पद्मा सिंह कभी न खत्म होता इंतजार--(5/2/18) ख़ामोशियों में भी जब चीखें सुनाई दें कुछ भी कभी भी घट सकता है! अनिश्चित अनायास धसकने वा...
पद्मा सिंह
कभी न खत्म होता इंतजार--(5/2/18)
ख़ामोशियों में भी जब
चीखें सुनाई दें
कुछ भी कभी भी
घट सकता है!
अनिश्चित अनायास
धसकने वाली
चट्टानों सा!
तब
न धर्म काम आता
न नैतिकता की थोथी दलीलें!
फर्क नहीं कर पाता
जुनून
पाप और पुण्य के नारों में
जानवर जाग जाता है
क्षण भर में
उन्माद
नाखूनों को बदल देता है
हथियारों में
भीगे परों में कँपकंपाते
किसी पंछी सा
धड़कता है दिल
और चुक जाती है चेतना
ऐसे में मुझे ख्याल आता है
घर लौटने की उम्मीद से भरी
उन आँखों का
दो कदम साथ चल कर
ठिठके उन कदमों के ठहराव का
और थरथराते होंठों से
अलविदा कहती
हिलते हाथों की जुम्बिश का
पनीली आँखों में जिन्दा होगी
आज भी
मेरे लौट आने की उम्मीद
----
भय आशंका और अनिश्चितताओं के दौर में
तेज रफ्तार से भागना बड़ा मुश्किल है
निर्मम बेतरतीब फैली लताएँ
लिपट जाती हैं बार बार
रोकने लगती हैं बढ़ते कदम
घट रहा है बहुत कुछ
जिसे देखकर भी अनदेखा करते
हम उन खुराफतों और कारगुजारियों को
अंजाम देने में वक्त जाया कर रहे हैं
जिन्हें भुला नहीं पाएँगी सदियाँ
आग का दरिया पार करने का जुनून
और जीने का हौसला
बमुश्किल पैदा होता है
किसी एक में
कहानी एकाएक नहीं बनती
नश्तर सी गुजरती है आरपार
कितने दर्द कितने आँसू बेहिसाब
बेचैन ख्वाबों से लेती है
आकार
गर्म रजाइयों और अलाव की नर्मआँच में
सुकून से सोने वालों को क्या पता
कि लहरों की तड़प और
गीली लकड़ियों की सीली आँच शामिल करनी पड़ती है
किस्सों को गढ़ने में
कहानी बुनी जाती है
सांसों के तारों से
घास पर
बेवजह ही तो नहीं टिकी रहती ओस
सब कहां महसूस कर पाते हैं
धरती की अनगिन दरारों में
दफ़न होती घुटन
कदम फिर भी बढ़ते हैं
अनाम से बोझ से शिथिल
जारी रहती हैं यात्राएँ
समय तो चक्कर खाता
घूमता रहता है अपनी ही धुरी पर
मगर चुक जाता है हमेशा
चलने वाला ही
--
तुम्हें इंतजार था एक देवता का
लो उतर आए हैं देवता
एक नहीं
थोड़ा थोड़ा कई लोगों में
त्राहि त्राहि कर रही
बेघर बेबस भीड़ को
पनाह देते मनुष्यों में
जल, थल और वायुसेना के
हर एक जवान की जिजीविषा में
आसुरी वृत्तियों की
लिस लिसी संवेदन शून्य हिंसा के बीच मरणासन्न मानवता को सहारा देते
चिकित्सकों में
सेवा परमो धर्म को साकार करते सफाई कर्मियों में
भूख से व्याकुल बूढ़े की भूख मिटाते
संक्रमण भरे
चौराहों गलियों
और धूल भरे रास्तों में
दिन रात चाक-चौबंद
सेवाभावियों में
जो कर रही है अहर्निश मृत्यु का आव्हान
रच रही है भय का माया जाल
उसी अपरिभाषित आसुरी शक्ति से
युद्ध रत हैं देवता
योद्धाओं में
उतर आए हैं देवता
विश्वास करो
अवतार हुआ है ईश्वर का
इस कलयुग में
पाप पंक से विकृत हो चुकी
पृथ्वी को अभय देने
कई रूप धारण कर
फिर एक बार
मनोलोक से उतर आया है
ईश्वर
हमारी श्रद्धा का आलोक बन कर
00000000000
निलेश जोशी "विनायका"
मां
जब दुनिया में आया था मैं
अपनी मां को ही पाया था
मैं उसकी आंखों का तारा
सबके मन को भाया था।
जब भी मेरी आंख खुली
गोदी का एक सहारा था
उसका कोमल आंचल मुझको
पूरी दुनिया से प्यारा था।
मेरे चेहरे की मुस्कान देख
फूलों सी खिल जाती थी
भूख मुझे जब भी लगती
छाती उसकी मिल जाती थी।
बुरी नजर का काला टीका
हर रोज लगाती रहती थी
घुटनों के बल रेंग रेंग कर
चलना सिखाती रहती थी।
उंगली पकड़ चलना सिखलाती
देख देख मुस्काती थी
मेरी नादानी पर हंसकर
बहुत मुझे समझाती थी।
मेरे रोने पर रो देती
हंसने पर हंस देती थी
मेरे प्रश्नों का उत्तर देती
राह सही दिखला दे दी थी।
सुला सूखे बिस्तर पर मुझको
खुद गीले में सो जाती थी
मुझे सुलाने रात रात भर
खुद जगती रह जाती थी।
अपना जीवन यौवन खोकर
हमको जीवन नव देती है
भगवान कहां है मत ढूंढो
जन्म उसे भी वह देती है।
छिपा लो दर्द चाहे कितना भी
मां उसे पहचान लेती है
