-चित्रा मुद्गल वह जाग रहा है. तड़के ही उसकी नींद खुल जाती है. रात चाहे जितनी देरी से घर लौटा हो, चाहे जितनी देरी तक पढ़ता रहा हो, सुबह अपने...
-चित्रा मुद्गल
वह जाग रहा है. तड़के ही उसकी नींद खुल जाती है. रात चाहे जितनी देरी से घर लौटा हो, चाहे जितनी देरी तक पढ़ता रहा हो, सुबह अपने आप जाग जाने की उसकी आदत छूटी नहीं. उसे आश्चर्य होता है. कुछ आदतें और नियम बदले हुए समय के साथ बहुरूपिए-से अपना चोला बदल लेते हैं. मगर कुछ आदतें किसी भी असर से बेअसर मरे बच्चे को छाती से चिपकाए बंदरिया हो उठती हैं. आज भी, जैसे ही दूध वाले की घंटी बजी, वह जाग गया. लेकिन दूध लेने के लिए नहीं उठा. उठती मां ही है. मां के उठने के कुछेक मिनटों उपरांत ‘मिल्क कुकर’ की कर्ण भेदी सीटी बजती है. चाय चढ़ती है. मसालेदार चाय. चाहे गरमी हो या सरदी. मां बगैर मसाले की चाय नहीं बनातीं. मसालेदार चाय की खुशबू पूरे घर में फैल जाती. घर में सुबह हो जाती. वह अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े आंखें कुहनियों से ढके सुबह को होते देखता. सुनता. सुबह बड़ी हड़बड़ी में होती. वक्त जो बहुत कम होता है उसके पास...
उसे पता होता है कि अब आगे क्या होगा और ठीक उसके अगले ‘अब’ में...
अनु को उठाया जाएगा, ‘उठ न गुड़िया! उठ न ऽ ऽ !’
यह जो उसके बगल वाले पलंग पर चौंतेरे-सी पाँच फीट चार इंच की लड़की औंधी पड़ी हुई है (लड़की कहना मजबूरी है...) वह मां को गुड़िया लगती है. गुड़िया ‘ऊं ऊं’ के नखरों के साथ उलटी पलटी होती आहिस्ता से उकड़ूं उठ चाय का प्याला पकड़ लेती. ‘गुड़िया’ बगैर कुल्ला किए चाय पीती. जबकि रात-भर मुंह खोलकर सोती और तकिए पर ढेरों बदबूदार थूक उगलती. अभी कोई पास बैठ जाए तो मुंह से उठता बदबू का भभूका उसे टिकने न दे. मगर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह जमुहाइयां भरती, बदबू उड़ाती, चाय के घूँट गटकती, आलस तोड़ रही होती. मां अब कुछ नहीं कहतीं. पहले सख्ती इस कदर थी कि बगैर ब्रुश किए चाय मिलती ही नहीं थी. वह अब भी बगैर ब्रुश किए चाय नहीं पी सकता.
मनुहार चाय के प्याले के साथ बाबूजी के कमरे की ओर मुड़ जाती. दोनों मिलकर चाय पीते. पहले सब साथ बैठकर चाय पिया करते थे. बाबू जी की आदत थी कि उनके हाथ में चाय का प्याला और अख़बार आते ही दोनों बच्चों को भी उनके पास बैठे हुए होने चाहिए. देर से जागना उन्हें और मां को दलिद्दर न्यौतने जैसा लगता. (अब उसके पड़े रहने से नहीं लगता) चाय के दौर तक का आलम बड़ा शांत होता. फिर मां की ‘कमेंटरी’ शुरू हो जाती. सुर की मिठास अनायास कर्कश हो उठती, ‘अब और चाय नहीं मिलेगी... अख़बार छोड़ो जी... गीजर से पानी निकाल दिया है... फटाफट नहा के निकलो.’ ‘अनु पहले अपने बाबूजी को नहा लेने दे... तुझे बाल धोने है न... तू देर लगाएगी.’ ‘जी ये कल की पैंट चलेगी न! जेबों पर हलका सा मैल आ गया है’ ‘अनु, टिफिन रख लिया है बैग में... सब्जी आज कैंटीन से मंगवा लेना, करेले तू खाती नहीं, आलू हैं नहीं...’ ‘और हां ‘बीकासूल’ के कैप्सूल ले रही है न! लापरवाही नहीं बरतते’ (फिर गुड़िया...) ‘यह दूध क्यों छोड़ जा रही है? देर-सवेर का बहाना छोड़... खतम कर दूध!’
अनु ने धाड़ से अलमारी खोली. सूं-सूं इंटीमेट (विदेशी सुगंध) की बोतल से अपने को तर किया. अपने को ही नहीं पूरे कमरे को.
सजती ऐसे है जैसे दफ़तर न जाकर किसी सौन्दर्य प्रतिस्पर्धा में जा रही हो. वैसे भी आजकल सजने का शौक उसे कुछ ज्यादा ही हो गया. जिस दिन विदेशी सुगंध से देह को नहलाया जाता है, उसके कान खड़े हो जाते हैं. अवश्य ही बिहारी की नायिका कहीं किसी के साथ...
दरअसल, इस मामले में मां और बाबूजी अतिरिक्त उदार हैं. खुली ढील दे रखी है उन्होंने. साफ कहते रहते हैं, ‘हमारे दिन और थे. तुम लोगों को जब जिस वक्त जो करना हो, बस हमें बता भर देना. तुम्हारा अच्छा-बुरा तुम्हारे साथ. हां, अगर हमारे मन मुताबिक चलना हो तो पहले बता देना. हम लड़की देखेंगे, लड़का देखेंगे.’
मां और बाबूजी के विषय में वह कभी एक राय कायम नहीं कर पाता. सूप में राई-सा ढनंगता रहता. दोनों उसे कभी अपनी पीढ़ी के हिमायती और आधुनिक भाव-बोध के संवाहक प्रतीत होते, कभी चतुर सुजान. कौन चप्पलें घिसें संस्कारों और खानदानों के नखरे झेलते.
आलमारी भड़ाक् से बंद की.
उसके जी में आया कि उठ कर तड़ाक से एक थप्पड़ वह उसके गाल पर जमा दे. कोई तरीका है यह आलमारी खोलने और बंद करने का? वह सो रहा है और वह भड़ाम-भुड़ूम किए कान फोड़े डाल रही है. कुछ कहने से कोई फ़ायदा नहीं. जबसे नौकरी पाई है, जबान बेलगाम हो गई है. पलटकर बेइज्जती करने पर उतर आती है. वह बड़ा है यह लिहाज छोड़ छाड़. पहले मां सुनती तो बीच-बचाव करते हुए उसे डपट देती थी कि बड़े के मुंह मत लगाकर. ...लेकिन अब पासे बदल गए. उलाहना देने पर उलटा मां उसे ही गम खाने की पट्टी पढ़ाने लगतीं.
पिछले महीने घर पर मेहता कई दफे आए. एकाध बार अनु को छोड़ने के बहाने. कुछेक दफा अकेले. उसे बात नहीं जमी. विशेषतः उसका तलाकशुदा होना. क्यों नहीं पटी बीवी से? बातचीत में भी स्पष्ट नहीं लगे मेहता. लेकिन मां ने उसकी आपत्तियों पर गौर करने के बजाय मखौल उड़ाया कि बेकारी में उसका दिमाग कुंठित हो गया है. वह सही-गलत में फ़र्क़ नहीं कर पाता. बातों का बतंगड़ बनाने की जरूरत नहीं. वे न अंधे हें, न अक्ल के कंगले. बेहतर होगा कि वह मुंह बंद करके बैठे. दुनिया-जहान कुछ कहे न कहे, घर के भेदी लंका ढहाने में जुटे हुए हैं.
अनु के ‘पेंसिल हिल’ के सैंडलों की ‘टिक-टिक’ दरवाजे की ओर बढ़ रही. लॉक पूरा घूमता भी नहीं कि मां की चेतवानी उछलती है, ‘संभल के जाना’ – जैसे वह दूध पीती बच्ची हो. अपनी हिफ़ाज़त स्वयं कर पाने में असमर्थ. इधर वह लगातार महसूस कर रहा है कि जबसे अनु को ‘ओबराय’ में ‘रिशेप्सनिस्ट’ की आकर्षक नौकरी मिली है, मां की खैरख्वाही उसके लिए कुछ ज्यादा ही चिंतित हो उठी है. उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता कि ऐसे निरर्थक बोझिल दिनों में उसे उनके ममत्व की कितनी जरूरत है. विचित्र समझ है मां की. अधाए पेट को रोटी खिला रही, जबकि जरूरत उसकी कल्लाती आंतों को वाजिब खुराक देने की है.
कितना उपेक्षित हो गया है वह.
उसे लगता है कि वह उठ कर बैठ जाए. कब तक और कितने दिनों तक नकली नींद का नाटक किए हुए पड़े-पड़े उनकी व्यस्तता से खुंदक खाता रहे. इसलिए कि उसे कहीं जाना नहीं? जल्दी उठ कर करेगा क्या? सारी गहमागहमी में एक कप चाय का भी डौल नहीं होता उसके लिए. अख़बार बाबूजी और अनु के हाथों में वालीबाल खेलता रहता. चलो, अख़बार खाली मिलता तब भी उसके जल्दी उठने की गुंजाइश बनती. कुछ तो होता जो सिर्फ उसके लिए खाली होता और उसके खालीपने को भरता.
उसके भूले-भटके जल्दी उठ जाने में मां को असुविधा होने लगती, ‘यह घंटे-भर तक पाखाने में घुसा बैठा क्या करता रहता है?... बाकी लोगों को नहीं गलती? ...तू नहाने घुस गया तो अनु कब नहाएगी? तुझे कौन दफ़्तर जाना है जो सुबह उठ कर बैठ जाता है छाती पर मोंगरी कूटने? ...तेरी चाकरी करूं या इन लोगों का ताम-झाम निबटाऊँ? चाय, चाय, चाय... न जाने कितनी चाय चाहिए तुझे. ...कमबख्त पेट है या हौदी?’
लॉक फिर घूमा. बाबूजी भी जा रहे.
घर काम-काजियों से खाली हो गया. अब कोई दिक्कत नहीं. सिग्नल हो गया. बेखौफ उठ सकता है.
रेखा के पास उसे दोपहर के खाने पर पहुँचना है...
रेखा उसकी दोस्त है. दोस्ती की परिभाषा इधर बदल रही. पहले वह अनु की सहेली थी और उन्हीं की कॉलोनी में रहा करती थी. अलग-अलग कालेजों में होने के बावजूद दोनों ने साथ-साथ बी.ए. किया. आगे पढ़ने की अनु की इच्छा नहीं थी. उसने बड़े मनोयोग से टाइपिंग और ‘शॉर्टहैंड’ की पढ़ाई की. गति अच्छी हो गई. आवेदन करते ही ‘सेंचुरी’ में नौकरी मिल गई.
आगे पढ़ने में रेखा की दिलचस्पी भी नहीं थी. उसके पिताजी चाहते थे कि अगर वह आगे नहीं पढ़ना चाहती है तो कायदे से उनकी ‘विज्ञापन एजेंसी’ में नौकरी कर ले. रेखा को अपने पिताजी के साथ काम करना मंजूर नहीं हुआ. कारण, ‘मैं अपने को पूरे समय किसी की निगरानी में नहीं बरदाश्त कर सकती.’ उसने ‘हिमालया एडवरटाइजिंग’ में कॉपी लेखक के रिक्त पद के लिए आवेदन कर दिया. पिता की हैसियत अपरोक्ष रूप से सहायक हुई. हालांकि रेखा की डींग थी कि उसका चुनाव उसकी योग्यता और चुस्ती-दुरुस्ती के आधार पर हुआ. योग्यता और चुस्ती-दुरुस्ती की इतनी ही कदर होती तो वह डेढ़ साल से बेकार बैठा रहता? कद-काठी में वह अच्छे-खासे लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय है. बी.कॉम. है. ‘बिजनेस मैनेजमेंट’ की पढ़ाई द्वितीय श्रेणी में पास की है. सोच रहा है कि बैठे-ठाले कानून पढ़ डाले. अतिरिक्त योग्यता हो जाएगी. हालांकि अपना भविष्य उसे अंधकारमय दिखाई दे रहा.
