कहानी भविष्य -संदीप शर्मा एक बंसत की शाम को जब अपने फ्लैटनुमा घर की छोटी सी बॉलकानी में कुछ लिखने के लिए बैठा ही था कि सामने नई कोपलों के जन...
कहानी
भविष्य
-संदीप शर्मा
एक बंसत की शाम को जब अपने फ्लैटनुमा घर की छोटी सी बॉलकानी में कुछ लिखने के लिए बैठा ही था कि सामने नई कोपलों के जन्म के उत्सव में पेड़ एक अलग ही तरह की खुशी में जी रहे थे। एक इकलौते पेड़ जिसे उसकी मां के वनस्पति के बारे में देसी ज्ञान की वजह से गवारडू नाम मिला था उसने अपने पत्ते भी नहीं त्यागे थे। कहानी की अंगुली पकड़े वह दूर निकल गया। बहुत दूर....। यह जाडे़ की शाम 2035 सन् की है। हमीर शहर के एक प्रतिष्ठित निजी स्कूल में अपनी जिंदगी के लगभग 26 वर्ष लगा लेने के बाद एक शिक्षक व लेखक ने ऐच्छिक मन से 5 वर्ष पहले नौकरी छोड़ दी थी। नौकरी छोड़ने का एक नहीं अनेक कारण थे। वह जीवन के कार्यक्षेत्र से निकलकर आत्मचिंतन के पथ पर निकलकर अपने आप का निरीक्षण परीक्षण करना चाहता था। वह इसी आत्मचिंतन की उर्जा से निकली तपस से बहुत अधिक लिखना चाहता था। वह जीवन की संध्या के इंतजार में दूर शांति के मार्गों की तलाश में भटकना चाहता था। वह घाटियों के समतल रास्तों से होता हुआ दूर शिखर की जोखिम भरी यात्रा पर निकलना चाहता था। वह एक मंजिल में विलीन होकर फिर से अपने आपको ढूंढना चाहता था। वह जीवन के द्वंद से निकलकर एक विपाशा की तरह अपने शरीर में डूबते -उफनते मोह के बंधनों से मुक्त होना चाहता था। वह अनंत विश्राम की यात्रा के लिए निकल जाना चाहता था। वह आत्मा से साक्षात्कार की योजना को पूर्ण करना चाहता था। कुछ साल बस उसने यात्राएं की व लिखा।
वह जितना लिख सका, उतना लिख लेने के बाद अचानक वह एक दिन बीमार पड़ गया। बीमार पड़ने के कारणों में उसका निरंतर सफर व शरीर में वर्षों से दुबक कर बैठी एक ऐसी बीमारी थी जो उसे सिर्फ बिस्तर पर आराम करने की सलाह देती थी। जब बड़े अस्पताल के डाक्टर ने यह सुनिश्चित कर दिया कि अब चलने फिरने से बेहतर है कि आराम किया जाए क्योंकि शरीर के निचले हिस्से में मांस पेशियों ने हड्डियों में दर्द का पक्का घर बन गया है और ऊपरी हिस्से में फेफड़ों ने जीवनदायनी हवा को अवशोषित न करने की जिद् कर ली है। तो फिर इस जिद्दी लेखक ने भी ज्यादा भटकने की बजाय जिंदगी की नदी के अंतिम छोर तक पहुंचने का निर्णय ले लिया।
अब वह एक तीन कमरों के अपने बाप के बनाए फ्लैट नुमा घर की पहली मंजिल में जिंदगी की अंतिम घड़ियों को आराम से गिनने की तैयारी कर रहा है। यह अंतिम घड़ियां निराशा के साथ - साथ अचरज में इस लिए डाल रहीं हैं कि उसने मृत्यु के सान्निध्य में जाने का फैसला भी कर चुका है। वह कई फैसले अब तक कर चुका है, और इन सब फैसलों पर उसकी मुहर लगाने के लिए अब उसकी पत्नी भी नहीं है जो हमेशा उसके हर फैसले पर प्रतिध्वनि बनती आई थी। वह पांच साल पहले इस जिद्दी लेखक पति को छोड़कर इस दुनिया से जा चुकी थी। कमजोर पर जराग्रस्त ऐच्छिक रिटायर शिक्षक व लेखक के साथ उसकी 25 वर्ष की बेटी उमंग बैठी है जो अपने पापा की इच्छा के विपरीत वह अब अपनी उस नौकरी को छोड़ आई है जो उसने कुछ समय पहले ही प्राप्त की थी। वह अपने उस अनमोल पापा के पास बैठी है ।