हाथ फिरा कर सर पर अपने
पीड़ा अपनी हर जान लेती है।
हर दर्द की दवा मां होती है
डांट पिलाकर गले लगाती
देख अपनी आंखों में आंसू
सीने से अपने लगाती।
होकर शामिल खुशियों में
अपने गम सारे भुला देती है
तप्त दुनिया की तपिश में
आंचल की शीतल छाया देती है।
हिम्मत मुझको देती रहती
विचलित कभी नहीं होती है
तेरी समता अनुपम जग में
तुलना कभी नहीं होती है।
मां ममता की मूरत है
करुणा की किरण होती है
जीवनी शक्ति की सूरत है
अमृत सी तारण होती है।
दया दिखाती है हम पर
चाहे गलती अपनी होती है
जन्नत है चरणों में इसके
मिलती किस्मत जिसकी होती है।
मां का सुंदर रूप सलोना
साक्षात भवानी होती है
झुक जाते भगवान चरणों में
मां की ऐसी कहानी होती है।
अपनेपन का रंग लुटाती
प्रेम का सागर होती है
साया बनकर साथ निभाती
सुख की चादर होती है।
नया-नया यह ज्ञान सिखाती
शिक्षक मेरी बन जाती है
गुस्से से कभी आंख दिखाती
कभी दोस्त बन जाती है।
स्नेह सिक्त ह्रदय से मां
जब मुझे देखती रहती है
तेरी आंखों में खुशियों की
झलक छलकती रहती है।
निलेश जोशी "विनायका"
बाली, पाली (राजस्थान)
00000000000
अविनाश ब्यौहार
//--दोहे--//
गर्मी ऐसी पड़ रही, जीव जन्तु बेहाल।
माँगें जल की भीख है, झील, नदी औ ताल।।
****
जेठ माह में क्या करें, सूरज का श्रंगार।
जला देह को रही है, इन किरणों के हार।।
****
जब पावस होगी यहाँ, सूर्य पड़ेगा शांत।
उजला होने लगेगा, तालों का मन क्लांत।।
****
पतझर आया धरा पर, लेकर कितने रूप।
जलती सी चट्टान है, प्यास झाँकती कूप।।
******
हरियाली ने रख लिया, है निर्जल उपवास।
आसमान में मेघ हों, बुझे धरा की प्यास।।
******
पत्ते सारे झर गए, यों तपता आकाश।
बागों में दिखने लगी, बस पत्तों की लाश।।
*****
साँय साँय लू चल रही, चाँटा जड़ती धूप।
हिम शिखरों पर लग रही, गर्मी बहुत अनूप।।
*****
चोर-उचक्के तो मिले, मिला न किंतु कबीर।
या रंगों के पर्व में, गायब हुआ अबीर।।
*****
ऋतुएँ कभी भूली नहीं, हैं अपना कर्तव्य।
हर दिन होता है यहाँ, नया-आधुनिक-नव्य।।
अविनाश ब्यौहार
रायल स्टेट -कटंगी रोड
जबलपुर.
0000000000
प्रांशु रॉय!!
खामोशियाँ
ये खामोशियाँ क्या-क्या बतला रही,
नभ में उड़ती पंछियाँ भी कुछ बतला रही।
बात अब कुछ तो समझ मे आ रही,
ये खामोशियाँ सब कुछ बतला रही।।
मानव तूझको खामोशियाँ बतला रही,
मालिक नही तू धरा का ये समझा रही ।
आये हो किराएदार बन कर बतला रही,
ये खामोशियाँ तुझे मर्यादा याद करा रही।।
पल-पल बढ़ती ये खामोशियाँ डरा रही,
तुझे तेरी औकात पल-पल दिखा रही।
कानन की खुशहाली कुछ तो दिखा रही,
विचरते जीवों का अधिकार सुना रही।।
कल-कल करती सरिता की सुर सुना रही,
धरा पर अपने सुत- सुता का भी अधिकार जता रही।
ये खामोशियाँ क्या कुछ ! या सब कुछ बतला रही,
ख़ामोश हो कर भी खामोशियाँ जता- बता रही।।
प्रांशु रॉय!!
000000000000
सुमन आर्या
दीप बनो
***
स्वयं दीप बनो ।
स्वयं नियमन करो ।।
सभ्य,ज्ञानी,जागरूक हो तुम ।
खुद,खुद का संचलन करो ।।
परस्पर,सुरक्षित,दूरी का
ध्यान रखते हुए
खुद सतर्क रहो
नियमो का अनुसरण करो
खुद के रणक्षेत्र
योद्धा बने हो तुम
खुद की नीतियों से
बनाए पथ पे,
स्वविजय करो ।
जोखिम भरा ये जीवन
इच्छा का कर दे तर्पण
खुद पे लगा,खुद की पाबंदी
मानवता का संरक्षण करो ।
स्वयं दीप बनो ।
स्वयं नियमन करो ।।
सुमन आर्या
*****
000000000000000
डॉ. उमेश कुमार शर्मा
कविता : चोट
हम करते रहेंगे चोट
तुम्हारी व्यवस्था पर
तुम्हारी संस्कृति पर
तुम्हारी सभ्यता पर
जैसे करते हैं हम चोट
भारी-भरकम हथौड़े से
गर्म- लाल लोहे पर ।
हम तोड़-फोड़ डालेंगे
शोषणकारी नीतियों को
रिवाजों और रीतियों को
जैसे तोड़ते हैं हम रोज
शिलाओं को हथौड़े से।
हमने ही बनाया है तुम्हारा
आरामगाह, तुम्हारी सड़कें
मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा
हमने ही बनाये हैं तुम्हारे
देव-देवियों की प्रतिमाएँ
और न जाने क्या-क्या?
