डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु" ममता की खान है माँ, गीत, सुर, तान है माँ, असंख्य दुआओं वाली, आन,बान, शान है । माँ का शुभ आँचल तो, शीश ...
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
ममता की खान है माँ, गीत, सुर, तान है माँ,
असंख्य दुआओं वाली, आन,बान, शान है ।
माँ का शुभ आँचल तो, शीश पे आशीष सम,
संकटों से है बचाती, सुदृढ़ वितान है ।।
जन्म देने वाली माता, सर्व प्रथम है गुरु ,
पाठशाला भी प्रथम,भरती माँ ज्ञान है ।
रामायण, भागवत, गीता औ कुरान है माँ,
धर्म, कर्म सिखलाती, मांगलिक गान है।।
सुपथ पर चलना, सिखलाती पल-पल,
बुरे कर्म करने से, करे सावधान है ।
स्नेह, दया, करुणा की, प्रतिमूर्ति देवी है माँ,
धरती पे ईश्वर की, माँ ही पहचान है ।
एक किलकारी पर, बिसराती सारे कष्ट,
ममता की गोद "मृदु", छोटा आसमान है ।
करती दुआएं सदा, खुशियाँ असीम मिलें,
माँ के बिना घर नहीं, लगता श्मशान है ।।
सारे तीर्थधाम माँ के, भीतर समाये हुए,
माँ के चरणों में, सारे देवता विराजते ।
प्रेम, करुणा, दया की, सागर विशाल है माँ,
ममता की गागर में , सद्गुण विराजते।।
ईश्वर का वरदान, धरती पे माँ जो मिली,
धड़कनें दे दीं हमें, गोद में विराजते ।
धरा से विशाल है माँ, हिमालय से भी ऊँची,
माँ में शक्ति, पराक्रम, अद्भुत विराजते ।।
मातृदिवस की शुभ कामनाओं के साथ
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कोरोना बढ़ता ही जा रहा, रक्तबीज–जैसा देखो।
प्रभु ने सबको समय दिया है ,
भरसक लाभ उठाओ तो।।
जीवन की आपाधापी में सब, भूल गये थे अपनों को।
अब पूरा परिवार साथ मिल, आपस में प्यार लुटाओ तो।।
धर्म,कर्म,पूजन–अर्चन सब ,
छोड़छाड़ कर बैठे थे ।
पैसों के ख़ातिर लेकिन "मृदु" ,
प्रभु को नहीं भुलाओ तो।।
निर्मल पर्यावरण हो गया ,
चहुँ दिशि फैला प्रदूषण था।
घर-बाहर मत निकलो कोई,
छज्जों पर दीप जलाओ तो।।
भूखा न कोई सोने पाए,
रैन, दिना यह ध्यान रहे ।
दीन-दुखी की मदद करो नित,
इतना पुण्य कमाओ तो ।।
कवयित्री,गीतकार,कहानीकार, साहित्यकार
डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
लखीमपुर-खीरी (उ0 प्र0)
कॉपीराइट-कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
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माधुरी पाठक
शहर अभी ज़िंदा है
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शहर अभी ज़िंदा है..
हाँ थोड़ी विरानीयत में डूबा सा,
सड़के अभी भी वैसी ही बिछी पड़ी है,
पेड़ यु ही खड़े है सडको के दोनों ओर,
जैसे बाट जोहते खड़े थे पहले भी,
हाँ गाड़ियों की चिल्लपों गायब है, गायब है बाजार,
और बाजार से जुडी आम कहानियां गायब है,
गायब है वो हंसी ढीढोले, सास बहु के किस्से , रोज़मर्रा की हलचल और ऑफिस की थकान ,
बॉस की किटकिट गायब है,
गायब है, ज़िन्दगी की वो कवितायेँ जो बेरंगियो और शोर से जन्मी थी , और वो बेरंगियां और शोर गायब है,
पर अब भी यु ही खड़े है घर और इमारतें ,
झांकति रोशनी, खिड़कियों की ओट से, जैसे बाहर आने से डरती हो अब,
पूरा शहर शमशान सा लगता है , हाँ बिलकुल वीराना और डर से भरा,
हाँ पर अभी भी जीने के बहाने बाकि है ...
बाकि है एक उम्मीद , जीने की वही चाह बाकि है..
हाँ लगता है, शहर अभी भी ज़िंदा है ... !!!
------ माधुरी पाठक
अम्बिकापुर ,सरगुजा, छत्तीसगढ़
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मंजुल भटनागर
नमः में न्रमता, टूटता अहंकार
नमस्ते है भारतीयता का उयहार
देखा देखी छूट रहे,
पुरखो के सद विचार
हाथ मिला हम सोच रहे
कया कमाल लग रहे हों यार.?
छोड़ माँ पिता को वृद्ध आश्रम
आज मना रहे बच्चे पार्टी त्योहार.
भारत की संस्कृति में शामिल है
सयुक्त परिवार
रहो मिल कर सब साथ
करोना सिखा रहा ये उच्च विचार.
घर का खाना छूट रहा था
होटल रेस्त्रा पनप गए
पिज़ा हट सै मंगवा लो
या चायनिस नूडल मेरे यार
खा रहे फ़ास्ट फ़ूड
पर कितनी कैलोरीस हज़ार.
जब सीमाएं अतिक्रमण हों
जब कुदरत पर डाका डाला जायेगा
तब तब मौन प्रकृति का धैर्य
विकराल रूप धर भस्मासुर बन
करोना, मानव को निगलने आयेगा.
बनो सनातनी गुनो भारतीयता को
नीम गिलोय पियो नित
नहीं करो ध्रुम पान
योगा अभ्यास सै बढ़ती मन शक्ति
होते उच्च विचार.
शाकाहारी सब पर भारी
साग सब्जियाँ सेब अनार
मुर्गी मटन मछली सै अच्छे
चूल्हे की रोटी सब्जी बाटी
जीयो और जीने दो
पर करना होगा पुनः विचार
तन मन रहेगा खुशहाल
हवन से , पढोगे वेद मंत्र
फटकेगा नहीं करोना.
विश्व को आज यही सन्देश
स्वच्छ रहो, करो नमस्ते
हेंड शेक मत करोना
मंजुल भटनागर
मुंबई अँधेरी पध्चिम
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निज़ाम-फतेहपुरी
ग़ज़ल- 11212 11212 11212 11212
अरकान- मु-त-फ़ा-इ-लुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन
मेरी आरजू रही आरजू युँ ही उम्र सारी गुज़र गई।
मैं कहाँ-कहाँ न गया मगर मेरी हर दुआ बेअसर गई।।
की तमाम कोशिशें उम्र भर न बदल सका मैं नसीब को।
गया मैं जिधर मेरे साथ ही मेरी बेबसी भी उधर गई।।
चली गुलसितां में जो आंधियां तो कली-कली के नसीब थे।
कोई गिर गई वहीं ख़ाक पर कोई मुस्कुरा के संवर गई।।
वो नज़र जरा सी जो ख़म हुई मैंने समझा नज़रे करम हुई।
मुझे क्या पता ये अदा थी उनकि जो दिल के पार उतर गई।।
मेरे दर्दे दिल की दवा नहीं मेरा मर्ज़ ही लइलाज है।
मुझे देखकर मेरी मौत भी मेरे पास आने में डर गई।।
ये तो अपना अपना नसीब है कोई दूर कोई करीब है।
न मैं दूर हूँ न करीब हूँ मेरी बीच में उम्र गुज़र गई।।
ये खुशी निज़ाम कहाँ से कम की हैं साथी अपने हजारों ग़म।
यहि ज़िंदगी है ये सोचकर हंसी आके लब पे बिखर गई।।
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ग़ज़ल-1222-1222-1222-1222
अरकान- मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन
जिगर के ख़ून से लिखना वही तहरीर बनती है।
इन्हीं कागज़ के टुकड़ों पर नई तक़दीर बनती है।।
ग़ज़ल इतनी कही फिर भी न समझा हम भी शायर हैं।
मेरी भी ज़िंदगी गुमनाम इक तस्वीर बनती है।।
किसी को जीते जी शोहरत किसी को मरने पर मिलती।
कहीं ग़ालिब बनी किस्मत कहीं ये मीर बनती है।।
तुम्हारी सोच कैसे इतनी छोटी हो गई यारों।
हमारे नर्म लहजे से भी तुमको पीर बनती है।।
निज़ाम अपनी क़लम फिर से दुबारा क्यों उठाई है।
बुढ़ापे में बता राजू कहीं जागीर बनती है।।
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ग़ज़ल- 212 212 212 212
अरकान- फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
दूर मुझसे न जा वरना मर जाऊँगा।
धीरे-धीरे सही मैं सुधर जाऊँगा।।
बाद मरने के भी मैं रहूंगा तेरा।
चर्चा होगी यही जिस डगर जाऊँगा।।
मेरा दिल आईना है न तोड़ो इसे।
गर ये टूटा तो फिर से बिखर जाऊँगा।।
नाम मेरा भी है पर बुरा ही सही।
कुछ न कुछ तो कभी अच्छा कर जाऊँगा।।
मेरी फितरत में है लड़ना सच के लिए।
तू डराएगा तो क्या मैं डर जाऊँगा।।
झूठी दुनिया में दिल देखो लगता नहीं।
छोड़ अब ये महल अपने घर जाऊँगा।।
मौत सच है यहाँ बाकी धोका निज़ाम।
सच ही कहना है कह के गुज़र जाऊँगा।।
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निज़ाम-फतेहपुरी
ग्राम व पोस्ट मदोकीपुर
ज़िला-फतेहपुर (उत्तर प्रदेश)
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अशोक मिश्र
माँ की ममता
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आंचल के भीतर
हाथ-पैर पटकता
एक बच्चा ।
दूध पीता
अठखेलियां करता
एक बच्चा ।
उँघता है
नींद में समाता है
एक बच्चा ।
जब माँ की ममता
नींद बनती है और
बच्चों के रगों में उतरती है ।
अशोक मिश्र
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वीरेन्द्र पटनायक (सारंगढ़िया)
"माँ" एकाक्षरी शब्द ही नहीं
अथाह कहानी है।
स्वाद की जादूगरनी
सलाहकार सी डॉक्टरानी है।।
"माँ" एकाक्षरी शब्द ही नहीं
अथाह कहानी है। .....
ममत्व की परिभाषा वह
जीवन का आधार है,
श्रृंगार संग सुह्रद सजाती
हथेली में दुलार है।
क्लेश देती नहीं
आचमन अश्रुजल महारानी है,
"माँ" एकाक्षरी शब्द ही नहीं
अथाह कहानी है ।।1।।
स्वप्नदर्शी आप अनागत की
शिक्षा सृजन सहकारी,
विषम बेला सर्वदा
दुर्गा चंडिका महतारी।
तुनकमिज़ाजी कभी नहीं
निर्णय सहज जुबानी है।
"माँ" एकाक्षरी शब्द ही नहीं
अथाह कहानी है ।।2।।
कैकई सा जन्म न लेना
यशोदा मरियम बने रहना,
विधिसम्मत नतमस्तक हैं हम
राजा-रंक धर्मांतर न नयना।
जात-पात सह संसेचन नहीं
वसुधैव कुटुंबकम कर्माणी है।
"माँ" एकाक्षरी शब्द ही नहीं
अथाह कहानी है ।।3।।
@ वीरेन्द्र पटनायक (सारंगढ़िया)
एस.एम.एस.-3 (भिलाई इस्पात संयंत्र ) , सेक्टर-10, भिलाई
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अमित राजन
***** मनाकर देखेंगे*****
खुशियाँ है रूठी, तो मनाकर देखेंगे।
घर के ऱोजन-रस्ते सजाकर देखेंगे।
जिंदगी अक्सर ही आजमा लेती है हमें
हम भी जिंदगी को आजमाकर देखेंगे।
अंजुमन में हर कोई शरीफ लगता है
थोड़ी सी मय सबको पिलाकर देखेंगे।
इश्क़ में कोई किस कदर पागल होता है
इश्क को अपनी रूह में बसाकर देखेंगे।
शायद कोई आ जाए ख्वाब में मिलने
घर के पुराने पर्दे हटाकर देखेंगे।
है हबीब को शिकायत कितनी 'अमित' से
अपने कातिल को गले लगाकर देखेंगे।
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मोहम्मद मुमताज़ हसन
हादसों के ज़द में क्या मुस्कुराना छोड़ दें
ज़ख्म खामोश हैं मरहम लगाना छोड़ दें
हवा के ख़ौफ़ में है दरख़्तों का वजूद
कहदो परिंदों से आशियां बनाना छोड़ दें
वक़्त के मझदार में रिश्तों की बुलन्दी है
किसी के साथ अब रिश्ते बनाना छोड़ दें
सारा कसूर मेरी शोहरत का है वरना
महफ़िलों में हम भी आना जाना छोड़ दें
झूठ, फ़रेब-बेईमानी क्या कम दिखती है
कहो नफ़रत का, बाज़ार लगाना छोड़ दें
अदब में अलहदा है पहचान अपनी भी
तु कहे तो लफ़्ज़ोंकीबारात लगाना छोड़ दें
जिंदगी तू अब तो बता इरादा अपना
यूं रोज़ रोज़ मुझको तड़पाना छोड़ दें
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
रिकाबगंज, टिकारी, गया बिहार
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संजय कर्णवाल
ये दौर मुसीबत का
इस बीमारी से, इस महामारी से
दहल गयी है जनता सारी।
दिखती हैं घेरे हुए सबको
चारो ओर से ही यह लाचारी।
सब जग है बेचैन बड़ा
कैसा संकट आज खड़ा
रोकोगे तो रुक जाएगा बड़ी सावधानी से
कर देना न चूक ज़रा भी नादानी से।
सवाल बड़ा ये मानवता का
हालातों से लड़ना होगा, फिर से आगे बढ़ना होगा।
चलना होगा कठिन डगर पर,मुसीबतों से निकलना होगा
हौसलों के आगे नहीं टिक पायेगी ये मजबूरियां
उम्मीदें जरा तुम रखो मन में,मिट जायेगी बेचैनियां
मिलकर चलेंगे,रोक देंगे हम इस महामारी को
दूर कर देंगे देश से अपने इस लाचारी को
इस महामारी ने समूचा विश्व प्रभावित किया
सोचो , इस बीमारी ने कैसा रूप ये ले लिया।
इसको हम मिलकर भगाए
आओ हम सब को जगाएं
मानवता का फ़र्ज़ निभाएं
सोच समझकर कदम उठाए
हमेशा हम तैयार रहे
थोड़ी सी भी लापरवाही न हो
तभी हम रहेंगे सुरक्षित
कहीं भी आवाजाही न हो।
आज बड़ा ये संकट भारी आन पड़ा मानवता पर
इस डर से ही बेचैन बना हुआ है हर एक घर
डर डर कर जी रहा है हर कोई जीने वाला
घर घर चर्चा है इसका, इसका ही बोलबाला
मिलकत इस विपदा से लड़ेंगे
एक दिन इसको हम हराकर रहेंगे।
ये दौर मुसीबत का भी गुजर जायेगा
बीत जायेगी काली रातें नया सवेरा आयेगा
वक़्त आता है,वक़्त जाता है
आते जाते हमे कुछ समझता है
सीख से इसकी हम अच्छा सीखे
चुने हमअपने लिये अच्छे तरीके
रहना है सतर्क सभी को इस दौर में
रखनी है नजर हमे चारो ओर में
मुसीबत बड़ी है,जो सामने खड़ी है
अपनी समझदारी से सुलझाना है ।
जो भी है ये वक़्त की ज़रूरत
इसको हमे सबको समझना है।
कहते है जो विद्वान् हमारे
उनकी बातों का ध्यान करो
सावधानी से खुदको बचाओ
खुद पर एक एहसान करो
जांबाज हमारे जी जान से जुट कर
दिन रात हमारी सेवा करते हैं
अपना भी फ़र्ज़ हो,सम्मान करें उनका
हर रोज कर्म पर उतरते हैं
डटे हुए हैं कर्म पर अपने मन में है विश्वास
देना है सहयोग सभी को सब है अपने खास
जो वक़्त की ये दुश्वारियां सता रही है
बेहद सबको कितना
न रुक सकेंगे हम इनके रोके से
हमारा लक्ष्य इनको जीतना
मन की मजबूती से सब कुछ हो जाता है सम्भव
जिसने किया इरादा,वो कब हारा हुआ विजय भव
जो विकट समस्या घेरे हुए हैं चारों ओर से
आ रही हैं आवाजें जिसकी बड़े जोर से
इसका मुकाबला करके हम जीतेंगे ये जंग
की है तैयारी इसको हराने की,न हो कोई तंग
आओ संकल्प लें तोड़ेंगे इसका भ्र्म
निभाय हम सब मानवता का धर्म।
दुःख के बादल छंट जाएंगे,अच्छा समय भी आएगा
फिर से बहारे लौटेंगी, कैसे न ये दुःख जायेगा
आस सभी रखे हुए हैं इन हालातों में भी
ढूंढ ही लेंगे हम हल इन सवालातों में भी
यकीन हमे अपना मकसद कामयाब रहेगा
फिर से बेहतर होगा,और लाजवाब रहेगा
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धनंजय कुमार उपाध्याय "बक्सर"
"हां मैं बिहारी हूं"
हां मैं बिहारी हूं!
