संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक २० - मुख़्बिरी - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक २०

मुख़्बिरी


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लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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मुख़्बिरी

“कहो, कैसी रही? आनंद कुमार, कुछ हल्का हुआ...?” रेलगाड़ी के डब्बे में बैठे बाबू गरज़न सिंह ने अपना टिफ़िन खिड़की के पास रखकर, प्लेटफार्म पर खड़े बाबू आनंद कुमार से कहा “अब तो मानेगा, हमें गुरु..?”

“उस्ताद, आपको गुरु क्या? अब मैं आपका अहसान, ता-ज़िंदगी न भूलूंगा। भूलूँ तो, मेरी जूती और आपका सर...”

“क्या कहा, हरामज़ादे? तूझे तो, बोलने का सलीका नहीं..”

“भूल गया, उस्ताद। उतावली में, उल्टी गिनती गिन बैठा..!”

“उल्टी गिनती गिनने वाले कुतिया के ताऊ...साले तूझे लटका दूंगा, उल्टा। नालायक आता नहीं तूझे एक हिंदी का मुहावरा सही बोलना, और करता जा रहा है उसका बेखौफ़ प्रयोग। घर में नहीं हैं दाने, और अम्मा चली भुनाने..कमबख़्त, इतने माह मेरे साथ रहा फिर भी रह गया तू निरा उल्लू।” भृकुटी चढ़ाये बाबू गरज़न सिंह बोले। फिर उसका हाथ पकड़कर, केबिन में लाकर बैठा दिया उसे...और ख़ुद भी, उसके पास बैठ गए। उनके डपटते ही, बेचारे आनंद के चेहरे की ललाई उड़ गयी, जो बाबू क्रदन सिंह को चार्ज देने से पैदा हुई थी। जोधपुर पोलीटेकनिकल कोलेज़ में स्थानान्तरण हेतु जब उसने आवेदन किया था, तब से वह एक-एक दिन गिनने लगा कब तबादले का आदेश उसे मिले और जोधपुर से उसका रोज़ के आने-जाने का झंझट ख़त्म हो जाय। कब वह दिन आएगा, जब उसे जोधपुर के किले मेहरान गढ़ के दीदार होते रहेंगे प्रतिदिन? मक़बूले आम बात है “हिम्मते मर्द, बादशाह की लड़की फ़कीर से विवाह।” बस, आख़िर आ गया वह ख़ुशी का दिन..मेहनत रंग लाई, तबादले का आदेश आ गया। जोधपुर पोलीटेकनिकल कोलेज़ में स्थानान्तरण हो गया, आनंद कुमार का। आनंद कुमार की ख़ुशी का कोई पार नहीं, मगर इधर घसीटा राम हो गए नाख़ुश..क्योंकि, उनको तभी ख़बर मिली थी कि ‘आनंद कुमार नवरत्न ठहरे, बाबू गरज़न सिंह के दरबार के।’ यह जानकारी प्राप्त होते ही, घसीटा राम का नाख़ुश होना स्वाभाविक था। अब जाते वक़्त लेखा शाखा के बोस घसीटा राम की नाख़ुशी, आनंद कुमार को अख़रने लगी। आख़िर, इस नाख़ुशी का कारण क्या? सोचता-सोचता आनंद कुमार खो गया, अतीत में।

कार्यालय में विद्रोह की आग भड़कने लगी, राम रतन बोहरा के वाक-बाणों से घायल होकर लेखा शाखा नारे-बाजी पर उतर आयी। इस विद्रोह का झंडा थामा, घसीटा राम ने। अपने इर्द-गिर्द लेखा शाखा के लिपिकों को बैठाकर घसीटा राम कहने लगे “आज़ बड़ा शर्म का दिन है। कार्यालय की गारिमा को ठेस पहुंचाई है, इस मास्टर राम रतन ने।”

“हुज़ूर, राम रतन बोहरा मास्टर नहीं है, वे मिल चाली स्कूल के हेडमास्टर हैं।” आनंद कुमार बीच में, बोल पड़ा।

क्या फर्क पड़ता है? आख़िर है तो थर्ड ग्रेड का मास्टर, मादर कोड अफ़सरों की शह पाकर हमारे ख़िलाफ़ लगाता है बांग? अब हलाल करना होगा, इस मुर्गे को। उसके लिए ज़रूरत है भाइयों, संगठन की..एकता की। तुम सभी लोगों का, मुझे साथ चाहिए।” इतना कहकर, घसीटा राम ने ज़ोश में आकर टेबल पर मुक्का मारा फिर लगे ज़ोर से गरज़ने “आवाज दो....बोलो, हम एक हैं।”

“हम एक हैं।”

“ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर से।”

“हड़ताल हमारा नारा है।” कार्यालय में घसीटा राम और उनके अधीन काम कर रहे सभी बाबू चीख़ने-चिल्लाने लगे। उस शोर-गुल को सुनकर, सामान्य-शाखा के बाबू भी शोर मचाने लगे। इस तरह सामान्य-शाखा के बाबू ओम प्रकाश और घनश्याम भी, इस नारे बाजी में शामिल हो गए। इस नारे बाजी को सुनकर, वहां होल में मौज़ूद मास्टर राम रतन बोहरा के हाथ-पाँव कांपने लगे। जो बाबू गरज़न सिंह की सीट के पास ही, कुर्सी लगाए बैठे थे।

“गरज़न बाबू, बाद में मिलूंगा आपसे...ठीक गाड़ी के वक़्त स्टेशन पर।” घबराये हुए, मास्टर राम रतन बोले।

“ठीक है, मास्टर साहब। आ जाना, शाम को प्लेटफार्म पर। तब-तक हमारा आनंद कुमार ले आयेगा, ताज़ा समाचार।” बाबू गरज़न सिंह बोले।

“जीते रहो, बाबू गरज़न सिंह। वाह क्या ज़ाल फैलाया है, लेखा शाखा में..अपने मुख़्बिरों का? जय शंकर। अब चलते हैं, फिर मिलेंगे।” इतना कहकर मास्टर राम रतन बोहरा कार्यालय की सीढ़ियां उतरकर, हो गए नौ दो ग्यारह।

एनी हाउ ‘करो या मरो’ ‘हड़ताल’ का अंतिम दिव्य-अस्त्र घसीटा राम ने चला दिया..उनका विचार था ‘लेखा शाखा का काम ठप्प होने से..या तो लेखा शाखा के सीनियर डिप्टी पुष्कर नारायण शर्मा हो जायेंगे बेदम, या फिर बाबू गरज़न सिंह दफ़्तर-ए-सियासत में अपनी हार स्वीकार करके इस दफ़्तर से फुटास को गोली ले लेंगे। बहुत दिन हो गए, दूसरों के कन्धों पर बन्दूक रखकर दागते। गरज़न सिंह कभी राम रतन बोहरा को बना देते मोहरा, कभी भोले-भाले पुष्कर नारायणजी को..इस शतरंज के माहिर खिलाड़ी गरज़न सिंह अपनी हर चाल को चलने के पहले, सोच-समझकर परख लिया करते। उनको पहले ही मालुम हो गया, अपने मुख़्बिरों से..घसीटा राम अगली चाल क्या चलने वाले हैं? फिर वे अपने शातिर दिमाग़ को काम में लेकर सोच लिया कि, ‘घसीटा राम द्वारा खेली जाने वाली चाल को कैसे असफ़ल करके, उनको अंतिम चाल खेलने के लिए बिगड़ा सांड बनाया जाय? किसी तरह इस सियासती खेल में घसीटा राम ख़ुद, इस खेल में पराजय का मुख देखने के लिए मज़बूर हो जाय।’

