है. मेरे सामने एयर फोर्स में ग्राउंड ड्यूटी पायलट ऑफ़ीसर तथा महाविद्यालयीन लेक्चरर में से एक का चुनाव रोजगार के रूप में करने का विकल्प था. जहाँ एक ओर हर नौजवान की तरह मैं भी एडवेंचरस लाइफ युक्त सेना के पायलट के रूप में उस बेहतरीन रोजगार के प्रति आकर्षित था तो दूसरी ओर वह सामान्य सा रोजगार, एडवेंचरहीन, ग्लैमरहीन रोजगार – लेक्चरर का था. मैं प्रारंभ से वाचाल था, बोलने-बताने में मुझे मजा आता था, विद्यालय-महाविद्यालयों के वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में मेरा कोई सानी नहीं था – ये सब चीज़ें मुझे लेक्चरर के उस रोजगार के लिए आकर्षित कर रही थीं, जो मेरी हॉबी थी. मैं भयंकर पाठक था, लिहाजा किसी भी विषय पर किसी भी समय घंटों भाषण दे सकता था. भले ही सेना के पायलट का रोजगार एडवेंचर युक्त, ग्लैमर युक्त था, परंतु कॉकपिट पर बैठ कर घंटों खामोश बैठकर युद्धक विमान चलाने में मुझे कोई मजा नहीं आने वाला था यह तय था. जबकि लेक्चरर के रुप में मुझे हर क्षण मज़ा आने वाला था यह तय था. मैंने उस समय का सबसे कठिन निर्णय लिया - जो दूसरों की नज़र में निहायत बेवकूफ़ाना था – लेक्चरर की नौकरी करने का. आज मुझे अपने उस निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है. मैंने अपने रोजगार के हर क्षण का आनंद लिया है.
आप अपने कार्य में आनंद तो लें ही, हर क्षण सीखने के लिए भी तत्पर रहें. मैंने शुरूआती दिनों में कार्य का वह क्षेत्र चुना जो मुझसे अनजाना था. पिछड़ा इलाका था – डाकुओं का क्षेत्र था. कक्षाओं के भीतर से तमंचा अड़ाकर छात्रों को अपहृत कर लिया जाता था. खुले आम बंदूक की नोक पर नक़ल करने का चलन था. मैंने सीखा कि आप ऐसी जगह रह कर अकेले ऐसे भ्रष्ट तंत्र को नहीं बदल सकते. परंतु ऐसी जगहों पर भी गंभीर विद्यार्थी मुझे मिले जो सचमुच शिक्षा को अपनाना चाहते थे. मैंने उनकी सहायता कर उन्हें उनके सपने को साकार करने में संबल बन कर कम से कम ऐसे भ्रष्ट तंत्र को अंगूठा तो दिखा ही दिया. जिन्होंने नकल किए, उन्हें अपने गले में टांगने डिग्री तो भले ही मिली, उनका कोई वास्तविक इस्तेमाल वे नहीं कर सकते.
एक और बात कही जाती है – आमतौर पर शिक्षक और विद्यार्थी का स्तर गिरता जा रहा है. अनुपात में कहीं कमी बेसी हो सकती है, परंतु आज भी लगनशील विद्यार्थी हैं जिन्हें अपनी पढ़ाई के अलावा कुछ सूझता नहीं है और अभी भी ऐसे संस्कारवान् शिक्षक हैं जो डॉ. राधाकृष्णन के पदचिह्नों का पूरा अनुसरण करते हैं. एक उदाहरण है- मेरे एक शिक्षक मित्र ने एक विद्यार्थी को नकल करते पकड़ा. विद्यार्थी को यह नागवार तो गुजरा ही, उसने मारपीट और गालीगलौज भी की लिहाजा प्रकरण पुलिस में चला गया. न्यायालय में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने शिक्षक मित्र से बयान देने को कहा कि विद्यार्थी ने कौन सी गाली दी थी. उस मित्र के मुँह से बयान के लिए, अपराध साबित करने के लिए भी गालियाँ नहीं निकली. वह गंदे शब्द अपने मुँह से निकाल ही नहीं सका. उसके संस्कार ने उसे रोक दिया था – कहने का सार यह कि सारा समाज यहीँ है, शिक्षक भी यहीं से हैं और विद्यार्थी भी. अच्छे बुरे सभी में हो सकते हैं. इसके उलट उदाहरण भी हैं – शिक्षक जिन्हें ट्यूशनों और दूसरे काम धंधों से इतनी फ़ुरसत नहीं मिलती कि वे सही तरीके से अपनी कक्षाएं ले सकें.