हमने ही जंगलों को काटकर
खेत बनाया, अन्न उपजाया,
जिसे खाकर इतराते हो तुम
हमने ही बुने-सिले हैं तुम्हारे कपड़े,
जिन्हें पहनकर नहीं पहचानते हमें
हमारे ही पसीने की कमाई खाकर
हमें रोज आँख दिखाते हो।
पानी नहीं है तुम्हारी आँखों में
हमारी भूख, प्यास और नग्नता से
तुम्हारे आनंद का विषय है,
पर इससे बेखबर नहीं हैं हम
खुल गयी हैं अब हमारी आँखें
मजदूर हैं हम मजबूर नहीं,
बनाएँगे नया समाज,नया देश
जिसपर काॅपीराइट हमारा होगा।
डॉ. उमेश कुमार शर्मा
युवा रचनाकार
सहरसा,बिहार
000000000000
कवि-मयंक शर्मा (तिवारी)
'मातृत्व'
------------
वो रोजाना-
तुम्हारा चलना,
तुम्हारा फिरना,
तुम्हारा दौड़ना,
फिर-तुम्हारा थकना !
मां,बहुत याद आता हैं ।
वो रोजाना-
तुम्हारा पीटना,
तुम्हारा मारना,
तुम्हारा डाटना,
फिर-तुम्हारा पुचकारना !
मां,बहुत याद आता हैं ।।
वो रोजाना-
तुम्हारा सताना,
तुम्हारा जताना,
तुम्हारा मनाना,
फिर-तुम्हारा दुलारना !
मां,बहुत याद आता हैं ।
वो रोजाना-
तुम्हारा सुनाना,
तुम्हारा रूलाना,
तुम्हारा दुतकारना,
फिर-तुम्हारा समझाना !
मां,बहुत याद आता हैं ।।
वो रोजाना-
तुम्हारा सजना,
तुम्हारा संवरना,
तुम्हारा निखरना,
फिर-तुम्हारा मुस्कुराना !
मां,बहुत याद आता हैं ।
वो रोजाना-
तुम्हारा सुलाना,
तुम्हारा झुलाना,
तुम्हारा पिलाना,
फिर-तुम्हारा गीत गाना !
मां,बहुत याद आता हैं ।।
✍©कवि-मयंक शर्मा (तिवारी)
(पाली मारवाड़)
0000000000000000
सुनीता द्विवेदी
घरों में उग गए जंगल
क्यों न यहीं तपा जाए
क्यों सतयुग की पार्वती
बना जाए
क्यों शिव को पाने इस युग में
वन चला जाए
रोज़ दहकता अग्नि कुंड क्यों न
सहा जाए
विवाह कुंड क्यों त्रेता की शबरी बन
तजा जाए
नित नए मन भर अश्रू की बौछार यहां
बरसा जाए
क्यों द्वापर की गोपी बन जमुना जल
भरा जाए
शिव ,राम , कृष्ण को पाने का ढब अब
बदला जाए
पार्वती ,शबरी , गोपी क्यों कलयुग में
बना जाए
कहां आसान है इस युग में छोड़ घर
चला जाए
हर घर जंगल ,हर मन अग्नि कुंड,
जीना आज तपस्या ,क्यों वनवास
लिया जाए
सब तप रहे राम , सबका सम्मान तो
किया जाए ।
नहीं दे सकते कुछ ,तो फिर किसी से भी कुछ
क्यों छीना जाए।
--
अतृप्ति ,बढ़ जाती है
हद से अधिक,
तो सोचती हूं तृप्त हो जाऊं
असीम के प्रेम में मैं
दशरथ हो जाऊं
फिर डरती हूं
कहीं धुंधकारी बनके
न रह जाऊं
कौन गोकर्ण फिर
करेगा मुक्त मुझको
देख न पाऊं
फिर सोचती हूं
क्यों न शिला हो जाऊं
कभी शायद
चरण धूली पा जाऊं
करूणानिधान की रीझ
का दृष्टांत हो जाऊं
या फिर
वध कर दूं आत्मा का
सम्भ्रातं हो जाऊं
स्वरचित : सुनीता द्विवेदी
कानपुर
उत्तर प्रदेश
Mother's day पर
मां तेरा आंचल
स्नेह सिंचित आंचल तेरा!
कब न सुख शैय्या हुआ?
फलित तेरा शुभ आशीष !
कब न पूज्य मैय्या हुआ?
ममत्व लुटाने को तोहे!
कब मां दिन तारीख़ जोहे?
निरंतर बहती भाव नदी!
भूख उदर की, मुख से टोहे!
सुंदर कुरूप ज्ञानी अज्ञानी!
ममता ने कब दीवार मानी!
वात्सल्य और करूणा की,
हर मां बस दीवार पुरानी!!
शीश पर तेरे जो दो हाथ आए!
तिमिर घना जीवन का छंट जाए!