गर्व हूं, संघर्ष हूं,
दवा और मर्ज हूं
समाज का उत्कर्ष हूं,
प्रकृति की कलाकारी हूं,
हां मैं बिहारी हूं।
हुंकार हूँ, हाहाकार हूं
चीत्कार और प्रतिकार हूं
भेदभाव का शिकार हूं,
क्योंकि अकेला बहुतों पर भारी हूं
हां, हां मैं बिहारी हूं।।
मजबूर हूं, क्योंकि मजदूर हूं
संघर्ष की दस्तूर हूं
भले ही नर या नारी हूं
अपने हौसलों से सब पे भारी हूं
हां मैं बिहारी हूं।
उपेक्षित हूं, क्योंकि निरपेक्ष हूं
हर धर्म के सापेक्ष हूं
विश्वामित्र, महावीर और बुद्ध हूं
विचारों से विशुद्ध हूं
चाणक्य, चन्द्रगुप्त और अशोक हूं
नालंदा, विक्रमशिला का शोध हूं
अपने जन्मभूमि बिहार का आभारी हूं
हां मैं बिहारी हूं
हां मैं बिहारी हूं।।
धनंजय कुमार उपाध्याय "बक्सर"
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संध्या चतुर्वेदी
प्रेम में सीता हुई वनवासी
त्याग महलों का किया।
वन वन भटक कर
चौदह वर्ष विचरण किया।
दी अग्नि परीक्षा फिर
भी जब त्यागी गयी
समाज और परिवार पर
कोई प्रश्न न लाच्छन किया
जन्म दिया लव कुश को
और उन को संस्कार दिए
रही मर्यादा में अपनी और
संस्कृति का पालन किया
जब बड़े हुए दोनों सुकुमार
ज्ञान उन्हें वेदों का दिया।
बनाया तेजस्वी और धनुर्धर कि
युद्ध मे हनुमान भी हार गए।
जब सुनाई करुण कथा सीता की
लव कुश ने तो सुन कर के ,
भरी सभा मे राम निरुत्तर हुए
कि प्रार्थना माँ सीते से पुनः प्रस्थान करें।
तब सीता ने अपने मान कि खातिर
धरती माँ से कड़ी प्रार्थना और
धरती की गौद में समा गई,पर उन्होंने
राम को कभी अपमानित नही किया।।
हर युग मे दी परीक्षा अनेक ,तब जा
कर स्त्री ने प्रेम को साकार किया।
संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
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निलेश जोशी "विनायका"
श्रम साधक को विश्राम नहीं
करता दिन-रात परिश्रम है।
यह श्रम का बड़ा पुजारी है।
पल भर भी आराम नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
इसकी राह कठिन बहुत है।
मंजिल पाने की चाह बहुत है।
मन में इसके विराम नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
लक्ष्य भेद की चाहत है।
अधरों पर जीत की राहत है।
आलस का कोई काम नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
तेरे कर्मों से जीवित जग है।
स्वेद कणों से सिंचित जग है।
अपनी पीड़ा का ज्ञान नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
अन्न खेतों में उपजाता है।
खुद भूखा सो जाता है।
लेता कभी विश्राम नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
यह तेरा खून पसीना है।
तुझे निर्धनता में जीना है।
बिन तेरे निर्माण नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
मद मंजुल महलों में सोता है।
तू अपनी मेहनत बोता है।
रुकता तेरा कोई काम नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
तू सर्व शक्तिमान दिखाई देता है।
बीज विश्वास का बंजर में बोता है।
मेहनतकश तन पर परिधान नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
मेहनत कड़ी धूप में करता है।
सर्दी गर्मी वर्षा रहता है।
तुझे भूख का भान नहीं।
श्रम साधक को विश्राम नहीं।
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महाराणा का रण
राणा सांगा का वंशज था,
मातृभूमि का था अभिमान।
किया उद्घोष स्वतंत्रता का,
भारत का था स्वाभिमान।
जोहर दिखलाया जिसने,
मुगलों का दंभ निचोड़ दिया।
अत्याचारी तुर्कों का मस्तक,
भालों से अपने फोड़ दिया।
जिसकी आहट सुनते ही,
चेहरे पीले पड़ जाते थे।
मेवाड़ी वीरों के शत्रु,
पद चापों से घबराते थे।
उस महाराणा ने अकबर के,
अभियानों को रोक दिया।
दिल्ली की फौजों को जैसे,
हवन कुंड में झोंक दिया।
रक्तरंजित हल्दीघाटी,
अरि- दल में चीख-पुकार हुई।
हुआ युद्ध में वज्रपात,
जब राणा की हुंकार हुई।
अरावली की चोटी से,
बाणों की वर्षा होती थी।
बाद शाह की सेना में,
भगदड़ भारी होती थी।
रण में हाहाकार हुआ,
राणा की निकली तलवार।
मौत बरस रही थी भारी,
करवारों से निकले अंगार।
टूट पड़े सिंहों की भांति,
वीर मेवाड़ी अरि झुण्डों पर।
बिछी लाशें पग तल में उनके,
तलवारें अरि के मुंडों पर।
मार काट अति भीषण था,
काल कराल भी कांप गया।
खप्पर रणचंडी का खाली था,
शाही दल ये भांप गया।
दुबक गया कोई रण में,
कोई घायल हो कराह रहा।
लथपथ लोहू के चिथड़ों में,
अपनी देह सराह रहा।
धड़ गिरे वीरों के मिट्टी में,
कहीं सिर था कटा हुआ।
पहचान नहीं थी अब उनकी,
तन था पूरा बंटा हुआ।
कहीं मुंड कटे थे हाथी के,
कहीं घोटक के रूंड गिरे।
कट कट असि की धारों से,
घाटी में कितने शुंड गिरे।
इस महा प्रलय में विद्युत सी,
तलवार हाथ में चमक उठी।
बैरी की हय गज रथ सेना,
युद्ध ज्वाला दहक उठी।
गज बिगड़ गया चिंघाड़ भगा,
अपने दल पद रौंद चला।
झटके से होदा डोल गया,
रण में सन्नाटा कोंध चला।
अब तक चुप बैठा भाला भी,
राणा प्रताप से बोल उठा।
भूख मुझे अरि मस्तक की,
सुन सिंहासन डोल उठा।
खाकर मस्तक मुगलों के,
रूंडों के ढेर लगा दूंगा।
अनगिनत गिरते मुंडो से,
जय माल तुझे पहना दूंगा।
धूल उड़ी बिखरी नभ में,
मेवाड़ सिपाही पग तल की।
सूरज शरमा कर देख रहा,
ताकत राणा के रण बल की।
थी धनुष बाण की बौछारें,
असि खड़ग बरछी भाले।
पत्थर गुलेल की चोटों से,
वह गये शोणित नदी नाले।
घोड़ा भी उसका बादल बन,
शाही सेना पर घहर गया।
जाकर मौतों की वर्षा में,
रक्त ताल बन ठहर गया।
मेवाड़ सूर्य को चेतक ले,
देता दुश्मन को झांसा था।
नजरें थी उसकी ढूंढ रही,
वह मान- लहू का प्यासा था।
शत्रु दल ने घेर लिया जब,
गूंज उठी सिंह गर्जन।
घायल राणा निकल चला,
करता मुगलों का मर्दन।
आगे बढ़ झाला मन्ना ने,
मेवाड़ छत्र को धार लिया।
चुका ऋण स्वामीभक्ति का,
उसने अपना उद्धार किया।
थी धन्य धरा तू बड़ीसादड़ी,
जिसने था ऐसा लाल दिया।
अपने पुरखों का मान किया,
गर्दन का अपनी दान दिया।
स्वामी भक्त चेतक घोड़े ने,
संकट का मुख मोड़ दिया ।
अपने रक्षक का रक्षक बन,
यवनों को पीछे छोड़ दिया।
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सच होता तो कैसा होता
कल रात देखा था, एक ख्वाब मैंने भी,
काश, वह सब सच होता तो कैसा होता
जिसमें कहीं मैं नहीं, सब ओर हम ही हम होता
गम नहीं कहीं यहां, चैन ही हर दम होता
ना होता कोई अपना, ना कोई पराया होता
होती खुशी चहुंओर, उदासी का ना आलम होता
ना कोई चोर, ना सिपाही, ना कोई साहूकार होता
कल रात देखा था, एक ख्वाब मैंने भी
काश, वो सब सच होता, तो कैसा होता
पंगत रहती, संगत रहती, परिवार संयुक्त होता
सर्व जनों का अंतस खिलता, बचपन स्नेह युक्त होता
भोजन पकता एक अनल पर, खानपान सब देसी होता
छोटी सी होती फुलवारी, खुला खुला आंगन होता
छाया घनी होती पेड़ों की, ना कूलर पंखा एसी होता
कल रात देखा था, एक ख्वाब मैंने भी
काश, वो सब सच होता तो कैसा होता
ना कोई जाति, गोत्र, पंथ,धर्म या मजहब होता
कर्म की ही होती पूजा, एक ही मानव धर्म होता
ऊंच-नीच का ना कोई, समाज निर्मित बंधन होता
प्रेम,स्नेह, वात्सल्य का,भावपूर्ण गठबंधन होता
मठ, मस्जिद, गुरुद्वारा,गिरजा में नहीं मान मर्दन होता
कल रात देखा था ,एक ख्वाब मैंने भी
काश, वो सब सच होता तो कैसा होता
राजा-रंक, धनी-निर्धन, ना नर- नारी में अंतर होता
मन में लालच, दिल में नफरत, ना कोई आलस होता
सज्जनता होती नरों में,ना कोई दुर्जन होता
कार्य शीलता होती सब में, कर्तव्यनिष्ठ हर कोई होता
नैतिकता की होती पराकाष्ठा, बेईमान कोई ना होता
कल रात देखा था ,एक ख्वाब मैंने भी
काश, वो सब सच होता तो कैसा होता
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मिलकर दिया जलाएं
विकल विश्व प्रकृति से हारा
मानव भय से थरथर कांपा।
घुप्प अंधेरा छाया जग में
जनजीवन कैद हुआ निज घर में।
नई रोशनी की आशा में
बुझा हुआ दीपक सुलगाएं।
आओ मिलकर दिया जलाएं।
अन्न मयस्सर मुश्किल जन को
क्षुधातुर हर आंगन में हम
आशाओं का अन्न पहुंचाएं।
आओ मिलकर दिया जलाएं।
भौतिकता के मोह जाल में
हम अपनी पहचान न भूलें।
वज्रपात की क्षणिक घड़ी में
ऋषि दधीचि का दान न भूलें।
इस विघ्न व्यूह की रचना में
अर्जुन सम संधान करें।
निर्णायक युद्ध अभी बाकी है
आहुति अभी अधूरी है।
करें उजाला अंतरतम में
निर्जन जन के अवलंब बने।
वर्तमान के मोह पाश में
हम कल का परिणाम न भूलें।
परिभाषा बदल गई वीरों की
इतिहास बनाने वालों की
लक्ष्मणरेखा में रहकर हम
आज नया इतिहास बनाएं।
आओ मिलकर दिया जलाएं।
--
श्रम का पुजारी
वीरान नगर में सुनसान सड़क पर
निकल पड़ा श्रम का पुजारी।
सिर उसके संसार की गठरी
दिल में दर्द कहर का भारी।
आंखों में दृग का जल लेकर
चला पंथी अपने डग भरकर।
हाय श्रमिक भी कहां अकेला
संग लिए दुनिया का मेला।
थककर पिघल गया लोह तन
घरनी के फूटे पग छाले।
बालक बिलक रहे सब भूखे
आंचल जननी का सूख गया।
किसे खबर कहां रात कटेगी
जाने कैसे दिन निकलेगा।
छाया चहुंदिश घोर अंधेरा
पग पग पर आफत का घेरा।
जिसके श्रम जल कण के कारण
अखिल विश्व मंडित होता है।
स्वयं ,स्वयं के जीवन के हित
दर-दर आज भटकता है।
लक्ष्य कठिन कुपित कुदरत है
छाई महामारी भू पर भारी।
विश्वव्यापी भय की आंधी में
अभय दीप ले निकल गया।
निलेश जोशी "विनायका"
बाली, पाली (राजस्थान)
00000000000
प्रतिक B कलाल
लगता तो नहीं.....
मिल गया सब
चैन मिलता तो नहीं
अधूरा हैं सफर
ये मैं कभी सोचता नहीं
ज़िन्दगी की कीमत क्या है
ये कोई सोचता तो नहीं
अपने हैं पराए हैं
ये समझना मुश्किल तो नहीं
धोखा देने की आदत है
सबकी ये फ़ितरत तो नहीं
क्यों परेशान हैं
अब तेरी मंजिल दूर नहीं
अपनी किताब हर कोई पढ़ाना चाहता है
दूसरे की पढ़ता क्यों नहीं
सफल होना भी चाहता है
लेकिन असफल होना नहीं
हर इंसान खुश है
लगता तो नहीं
- प्रतिक B कलाल , बाँसवाड़ा (राज.)