लोगों की भावनाएँ समझें और उनकी छोटी छोटी समस्याओं का समाधान आप अगर कर दें तो लोगों में काम के प्रति समर्पण की भावना पैदा होते देर नहीं लगेगी. एक उदाहरण है प्रिंसिपल के रूप में मैं एक ऐसे महाविद्यालय में पदस्थ हुआ जहाँ कक्षाएँ नहीं लगती थीं. विद्यार्थी कक्षाओं में नहीं आते थे. महाविद्यालय भवन अन्य शासकीय योजनाओं की तरह अव्यावहारिक रूप से शहर से बहुत बाहर वीराने में बना था जिससे लोगों को तमाम तरह की समस्याएँ आती थीं. पर ये समस्याएँ छोटी-छोटी ही थीं. जिन्हें हल करने में कोई खास मेहनत नहीं करनी थी और जिसके नतीजे अच्छे आ सकते थे. जैसे, पीरियड के घंटों को व्यवहारिक बना कर 10 बजे से 3 बजे तक किया गया ताकि छात्र-शिक्षकों को आने जाने में परेशानी न हो. पहले यह अव्यावहारिक रूप से सुबह आठ बजे था. जाहिर है, इतनी सुबह आवागमन की सुविधा प्राप्त करने में प्रायः सभी को कठिनाइयाँ आती थीं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए व्यवस्था की गई. महाविद्यालय के माहौल को हरा-भरा साफ-सुथरा तो बनाया ही गया, रोजगार संबंधी सूचनाओं का एक हब भी बनाया गया. छात्रों को महाविद्यालय से फिर से जुड़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. कुछ महीनों में ही कायाकल्प हो गया. विद्यार्थियों को पढ़ने में मज़ा आने लगा तो शिक्षकों को पढ़ाने में.
काम को बोझिल बनाने से बचें. किसी भी काम को करने के कई तरीके हो सकते हैं. काम करने का सबसे आसान तरीका होता है नियमबद्ध काम करना जो आपके पुरखे करते चले आ रहे होते हैं – क्योंकि काम करने का उसका रास्ता, उसका जरिया सबको पता होता है. परंतु अकसर यही सबसे बेकार और बोरियत भरा तरीका होता है. बोझिल तरीका होता है. टाइप्ड तरीका होता है. काम के वैकल्पिक, मजेदार तरीकों के बारे में सोचें. थोड़े लंबे तरीके से जाएँ – हो सकता है – आपको थोड़ा मजा आए. एक उदाहरण है – एक बच्चा अपने पिता जी से जिद कर रहा था कि पार्क घुमाने ले चलो. पिता को कुछ काम था और वह उस वक्त नहीं जा सकता था. उसने बच्चे को उलझाने के लिए एक पज़ल दिया – पृथ्वी का नक्शा था – उसके पचीस-पचास टुकड़े किए और बच्चे से कहा- इसको पूरा फिर से जोड़ कर सही नक्शा बनाकर ले आओ तो फिर चलेंगे. पिता ने सोचा कि बच्चा तो गया काम से दिन भर के लिए. परंतु अभी आधा घंटा बीते ही नहीं थे और बच्चा हाजिर – हल किए सवाल के साथ. नक्शा तैयार. पिता अचरज में. पूछा यह कैसे किया?
बालक ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया – मैंने शरीर को जमा लिया, तो नक्शा भी अपने आप जम गया. पिता ने पूछा – शरीर ? क्या मतलब? बच्चे ने पृथ्वी का नक्शा पलट दिया. पीछे मनुष्य के शरीर का नक्शा भी छपा हुआ था. बच्चे ने शरीर के हिस्से जमा दिए थे. नक्शा अपने आप जम गया था.
निष्कर्ष यह कि आप अपने आप को जमाएँ – सारा जहान आपके साथ ही खुद-ब-खुद जम जाएगा.
विक्रम दत्ता – जाने माने शिक्षाविद् हैं.
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- विक्रम दत्ता
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महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी करते-न-करते छात्र-छात्राओं के सामने उचित रोजगार चुनने का संकट खड़ा हो जाता है. लोग कहते हैं कि आज के समय में रोजगार नहीं है. परंतु यह एक सत्य है कि रोजगार पहले की अपेक्षा आज के समय में कहीं ज्यादा हैं. हाँ, ये हो सकता है कि सरकारी नौकरियों के लिए अवसर कुछ कम हो गए हों, परंतु उससे कहीं ज्यादा संख्या में - तमाम निजी क्षेत्रों में चाहे वे बैंकिंग हों या बीमा और निर्माण हो या टेलिकॉम सेवाएँ – रोजगार के अवसर हाल ही के कुछ वर्षों में पैदा हुए हैं- और यह स्थिति आने वाले कुछ वर्षों तक टिकी रहनी है. हां, रोजगार के इन अवसरों को हथियाने के लिए आपको भीड़ में अपनी अलग पहचान बनानी होगी. प्रतियोगिता के इस दौर में आपको अपने प्रतिद्वंद्वियों के बीच पहले के दस-बीस स्थानों में मुकाम बनाना होगा. समस्या यहीं आती है. लोग पीछे रह कर उम्मीद करते हैं कि उन्हें रोजगार मिले – ऐसा कभी न हुआ है ओर न होने वाला है.