बुझते मनों को देकर सहारा !
तू भंवर से पार ले कर आए !!
मां तू है बच्चों का आसमान!
हर उम्र में इक तू ही निदान!
तेरी छाया हरती तिमिर!
संतान तेरी ,तेरे लिए है प्रान!!!
सुनीता द्विवेदी
कानपुर उत्तरप्रदेश
00000000000
दीपक जैन
यशोधरा का दुःख
मौन , मोक्ष , मर्यादा की महिमा को समझाना होगा
प्राणपति तुम्हे आना होगा
जो चोरी छुपे गए है घर से, वो परमेश्वर मेरे है
किसलिए लगाऊं काजल सखियों, इन आँखों मे काले घेरे है
श्रृंगार का महत्व बताना होगा
प्राणपति तुम्हे आना होगा
नाथ ! नही हो साथ मेरे , बस तुम्हारी यादें हैं
अब आंखों में आसूं नहीं ,आँसुओ में आँखे है
सारे सुखों को लाना होगा
प्राणपति तुम्हें आना होगा
दीवाली सा दिन बना
खुशियों के बादल छा गए
सबको यह समाचार मिला
भगवान महल में आ गए
आँगन में दीपक जलाना होगा
प्राणपति तुम्हें आना होगा
उसी कमरे में बैठी है
जहाँ सारा शोक रखा
गए है उनसे मिलने सब
पर माँ ने खुद को रोक रखा
दरश यही पर देना होगा
प्राणपति तुम्हे आना होगा
मुझसे किये गए वो वादे
एक पल में ही तोड़ गए
सो रहे थे सुख से हम
नींद में हमको छोड़ गए
मौन तो बस बहाना होगा
प्राणपति तुम्हे आना होगा
मेरी नहीं ये केवल
वेदों की भी वाणी है
नारी निंदा योग्य नहीं
वह तो परम् कल्याणी है
उत्तर को मेरे जानना होगा
प्राणपति तुम्हे आना होगा
इसमे है मेरी भी हामी
राहुल को ही रख लो स्वामी
साथ रहेगा और कहेगा
बुद्धम शरणं गच्छामि
संसार को सारे जगाना होगा
प्राणपति तुम्हे आना होगा
रचियता
दीपक जैन
00000000000
--रितिक यादव
वो दिन कितने अनोखे थे.....
हमारी महफ़िलो में एक जनाब -ए -खास रहते हैं,
किसी की धड़कनो के वो जरा से पास रहते हैं !
सुबह की सुर्ख शामे सर्द और बहती हवाओं में,
हंसी होठो पर रखकर भी जरा उदास रहते हैं !!
असल हालत हैं की वो कभी इजहार नहीं करते,
मगर सच ये नहीं हैं की किसी से प्यार नहीं करते !
बिना एहसास के कुछ खास अक्सर खो ही जाता हैं,
जवानी में स्वाभाविक हैं मुहब्बत हो ही जाता हैं !!
बिना आभास के बाज़ी निगाहें खेल जाती हैं,
कुसूर -ए -इश्क़ के इल्जाम धड़कन जेल जाती हैं !
जमानत दिल के हाईकोर्ट से भी लौट जाती हैं,
रिहा करने तो आखिर धड़कनो को मौत आती हैं !!
जमीं पर चाँद की बादल गरज के कुछ तो कहती हैं,
किसी के सांस की एहसास कितना जुल्म सहती हैं !
मरुस्थल रेत सी तब दिल की कुछ हालत होती हैं,
यही वो दौर हैं ज़ब इश्क़ की बरसात होती हैं !!
सुबह सड़को पर चलते वक़्त उन्हें फरियाद आता हैं,
यही से कल वो गुजरी थी वो पल भी याद आता हैं !
निगाहों में वो ज़ब देखी कयामत तब गज़ब छायी,
ये घायल हो गए उस पल ज़ब वो होठों से मुस्कायी !!
फिजाओं की अदाओं पर फ़िदा होना मुक़्क़मल हैं,
जमीं हैं वो तो बादल बन बरसना भी मुक़्क़मल हैं!
मुक़म्मल हैं की वो इनके शहर में ही ठहरती हैं,
गोकुल की राधिका सी श्याम के दिल से गुजरती !!
ह्रदय की हर एक आहत को किसी अपनों सी भाती हैं,
वो एक लड़की जो पलकों पर किसी सपनों सी आती हैं !
अदाओं की नज़र में वो तुम्हे मगरूर करती हैं,
मुहब्बत के शहर में दिल ही दिल मशहूर करती हैं !
नदी की धार सी धड़कन में आठो याम रहती हैं,
हवा बनके वो साँसो में सुबह से शाम बहती हैं !
जमाना याद वो करना कि छत से ज़ब वो दिखती थी,
कड़कती धूप के वो दिन कि जिसमें चाँद दिखती थी !!
गली के रास्ते से वो ज़ब -ज़ब भी गुजरती थी,
तेरी तन्हाइयों की चादरें कुछ पल ठहरती थी !
वो दिख जाती थी काफ़ी हैं वजह तो सब बहाना था,
वो दिन कितने अनोखे थे वो खुशियों का जमाना था !!
--रितिक यादव
00000000000
मंजू सोनी
क्या हम माता -पिता
गलत करते है ?
अपने बच्चों को अभाव में न रखकर
या उनकी हर ख्वाहिश को पूरा करके ?