घसीटा राम को यह मालुम हो गया कि, ‘बाबू गरज़न सिंह ने बांडी नदी के तट पर स्थित मिडल स्कूल के हेडमास्टर को, अनियमितता बरतने के लिए मज़बूर किया।’ सीधा-सपाट था मामला, इस मिडल स्कूल के पास कोई भवन नहीं था। स्कूल के बच्चे पेड़ों की छायां-तले बैठकर पढ़ते थे, और स्कूल का सामान पास एक झोपड़ी में रखा जाता था। इस झोपड़ी के बगल में एक बावरी ने, स्कूल की ज़मीन दबाने की बदनीयती से अतिक्रमण करके एक झोपड़ी बना डाली। फिर वह आये दिन, वह स्कूल के बच्चो एवं स्टाफ़ से झगड़ा किया करता था। उसकी नीयत यह थी, किसी तरह इन बच्चों और स्कूल के स्टाफ़ को परेशान करके इनको यहाँ से भगा दें...ताकि इनके जाने के बाद वह इस स्कूल की पूरी ज़मीन पर अपना क़ब्ज़ा जमा सके। अगर एक बार क़ब्ज़ा हो गया, तो फिर उसे कोई यहाँ से उठाने वाला नहीं। चाहे पाली नगर परिषद कितना ही प्रयास कर लेगी, मगर उसका कोई बाल बांका नहीं कर पायेगी। जिसका कारण था, वह प्रकरण अनुसूचित जाति के आदमी की झुग्गी झोपड़ी से सम्बंधित था। मक़बूले आम बात है ‘सियासत उसे हटाने की अनुमति, कभी देने वाली नहीं। छुट-पुटिया नेता तो क्या..? वहां बड़े-बड़े नेता भी आ जायेंगे, उसकी झुग्गी को बचाने। क्योंकि, हर लीडर या नेता को चाहिए इन लोगों के थोक-बंद वोट। बस, इसी वोट बैंक को आधार बनाकर बावरी महोदय ने हेडमास्टर साहब से प्रतिदिन झगड़ा करने का प्लान आना रखा था। हेडमास्टर साहब ठहरे सज्जन इंसान, वे कब-तक झोंकें अपने-आपको इस झगड़े में? आख़िर मज़बूर होकर वे हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़कर पहुंचे एलिमेंटरी दफ़्तर में। वहां उनकी मुलाक़ात हो गयी, जांच व विधि शाखा के प्रभारी सुदर्शन बाबू से। पूरा मामला सुनकर, जनाब ने सलाह दे डाली हेडमास्टर साहब, कान को यों पकड़ो या यों...बात तो एक ही ठहरी। हुज़ूर, आपको तो काम से मतलब होना चाहिए। क्यों न आपके विद्यालय में जिला-स्तरीय खेल-कूद प्रतियोगिता आयोजित करवा दी जाय? ऐसे करने में दो हित है, वहां टूर्नामेंट का सफ़ल आयोजन हो सकता है और दूसरा आपकी स्कूल का स्थान भी चयन हो जाएगा..कि, स्कूल का भवन कहाँ बनाया जाय? बस, फिर क्या? आपके द्वारा बतायी गयी, शिक्षा विभाग की समस्या का भी हो जाएगा निदान। जानते हैं, आप? इस प्रतियोगिता में, विभाग के बड़े-बड़े अधिकारी और मिनिस्टर आयेंगे। तब उनका ध्यान, स्कूल की समस्या की तरफ़ जायेगा। और हाथों-हाथ आपकी समस्या का हल, चुटकियों में हो जाएगा। फिर क्या? हेडमास्टर साहब ने खुश होकर, अपनी सहमति दे दी...फिर प्रतियोगिता की व्यवस्था हेतु, विभिन्न स्कूलों के कई शारीरिक शिक्षकों की प्रतिनियुक्ति इस विद्यालय मे कर दी गयी। कहते हैं, बहती गंगा में हाथ धोना बुद्धिमानी मानी जाती है। इन शारीरिक शिक्षकों की डेपुटेशन लिस्ट में, बाबू गरज़न सिंह ने पी.टी.आई. राजेंद्र सिंह का नाम भी सम्मिलित कर दिया। बेचारे राजेंद्र सिंह का जोधपुर से रोज़ का आना-जाना था, कभी वे रेलगाड़ी से तो..कभी मोटर साइकल पर सवार होकर, आया करते। बेचारे थे, बाबू गरज़न सिंह के समर्पित कार्यकर्ता। जब भी उनको बाबू गरज़न सिंह का आदेश मिलता, उसी वक़्त वे मोटर साइकल पर सवार होकर उनकी ख़िदमत में इनके दरबार में हाज़िर हो जाते। राजेंद्र सिंह को इनसे पूरा आश्वासन मिल गया कि, वे टूर्नामेंट ख़त्म होने के बाद भी उन्हें कार्य मुक्त नहीं किया जाएगा। उनको सत्रांत तक, इसी विद्यालय में डेपुटेशन पर रखेंगे। मगर यहाँ गड़बड़ हो गयी, टूर्नामेंट समाप्त होने के बाद निदेशक के जनरल आदेश के तहत सभी डेपुटेशन पर लगे शारीरिक शिक्षकों को कार्य मुक्त कर दिया गया। जिसमें, राजेंद्र सिंह भी शामिल थे। कार्य-मुक्त आदेश मिलते ही राजेन्द्र सिंह बाबू गरज़न सिंह से रूठ गए, उनके दिमाग़ में यह विचार कोंधने लगा कि, ‘इतनी सेवा की, बाबू गरज़न सिंह की। सारी गयी, बेकार।’ बस, फिर क्या? राजेंद्र सिंह जा पहुंचे, बाबू गरज़न सिंह के पास..और, देने लगे उलाहना “वाह, भाई वाह। कह देते पहले, मेरी इस दफ़्तर में नहीं चलती। मेरे सिक्के चलने अब हो गए, बंद। मूर्ख ठहरा मैं, जो आपके झांसे में आ गया।”

“नाराज़ क्यों होता है, भैंस के बच्चे? हेडमास्टर को बोल दूंगा..फिर किसकी हिम्मत, जो तूझे रिलीव करके वापस तूझे तेरी स्कूल वापस भेज सके.? ऐसा कभी हो नहीं सकता, यह हेडमास्टर मेरा कहना न मानें?” बाबू गरज़न सिंह ने, राजेंद्र सिंह को दिलासा देते हुए कहा। फिर क्या? हेडमास्टर साहब तो तैयार ही बैठे थे, वे सोच रहे थे ‘कब वह पल आये जब वे अपना अहसान बाबू गरज़न सिंह पर लाद दें..? फिर वक़्त आने पर, इनसे अपना वांछित काम निकलवाकर फ़ायदा उठा सकें।’

फिर क्या? कार्य-मुक्त आदेश ज़ारी हो जाने के बाद भी, राजेंद्र सिंह उस स्कूल में ड्यूटी देते रहे। मगर दुर्भाग्य से निदेशालय बीकानेर के शैक्षिक अधिकारी मुआइना करने आ गए, इस स्कूल में। और उन्होंने उपस्थिति पंजिका की जांच कर डाली, वहां पी.टी.आई. राजेंद्र सिंह की उपस्थिति देखकर उनका माथा ठनका। बस, फिर क्या? झट उन्होंने अपनी निरिक्षण रिपोर्ट में लिख डाला कि, ‘कार्यमुक्त किये जाने के बाद भी, आप पी.टी.आई. राजेंद्र सिंह की उपस्थिति इस स्कूल में दर्ज क्यों कर रहे हैं?’ अब तो बेचारे हेडमास्टर साहब की शामत आनी ही थी, इधर अधिकारीजी का जाना हुआ, और उधर से एलिमेंटरी दफ़्तर के सीनियर डिप्टी पुष्कर नारायण शर्मा मुआइना करने इस स्कूल में तशरीफ ले आये...और उन्होंने निरिक्षण रिपोर्ट देखकर, उतावली में हेडमास्टर साहब से स्पष्टीकरण मांग लिया कि, “प्रधानाध्यक को चेतावनी दी जाती है, उन्होंने अभी-तक निरिक्षण रिपोर्ट में पूछे गए स्पष्टीकरण का ज़वाब अभी-तक प्रस्तुत क्यों नहीं किया? अत: अविलम्ब प्रत्युत्तर प्रस्तुत करें, अन्यथा प्रधानाध्यापक ख़िलाफ़ अनुशासनिक कार्यवाही प्रस्तावित कर दी जायेगी।”

प्रधानाध्यापकजी कहाँ तो बाबू गरज़न सिंह पर अहसान लादने वाले थे, और कहाँ फंस गए इस नए चक्रव्यु में? बेचारे दहाड़े मारकर रो पड़े, और उनके मुख से बार-बार एक ही बात निकलती रही “मार दिया रे, गरज़न सिंह तूने...अगर पहले से पत्ता होता तो प्यारे एक पर्ची पर यह इबारत लिखवाकर तूझे फांस लेता।” अब तो इस चक्रव्यु से बचने के लिए एक ही सहारा बाकी रहा, गरज़न सिंह के विरोधी घसीटा राम..बस, उनका दामन थाम लिया तो इस मुसीबत से छुटकारा मिल सकता है। अगर यह मामला अध्यापकों के बीच का होता, तो हेडमास्टर साहब बचने की जुगत जुटा लेते? मगर यह तो जंग होगी, दफ़्तर के नियमों के जानकर इन दो ताकतवर हाथियों के बीच..! हाथियों की लड़ाई के बीच में घास आ जाने से, वह बेचारी कुचली जाती है। बस, अब यही हाल हेडमास्टर साहब का होना था। यह बात उनके दिमाग़ में आते ही, घसीटा राम की तरफ़ बढ़ रहे उनके क़दम थम गए। और वे पहुच गए, बाबू सुदर्शन के पास। वहां जाकर, उनसे कहने लगे भय्या, दफ़्तर के इन दोनों हाथियों की जंग में, मेरे जैसे खरहे की जान निकल सकती है। बाबू गरज़न सिंह पर अहसान लादने की बात अब मैं भविष्य में कभी नहीं सोचूंगा, यह सरासर मेरी भारी भूल थी। गरज़न सिंहजी जैसे महान इंसानों पर अहसान नहीं लादा जाता, बस उनके हुक्म की पालना की जाती है..आख़िर, वे ठहरे फ़िल्मी विलेन आशुतोष राणा के हम-शक्ल...