कल सतीश आया था. वह भी उसी तरह बेकार घूम रहा. कह रहा था कि नौकरी खोजने में हम जितना समय जाया कर रहे, अच्छा है की कोई व्यवसाय करने की सोचें.
उसका तर्क था, ‘पैसा? पैसा कहाँ से आएगा?’
सतीश ने सुझाया, ‘क्यों न हम शिक्षित बेकारों के लिए खोली गई सरकार की ‘लघु उद्योग योजना’ की ऋण-नीति का लाभ उठाएँ?’
ऋण मिलेगा?
कुछ अपनी जेब से डालना होगा. बस एक धंधा निश्चित कर ले और अपने अतिरिक्त दो शिक्षित बेकारों की खोज और कर ले ताकि चारों की भागीदारी से काम बन सके. मामला आसान नहीं. वैसे आसान इस देश में है क्या?
‘मिल गया ऋण ऐसे... !’ उसने अविश्वास से सिर झटका.
‘पका-पकाया कुछ नहीं रखा. मगजमारी करनी होगी, करेंगे. खिलाना होगा, खिलाएंगे.’ सतीश ने चुटकी से सिक्के ठनकाने की मुद्रा बनाकर समस्या के बहुत जटिल न होने की ओर इंगित किया, ‘तुम तैयार तो हो, बंधु, नौकरी में ही हम क्या उखाड़ लेंगे? कोई भविष्य है?’
‘कहता तो तू ठीक है?’ बात उसे कुछ जमी.
‘चमड़े का काम शुरू करें? कोल्हापुरी चप्पलों की भारी मांग है. डोंबीवली या कल्याण में एक जगह खरीदकर... टीन-वीन का शेड बनवाकर, कच्चा माल देकर आठ-दस मजदूरों को बैठा देंगे!’
सहमत होता है तो सतीश के साथ भागा-दौड़ी शुरू करनी पड़ेगी. बस इसकी हिम्मत नहीं बंधती. उसे लगता है, प्रकृति से वह नौकरी करने के लिए अधिक अनुकूल है. व्यवसाय की चौबीसों घंटों की माथापच्ची, मारामारी उसे वश की नहीं. न तिया पाँच के लिए उसके पास गैंडे की खाल है. निराश होकर भी वह एकदम टूटा नहीं. दूसरे-तीसरे रोज भेजे जाने वाले आवेदन पत्रों पर जाने-अनजाने उम्मीद की एक नन्हीं कौंपल अंकुआने लगती है. शायद फलां कम्पनी से बुलावा आ ही जाए. जैसी उनकी अपेक्षाएँ हैं वह शत-प्रतिशत उन पर खरा उतर रहा...
चाय का प्याला हाथ में देकर मां उसके करीब आ बैठी.
वह अख़बार की तह खोलने ही जा रहा था कि मां के इस तरह पास आकर बैठ जाने से अच्छा लगने के बावजूद माथा ठनका. सब चले गए फिर भी यह उनके लिए फुरसत का समय नहीं. हो सकता है, बड़े दिनों बात उन्हें एकाएक उसकी सुध हो आई हो. पूछें कि वह कैसा है? कहाँ-कहाँ आवेदन-पत्र भेजे? किन जगहों पर उसे उम्मीद लगती है? आजकल वह ढंग से खाता-पीता भी नहीं. क्या बात है? रात में देर से घर क्यों लौटता है? जी नहीं लगता? अनु और मेहता की कोई बात हो, वे उससे सलाह-मशविरा लेना चाहती हों. आखिर वह घर का बड़ा बच्चा है...
‘तेरे बाबूजी पूछ रहे थे कि तू डा. गुप्ता से मिलने गया था?’
सत्यानाश. सुबह की रेढ़ हो गई.
‘कितनी बार जाऊँ?’ वह अनायास रूखा हो आया, ‘जब भी मिलने जाता हूँ, वे यह कहकर लौटा देते हैं कि भविष्य में गाहे-बगाहे मिलता रहूं. पिछले तीन महीनों से मैं उनसे गाहे-बगाहे मिल रहा हूँ. आज तक उन्होंने कभी किसी काम के लिए किसी से मिलने नहीं भेजा. मेरे बस की नहीं उनकी जी हुज़ूरी. होंगे बड़े फन्ने खां. एक कप चाय तक को नहीं पूछते. न जाने कैसे दोस्त हैं बाबूजी के, चिरकुट.’
‘भई, बड़े आदमी हैं... तब तक जबान नहीं खोलेंगे जब तक तेरे लायक कोई बात उनके दिमाग में नहीं आ जाएगी.’ मां ने डा. गुप्ता की तरफदारी की.
‘तुम जब किसी बात को नहीं जानती-समझतीं तो बीच में मत बोला करो. कुरसी का दंभ है उनको... अहंकार संतुष्ट होता है नई पीढ़ी को कुत्ते-सा दौड़ाने में’
‘मुझे क्या पड़ी... तेरे बाबूजी ने पूछा, सो मैंने पूछ लिया तो कौन-सा अनर्थ कर दिया... ?’
‘बाबूजी से कहा करो कि वे जो कुछ पूछना चाहते हैं खुद ही पूछ लिया करें... दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर दागने की जरूरत नहीं.’
मां तुनककर उठ गई बड़बड़ाती हुई. उसकी बेहयाई पर कि आखिर यह क्या तरीका है कि कुछ पूछो तो वह मरखने बैल सा सींगें दिखाने लगता है. धौंस काहे की दिखाता है?
मन में आया, लपककर मां की गरदन नाप ले कि तुम्हारी ममत्व की पोल खुल गई है. तुम पहले दरजे की कपटी औरत हो. तुम संतानों में भेदभाव बरतती हो. अनु को श्रेष्ठ और मुझे हेय बनाकर. परंतु जड़ हुआ-सा अख़बार के पन्ने थामे बैठा रहा. बस, इतना हुआ कि अख़बार के कोने मुठ्ठियों में मुस गए.
मां और बाबूजी की धारणा बन गई है कि वह न नौकरी पाना चाहता है न नौकरी करना. वरना अब तक उसे नौकरी मिल गई होती.
अब तो उन्हें शंका होने लगी है कि वह साक्षात्कार देने जाता भी है या आवारा दोस्तों के संग इधर-उधर भटकता रहता है? ‘गए थे?’ ‘क्या हुआ?’ पूछते उनका गला दुखने लगता. उन्हें उसके नौकरी न पाने का कोई कारण नजर नहीं आता. मां कहतीं कि उनके देखते कालोनी की ऐरी-गैरी नत्थू-खैरी लड़कियां नौकरी पर लग गईं. परिचितों के लड़कों के तबादले होने लगे.
कैसे समझाए कि बगैर सिफ़ारिश के आजकल बात नहीं बनती. और इसी अक्षत का अभाव है उसके पास. रही लड़कियों की बात, तो वे अपने आप में एक जबरदस्त ‘सिफ़ारिश’ हैं... भला उन्हें ‘सिफ़ारिश’ की क्या जरूरत ? जमाना ही लड़कियों का है. घर, सड़क, दफ़तर, बाग़-बगीचे, रेलवे प्लेटफॉर्म, फुटपाथ, बाजार, दुकानें – जहाँ देखो वहीं लड़किया ही लड़कियां उमड़ी चली आ रहीं. टिड्डियों के दल-सी यह जो युवकों में बेकारी की बाढ़ आई हुई है – लड़कियां ही जिम्मेदार हैं. घरों में बंद चूल्हा-चौका निपटा रही होतीं तो आज लड़के निठल्ले, बेरोजगार न घूम रहे होते. डिग्रियों का पुलिंदा कंधों और खोपड़ियों पर ढोए हुए !... निराश, हताश !... जीवन से विरक्त !...
उसे लगता है कि एक आंदोलन शुरू होना चाहिए. देशव्यापी स्तर पर. देश के सारे युवकों को संगठित होकर लड़कियों के खिलाफ नाकेबंदी करनी चाहिए कि वे घरों की शोभा हैं, कृपया घरों में पायल रूनकाती-झुनकाती, सिरों पर पल्लू डाले मांग में चुटकी भर सिंदूर भरे पतियों, भाइयों, सास, ससुर की सेवा करें !... दफ़तरों में कुर्सियां क्यों अगुवा रखी हैं, खाली करें !... ‘देश की महिलाएं मुरदाबाद !’ ‘महिलाओं दफ़तर खाली करो... !’ ‘महिलाओं को भगाओ, बेकारी मिटाओ !’ यह निश्चित है अगर देश की सारी नौकरी पेशा महिलाएं नौकरी से इस्तीफा दे दें तो देश में बेरोजगारी की समस्या चुटकियों में हल हो जाएगी.
इतने खराब मूड में भी वह मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका.
अचानक कभी उसका दिमाग चमत्कारी हो उठता है और ऐसी-ऐसी धासूं बातें सोचता है जिनका कोई जवाब नहीं. भले ही वे बेसिर-पैर की हों. बेसिर-पैर की क्यों, वास्तविकता यही है. अपने ही घर का उदाहरण ले लें तो तस्वीर का पहलू यह भी हो सकता है था कि अनु घर पर बैठी काम के बोझ से त्रस्त खीजती-झल्लाती मां की मदद कर रही होती और वह उसकी जगह ओबराय में नौकरी कर रहा होता.
अब क्या पढ़ना अखबार ! होता ही नहीं पढ़ने लायक कुछ. रोज-ब-रोज घिसी-पिटी घुमा-फिराकर वही-वही बातें. उसकी पीढ़ी के लिए अख़बार हफ़्ते में सिर्फ एक ही रोज निकलता है. और वह दिन होता है रविवार. तीन पृष्ठ रिक्त स्थानों के विज्ञापनों से भरे हुए. आंखें गड़ाए सुबह से शाम हो जाए तब भी कुछ-न-कुछ पढ़ना छूट जाए. उनमें से अपनी लियाकत के मुताबिक रेखांकित करना तो और भी मुश्किल.
अख़बार परे फेंककर उठ खड़ा हुआ. नहा-धो ले. दाढ़ी भी बनानी है. रेखा को बढ़ी हुई दाढ़ी से नफरत है, ‘लगता है, आजीवन कारावास काटकर चले आ रहे हो...’ देखते ही ताना कसती. उसका नियम है. जिस वक्त उसे रेखा के पास जाना होता है उसकी पसंद-नापसंद महत्वपूर्ण हो उठती है.
हालांकि आजकल उसका मूड उखड़ा है और कटखना हो गया है. रेखा भी उसे दोस्त कम और प्रतिद्वंद्वी अधिक लगती है. ऐसे क्यों हो रहा है उसके साथ ! सामान्य बने रहने की चेष्टा किसी अदृश्य दबाव के तहत निष्फल हो उठती है.
उसकी तस्वीरें देख रही रेखा अंग्रेजी के भौंड़े-भौंड़े शब्दों में अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही है, ‘हाय अशोक, किसने ‘डेशिंग’ लग रहे हो... ! यह ‘क्लोजअप’ ... वॉव, अशोक.’
रेखा का आग्रह गंभीरता से न लेने के बावजूद रख लिया था उसने. तस्वीरें धुलकर आ गई थीं और वह अलबम उसके पास दिखाने ले आया.
बहुत दिनों से रेखा उसके पीछे पड़ी हुई थी वह अपनी कुछ तस्वीरें क्यों नहीं उसकी विज्ञापन एजेंसी में रख देता. क्या पता. कभी किसी ‘क्लाएंट’ को उसकी तस्वीर पसंद आ जाए और वह माडलिंग के लिए चुन लिया जाए. माडलिंग... बतौर शौक करने में कोई हर्ज नहीं. पैसा भी ठीक-ठाक मिल जाता है. साथ ही शोहरत भी.