जो बचपन मे समझ जाया करते थे
हमे देखकर ही ,
आज नाराज है हम ,
उन्हें अब नाराज होने पर भी
कोई फर्क नही पड़ता
पहले हर छोटी-से छोटी गलती पर
मॉफी मांगा करते थे,
अब बड़ी से बड़ी गलती पर
मॉफी भी नही मांगी जाती
बल्कि कहा जाता है ,
आप लोग बात - बात में
टोकते रहते है।
क्या हम बुरा चाहते है
अपने बच्चों का
उन्हें रोक-टोक करके
क्या सच मे
परेशान करते है
हम उन्हें ??
कई बार दिल मे
ये ख्याल आता है ,
जो है जैसा है चलने दो
क्यो बार बार
एक ही बात दोहराए ,
अब बच्चे बडे हो गए हैं
और समझदार भी ,
तो क्या उन्हें छोड़ दें
अपने हाल पर ही,
कुछ न कहे उनसे।
हम कोई
भाग्यविधाता तो है नही ।
जो बनना बिगड़ना होगा
वो होगा ही,
चाहे कोई कुछ कर ले ,
जब ठोकर लगेगी
राह में
तो याद आएंगे
माँ-बाप ।
वरना हम तो
बकवास करने वाले
हो गए हैं आजकल !!!!
0000000000000000
रजनीश मिश्र'दीपक'
'हम कितना सह सकते हैं'
हम जितना सह सकते हैं
जितनी देर हँस सकते हैं
हमको उतना लाभ है मिलता
हमारा पन कहीं न गिरता
जब कोई मूर्ख आपा खोता
और हमें वह गाली देता
प्रत्युतर में हम क्या करते
हम भी झड़ी लगा देते हैं
उसे बहुतेरे कड़वे वचन सुना देते हैं
फलतः फिर वहां क्या उपजता
राई का पर्वत बनता
दोनों योद्धा मैदां में डटते
फिर पूरी सामर्थ्य से लड़ते
दोनों लुटते दोनों पिटते
हर तरह का नुकसां करते
रोते चीखते दोष मढ़ते
अपनी बेइज्जती आप ही करते
फिर जो भी समझाने आता
दोनों पक्षों को डाँट पिलाता
अपना उल्लू सीधा करके
दोनों पक्षों पर रौब जमाता
तब दोनों के समझ में आता
यदि हम थोड़ा सा सह लेते
थोड़ी और देर हँस लेते
तो अपना मधुर संबंध सजाते
अपने नुकसान और जग हँसायी
दोनों से फिर हम बच जाते।।
-रजनीश मिश्र'दीपक' खुटार शाहजहांपुर उप्र
000000000000000000
राजेन्द्र जांगीड़
दोहे-
मूरत भरी संसार में,मानव भूखा होय।
पत्थर चढ़ाये हीरा, गरीब टप टप रोय।।
संसार में आया मगर,मिला नहीं रे ज्ञान।
वेद न पढ़ा तू मनवा,ना कर तू अभिमान।।
किस कारण भेजा तुझे, सोच रे संसार में।
मोक्ष तेरा काम है, न रह अंधकार में।।
मनुज जनम अनमोल है, मत कर तू बरबाद।
शास्त्र ज्ञान अपनाकर, हो पंछी तु आबाद।।
--
1- मूढ़ भरे संसार में, पदार्थ विद्या जान।
जिसका जैसा गुण होय,उसको वैसा मान।।
2- मूरत जड़ की वस्तु हैं, भगवन चेतन जान।
श्रद्धा सु वस्तु न बदले, यही सृष्टि विज्ञान।।
3- पत्थर समझ न प्रभु को,तम में गोता खाय।
मकड़जाल में फँस ना, वेद से मोक्ष पाय।।
रचना-राजेन्द्र जांगीड़
भीलवाड़ा
000000000
आदर्श उपाध्याय
तुम्हारी याद ( गज़ल )
तुम्हारी यादों में ऐसा क्या जादू है कि
तुम्हें याद कर आज मैं फिर रो रहा हूँ |
लाल लाल आँखों से छलकते हुए आँसू को
रोकना चाहकर भी मैं नहीं रोक पा रहा हूँ |
तुम्हारी याद आती है तो मानो ज़न्नत मिल गया हो
रो रोकर भी मैं खुश हो रहा हूँ |
तुम्हें मेरी याद आती है या नहीं
यही सोच सोचकर मैं जी मर रहा हूँ |
अपनी मोहब्बत में खुश तुम सदा रहो
यही मैं दिल से दुआ दे रहा हूँ |
तुम्हारी आँखों में आँसू न आए कभी भी
यही मैं रब से दुआ कर रहा हूँ |
मैं तो जी लूँगा तुम्हें याद करके
अपने दिल की बातें मैं बयाँ कर रहा हूँ |
तुम्हारी मोहब्बत जिए हजारों हजारों साल
मैं अपनी उम्मीद बस आजकल कर रहा हूँ |
तुम्हारी यादों में ऐसा क्या जादू है कि
तुम्हें याद कर आज मैं फिर रो रहा हूँ |
आदर्श उपाध्याय
0000000
कमल कालु दहिया
मेरा समय था उन दिनों हैवान,
मन में हो रही थी गांव की पहचान।
मेरे गांव में बंजर जमीन पर हरियाली हो जाती है,