“हेडमास्टर साहब, आप सस्ते में छूट गए, अब आप भूल से भी अपने दिल में यह बात मत लाना कि कभी आपने बाबू गरज़न सिंह पर अहसान किया था।” बाबू सदर्शन ने, हेडमास्टर साहब को समझाते हुए कहा “कुछ नहीं बिगड़ा, हेडमास्टर साहब। पुष्कर नारायणजी घर के ही आदमी है, बस माफ़ी मांग लीजिये आप उनसे..केस यहीं सलट जाएगा। भूल से भी, आप बाबू गरज़न सिंह को उलाहना देना मत। समझ गए, जनाब?”

इस तरह, बाबू गरज़न सिंह के ख़िलाफ़ काम लिया जाने वाला दिव्य-अस्त्र घसीटा राम के हाथ में आता-आता रह गया। फिर क्या? मगर, यहाँ तो घसीटा राम की बुद्धि मारी गयी, वे अभिमान के मारे लंकेश की तरह दफ़्तर-ए-जंगाह में आ डटे...स्ट्राइक का अंतिम हथियार लेकर। उनके पीछे-पीछे सामान्य एवं लेखा शाखा के बाबूओं की चौरंगी सेना, उनका साथ देती हुई नारे लगा रही थी। इधर सुदर्शन बाबू जो राजकीय माध्यमिक विद्यालय टेवाली से तबादला होकर इस दफ़्तर में आये थे, वे इस वक़्त इस दफ़्तर-ए-जंगाह के हाल देखने के लिए यहाँ मौजूद नहीं थे। क्योंकि, वे पूर्व विद्यालय में चार्ज देने गए थे। और न आये, विधि अधिकारी सुल्तान सिंह मनणा भी..यानी, जांच एवं विधि शाखा बंद थी। बस, फिर क्या? आनंद कुमार ने झट, ज़ेब से पंचाग-डायरी बाहर निकाली। फिर उसका अवलोकन करके, ज्योतिष-चाणक्य पर प्रकाश डालने लगा। बेचारे घसीटा राम को जोश दिलाता हुआ, वह कहने लगा “हुज़ूर, हो जाइए चालू। अब आप कुछ भी कीजिये, दिन के चौघड़िये आपके पक्ष में हैं।” फिर क्या? घसीटा राम ने आनंद कुमार की सलाह मानकर, पेन-डाउन स्ट्राइक का बिगुल बजा दिया।

यह समाचार पाते ही खाज़िन [ख़जांची] महेश शर्मा ने झट अपने कमरे का दरवाज़ा बंद करके, लॉक लगा दिया। फिर वह भी घसीटा राम के बगल में बैठकर, हड़ताल को समर्थन दे बैठा.. और ज़ोर-ज़ोर से, नारे बाजी करने लगा “कल के दुश्मन आज़ के दोस्त, इज़्ज़त के साथ जीना है हड़ताल हमारा नारा है।” महेश के इस व्यवहार ने, घसीटा राम को अचरच में डाल दिया। कुछ रोज़ पहले इस महेश ने रोकड़ पुस्तिका के संधारण में अनियमितता बरती थी, तब घसीटा राम ने उसको बहुत डांट पिलाई थी। डांट खाकर, वह इतने दिन तक इनसे नाराज़ होकर मुंह चढ़ाए बैठा था। अब कहाँ गया, वह मनमुटाव? बस, अब तो इस महेश का समर्थन पाकर, उनके बदन में ज़ोश का संचार होने लगा। फिर क्या? झटपट उन्होंने सभी बाबूओं से, उनकी अलमारियों की चाबियाँ ले ली। इतने में आनंद ने ज्ञापन टाइप कर डाला और उस पर सबके हस्ताक्षर लेकर, वह काग़ज़ घसीटा राम को थमा दिया। चाबियां और ज्ञापन लिए घसीटा राम चल दिए, पुष्कर नारायण शर्मा की सीट के पास। उनके पास जाकर उनकी टेबल पर ज्ञापन और चाबियाँ रखते हुए, वे बोले “हम लेखा और सामान्य शाखा के सभी कार्मिक काम नहीं कर सकते, आज़ हमारी पेन-डाउन स्ट्राइक है। मास्टर राम रतन बोहरा ने हमारे साथ बदसलूकी की है, पहले आप उनके ख़िलाफ़ अनुशासनिक कार्यवाही कीजिये..फिर, हम काम करेंगे। अन्यथा, आज़ से लेखा और सामान्य शाखा का काम बंद।”

दफ़्तर का माहौल बिगड़ता जा रहा था, और इस स्थिति को संभालना मुश्किल हो गया पुष्कर नारायण शर्मा के लिए। अब अकेले बेचारे, करते क्या? झट उन्होंने जिला शिक्षा अधिकारी ओमवती सक्सेना को फ़ोन लगाकर, उनसे संपर्क साधा।

घसीटा राम और पुष्कर नारायण के भावी वाक-युद्ध की संभावना पाकर, आनंद झट वहां से चुपके से निकल गया और हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने लगा..मगर उसे सीढ़ियों के मोड़ पर ही बाबू गरज़न सिंह नज़र आये। उनको देखकर, वह वहीँ रुक गया। फिर क्या? आनंद कुमार ने चुगलखोर अस्त्र काम में लेते हुए उनके कान में फुसफुसाकर दफ़्तर का वृतांत कह डाला, फिर आगे क्या करना है? उसकी पूरी जानकारी उनसे लेकर, वह नारद अपनी नारदपंथी पेश करके सीढ़ियां उतरने लगा। दफ़्तर की सीढ़ियां उतरने के बाद आनंद को चाय की दुकान के पास खड़े राम रतन बोहरा नज़र आये, जो खड़े-खड़े गिरधारी सिंह से गुफ़्तगू कर रहे थे। फिर क्या? आनंद कुमार पुन: दिखलाने लगा, नारदपंथी। दफ़्तर का पूरा वृतांत उनसे कहकर, उन दोनों को विस्तार से बाबू गरज़न सिंह की अगली योजना समझा बैठा। तभी उसे दुकान के बाहर लगी बेंच पर कानपुरा मिडल स्कूल का स्टाफ़ बैठा नज़र आ गया, उन लोगों को देखते ही आनंद उनके पास चला गया..सेटिंग का उल्लू साधने। बात यह थी, कानपुरा स्टाफ़ का मेडिकल बिल पारित हो गया..बस, अब उसके आहरण होने का इन्तिज़ार करते ये लोग यहाँ बैठे थे। इस स्टाफ़ से बात करके सौदा पटा लिया जाय, और फिर क्या? खाज़िन [खजांची] महेश से बात हो जायेगी, और वह कोषागार जाकर भुगतान उठा लेगा। तब वायदे के मुताबिक़, यह कानपुरा का स्टाफ़ उन दोनों के ऊपर पैसों की बरसात ज़रूर करके इन दोनों को फ़ायदा पहुंचा देगा।

इधर राम रतन बोहरा ने जैसे ही आनंद के मुख से अगली योजना के बारे में सुना, सुनते ही उनके लबों पर मुस्कान छा गयी। वे अपने दिल को तसल्ली दे बैठे “चल मेरे घोड़े, टिक..टिक टिक।” फिर, गिरधारी सिंह का कंधा थपथपाकर कहने लगे “ठाकुर साहब, नगाड़ा बज गया है, अब चलिए कार्यालय। अब आपको वैसा ही करना है, जैसा बाबू गरज़न सिंह ने कहा है। कोई चूक न हो, समझे? अब हम दोनों अलग-अलग चलते हैं, दफ़्तर। पहले आप चलें, बाद में मैं जीना चढ़कर आ ही रहा हूँ ऊपर। बस, ध्यान रहे इस घसीटे को कोई शक न हो। चलिए..अलग-अलग चढ़ेंगे, सीढ़ियां।” यह कहकर राम रतन बोहरा ने ठाकुर साहब को भरोसा दिला दिया कि, वे उनके साथ हैं। फिर क्या? ठाकुर साहब ने जय माताजी का जयनाद किया, और फिर वे हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ने लगे।

सिन्धु-कोलोनी मिडल स्कूल, पाली के मास्टर तोला राम अध्यापक की दोस्ती बाबूओं के साथ थी, बाबू लोग इसको अक्सर दफ़्तर में डेपुटेशन पर लगाकर दफ्तर का काम करवाया करते। इस तरह इसको लेखा शाखा और संस्थापन शाखा में काम करने का, अच्छा-ख़ासा तुज़ुर्बा हो गया। इसको रोज़ शाम के वक़्त दारु की बोतल खोलने का शौक भी रहा, और बोतल का बज़ट सेट करने के लिए वे स्कूलों के अध्यापकों के एरियर बिल तैयार करके उन बिलों का भुगतान उन्हें करवा देता। कई दफ़े संस्थापन शाखा का काम करवाने के लिए, यह सिंधी माणू दलाली का भी काम कर लेता था। इसके अलावा, पेंशन-प्रकरण तैयार करने का भी इसे अनुभव था। इस तरह दफ़्तर से ये काम निपटाकर, अध्यापकों से मेहनताना हासिल कर लेता। पियक्कड़ों को ऊपर वाले का वरदान है, वे शाम-तक किसी तरह बोतल का ख़र्च एडजस्ट कर लेते हैं...तोला राम भी इन पियक्कड़ों से अलग नहीं। वह भी, शाम-तक अपनी बोतल का ख़र्च एडजस्ट कर लेता था। इसके धंधे की प्रगति इतनी बढ़ गयी कि, ग्रीष्म अवकाश खुलते ही इसके पास प्रकरणों की भरमार बढ़ जाया करती। उस वक़्त, मास्टर तोला राम स्कूल में पूरा वक़्त दे नहीं पाता। तब वह प्रधानाध्यापकजी से सेटिंग करके, उपस्थिति पंजिका में हस्ताक्षर करके दफ़्तर चला जाता। फिर वहां बैठकर, अध्यापकों का काम निकलवाने की कोशिश में जुट जाया करता। स्कूल के हेडमास्टर साहब इसको स्कूल में रोककर, इससे काम ले नहीं पाते..क्योंकि यह तोला राम या तो क्लास में बैठकर नींद लेता, या फिर सहकर्मी अध्यापकों के साथ झगड़ा करता। ऐसे आदमी को स्कूल में बैठाने से, प्रधानाध्यापकजी को क्या फ़ायदा?