जो उसके लिए मायावी दुनिया की परतों में छिपी हकीकत को पहचानने की पहले ही कुछ कला बांट चुका है, जो उसके लिए दुनिया की विस्तारित तस्वीर बनाकर उसके स्टडी रूम की दीवार पर वर्षों पहले ही टांग चुका है, जिस तस्वीर को देखकर उसने अपनी आंखों से अपने पापा की व्यक्तिगत कहानी को लगातार दोहराया, संशोधित व पृथक किया है पर उस कहानी में कई परिवर्तन अब तक आ चुके हैं उसने खुशहाली की दीवार को लांघा है। उसके पापा ने अपनी कहानी को कई मोड़ देकर आगे बढ़ाया है और वह पापा के दिए कई उपहारों को अपनी वास्तविक जिंदगी से जोड़ चुकी है।
उसका पापा उसके लिए प्रकृति के रंगों की भाषा पढ़ने का हुनर सिखा चुका है और साथ में बांटे है उसने कुछ नियमों के बंधन की छोटी पर मजबूत गांठे जिन्हें तोड़ना आसान है पर खोलना नहीं, वह उसे कल्पना की विचित्र दुनिया में जीने का ढंग सीखने का जुनून भी सिखा चुका है।बाप उसके चेहरे पर एक नज़र डालता है। उसकी आंखों में उसे कुछ दुख तैरते नजर आ रहे हैं जो इस बाप ने कभी सपने में भी नहीं सोचे थे। ये दुख इतने मासूम हैं कि उन्हें अपने नाम की परिभाषा बनाने का हुनर भी नहीं आया है वे किसी उड़ती हवा के साथ किसी दूसरे ग्रह की यात्रा पर तो निकल आए हैं पर उन्हें ढंग से अभी सीधा होकर चलना भी नहीं आता है।
वह कठिनाई से सांस लेता प्रतीत हो रहा था। उसे यह भी पता था कि उसकी मौत सांस न लेने की वजह से ही होगी, एक पुराने दोस्त ने उसे कॉलेज के बाद बी.एड. की पड़ाई के वक्त मज़ाक - मज़ाक में बताया था। वह पक्का नास्तिक दोस्त इस वक्त पंजाब में अपने खेतों में गेंहू की फसल के इंतजार में अपने हिस्से की धरा को हरियाली से भर चुका होगा, या फिर इटली में अपने बेटे संग रोशनियों से नहाए शहर में अपनी आत्मा में ईश्वर तत्व को जरूर महसूस कर रहा होगा। बड़ा अच्छा इंसान है वह। बिस्तर से सिर उठाकर उसने सामने दीवार पर लटकी अपनी पत्नी की कई तस्वीरों जिनमें उसकी पत्नी के साथ अपनी बेटी के साथ कई अलग - अलग जगहों की तस्वीरों को निहारना शुरू कर दिया। फिर कमरे की हवा में तैरती उष्मा से परेशान होकर वह बोला,‘‘वह खिड़की खोल दो बेटी! मुझे ठड़ी हवा का एक झोंका महसूस करना है, मैंने इसी हवा के पारंपरिक व्यवहार से बहुत कुछ सीखा है, इसे मेरे साथ सामाजिक सद्भाव स्थापित करने की फिर से कोशिश करने दो। मैं इसका ऋणी हूं मेरी शुरूआत इसके जीवनदायिनी दया से ही हुई है, अब आखिरी बार में इसी से विदा लेने की कोशिश करूंगा।