‘तुम मेरी बात पर कभी गौर नहीं करते अशोक... आईस्वेर... तुम कद-काठी से ही नहीं बल्कि चाल-ढाल, अंदाज से भी विशिष्ट लगते हो.’ वह हमेशा उसे प्रोत्साहित करती... उसे उकसाती. वह चाहे जो भी पहन ले. चाहे जैसे भी पहन ले.
‘रहने दो’ वह सोचता कि रेखा उसे लपेट रही है. कुछ ज्यादा ही चढ़ाती है उसे चने के झाड़ पर.
बहुत दिनों तक बात टलती रही. एक तो वह रेखा के माध्यम से कोई काम नहीं चाहता था. दूसरा उसे ‘मॉडलिंग’ का पेशा प्रतिष्ठित नहीं लगता रहा. मगर रेखा ने इस दिशा में अपनी प्रयास नहीं छोड़ा. एक रोज वह छायाकार दवे को लेकर घर पंहुच गई और उसने उसे तस्वीरें खिंचवाने के लिए मजबूर कर दिया. उसके और दवे के संकेतों पर कठपुतली बना वह मुद्राएँ देता पल-छिन नाचता रहा. रेखा को चेतावनी देता रहा कि वह फ़िज़ूल उसकी तस्वीरें खिंचाने में समय और पैसा जाया कर रही. संयोग और सुयोगों ने उससे किनाराकशी कर रखी है. सारी मेहनत बेकार जाएगी. मगर रेखा पूरे वक्त बहरी बनी हुई दवे के साथ परामर्श करती मनोयोग से अपने काम में लगी रही.
काम समाप्त कर दवे के जाते ही वे कमरे में आ बैठे पस्त से. मां ने उसके साथ चाय भर पी. रेखा के दोबारा चाय के आग्रह पर वे केवल ‘ट्रे’ उनके मध्य रखकर अपने कमरे में लौट गई. रेखा ने पास बैठने की बहुत जिद की. पर वे लगातार अन्यमनस्क बनी रहीं, ‘फिर कभी बैठूंगी, बेटे.’ रेखा ने भांप लिया कि मां-बेटे के मध्य जरूर कोई तनातनी चल रही. वरना मां उसके आने पर खूब खुश होतीं. खूब चटर-पटर करतीं. मन में आया कि अशोक से सीधे पूछे कि क्या बात है, मां इतनी चुप-चुप और अनमनी-सी क्यों है ? पर इस भय से छेड़ना मुनासिब नहीं लगा कि कहीं अशोक अपने मनोद्वंद्व को उगलने लगा तो उसकी स्थिति बड़ी विकट हो उठेगी. घर के खिलाफ अशोक के मन में ढेरों कड़वाहट उबल रही... विशेषकर मां के संदर्भ में. मां पर वह सदैव निर्भर रहा है. छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए. अब बढ़ी हुई उम्र और क्षीण हुई शक्ति के चलते वे शायद उसकी ज़रूरतों को अपेक्षित तवज्जोह नहीं दे पातीं. उपेक्षा का हल्का-सा झोंका भी उसे विश्रृंखल कर देता है...
‘इतने स्वार्थी और खुदगर्ज न बनो. किताबें बहुत पढ़ ली हैं. मां को जरा समझने की कोशिश करो. ये मामूली-सी बातें ज्यादा इसीलिए चुभती हैं तुम्हें, क्योंकि तुम अपने आपको असफल महसूस करने लगे हो... सीधे-सीधे से भी पूछी जाने वाली बातें तुम्हें ताना-तुक्का लगती हैं, अशोक. ऐसा नहीं है यह खीज उनकी दुश्चिंता है. तुम्हारे प्रति, तुम्हारे भविष्य के प्रति...’
रेखा बोलती है तो बोलती ही चली जाती है. दरअसल रेखा से किसी भी प्रकार की बहसबाजी उसे निरर्थक लगती है. किसी हद तक रेखा उसकी तिरस्कृत मनःस्थिति की खरोंच को महसूस करती है पर पूर्णतः नहीं. कर भी नहीं सकती. जिस अच्छे-खासे ओहदे पर वह बैठी हुई है, सफलता और संतुष्टि का चश्मा उसकी आंखों को सचाई से विमुख किए हुए है. वह तट पर बैठे किसी व्यक्ति का अवलोकन है, तैराक का नहीं. अनुमानों, कल्पनाओं और सहानुभूति से न किसी का नरक बंटा है, न बांटा जा सकता है. अपने घर में वह अकेली बेटी है.
एक वक्त था... मां की नजर में वही वह था. बचपन से ही उसे यह अहसास दिया गया कि तुम लड़के हो, श्रेष्ठ हो. तुम्हें कुछ बनना है. तुम्हारे कुछ-न-कुछ बनते ही सारा नक्शा बदल जाएगा. लेकिन बड़े होते-होते परिस्थिति कितनी बदल गई. बड़े होते-होते नहीं शायद... नौकरी की तलाश शुरू होते ही. शायद... वह और अनु घर के दो प्रतिस्पर्धी छोर हो गए. उनमें दुराव बरता जाने लगा. खुल्लम-खुल्ला. बाबूजी भी पहले वाले बाबूजी नहीं रहे. न पहले की तरह वे उसे पास बिठाते, न बतियाते, न सुझाते कि उसे क्या करना चाहिए. पहले जरा-सा भी वह कमजोर दिखाई देता तो वे उसे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाकर धैर्य बंधाते. मेहनत करने के लिए प्रेरित करते.
मां कितना आगे-पीछे घूमती थीं उसके. कहां तो अनु को बमुश्किल एक वक्त दूध मिलता, जबकि उसे दोनों वक्त जबरन पिलाया जाता. नाश्ते में उसे रात में विशेष रूप से भिगोई गई बादाम की दो गिरियां खानी जरूरी होतीं. एक दफे पढ़ते समय उसने मां से आंखों में जलन होने की शिकायत की तो मां भरी दोपहरी दवाइयों की दुकान पर जाकर ‘गुलाब जल’ की शीशी खरीद लाई और अगले ही रोज दस किलो आंवले का मुरब्बा बना डाला. अनु खाने के लिए माँगती तो स्पष्ट झिड़क देतीं, ‘देखती नहीं कित्ता झटक गया है, अशोक ? कसरत करता है. बादाम उसके लिए आवश्यक हैं या तेरे लिए ? इस उम्र में बेचारे को खुराक के नाम पर मिलता क्या है. एक तेरे बाबूजी का जमाना था... दंड-बैठक पेलते थे तो छटांक-छटांक बादाम, बाल्टी-बाल्टी दूध पीते थे. वही खिलाई-पिलाई है आज काम दे रही है. तीन-तीन हार्ट अटैक हो जाना मामूली बात है ?’
किसी विषय में वह फेल हो जाता या कम नम्बर लाता, मां फौरन उसके लिये ‘टियूशन’ रख देतीं. अनु रिरियाती तो वे तंगी का रोना रोने लगतीं. उसका साल खराब हो गया तो उम्र का घपला हो जाएगा. सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकेगा. तेरा क्या, तू ब्याह करके चली जाएगी ससुराल. प्रथम श्रेणी में पास हो या तीसरी. क्या फ़र्क़ पड़ता है ? सेवा बेटा ही करेगा... आखिरी समय मुंह में गंगाजल डालेगा... कंधों पर ढोकर ले जाएगा श्मशान... वंश वृद्धि करेगा...
...अब पासा पलट चुका है. उसकी जगह अनु ने ले ली है. मां को छीन लिया है, बाबू जी को छीन लिया है. नियति के हाथों वह कितना विवश है. समझ में आ रहा है. मां-बाप से बढ़कर व्यापारी दुनिया में और नहीं. वे सिर्फ अपने को जीते हैं. और जो उनके जीने में रंग भरे, वही उनका सब कुछ ! वास्तविकता यही है कि सामाजिक व्यवस्था अगर बहुत पहले लड़कियों को घर के भीतर की जिम्मेदारी न सौंप, आर्थिक पक्ष संभालने की जिम्मेदारी सौंप देती तो निश्चित ही छटांक-छटांक बादाम की गिरियां उसकी सेहत के लिए भिगोई जातीं और दरवाजे पर बंधी भैंसें बाल्टी-बाल्टी उसी के लिए दूध देतीं.
‘चाय पीने चलें ?’
‘...’
‘कहाँ खोए रहते हो हर वक्त ? शिप्रा ने तुम्हें विश किया और तुमने मात्र सिर हिला दिया ?’
उसने कोई जवाब नहीं दिया. ऐसा जान-बूझकर नहीं होता उससे. रेखा जानती है, शायद वह टोक इस वजह से रही है ताकि वह आगे से एजेंसी में अपने व्यवहार के प्रति सचेत रहे, सौहार्द्रपूर्ण रहे. उसके प्रति लोगों की धारणा अच्छी बने. मित्रतापूर्ण बने. तस्वीरें पसंद की जाती हैं तब यह जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी. हालांकि उसे विश्वास नहीं कि उसकी तस्वीरें किसी ‘क्लाइंट’ को आकर्षित कर पाएंगी. जो भी हो. रेखा को तो तसल्ली हो गई.
शाम को चारों बेकारों की ‘मीटिंग’ हुई सतीश के घर. रूपरेखा को अंतिम रूप दिया गया. आवेदन-पत्र की औपचारिकताएँ पूरी की गईं. तय हुआ कि कौन क्या-क्या काम संभालेगा. भागा-दौड़ी उसके वश की नहीं. उसने अपने जिम्मे लिखा-पढ़ी ले ली. भागा-दौड़ी सतीश एवं निगम के हिस्से में पड़ी. जगह आदि तय करना नितिन के जिम्मे. नितिन ने बताया कि ‘वासी’ के निकट लघु उद्योगों के लिए महाराष्ट्र सरकार नाममात्र के पैसों पर जगह मुहैया करा रही है. अभी स्थान पूर्ण विकसित नहीं है, मगर जल्दी ही हो जाएगा. पानी और बिजली की सुविधा है.
उन्होंने कार्यक्रम बनाया कि अगले शनिवार को वे चारों वासी जाएंगे और जगह देख लेंगे. शेड किराए पर लेना हो तो उल्हास नगर बुरी जगह नहीं, मगर न्यू बांबे का पुल पूरा होते ही वासी सोना हो जाएगी. फिर अपनी जगह तो अपनी जगह है. सतीश के हिसाब से राजनीतिक पेपरवेट भी है उसके पास. खाद्य मंत्री शेवड़े रिश्ते में दूर के मामा लगते हैं. डेढ़-दो महीने में मामला जम जाना चाहिए. जमाना ही पड़ेगा. सबके ‘मूड’ हल्के-फुल्के हो आए. कल क्या होगा, पता नहीं, मगर एक शुरूआत हो चुकी. वे अपने दिलों में उत्साह और फुर्ती का संचार महसूस कर रहे थे...
निगम और नितिन उठे और सीधे अपने-अपने घर चल दिए. वह इतनी जल्दी घर लौटने के ‘मूड’ में नहीं था. क्या करेगा आठ बजे ही गर पहुँचकर ? आजकल कोई नई किताब भी नहीं पढ़ने के लिए. अनायास उसे ‘दाग’ का खयाल हो आया. मां ने बड़ी प्रशंसा कर रखी थी इस फ़िल्म की. सोचा, चलकर क्यों न ‘दाग’ ही देखी जाए. सतीश को प्रस्ताव भा गया. दोनों थिएटर पर पहुंच गए. टिकटघर पर खासी भीड़ थी. पुरानी फिल्मों को लेकर दर्शकों में अभी भी काफी उत्साह है. मां को बस पता लगना चाहिए कि कहां सुरैया की फिल्म लगी है, कहाँ नर्गिस या मधुबाला या निम्मी की. काम-धाम छोड़कर फिल्म देखने निकल लेंगी. पुरानी तो पुरानी, आज की फिल्में उनसे कहां छूटती हैं. अच्छी हों या बुरी. जिस फ़िल्म को वे और अनु एक बार बरदाश्त नहीं कर पाते उसे वे घर लौटकर दुबारा-तिबारा देखने की घोषणा ठोक देतीं. बाबूजी दबे स्वर में मां के शौक की तरफदारी करते हैं- पान न सुपाड़ी – ले दे के एक सिनेमा.