दफ़्तर की सामान्य और लेखा शाखा की पेन-डाउन स्ट्राइक थी, मगर मास्टर तोला राम अपनी फ़ितरत से मज़बूर। बस, वह वेतन पोस्टिंग रजिस्टर और मास्टरों की जी.पी,एफ़. और एस.आई. की डायरियां लेकर खिड़की के पास चला गया। वहां मुंह फेरकर कुर्सी लगाकर बैठ गया, फिर इन डायरियों में पोस्टिंग करने लगा।

लेखा शाखा में घसीटा राम के बगल में, सामान्य शाखा के बाबू घनश्याम और ओम प्रकाश बैठे थे। उनके पीछे बैठे लेखा शाखा के दूसरे बाबू, कोई न कोई बहाना बनाकर चुपके से वहां से निकल गए। तभी गिरधारी सिंह लेखा शाखा में दाख़िल हुए, और आकर घसीटा राम के पास रखी कुर्सी पर बैठ गए। फिर, वे घसीटा राम से कहने लगे “जय माताजी की, प्रजापत साहब। हुज़ूर, क्या हाल है आपके?” इतना कहकर, वे उनकी ग़म से भरी आँखों में झांकते हुए बोले “अरे, छोड़ो यार मनमुटाव। क्या, इसे साथ लेकर जाओगे..? लेखा शाखा के मालिक, आपसे मेरी कोई दुश्मनी नहीं।” फिर अंगड़ाई लेकर, आगे कहते गए “क़लेज़ा बड़ा, और दिल दरिया रखो और आँखें रखो खुली। मेरी अनबन प्रदीप से है, आपसे तो है ही नहीं। वह नालायक मास्टरों के काम रोकता है, मास्टरों से पैसा खाता है साला। आप हो भोले शम्भू, आपको क्या पत्ता? वह आपका नाम लेकर, इन गरीब मास्टरों से पैसा खाता है।” इतना कहकर, गिरधारी सिंह ने अब ज़ेब से पेसी बाहर निकाली...और फिर हथेली पर ज़र्दा और चूना रखकर, उस मिश्रण को अंगूठे से मसलकर सुर्ती तैयार की। फिर घसीटा राम के सामने हथेली ले जाकर, कहा “अरोगो, हुज़ूर। अब आप यह बात अपने दिमाग़ में बैठा लीजिये, यह मास्टर राम रतन बोहरा है ना..बड़ा शातिर दिमाग़ वाला है। साले ने विष्णु प्रकाश चतुर्वेदी से, हमारा झगड़ा करवा डाला। जानते हैं, आप?”

घसीटा राम ने हथेली से सुर्ती उठाकर, अपने होंठ के नीचे दबायी और बोले “क्या, आपने सच्च कहा?” तब ठाकुर गिरधारी सिंह अपने होंठ के नीचे सुर्ती दबाकर, बोल पड़े “आपसे झूठ बोलूंगा, क्या? वह भी पेढ़ीवाल साहब के शागिर्द से झूठ बोलकर, क्या मुझे अपना बड़ा गर्क कराना है? इस कुतिया के ताऊ ने ऐसी नारद-पंथी दिखलाई साहब कि, ये चतुर्वेदी साहब है ना..बस, अब हमसे फटे बांस की तरह बोलते हैं..इनके दिल में मेरे प्रति कड़वाहट भर दी हुज़ूर। इसके आगे और क्या कहूं, साहब?” यह कहकर, उन्होंने पास रखी कचरे की टोकरी में ज़र्दे की पीक थूक दी। पीक थूककर, आगे बोले “ऐसा गुस्सा आता है हुज़ूर, मैं इस मादरकोड को ज़मीन में गाड़ दूं। समझता क्या है, अपने-आपको?”

ठाकुर साहब की बात सुनकर, घसीटा राम की कली-कली ख़िल गयी। झट नेमा राम को आवाज़ देकर, उसे पास बुलाया। और उसे, ठाकुर साहब के लिए चाय लाने का आदेश दे डाला। ठाकुर साहब कोई कम नहीं ठहरे महारथी, नारद-अस्त्र चलाने में। झट, आगे बोल पड़े “हुज़ूर, सुना है....राम राम, कान पापी है....” बस इतना ही जुमला बोलकर, ठाकुर साहब चुप हो गए।

“डरते क्यों हो, बोल दीजिये..किसकी मां ने अजमा खाया है, जो...” घसीटा राम कचरादान में पीक थूककर बोले।

तभी नेमा राम चाय ले आया, सबको चाय का प्याला थमाकर ख़ुद बैठ गया चाय पीने।

“जनाब, मैं कह रहा था...अगर आप कहते हैं तो आपके हुक्म से।” ठाकुर गिरधारी सिंह बोले।

“बको। यार, क्या सिटी बस की तरह बार-बार रुक जाते हैं आप?” चाय की चुस्कियां लेते हुए, घसीटा राम बोले।

“जनाब ये आपकी लेखा शाखा के बाबू है ना..नीचे चाय की दुकान पर बैठे-बैठे अभी आपकी मज़हाक़ उड़ा रहे थे। वे नालायक, यह कह रहे थे ‘यह लेखाकार है, घसियारा। इससे तो अच्छा है, अपना सफाई कर्मचारी माँगी लाल..जो हवाई बिल्डिंग के दूसरे माले में आयी एस.बी.आई. में सफ़ाई का काम करता है। वह बड़ा बहादुर है, किसकी हिम्मत है जो उससे तू-तकारा करे? ऐसा है साला, छठी का दूध पिला देता है....देखा नहीं, इसने बैंक वालों की बारह बजा दी। इन बैंक वालों ने तो उसकी एक दिन की पगार रोकी, और उसने बैंक में सफ़ाई का काम बंद करके बैंक में भयंकर बदबू फैला दी..बदबू क्या? उसने तो, इस बैंक को कूड़े का कचरादान बना डाला। जानते हो, एक भी सफ़ाई कर्मचारी नहीं आया इस बैंक में सफ़ाई करने’..” इतना कहकर, गिरधारी सिंह रुके, और लम्बी सांस ली।

“आगे बको। और क्या कहा, इन कमबख्तों ने? हमारी बिल्ली, और हमसे ही म्याऊ?” घसीटा राम तनावग्रस्त होकर बोले।

“कह रहे थे, हुज़ूर। ‘इनको देखिये..ये है मास्टर राम रतन, इनके पाँव ऐसे हिलते हैं..मानों ये पाँव नहीं “डोलर-हिंडा” है। यह जनाब हमारे साहब घसीटा रामजी को बक गए, मां-बहन की गालियाँ। अब, क्या कहें? हमारे साहब इनका कुछ नहीं कर पाए, ऐसे दब्बू किस्म के हमारे साहब हैं। तभी तो संस्थापन शाखा के बाबू गरज़न सिंहजी बात-बात पर इनकी हंसी उड़ाते हैं, इनको छक्का समझकर।’ बस, आपसे तो कुछ होता नहीं, लाइए कलम..शिक्षक-संघ की तरफ़ से मैं लिखता हूँ शिकायत...इस मास्टर राम रतन के ख़िलाफ़, अपने संघ के पेड पर।” गरज़ते शेर की तरह दहाड़ते हुए, ठाकुर साहब बोल उठे।

“रहने दीजिये, हम समझ गए..आप हमारे हितेषी हैं। बस, अभी आप यह बता दीजिये यह प्रदीप अभी कहाँ है? नीचे चाय की दुकान पर बैठा इस निंदक ग्रुप का साथ दे रहा है, या और कहीं बैठा है?” घसीटा राम बोले, अब उनके बोलने के लहज़े में पहले वाली गर्म-ज़ोशी नहीं थी।