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आदर्श उपाध्याय
तुम्हारी याद ( गज़ल )
तुम्हारी यादों में ऐसा क्या जादू है कि
तुम्हें याद कर आज मैं फिर रो रहा हूँ |
लाल लाल आँखों से छलकते हुए आँसू को
रोकना चाहकर भी मैं नहीं रोक पा रहा हूँ |
तुम्हारी याद आती है तो मानो ज़न्नत मिल गया हो
रो रोकर भी मैं खुश हो रहा हूँ |
तुम्हें मेरी याद आती है या नहीं
यही सोच सोचकर मैं जी मर रहा हूँ |
अपनी मोहब्बत में खुश तुम सदा रहो
यही मैं दिल से दुआ दे रहा हूँ |
तुम्हारी आँखों में आँसू न आए कभी भी
यही मैं रब से दुआ कर रहा हूँ |
मैं तो जी लूँगा तुम्हें याद करके
अपने दिल की बातें मैं बयाँ कर रहा हूँ |
तुम्हारी मोहब्बत जिए हजारों हजारों साल
मैं अपनी उम्मीद बस आजकल कर रहा हूँ |
तुम्हारी यादों में ऐसा क्या जादू है कि
तुम्हें याद कर आज मैं फिर रो रहा हूँ |
आदर्श उपाध्याय
00000000000
सौरभ सिन्हा
लालटेन
..........................................
एक लालटेन आज घर की सफ़ाई में मिली
किसी कोने में डरी सहमी चुपचाप पड़ी थी
मैंने उससे पूछा किस बात की सहमी हो तुम
कभी तो तुम्हारी बड़ी पूछ रहती थी हर घर में
उस दौर में तो तुम बहुत सारे जगह में थी मौजूद
दुकानों में ऐसे रहती थी मानों गहना थी घर की
तुम्हारे होने का एहसास उस कांच के शीशे में थी
उसमें रखी बत्ती इसमें डाले गए केरोसिन से
तुम्हारी रोशनी मानों घर के सूनापन ख़त्म कर देती
गांव की पगडंडी से लेकर नदी के उस पार होने में
एक समय बस तुम्हारा ही नाम होता था चारों और
उंगलियों में पकड़कर भनसा घर में रख देता तुमको
लालटेन बीच में ही मेरी बातों को टोकते हुए बोली
पुरानी चीज़ो का समय होता है अपने जीवनकाल में
मैंने भी जीवन जी लिया हरतबके के लोगों के साथ
नदी,नाव ,पहाड़, से गाँव के घर तक हो आयी थी
अब दौर नयापन का , दिखावे का, चकाचौंध का है
मेरी बातें तो अब किसी के दिल मे रह जाए काफ़ी है
दोनों की बातों का अंत बस इससे हुआ जा रहा था
वो अपने मजबूरी में भी ख़ुश थी औऱ हम दिखावे में
(स्वरचित रचना :-सौरभ सिन्हा©)
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तरुण आनंद
प्रकृति का संदेश
पूरी पृथ्वी स्थिर है, क्या अजीब मंजर है,
प्रकृति भी पूरे रौ में चुभो रही खंजर है ।
कैसा यह विनाश का हो रहा तांडव है,
रास्ते वीरान, पशु-पक्षी हैरान, जमीन भी अब बंजर है ।
आज सब कैद हैं अपने ही बनाए मकानों में,
कितनी महँगी है ज़िंदगी, यह मिलती नहीं दुकानों में ।
ये कैसी छाई वीरानी है और कैसी है ये मदहोशी,
सबके चेहरे सुर्ख है और पसरी है अजीब सी खामोशी ।
कल तक सारे लोग जो मौज में थे,
पता नहीं ! क्यों आज वही सब खौफ में है ।
क्या शूल बनके चुभ रही है हवा,
या प्रकृति दे रही है हम सभी को सजा ।
समस्त मानव जाति है तबाह और परेशान,
आज सबकी पड़ गयी है संकट में जान ।
जितनी निर्ममता से किया था दोहन प्रकृति का,
उतनी ही जल्दी संदेशा आया विपत्ति का ।
यही तो वक़्त है संभलने का,
कदम मिला कर प्रकृति संग चलने का ।
शांत बैठो, धैर्य रखो, बिगड़े को सुधरने दो,
वक़्त दो, साथ दो, प्रकृति को फिर से सँवरने दो ।
हरियाली का मान रखो, स्वयं को इंसान बना डालो
स्वच्छता का हाथ थाम, बीमारी को मिटा डालो ।
होगी सतर्कता, सामंजस्य की नयी दृष्टि,
तभी खुशी के गीत फिर से गाएगी प्रकृति।
© तरुण आनंद
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अनूपा हरबोला
कुछ इस तरह...
चाहत है गर
चलती रहें साँसे
तो संयम को
अपना लो,
चार-दीवारी के
भीतर ही
सारे सुख
पा लो।
करने को हैं
ढेरो काम
घर के भीतर भी
उन्हीं को
निपटा लो,
थोड़ा माँ हाथ
बंटा लो,
कुछ देर
बुजुर्गों से
बतिया लो।
विस्मृत हो चुके
स्वर - व्यंजन
गिनती या पहाड़े
या हो बाराखड़ी
खेल- खेल में
दोहरा लो।
पिता के साथ
अपने बचपन को
फिर से जी लो
किस्से -कहानियों
की बातें
सुन लो या सुना लो।
भरी हुई है ये धरा
ज्ञान के स्रोतों से
उन्हीं को जान लो,
वेदों की वाणी,
रामायण ,महाभारत की
सीख को
ज़िन्दगी में
अपना लो।
मौका मिला है
पुनरावर्तन का,
इन कुछ दिनों में,
अब तक की
ज़िंदगी को
दोहरा लो।
धूल भरे
पुराने बक्सों को
थोड़ी सी
धूप दिखा दो
सूख चुका है जो गुलाब
किताब के भीतर,
उसे देखकर
फिर से मुस्कुरा दो,
जी के इन पलों को
इस तरह से
कुछ खुशनुमा
माहौल बना दो।
अनूपा हरबोला
असम
00000000000
मनोज बाथरे
1"उतार चढ़ाव"
जिंदगी में आते जाते
उतार चढ़ाव से
घबराना कैसा
ये वो संघर्ष के
स्मृति चिन्ह है
जिनमें हमें अपनी
जिंदगी को और
बेहतर बनाने के लिए
प्रेरणा मिलती है
अगर हम इस दौर में
इनसे घबरा गये
तो/हमारी जिंदगी
ठहर जायेगी
और/हम पहले की
तरह जहां के तहां
खड़े रह जायेंगे।।
2 "सही मूल्य"
सूर्योदय से लेकर
सूर्यास्त तक
श्रम से तक हारकर
जब श्रमिक
सुख से रोटी खाता है
तो/उसको
बड़ा ही सुख मिलता है
क्योंकि वो उसका
सही मूल्य पहचानता है
मनोज बाथरे चीचली जिला नरसिंहपुर मध्य प्रदेश 487770
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शिव सिंह
चंद लम्हों में ये हसीन मंज़र भी बदल जाएगा,
सहर होगी तो मुझसे रुख़सत हो तू अपने शहर जाएगा
कब तलक रखेगी नन्हे परिंदे को माँ अपनी अमान में आखिर?
पर निकलेंगे तो आशियाँ छोड़ वो एक दिन आसमान में उड़ जाएगा
अंधेरा ही रहने दो दयार-ए-दिल में आज,
शमां रौशन हुई तो कोई परवाना उसकी लपट में आके मर जाएगा
मत कर ऐतबार उस ज़ालिम के वादों का तू,
वक़्त आएगा तो तेरा दिल तोड़ वो यकसर अपनी बातों से मुकर जाएगा
00000000000
उमेश जबलपुरी
पिता
सुबह उठ कर जब
शीशा देखता हूँ
अपने पिता का चेहरा
नजर आता है
मॉ भी कहती है
उनकी छवि दिखती है
चिल्लाता हूँ
जब बच्चों पर तो
वो कहती है
इसका बाप भी
ऐसा ही चिल्लाता था
अपने सर के होते बाल सफ़ेद
आँखों की झुरियॉ
मोतियॉबिंद का आपरेशन
सब पिता की याद दिलाता हैं
स्कूल से आकर
टिफ़िन नही निकालना
डृेस नही उतारता
जूते मोज़े यूँ ही फेंक
खेलने चला जाता है
तब
वो कहती है
तुम्हारा लड़का
तुम पर गया है
--
जो माँगे वो देता
ऐसा होता पिता
मन्दिर जाने
जी नही करता
घर मे मिल जाता
खुदा
घिसी चप्पल
छिदी बनियान
दो तीन कपड़ों मै
ज़िन्दगी गुज़ारता
पिता
ख़ुद साईकिल
बच्चे से
स्कूटीचलावाता
पिता
उसके
माथे की एक एक रेखा
संघर्ष झलकाती
फिर भी हँसता
नजर आता पिता
बच्चा बड़ा होकर
सब समझता
फिर भी नही बन पाता
ऐसा पिता
उमेश जबलपुरी
Umesh Kumar gupta
E/4 Vivian line
Balaghat
00000000000
प्रेम प्रकाश हुड्डा
बुरा वक्त है गुजर जाएगा
बस घर से मत निकलना
छूना मत किसी आदमजाद को
याद रखना किसी का साथ मत छोड़ना
घर-गली में आये वर्दीधारी कर्मवीरों
डॉक्टरों, नर्सों को जय हिंद का सलाम देते रहना
फ़ेक न्यूज़ ,अफवाहों से दूरी रखना
सच्चाई की साथी पत्रिकाओं का आभारी रहना
जल्द हरायेंगे इस अनदेखे दुश्मन को
फिर से रौनक लायेंगे यारों की मंडली में
कोरोना के कर्मवीरों की गाथा गुनगुनायेंगे
जय हिंद के जयकारों से विश्व विजयी कहलायेंगे
तब तक घर में ही रहकर राष्ट्र सेवा करते रहना
अपना अपनों के संग बेहद ख्याल रखते रहना।।
#जयहिंद
~prem prakash hudda(जयपुर)
00000000000
अमित श्रीमाली
प्रकृति की माया
आज है विरान सड़के,गली,मोहल्ले
एक भी नजर नहीं आता बाहर
केवल खड़े है देश के चौकीदार, फौजदार
या दूसरी तरफ चिकित्सक, नर्सिंग कर्मी
वाह रे प्रकृति तेरी माया
आज मनुष्य बैठा है घर में
ओर स्वंतत्र विचर रहे पशु पक्षी
इस और, उस और
आज पूरा विश्व डगमगा रहा
एक प्रकृति के चीत्कार से
लेकिन भारत जगमगा रहा
अपने आत्मविश्वास से,आत्मबल से
इतिहास साक्षी है इस बात का
जब जब मानव ने अपने को
प्रकृति से उच्च माना
तब तब प्रकृति ने अपने चीत्कार से
मानव को गर्त दिखाया है।
यही प्रकृति की माया है।
जालोर (राजस्थान)
00000000000
कमलकिशोर ताम्रकार" काश"
कविता क्या है?
मेरी अभिलाषा है कविता, जीवन की आशा है कविता।
मेरी परिभाषा है कविता, सांसो की भाषा है कविता।।
कवि की कल्पना है कविता, सृष्टि की वंदना है कविता।
क्रंदन की वेदना है कविता, शोषित की चेतना है कविता।।
संस्कार सिखाती है कविता, संस्कृति सुधारती है कविता।
नि:स्वार्थ,परमार्थ की कविता, प्रेम ,त्याग तपाती है कविता।।
अन्त:मन की व्यथा कविता, बाह्य जन की है कविता।
नि:सहाय की है कविता, आशा की किरण है कविता।।
बोध कर्तव्य की है कविता, सृजन विज्ञान की है कविता।
जन उत्थान की है कविता, प्रेरणा प्रदान की है कविता।।
साहस शक्ति है कविता, बलिदान की भक्ति है कविता।
प्रकृति की छटा है कविता,सुन्दरता की घटा है कविता।।
शास्त्रों की वाणी है कविता,दुनिया दीवानी है कविता।
क्या लेकर जन्म दोबारा, करना चाहोगे फिर कविता।
अगर कोई मुझसे पूछे तो,हर बार लिखूंगा फिर कविता।
बार बार पढूंगा फिर कविता, हर बार सुनूंगा फिर कविता।।
यह रचना तात्कालिक मौलिक स्वरचित एवं अप्रकाशित रचना है.
कमलकिशोर ताम्रकार" काश"
रत्नाँचल साहित्य परिषद
अमलीपदर जिला गरियाबंद छत्तीसगढ़
00000000000
तालिब हुसैन'रहबर'
दूर तक चीख़ कर ख़ामोशी बरसती हो कहीं।
इतना टूटा है जैसे की इश्क़-परस्ती हो कहीं।।
उसने रस्मन ही थामा हाथ औ छोड़ा फिर यूँ।
साख़ पत्तों से जुदा हो कर तरसती हो कहीं ।।
मेरे मयख़ाने में हर मर्ज़ का इलाज़ शामिल है।
ग़म-ए-महबूब हो या ज़िन्दगी डसती हो कहीं।।
उसे गुमां था वो छोड़ेगा तो मर ही जायेंगे हम जैसे
निशानी-ए-इश्क़ की एकलौती वो हस्ती हो कहीं।।
देख 'रहबर' तेरे अब काम की जगह नहीं है वो।
वो शहर-ए-इश्क़ नहीं रहजन की बस्ती हो कहीं।।
~तालिब हुसैन'रहबर'
शिक्षा संकाय
जामिया मिल्लिया इस्लामिया
00000000000
सतीश यदु कवर्धा
मन सुमन, तन उपवन,
बहे जिसमे त्रिविध पवन !
कर रहे जब नित हस्त घवन,
हो रहा अब अणु विष शमन !
चहचहाती चाहतें निज अयन,
पद न पार पाते रेख लखन !
जगत मे है अब तमस गहन,
मानव की वेदना भी है सघन !
बिखर रहे सारे सपन,
कैद है घर मे बचपन !
मुरझायी सी चञ्चल चितवन,
बदल गई, अब रहन सहन !
नीड से लखती ललचायी नयन,
कब तलक चलें नव दस्ताना पहन !
मुखौटा का आड़ लिए आनन,
क्यों कर विलक्षण जीव हुआ जनम !
जगत मे कर रहे सबकी असल जतन,
नव समर मे रणवीर मुआलिज जन !
कब तलक हो बेफिक्री का वृथा वहन.
कराह रही है अब मादरे वतन !
कोविद कर रहे चिन्तन मनन,
"कोविद" का हो कैसे दमन शमन !
दास्ताँ बढ़ी. दस्ता,दस्ताना की चलन,
धन्वंतरि, सुश्रुत, चरक का करते हम नमन !शनै:शनै: जगत मे आते आते आएगाअमन,
अब हो रहा ब्याधि विष अणु का दमन !
स30 य2 सतीश यदु कवर्धा (छ. ग.)