बाबूजी का तर्क सुनकर उसे हंसी आती. पचासों रुपए हर हफ़्ते मां के शौक के पीछे फुंक जाते, कभी तंगी महसूस न होती. तंगी की हाय-तौबा उसी समय मचती जिस समय वह मुंह खोल बैठता. उसे हजार सीखें सुननी पड़तीं. फिजूलखर्ची से आगाह किया जाता. बुरी लतों से दूर रहने की ताकीद की जाती.
एक बजे रात दरवाजा मां ने ही खोला.
चाबी साथ ले जाना ही भूल गया था. जब भी देरी से घर लौटना होता, गोदरेज लाक की चाबी साथ ले जाना न भूलता. ताकि उसकी खातिर किसी की नींद में खलल न पड़े.
कमरे की ओर बढ़ ही रहा था कि नियम के विपरीत मां ने पूछा, ‘खाना ?’
‘ले लूंगा... जाकर सो जाइए आप.’
‘गरम ही होगा अभी,’ कहकर वे मुड़ने लगी तभी अचानक उन्हें कुछ खयाल हो आया. ‘सुन... रेखा का फोन दो बार आया था तेरे लिए. कल ठीक ग्यारह बजे तुझे उसकी एजेंसी में पहुँच जाना है. किसी क्लाएंट से जरूरी मीटिंग है...’ और वे बगैर किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए अपने कमरे में दाखिल हो गईं.
कल दोपहर सचिवालय जाना भी तय हुआ है. सतीश के साथ उसके मामा शेवड़े जी से मिलने. सुबह सतीश से फोन पर तय कर लेगा कि वह उससे कहाँ मिले. रेखा की एजेंसी वीटी पर ही है. ज्यादा दूर नहीं है वहां से सचिवालय.
मिल्क कुकर की सीटी पूरे घर में सुबह का ऐलान करने लगी.
उसकी नींद टूट गई. नींद आई भी बहुत गहरी थी. वरना दूध वाले की घंटी बजते ही वह जाग जाता. आज पता ही नहीं चला कि दूध वाले की घंटी कब बजी. थक बहुत गया था कल. रेखा के पास से लौट कर वह ठीक साढ़े चार बजे सचिवालय पहुँचा जहाँ खड़ा सतीश उसकी प्रतीक्षा करता मिला. दोनों ही मुलाक़ातें सार्थक रहीं. पीठ ठोंककर मंत्रीजी ने उनकी हिम्मत बढ़ाई और स्पष्ट संकेत दिए कि वे उनके मामले को शीघ्र ही देखेंगे. अपने दढ़ियल सेक्रेटरी को बुलाकर उन्होंने फौरन उनके काग़ज़ात ले लेने को कहा. बातचीत से उसे यही आभास हुआ कि जैसे उन्हें ऋण चुटकियों में मिल जाएगा. ... पर सतीश ने सदैव की भांति उसे उड़ने से रोका, ‘यार, यह तो निश्चित है कि अपना काम हो जाएगा, पर इतनी आसानी से नहीं, तू इन राजनीतिज्ञों को नहीं जानता. ये ऐसे सुनार हैं जो अपने बाप को भी न छोड़ें. अभी आठ-दस चक्कर लगने मामूली बात है.’
लौटते समय वे गिरगांव में चमड़े के थोक व्यापारी पवार सेठ से भी उनके घर पर मिलते हुए आए. पवार सेठ से मिलकर वे इस मुद्दे पर एकमत हुए कि कच्चा माल बजाय थोक व्यापारियों से खरीदने के, उनके लिए उन्हीं शहरों में जाकर सीधे खरीदना अधिक फ़ायदेमंद होगा.
खुशी और दिमागी हल्केपन का एक और जबरदस्त कारण था.
जिस क्लाएंट से रेखा ने उसे मिलवाया वह उससे मिलकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने बतौर अग्रिम अनुबंध राशि उसे हजार रूपए का लिफ़ाफ़ा पकड़ा दिया था. शेष पारिश्रमिक सत्ताईस-अट्ठाईस की दो दिन की ‘शूटिंग’ खत्म होने के उपरांत. यह भी शर्त रखी कि वह उनकी टाइयों के विज्ञापन के अतिरिक्त अन्य किसी टाई कम्पनी के लिए विज्ञापन नहीं करेगा. इसके लिए अनुबंध अवधि का हर माह उसे बंधा हुआ पैसा मिलेगा. उसे क्या दिक्कत हो सकती थी ? उसने बस इतना किया कि क्लाएंट जब उससे शर्तों की सहमति का ठप्पा लगवाना चाहता, वह रेखा की ओर संकेत कर देता... जैसा रेखा जी कहेंगी...
रेखा ने हर माह दिए जाने वाले पारिश्रमिक पर जरा आपत्ति प्रकट की कि यह राशि बहुत कम है. अन्य टाई कम्पनियों के लिए काम न करें इसके लिए पारिश्रमिक वाजिब तो होना ही चाहिए. थोड़े तर्क-वितर्क के बाद राशि आठ सौ रूपया महीना बढ़ गई. अनुबंध हस्ताक्षरित हो गया. वह रेखा की कार्यकुशलता पर मुग्ध हो उठा. उसे अनुमान नहीं था कि वह पुरुषों को चराने में इतनी चतुर होगी. क्लाएंट ने उसे प्रथम बधाई दी. रेखा ने भी, अपनी अंतरंगता न जाहिर करते हुए.
क्लाएंट की गाड़ी जाते ही उसने रेखा को बगैर ‘आसपास’ की परवाह किए बाजुओं में समेट लिया. रेखा को अरसे बाद उसने इतना खुश पाया था. घर के लिए ‘ब्रजवासी’ से रेखा ने दो किलो बरफी बंधवाई, ‘घर पहुँचते ही मां के हाथ में देना. पैर छूना न भूलना.’ बरफी का डिब्बा सादे खाकी कागज में पैक करवाया ताकि देखने में ऐसा आभास हो कि कुछ किताबों का बंडल है. रेखा को मालूम था कि उसके पास से उसे ‘सचिवालय’ पहुँचना है. सतीश वहां उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा...
आज दोपहर को उसे तीन-साढ़े तीन के बीच ताड़देव ‘उमेश’ के यहाँ पहुँचना है. कपड़ों का नाप देने. कपड़ों के चार ‘सेट’ बनेंगे उसके, जिन्हें उसे ‘शूटिंग’ के दौरान बदल-बदलकर पहनना है.
पिछले छः महीनों से वह बगैर बनियान के कमीजें पहन रहा. चड्डियां तो खैर... अभी कुछ दिन और घसीट ले जाएंगी. मां का ध्यान ही नहीं जा रहा था. उसे ध्यान दिलाना पड़ा तो मां बोलीं, ‘मैंने तो समझा था कि तू इसलिए नहीं बोल रहा है कि आजकल बगैर बनियान के कमीज पहनने का फैशन चल रहा...’ जी में आया कि संकोच छोड़ तड़ाक से कह दे कि... पर लिहाज में चुप्पी साध गया. वह कमाता नहीं है तो मां की नीयत स्पष्ट है कि कम-से-कम में काम चलाना चाहिए. नहीं है तो उसमें भी.
रेखा ने कहा ही था. उसने भी यही सोचा कि कायदे से पहली कमाई यही है और वह मां के हाथों में रखी जानी चाहिए. उसने किया भी वही. पैसों का लिफ़ाफ़ा और मिठाई का डिब्बा घर में घुसते ही मां को पकड़ा दिया. पाँव छू लिए. अनमने भाव से. अब ये ढकोसले बेनकाब हो चुके हैं. काहे का आदर, काहे का आशीष !
मां भौंचक्की रह गई. एकदम से समझ नहीं पाई. या विस्मय दिखाने का नाटक किया. वास्तविकता जानते ही उनकी आंखों का रंग बदल गया. उसकी बेरोजगारी के दुःख से सोई ममता अचानक उमड़ पड़ी. झर-झर आंसू बहने लगे. अभिनेत्री भी अच्छी हैं, ‘प्रसाद’ चढ़ाने की बात श्लोक-सी उच्चारी गई. ढोंग में उसे विश्वास नहीं. उसने स्पष्ट मना कर दिया था कि वह मंदिर-वंदिर नहीं जाएगा. शाम को बाबूजी ने गंभीरता के खोल से बाहर आए बगैर ही उसे विज्ञापन फिल्म पाने पर हार्दिक बधाई दी. अनु सदैव की तरह ही नाटकीय थी. मिलते ही कंधों से लटककर उसने उसका माथा चूमा. कैसे-कैसे क्या हुआ, पूछा. सारा कुछ ब्यौरेवार जानने की जिद की. बाबूजी भी पास आ बैठे. मां कॉफी बना लाई अपने आप. उसे अरसे पहले की वे सुबहें याद हो आईं. वे सुबहें कितनी सच्ची थीं... यह शाम... यह शाम कितनी औपचारिक अपरिचित !
अचानक अपनी कुहनी पर उसे किसी मुलायम स्पर्श का अहसास हुआ...
उसकी आदत है. वह सोता इसी तरह है. कुहनी से चेहरा ढंककर. इस वक्त जरूर किसी ने उसकी कुहनी को छुआ है... मगर कौन ? वहम भी तो हो सकता है उसका. जब से नींद टूटी है सोच रहा है, सोच रहा है... बाह्य हलचल से अस्पर्शित उसके भीतर एक दुनिया है जहाँ किसी का हस्तक्षेप नहीं. जहाँ वह अपने तरीके से रहता है. अपने तरीके से जीता है. अपने तरीके से किसी को प्यार करने के लिए स्वतंत्र है. किसी से घृणा करने के लिए भी. और, ये जो उसके अपने हैं, उन्हें वह उस दुनिया के भीतर खूब-खूब घृणा करता है. बात-बात में चुनौती देता है. तिरस्कृत करता है. यही लोग हैं जिनकी वजह से वह अपने को आज किसी काबिल नहीं रह गया अनुभव करता है, इन्होंने ही तो उसके जिस्म में कूट-कूटकर भर दिया है कि तू बेकार है, नकारा है. बुहारे कूड़े-सा.
कुहनी फिर छुई गई. झकझोरी गई. कोई उसे ही उठा रहा है. पर इतनी सुबह ? इस घर में यह अजूबा कैसा ? नियम भंग कैसा ? बेगाने घर को अचानक उसमें दिलचस्पी कैसे पैदा हो गई ? वह एकाएक सुबह में कैसे शामिल किया जा रहा है ? कहीं अनु के भ्रम में तो नहीं उठाया जा रहा उसे ?
कुहनी अबकी और जोर से झकझोरी गई. मनुहार भी उसकी ओर झुका. ‘उठ ना... ले चाय पी ले...’
मां... ? हां मां ही तो उठा रही हैं उसे. यह क्रम कैसे बदल गया ? वह उठ बैठा. ‘मां,... मां, मैं हूं... अनु नहीं...’ शब्दों पर मां को सहज पाया.
‘हां, हां, मैं तुझे ही उठा रही हूं, ले चाय पकड़ !’ चाय का प्याला उसकी ओर बढ़ाकर मां अनु के पलंग की ओर बढ़ गई – उसे उठाने. हतप्रभ हो उसने अनु की ओर देखा. अपने बिस्तर पर सिकुड़ी-सिमटी-सी पड़ी हुई अनु ने मां के हिलाने पर ऊं-ऊं की. गर्म चाय के प्याले से उसकी उँगली तपने लगी थी – उसे लगा जैसे उसने पैसों वाला वह लिफ़ाफ़ा पकड़ रखा है.
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प्रख्यात कथा लेखिका चित्रा मुद्गल के कई उपन्यास, कहानी संग्रह, बाल कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. आपको दिल्ली की हिंदी अकादमी के साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है.