“क्या कहूं, साहब? कहते हुए गुस्से के मारे मेरा रोम-रोम खड़ा हो जाता है, उस कमीने को कूटने के लिए। वह साला कुतिया का ताऊ बैठा है, बाबू गरज़न सिंह के बगल में कुर्सी लगाकर। और, क्या कह रहा है हुज़ूर? इधर का माल उधर..समझ गए ना...” ठाकुर गिरधारी सिंह बाबू गरज़न सिंह का नाम इस तरह लिया, सुनकर घसीटा राम के मुंह का स्वाद कसैला हो गया। मानों किसी पनवाड़ी ने पान की गुलेरी में गुलकंद की जगह नीम की चटनी डालकर, वह पान की गुलेरी उनसे चबवा दी हो..? बड़े दुःख की बात, बाबू गरज़न सिंह की बगल में उनका ख़ास शागिर्द यह प्रदीप..? अब, दुःख की कोई सीमा नहीं। बेचारे घसीटा राम इतना ही बोल पाए “पड़े रहने दीजिये, इस मुस्टंडे को। क्या करें? इस वक़्त हमारे दिनमान ख़राब चल रहे हैं, ठाकुर साहब। अब किस-किसको दें, दोष? जानते हैं आप, रामचरित्र मानस में गोस्वामी तुलसी दासजी ने क्या लिखा है? ‘ना काहू से मित्रता, न काहू से बैर..तुलसी इस संसार में, भांति-भांति के लोग। सबसे मिलकर चलिए, नदी नाव संजोग।’ जनाब यह दो दिन की ज़िंदगी है, सभी प्रेम से रहें तो अच्छा है..क्या बैर पालना? समय एकसा रहता नहीं, आप तो जानते ही हैं, यह छोरा इस दफ़्तर में आया..तब अकाउंट में बारे में कुछ नहीं जानता था। अकाउंट का पूरा ज्ञान दिया मैंने, इस छोरे प्रदीप को। वेतन विपत्र, चिकित्सा विपत्र, एरियर बिल, रोकड़-पुस्तिका का संधारण वगैरा, सभी काम इसको सिखाया मैंने। वाह री मेरी क़िस्मत, मुझे छोड़कर इस छोरे ने झट पाला बदल डाला?” ग़मगीन होकर, घसीटा राम बोले। ग़म के मारे, उनका दिल बैठ गया। अलमारी लोक करके उन्होंने अपना बैग उठाया, और चल दिए सूरजपोल। उनकी मंशा थी, वहां चाय की दुकान पर यार-दोस्तों के साथ बैठकर उनसे हफ्वात हाकेंगे तो...शायद, कुछ जी हल्का हो जाय..? कारण यह रहा, लंच का वक़्त हो गया था। इस वक़्त कोषागार व अन्य सरकारी कार्यालयों के लेखाकार और कनिष्ठ लेखाकार, सूरजपोल की चाय की दुकान पर चाय पीने आया करते। वहां बैठकर चाय की चुस्कियां लेते हुए, वे सब हफ्वात हांकते हुए नज़र आया करते।

इधर संस्थापन शाखा में बैठे बाबू गरज़न सिंह अपनी जीत पर ख़ुशी से चहक रहे थे, और अपने बगल में बैठे बाबूओं और मास्टरों से गुफ़्तगू करते हुए कह रहे थे “वाह, भाई वाह। आज़ तो यह प्रदीप बड़ी ख़ास ख़बर उठा लाया कि, घसीटा रामजी इस छोरे प्रदीप से मेरी मुख़्बिरी कराएंगे..?” इतना कहकर, उन्होंने पास बैठे प्रदीप के कंधे पर धोल जमाते हुए आगे कहा “सुन, प्रदीप। ‘मां भटियारे बाप दलाल, जिनके बेटे सुन्दर लाल।’ समझा, कुछ?

मगर, प्रदीप कुछ नहीं बोला। उसे चुप पाकर भी, बाबू गरज़न सिंह चुप नहीं हुए..वे आगे कहते गए “सुन ले, पावटे के पोदीने..कान खोलकर। मुख़्बिरों का ज़ाल, हमने बिछाया है। इस दफ़्तर में चारों तरफ़ मेरे मुख़्बिर ऐसे छाए हुए हैं, साले इनकी तरह लल्ल्लू-पंजू नहीं..ये कमबख़्त , घसीटा रामजी के पेट में घुसकर टटोल-टटोलकर उनकी आंतें गिन लेते हैं और मज़ाल है, उनको ज़रा भी शक हो जाय? अरे यार, क्या कहूं? ये हमारे मुख़्बिर इतने होश्यार है, इनके पहलू में बैठे-बैठे टेलीपेथी से मेरे पास ख़बरों का पिटारा पहुंचा देते हैं।’ इतना कहने के बाद, उन्होंने फिर प्रदीप के कंधे पर धोल जमाते हुए आगे कहा “अब तो समझ गया, प्रदीप? उधर देख, खिड़की के पास मुंह फेरकर कौन बैठा है?”

“अरे ए, सिंधी माणू। आ इधर, और बता इस प्रदीप को..क्या ख़बर लाया तू? अब झट उगल दे, साले।” बाबू गरज़न सिंह ने खिड़की के पास बैठे मास्टर तोला राम को आवाज़ देकर अपने पास बुलाया, फिर उसे ख़बरों का पिटारा खोलने का हुक्म दे डाला।

“क्या बताऊं, बाबू साहब? अभी-अभी शिक्षक संघ के ठाकुर गिरधारी सिंह को, घसीटा रामजी से हाथ मिलाते देख आया हूँ। आप तो जानते ही हैं, पिछले पे-डे के दिन घसीटा रामजी का क्या हाल हुआ था?” पास आकर, तोला राम बोला।

“अरे कबाड़ में पड़ी मालगाडी के डब्बे, झट बक..नहीं तो लगाऊं चार धोल तेरी कमर पर..तेरी ताण खाई हुई कमर ठीक हो जायेगी।” तोला राम को फटकारते हुए, बाबू गरज़न सिंह बोले।

“अरे साहब, बोलता हूँ..बोलता हूँ। मगर साहब, ऐसे मत बोला करें..आख़िर मेरी भी इज़्ज़त है।” उनके सामने गिड़गिड़ाकर, तोला राम बोल उठा।

“कैसा इज़्ज़त वाला, साले? दारु पीकर गंदी नालियों में पड़ने वाला नाली का कीड़ा, तू कब से बन गया इज़्ज़त वाला....कमबख़्त? कुतिया के ताऊ, तेरे घर पर बैठी है तेरी जवान बेटी..फिर इस लौंडे अनिलिये को, घर क्यों बुलाता है रे..? साला सिन्धी माणू, इस लोफ़र को अपना जमाता बनाएगा क्या?” तोला राम राम की कमर पर चार धोल जमाकर, बाबू गरज़न सिंह गुस्से में गरज़ते हुए बोले।

“हुज़ूर, लौंडा शरीफ़ है। छोरी ने उसे अपना धर्म-भाई बनाकर, राखी बांधी है..आप कहते हैं, जैसी कोई बात नहीं है।” सहमता हुआ तोला राम बोला, फिर उसने आगे कहा “हुज़ूर, छोड़िये इस बात को। सुनिए, समय पर मास्टरों को वेतन भुगतान नहीं हुआ..तब ठाकुर गिरधारी सिंह ने वहां मास्टरों को इकट्ठा करके, घसीटा रामजी के ख़िलाफ़ नारे बाजी की। नारे बाजी की तो कुछ नहीं हुज़ूर, मगर उन्होंने बेचारे घसीटा रामजी का गिरेबान पकड़ लिया..यह तो अच्छा हुआ, प्रदीप बाबूजी ने झट उठकर उनका गिरेबान छुड़ा लिया। न तो मालिक, इनको मार-मारकर ठाकुर साहब इनके मालीपन्ना उतार लेते। फिर ठाकुर साहब उलझ पड़े, प्रदीप बाबू साहब से। थोक-बंद गालियों की बौछार करने लगे हुज़ूर, मगर हमारे प्रदीप बाबूजी भी कौनसे कम गालीबाज हैं? इन्होने मां-बहन सभी की गालियों की बौछार, ठाकुर साहब पर कर डाली। फिर क्या? मास्टर राम रतनजी को संग लिए, ठाकुर साहब मैदान छोड़कर चले गए।”

“वाह। क्या बहादुर है, अपने प्रदीप बाबू? इनसे डरकर, ये बकवादी नेता उल्टे पाँव मैदान छोड़कर भाग जाते हैं।” बगल में बैठा, एक मास्टर बोल पड़ा।

“बाबू साहब, क्या कहें हुज़ूर? अहसान फ़रामोश घसीटा रामजी ने, इसके बदले क्या दिया? इस नालायक गिरधारी सिंह को अपने पास बैठाकर, प्रेम से चाय पिलाई..और उन्होंने उसके आगे दोस्ती का हाथ बढ़ाया। वे भूल गये, इस गरीब प्रदीप बाबू साहब ने उनकी इज़्ज़त बचाने के लिए अपनी इज़्ज़त दाव पर लगा दी थी। एक बात बिल्कुल सीक्रेट..कोई नहीं जानता। लो सुनो...” मास्टर तोला राम ने कहा।