00000000000
अनिल कुमार
'घर'
घर में कैद हूँ
ऐसा कह नहीं सकता
बाहर भले आजादी मिले
पर घर के बगैर भी रह नहीं सकता
बाहर खुली हवा में
विस्तृत आकाश के तले
धरती के विशाल आँचल पर
असंख्य क्रिड़ाएँ
क्रिड़ा कर रही हो
पर घर के संकुचित आँगन में
बचपन से यौवन तक के
अविस्मृत खेल को
विस्मृत कर नहीं सकता
घर में कैद हूँ
ऐसा कह नहीं सकता
बाहर भले विचरण हो
प्रकृति के असीमित उद्यान का
पर घर के फर्श पर
जीवन में प्रथम चरण के
पदचाप को
विस्मृत कर नहीं सकता
घर में कैद हूँ
ऐसा कह नहीं सकता
बाहर भले मौज हो
धरती के असीमान्त आनन्द की
चाहे मस्ती भरी हो
धरा के सौन्दर्य-सावन की
लेकिन घर की चौकट में
जो सुकून, जो आराम है
जहाँ माँ-बाप का आशीष
भाई-बहिन का दूलार है
उस घर में कैद हूँ
ऐसा कह नहीं सकता
धरती से परे
आकाश के स्वर्ग के लिए
इस स्वर्ग का त्याग कर नहीं सकता
घर में कैद हूँ
ऐसा कह नहीं सकता..।
वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी'
ग्राम व पोस्ट देई, तहसील नैनवाँ, जिला बून्दी,
राजस्थान
00000000000
-भावना कुकरेती
कसती सीमाएं
कोई सीमा नहीं है ईश्वर के आशीष की
और प्रकृति के स्नेह की
न सीमा है पुरुष के प्रयास की,स्त्री के प्यार की
बच्चे की चाह की और जीवन के उल्लास की।
किंतु और अधिक की आस में एक दिन
हमने ही बना दी कुछ विशिष्ट संज्ञाएँ,
निर्धारित कर दी सबकी सीमाएं।
सीमाएं सभ्यताओं की,संस्कृतियों की
सीमाएं आवश्यक परम्पराओं की।
अब सीमा है हर देश की, हर प्रदेश की
हर गांव की, घर की, दर की
सीमा हर जन की, हर मन की।
अफ़सोस इन कसती सीमाओं ने
अब हमारा ही अतिक्रमण कर लिया है।
अतिक्रमण,मानव के मानव पर
विश्वास का, सहयोग का, साथ का।
अब सीमा हमें सीमित कर चुकी है।
सीमित कर चुकी है
हमे हमारी ही बनाई सीमा में।
हमें सीमित लगने लगी हैं
ईश्वर कीआशीषें,प्रकृति का स्नेह ,
पिता का प्रयास,मां का प्यार,
हो गयी सीमित बच्चे की चाह,
और जीवन का उल्लास।
ये सीमा बन कर फांस लील न ले
मानव का भविष्य और इतिहास
कि देखती हूँ 'मैं'
अपनी सीमित दृष्टि से
खिड़की से,देहरी से,बालकनी से
कहीं कहीं छत की सीमा के अंदर खड़े
उड़ते पंछी आकाश में।
जिन्होंने नहीं बनायीं कोई सीमा
न जल में,न धरती पर
न आकाश में।
इनके लिए अब भी
सब कुछ असीमित है।
-भावना कुकरेती
सहायक अध्यापिका
हरिद्वार
00000000000
अनीस शाह "अनीस"
ग़ज़ल
अभी तो इतना अंधेरा नज़र नहीं आता।
तो साथ क्यों मेरा साया नज़र नहीं आता।।
इन आंँखों से ये ज़माना तो देख सकता हूँ ।
बस एक अपना ही चेहरा नज़र नहीं आता ।।
जब एक अंधा अंधेरे में देख लेता है ।
मुझे उजालों में क्या-क्या नज़र नहीं आता।।
बँधी यक़ीन की पट्टी हमारी आँखों पर।
सो छल फ़रेब या धोका नज़र नहीं आता।।
जो दिख रहे हैं वो चाबी के सब खिलौने हैं।
यहाँ तो कोई भी जिंदा नज़र नहीं आता।।
तराशे बुत की तो तारीफ सभी करते पर।
हमारे हाथ का छाला नज़र नहीं आता।।
"अनीस"फैली अभी धुंध इतनी नफ़रत की।
किसी को प्यार का रस्ता नज़र नहीं आता।।
- अनीस शाह "अनीस"
00000000000
देवकरण गंडास "अरविन्द"
शीर्षक - श्रमिक
सारा दिन ढोता है वो पत्थर
खाने को तब कुछ पाता है,
वो ठहरा एक श्रमिक साहब
कभी भूखा ही सो जाता है।
बदन तरबतर हुआ स्वेद से
लेकिन वह चलता जाता है,
जब काम नहीं मिलता है तो
वो गाली से पेट भर आता है।
हर रोज खड़ी करता बिल्डिंग
पर, पेड़ की छांव सो जाता है
अन्न की कीमत है मालूम उसे
पेट काटकर घर वो चलाता है।
जब काम तुम्हें तब मीठी वाणी
वरना मक्खी सा फैंका जाता है,
जिन्हें धन का गुमान, वो सुन लें
देश उसके कंधों से चल पाता है।
**************
शीर्षक - दो रोटी
जर्जर सा बदन है, झुलसी काया,
उस गरीब के घर ना पहुंची माया,
उसके स्वेद के संग में रक्त बहा है
तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
हर सुबह निकलता नव आशा से,
नहीं वह कभी विपदा से घबराया,
वो खड़ा रहा तुफां में कश्ती थामे
तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
वो नहीं रखता एहसान किसी का,
जो पाया, उसका दो गुना चुकाया,
उस दर को सींचा है अपने लहू से
तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
उसकी इस जीवटता को देख कर
वो परवरदिगार भी होगा शरमाया,
पहले घर रोशन किए है जहान के
तब जाकर वह दो रोटी घर लाया।
***********************
शीर्षक - भूख
हमने तो केवल नाम सुना है
हम ने कभी नहीं देखी भूख,
जो चाहा खाया, फिर फैंका
हम क्या जानें, है क्या भूख।
पिता के पास पैसे थे बहुत
अपने पास ना भटकी भूख,
झुग्गी बस्ती, सड़क किनारे
तंग गलियों में अटकी भूख।
पढ़ ली परिभाषा पुस्तक में
कि इतने पैसों से नीचे भूख,
खाल से बाहर झांके हड्डियां
रोज सैकड़ों आंखे मिचे भूख।
बच्चों में बचा है अस्थि पंजर
इनका मांस भी खा गई भूख,
हमको क्या, हम तो जिंदा हैं
भूख में भूख को खा गई भूख।
******************
लेखक परिचय
देवकरण गंडास "अरविन्द"
व्याख्याता इतिहास
राजस्थान शिक्षा विभाग
00000000000
संध्या चतुर्वेदी
निरंतर बहते अश्रु धारा
जब रघुराये रोते देखा।
बिलख बिलख हाय
लखन कहते देखा।
तीर लगा लखन ह्रदय में
गति रुकी रघुराई की है।
रोते विनय कर लखन से
बोल कछु बोल
मेरे लखन नयन तो खोल
छाया सन्नाटा ब्रह्मांड में जब
बोलने वाला मौन हुआ
बिलख रहे रघुरायी
ये कैसा संयोग हुआ
थम गई जैसे सारी दुनियां
अंबर भी गतिहीन हुआ
एक लखन के सोने से
गम्भीर भी आसीन हुए
व्याकुल नैना झलक रहे है
सोच सोच कर कि
हाय क्या मुँह दिखाऊँगा उर्मिल को
जो पति वियोग में राह तक रही
क्या बोलूंगा उस माता को
जिसने अनुज को वन भेज दिया था
माँ कौशल्या की धरोहर हाय
राम न संभाल सके।
किस मुँह लौटूंगा अयोध्या जो
भाई न जीवित हो
किस मत ये सम्मत हो कि
नारी की खातिर भाई का बिलदान हो।
राम नही अगर लखन नही हो
एक देह दो प्राण है हम।
उठ लखन लाल,मेरे प्रिय भ्राता
भैय्या भैय्या तो बोल
रस कानों में तू घोल
मेरे लखन कछु बोल
---
कौन सी ने मार दियो री टोना
कहाँ ते आयो निर्लज कोरोना।
सुनी पड़ी घाट और तिवारी ,
सुनी है गयी सब गलियारी।
मोपे अब जाये सहो ना,
कहाँ से आयो कोरोना।
है गये पट बंद मंदिर के
लगी जमात मस्जिद में।
थू थू करें मौलोना।
कहाँ से आयो ये कोरोना।
कभी बजावे थरिया घँटी
कभी जलावें घी को दियो सवायो
कहाँ ते ये निर्लज आयो
कैद पढ़े सब नर नारी
कहा ते आयी ये बीमारी
कोउ बताये कछु ना
कहाँ ते आयो ये कोरोना
कौन सी ने मार दियो री टोना
कहा ते आयो निर्लज कोरोना।
सुपर्णखा सम एक नारी
याने फैलायी ये बीमारी।
पहले एयरपोर्ट बंद करें न
अब रोमे हाय कोरोना।
याकि एक चले न,
घर भीतर सबरे रहना
बस मर जाये ये कोरोना
कौन सी ने मार दियो रो टोना
कहाँ से आयो निर्लज कोरोना
संध्या चतुर्वेदी
अहमदाबाद, गुजरात
00000000000
- अभिनव कोहली-
"कोरोना वायरस"
--------------
मनुष्य की ही भूल, कोरोना वायरस का है मूल।
साग सब्जियों छोड़कर, खाए चमगादड़ व बिच्छू के शूल।
जीभ के स्वाद के लिए, क्या क्या करे तमाशे।
मानवता अपनी छोड़ कर, दानव की कथा ये बांचें।
अपनी भूख मिटाने को, डाला संकट में पूरा संसार,
वायरस को विश्व में फैला कर, पूछे क्या हुआ मेरे यार।
बन गई अब ये महामारी, तो त्राहि-त्राहि करे मनुष्य,
अब इस वायरस से , घोर संकट में है यह पूरा विश्व।
वैज्ञानिक कर रहे हैं कोशिश, बने कोई वैक्सीन,
वरना कोई ना बचेगा धरा पर, चाहे भारत हो या चीन।
इस संकट का समाधान, रहो सब एक दूसरे से दूर,
सोशल डिस्टेंसिंग को मानो, घर में ही रहो हुजूर।
लॉकडाउन में घर से ना निकलो, जब तक ना हो बहुत जरूरी,
हैंड वॉश करो समय-समय पर, पल-पल रखो सावधानी पूरी।
यदि सर्दी जुकाम के हों लक्षण, तो रखो अपना पूरा ध्यान,
आइसोलेट कर लो स्वयं को, मास्क को बना लो अपनी पहचान।
विदेश से आए यदि मित्र व संबंधी, तुरंत सरकार को करो सूचित,
जांच होगी ऐसे व्यक्तियों की, तभी हम सब रहेंगे सुरक्षित।
क्वॉरेंटाइन की है व्यवस्था, इसमें इनको रखा जाएगा,
14 दिनों का स्वास्थ्य परीक्षण, तभी स्वस्थ कहलाएगा।
इस संकट के दौर में भी , वैज्ञानिक, डॉक्टर व पुलिस कर रहे निष्ठा से अपना काम,
इनकी कर्तव्यनिष्ठता व लगन को, हम करते शत- शत प्रणाम।
इनके अथक प्रयासों को, कदाचित व्यर्थ न जाने देंगे हम।
इनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर, पूरा सहयोग करेंगे हम।
अब चाहे कुछ भी हो जाए, आओ मिलकर खाएं कसम,
कोरोना की आपदा को मिटाकर ही, तब चैन से बैठेंगे हम।
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00000000000
महेन्द्र परिहार "माही"
।। हौसला।।
दिखा दो अपनी ताकत जहां को
वतन के लिए मर मिट भी सकते
बुझिल कायरों की तरह नही हम
सीने में हौसला दिल मे तिरंगा रखते
हम से क्या टकराएगा ए -दुश्मन
तुम्हारें टुकड़े टुकड़े भी कर सकते
तेरी गीदड़ धमकियों से न डरते हम
सीने में आग जेब में क़फ़न रखते
हम तो उस देश की मिट्टी में जन्मे
जो लोहे को क्षण में पिघला सकती
माटी के बने दुश्मन तेरी क्या औकात
तन में बारूद हाथ में परमाणु रखते
मत दिखाना मेरे देश को कभी आंखे
तेरी दोनों आँखे हम फ़ोड़ भी सकते
घर में घुसकर चुन चुन कर मारेंगें हम
सीने में हौसला दिल में तिरंगा रखते।।
--
जाने जाते पुलिस नाम से
हाथ मे डंडा सिर पे टोपी
और पहन के ख़ाकी वर्दी
चलते है जो तान के सीना
जाने जाते पुलिस नाम से
सर्दी गर्मी चाहे ऋतु वर्षा
डटे रहते हैं जो शान से
जाने जाते पुलिस नाम से।
विधि के जो सच्चे रखवाले
जनता की करते पहरादरी
मानते ड्यूटी प्यारी जान से
जाने जाते पुलिस नाम से
चोर लुटेरे और अपराधी
काँपते सुन इनका नाम से
जाने जाते पुलिस नाम से।।
होली दिवाली और रक्षाबंधन
सभी मनाते जब धूमधाम से
देशवासियों की रक्षा खातिर
रहते जो ड्यूटी पर आन से
जाने जाते वो पुलिस नाम से
देश में दंगे हो या हो झगड़े
याद आते जो सबके जुबां पे
जान की परवाह न करते वो
अमन चैन व शांति फैलाकर
छा जाते जो सबके जुबां पे
जाने जाते वो पुलिस नाम से।।
--
ओ प्यारी नर्स
ओ प्यारी नर्स!
तुम देवी का रूप हो
नर सेवा में लीन
तुम अभी चुप हो
दिनरात मरीज़ो की
ऐसे करती सेवा
जैसे पूजा की धूप हो।
ओ प्यारी नर्स!
तूने मदर टेरेसा
बन जन्म लिया
मानवता को बचाने
को जो तूने प्रण किया
निज सुखों का त्याग कर
तूने हिंदू मुस्लिम की सेवा की
धर्म रूपी भेदभाव न कर
तूने सब को संदेश दिया।।
ओ प्यारी नर्स!