बेटी ने बंद खिड़कियां खोल दीं। मृतासन लेखक अपनी समृतियों के झंझाड़ में कई कुछ ढूंढता रहा और फिर अपनी झोली में भरकर इधर - उधर से चुराकर लाए एक - एक करके पलों को निकाल अपनी युवा बेटी के कोमल हाथों में पकड़ाने लगा। ठीक वैसे ही जैसे वह उसके लिए हर बार नए पेपर में लिपटे गिफ्ट लाता था और वह देखकर इतना खुश होती थी। इस बार इस बेटी के चेहरे पर वह खुशी दूर - दूर भी नहीं थी। जबकि उसके पास असंख्य चमकीले पेपर में लिपटे उपहारों का जमावड़ा था। उसने धीमे ज्वर ग्रस्त शरीर की नसों में बची प्राण वायु के कुछ हिस्से को बाहर निकाल कर कहा, ‘‘मैं चाहता हूं बेटी कि मैं बस अपनी मृत्यु का जश्न मनाऊं, और तेरे चेहरे पर एक ऐसा प्रकाश देखूं जो मैंने हमेशा चाहा था। मैं अंतिम पलों में यह न चाहूंगा कि तुम मुझे ले जाकर अस्पतालों में डाक्टरों की रहमों कर्म पर छोड़ दो, मैं शांति से मृत्यु का आहवान करना चाहता हूं जिंदगी में मैंने अपने मन को हर उस और दौड़ाया, जितना मेरे बस में था। जिंदगी की पहेली कितनी बार सुलझ कर भी अभी भी एक अनबूझ पहेली ही नज़र आती है।
मेरा जीवन बडे़-बडे़ लोहे के पुलों पर भी न थर-थराया पर अब एक पतले धागे की तरह लटक रहा है, और मुझे कोई अद्वितीय शक्ति मजबूर कर रही है कि मैं उस पतले धागे पर चलकर अपनी एक नई यात्रा शुरू करूं। चाहे भविष्य की लकीरों ने वर्तमान के रास्तों को अधिक खींच दिया और उसमें वे दोनों बाप बेटी दौड़ते रहे पर सफर खत्म नहीं हुआ। जैसे ही वे एक धागे की पगडण्डी पर दौड़ते, नई पगडण्डी और अधिक लंबे रास्ते खींचती जाती।
‘‘भले ही तुझे एक दिन तेरा प्रिंस मिल जाएगा, पर अपने इस पापा को भी हमेशा किसी छोटी सी रियासत का राजा जरूर समझते रहना, क्योंकि ये सब मैंने हमेशा तेरे पापा को दुनिया का सबसे ग्रेट पापा बनने के लिए ही किया है मैंने न तो जिंदगी को ख्वाईशों के लिए उलझाया और न ही जिंदगी को सुलझाने के लिए कोई ज्यादा प्रयत्न किए। मैंने भौतिक जीवन शैली के लिए कुछ तो सामान इकट्ठा किया पर अपने कल्पनाशील मन को उजाड़ बीहड़ो में एक गुम हो चुकी अन्जानी वस्तु के लिए लगाए रखा। उसे तंग घाटियों के ऊपर उड़ने को प्रोत्साहित किए रखा, उसे मरूस्थलों की गर्म रेत पर भटकने की आदत डाली और खारे पानी के सागरों के उस पार फैले क्षितिज से कुछ शब्द ढूंढ लाने को बेचैन किए रखा। मैं हमेशा अपने अंदर छिपे अंधेरे दीपक को ही हाथों में पकड़कर ढूंढता रहा और वह कभी मुझे नज़र नहीं आया, यही जिंदगी का नज़रिया रहा है मेरा। बस इसी कला से मैं अपने सफर की हमसफर पगड़डियों को रोशन करता रहा।’’
ज्वर ग्रस्त मरणासन ने अपनी बेटी को कुछ क्षीण आवाज में कहा, ‘‘ जब तक मेरी सांसे सही सलामत थी मैंने निरंतर काम किया, जब मैं अभी अपनी कला के मद में डूबने वाला था तब मेरी और तेरी मां और तेरी जिंदगी को मैंने बड़ी सुलझी हुई बनाने की कोशिश की पर मैं फिर भी इसमें उलझ गया। मैंने जीवन के साजों सामान को भी कम कर दिया, मैंने अपनी इच्छाओं को एक के बाद मारना शुरू कर दिया, मैंने तुम्हें भी सपनों से दूर रहने को कहा, क्योंकि ये स्वप्न ही हमारी जिंदगी की डोर अपने हाथों में लेकर हमें कठपुतली बना देते हैं मैंने बस एक मोह