यह सुनते ही, सभी बैठे हफ्वात के शौकीन महानुभव अपने कानों को घोड़े के कानों की तरह खड़े कर डाले..हर कोई जिज्ञासु बन रहा था, निंदा-पुराण सुनने के लिए।

“ये राम रतनजी है ना, बड़े रुस्तम ठहरे। ये आली जनाब दूसरों के कन्धों पर बन्दूक रखकर गोली दागा करते हैं। उस दिन भी ऐसा ही हुआ, इनका स्थिरीकरण एरियर बिल कोषागार से तो पारित हो गया मगर उसे भुगतान-लिस्ट में शामिल नहीं किया। बस, यही दर्द था..जनाब का..? इनके सर में दर्द होगा तो, ये बताते हैं पेट का दर्द। इस भोले नेता गिरधारी सिंह को भड़काकर, आगे कर डाला। हुज़ूर, आपसे क्या कहूं? इनका चापलूसी का अस्त्र इतना अचूक, कि..जनाब, गिरधारी सिंह घसीटा रामजी का गिरेबान पकड़ने के लिए तैयार हो गया। जनाबे आली ने भड़काते हुए, ऐसे कहा ‘ठाकुर साहब, आज़ ही मौक़ा है, मास्टरों का हज़ूम खड़ा है कीजिये कुछ..ना तो ये मास्टर लोग संघ का चन्दा नहीं देंगे। इनको भी दिखलानी है, आपकी नेतागिरी।”

नीरवता छा गयी, इस श्मसान जैसी फ़ैली हुई शान्ति को भंग करते हुए बाबू गरज़न सिंह बोल पड़े “देख ले, भैंस के ताऊ। दूध का दूध, और पानी का पानी हो गया..मामला साफ़ है।”

“क्या कहते हो, बाबू साहब? कभी तो आप मुझे भैंस का ताऊ बना देते हो, तो कभी कुतिया का ताऊ..बताओ, आख़िर मैं हूँ क्या?” झुंझलाता हुआ, प्रदीप कहने लगा। वह बेचारा, क्षोभ से उभर नहीं पा रहा था। बेचारे के दिल में टीस उठी ‘क्यों उलझा मैं, इस ठाकुर गिरधारी सिंह से? मेरे बाप का, क्या गया..? वेतन वितरित नहीं होता तो, डी.ई,ओ. मेडम लताड़ पिलाती लेखाकार घसीटा राम को..तब अपने-आप उसकी अक्ल ठिकाने लग जाती।”

जेब से पेन बाहर निकालकर, प्रदीप बोला “पाकीज़ा की ‘साहब जान’ का कोठा बना डाला, इस दफ़्तर को। कभी तबले पर थाप लगा देते हैं घसीटा रामजी, और कभी आप थप-थप..ढोलकी बजा देते हो..बाकी रहे घीसू लालजी, वे कहाँ कम..? आली जनाब बजा देते हैं, मेरी सितार..? बस, आप सभी लोगों ने मुझे बना दिया है पाकीज़ा की साहब जान..! अब क्या? अब आप लोग, मेरा मुज़रा देखेंगे..? इन्ही लोगों ने ले लिया दुपट्टा मेरा..गाते हुए अब नाच लूं..?”

प्रदीप के भोंडे गायन और लटके-झटके ने, वहां बैठे सभी महानुभवों को हंसा दिया। मगर उनकी हंसी सुनकर प्रदीप बौखला गया, वह बिफ़रता हुआ बोल उठा “क्या छक्कों की तरह हंसते जा रहे हो, यार? तुम सभी बदनसीब हो यारों, क्योंकि राजा-महाराजाओं का राज़ चला गया। न तो प्यारों, तुम-सबको नाज़र की नौकरी दिलवा देता उनके दरबार में।”

अपनी हंसी दबा न सके, बाबू गरज़न सिंह..उस हंसी को दबाने के लिए जैसे ही उन्होंने अपने लबों पर रुमाल दबाना चाहा...बदक़िस्मत से, वह रुमाल नीचे गिर पड़ा। उसे थामने के लिए जैसे ही उन्होंने अपना हाथ तेज़ी से बढ़ाया, मगर वह बदक़िस्मती बेचारे मास्टर तोला राम की..उनके पास ही खड़ा था। फिर क्या? रुमाल तो उठाया जा न सका, मगर उनके वज़नी हाथ कि कोहनी पास खड़े मास्टर तोला राम के कूल्हे पर जा लगी। अक्समात लगा सेबरजेट की तरह उनका यह तीन किलो का वज़नी हाथ, कोई हथोड़े से कम नहीं..बेचारा तोला राम दर्द के मारे बिलबिला उठा। कल ही बेचारा दारु पीकर गंदी नाली में गिरा था, जिसकी चोट उसके कूल्हे पर लगी थी..वह अभी कहाँ ठीक हुई? नाक़ाबिले बरदाश्त ठहरी, बेचारे की यह पीड़ा...वह दर्द के मारे, कराह उठा। और इसके साथ उसके हाथ में थामा हुआ सेवाभिलेखों का बण्डल, हाथ से छूट गया। जो आकर गिरा, दुखियारे प्रदीप के सर पर..जिसके पास ही, यह तोला राम खड़ा था।

आज़ सुबह किसका मुंह देखा..और दफ़्तर आते वक़्त किसके शगुन मिले..? आटे के या फूकणजी [सुनार] के? याद आते ही, उसको नानी याद आ गयी..और, आ गयी शामत। दफ़्तर के दरवाज़े पर इस अनिल सोनी के दीदार और जाते हुए उसे किसी ने पीछे से आवाज़ लगा दी....हाय राम, अब तो पूरा दिन निकालना मुश्किल..अब घसीटा रामजी के बहकावे में, हड़ताल में पड़ा रहा तो मुझे कई स्पष्टीकरणों का सामना करना पड़ेगा। आख़िर मैं ठहरा, नौकरी में नया-नया आया हुआ..प्रोबेशन पर चलने वाला गरीब कार्मिक। हाय, मेरे गुरु बापू आसा रामजी। अब तो मुझे, कुछ करना ही होगा..”

तभी बाबू गरज़न सिंह ने एक धोल मारा प्रदीप के कंधे पर, उसके दिमाग़ में चल रही विचारों की श्रंखला टूट गयी। वर्तमान में लौटते ही, प्रदीप ने बाबू गरज़न सिंह को यह कहते हुए पाया “कौन मर गया रे? सर पर हाथ रखे बैठा है, कुतिया के ताऊ...!”

“गरज़नजी, गाली मत दो..मैं बड़ा दुखी हूँ..!” प्रदीप बोला।

“फिर क्या, मैं बड़ा सुखी हूँ? ख़िदमत करूँ..या आरती उतारूं तेरी, मेरे इन जूतों से?” हंसकर, बाबू गरज़न सिंह बोले।

“पेपर दीजिये, अभी लिखता हूं स्ट्राइक में न रहने की सूचना।” अपनी नम आँखों को रुमाल से साफ़ करता हुआ, प्रदीप रुआंसी आवाज़ में बोला।

“गधा, साला एक नंबर का। रोता है, मेरा शागिर्द बनकर? ले पकड़..!” यह कहते हुए बाबू गरज़न सिंह ने एक काग़ज़ थमा दिया, उसे लिखने के लिए।

“अरे बोस, कुछ और मत पकड़ा देना इसे।” मास्टर तोला राम व्यंगात्मक-मुस्कान अपने लबों पर फैलाता हुआ बोला।

“इधर आ, साले हितंगिये। ले आ, पकड़ाता हूँ तूझे।” गरज़न सिंह बोले तपाक से, पकड़ना चाहा गिरेबान उस तोला राम का..मगर, तोला राम वहां से खिसक गया। और इस कारण बेचारे प्रदीप की शामत आयी, फटाक से बाबू गरज़न सिंह का सर जा टकराया उसके सर से।

आप हाथ तोड़ो या सर, अरे गरज़नजी मेरी क़िस्मत ही ख़राब है..हर जगह राज़ है, चमचागिरी का। घसीटा रामजी का ऐसा हुक्म, एक मिनट भी दफ़्तर छोड़कर बाहर न जाओ..और उधर देखो, ओ.ए. साहब का मिज़ाज़, रही-सही मेरी मार दी। और आप..? देखते रहे, ताक-धिना धिन..ता थई था, इस तरह अब तिगनी का डांस नहीं करना है मुझे। प्रदीप ज़ोर से चिल्लाता हुआ, बोला।

मगर, यह क्या? बेचारे प्रदीप की मानसिक स्थिति का कोई लेना-देना नहीं, गरज़न बाबू को। वे तो तपाक से कहने लगे “ए..सुना तूने..? कब्रिस्तान के गड़े मुर्दे, यहाँ मेरी सीट के पास बैठकर कुछ नहीं लिखेगा।”

“हुज़ूर, आपकी ख़िदमत में यह बन्दा हमेशा हाज़िर रहता है, फिर यह आपकी नाइंसाफ़ी कैसे? बस, आप भी और लोगों की तरह...” रोनी आवाज़ में प्रदीप बोला।