फूलों के मौसम में आशा की फुलवारी हो जाती है,
फिर मिला दे मुझे वहीं जमीन मेरे भगवान,
मन में हो रही थी गांव की पहचान।।
मेरे जीवन की जमीन ही बेबसी है,
जहां आशा की बूंदे कलियों के हंसी है,
रहते हैं हरियाली वाले मौसम में इंसान,
मन में हो रही थी गांव की पहचान।।
दूर मैं गांव से दर्द दिल में छुपाता हूं,
अपने गांव की प्यास से आंसू पी जाता हूं,
जहां समंदर बारिश और ट्टीले,यह चाहिए मुस्कान,
मन में हो रही थी गांव की पहचान।।
कैसर सा सुर्य श्यामल वो हरा खेत साथ पानी जैसे गंगा,
देश की परसाई वहीं पर और अटल तिरंगा,
हर समस्या का मिलकर हम करते समाधान,
मन में हो रही थी गांव की पहचान।।
यह शहर कांटो का ताज हो रहा है,
क्या खाक अनुभव बताते शहर गांवों का राज हो रहा है,
शहर तो बेगाना, गांव में शान,
मन में हो रही थी गांव की पहचान।।
000000
शिवम कुमार गुप्ता
ग़ैरों के कंधे पर सिर रखकर,
मायूसी क्यों जाहिर करते हो,
मोहब्बत अगर हमसे थी,
तो शिकायतें भी हमारी,
हम ही से करते,
रिश्ते में हमें मौका तो दिया होता,
दिल हमसे ही लगाया था,
तो उम्मीदें जाहिर भी,
हम ही से करते,
नहीं चाहते फिर से जुड़ना हमसे,
तो आखिरी पैगाम से,
मेहरूफ तो किया होता,
यू खामोश होकर चुभन क्यों देते हो,
छुटकारा चाहिए हमसे ,
तो कुछ कहकर,
थोड़ा जलील कर,
जता हमसे भी दिया करते,
ग़ैरों के कंधे पर सिर रखकर,
मायूसी क्यों जाहिर करते हो,
मोहब्बत अगर हमसे थी,
तो शिकायतें भी हमारी,
हम ही से करते |
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चिंतन जैन
कल गद्दी पर बैठेंगे राम
सुन हर्षित हुई जनता तमाम ।
पर वक़्त कहाँ यह चाहता था
उसका कुछ और इरादा था ।
तब रानी ने मांगे वर दो
अयोध्या तुम भरत को दो ।
मिला राम को वन का वास
रोकने का सबने किया प्रयास ।
पर राम को वचन निभाना था
उनको तो वन में जाना था ।
जब कर्म खेल खिलाता है
भगवान भी नही बच पाता है ।
तब मानव की भी क्या बिसात
जो काट सके भाग्य की बात
जब राम चले गए वन में
तो दशरथ भी गए शयन में ।
जब चक्र समय का चलता है
तो उगता सूरज ढलता है ।।
- चिंतन जैन
त्याग , समर्पण भाव लिए
और ममता का स्वभाव लिए
जब नारी यह गुण लाती है
माता ही तो कहलाती है ।
वह निश्छल प्रेम दिखाती है
और भाव दया का लाती है
माता का दूसरा रूप लिए
वह बहन बनकर आती है ।
जब प्रेम का सागर निहित हो
और समर्पण असीमित हो
सुख दुख की साथी ही वो है
वह पत्नी नारी ही तो है ।
त्याग ऐसा कर सकते हो
क्या उर्मिला बन सकते हो ।
भक्ति तुम ऐसी रखोगे क्या
मीरा तुम बन सकोगे क्या ।
वह सावित्री भी नारी थी
जो यमराज पर भारी थी ।
क्या शील धरोगे तुम ऐसा
सीता ने धरा था जैसा ।
नारी तो जग की जननी है
कभी माता है कभी भगिनी है ।
घर की चारदीवारी होना
आसान नही नारी होना ।।
- चिंतन जैन
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संध्या शर्मा
हमारे बुजुर्ग .......
फेला के आँचल
हमारे मुकद्दर पर ,
एक साया बन जाते है,
हमारे बुजुर्ग .......।।
जिंदगी की
हर ख़ुशी हमे देते है
हमारे बुजुर्ग......।।
हर कदम पे होसला बढ़ाते है
हमारे बुजुर्ग.....।।
राह के कितने
काँटे हटा देते है
हमारे बुजुर्ग ....।।
हमारा जुनून ,
हमारी ख़्वाहिश
हमारी ताकत बन जाते है ,
हमारे बुजुर्ग .....।।
हर कदम पे हमारी हिम्मत है,
हमारे बुजुर्ग .....।।
काँपता हाथ
सर पर रखते ही
हमे जिंदगी का सारा सुकून
दे जाते है,
हमारे बुजुर्ग .....।।
उनके तजुर्बो से
हमारी मंजिल को
आसान बना जाते है
हमारे बुजुर्ग .....।।
संध्या शर्मा
प्रकृति का दोहन....