नहीं छोड़ा बस वह लिखने का था। मैंने जिंदगी की किताब की अलंकरण से सजाने के बाद अंत दृष्टि पर ध्यान दिया और अब आखिर तक उसी शैली में जीता आया हूं मेरी शैली ने मुझे कई विचित्र जगहों की सैर करवाई, मैंने अपने अनथके शरीर व मन से कई रहस्यमयी यात्राएं की मैंने रचना संसार में बहुत सी अचेतन गतिविधियों के पनघट आए और मैंने हर पनघट पर चांद की रोशनी में नहाए अमृतमयी जल का स्वाद लिया। मेरा चेतन व अवचेतन का सामंजस्य मुझे सैकड़ों कथाओं के देश में घुमाता रहा।’’
बेटी अपने पापा की बातें सुनती रही। वह फिर बोला,‘‘मैंने आत्मअभिव्यक्ति जैसी कठिन चीज को सरल शब्दों में समझाने की कोशिश की । इसी अभिव्यक्ति के जुनून ने मेरे आत्मा को भी मुझसे छीन लिया। मैंने आंनद को ढूंढने की जिद में लिखना न छोड़ा, जबकि कईयों ने मुझे एक पागल सिरफिरा समझा कईयों ने मुझे शौहरत की माया में जकड़ा इंसान समझा। पर वे लोग ये भी जरूर सोचते हेंगे कि मैंने अपना जीवन उन लोगों के जीवन के रहस्यों को जानने में बिता डाला। सच कहने का मैंने अनुशासन सीखा ओर अपने सुनहरी पलों को बलिदान किया। मैंने अपनी पूरी ताकत के साथ जीवन की गहराईयों में डूबने की कोशिश की और हमेशा नए विचारों की खेती करता रहा और अपनी फसल को देखकर हमेशा उत्साहित होता रहा।
बहुत कुछ लिखा, अभी भी लिख सकता हूं अगले जन्म में भी लिखूंगा, पर तब का लिखा शायद तुम नहीं पड़ पाओगी। याद है जब तुम 12 -13 वर्ष की थी और मैं तब लिखने के जुनून के घोडे़ पर सवार हो बैठा था तब तुम्हें पढ़ने को अपनी किताब देता था, पर तुम शायद इस सब का शौक नहीं रखती थी, पर मैंने तुम्हें ऐसे शौक भी डाले जो मैं अपने लिए संभाल कर रखता था। अभी तुम चाहे जितनी भी कोशिश कर लो, पर तुम अब भी मेरे दिए शौको में ही जी रही हो। याद है तुम्हें मैंने सबसे पहले बॉलकानी में बैठकर आसपास के पेड़ो पर फुदकते अलग - अलग पक्षियों को निहारना सिखाया था, कीडे़ मकोड़े को भी हम कितने आदर से सहलाते थे। बादलों के बदलते रूपों की सराहना करने थे। गिलहरियों की अदाओं पर मर मिट्ते थे। पतझड़ मैं उस गवारड़ु पेड़ के हठ को देखते थे जो बसंत शुरू होने पर ही अपने पत्ते झाड़ता था। मैंने तुम्हें इस धरा पर बदलते मौसम में पेड़ पौधे के बदलते व्यवहार को समझने की कोशिश बांटीं तुम्हें हवा, पानी, प्रकाश, मिट्टी ओर सूर्य की तपस से जीवित हो उठी वनस्पतियों के मायावी संसार को समझाने की कोशिश की।
आंवले के महीन झड़ चुके पत्तों को हम इकट्ठा करते थे। तब हमें उन्हें इकट्ठा करना कितना मुश्किल लगता था। हमारे गांव की सूख रही खड्ड की खोहों में भूखे प्यासे ही छोटी - छोटी मछलियों को सुबह - सुबह उठकर ढूंढने जाते थे और खड्ड के रंग बिरंगे पत्थरों में तुम अलग - अलग आकार के पत्थर इकट्ठा करती थी फिर तुम उन पत्थरों को घर में लाकर अलग - अलग रंगों से रंगती थी और मैं उन पत्थरों को फैंकने की कोशिश में रहता था। हमने इकट्ठे कई बार ट्रैकिंग की। मैदानों के क्षितिज तक दौड़े शुष्क मुरूस्थलों में नखलिस्तान की इच्छा को फलीभूत किया।