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वह जाग रहा है. तड़के ही उसकी नींद खुल जाती है. रात चाहे जितनी देरी से घर लौटा हो, चाहे जितनी देरी तक पढ़ता रहा हो, सुबह अपने आप जाग जाने की उसकी आदत छूटी नहीं. उसे आश्चर्य होता है. कुछ आदतें और नियम बदले हुए समय के साथ बहुरूपिए-से अपना चोला बदल लेते हैं. मगर कुछ आदतें किसी भी असर से बेअसर मरे बच्चे को छाती से चिपकाए बंदरिया हो उठती हैं. आज भी, जैसे ही दूध वाले की घंटी बजी, वह जाग गया. लेकिन दूध लेने के लिए नहीं उठा. उठती मां ही है. मां के उठने के कुछेक मिनटों उपरांत ‘मिल्क कुकर’ की कर्ण भेदी सीटी बजती है. चाय चढ़ती है. मसालेदार चाय. चाहे गरमी हो या सरदी. मां बगैर मसाले की चाय नहीं बनातीं. मसालेदार चाय की खुशबू पूरे घर में फैल जाती. घर में सुबह हो जाती. वह अपने बिस्तर पर पड़े-पड़े आंखें कुहनियों से ढके सुबह को होते देखता. सुनता. सुबह बड़ी हड़बड़ी में होती. वक्त जो बहुत कम होता है उसके पास...
उसे पता होता है कि अब आगे क्या होगा और ठीक उसके अगले ‘अब’ में...
अनु को उठाया जाएगा, ‘उठ न गुड़िया! उठ न ऽ ऽ !’
यह जो उसके बगल वाले पलंग पर चौंतेरे-सी पाँच फीट चार इंच की लड़की औंधी पड़ी हुई है (लड़की कहना मजबूरी है...) वह मां को गुड़िया लगती है. गुड़िया ‘ऊं ऊं’ के नखरों के साथ उलटी पलटी होती आहिस्ता से उकड़ूं उठ चाय का प्याला पकड़ लेती. ‘गुड़िया’ बगैर कुल्ला किए चाय पीती. जबकि रात-भर मुंह खोलकर सोती और तकिए पर ढेरों बदबूदार थूक उगलती. अभी कोई पास बैठ जाए तो मुंह से उठता बदबू का भभूका उसे टिकने न दे. मगर उसे कोई फर्क नहीं पड़ता. वह जमुहाइयां भरती, बदबू उड़ाती, चाय के घूँट गटकती, आलस तोड़ रही होती. मां अब कुछ नहीं कहतीं. पहले सख्ती इस कदर थी कि बगैर ब्रुश किए चाय मिलती ही नहीं थी. वह अब भी बगैर ब्रुश किए चाय नहीं पी सकता.
मनुहार चाय के प्याले के साथ बाबूजी के कमरे की ओर मुड़ जाती. दोनों मिलकर चाय पीते. पहले सब साथ बैठकर चाय पिया करते थे. बाबू जी की आदत थी कि उनके हाथ में चाय का प्याला और अख़बार आते ही दोनों बच्चों को भी उनके पास बैठे हुए होने चाहिए. देर से जागना उन्हें और मां को दलिद्दर न्यौतने जैसा लगता. (अब उसके पड़े रहने से नहीं लगता) चाय के दौर तक का आलम बड़ा शांत होता. फिर मां की ‘कमेंटरी’ शुरू हो जाती. सुर की मिठास अनायास कर्कश हो उठती, ‘अब और चाय नहीं मिलेगी... अख़बार छोड़ो जी... गीजर से पानी निकाल दिया है... फटाफट नहा के निकलो.’ ‘अनु पहले अपने बाबूजी को नहा लेने दे... तुझे बाल धोने है न... तू देर लगाएगी.’ ‘जी ये कल की पैंट चलेगी न! जेबों पर हलका सा मैल आ गया है’ ‘अनु, टिफिन रख लिया है बैग में... सब्जी आज कैंटीन से मंगवा लेना, करेले तू खाती नहीं, आलू हैं नहीं...’ ‘और हां ‘बीकासूल’ के कैप्सूल ले रही है न! लापरवाही नहीं बरतते’ (फिर गुड़िया...) ‘यह दूध क्यों छोड़ जा रही है? देर-सवेर का बहाना छोड़... खतम कर दूध!’
अनु ने धाड़ से अलमारी खोली. सूं-सूं इंटीमेट (विदेशी सुगंध) की बोतल से अपने को तर किया. अपने को ही नहीं पूरे कमरे को.
सजती ऐसे है जैसे दफ़तर न जाकर किसी सौन्दर्य प्रतिस्पर्धा में जा रही हो. वैसे भी आजकल सजने का शौक उसे कुछ ज्यादा ही हो गया. जिस दिन विदेशी सुगंध से देह को नहलाया जाता है, उसके कान खड़े हो जाते हैं. अवश्य ही बिहारी की नायिका कहीं किसी के साथ...
दरअसल, इस मामले में मां और बाबूजी अतिरिक्त उदार हैं. खुली ढील दे रखी है उन्होंने. साफ कहते रहते हैं, ‘हमारे दिन और थे. तुम लोगों को जब जिस वक्त जो करना हो, बस हमें बता भर देना. तुम्हारा अच्छा-बुरा तुम्हारे साथ. हां, अगर हमारे मन मुताबिक चलना हो तो पहले बता देना. हम लड़की देखेंगे, लड़का देखेंगे.’
मां और बाबूजी के विषय में वह कभी एक राय कायम नहीं कर पाता. सूप में राई-सा ढनंगता रहता. दोनों उसे कभी अपनी पीढ़ी के हिमायती और आधुनिक भाव-बोध के संवाहक प्रतीत होते, कभी चतुर सुजान. कौन चप्पलें घिसें संस्कारों और खानदानों के नखरे झेलते.
आलमारी भड़ाक् से बंद की.
उसके जी में आया कि उठ कर तड़ाक से एक थप्पड़ वह उसके गाल पर जमा दे. कोई तरीका है यह आलमारी खोलने और बंद करने का? वह सो रहा है और वह भड़ाम-भुड़ूम किए कान फोड़े डाल रही है. कुछ कहने से कोई फ़ायदा नहीं. जबसे नौकरी पाई है, जबान बेलगाम हो गई है. पलटकर बेइज्जती करने पर उतर आती है. वह बड़ा है यह लिहाज छोड़ छाड़. पहले मां सुनती तो बीच-बचाव करते हुए उसे डपट देती थी कि बड़े के मुंह मत लगाकर. ...लेकिन अब पासे बदल गए. उलाहना देने पर उलटा मां उसे ही गम खाने की पट्टी पढ़ाने लगतीं.
पिछले महीने घर पर मेहता कई दफे आए. एकाध बार अनु को छोड़ने के बहाने. कुछेक दफा अकेले. उसे बात नहीं जमी. विशेषतः उसका तलाकशुदा होना. क्यों नहीं पटी बीवी से? बातचीत में भी स्पष्ट नहीं लगे मेहता. लेकिन मां ने उसकी आपत्तियों पर गौर करने के बजाय मखौल उड़ाया कि बेकारी में उसका दिमाग कुंठित हो गया है. वह सही-गलत में फ़र्क़ नहीं कर पाता. बातों का बतंगड़ बनाने की जरूरत नहीं. वे न अंधे हें, न अक्ल के कंगले. बेहतर होगा कि वह मुंह बंद करके बैठे. दुनिया-जहान कुछ कहे न कहे, घर के भेदी लंका ढहाने में जुटे हुए हैं.
अनु के ‘पेंसिल हिल’ के सैंडलों की ‘टिक-टिक’ दरवाजे की ओर बढ़ रही. लॉक पूरा घूमता भी नहीं कि मां की चेतवानी उछलती है, ‘संभल के जाना’ – जैसे वह दूध पीती बच्ची हो. अपनी हिफ़ाज़त स्वयं कर पाने में असमर्थ. इधर वह लगातार महसूस कर रहा है कि जबसे अनु को ‘ओबराय’ में ‘रिशेप्सनिस्ट’ की आकर्षक नौकरी मिली है, मां की खैरख्वाही उसके लिए कुछ ज्यादा ही चिंतित हो उठी है. उसकी ओर उनका ध्यान ही नहीं जाता कि ऐसे निरर्थक बोझिल दिनों में उसे उनके ममत्व की कितनी जरूरत है. विचित्र समझ है मां की. अधाए पेट को रोटी खिला रही, जबकि जरूरत उसकी कल्लाती आंतों को वाजिब खुराक देने की है.
कितना उपेक्षित हो गया है वह.
उसे लगता है कि वह उठ कर बैठ जाए. कब तक और कितने दिनों तक नकली नींद का नाटक किए हुए पड़े-पड़े उनकी व्यस्तता से खुंदक खाता रहे. इसलिए कि उसे कहीं जाना नहीं? जल्दी उठ कर करेगा क्या? सारी गहमागहमी में एक कप चाय का भी डौल नहीं होता उसके लिए. अख़बार बाबूजी और अनु के हाथों में वालीबाल खेलता रहता. चलो, अख़बार खाली मिलता तब भी उसके जल्दी उठने की गुंजाइश बनती. कुछ तो होता जो सिर्फ उसके लिए खाली होता और उसके खालीपने को भरता.
उसके भूले-भटके जल्दी उठ जाने में मां को असुविधा होने लगती, ‘यह घंटे-भर तक पाखाने में घुसा बैठा क्या करता रहता है?... बाकी लोगों को नहीं गलती? ...तू नहाने घुस गया तो अनु कब नहाएगी? तुझे कौन दफ़्तर जाना है जो सुबह उठ कर बैठ जाता है छाती पर मोंगरी कूटने? ...तेरी चाकरी करूं या इन लोगों का ताम-झाम निबटाऊँ? चाय, चाय, चाय... न जाने कितनी चाय चाहिए तुझे. ...कमबख्त पेट है या हौदी?’
लॉक फिर घूमा. बाबूजी भी जा रहे.
घर काम-काजियों से खाली हो गया. अब कोई दिक्कत नहीं. सिग्नल हो गया. बेखौफ उठ सकता है.
रेखा के पास उसे दोपहर के खाने पर पहुँचना है...
रेखा उसकी दोस्त है. दोस्ती की परिभाषा इधर बदल रही. पहले वह अनु की सहेली थी और उन्हीं की कॉलोनी में रहा करती थी. अलग-अलग कालेजों में होने के बावजूद दोनों ने साथ-साथ बी.ए. किया. आगे पढ़ने की अनु की इच्छा नहीं थी. उसने बड़े मनोयोग से टाइपिंग और ‘शॉर्टहैंड’ की पढ़ाई की. गति अच्छी हो गई. आवेदन करते ही ‘सेंचुरी’ में नौकरी मिल गई.
आगे पढ़ने में रेखा की दिलचस्पी भी नहीं थी. उसके पिताजी चाहते थे कि अगर वह आगे नहीं पढ़ना चाहती है तो कायदे से उनकी ‘विज्ञापन एजेंसी’ में नौकरी कर ले. रेखा को अपने पिताजी के साथ काम करना मंजूर नहीं हुआ. कारण, ‘मैं अपने को पूरे समय किसी की निगरानी में नहीं बरदाश्त कर सकती.’ उसने ‘हिमालया एडवरटाइजिंग’ में कॉपी लेखक के रिक्त पद के लिए आवेदन कर दिया. पिता की हैसियत अपरोक्ष रूप से सहायक हुई. हालांकि रेखा की डींग थी कि उसका चुनाव उसकी योग्यता और चुस्ती-दुरुस्ती के आधार पर हुआ. योग्यता और चुस्ती-दुरुस्ती की इतनी ही कदर होती तो वह डेढ़ साल से बेकार बैठा रहता? कद-काठी में वह अच्छे-खासे लोगों के लिए ईर्ष्या का विषय है. बी.कॉम. है. ‘बिजनेस मैनेजमेंट’ की पढ़ाई द्वितीय श्रेणी में पास की है. सोच रहा है कि बैठे-ठाले कानून पढ़ डाले. अतिरिक्त योग्यता हो जाएगी. हालांकि अपना भविष्य उसे अंधकारमय दिखाई दे रहा.