तुम कितनी अच्छी हो
दिल से तुम सच्ची हो
न पनपता है तुझमे
ऊँच नीच का भेदभाव
तुम ही मानवता की
प्रतीक हो ।
---
स्वास्थ्य है अनमोल धन
शीर्षक:- स्वास्थ्य हैं अनमोल धन
स्वास्थ्य हैं अनमोल धन
रहता इससे तंदुरुस्त मन
चाहे पैसे कमा लो चार
बिन स्वस्थ जीवन बेकार
स्वास्थ्य से चमकती काया
चाहे कमा लो कितनी माया
माया को भी उसने कमाया
जो स्वास्थ्य शरीर रख पाया
विकट समस्या आ पड़ी
बीमारियाँ सबके द्वार खड़ी
गर बिमारियों से हैं बचना
स्वास्थ्य का ध्यान रखना
पिज़्ज़ा बर्गर से नाता तोड़ो
हरी सब्ज़ियों से नाता जोड़ो
शराब माँस मछ्ली आदि के
उपभोग करने से मुँह मोड़ो।
गर स्वास्थ्य शरीर पाना
योग करो प्रातः रोज़ाना
सुबह शाम भ्रमण कर
सन्तुलित आहार ही खाना।
---
महात्मा ग़ांधी
चरखे और लाठी के बूते पे खड़ा रहा
अंग्रेजो के आगे मजबूती से अड़ा रहा
अत्याचार के विरुद्ध बुलंद की आवाज
सत्य अहिंसा का दामन थामें खड़ा रहा।
काले -गौरे का हर भेद मिटाने लड़ता रहा
थाम नमक,धज्जियाँ विधि की उड़ाता रहा
असहयोग आंदोलन,सबक सिखाने गौरे को
विदेशी कपड़ो की होली जलाता रहा।
अन्न जल त्यागकर देशहित में जीता रहा
अंग्रेजों के आगे मुसीबतें खड़ी करता रहा
गाँधी की आंधी में भागे अंग्रेज भारत से
अखण्ड भारत की माला वो जपता रहा।
अपने उसूलों के पथ पर निरन्तर चलता रहा
अमनचैन और देशभक्ति की गाथा सुनाता रहा
नित् सत्य, अंहिसा और अस्तेय का पाठ
हर भारतवासी को पाठ पढ़ाता रहा।
विभाजन की हर एक दंश वो सहता रहा
अखण्ड भारत हेतु अपनों को समझाता रहा
मातृभूमि की रक्षा ख़ातिर प्राणों को त्याग दिया
मरते वक़्त भी " हे राम। हे राम।" कहता रहा ।
--
नाम:- महेन्द्र परिहार "माही"
सम्प्रति:- व्याख्याता (संस्कृत)
पिता:- बाबूलाल परिहार
माता;- स्व.सीता देवी
पता :- पीपाड़ शहर , जोधपुर
राज्य :- राजस्थान
00000000000
शिव कुमार दीपक
नारी विमर्श पर दोहे-
प्राणप्रिया की ताड़ना , ऐसा करे विकास ।
हुए अज्ञ से विज्ञ फिर,कविवर तुलसी दास ।।-1
मैं कमला, मैं कालिका, मैं वामा घर द्वार ।
मानव रखना ध्यान मैं, दो धारी तलवार ।।-2
युग निर्माता मानवी, आँगन की मुस्कान ।
छीना आज दहेज ने, नारी का सम्मान ।।-3
दुल्हन बनकर एक दिन,रही पिया के साथ ।
सुबह सिपाही बन गए , मेंहदी वाले हाथ ।।-4
बुलबुल विधवा हो गई, गोदी बच्चे चार ।
मेहनत,साहस,धैर्य से,पाल रही परिवार ।।-5
बिन गृहणी घर जेल सा , बुरे रहें हालात ।
जहाँ मात रे शक्ति है, वहाँ स्वर्ग दिन-रात ।।-6
छेड़-छाड़ का रेप का,यह भी कारण मान ।
खुला निमंत्रण बाँटते, नारी के परिधान ।।-7
पछुआ से ढीले पड़े, लाज - शर्म के पेच ।
विज्ञापन में मानवी, अदब रही है बेच ।।-8
शिव कुमार दीपक
बहरदोई,सादाबाद
हाथरस (उ०प्र०)
00000000000
कवि राज
कभी एक फ्रेम में दो मुस्कुराते चेहरे होते थे
एक तुम्हारा होता था,एक मेरा होता था
तुमको भी याद होगा
वो नुक्कड़ वाली पुचके की दुकान
और सन्डे सन्डे का एक साथ घूमने जाना
उस खामोश फिजां में जो आवाजें होती थी
एक तुम्हारी होती थी,एक मेरी होती थी।
जब तुम मेरी पसंद ओढ़
लिया करती थी
जैसे मेरे पसंद का नेल पॉलिश
मेरी पसंद वाली शर्ट
मेरे पसंद की जींस
मेरे पसंद के कान में का
तुम्हारे बालों में दो रंग के क्लिफ होते थे
एक तुम्हारे पसंद के,एक मेरे पसंद के होते थे
मैं तुम्हारी पसंद में खुश था
फिर भी तुम मुझसे मेरी पसंद पुछती
तो मुझे अच्छा लगता
यह भी सच था कि
मैं तुझे कभी इनकार नहीं करता
लेकिन तुम भी तो
मेरी हर बात मान लेती थी
दो अलग अलग पसंद एक हो गए थे
तुम्हारी पसंद मेरी हो गई थी,मेरी पसंद तुम्हारे हो गए थे
तबियत मेरी बिगड़ती थी
और खाना खाना तुम छोड़ देती थी
कहती थी तुम्हारा दर्द
मुझे महसूस होता है
फिर तुम दूर क्यों गई
वापस आ जाओ ना
फिर एक डेस्क पे दो कप होंगे
एक तुम्हारा होगा,एक मेरा होगा
फिर एक कागज पे दो नाम होंगे
एक तुम्हारा होगा,एक मेरा होगा
फिर एक फ्रेम में दो चेहरे होंगे
एक तुम्हारा होगा,एक मेरा होगा
--
किसी दिन
भोर की पहली किरण के साथ
कूकती कोईलर के गीतों में
जब तुम्हारी आवाज लहाएगी
आओगे तुम वापस
जब तुम्हें याद मेरी सताएगी
आओगे तुम
मुझे मालूम है
इसलिए तुम्हारा नाम दिल से मिटाया नहीं
ये दिल किसी और से लगाया नहीं
आओगे तुम
मालूम है
तुम्हारे हिस्से का प्यार मेरे पास
सलामत रखा है
तुम्हारी दी हुई निशानियां
मैंने टेबल पर सजा के रखा है
आओगे तुम
मुझे मालूम है
तुम्हारे दिल की धड़कन
अब भी तुम से कहती है
तुझे याद करने वाली
अब भी तुम्हारे दिल में रहती है
आओगे तुम
मुझे मालूम है
तभी तूने मेरी शायरी को स्टेटस लगाया है
शायद तुझे मेरी याद आई,और तुम लौट आया है
आओगे तुम
मुझे मालूम है
आज महीनों बाद missed call
दिया है
फिर से तूने
ब्लॉक से unblock किया है
--
कवि: राज
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कृष्णशरण कौरव
`````आरंभ ही प्रचंड है अखंडता की खंडता का
दुष्टता का कोई नया तोड़ दे......
जाति, पाती, भेदभाव धर्म, वर्ण आदि का
अंत कर संत रूपी कोई उपदेश दे.....
ऐसे कैसे देशद्रोही उपजे वसुंधरा पे
जैसे गर्भ में ही रहकर शिशु गर्भ पर ही घात करें
अंत नहीं युग चार बीता नहीं काल का
कलयुग गति, रथ, पथ, से ही मोड़ दे```
- कृष्णशरण कौरव ```
00000000000
आलोक कौशिक
(1) *नन्हे राजकुमार*
मेरे नन्हे से राजकुमार
करता हूं मैं तुमसे प्यार
जब भी देखूं मैं तुझको
ऐसा लगता है मुझको
था मैं अब तक बेचारा
और क़िस्मत का मारा
आने से तेरे हो गया है
दूर जीवन का हर अंधियार
मेरे नन्हे से राजकुमार...
मेरे दिल की तुम धड़कन
तेरी हंसी से मिटती थकन
प्यारी लगे तेरी शरारत
तुम हो जीवन की ज़रूरत
तुझको देकर मेरे खुदा ने
दिया है अनमोल उपहार
मेरे नन्हे से राजकुमार...
लाड़ले जब भी तुम हो रोते
मेरे दिल के टुकड़े हैं होते
तेरे लिए बन जाऊं मैं घोड़ा
पापा हूं तेरा दोस्त भी थोड़ा
आ जाओ कर लो मेरी सवारी
तुम बनकर घुड़सवार
मेरे नन्हे से राजकुमार...
(2) *बनारस की गली में*
बनारस की गली में
दिखी एक लड़की
देखते ही सीने में
आग एक भड़की
कमर की लचक से
मुड़ती थी गंगा
दिखती थी भोली सी
पहन के लहंगा
मिलेगी वो फिर से
दाईं आंख फड़की
बनारस की गली में...
पुजारी मैं मंदिर का
कन्या वो कुआंरी
निंदिया भी आए ना
कैसी ये बीमारी
कहूं क्या जब से
दिल बनके धड़की
बनारस की गली में...
मालूम ना शहर है
घर ना ठिकाना
लगाके ये दिल मैं
बना हूं दीवाना
दीदार को अब से
खुली रहती खिड़की
बनारस की गली में...
(3) *मैं तो हूं केवल अक्षर*
मैं तो हूं केवल अक्षर
तुम चाहो शब्दकोश बना दो
लगता वीराना मुझको
अब तो ये सारा शहर
याद तू आये मुझको
हर दिन आठों पहर
जब चाहे छू ले साहिल
वो लहर सरफ़रोश बना दो
मैं तो हूं केवल अक्षर...
अगर दे साथ तू मेरा
गाऊं मैं गीत झूम के
बुझेगी प्यास तेरी भी
प्यासे लबों को चूम के
आयते पढ़ूं मैं इश्क़ की
इस कदर मदहोश बना दो
मैं तो हूं केवल अक्षर...
तेरा प्यार मेरे लिए
है ठंढ़ी छांव की तरह
पागल शहर में मुझको
लगे तू गांव की तरह
ख़ामोशी न समझे दुनिया
मुझे समुंदर का ख़रोश बना दो
मैं तो हूं केवल अक्षर...
आलोक कौशिक
00000000000
मंजरी मिश्र
परी
बहती नदी सी है,
खिलती कली सी है,
तू बिल्कुल परी सी है।
फूलों की महक सी है,
चिड़ियों की चहक सी है,
तू बिल्कुल परी सी है।
चूड़ियों की खनक सी है,
पायलों की झनक सी है,
तू बिल्कुल परी सी है।
गहनों की चमक सी है,
गीतों की धमक सी है,
तू बिल्कुल परी सी है।
मदमस्त हिरनी सी है,
खूंखार शेरनी सी है,
तू बिल्कुल परी सी है।
00000000000
प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध‘
पुस्तकें
युग से संचित ज्ञान का भंडार हैं ये पुस्तकें
सोच और विचार का संसार हैं ये पुस्तकें
देखने औ" समझने को खोलती नई खिड़कियां
ज्ञानियो से जोड़ने को तार हैं ये पुस्तकें
इनमें रक्षित धर्म संस्कृति आध्यात्मिक मूल्य है
जग में अब सब प्रगति का आधार हैं ये पुस्तकें
घर में बैठे व्यक्ति को ये जोड़ती हैं विश्व से
दिखाने नई राह नित तैयार हैं ये पुस्तकें
देती हैं हल संकटो में और हर मन को खुशी
संकलित सुमनो का सुरभित हार हैं ये पुस्तकें
कलेवर में अपने ये हैं समेटे इतिहास सब
आने वाले कल को एक उपहार हैं ये पुस्तकें
हर किसी की पथ प्रदर्शक और सच्ची मित्र हैं
मनोरंजन सीख सुख आगार हैं ये पुस्तकें
किसी से लेती न कुछ भी सिर्फ देती हैं ये स्वयं
सिखाती जीना औ" शुभ संस्कार हैं ये पुस्तकें
पुस्तको बिन पल न सकता कहीं सभ्य समाज कोई
फलक अमर प्रकाश जीवन सार हैं ये पुस्तकें
--
करोना निवारण
करोना के कहर से कांप रहा संसार
हर चेहरा चिंतित दुखी देश और सरकार
रुकी है धड़कन विश्व की ठप्प है कारोबार
बंद सभी हैं घरों में बंद सकल व्यापार
सूनी सड़के बंद सब दफ्तर और स्कूल
स्थितियां सब बन गई जनजीवन प्रतिकूल
बच्चे , बूढ़े कैद से है हो रहे उदास
फिर भी कई एक मूर्ख हैं करने और विनाश
अपना खुद ही नासमझ करते सत्यानाश
शासन के आदेशों का करते जो उपहास
कैसे क्यों ? सहसा हुई बीमारी उत्पन्न
है दुनिया अनजान और वैज्ञानिक सब सन्न
शायद किया है मनुज ने कोई बड़ा अपराध जिससे बढ़ती जा रही यह प्रतिदिन
निर्बाध आत्म निरीक्षण करें सब तथाकथित विद्वान प्रकृति को छेड़ा है जिनने जैसे हों नादान
शायद मनुज की गलतियों का ही है परिणाम जिसको देता रहा वह महाशक्ति का नाम
प्रेम भाव की हुई कमी बढा बैर विद्वेष
आपस के दुर्भाव को झेल रहा हर देश
बहुत जरूरी है बढ़े फिर ममता और प्रेम अनुशासित हो कामना रीति नीति और नेम
यदि सचेत हो लोग सब तो न हो और बिगाड़ अंजानी कठिनाइयों के ना बढें पहाड़
यदि पनपे सद्भावना ना हो कोई निराश
क्रमशः बढ़ता जा सके आपस का विश्वास
धीरज से ही कटेगी यह अंधियारी रात
घना अंधेरा रात का देता नवल प्रभात
सब की गति मति एक हो तो मुश्किल आसान कठिन तपस्या से सदा मिलते हैं भगवान
करो ना कुछ भी अटपटा तो ये करोना जाए जीवन में संसार के फिर समृद्धि सुख आये
बढ़े न रोग ये इसका है एक ही सरल उपाय स्वच्छ रहे , घर में रहे बाहर व्यर्थ न जाएं
दुख की घड़ियां कटेंगी मिलेगा जीवनदान
सबकी शुभ सदबुद्धि हो , विनय यही भगवान
--
हनुमान स्तुति
संकट मोचन दुख भंजन हनुमान तुम्हारी जय होवे
बल बुद्धि शक्ति साहस श्रम के अभिमान तुम्हारी जय होवे
दुनिया के माया मोह जाल में फंसे सिसकते प्राणों को
मिलती तुमसे नई चेतनता और गति निश्छल पाषाण को
दुख में डूबे जग से ऊबे हम शरण तुम्हारी हैं भगवन
संकट में तुमसे संरक्षण पाने को आतुर है यह मन
तुम दुखहर्ता नित सुखकर्ता अभिराम तुम्हारी जय होवे
हे करुणा के आगार सतत निष्काम तुम्हारी जय होवे
सर्वत्र गम्य, सर्वज्ञ , सर्वसाधक प्रभु अंतर्यामी तुम
जिस ने जब मन से याद किया आए उसके बन स्वामी तुम
देता सबको आनंद नवल निज नाथ तुम्हारा संकीर्तन
होता इससे ही ग्राम नगर हर घर में तव वंदन अर्चन
संकट कट जाते लेते ही तव नाम तुम्हारी जय होवे
तव चरणों में मिलता मन को विश्राम तुम्हारी जय होवे
संतप्त वेदनाओ से मन उलझन में सुलझी आस लिए
गीले नैनों में स्वप्न लिए , अंतर में गहरी प्यास लिए
आतुर है दृढ़ विश्वास लिए , हे नाथ कृपा हम पर कीजे
इस जग की भूल भुलैया में पथ खोज सकें यह वर दीजे
हम संसारी तुम दुख हारी भगवान तुम्हारी जय होवे
राम भक्त शिव अवतारी हनुमान तुम्हारी जय होवे
00000000000
अनुशिका यदु ,
।मन।
मेरा मन, एक बहती हुई लहर,
जिसका कोई आदि ना ही अन्त !
मेरा मन, है हवाओं का साथी,
जहाँ ले चले ये मस्त पवन !
मेरा मन, उन जुगनुओं की रोशनी,
जो जल-बुझ देते अपने जीवन का प्रमाण !
मेरा मन, उस धरा-सा स्थिर,
जो औरों के खातिर देता अपना बलिदान!
मेरा मन, उस जल की तरह निर्मल,
विलयन हो जाता अनेकों विचारों का जिसमें !
मेरा मन, एक खुला आसमान
नभचर स्वच्छंद हो विचरते है इसमें !
मेरा मन, जो है एक सितारा,
चमक उठे देखकर दुनिया का नज़ारा!
मेरा मन, जीवन के भवसागर का राही,
मेरे शब्द ही हैं इसका सहारा !
-अनुशिका यदु , कवर्धा (छ. ग.)