मैंने सिर्फ एक मंजिल को चुना और फिर ईश्वर प्रदत्त शक्ति से उभरी कला की उपासना को अपनी बड़ी मंजिल बनाने की ठानी, पर तब मुझे यह पता नहीं था तो इंसान के लिए एक ही मंजिल को पाना या बड़ी सफलता को प्राप्त करना ही मुख्य ध्येय नहीं होता है बड़ी मंजिल की चाहत में छोटी - छोटी सफलताओं की बहुत पगडंडियों को मैं छोड़ता गया जो छोटी मंजिलों की और ले जाती थी। मैंने तुम्हारे हिस्से के पापा को भी तुमसे छीना, मैं ऐसे काल्पनिक पात्रों के किस्से कहानियों के चक्रव्यूह मैं फंसा रहा और उन्हीं पात्रों के सान्निध्य में जीता रहा, मैं अपने लिए एक संसार बनाता रहा और तुम्हारी दुनिया से दूर बसकर दूर पहाड़ों के ऊंची चोटी पर अपनी कुटिया बनाता रहा। मैंने जीवन के असंख्य विकारों से मुक्ति पाने के लिए अपने लिए लेखन का सहारा लिया पर मैं कई अपनी कई बहुमूल्य जिम्मेवारियां भूल बैठा। मैंने और लोगों के सैकड़ों जख्मों को राहत पहुंचाने की क्षमता प्राप्त करने के लिए लेखन की कला में खुद को झौंक दिया।
सुनो बेटी, मुझे पता है कि तुम्हें जानवरों खासकर अनके छोटे बच्चों से बड़ा प्यार है, तुम अब देश - विदेशों में जाकर इन जानवरों पर कई विडीयो भी बना चुकी हो, पर शायद तुम्हें याद नहीं होगा, जब तुम कोई 12 वर्ष की थी तो मैंने तुम्हें कहा था कि मैं अपनी गांव की जमीन पर एक छोटा सा ऐसा खुला पार्क बनाऊंगा जिस पर कभी कोई मानवीय घर नहीं बनेगा, वह ज़मीन मैं उन पक्षियों व जानवरों के नाम कर देना चाहता हूं। मैंने इसके पेपर भी बना लिए हैं मैं चाहता हूं कि तुम इस निर्णय को अपनी शादी के बाद भी नहीं बदलोगी। यह ज़मीन सदियों तक उन जानवरों व पक्षियों के लिए सुरक्षित हो जाएगी, अपनी तरह का एक यह छोटा सा फैसला होगा पर आने वाली पीढ़ियां इसे सदा याद रखेंगी। बोलो ! क्या तुम इससे सहमत हो?यह फैसला हमारी ज़मीन के लिए उन स्वार्थी देहातियों की तुच्छ इच्छाओं पर कुठाराघात होगा, क्योंकि वे अब बहुत अमीर हो गए हैं ओर उनकी कई औलादें ज़मीन के टुकड़ों के लिए मारा - मारी करती हैं, वे हर ज़मीन पर अपने मनमाफिक निर्माण कर रहे हैं उन्होंने कई जानवरों पक्षियों की प्रजातियों का शिकार करके विलुप्त प्रायः कर दिया है वे कभी भी चैन से नहीं बैठेंगे क्योंकि वे अपने पुत्रों के लिए ज़मीन को सुरक्षित करने के अलावा कुछ नहीं सोचते।
बेटी ने बिना भविष्य के नफा नुकसान को एक पल भी वक्त गंवाए उसी वक्त कागजों पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। मुझे पता था तुम मेरे हृदय की प्रतिलिपि हो, तुम हमेशा से ही तो मुझे प्रोत्साहित करती आई हो, अब सिर्फ आखिरी बार मेरे इस फैसले पर भी मोहर लगा दो कि मैं मृत्यु का सामान्य सानंद स्वीकार करूं और तुम इसमें कोई विघ्न न डालो, जबकि तुम्हारे विचार, तुम्हारे दोस्त, तुम्हारा समाज तुम्हें ऐसा करने को रोकेगा। मैं चाहता हूं कि तुम अपने मन व विचारों से उत्पन्न उस शक्ति को इकट्ठा करो, जिसको मैं सदा से तुम्हें संभालने के लिए कहता आया हूं।