यूं खामोश रहते हुए,
परिंदों को भी बोलते देखा।।
यूं उदासी के प हर में भी ,
उन्हें बेखौफ देखा।।
उन्हें कोई रोक नहीं पाया
उनकी हसरतों को ,
कोई टोक नहीं पाया।।
यह तो बेजुबा थे ,
फिर भी हमे उन पर तरस न आया।।
करते रहे प्रकृति के साथ खिलवाड़
खुद को बादशाह समझते रहे
खोफ न सताया हमे,
जब मोत को नजदीक अपने आते देखा तो
आज कुछ समझ आया।।
क्यों नादान बनकर करते रहे जुल्म
जिसके आंचल में ,
सर रखकर रहते रहे
उसी पर जुल्म का,
साया करते रहे।।
अपनी नरंदगी को,
उस पर ढोलते रहे
खुद को प्रकृति का मसीहा समझते रहे।।
अपनी प्रगति में ,
अपना बोझ प्रकृति पर ढोते रहे।।
प्रकृति ने जब अपना कहर बरसाया,
तब हमे उसका डर सताया।।
आज भी हम नही समझे
उसका दोहन करते रहे तो,
कितनी आहुतियां देते रहेंगे।।
यदि हम धरती के ,
आंचल को चीरते रहेंगे ,
निर्झर वन का दोहन करते रहेंगे तो ,
प्रकृति का भयंकर वन रूप देखते रहेंगे।।
सम्भल जाओ दुनिया वालो
करो न प्रकृति पर वन अत्याचार
कुछ फ़र्ज़ अपना भी निभाते जाओ
इंसानियत की मिसाल पेश करते जाओ।।
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मनीष मिश्रा
वीरों तुम बढ़े रहो
वक्त है पुकारता हे वीर तुम बढ़े रहो
राम की तरह बनो हे वीर तुम बढ़े रहो।
यह खड़ा हिमालय अब झुकेगा कदमों के तले।
क्या करेगी गोलियां आतंक को खत्म करो।
याम अब नहीं बचा तो क्या हुआ बढ़े रहो।
वक्त है पुकारता हे वीर तुम बढ़े रहो।
रावणो के शीश बहुत किंतु ये है काटने।
राम तो सभी में है तो काम भी वही करो।
वक्त है पुकारता हे वीर तुम बढ़े रहो।
सिंह के भी दांत गिनने वाले वीर जन्मे यहां।
देशहित विदेश जाने वाले वीर जन्मे यहां।
चूम फंदा फांसी झूल जाने वाले वीर यहां।
दे गये संदेश देश के सभी वीरो को मौत को गले से तुम लगाया करो।
वक्त है पुकारता हे वीर तुम बढ़े रहो।
छोड़ दिया प्रीति को देश हित के लिए।
पत्र लिख कर चले गए देश हित के लिए।
अग्नि पर फिर हाथ रखा शपथ लिया वीर ने।
कर्म किया राष्ट्रीय हित में अमर अब वह हो गए।
वो चले गए लेकिन पैगाम देकर एक गये।
वक्त है पुकारता वीर तुम बढ़े रहो।
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राम तो स्वर्गो मालिक हैं मैं उन पर क्या लिखूं।
राम तो समंदर का पानी है मै उन पर क्या लिखूं।
लिख नहीं सकता मैं वीरगाथा राम की।
राम के तो खून में शामिल जवानी है मैं उन पर क्या लिखूं।
हे राम मैं तुमसे मांगता हूं एक वर सुन लो।
जन्नत के भगवान मेरा काम तुम सुन लो।
मेरे शहीदों का कफन लगा देना जन्नत के दरवाजे पर।
राष्ट्र की ये मांग है ये मांग सुन लो।
राष्ट्रहित शहीद होने वाले आए जब ।
स्वर्ग का दरवाजा खटखटाये जब।
मेरी एक मांग है तुम आना तब।
साथ तुम उनको ले जाना तब।
सभी लोगों से मिलाना वहां।
जिससे देखेगा सारा जहां सारा जहां।
मनीष मिश्रा
पिता का नाम रामरूप मिश्रा
ग्राम अल्लापुर पोस्ट सुंधियामऊ जिला बाराबंकी उत्तर प्रदेश
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राजीव रंजन
Majdoor ek Vardaan
जानता है इनके बिना काम न हो पायेगा
फिर भी मालिक इन्हे रोज ही धमकाएगा
क्योंकि ये हालात से बहुत ही है मजबूर
लोग कहते है आदतन हमेशा ही मजदूर
तिनका जोड़ कर कितना सुन्दर भवन बना दिया
आरामखोरों के पैसो से कामगाह को सजा दिया
फिर भी तरसे हमेशा दो शब्द सराहना के लिए
ऑंखें है प्यासी कितनी सपनो को संजोये हुए
तन भी है थका हुआ प्रत्येक अंग चूर चूर
जानता है इनके बिना काम न हो पायेगा
फिर भी मालिक इन्हे रोज ही धमकाएगा
क्योंकि ये हालात से बहुत ही है मजबूर
लोग कहते है आदतन हमेशा ही मजदूर
काम चाहने वाले इनके आराम को भूल गए
जैसे ठूंठ दरख़्त कोई अपनी छाया से परे
बिन नहाये बदन जैसे पसीने से है सराबोर
सहके हर सितम गरूर करने को है आतुर
जानता है इनके बिना काम न हो पायेगा
फिर भी मालिक इन्हे रोज ही धमकाएगा
क्योंकि ये हालात से बहुत ही है मजबूर
लोग कहते है आदतन हमेशा ही मजदूर
है अजीब बात कितनी आगे भी बढ़ते वही
बदन है जिनका सूखा करते कुछ कभी नहीं
फिर भी तरक्की होती इनकी ही हमेशा वहा
मेहनतकश तरसते जहाँ इनके लिए दूर दूर