00000000000
चंचल सोनी
जिंदगी
ऐ जिंदगी तू कितना कुछ सिखाती है
कभी खुशी तो कभी गम को सामने लाती है
कभी हंसते - हंसते खुद को रुलाती है
तो कभी रोते - रोते भी हंसना सिखाती है
ये जिंदगी भी कितना कुछ सिखाती है
कभी किसी राह पर गिर कर भी सम्भलना सिखाती है
तो कभी चलते - चलते भी गिराती है
ये जिंदगी भी कितना कुछ सिखाती है
तूने ही तो सिखाया किस मोड़ पर कब क्या करना है
कब गिरना है तो कब सम्भलना है
कब किस राह पर जाना है तो कब रुक जाना है
तू दोस्ती की राह पर चलना सिखाती है
ये जिंदगी भी कितना कुछ सिखाती है
कभी तन्हाई में भी जीना सिखाती है
तो कभी दोस्ती से भरी दुनिया दिखाती है
कभी मंजिल को पाना सिखाती है
तो कभी अच्छे बुरे पलों में रहना सिखाती है
ये जिंदगी तू भी कितना कुछ सिखाती है।
00000000000
व्योमेश चित्रवंश
मेरा गांव ......
मेरा गॉव
मुझे बुलाता है
भेजता है ढेरों संदेशे
बारिस की पहली फुहारों से
माटी की सोंधी अलसाई गंधों में
नीम के कोमल छाल से बनें
सूखे सफेद मंजनों में
आम के फलों और जामुन के
साफ्ट ड्रिंक के खूशबू मे
मंदिर के प्रसाद मे मिले
तुलसी की दो चार पत्तियों में,
मेरा गांव
भेजता है संदेशे उलाहने के साथ
शुरूआती बरसात से सज चुके
पथरी और दूब भरे मैदानों से
सिधरी,घोंघा, भूजी कोसली से
करेमू व सनई के सागों से
चिलबिल,टिकोरा, अमरूद की ढोढ़ी से
कबड्डी, सुटुर पटर के पढ़ाई से
पचैँया के दंगल बिरहा के बोलों से
मेरा गॉव
जगा देता है मुझको अपनी
अनभूली यादों में
गरजते बादल और चमकती बिजलियों मे
टिपटिपाती बूँदों से भर आये
धान रोपे खेतों मे
मेढकों सहित उफनाये ताल तलैयों मे
मेरा गांव
गुदगुदाता है मुझको
फागुन मे बिखरे रंगो मे
प्यार भरें गालियों और चुहलबाजियों मे
चैता फगुआ के संग
होरहे की अधपकी बालियों मे
किलकती हँसी और झूले पर
बल खाती हँसती हुई कजरियों मे
मेरा गॉव
शिकायत करता है मुझसे
कैसे रहते हो तुम
इन भीड़ भरी सड़कों मे
एक दूसरे को नीचा दिखाने मे लगी
इन बड़ी बड़ी बिल्डिंगो मे
बेमतलब ही भाग रहे लोगो मे
और एक दूसरे से जूझ रहे झूठो मे
मेरा गॉव
मनुहार करता है
आओ चलो फिर वहीं चलते है
खेत की मेड़ो पर बैठ
ईख चूसेगें
पगडण्डियों पर चलते
चौधरी चच्चा के चने खायेगें
मछलियॉ मारेगें और
पेड़ की फुनगियों पर
निशाना लगायेगें
यह तो पक्का है
अभी भी तुम ही जितोगे.
मेरा गांव
पकड़ लेता है मेरा हाथ
ठीक है वहॉ कुछ भी नही है
पर वहॉ तुम खिलखिलाओगे तो
माना वहं कारें नही है पर तुम
मेरे बुलाने पर दौड़े आओगे तो
यहॉ है तुम्हारे पास वह सब कुछ
जिसकी जरूरत है शहर वालों को
पर नही है तुम्हारी मुस्कराहट
जो नाचती थी बेमतलब ही तुम्हारे होठो पर
बिना उसके तुम अधूरे से लगते हो
बिलकुल खाली खाली लूटे पिटे जैसे
मेरा गांव
बाहर बैठा है मुझे ले जाने को वापस
उसे इंतजार है मेरे साथ चलने का
और मै
छुपता फिर रहा हूँ
कि कहीं उससे सामना ना हो जाये.....
-व्योमेश चित्रवंश
00000000000
समीक्षा जैन
रिश्ते भी कई रंग दिखाते हैं
जिनको हम समझ न पाये
उनकों संग दिखाते है
तूफान भी लाते है और बिखर भी जाते हैं
ये रिश्ते भी कई रंग दिखाते हैं
बचपन में वो अंजान से रिश्ते हुआ करते थे
जब हम एक दूसरे के संग हुआ करते थे
जवानी भी क्या नये - नये दौर लाती हैं
रिश्तों को पूरा बदल जाती है
एक पल वो लाती है जब
रिश्तों को निशाने की चाह बदल सी जाती है।
00000000000
डॉ सत्यवान सौरभ,
नारी मूरत प्यार की, ममता का भंडार !
सेवा को सुख मानती, बांटे खूब दुलार !!
तेरे आँचल में छुपा, कैसा ये अहसास !
सोता हूँ माँ चैन से, जब होती हो पास !!
बिटिया को कब छीन ले, ये हत्यारी रीत !
घूम रही घर में बहू, हिरणी-सी भयभीत !!
अपना सब कुछ त्याग के, हरती नारी पीर !
फिर क्यों आँखों में भरा, आज उसी के नीर !!
नवराते मुझको लगे, यारों सभी फिजूल !
नौ दिन कन्या पूजकर, सब जाते है भूल !!
रोज कहीं पर लुट रही, अस्मत है बेहाल !
खूब मना नारी दिवस, गुजर गया फिर साल !!
थानों में जब रेप हो, लूट रहे दरबार !
तब सौरभ नारी दिवस, लगता है बेकार !!
जरा सोच कर देखिये, किसकी है ये देन !
अपने ही घर में दिखें, क्यों नारी बेचैन !!
रोज कराहें घण्टियां, बिलखे रोज अजान !
लुटती नारी द्वार पर, चुप बैठे भगवान !!
नारी तन को बेचती, ये है कैसा दौर !
मूर्त अब वो प्यार की, दिखती है कुछ और !!
नई सुबह से कामना, करिये बारम्बार!
हर बच्चा बेखौफ हो, पाये नारी प्यार !!
छुपकर बैठे भेड़िये, देख रहे हैं दाँव !
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव !!
मोमबत्तियां छोड़कर, थामों अब तलवार !
दिखे जहाँ हैवानियत, सिर दो वहीं उतार !!
--
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगें हालात !!
******************
बने विजेता वो सदा, ऐसा मुझे यकीन !
आँखों में आकाश हो, पांवों तले जमीन !!
तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात !
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगें हालात !!
बीते कल को भूलकर, चुग डालें सब शूल !
बोयें हम नवभोर पर, सुंदर सुरभित फूल !!
तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार !
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार !!
नए दौर में हम करें, फिर से नया प्रयास !
शब्द कलम से जो लिखें, बन जाये इतिहास !!
आसमान को चीरकर, भरते वही उड़ान !
जवां हौसलों में सदा होती जिनके जान !!
उठो चलो, आगे बढ़ो, भूलों दुःख की बात !
आशाओं के रंग से, भर लो फिर जज्बात !!
छोड़े राह पहाड़ भी, नदियाँ मोड़ें धार !
छू लेती आकाश को, मन से उठी हुँकार !!
हँसकर सहते जो सदा, हर मौसम की मार !
उड़े वही आकाश में, अपने पंख पसार !!
हँसकर साथी गाइये, जीवन का ये गीत !
दुःख सरगम सा जब लगे, मानो अपनी जीत !!
सुख-दुःख जीवन की रही, बहुत पुरानी रीत !
जी लें, जी भर जिंदगी, हार मिले या जीत !!
डॉ सत्यवान सौरभ,
वेटरनरी इंस्पेक्टर, हरियाणा सरकार
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
00000000000
धीरज शाहू , ' मानसी '
शबे - हिज़्र की दास्तां, तुम सुनो तो कहे,
्या समझेगा ये जहां, तुम सुनो तो कहे.
तन्हाई में अक्सर चोट लगती है किधर,
दर्द अब होता है कहां, तुम सुनो तो कहे.
जिस्म से होकर अक्सर प्यासी रूह तक,
अहसास होते कैसे रवां, तुम सुनो तो कहे.
अब तो रह रह कर यादों के शानो पर,
सर क्यों पटकती वफ़ा, तुम सुनो तो कहे.
पत्थरों ने कब कहां चाहत को है समझा,
क्या मेरे मर्ज़ की दवा, तुम सुनो तो कहे. ।
--
इन आंखों में चेहरा कोई तो हो,
इस शहर में अपना कोई तो हो.
मंज़िल की चाह तो हमें भी है,
मगर सामने रास्ता कोई तो हो.
कहने को सभी अपने है मगर,
इसके भी अलावा कोई तो हो.
जिसकी तमन्ना में रब को भूले,
इंतज़ार में है, ऐसा कोई तो हो.
जिस्म जख्मी, रूह भी जख्मी,
अपने दर्द की दवा कोई तो हो.
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तेरे अहसासो में रवां, मै हूं कि नहीं,
अब तेरे शेरो में बयां, मै हूं कि नहीं.
मेरा मर्ज लाईलाज ही सही मगर,
अब तेरे दर्द की दवा, मै हूं कि नहीं.
पूछते हैं लोग तुम ही दे दो ज़वाब,
अब तेरे दिल का पता, मै हूं कि नहीं.
सजदे में तो काफिरों को देखा नहीं,
बता तेरे दिल का खुदा, मै हूं कि नहीं.
अक्सर गूंजती है तेरी तन्हाई में वो,
ख़ामोश दिल की सदा, मै हूं कि नहीं.
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श्रेयांश शिवम्
अंधेरों की बात मुझसे न कर,मैंने सूरज को ढलते देखा है ।
लड़खड़ाने की बात मुझसे न कर,मैंने अपाहिज को संभलते देखा है ।।
अपने जिस्म को लिबासों से ढककर इतना क्यूँ इतरा रहा ।
मैंने इसी जमीं पर अनाथों को नंगे ठिठुरते देखा है
सुन,खूंखार शोहदों तू भला सादगी को क्यूँ डरा रहा
मैंने पनाह के लिए तुझ जैसों को तरसते देखा है ।।
ग़र मोहब्बत करनी नहीं आती ,तो उसे जिस्म का खेल मत बना ।
मैंने कई आशिकों को तन्हा सिसकते देखा है ।।
ऐ,हवसी आत्मज ,तू किसी की इस्मत क्यूं नोच रहा
मैंने इस जुल्म से हर आत्मजा को सहमते देखा है ।
गजल
पाकर खुद को तन्हा और तेरी यादों में खोकर
जा,हमने भी लिख दिया आज तुझे बेजार होकर
धड़कता रहा है दिल अब तक ग़म के साये में
समझाता हूँ खुद को कभी हँसकर, कभी रोकर
वैसे तो मुद्दतों से खामोश हूँ बिना किसी से सवाल किए
संभलता रहा हूँ अब तक,जब भी लगी है ठोकर
कई तल्ख बातों को भीतर अपने दफ्न किए
लिखता हूँ गजल,खुद को आँसुओं में भिंगोकर
कविता
पहले तुम मेरा हिस्सा भेजो ।
फिर तुम अपना किस्सा भेजो ।।
काम अधर मेंं कहीं लटक न जाए ।
इसलिए तुम मेरा हिस्सा भेजो ।।
हर काम की कीमत तय है ।
बिन कीमत के सब कुछ भय है ।।
लेकर कीमत "साहब"बोले ।
जिसकी कीमत उसे आगे भेजो ।।
पहले कर्म पद को नमन करो ।
फिर पैसों का गबन करो ।।
जब अपराध उजागर हो "साहब"का ।
फिर, जडो़ मुकदमा और समन भेजो ।।
नाम:-श्रेयांश शिवम् ,राज्य:-बिहार, जिला-दरभंगा
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-लक्ष्मी नारायण कल्ला
तुम बार बार
जीने की ख़ातिर
मेरी मन की मिट्टी में
मौत क्यूँ बूते हो?
जो मिट्टी तख़्लीक़ का दुख
सहती हो
बाँझ नहीं होती!
तुम मुझ से
और कितनी नज़्में लिखवाओगे?
ज़िंदगी
मुझे दस्तक देते देते
दम तोड़ रही है
उस को जी लेना
सब कुछ सहने से
बहुत आसान था
बग़ैर तड़पे
-लक्ष्मी नारायण कल्ला, आदर्श नगर, पाली राजस्थान.
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अर्पण शुक्ल
लेखनी आज लिख दे ,अमिट इक कथा
बुझ गए हैं दीए , शौर्य के गान मे
राष्ट्रहित ना निलय की, कहे जो व्यथा
लेखनी आज लिख दे ,अमिट इक कथा।
मां, पिता भ्रात , भगिनी के होते हुए
सोचते देश गरिमा को सोते हुए
देशहित शूलियो पर चढ़े अन्यथा
लेखनी आज लिख दे, अमिट इक कथा।
कोशिकाओं से बहती है रक्तिम नदी
कुल जो दीपक बुझे, पीछे जाती सदी।
ध्वांत रजनी मे निस्तब्ध जो है खड़े
देशहित नव्य इतिहास लिखने अड़े
केतु, स्वर, वसुमती सबकी अंतर्कथा
लेखनी आज लिख दे,अमिट इक कथा।
अर्पण शुक्ल बहराइच उत्तर प्रदेश
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अरुण कुमार प्रसाद
अमर आत्मा है रश्मि पुंज
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इसे कृष्ण ने कहा था,मैं तो सिर्फ दुहरा रहा हूँ.
पढ़,सुनकर इसे मैं तमाम जीवन सिहरा रहा हूँ.
अनित्य का विश्व, आत्मा से आच्छादित?
चेतना शुन्य देह से चैतन्य देह आभासित?
उस चेतना की आकांक्षाएं,और अदम्य इच्छाएँ?
कृष्ण का अर्जुन से छल करती हुई भावनाएँ-
"सब मृत है या मरेगा तेरे वाण से नहीं तो मेरी माया से.
योद्धा होने का गर्व और गौरव प्राप्त करने हेतु
विध्वंस करो हे! अर्जुन, मेरे प्रिय मित्र."
"पृथापुत्र,जीवन में युद्ध ही सर्वोपरि है
श्रम सम्पादन से कितना गढ़ लोगे धान्य-धन.
अर्थ होगा तो “अर्थ” होगा तुम्हारा
युद्ध का विजय देगा तुम्हें काम की क्रिया,मोक्ष का स्वर्ग,
माया का सुख,मोह की प्रसन्नता, अहंकार का अहम् ..
सत्य यही है हे पार्थ,
सत्ता इसी की है और यही है जीवन का तार्किक तत्व."
“हे अर्जुन, दृश्य जगत है नाशरहित
सिर्फ उसका स्वरूप होता है परिवर्तित.
क्योंकि सर्व व्यापक आत्मा है इसमें स्थित.
अदृश्य आत्मतत्व से आलोकित है सर्वस्व
अत: नित्य है,अत: है अमर,अत: तू युद्ध कर
क्योंकि, तेरे मारने से नहीं मरेगा कुछ,हे गांडीवधारी अर्जुन.
संचित ऐश्वर्य और विजित राष्ट्र अनायास उपलब्ध होगा
इसलिए युद्ध कर.”
“प्रकाश या प्रकाश की अनुभूति जीवन में
आत्मा का पर्याय है.