कल सतीश आया था. वह भी उसी तरह बेकार घूम रहा. कह रहा था कि नौकरी खोजने में हम जितना समय जाया कर रहे, अच्छा है की कोई व्यवसाय करने की सोचें.
उसका तर्क था, ‘पैसा? पैसा कहाँ से आएगा?’
सतीश ने सुझाया, ‘क्यों न हम शिक्षित बेकारों के लिए खोली गई सरकार की ‘लघु उद्योग योजना’ की ऋण-नीति का लाभ उठाएँ?’
ऋण मिलेगा?
कुछ अपनी जेब से डालना होगा. बस एक धंधा निश्चित कर ले और अपने अतिरिक्त दो शिक्षित बेकारों की खोज और कर ले ताकि चारों की भागीदारी से काम बन सके. मामला आसान नहीं. वैसे आसान इस देश में है क्या?
‘मिल गया ऋण ऐसे... !’ उसने अविश्वास से सिर झटका.
‘पका-पकाया कुछ नहीं रखा. मगजमारी करनी होगी, करेंगे. खिलाना होगा, खिलाएंगे.’ सतीश ने चुटकी से सिक्के ठनकाने की मुद्रा बनाकर समस्या के बहुत जटिल न होने की ओर इंगित किया, ‘तुम तैयार तो हो, बंधु, नौकरी में ही हम क्या उखाड़ लेंगे? कोई भविष्य है?’
‘कहता तो तू ठीक है?’ बात उसे कुछ जमी.
‘चमड़े का काम शुरू करें? कोल्हापुरी चप्पलों की भारी मांग है. डोंबीवली या कल्याण में एक जगह खरीदकर... टीन-वीन का शेड बनवाकर, कच्चा माल देकर आठ-दस मजदूरों को बैठा देंगे!’
सहमत होता है तो सतीश के साथ भागा-दौड़ी शुरू करनी पड़ेगी. बस इसकी हिम्मत नहीं बंधती. उसे लगता है, प्रकृति से वह नौकरी करने के लिए अधिक अनुकूल है. व्यवसाय की चौबीसों घंटों की माथापच्ची, मारामारी उसे वश की नहीं. न तिया पाँच के लिए उसके पास गैंडे की खाल है. निराश होकर भी वह एकदम टूटा नहीं. दूसरे-तीसरे रोज भेजे जाने वाले आवेदन पत्रों पर जाने-अनजाने उम्मीद की एक नन्हीं कौंपल अंकुआने लगती है. शायद फलां कम्पनी से बुलावा आ ही जाए. जैसी उनकी अपेक्षाएँ हैं वह शत-प्रतिशत उन पर खरा उतर रहा...
चाय का प्याला हाथ में देकर मां उसके करीब आ बैठी.
वह अख़बार की तह खोलने ही जा रहा था कि मां के इस तरह पास आकर बैठ जाने से अच्छा लगने के बावजूद माथा ठनका. सब चले गए फिर भी यह उनके लिए फुरसत का समय नहीं. हो सकता है, बड़े दिनों बात उन्हें एकाएक उसकी सुध हो आई हो. पूछें कि वह कैसा है? कहाँ-कहाँ आवेदन-पत्र भेजे? किन जगहों पर उसे उम्मीद लगती है? आजकल वह ढंग से खाता-पीता भी नहीं. क्या बात है? रात में देर से घर क्यों लौटता है? जी नहीं लगता? अनु और मेहता की कोई बात हो, वे उससे सलाह-मशविरा लेना चाहती हों. आखिर वह घर का बड़ा बच्चा है...
‘तेरे बाबूजी पूछ रहे थे कि तू डा. गुप्ता से मिलने गया था?’
सत्यानाश. सुबह की रेढ़ हो गई.
‘कितनी बार जाऊँ?’ वह अनायास रूखा हो आया, ‘जब भी मिलने जाता हूँ, वे यह कहकर लौटा देते हैं कि भविष्य में गाहे-बगाहे मिलता रहूं. पिछले तीन महीनों से मैं उनसे गाहे-बगाहे मिल रहा हूँ. आज तक उन्होंने कभी किसी काम के लिए किसी से मिलने नहीं भेजा. मेरे बस की नहीं उनकी जी हुज़ूरी. होंगे बड़े फन्ने खां. एक कप चाय तक को नहीं पूछते. न जाने कैसे दोस्त हैं बाबूजी के, चिरकुट.’
‘भई, बड़े आदमी हैं... तब तक जबान नहीं खोलेंगे जब तक तेरे लायक कोई बात उनके दिमाग में नहीं आ जाएगी.’ मां ने डा. गुप्ता की तरफदारी की.
‘तुम जब किसी बात को नहीं जानती-समझतीं तो बीच में मत बोला करो. कुरसी का दंभ है उनको... अहंकार संतुष्ट होता है नई पीढ़ी को कुत्ते-सा दौड़ाने में’
‘मुझे क्या पड़ी... तेरे बाबूजी ने पूछा, सो मैंने पूछ लिया तो कौन-सा अनर्थ कर दिया... ?’
‘बाबूजी से कहा करो कि वे जो कुछ पूछना चाहते हैं खुद ही पूछ लिया करें... दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर दागने की जरूरत नहीं.’
मां तुनककर उठ गई बड़बड़ाती हुई. उसकी बेहयाई पर कि आखिर यह क्या तरीका है कि कुछ पूछो तो वह मरखने बैल सा सींगें दिखाने लगता है. धौंस काहे की दिखाता है?
मन में आया, लपककर मां की गरदन नाप ले कि तुम्हारी ममत्व की पोल खुल गई है. तुम पहले दरजे की कपटी औरत हो. तुम संतानों में भेदभाव बरतती हो. अनु को श्रेष्ठ और मुझे हेय बनाकर. परंतु जड़ हुआ-सा अख़बार के पन्ने थामे बैठा रहा. बस, इतना हुआ कि अख़बार के कोने मुठ्ठियों में मुस गए.
मां और बाबूजी की धारणा बन गई है कि वह न नौकरी पाना चाहता है न नौकरी करना. वरना अब तक उसे नौकरी मिल गई होती.
अब तो उन्हें शंका होने लगी है कि वह साक्षात्कार देने जाता भी है या आवारा दोस्तों के संग इधर-उधर भटकता रहता है? ‘गए थे?’ ‘क्या हुआ?’ पूछते उनका गला दुखने लगता. उन्हें उसके नौकरी न पाने का कोई कारण नजर नहीं आता. मां कहतीं कि उनके देखते कालोनी की ऐरी-गैरी नत्थू-खैरी लड़कियां नौकरी पर लग गईं. परिचितों के लड़कों के तबादले होने लगे.
कैसे समझाए कि बगैर सिफ़ारिश के आजकल बात नहीं बनती. और इसी अक्षत का अभाव है उसके पास. रही लड़कियों की बात, तो वे अपने आप में एक जबरदस्त ‘सिफ़ारिश’ हैं... भला उन्हें ‘सिफ़ारिश’ की क्या जरूरत ? जमाना ही लड़कियों का है. घर, सड़क, दफ़तर, बाग़-बगीचे, रेलवे प्लेटफॉर्म, फुटपाथ, बाजार, दुकानें – जहाँ देखो वहीं लड़किया ही लड़कियां उमड़ी चली आ रहीं. टिड्डियों के दल-सी यह जो युवकों में बेकारी की बाढ़ आई हुई है – लड़कियां ही जिम्मेदार हैं. घरों में बंद चूल्हा-चौका निपटा रही होतीं तो आज लड़के निठल्ले, बेरोजगार न घूम रहे होते. डिग्रियों का पुलिंदा कंधों और खोपड़ियों पर ढोए हुए !... निराश, हताश !... जीवन से विरक्त !...
उसे लगता है कि एक आंदोलन शुरू होना चाहिए. देशव्यापी स्तर पर. देश के सारे युवकों को संगठित होकर लड़कियों के खिलाफ नाकेबंदी करनी चाहिए कि वे घरों की शोभा हैं, कृपया घरों में पायल रूनकाती-झुनकाती, सिरों पर पल्लू डाले मांग में चुटकी भर सिंदूर भरे पतियों, भाइयों, सास, ससुर की सेवा करें !... दफ़तरों में कुर्सियां क्यों अगुवा रखी हैं, खाली करें !... ‘देश की महिलाएं मुरदाबाद !’ ‘महिलाओं दफ़तर खाली करो... !’ ‘महिलाओं को भगाओ, बेकारी मिटाओ !’ यह निश्चित है अगर देश की सारी नौकरी पेशा महिलाएं नौकरी से इस्तीफा दे दें तो देश में बेरोजगारी की समस्या चुटकियों में हल हो जाएगी.
इतने खराब मूड में भी वह मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका.
अचानक कभी उसका दिमाग चमत्कारी हो उठता है और ऐसी-ऐसी धासूं बातें सोचता है जिनका कोई जवाब नहीं. भले ही वे बेसिर-पैर की हों. बेसिर-पैर की क्यों, वास्तविकता यही है. अपने ही घर का उदाहरण ले लें तो तस्वीर का पहलू यह भी हो सकता है था कि अनु घर पर बैठी काम के बोझ से त्रस्त खीजती-झल्लाती मां की मदद कर रही होती और वह उसकी जगह ओबराय में नौकरी कर रहा होता.
अब क्या पढ़ना अखबार ! होता ही नहीं पढ़ने लायक कुछ. रोज-ब-रोज घिसी-पिटी घुमा-फिराकर वही-वही बातें. उसकी पीढ़ी के लिए अख़बार हफ़्ते में सिर्फ एक ही रोज निकलता है. और वह दिन होता है रविवार. तीन पृष्ठ रिक्त स्थानों के विज्ञापनों से भरे हुए. आंखें गड़ाए सुबह से शाम हो जाए तब भी कुछ-न-कुछ पढ़ना छूट जाए. उनमें से अपनी लियाकत के मुताबिक रेखांकित करना तो और भी मुश्किल.
अख़बार परे फेंककर उठ खड़ा हुआ. नहा-धो ले. दाढ़ी भी बनानी है. रेखा को बढ़ी हुई दाढ़ी से नफरत है, ‘लगता है, आजीवन कारावास काटकर चले आ रहे हो...’ देखते ही ताना कसती. उसका नियम है. जिस वक्त उसे रेखा के पास जाना होता है उसकी पसंद-नापसंद महत्वपूर्ण हो उठती है.
हालांकि आजकल उसका मूड उखड़ा है और कटखना हो गया है. रेखा भी उसे दोस्त कम और प्रतिद्वंद्वी अधिक लगती है. ऐसे क्यों हो रहा है उसके साथ ! सामान्य बने रहने की चेष्टा किसी अदृश्य दबाव के तहत निष्फल हो उठती है.
उसकी तस्वीरें देख रही रेखा अंग्रेजी के भौंड़े-भौंड़े शब्दों में अपनी प्रसन्नता व्यक्त कर रही है, ‘हाय अशोक, किसने ‘डेशिंग’ लग रहे हो... ! यह ‘क्लोजअप’ ... वॉव, अशोक.’
रेखा का आग्रह गंभीरता से न लेने के बावजूद रख लिया था उसने. तस्वीरें धुलकर आ गई थीं और वह अलबम उसके पास दिखाने ले आया.
बहुत दिनों से रेखा उसके पीछे पड़ी हुई थी वह अपनी कुछ तस्वीरें क्यों नहीं उसकी विज्ञापन एजेंसी में रख देता. क्या पता. कभी किसी ‘क्लाएंट’ को उसकी तस्वीर पसंद आ जाए और वह माडलिंग के लिए चुन लिया जाए. माडलिंग... बतौर शौक करने में कोई हर्ज नहीं. पैसा भी ठीक-ठाक मिल जाता है. साथ ही शोहरत भी.