जानता है इनके बिना काम न हो पायेगा
फिर भी मालिक इन्हे रोज ही धमकाएगा
क्योंकि ये हालात से बहुत ही है मजबूर
लोग कहते है आदतन हमेशा ही मजदूर
बेकार पैसे इज्जत दिखावटी होती अफसर शाही में
खुद को भूलता इंसान पद बड़ा मिलता झोली में
दो लोगों के बीच एक लकीर ऐसी खींच जाती है
एक शोषित दूसरा शोषक कहलाने को है मशहूर
जानता है इनके बिना काम न हो पायेगा
फिर भी मालिक इन्हे रोज ही धमकाएगा
क्योंकि ये हालात से बहुत ही है मजबूर
लोग कहते है आदतन हमेशा ही मजदूर
अकड़ साठ साल की बीती पराये खाने में
डाँटते थे ऐसे जैसे जागीर इक आशियाने में
मजदूरी है इक वरदान आलस्य है अभिशाप
आने वाले जिंदगी में साथ को तरसेगा जरूर
जानता है इनके बिना काम न हो पायेगा
फिर भी मालिक इन्हे रोज ही धमकाएगा
क्योंकि ये हालात से बहुत ही है मजबूर
लोग कहते है आदतन हमेशा ही मजदूर
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सोनी डिमरी
बीते जमाने थे वो
जब इश्क किया करते थे
तुम कहते मैं सुनती
रात चांदनी वो, हवाएं ठंडी
स्वप्न सागर में खो जाते
लहरों की भांति तट पर आते
कितना पाक प्रेम था वो
जब तुम कहते मैं सुनती
सर्द हवा ना सर्द लगे
ग्रीष्म ऋतु जब बसंत लगे
इन्हीं ख्यालों में गुम रहते
अपूर्व प्रेम के सागर में
डूब गए जब नेत्र खुले
मध्य समंदर जलपतंग दिखे
लिए गोद हमें वो
जब तुम कहते मैं सुनती
धीमी महक फूलों की आती
चपला अपनी चमक दिखाती
वात वेग से जब चले
नीले आसमां तले
राहगीर की भांति भटके
चित्त चंचल खोकर
स्वप्नों की नगरी में खोए
जब तुम कहते मैं सुनती
जब तुम कहते हैं मैं सुनती
सोनी डिमरी
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आशीष जैन
दुध, घी बेचकर भी जब चला नहीं परिवार
खट्टा पानी बेचकर क्या हो जाएगा उद्धार
डेगु चिकनगुनिया जितनी बीमारी हैं शहरों में
उन सभी के लस्सी बेचने वाले ही हैं जिम्मेदार
दो साबुन की पेडुी के लालच में जो लस्सी का व्यापार
छोटे छोटे किसान नहीं हैं हैं बड़़ा जमीदारा
कोठी बंगले बड़े बड़े हैं हैं करोड़ों के मालिक
पर लस्सी बेचे बिने नहीं चलता उनका गुजारा
ये जो लस्सी लेने आते हैं गाँव में
उन्हें परवाह नहीं हैं लोगों की जान की
महीनें भर बासी लस्सी में मिलाते नालों का पानी
इंसानियत मर चुकी है उस तो इंसान की
दूध से ज्यादा जरूरत हैं शहरों में लस्सी की
इस चीज का गलत फायदा मत उठाना
गरीब की बद्दुआ में होता हैं इतना असर
हराम का माल तो हराम में ही जाना
यदि बिन बेचे चलता नहीं तुम्हारा गुजारा
गाँव वालों को ही बेच देना माल सारा
कोई तो ताजी और शुद्ध लस्सी पी पाएगा
और बीमारी से बच जाएगा ये देश हमारा
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उमा राम कलबी
चहुंओर फैली हुई है कोरोना महामारी
एक डाक्टर बना हुआ है मौत का पुजारी ।
कोरोना वारियर्स संभाल रहे हैं काम
इन वीरों के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं चारों धाम ।
छोड़ बैठें हैं घर देश की खातिर
तो बैठो आप घर देश की खातिर ।
अमेरिका , स्विस देखो क्या है उनकी हालत सारी
विश्व के हर कोने में पहुंच गई है कोरोना महामारी ।
अब तो मानो कोरोना महामारी है भयंकर भारी
घर बैठोगे आप तो हारेगी कोरोना महामारी ।
मास्क पहनना है बहुत जरूरी
जीवन के लिए है जरूरी , नहीं है मजबूरी ।
बाहर तब जाना जब काम है बेहद जरूरी
बाहर से आने पर बीस सेकण्ड हाथ धोना जरूरी ।
लोगों से रखनी है अब सामाजिक दूरी
भीड़भाड़ वाली जगह पर जाना रोक है कानूनी ।प
केन्द्र ,राज्य सरकार के कानून मानना है जरूरी
मोदी , गहलोत की बातें मानना है अब मजबूरी
ज़हान के लिए जान है जरूरी
घर बैठो आप , बात मानो हमारी ।
मैं मंजू सोनीजी की कविताओं और लेख का बहुत बड़ा फैन हूँ, आपके लेख में एक बहुत ही अच्छी तारतम्यता रहती है. अगर एक बार आपके लेख की पहले ही लाइन पढ़ लो तो आखिरी तक कब चले जाते है, पता ही नहीं चलता। ... आप से एक शिकायत है कि आप बहुत ही काम लिखते हो। .आप लिखा कीजिये...आपमें मैं एक विशिष्ट लेखक की संभावना मुझे काफी अधिक दिखती है.. मैं राजेश सराफ कटनी से। ....
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