पर अब यही मेरी इच्छा है मैंने मृत्यु की गंध को महसूस कर लिया है। मेरे जरा ग्रस्त शरीर में सांसों के पुल बनते ढहते जा रहे हैं। मेरे जीवन भर के आत्मचिंतन का अंत शांति और सुकून में बदलता जा रहा है। मैं हमेशा ब्रह्मांड की रहस्यमयी विचित्र योजनाओं को अपनी कल्पनाओं में समाने का प्रयास करता रहा हूं, अब मैं निश्चित होकर मायावी ग्रहों की यात्रा की उत्कंठा के साथ अनंत में विलीन होना चाहता हूं, बस मैं चाहता हूं कि तुम कुछ समय मेरे लिए भी निकालो, मैंने तुमसे और कुछ नहीं चाहा है जब तुम तीन महीने की हो गई थी तो बिस्तर पर रेंगने की अपनी लालसा में नीचे ज़मीन पर गिरने के प्रयास करती थी मैंने एक रक्षक की तरह तुम्हें नीचे गिरने से बचाया, तब तुम जीवन की मायावी संरचनाओं की छोटी - छोटी तरंगों को महसूस करके बिस्तर पर कुछ पा लेने की खुशी में टांगें खनकाती थी, तुमने अपने छोटे चक्षुओं के अंदर निर्माण के मुख्य प्रणेता अपने मस्तिष्क के अथाह प्रंपचों को समझने की कोशिश में कुछ वक्त बिस्तर पर पड़े - पड़े बिताया फिर तुम्हारी कुछ नया सीखने की मृगतृष्णा तुम्हें धरा पर मिट्टी पर बनती बिगड़ती पगडंडियों पर दौड़ाने लगी। तुमने गिर कर संभलकर इसी धरा की पगडंडियों से निकले बड़े और चौड़े रास्तों पर चलने की कला सीखी। अब यह आसमान व ज़मीन तुम्हारी है, तुम्हारा दृष्टि कोण तुम्हारा है, क्या तुम अब भी मुझसे कुछ सीखने की लालसा रखती हो तो खाली समय में मेरी तुच्छ किताबों से कुछ जीवन जीने के लिए प्रेरक शक्तियों को ढूंढना और उनका सम्मान करते हुए उनका आनंद लेना। हम शायद फिर से इस धरा पर फिर से न मिलेंगे पर हमारी यादें हमें इस ब्रह्मांड में भी जोड़े रखेंगी।
कोई छः महीने वह लेखक, भूतपूर्व अध्यापक आत्मचिंतन के मायावी बिंदूओं पर ध्यान लगाता रहा फिर जब मन के सारे शोर सतह से गहराई में डूब गए तो वह मौन धारण कर बैठा ऐसा मौन जो जिंदगी का मुख्य उद्देश्य था। उस मरणासन्न शरीर के अंदर हृदय की गुफा में ईश्वर का शाश्वत रूप असंख्य रोशनियों को उठाए उसके पीछे- पीछे चलने लगा। फिर वह प्रकाश फिर उसे अंगुली पकड़ बहुत दूर ले जाता गया, बहुत दूर बिना थके। यह खुली आंखों से लिया इस लेखक का भविष्य की कल्पनाओं के पीछे दौड़ने के फलस्वरूप मन और मस्तिष्क के आपसी सामंजस्य से निकले कुछ विचारमयी व भविष्य के आत्मचिंतन की संरचना थी। उसने इस काल्पनिक स्वप्न को मन की खुली आंखों से सरकाकर अपने कल्पनामयी विचित्र किसी सुदूर ग्रह की तंग घाटी की और फैंक दिया और फिर से अपनी छोटी बच्ची के मुख से एक छोटी सी प्रशंसा पाने के लिए एक और कहानी सोचने लगा।
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संदीप शर्मा
मकान न0 618, वार्ड न0 1,
कृष्णा नगर, हमीरपुर
हिमाचल प्रदेश।
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