‘तुम मेरी बात पर कभी गौर नहीं करते अशोक... आईस्वेर... तुम कद-काठी से ही नहीं बल्कि चाल-ढाल, अंदाज से भी विशिष्ट लगते हो.’ वह हमेशा उसे प्रोत्साहित करती... उसे उकसाती. वह चाहे जो भी पहन ले. चाहे जैसे भी पहन ले.
‘रहने दो’ वह सोचता कि रेखा उसे लपेट रही है. कुछ ज्यादा ही चढ़ाती है उसे चने के झाड़ पर.
बहुत दिनों तक बात टलती रही. एक तो वह रेखा के माध्यम से कोई काम नहीं चाहता था. दूसरा उसे ‘मॉडलिंग’ का पेशा प्रतिष्ठित नहीं लगता रहा. मगर रेखा ने इस दिशा में अपनी प्रयास नहीं छोड़ा. एक रोज वह छायाकार दवे को लेकर घर पंहुच गई और उसने उसे तस्वीरें खिंचवाने के लिए मजबूर कर दिया. उसके और दवे के संकेतों पर कठपुतली बना वह मुद्राएँ देता पल-छिन नाचता रहा. रेखा को चेतावनी देता रहा कि वह फ़िज़ूल उसकी तस्वीरें खिंचाने में समय और पैसा जाया कर रही. संयोग और सुयोगों ने उससे किनाराकशी कर रखी है. सारी मेहनत बेकार जाएगी. मगर रेखा पूरे वक्त बहरी बनी हुई दवे के साथ परामर्श करती मनोयोग से अपने काम में लगी रही.
काम समाप्त कर दवे के जाते ही वे कमरे में आ बैठे पस्त से. मां ने उसके साथ चाय भर पी. रेखा के दोबारा चाय के आग्रह पर वे केवल ‘ट्रे’ उनके मध्य रखकर अपने कमरे में लौट गई. रेखा ने पास बैठने की बहुत जिद की. पर वे लगातार अन्यमनस्क बनी रहीं, ‘फिर कभी बैठूंगी, बेटे.’ रेखा ने भांप लिया कि मां-बेटे के मध्य जरूर कोई तनातनी चल रही. वरना मां उसके आने पर खूब खुश होतीं. खूब चटर-पटर करतीं. मन में आया कि अशोक से सीधे पूछे कि क्या बात है, मां इतनी चुप-चुप और अनमनी-सी क्यों है ? पर इस भय से छेड़ना मुनासिब नहीं लगा कि कहीं अशोक अपने मनोद्वंद्व को उगलने लगा तो उसकी स्थिति बड़ी विकट हो उठेगी. घर के खिलाफ अशोक के मन में ढेरों कड़वाहट उबल रही... विशेषकर मां के संदर्भ में. मां पर वह सदैव निर्भर रहा है. छोटी-बड़ी जरूरतों के लिए. अब बढ़ी हुई उम्र और क्षीण हुई शक्ति के चलते वे शायद उसकी ज़रूरतों को अपेक्षित तवज्जोह नहीं दे पातीं. उपेक्षा का हल्का-सा झोंका भी उसे विश्रृंखल कर देता है...
‘इतने स्वार्थी और खुदगर्ज न बनो. किताबें बहुत पढ़ ली हैं. मां को जरा समझने की कोशिश करो. ये मामूली-सी बातें ज्यादा इसीलिए चुभती हैं तुम्हें, क्योंकि तुम अपने आपको असफल महसूस करने लगे हो... सीधे-सीधे से भी पूछी जाने वाली बातें तुम्हें ताना-तुक्का लगती हैं, अशोक. ऐसा नहीं है यह खीज उनकी दुश्चिंता है. तुम्हारे प्रति, तुम्हारे भविष्य के प्रति...’
रेखा बोलती है तो बोलती ही चली जाती है. दरअसल रेखा से किसी भी प्रकार की बहसबाजी उसे निरर्थक लगती है. किसी हद तक रेखा उसकी तिरस्कृत मनःस्थिति की खरोंच को महसूस करती है पर पूर्णतः नहीं. कर भी नहीं सकती. जिस अच्छे-खासे ओहदे पर वह बैठी हुई है, सफलता और संतुष्टि का चश्मा उसकी आंखों को सचाई से विमुख किए हुए है. वह तट पर बैठे किसी व्यक्ति का अवलोकन है, तैराक का नहीं. अनुमानों, कल्पनाओं और सहानुभूति से न किसी का नरक बंटा है, न बांटा जा सकता है. अपने घर में वह अकेली बेटी है.
एक वक्त था... मां की नजर में वही वह था. बचपन से ही उसे यह अहसास दिया गया कि तुम लड़के हो, श्रेष्ठ हो. तुम्हें कुछ बनना है. तुम्हारे कुछ-न-कुछ बनते ही सारा नक्शा बदल जाएगा. लेकिन बड़े होते-होते परिस्थिति कितनी बदल गई. बड़े होते-होते नहीं शायद... नौकरी की तलाश शुरू होते ही. शायद... वह और अनु घर के दो प्रतिस्पर्धी छोर हो गए. उनमें दुराव बरता जाने लगा. खुल्लम-खुल्ला. बाबूजी भी पहले वाले बाबूजी नहीं रहे. न पहले की तरह वे उसे पास बिठाते, न बतियाते, न सुझाते कि उसे क्या करना चाहिए. पहले जरा-सा भी वह कमजोर दिखाई देता तो वे उसे अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाकर धैर्य बंधाते. मेहनत करने के लिए प्रेरित करते.
मां कितना आगे-पीछे घूमती थीं उसके. कहां तो अनु को बमुश्किल एक वक्त दूध मिलता, जबकि उसे दोनों वक्त जबरन पिलाया जाता. नाश्ते में उसे रात में विशेष रूप से भिगोई गई बादाम की दो गिरियां खानी जरूरी होतीं. एक दफे पढ़ते समय उसने मां से आंखों में जलन होने की शिकायत की तो मां भरी दोपहरी दवाइयों की दुकान पर जाकर ‘गुलाब जल’ की शीशी खरीद लाई और अगले ही रोज दस किलो आंवले का मुरब्बा बना डाला. अनु खाने के लिए माँगती तो स्पष्ट झिड़क देतीं, ‘देखती नहीं कित्ता झटक गया है, अशोक ? कसरत करता है. बादाम उसके लिए आवश्यक हैं या तेरे लिए ? इस उम्र में बेचारे को खुराक के नाम पर मिलता क्या है. एक तेरे बाबूजी का जमाना था... दंड-बैठक पेलते थे तो छटांक-छटांक बादाम, बाल्टी-बाल्टी दूध पीते थे. वही खिलाई-पिलाई है आज काम दे रही है. तीन-तीन हार्ट अटैक हो जाना मामूली बात है ?’
किसी विषय में वह फेल हो जाता या कम नम्बर लाता, मां फौरन उसके लिये ‘टियूशन’ रख देतीं. अनु रिरियाती तो वे तंगी का रोना रोने लगतीं. उसका साल खराब हो गया तो उम्र का घपला हो जाएगा. सरकारी नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकेगा. तेरा क्या, तू ब्याह करके चली जाएगी ससुराल. प्रथम श्रेणी में पास हो या तीसरी. क्या फ़र्क़ पड़ता है ? सेवा बेटा ही करेगा... आखिरी समय मुंह में गंगाजल डालेगा... कंधों पर ढोकर ले जाएगा श्मशान... वंश वृद्धि करेगा...
...अब पासा पलट चुका है. उसकी जगह अनु ने ले ली है. मां को छीन लिया है, बाबू जी को छीन लिया है. नियति के हाथों वह कितना विवश है. समझ में आ रहा है. मां-बाप से बढ़कर व्यापारी दुनिया में और नहीं. वे सिर्फ अपने को जीते हैं. और जो उनके जीने में रंग भरे, वही उनका सब कुछ ! वास्तविकता यही है कि सामाजिक व्यवस्था अगर बहुत पहले लड़कियों को घर के भीतर की जिम्मेदारी न सौंप, आर्थिक पक्ष संभालने की जिम्मेदारी सौंप देती तो निश्चित ही छटांक-छटांक बादाम की गिरियां उसकी सेहत के लिए भिगोई जातीं और दरवाजे पर बंधी भैंसें बाल्टी-बाल्टी उसी के लिए दूध देतीं.
‘चाय पीने चलें ?’
‘...’
‘कहाँ खोए रहते हो हर वक्त ? शिप्रा ने तुम्हें विश किया और तुमने मात्र सिर हिला दिया ?’
उसने कोई जवाब नहीं दिया. ऐसा जान-बूझकर नहीं होता उससे. रेखा जानती है, शायद वह टोक इस वजह से रही है ताकि वह आगे से एजेंसी में अपने व्यवहार के प्रति सचेत रहे, सौहार्द्रपूर्ण रहे. उसके प्रति लोगों की धारणा अच्छी बने. मित्रतापूर्ण बने. तस्वीरें पसंद की जाती हैं तब यह जिम्मेदारी और बढ़ जाएगी. हालांकि उसे विश्वास नहीं कि उसकी तस्वीरें किसी ‘क्लाइंट’ को आकर्षित कर पाएंगी. जो भी हो. रेखा को तो तसल्ली हो गई.
शाम को चारों बेकारों की ‘मीटिंग’ हुई सतीश के घर. रूपरेखा को अंतिम रूप दिया गया. आवेदन-पत्र की औपचारिकताएँ पूरी की गईं. तय हुआ कि कौन क्या-क्या काम संभालेगा. भागा-दौड़ी उसके वश की नहीं. उसने अपने जिम्मे लिखा-पढ़ी ले ली. भागा-दौड़ी सतीश एवं निगम के हिस्से में पड़ी. जगह आदि तय करना नितिन के जिम्मे. नितिन ने बताया कि ‘वासी’ के निकट लघु उद्योगों के लिए महाराष्ट्र सरकार नाममात्र के पैसों पर जगह मुहैया करा रही है. अभी स्थान पूर्ण विकसित नहीं है, मगर जल्दी ही हो जाएगा. पानी और बिजली की सुविधा है.
उन्होंने कार्यक्रम बनाया कि अगले शनिवार को वे चारों वासी जाएंगे और जगह देख लेंगे. शेड किराए पर लेना हो तो उल्हास नगर बुरी जगह नहीं, मगर न्यू बांबे का पुल पूरा होते ही वासी सोना हो जाएगी. फिर अपनी जगह तो अपनी जगह है. सतीश के हिसाब से राजनीतिक पेपरवेट भी है उसके पास. खाद्य मंत्री शेवड़े रिश्ते में दूर के मामा लगते हैं. डेढ़-दो महीने में मामला जम जाना चाहिए. जमाना ही पड़ेगा. सबके ‘मूड’ हल्के-फुल्के हो आए. कल क्या होगा, पता नहीं, मगर एक शुरूआत हो चुकी. वे अपने दिलों में उत्साह और फुर्ती का संचार महसूस कर रहे थे...
निगम और नितिन उठे और सीधे अपने-अपने घर चल दिए. वह इतनी जल्दी घर लौटने के ‘मूड’ में नहीं था. क्या करेगा आठ बजे ही गर पहुँचकर ? आजकल कोई नई किताब भी नहीं पढ़ने के लिए. अनायास उसे ‘दाग’ का खयाल हो आया. मां ने बड़ी प्रशंसा कर रखी थी इस फ़िल्म की. सोचा, चलकर क्यों न ‘दाग’ ही देखी जाए. सतीश को प्रस्ताव भा गया. दोनों थिएटर पर पहुंच गए. टिकटघर पर खासी भीड़ थी. पुरानी फिल्मों को लेकर दर्शकों में अभी भी काफी उत्साह है. मां को बस पता लगना चाहिए कि कहां सुरैया की फिल्म लगी है, कहाँ नर्गिस या मधुबाला या निम्मी की. काम-धाम छोड़कर फिल्म देखने निकल लेंगी. पुरानी तो पुरानी, आज की फिल्में उनसे कहां छूटती हैं. अच्छी हों या बुरी. जिस फ़िल्म को वे और अनु एक बार बरदाश्त नहीं कर पाते उसे वे घर लौटकर दुबारा-तिबारा देखने की घोषणा ठोक देतीं. बाबूजी दबे स्वर में मां के शौक की तरफदारी करते हैं- पान न सुपाड़ी – ले दे के एक सिनेमा.