अब सवाल यह है कि रोजगार कैसा चुना जाए. रोजगार उस क्षेत्र का चुनें, ऐसा रोजगार चुनें जिसमें आपको मज़ा आए. जैसे कि, अगर आपकी कोई हॉबी है – और आप उस हॉबी को अपना रोजगार बना लेते हैं – तब आप अपने रोजगार के हर क्षण का, काम के हर आयाम का मजा लेंगे. यह तो सोने में सुहागा जैसा होगा.
मेरा अपना ही उदाहरण है. मेरे सामने एयर फोर्स में ग्राउंड ड्यूटी पायलट ऑफ़ीसर तथा महाविद्यालयीन लेक्चरर में से एक का चुनाव रोजगार के रूप में करने का विकल्प था. जहाँ एक ओर हर नौजवान की तरह मैं भी एडवेंचरस लाइफ युक्त सेना के पायलट के रूप में उस बेहतरीन रोजगार के प्रति आकर्षित था तो दूसरी ओर वह सामान्य सा रोजगार, एडवेंचरहीन, ग्लैमरहीन रोजगार – लेक्चरर का था. मैं प्रारंभ से वाचाल था, बोलने-बताने में मुझे मजा आता था, विद्यालय-महाविद्यालयों के वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में मेरा कोई सानी नहीं था – ये सब चीज़ें मुझे लेक्चरर के उस रोजगार के लिए आकर्षित कर रही थीं, जो मेरी हॉबी थी. मैं भयंकर पाठक था, लिहाजा किसी भी विषय पर किसी भी समय घंटों भाषण दे सकता था. भले ही सेना के पायलट का रोजगार एडवेंचर युक्त, ग्लैमर युक्त था, परंतु कॉकपिट पर बैठ कर घंटों खामोश बैठकर युद्धक विमान चलाने में मुझे कोई मजा नहीं आने वाला था यह तय था. जबकि लेक्चरर के रुप में मुझे हर क्षण मज़ा आने वाला था यह तय था. मैंने उस समय का सबसे कठिन निर्णय लिया - जो दूसरों की नज़र में निहायत बेवकूफ़ाना था – लेक्चरर की नौकरी करने का. आज मुझे अपने उस निर्णय पर कोई पछतावा नहीं है. मैंने अपने रोजगार के हर क्षण का आनंद लिया है.
आप अपने कार्य में आनंद तो लें ही, हर क्षण सीखने के लिए भी तत्पर रहें. मैंने शुरूआती दिनों में कार्य का वह क्षेत्र चुना जो मुझसे अनजाना था. पिछड़ा इलाका था – डाकुओं का क्षेत्र था. कक्षाओं के भीतर से तमंचा अड़ाकर छात्रों को अपहृत कर लिया जाता था. खुले आम बंदूक की नोक पर नक़ल करने का चलन था. मैंने सीखा कि आप ऐसी जगह रह कर अकेले ऐसे भ्रष्ट तंत्र को नहीं बदल सकते. परंतु ऐसी जगहों पर भी गंभीर विद्यार्थी मुझे मिले जो सचमुच शिक्षा को अपनाना चाहते थे. मैंने उनकी सहायता कर उन्हें उनके सपने को साकार करने में संबल बन कर कम से कम ऐसे भ्रष्ट तंत्र को अंगूठा तो दिखा ही दिया. जिन्होंने नकल किए, उन्हें अपने गले में टांगने डिग्री तो भले ही मिली, उनका कोई वास्तविक इस्तेमाल वे नहीं कर सकते.
एक और बात कही जाती है – आमतौर पर शिक्षक और विद्यार्थी का स्तर गिरता जा रहा है. अनुपात में कहीं कमी बेसी हो सकती है, परंतु आज भी लगनशील विद्यार्थी हैं जिन्हें अपनी पढ़ाई के अलावा कुछ सूझता नहीं है और अभी भी ऐसे संस्कारवान् शिक्षक हैं जो डॉ. राधाकृष्णन के पदचिह्नों का पूरा अनुसरण करते हैं. एक उदाहरण है- मेरे एक शिक्षक मित्र ने एक विद्यार्थी को नकल करते पकड़ा. विद्यार्थी को यह नागवार तो गुजरा ही, उसने मारपीट और गालीगलौज भी की लिहाजा प्रकरण पुलिस में चला गया. न्यायालय में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने शिक्षक मित्र से बयान देने को कहा कि विद्यार्थी ने कौन सी गाली दी थी. उस मित्र के मुँह से बयान के लिए, अपराध साबित करने के लिए भी गालियाँ नहीं निकली. वह गंदे शब्द अपने मुँह से निकाल ही नहीं सका. उसके संस्कार ने उसे रोक दिया था – कहने का सार यह कि सारा समाज यहीँ है, शिक्षक भी यहीं से हैं और विद्यार्थी भी. अच्छे बुरे सभी में हो सकते हैं. इसके उलट उदाहरण भी हैं – शिक्षक जिन्हें ट्यूशनों और दूसरे काम धंधों से इतनी फ़ुरसत नहीं मिलती कि वे सही तरीके से अपनी कक्षाएं ले सकें.