यह प्रकाश न नष्ट होता है न ही सृजित
तम है प्रकाश की एक नियति.
अत: इसका न कोई हन्ता है न जनक.
तदनुसार कालचक्र से परे निरंतर व सनातन है यह आत्मा.
यह रहस्यमय ज्ञान है
अत: तू ऐसा जान और युद्ध कर.”
“आत्मा गंध हीन,रंग हीन,स्पर्श हीन,निःस्वर, स्वाद हीन,
निराकार,और अतप्त तथा अव्यक्त है हे अर्जुन,
किन्तु,सत्ता तो इसकी अवश्य है चाहे, पारदर्शी हो.
मानो कि तुम इसे जन्म वाला व मृत्यु वाला मानते हो तब भी
मृत्यु के पश्चात् यह ग्रहण करेगा प्रादुर्भाव.
जिसका पुनर्जन्म होना ही है
व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु
उसे नष्ट कर देने से किसी पुन्य का क्षरण तो होता नहीं.
अत: तीव्रतम गति और बल व संकल्प के साथ
अपने धर्म का पालन करने हेतु युद्ध कर.”
“क्या तुम स्वयं की मृत्यु से भयाक्रांत हो या परिजनों के?
मृत्यु शाश्वत सत्य है हे पार्थ,
आत्मा के सन्दर्भ में यह गूढ़ तथ्य तेरा अज्ञान दूर करे!
अब मैं कर्म के तथ्यों को स्पष्ट करने हेतु उद्धत हूँ
तू भी अपने सम्पूर्ण चेतना सहित उद्धत हो जा अर्जुन.”
“परमात्मा निश्चित मन व बुद्धि वाले का लक्ष्य है
अनिश्चित मन वाले स्वर्ग के सुख से पीड़ित हैं.
ऐश्वर्य में सुख चाहने वाले फल रूपी क्रिया में
अपने मन व बुद्धि को स्थिर और आसक्त करते रहते हैं.
वेद कर्मकाण्ड द्वारा फलरूप क्रिया का सम्पादक है.
आसक्ति विहीन होकर तुम हर्ष,शोक,द्वंद्व,क्षेम रहित हो जा
स्वयं की अनुभूति कर और निष्काम कर्म में
स्वयं के अस्तित्व को उपस्थित कर.
इस युद्ध में इस हेतु व्यर्थ व्यामोह में योजित न कर
अपनी सम्पूर्णता से, एकाग्रता से शत्रु के विरुद्ध शस्त्र उठा.”
“वेद में विद्वानों का प्रयोजन दीर्घ से ह्रस्व हो जाता है
जब वेदग्य प्राणी वेद-तत्व को भली-भांति जान लेता है.
हर ज्ञान का प्रयोजन ब्रह्म को जानने हेतु ही सृजित हुआ है.
ब्रह्मतत्व के साक्षात्कार के बाद प्राणी सत्य जान जाता है.
हे अर्जुन,ज्ञानवान प्राणियों को कर्म करने में ही आनन्द है
ब्रह्म से साक्षात्कार के बाद वह कर्मफल से निरासक्त हो जाता है.
अत: तुम निष्काम भाव से कर्म तो करो क्योंकि ज्ञान से युक्त हो
किन्तु,उसके परिणाम में आसक्ति न रखो यह कर्म का धर्म है.
कर्म की सिद्धि अथवा असिद्धि से अनासक्त हुआ प्राणी ही
सकाम और अकाम से विरक्त हुआ प्राणी वस्तुत: कर्मयोगी है,
अत: फल से परे अपने प्रयास पर सम्पूर्ण दृष्टि स्थिर रख.
मैं कृष्ण इसे “समत्व” कहता और जानता हूँ तू भी ऐसे ही जान.
हर्ष,और विषाद में सम होना ही है समत्व हे अर्जुन.”
“प्राणी समरूप होकर निरहंकार विवेक से युक्त होता है
और इसलिए पुन्य में और पाप में पुन्य और पाप से परे मात्र कर्म देखता है
और इसलिए आध्यात्म में परमपद का अधिकारी हो जाता है.
अत: परमात्मा से एकात्म हेतु अपनी चेतना को परमात्मा में
अचल और स्थिर कर.
पाप और पुण्य से स्वयं को पृथक करना
या स्वयं को पाप और पुण्य से अनावृत करना ही
ब्रह्मबुद्धि को स्वयं में करना है आवेष्टित.
कर्मयोगी प्राणी
कर्म में पाप और पुण्य की विवेचना किये बिना
कर्म से उत्पन्न फल में अनासक्त होता हुआ
कर्म सम्पादक है.
इसलिए हे पृथा पुत्र, तू कर्म कर .”
“शास्त्र के और शस्त्र के ज्ञान में
अनेक सूत्र और उसकी मीमांसा से ज्ञान-बुद्धि को भ्रमित मत कर
ज्ञान के गहन अंधकार पक्ष से स्वयं को
निर्लिप्त रख.
और युद्ध कर.”
कर्म और ज्ञान का भेद अर्जुन को अस्थिर करता
ज्ञान से उत्पन्न व ज्ञान से निर्धारित कर्म की इस
व्याख्या से विचलित
अर्जुन ने कहा “हे प्रिय सखा कृष्ण,
श्रेष्ठ क्या है? कर्म या ज्ञान! “
“कर्म के पूर्व और कर्म के पश्चात् ,
कर्ता की स्थिति मुझे विस्तार से कहें.”
“हे अर्जुन, कर्म से पूर्व वह ज्ञानयोगी धर्म की
विवेचना करता हुआ कर्मयोगी है और
निष्काम भाव से कर्मोद्धत,
कर्म संधान करता हुआ,
उत्तम कर्मयोगी है.” “ज्ञान और कर्म से श्रेष्ठ वह धर्म है जो
आत्मा को मनुष्य से परम ईश्वर को प्रेरित करता है.
युद्ध करते हुए हे अर्जुन, तुम उस धर्म के उत्थान में
योगदान करता हुआ निष्काम कर्म कर.”
हे अर्जुन,
तुम जानते हो कि
तुम मनुष्य हो।
तुमहारा जन्म हुआ है।
तुम नहीं जानते कि
कितनी बार तुम जन्म लेते रहे हो।
तुम जीव से जड़
और जड़ से जीव का अस्तित्व
कितनी बार ग्रहण करते रहे हो।
हे अर्जुन,यही तो पुनर्जन्म है।
अजैविक अवस्था में इंद्रियाँ नहीं होती
सुख,दु:ख;हास-रुदन,गंध-स्पर्श;
गर्व-गौरव;दर्द-आनंद,शुभ-अशुभ;
मोह-माया,आसक्ति-विरक्ति आदि
भावनाओं का अहसास नहीं होता।
जैविक अवस्था में सारी भवनाएं
या तो सुख देती है या दु:ख।
सुख को बचाने और
दु:ख से बचने के लिए
जीव करता है प्रयास।
प्रयास करते हुए
ढूंढ लेता है एक ईश्वर अनायास।
हे अर्जुन,मैं वही ईश्वर हूँ।
तुम्हारा ईश्वर मैं ही हूँ, अर्जुन।
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प्रियंका सौरभ
लग जाये जाने कहाँ, कोरोना खूंखार !
रखें कदम संभालकर, यदि जीवन से प्यार !
जानी दुश्मन है खड़ा, करने को अब वार !
जल्दी में मत कीजिये, जीवन रेखा पार !!
कुदरत की इस चोट से, सहम गया सन्सार !
मंदिर-मस्जिद बंद है, अल्लाह है लाचार !!
रुका रहे आवागमन, घर में हो परिवार !
पूर्ण बंद को मानिये, कहती है सरकार !!
इक दूजे से दूर हो, पर हो मन में प्यार !
आपस की ये समझ ही , एक सही उपचार !!
बीतेगा ये दौर भी, सौरभ तू मत हार !
मुरझाया ये बाग़ फिर, कल होगा गुलजार !!
बूँद-बूँद में सीख
इस धरती पर हैं बहुत, पानी के भंडार !
पीने को फिर भी नहीं, बहुत बड़ी है मार !!
जल से जीवन है जुड़ा, बूँद-बूँद में सीख !
नहीं बचा तो मानिये, मच जाएगी चीख !!
आये दिन होता यहां, पानी खर्च फिजूल !
बंद सांस को खुद करें, बहुत बड़ी है भूल !!
जो भी मानव खुद कभी,करता जल ह्रास !
अपने हाथों आप ही, तोड़े जीवन आस !
हत्या से बढ़कर हुई,व्यर्थ गिरी जल बूँद !
बिन पानी के कल हमीं,आँखें ना ले मूँद !!
नदियां सब करती रहे, हरा-भरा संसार !
होगा ऐसा ही तभी, जल से हो जब प्यार !!
पानी से ही चहकते, घर-आँगन-खलिहान!
धरती लगती है सदा, हमको स्वर्ग समान !!
बाग़, बगीचे, खेत हो, घर या सभी उद्योग !
जीव-जंतु या देव को,जल बिन कैसा भोग !!
पानी है तो पास है, सब कुछ तेरे पास!
धन-दौलत से कब भला, मिट पाएगी प्यास!!
जल से धरती है बची, जल से है आकाश !
जल से ही जीवन जुड़ा, सबका है विश्वास !!
अगर बचानी ज़िंदगी, करें आज संकल्प !
जल का जग में है नहीं, कोई और विकल्प !!
---प्रियंका सौरभ
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ममता रथ
बँद मुट्ठी को खोलकर देखो
परा शक्ति वह तभी मिलेगी
मधुबन सबको ही भाता है
किन्तु कहाँ खुद बन पाते है
जीवन हो निःस्वार्थ हमारा
मन पावन गँगा की धारा
जन सेवा की ऊष्मा भी हो
तो ईश्वर की करूणा पिघलेगी
परा शक्ति वह तभी मिलेगी
ममता रथ ,रायपुर
00000000000
-अवधेश कुमार निषाद मझवार
हां मैं युवा मजदूर हूं
.....................
चाहता हूं मैं देश का भला करूं,
विश्व भर में नाम सबसे ऊपर करूं,
भूखा रहूं लेकिन देश का नाम करू,
देश को अपना तन मन बलिदान करूं,
जानता हूं साहब पीछे है परिवार मेरा।।
हां मैं युवा मजदूर हूं ...........
माता-पिता ने मुझे खूब पढ़ाया,
सत्य के मार्ग पर चलना सिखया,
गलत सही का अंदाजा करवाया,
क्यों नहीं फिर भी मैं नौकरी पाया।।
हां मैं युवा मजदूर हूं.............
जब मैने बी. ए. पास किया,
घरवालों ने मुझ पर विश्वास किया,
जगह-जगह पर फार्म भरवाए,
कहीं जगह पर इंटरव्यू करवाए,
देश में भ्रष्टाचार ने पैर जमाए।।
हां मैं युवा मजदूर हूं........
अंत में आकर एक रास्ता पाया,
मजदूरी का अवसर पाया,
रोज मजदूरी पूरी करता हूं,
पूरी दिहाड़ी नहीं पाता हूं।।
हां मैं युवा मजदूर हूं..............
एक दिन भर पेट ना भोजन पाया,
इस देश के अमीर-रईसों को,
उनके अपने घरों में उनको सुलाया,
साहबो की कोठी पर कल जाना है मुझको।।
हां मैं युवा मजदूर हूं............
दे रहे है बधाइयां आज लोग,
व्हाट्सएप और फेसबुक पर,
मजदूर दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं,
साल में पहले तो कभी पूछा,
नहीं चाहिए हमें आपकी ये बधाइयां।।
हां मैं युवा मजदूर हूं...........