“इसीलिए कह रहा हूँ, मेरे शागिर्द। उस माता के दीने घसीटे को हो जाएगा वहम कि, मैंने ऐसा लिखवाया है तुझसे। चल, फूट यहाँ से। उसके पहलू में बैठकर लिख, मेरी जान छोड़ यार।” कुटिल मुस्कान अपने लबों पर लाकर, बाबू गरज़न सिंह बोले।

“हुज़ूर, मुझे यहाँ से काहे हटाते हैं आप? क्या इसमें भी, आपका कोई फ़ायदा है? लेखा-ए-आज़म जनाबे आली बहादुर घसीटा रामजी अब-तक समझ गए होंगे कि, अब-तक मैंने यहाँ बैठकर आपसे गूढ़ ज्ञान ले लिया है। हुज़ूर आपका नाम बाबू ज्ञान है, और आपको डायला मास्टर साहब ने आपको गोद में लेकर खिलाया है..इसी कारण, आप ठहरे दबंग। फिर आप तो ठहरे सियासत के पंडित..कौन आपसे मुक़ाबला कर सकता है? हुज़ूर आप हैं, दफ़्तर-ए-सियासत के ज़ंगाह [युद्ध-स्थल] के सवा-शेर। वरना कौन इस कसाई के घास के कट्टे को, खा सकता है?” इतना कहकर, प्रदीप ने हाथ ऊपर ले जाकर अंगड़ाई ली..फिर, वह आगे कहने लगा “जनाब, अब आपसे क्या कहूं? हमारे लेखाकार महोदय राम-झरोखे बैठकर, सबका मुज़रा लेना सीख गए हैं। आज़कल तो वे लोगों की ख़ाली शक्ल देखकर ही, उनकी जन्म-पत्री पढ़ लिया करते हैं। इतनी देर मेरा यहाँ रुकना, उनके संशय को मिटा नहीं सकता..मगर बढ़ा ज़रूर सकता है। अब यह बन्दा वहां उनके पास जाकर, उनको चलताऊ सलाम ठोककर रुख़्सत ले लेगा।” इतना कहकर, प्रदीप डी.ई.ओ. को आवेदन लिखने में व्यस्त हो गया।

प्रदीप को व्यस्त पाकर बाबू गरज़न सिंह अपनी सीट से उठे, और चल दिये पाख़ाने का दरवाज़ा बंद करने। जैसे ही उन्होंने दरवाज़ा ढका, और तत्काल ललित दवे पाख़ाने से बाहर आया। उसने जैसे ही बाबू गरज़न सिंह को वहां खड़े देखा, तपाक से उन्हें सलाम ठोक बैठा।

“क्यों बे, साहब जान की दम तोड़ती औलाद। वाह रे, मेरे काग़ज़ी शेर..बदल लिया पाला?” बाबू गरज़न सिंह ने, उस पर तंज कसते हुए कहा।

डेरा बदले, नटनियां। हम तो हुज़ूर, भंवरे हैं। जहां फूलों में पराग मिलेगा, हम वहीँ डोलेंगे। आख़िर, इस कबूतर-ख़ाने में रखा क्या है? बस, वक़्त गुज़ारना है...इधर नहीं, तो उधर। आप कहें तो आपके पहलू में बैठ जाएँ हुज़ूर, टंकण-कार्य करवाना है तो हुक्म दीजिये मेरे आका। हाज़िर हूँ हुज़ूर, आपकी ख़िदमत में। ललित दवे ने, झट ज़वाब का गोला दे मारा।

इधर इन दोनों को गुफ़्तगू में मशगूल पाकर, नारायण बाबू झट जा घुसे पाख़ाने में। उतावली में भूल गए बेचारे, दरवाज़ा का कूठा लगाना।

तभी तोला राम ने बाबू गरज़न सिंह को पुकारा “बाबू साहब, जल्दी तशरीफ़ लाइए, ये किश्तियाँ [बस्ते] हमसे धोई नहीं जाती..छिप..छिपकली..!”

इतनी देर तक बेचारे गरज़न सिंह अपनी सीट पर बैठे रहे, ऊपर से इन्होने चाय भी पी ली थी..! तब लघु-शंका निवारण करने जाना उनके लिए आवश्यक हो गया, मगर पाख़ाने से नारायण सिंह निपटकर बाहर आये..तो बाबू साहब अन्दर जाएँ..? हाय राम, अब तो इतनी तेज़ से उनको लघु-शंका होने लगी, जिसे वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे। ऊपर से यह तोला राम उनको पुकारने लगा, तब चिढ़कर बाबू गरज़न सिंह तोला राम को फटकारते हुए कह बैठे “छछूंदर की औलाद, साला पेशाब करने जाने नहीं देता..मरेगा साला तू तो, और तुझको तो दोज़ख भी नसीब न होगा।”

इतनी देर बाद भी नारायण सिंह बाहर निकलते नज़र नहीं आये, फिर क्या? मज़बूरन बाबू गरज़न सिंह ने अपने दिल में, थोक बंद गालियाँ बाबू नारायण सिंह को न्योछावर कर डाली “इस नारायण हरामी को चड्डे का तिज़ारबंद [नाड़ा] खोलने और बंद करने में कई घंटें लग जाता हैं, और इधर यह चमन तोला राम चला जाएगा अपने घर..फिर संस्थापन सूचनाएं करेगा कौन तैयार?” नारायण सिंह को बाहर निकलते न देख, बाबू गरज़न सिंह चले आये वापस तोला राम के पास। वहां पड़े बस्तों के ढेर को देखकर वे भड़क गए, और गरज़कर उससे कहने लगे “छिपकली है, कोबरा नाग नहीं..चिल्ला-चिल्लाकर आसमान गूंज़ा दिया साले।” तभी उनको वहां कोने में छुपा हुआ रमेश नज़र आ गया, जो बैठा-बैठा बीड़ी पी रहा था। उसे देखते ही, गरज़न सिंह बोल उठे “अरे ओय रमेशिया, सुअर की औलाद। यहाँ बैठकर बीड़ी पी रहा है, मुर्दार..? अब तू दफ़्तर के पुराने रिकर्ड को तिली सिलागाकर, जला डालेगा...क्या? इधर आ माता के दीने, यहाँ बैठकर खोल इन किश्तियों को।”

बाबू गरज़न सिंह का हुक्म पाकर रमेश ने सुलगती बीड़ी एक ओर फेंक दी, फिर उन किश्तियों [बस्तों] को खोलने लगा। जैसे ही ये बस्ते खुले, और रमेश के मुंह से चीख़ निकल उठी। इन बस्तों से कई छिपकलियाँ उछलती हुई बाहर निकली, कोई इधर उछली तो कोई उधर छलांग लगा बैठी। एक छिपकली तो इन सभी छिपकलियों की उस्ताद निकली, जिसे कोई छिपने का स्थान नहीं मिला तो वह वहां लेटे मोहम्मद शफ़ी के पायजामें में जा घुसी। फिर धीरे-धीरे रेंगती हुई उसके रानों तक पहुँच गयी, तब रानों में पैदा हुई सिहरन से मोहम्मद रफ़ी की नींद टूट गयी..और वह चमक गया। ख़ुदा जाने, यह क्या हो गया? कहीं सांप तो न घुस गया, उसके पायजामें में? बेचारा घबरा गया, और डर के मारे वह उछलने लगा। आख़िर कोई बचने का उपय न पाकर वह दौड़ा, पाख़ाने की तरफ़..पायजामा उतारने। उसने सोचा, पाख़ाने में जाकर पायजामा खोलकर इस समस्या से निज़ात पा लेगा। मगर वह बेचारा पायजामे का नाड़ा थामे पाखाना में दाख़िल हुआ, और यह क्या? वह मंज़र देखकर, वह भौंचका हो गया। वहां खड़े नारायण बाबू ने झट पकड़ लिया, उसका तिज़ारबंद [नाड़ा]। तिज़ारबंद खुल गया, उसके खुलते ही उसने खुल रहे पायजामे को दोनों हाथों से थाम लिया। फिर क्या? वापस दौड़ पड़ा, पाख़ाने के बाहर...वह आगे-आगे और उसके पीछे-पीछे नारायण बाबू उसका तिज़ारबंद पकड़े..! अब तो, हर शाखा के चेम्बर में दोनों दौड़ने लगे। तभी चाय पीकर घसीटा राम दफ़्तर में आ गए, और उस मोहम्मद शफ़ी के नज़दीक आते ही झट उन्होंने उसे पकड़ लिया। फिर क्या? छीना-झपटी में, बेचारे मोहम्मद शफ़ी का पायजामा खुलकर नीचे गिर गया। पायजामा नीचे गिरते वह चड्डे में अवतरित हो गया, अपने-आपको फटा चड्डा पहने देखकर वह शर्मसार हो गया। फिर बेचारे ने, अपनी निग़ाहें झुका ली।