लोगों की भावनाएँ समझें और उनकी छोटी छोटी समस्याओं का समाधान आप अगर कर दें तो लोगों में काम के प्रति समर्पण की भावना पैदा होते देर नहीं लगेगी. एक उदाहरण है प्रिंसिपल के रूप में मैं एक ऐसे महाविद्यालय में पदस्थ हुआ जहाँ कक्षाएँ नहीं लगती थीं. विद्यार्थी कक्षाओं में नहीं आते थे. महाविद्यालय भवन अन्य शासकीय योजनाओं की तरह अव्यावहारिक रूप से शहर से बहुत बाहर वीराने में बना था जिससे लोगों को तमाम तरह की समस्याएँ आती थीं. पर ये समस्याएँ छोटी-छोटी ही थीं. जिन्हें हल करने में कोई खास मेहनत नहीं करनी थी और जिसके नतीजे अच्छे आ सकते थे. जैसे, पीरियड के घंटों को व्यवहारिक बना कर 10 बजे से 3 बजे तक किया गया ताकि छात्र-शिक्षकों को आने जाने में परेशानी न हो. पहले यह अव्यावहारिक रूप से सुबह आठ बजे था. जाहिर है, इतनी सुबह आवागमन की सुविधा प्राप्त करने में प्रायः सभी को कठिनाइयाँ आती थीं. पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए व्यवस्था की गई. महाविद्यालय के माहौल को हरा-भरा साफ-सुथरा तो बनाया ही गया, रोजगार संबंधी सूचनाओं का एक हब भी बनाया गया. छात्रों को महाविद्यालय से फिर से जुड़ने में ज्यादा समय नहीं लगा. कुछ महीनों में ही कायाकल्प हो गया. विद्यार्थियों को पढ़ने में मज़ा आने लगा तो शिक्षकों को पढ़ाने में.
काम को बोझिल बनाने से बचें. किसी भी काम को करने के कई तरीके हो सकते हैं. काम करने का सबसे आसान तरीका होता है नियमबद्ध काम करना जो आपके पुरखे करते चले आ रहे होते हैं – क्योंकि काम करने का उसका रास्ता, उसका जरिया सबको पता होता है. परंतु अकसर यही सबसे बेकार और बोरियत भरा तरीका होता है. बोझिल तरीका होता है. टाइप्ड तरीका होता है. काम के वैकल्पिक, मजेदार तरीकों के बारे में सोचें. थोड़े लंबे तरीके से जाएँ – हो सकता है – आपको थोड़ा मजा आए. एक उदाहरण है – एक बच्चा अपने पिता जी से जिद कर रहा था कि पार्क घुमाने ले चलो. पिता को कुछ काम था और वह उस वक्त नहीं जा सकता था. उसने बच्चे को उलझाने के लिए एक पज़ल दिया – पृथ्वी का नक्शा था – उसके पचीस-पचास टुकड़े किए और बच्चे से कहा- इसको पूरा फिर से जोड़ कर सही नक्शा बनाकर ले आओ तो फिर चलेंगे. पिता ने सोचा कि बच्चा तो गया काम से दिन भर के लिए. परंतु अभी आधा घंटा बीते ही नहीं थे और बच्चा हाजिर – हल किए सवाल के साथ. नक्शा तैयार. पिता अचरज में. पूछा यह कैसे किया?
बालक ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया – मैंने शरीर को जमा लिया, तो नक्शा भी अपने आप जम गया. पिता ने पूछा – शरीर ? क्या मतलब? बच्चे ने पृथ्वी का नक्शा पलट दिया. पीछे मनुष्य के शरीर का नक्शा भी छपा हुआ था. बच्चे ने शरीर के हिस्से जमा दिए थे. नक्शा अपने आप जम गया था.
निष्कर्ष यह कि आप अपने आप को जमाएँ – सारा जहान आपके साथ ही खुद-ब-खुद जम जाएगा.
विक्रम दत्ता – जाने माने शिक्षाविद् हैं.
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