-अवधेश कुमार निषाद मझवार
ग्राम पूठपुरा पोस्ट उझावली
तहसील फतेहाबाद,आगरा, उ प्र.-283111
00000000000
- निकिता कश्यप
आँखों हीं आँखों में ऐसी मदिरा
घोल कि तेरी हो जाऊं
अपने होंठो के चाभी से मेरे दिल
को यूं बंद कर कि तेरी बन जाऊं
अपने दिल के पिंजरे में यूं कैद कर
कभी उड़ न पाऊं
अपने हाथों की जंजीरों में यूं जकड़
जिसे कभी तोड़ न पाऊँ
अपने उंगलियों को मेरी जुल्फों
में कुछ यूं उलझने दे ,जिसे मैं
कभी सुलझा न
पाऊँ
अपने रातों में कुछ इस तरह शामिल
कर, मुझे जो
मैं कभी सो न पाऊँ
अपने रूह को कुछ यूं आवाज
लगा,
जो मेरे रूह को दस्तक दे
जाये
खुद को कुछ यूं बेताब कर, जो
मैं खुद बेताब हो
जाऊँ
जिसे कभी तोड़ न पाऊँ
- निकिता कश्यप
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आत्माराम यादव
(एक )
बेटे ने सीख लिया दिल से खेलना
माँ-पिता को छोड़ चुके
बेटे के लिए
माँ ओर पिता का दिल
एक गोल गेंद की तरह है ।
बचपन में पिता ने उसे
खेलेने को दी थी गेंद
उसके सपनों को दिया था
एक खुला आसमान
जब वह रूठता ओर
चाँद सूरज मांगता
तब पिता एक गेंद देकर
तसल्ली देते की ये है सूरज ओर चाँद
ओर बेटा खुशी से
सूरज ओर चाँद को पैरों से खेलता।
उसने कभी नहीं जाना कि
माँ ओर पिता का प्रेम अनंत है
अनंत यानि शून्य
शून्य यानि महाकार
उस महाकार शून्य से जीवन शुरू होता है
ओर महाकार शून्य पर ही खत्म हो जाता है
महाकार शून्य का अर्थ है
माँ ओर पिता ।
माता पिता का दिल
गोल गेंद मानने वाले बेटे ने
पीव अब सीख लिया है
माँ ओर पिता के दिल से खेलना ॥
(दो )
आँखों की दशा
ये दुख की इंतिहा है, दर्द से भर आई आंखे
दर्द लबालब हो गया, चलो दर्द बाँट लू ॥
दर्द आँखों में हिलोर मारे,आँसू छलकाए आंखे
सागर से गहरी आंखे, कही डूब न जाना
कही डूब न जाना, चलो तैरना सिखा दूँ ।
भाग्य के सितारों को, देखती रही आंखे
आंखे पगला गई है , चलो इलाज करा दूँ ।।
नदी में झांककर , खुद नदी बन गई आंखे
समुद्र में मिलना चाहे ,चलो समुद्र से मिला दूँ ।
खूबसूरत स्वप्न देखना, सीख गई क्वारी आंखे
बंदिशे सभी हटाकर, चलो सपने साकार करा दूँ ।
ब्रम्हाड पिघल न जाये,यह अजूबा देखती है आंखे
शिव पाँवों में बांधे धरती, चलो नृत्य रुकवा दूँ॥
दुखों कि धर्मशाला है तन, यह सच जान चुकी आंखे
पीव पखेरू के उड़ जाते ही, चिरनिंदा में सोएँगी आंखे॥
(तीन )
कितना ओछा है आदमी
मेरे अवचेतन मन में
दफन है शब्दों का सागर
जब कभी चेतना आती है
मेरा मन भर लाता है
शब्दों की एक छोटी सी गागर।
जब मैं गागर को उलीचता हूँ
तो शब्दों के जल में मिलते है
सांस्कृतिक मूल्य,परनिंदा ओर
कल्पनाओं का सुनहरा संसार ।
सत्य धीरे धीरे बन जाता है
कल्पनाजीवी शब्दों का जाल
जिसमें मनोरम शब्द धर्म-कर्म ओर
आदमी के प्यार, त्याग, विश्वास के
शब्द हो जाते है महाकार से पर्वताकार।
आदमी चक्कर लगाता है ब्रह्मांड के
विकास का पहिया थमता नही दिखता
चाँद तारे ओर ग्रहो की दूरिया नापकर
पीव आदमी ने भले जीत लिया हो जगत को
पर संकृति ओर संस्कार की पताका
वह अपने मन पर अब तक नही लहरा सका
आदिम हब्बा का वंशज यह आदमी
आदिम भावों को नही जीत सका है ।
आज भी अवचेतन मन के शब्द सागर में
आदिम भावों को जीता है हर आदमी
पीव नैतिक मूल्यों का लबादा ओड़े
अवगुणों को अपने छिपाता है आदमी
एक गागर शब्दजल के दो शब्द टटोलने से
कितना नंगा/ओछा है, उजागर हुआ आदमी ॥
शब्दसागर की असीम शब्द-गागरों में
कोटि कोटि शब्द जन्म लेने की प्रतीक्षा में
सदियों से पल बढ़ रहे विगत की कोख में
ताकि कोई शुद्ध बुद्ध के अवतरित होने पर
उनके प्रज्ञावान अवचेतन से वे अज्ञेय शब्द
जगत के कल्याणार्थ जन्म ले उद्घाटित हो सके ॥
(चार )
किराये का मकान
किराये के मकान में
गुजार दिये है पच्चीस साल
हर महीने,
झट टपक पड़ती है
किराया भरने की तारीख
जब मकानमालिक
यमराज कि तरह
किराया वसूलने
खड़ा होता है द्वार पर।
घर के बाहर ही है
कूड़े का ढेर, गंदी नाली
मच्छरों का प्रकोप
घर के अनाज को चट करती
चूहो की फौज
बीमारी फैलाती
काकरोचों की जमात।
पूरे घर में है सीलन,
दीवारे है चिपचिपी
जैसे घर नही मैं खुद हूँ
मेरे पास नही है कोई नौकरी
न ही कोई धंधा या कारोबार
तभी मुझे आज तक नहीं मिल सकी
कोई बंधी हुई तनखाह
मैं पत्रकार हूँ,विज्ञापन के
कमीशन से जिंदा हूँ ॥
30 साल के पत्रकारिता जीवन में
आज भी
वह महिना ओर दिन नहीं आया
जब
जिसके लिए लिखता रहा हूँ
उसने मुझे दो हजार से बड़ा
कोई भुगतान किया हो।
मैंने देखा है जीवन का संघर्ष
दुख कि इंतिहा देखी है
कडकड़ाती सर्दी,भीषण गर्मी को सहा है
बच्चो कि परवरिश के लिए
जी तोड़ मेहनत की
पर किसी को पुकारा नहीं
पीव भावों को कलमबद्ध करता रहा हूँ
जहा छाव को भी लोग छूने से डरते हो
वहाँ अपने दिल कि बात करता रहा हूँ।
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खान मनजीत भावड़िया मजीद
मजदूर का काम
यह ताजमहल
यह गगनचुंबी इमारतें
यह स्वर्ण मंदिर
यह चाँदी का महल
जब मेरी टूटी हुई छत का
आभार व्यक्त करतें हैं
ये इन चिप्स को चिकना करते हैं
यह रोटी, ये डबल रोटी,बार,ब्रेड
यह पनीर इन आहारों का
जब मेरा भूखा पेट
का मजाक उड़ाते हैं सब लोग
ये बिजली के खंभे
यह हीटर ,एयर कंडीशनर
ये सोफे,बेड ये कुर्सियां
जब मेरे पसीने पर
नफरत का इत्र छिड़कते हैं
यह ट्रक, यह ट्रैक्टर
ये नहरें, ये बांध
इन सड़कों का जो ये पुल बनाते हैं
जब मेरे घायल हाथ
और टूटी हड्डियों तक
उनकी उपेक्षा करते हैं
यह मंदिर, गुरुद्वारा
ये चर्च, मस्जिद,अभयारण्य चारा
यह शिवलिंग संगमरमर का
जब मेरी मेहनत है
रुपये में विनिमय ,
हाथ से गुणा करना
यह पूरी व्यवस्था
जब मेरे कूल्हे सिकुड़ जाते
और छोटी आँखों पर
बेतहाशा हंसता है।
जानिए सच्चाई
मेरा दिल करता है
मैं आत्महत्या कर लूं या करने जा रहा हूं
मेरे बिना
जैसा है वैसा दिखाओ?
--
काला बादल
लंबे समय तक थे बादल,
आसमान पर काले बादल।
गेहूं पका हुआ और कटा हुआ है
किसान कैसे जीएं कैसे बताएं?
पहले से ही दुनिया मुश्किल में थी,
अब झुग्गी-झोपड़ियों में आया मातम।
एक के साथ सिर को न गिराएं,
किसी भी दाने को बहने न दें।
पक्षी घोंसला बनाते तिनका चुगते हैं
एक ही गेहूं के लिए है उनके संसाधन।
ये कैसा बादल है जो ना किसानों का
परिंदों के घर टूट जाते बारिशों में ।
किसानों और गरीबों के बारे में सोचों,
खैर, खान मनजीत भी दुआ करते हैं।
खान मनजीत भावड़िया मजीद
गांव भावड तहसील गोहाना जिला सोनीपत हरियाणा
00000000000
डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन
बरगद और बुजुर्ग
बुजुर्ग व्यक्ति भी बरगद समान ही होता है,
जैसे बरगद की छाया घनेरी होती है,
वैसे ही बुजुर्ग व्यक्ति का आश्रय है,
बरगद कई पीढ़ियों का अनुभव रखता है,
बुजुर्ग व्यक्ति के पास तो अनुभवों का खजाना है,
बरगद आँधी तूफानों में भी डटा रहता है,
वैसे ही बुजुर्ग व्यक्ति भी विषमताओं से डरता नहीं है,
बरगद पर बहुत से जीव, जन्तु, पक्षी आश्रय पाते हैं,
बुजुर्ग व्यक्ति के पास भी सबका गुजारा होता है,
बरगद की जड़ें काफी गहरी होती है,
वैसे ही बुजुर्ग व्यक्ति भी दूरदर्शी होता है.
--
गुरू
अंधकार से प्रकाश की राह दिखाये, वही गुरू है,
हमारी प्रवृत्तियों को सद्वृति में बदले, वही गुरू है,
भवसागर से पार उतारे, मार्ग बताये, वही गुरू है,
असत्य से सत्य की ओर प्रवृत्ति करे, वही गुरू है,
मृत्यु से अमरत्व की ले जाये, असल में वही गुरू है,
गुरू का जीवन में बड़ा महत्व है, गुरू बिन जीवन नि:शक्त है,
कबीर तो गुरू को भगवान से आगे मानते और जानते हैं,
विवेकानंद बिना सद्गुरु के विवेकानंद नहीं होते, जग जानता है,
एकलव्य- गुरू द्रोण की कथा सारा जग मानता, समझता है,
तभी तो वेदों में सभी ब्रह्म से ऊपर पार ब्रह्म परमेश्वर माना है,
ऐसे गुरूवर का शत शत वंदन है, बारंबार अभिनंदन, नमन है.
--
आओ हम फिर दीप जलाये।
बुझे आग को फिर सुलगायें।।
जो माता को शीश चढ़ायें।
उनपें हम नत मस्तक हो जायें।
भारत माँ के सच्चे लाल।
देश की जो रक्षा में अपने
जीवन का देकर बलिदान।
अपने प्राणों की लौ से वह
देश की रक्षा में बलिदान।
तन देकर के, धन दे कर के।
अपना ये जीवन देकर के।
भारत को अक्षुण्ण जो बनाते।
देश प्रेम की राग जगाते।
अपने लहू का फाग मनाते।
उनकी श्रद्धांजलि देने में
हम भी एक क्षण न गँवाये।
आओ हम फिर दीप जलाये।
बुझे आग को फिर सुलगाये ।
डॉ कन्हैयालाल गुप्त किशन
उत्क्रमित उच्च विद्यालय सह इण्टर कालेज ताली सिवान बिहार 841239
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गुरदीप सिंह सोहल
लाॅक डाउन को मान ले भैया।
घर में ही टाइम पास करना है।।
करते रहना सदा कुछ न कुछ।
आम नहीं तुझे खास करना है।।
कविता लिख ले चाहे कहानी।
दो हाथ पैन से चांस करना हैं।।
गर्मागर्म पानी पी भोजन के बाद।
कोरोना का निकास करना है।।
सब कुछ कर ले घर में रहकर ।
क्यूं इच्छाओं का नास करना है।।
सामाजिक दूरी भी जरुरी है।
जीवन मृत्यु से क्यूं टाॅस करना है।।
कहत सोहल नियम का पालन कर ले।
वरना किया कराया घास करना है।।
गुरदीप सिंह सोहल
हनुमानगढ़ जंक्शन (राजस्थान)
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रोशन कुमार झा
-: कृष्ण करो हम सभी पर उपकार !:-
हटा दो कोरोना की दीवार ,
कौन , आप ही नन्द, वसुदेव के लाल !
कोरोना से दूर करके दिखा दो अपनी चमत्कार ,
करो कान्हा फिर से एक बार हम मानव पर उपकार !!
तुम हो प्रेमियों के प्यार ,
कहां छिपे हो, गंगा की यमुना धार !
भेज रहा हूं, मीडिया आपकी वर्णन करेंगे अख़बार ,
तो आओ कृष्ण हम इंतजार करते-करते देख
रहे हैं कदम की डाल !
नहीं आओगे तो गिर जायेगा सरकार ,
कैसे गिरने दोगे ,प्रभु ये तो तुम्हीं बनाये हो संसार !
पता है हम मानव प्रकृति से किये है खिलवाड़ ,
आओ कान्हा तुम न करोगे तो कौन करेगा देखभाल !
अभी घर-घर का है एक ही सवाल ,
कोरोना.. कोरोना.. तो कोरोना से प्रभु करो उद्धार !
सुन लो प्रभु हम रोशन का पुकार ,
कोरोना से बचाकर करो कान्हा हम सब पर उपकार !
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मां सुन लो मेरी कविता !:-
मां मैं लिखा हूं एक कविता ,
सुन लो मेरी कविता !
कैसे सुनू बेटा मैं तेरी कविता ,
भुखमरी, बेरोजगारी से जल रही है चिता ,
कैसे सुनूं बेटा मैं तेरी कविता !
जाओ कविता पापा को सुनाना ,
तब तक मैं बनाकर रख रहीं हूं खाना !
पापा-पापा मैं लिखा हूं एक कविता ,
बोल बेटा कहां से जीता !
जीता नहीं पापा मैं लिखा हूं एक कविता ,
कहां है अब राम और सीता ,
ना पापा राम-सीता नहीं , मैं लिखा हूं एक कविता !
अरे ! खाना जुटता ही नहीं , मैं कैसे शराब पीता ,
न-न पापा आप शराबी नहीं, मैं लिखा हूं एक कविता !
अच्छा कविता,
सुनाओ वही सुनाना जो मेरे जीवन में बीता !
बस-बस पापा वैसा ही कविता !!
सूर्य के रोशन, चांद सितारों की शीतलता में आप
पर रहीं भुखमरी की ताप ,
उसके बावजूद भी बड़े स्नेह से हमें पाले पापा आप !
बड़े संघर्षमय से आपकी जिन्दगी बीता ,
हमें रहा नहीं गया, पापा
बस आप पर लिख बैठे एक कविता !!
रोशन कुमार झा
सुरेन्द्रनाथ इवनिंग कॉलेज , कोलकाता
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मनीष मिश्रा
स्वर्ग की सीढ़ी
जाएगा जब तू जहां से तेरी एक पहचान होगी।
फूलो की मालाओं से तेरा ही सम्मान होगा।
लोग पूछेंगे धरा पर तुमने क्या काम किया।
तू कहेगा प्यार से बस कुछ नहीं आराम किया।
और तब तू कहेगा उन सभी इंसानों से।
स्वर्ग की सीढ़ी बनी है शहीदों के नामों से।
स्वर्ग पाकर जब मिलूंगा आपने उन भगवानों से।
चरण छू कर ही उठूंगा कोयलो के गानों से।
उन चरणों को पाकर में कितना खुद किस्मत
हूंगा।
जिन चरणों के आगे जहां की सारी दौलत फीकी है।
इसीलिए मैं दुनिया का सबसे अमीर इंसान हूं अब।
जिनके कर्मों से ही भारत की पहचान बनी।
विश्व गुरु कर दिया जिन्होंने भारत को अपने बल से।
उन चरणों की रज के कण को नमन करूं अभिमान से।
स्वर्ग की सीढ़ी बनी है शहीदों के नामो से।
नाम मनीष मिश्रा
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विनायक त्यागी
*बाल कविता*
*भोर हो गयी है*
भोर हो गयी है
आँखे खोलो
पृथ्वी माता
सूर्य देव को
करो सादर प्रणाम
घर वालों को
सुप्रभात बोलों
जल्दी से उठ
जाओं लाल
करो जीवन में
नित नये कमाल
तैयार होकर
चलों स्कूल
नहीं करना
पढाई में कोई भूल
पढ़ लिखकर
बनना इंसान
करना जीवन में
सदा अच्छा काम
रोशन करना
दुनिया में
परिवार और
देश का नाम
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*बाल कविता*
*मैं तो छोटा सा बच्चा हूँ जी*
मैं तो छोटा सा बच्चा हूँ जी।
दिल का एकदम सच्चा हूँ जी।।
लगता हूँ सबको अच्छा जी।
करते है सब मुझको प्यार।।
माँ दादी का मैं लाड़ला प्यारा।
हूँ में घर में सबका दुलारा।।
कहते है सब शैतानी करना मेरा काम।
करता हूँ मैं नित नये शरारत भरे काम।।
जैसा भी हूँ लेकिन लगता हूँ।
मैं सब अपनों को अच्छा जी।।
मैं तो छोटा सा बच्चा हूँ जी।
दिल का एकदम सच्चा हूँ जी।।
विनायक त्यागी
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सार्थक देवांगन
दो पल की जिंदगी
दो पल की जिंदगी है
आज बचपन , कल जवानी है
परसो बुढापा
फिर खत्म कहानी है ।
चलो खूब हंसकर जिएं
क्योकि
फिर ना आती रात सुहनी
फिर ना आते दिन सुहाने ।
कल जो बीत गया वो बीत गया
क्यो करते कल की चिंता
खुलकर जी लो आज
पता नही कल हो ना हो ।
आज जिंदगी को गाते चलें
आज मन की करते चले
रुठो को मनाते चले
खुशियो को बढ़ाते चले ।
जीवन की कहानी लिखते चले
बोल को मीठे बोलते चले
बैर भाव भुलाकर
रिश्ते नए बनाते चले ।
सबको साथ ले चलते चले
आओ कुछ लुटाते चले
क्या लाए थे क्या ले जाएंगे
जिंदगी यूं ही बिताते चले ।
सार्थक देवांगन उम्र १५ साल
केंद्रीय विद्यालय नं १ रायपुर
बहुत सुंदर आदरणीय🙏
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका। इतनी अच्छी कविताओं के मध्य मेरी कविता "कसती सीमायें" को स्थान देने का ।
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