“मादर कोड। साला नंगा होकर क्या खड़ा है? यह ले, तौलिया...” कुर्सी पर रखे तौलिये को मोहम्मद शफ़ी की तरफ़ फेंकते हुए, घसीटा राम बोले। मोहम्मद शफ़ी ने झट तौलिये को थाम लिया, और झट उसे अपने बदन पर लपेट डाला। इस तरह बेचारे मोहम्मद शफ़ी को राहत मिली, पायजामें से छिपकली बाहर निकल गयी...और, इस तरह वह सिहरन से मुक्ति पा गया।

बादलों की ओट से सूरज बाहर निकला, खिड़की से तेज़ धूप की किरणें कार्यालय में दाख़िल हुई। लेखा शाखा और सामान्य शाखा के सभी बाबूओं को मार्ग-दर्शन देता हुआ प्रदीप उन्हें संस्थापन शाखा के चेंबर में ले आया। एक-एक बीती घटनाओं के परिणाम पर, विचार-विमर्श हुआ। बेचारे नौकरी में नए-नए आये इन बाबूओं के दिल में उथल-पुथल मचने लगी। सबके मानस में वे घटनाएं उभरने लगी, किस तरह घसीटा राम इन सबको छोटी-छोटी ग़लती करने पर प्रताड़ित किया करते थे? कभी जसा राम को याद आया, किस तरह वेतन विपत्रों के योग ग़लत हो जाने से घसीटा राम ने उससे स्पष्टीकरण मांगकर उसे लज्जित किया? तो कभी सबके सामने घसीटा राम का बोला गया कथन “आ गए, टेस्ट-ट्यूब बोर्न बेबी? आता-जाता कुछ नहीं, किस उल्लू के पट्ठे ने इस दफ़्तर में भेज दिया?” याद आ गया। इन जले-कटे व्यंग-भरे कथन याद आते ही जसा राम ने अनिल की तरफ़ देखा, और उधर अनिल सोच रहा था “एक बार घसीटा रामजी का सौंपा गया काम करने वह सूरज पोल गया था, और दफ़्तर लौटने पर उसे ओ.ए. साहब घीसू लालजी ने थमा दिया स्पष्टीकरण का काग़ज़। तब घसीटा रामजी ने न तो उसकी तरफ़दारी की, और न एक शब्द मुंह से निकाला उसके सपोर्ट में। उनका, क्या जाता..? बोल देते, घीसू लालजी से “भाईजान, पहले हमसे पूछ लिया करो कि, ‘इस बन्दे को, मैंने किसी सरकारी काम से कहीं बाहर भेजा या नहीं?’ अगर ऐसा वे करते तो मुझे कुछ राहत मिल जाती, मुझे इतना अपमान झेलना नहीं पड़ता। मगर वे ठहरे स्वार्थी, वे बोलकर क्यों घीसू लालजी से अपने रसूख़ात बिगाड़ेंगे? आज़ भी हम इनके लिए, इनकी स्वार्थ-पूर्ति का शिकार बनने जा रहे हैं।”

बस, फिर क्या? विचारों की उथल-पुथल ने, गड़े मुर्दे उखाड़ दिए। प्रदीप और बाबू गरज़न सिंह के वक्तव्यों से, माहौल गर्म हो उठा। सभी बाबूओं ने हड़ताल उठाने के आवेदन-पत्र लिख डाले, फिर उन आवेदन-पत्रों को पुष्कर नारायणजी को दे आये। एक घंटे पहले जो होल हड़ताल के नारों से गूंज़ रहा था, वह अब हंसी के ठहाकों से गूंज़ने लगा। नीचे रखी कलमें, बाबूओं ने वापस उठा ली। बस, फिर क्या? पूर्व पाकिस्तान के जनरल नियाजी की तरह, घसीटा रामजी हो गए बेदम। अब क्या? बिना फौज़, वे इस दफ़्तर-ए-सियासत की जंगाह में कैसे लड़ते..? शस्त्र डालकर, बैठ गए रुआंसे।

कार्यालय में ऐसे झगड़े, मनमुटाव प्राय: होते रहते हैं, इनको हवा देना कार्यालय के हित में नहीं। अब ऐसा फिर कभी न हो..इसका समाधान करने का जुम्मा घीसू लालजी और बड़े बाबू पुख नाथजी ने अपने हाथ में लिया। और उनके प्रयास से, समझौता हो गया, जिससे कार्यालय के दैनिक कार्यों की गति को दिशा मिलने लगी।

इस शर्मनाक हार की पृष्ठ-भूमि में, घसीटा राम को आनंद का किरदार संदेहास्पद लगने लगा। एक दिन जांच-पड़ताल करने पर, सत्य उनके सामने आया..जिसे जानकर उनका दिल बैठ गया। उनके दिल से एक यही टीस बाहर निकली “हाय..जिसको हमने अपने क़लेज़ा का टुकड़ा समझा, वह शूल निकला।” इस जानकारी से घसीटा राम, उससे हो गए नाख़ुश। तभी किसी अध्यापक ने क्रिकेट कोमेंटरी सुनने के लिए ज़ेबी ट्रांज़िस्टर ओन किया, मगर कोमेंटरी की जगह गीत सुनाई देने लगा “अब दिल ही टूट गया, अब जीकर क्या करेंगे..” इस गीत को सुनते ही उनके दिल में, उस आनंद के प्रति कड़वाहट पैदा होने लगी। उनका विचार था, यह आनंद कुमार अब जाएगा कैसे जोधपुर? भले इसका तबादला पोलीटेकनिकल कोलेज़ जोधपुर में हो गया है..तो क्या हो गया? अगर इस दफ़्तर का कोई बाबू इससे छात्रवृति का प्रभार नहीं लेगा, तो यह मर्दूद जाएगा कैसे? इस दफ़्तर में सभी बाबू काम के बोझ से दबे हैं, वहां इस पर रहम करेगा कौन? अगर किसी ने इसका चार्ज नहीं लिया तो....इसे कौन करेगा, कार्यमुक्त? साला यहीं बैठा रहा, तो मैं इस पर लाद दूंगा काम का बोझ।” फिर उन्होंने उस रो रहे क्रदन सिंह को, आश्वासन भी दे डाला “साला, रोता क्या है? नाज़र है, क्या? अरे, मर्द बन। याद रख, चौदह दिन के बाद यह प्रभार तेरे पास नहीं रहेगा, यह मेरा वादा है। तू चला जाएगा, सामान्य शाखा में।”

“वादा...वादा, वादा..?” बड़बड़ाने लगा। तभी, बाबू गरज़न सिंह ने एक धोल मारा उसके कंधे पर..धोल लगते ही वह दर्द के मारे चीख़ उठा, और हो गया चेतन..अतीत की यादों को छोड़कर। ऊंघ से वह जगा, तब किसी पेसेंजर के हाथ में थामें ट्रांज़िस्टर पर गीत आ रहा था “वादा तेरा वादा, वादे ने...”

वह उस गीत को, क्या सुनता..? उसी वक़्त, बाबू गरज़न सिंह ने दूसरा धोल उसके कंधे पर मारकर, कहा “उठ गधे, लूणी स्टेशन आ गया...जा उतर नीचे, और लेकर आ रसगुल्ले। साला, भूल गया वादा..!” इस तरह बाबू गरज़न सिंह के गरज़ने से, बेचारा आनंद डर गया..कहीं दूसरा धोल गरज़न बाबूजी जमा न दे..? बेचारा पाँव घसीटता-घसीटता डब्बे के दरवाज़े के पास जा पहुंचा, उस बेचारे को ऐसा लगा वह इस दरवाज़े के पास वह चलकर नहीं आया है..बल्कि बाबू गरज़न सिंह उसे धकेलकर यहाँ लाये हैं..?

इंजन ने ज़ोर से सीटी दी, रेलगाड़ी की रफ़्तार कम हो गयी..कुछ ही पल में रेलगाड़ी लूणी के प्लेटफार्म पर आकर रुक गयी। प्लेटफार्म पर, वेंडरों की आवाजें गूंज़ने लगी। आनंद कुमार झट नीचे उतरा, अपना वादा निभाने। आख़िर आनंद को, लेखा शाखा की मुख़्बिरी करने का इनाम मिल ही गया।

--


पाठकों।

कार्यालय में एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए एक-दूसरे की मुख़्बिरी करवाना, सियासत की चाल है। इसे बाबू गरज़न सिंह यानी “ज्ञान चंद अग्रवाल” बेखूबी से निभाते रहे। इस अंक २० “मुख़्बिरी” को पढ़कर आप चकित रह जायेंगे, कैसे वे अपने सिपहसालारों से लेखा शाखा की मुख़्बिरी [जासूसी] करवाकर लेखाकार घसीटा राम यानी ‘शिव राम प्रजापत” को मात दिया करते थे? इस अंक को आप पढेंगे तो, ठहाके लगाकर आप ज़रूर हंस पड़ेंगे। इसे पढ़कर, आप अपनी प्रतिक्रिया से मुझे ज़रूर अवगत करें। मेरा ई मेल निम्न है –

dineshchandrapurohit2@gmail.com

दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक – पुस्तक डोलर-हिंडा]

निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].

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मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड 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रचनाकार: संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक २० - मुख़्बिरी - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक २० - मुख़्बिरी - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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