बाबूजी का तर्क सुनकर उसे हंसी आती. पचासों रुपए हर हफ़्ते मां के शौक के पीछे फुंक जाते, कभी तंगी महसूस न होती. तंगी की हाय-तौबा उसी समय मचती जिस समय वह मुंह खोल बैठता. उसे हजार सीखें सुननी पड़तीं. फिजूलखर्ची से आगाह किया जाता. बुरी लतों से दूर रहने की ताकीद की जाती.
एक बजे रात दरवाजा मां ने ही खोला.
चाबी साथ ले जाना ही भूल गया था. जब भी देरी से घर लौटना होता, गोदरेज लाक की चाबी साथ ले जाना न भूलता. ताकि उसकी खातिर किसी की नींद में खलल न पड़े.
कमरे की ओर बढ़ ही रहा था कि नियम के विपरीत मां ने पूछा, ‘खाना ?’
‘ले लूंगा... जाकर सो जाइए आप.’
‘गरम ही होगा अभी,’ कहकर वे मुड़ने लगी तभी अचानक उन्हें कुछ खयाल हो आया. ‘सुन... रेखा का फोन दो बार आया था तेरे लिए. कल ठीक ग्यारह बजे तुझे उसकी एजेंसी में पहुँच जाना है. किसी क्लाएंट से जरूरी मीटिंग है...’ और वे बगैर किसी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किए अपने कमरे में दाखिल हो गईं.
कल दोपहर सचिवालय जाना भी तय हुआ है. सतीश के साथ उसके मामा शेवड़े जी से मिलने. सुबह सतीश से फोन पर तय कर लेगा कि वह उससे कहाँ मिले. रेखा की एजेंसी वीटी पर ही है. ज्यादा दूर नहीं है वहां से सचिवालय.
मिल्क कुकर की सीटी पूरे घर में सुबह का ऐलान करने लगी.
उसकी नींद टूट गई. नींद आई भी बहुत गहरी थी. वरना दूध वाले की घंटी बजते ही वह जाग जाता. आज पता ही नहीं चला कि दूध वाले की घंटी कब बजी. थक बहुत गया था कल. रेखा के पास से लौट कर वह ठीक साढ़े चार बजे सचिवालय पहुँचा जहाँ खड़ा सतीश उसकी प्रतीक्षा करता मिला. दोनों ही मुलाक़ातें सार्थक रहीं. पीठ ठोंककर मंत्रीजी ने उनकी हिम्मत बढ़ाई और स्पष्ट संकेत दिए कि वे उनके मामले को शीघ्र ही देखेंगे. अपने दढ़ियल सेक्रेटरी को बुलाकर उन्होंने फौरन उनके काग़ज़ात ले लेने को कहा. बातचीत से उसे यही आभास हुआ कि जैसे उन्हें ऋण चुटकियों में मिल जाएगा. ... पर सतीश ने सदैव की भांति उसे उड़ने से रोका, ‘यार, यह तो निश्चित है कि अपना काम हो जाएगा, पर इतनी आसानी से नहीं, तू इन राजनीतिज्ञों को नहीं जानता. ये ऐसे सुनार हैं जो अपने बाप को भी न छोड़ें. अभी आठ-दस चक्कर लगने मामूली बात है.’
लौटते समय वे गिरगांव में चमड़े के थोक व्यापारी पवार सेठ से भी उनके घर पर मिलते हुए आए. पवार सेठ से मिलकर वे इस मुद्दे पर एकमत हुए कि कच्चा माल बजाय थोक व्यापारियों से खरीदने के, उनके लिए उन्हीं शहरों में जाकर सीधे खरीदना अधिक फ़ायदेमंद होगा.
खुशी और दिमागी हल्केपन का एक और जबरदस्त कारण था.
जिस क्लाएंट से रेखा ने उसे मिलवाया वह उससे मिलकर इतना प्रभावित हुआ कि उसने बतौर अग्रिम अनुबंध राशि उसे हजार रूपए का लिफ़ाफ़ा पकड़ा दिया था. शेष पारिश्रमिक सत्ताईस-अट्ठाईस की दो दिन की ‘शूटिंग’ खत्म होने के उपरांत. यह भी शर्त रखी कि वह उनकी टाइयों के विज्ञापन के अतिरिक्त अन्य किसी टाई कम्पनी के लिए विज्ञापन नहीं करेगा. इसके लिए अनुबंध अवधि का हर माह उसे बंधा हुआ पैसा मिलेगा. उसे क्या दिक्कत हो सकती थी ? उसने बस इतना किया कि क्लाएंट जब उससे शर्तों की सहमति का ठप्पा लगवाना चाहता, वह रेखा की ओर संकेत कर देता... जैसा रेखा जी कहेंगी...
रेखा ने हर माह दिए जाने वाले पारिश्रमिक पर जरा आपत्ति प्रकट की कि यह राशि बहुत कम है. अन्य टाई कम्पनियों के लिए काम न करें इसके लिए पारिश्रमिक वाजिब तो होना ही चाहिए. थोड़े तर्क-वितर्क के बाद राशि आठ सौ रूपया महीना बढ़ गई. अनुबंध हस्ताक्षरित हो गया. वह रेखा की कार्यकुशलता पर मुग्ध हो उठा. उसे अनुमान नहीं था कि वह पुरुषों को चराने में इतनी चतुर होगी. क्लाएंट ने उसे प्रथम बधाई दी. रेखा ने भी, अपनी अंतरंगता न जाहिर करते हुए.
क्लाएंट की गाड़ी जाते ही उसने रेखा को बगैर ‘आसपास’ की परवाह किए बाजुओं में समेट लिया. रेखा को अरसे बाद उसने इतना खुश पाया था. घर के लिए ‘ब्रजवासी’ से रेखा ने दो किलो बरफी बंधवाई, ‘घर पहुँचते ही मां के हाथ में देना. पैर छूना न भूलना.’ बरफी का डिब्बा सादे खाकी कागज में पैक करवाया ताकि देखने में ऐसा आभास हो कि कुछ किताबों का बंडल है. रेखा को मालूम था कि उसके पास से उसे ‘सचिवालय’ पहुँचना है. सतीश वहां उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा...
आज दोपहर को उसे तीन-साढ़े तीन के बीच ताड़देव ‘उमेश’ के यहाँ पहुँचना है. कपड़ों का नाप देने. कपड़ों के चार ‘सेट’ बनेंगे उसके, जिन्हें उसे ‘शूटिंग’ के दौरान बदल-बदलकर पहनना है.
पिछले छः महीनों से वह बगैर बनियान के कमीजें पहन रहा. चड्डियां तो खैर... अभी कुछ दिन और घसीट ले जाएंगी. मां का ध्यान ही नहीं जा रहा था. उसे ध्यान दिलाना पड़ा तो मां बोलीं, ‘मैंने तो समझा था कि तू इसलिए नहीं बोल रहा है कि आजकल बगैर बनियान के कमीज पहनने का फैशन चल रहा...’ जी में आया कि संकोच छोड़ तड़ाक से कह दे कि... पर लिहाज में चुप्पी साध गया. वह कमाता नहीं है तो मां की नीयत स्पष्ट है कि कम-से-कम में काम चलाना चाहिए. नहीं है तो उसमें भी.
रेखा ने कहा ही था. उसने भी यही सोचा कि कायदे से पहली कमाई यही है और वह मां के हाथों में रखी जानी चाहिए. उसने किया भी वही. पैसों का लिफ़ाफ़ा और मिठाई का डिब्बा घर में घुसते ही मां को पकड़ा दिया. पाँव छू लिए. अनमने भाव से. अब ये ढकोसले बेनकाब हो चुके हैं. काहे का आदर, काहे का आशीष !
मां भौंचक्की रह गई. एकदम से समझ नहीं पाई. या विस्मय दिखाने का नाटक किया. वास्तविकता जानते ही उनकी आंखों का रंग बदल गया. उसकी बेरोजगारी के दुःख से सोई ममता अचानक उमड़ पड़ी. झर-झर आंसू बहने लगे. अभिनेत्री भी अच्छी हैं, ‘प्रसाद’ चढ़ाने की बात श्लोक-सी उच्चारी गई. ढोंग में उसे विश्वास नहीं. उसने स्पष्ट मना कर दिया था कि वह मंदिर-वंदिर नहीं जाएगा. शाम को बाबूजी ने गंभीरता के खोल से बाहर आए बगैर ही उसे विज्ञापन फिल्म पाने पर हार्दिक बधाई दी. अनु सदैव की तरह ही नाटकीय थी. मिलते ही कंधों से लटककर उसने उसका माथा चूमा. कैसे-कैसे क्या हुआ, पूछा. सारा कुछ ब्यौरेवार जानने की जिद की. बाबूजी भी पास आ बैठे. मां कॉफी बना लाई अपने आप. उसे अरसे पहले की वे सुबहें याद हो आईं. वे सुबहें कितनी सच्ची थीं... यह शाम... यह शाम कितनी औपचारिक अपरिचित !
अचानक अपनी कुहनी पर उसे किसी मुलायम स्पर्श का अहसास हुआ...
उसकी आदत है. वह सोता इसी तरह है. कुहनी से चेहरा ढंककर. इस वक्त जरूर किसी ने उसकी कुहनी को छुआ है... मगर कौन ? वहम भी तो हो सकता है उसका. जब से नींद टूटी है सोच रहा है, सोच रहा है... बाह्य हलचल से अस्पर्शित उसके भीतर एक दुनिया है जहाँ किसी का हस्तक्षेप नहीं. जहाँ वह अपने तरीके से रहता है. अपने तरीके से जीता है. अपने तरीके से किसी को प्यार करने के लिए स्वतंत्र है. किसी से घृणा करने के लिए भी. और, ये जो उसके अपने हैं, उन्हें वह उस दुनिया के भीतर खूब-खूब घृणा करता है. बात-बात में चुनौती देता है. तिरस्कृत करता है. यही लोग हैं जिनकी वजह से वह अपने को आज किसी काबिल नहीं रह गया अनुभव करता है, इन्होंने ही तो उसके जिस्म में कूट-कूटकर भर दिया है कि तू बेकार है, नकारा है. बुहारे कूड़े-सा.
कुहनी फिर छुई गई. झकझोरी गई. कोई उसे ही उठा रहा है. पर इतनी सुबह ? इस घर में यह अजूबा कैसा ? नियम भंग कैसा ? बेगाने घर को अचानक उसमें दिलचस्पी कैसे पैदा हो गई ? वह एकाएक सुबह में कैसे शामिल किया जा रहा है ? कहीं अनु के भ्रम में तो नहीं उठाया जा रहा उसे ?
कुहनी अबकी और जोर से झकझोरी गई. मनुहार भी उसकी ओर झुका. ‘उठ ना... ले चाय पी ले...’
मां... ? हां मां ही तो उठा रही हैं उसे. यह क्रम कैसे बदल गया ? वह उठ बैठा. ‘मां,... मां, मैं हूं... अनु नहीं...’ शब्दों पर मां को सहज पाया.
‘हां, हां, मैं तुझे ही उठा रही हूं, ले चाय पकड़ !’ चाय का प्याला उसकी ओर बढ़ाकर मां अनु के पलंग की ओर बढ़ गई – उसे उठाने. हतप्रभ हो उसने अनु की ओर देखा. अपने बिस्तर पर सिकुड़ी-सिमटी-सी पड़ी हुई अनु ने मां के हिलाने पर ऊं-ऊं की. गर्म चाय के प्याले से उसकी उँगली तपने लगी थी – उसे लगा जैसे उसने पैसों वाला वह लिफ़ाफ़ा पकड़ रखा है.
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प्रख्यात कथा लेखिका चित्रा मुद्गल के कई उपन्यास, कहानी संग्रह, बाल कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. आपको दिल्ली की हिंदी अकादमी के साहित्यकार सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है.
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