स्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक 23 - अच्छा नागरिक - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक 23 अच्छा नागरिक लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले अंक यहाँ पढ़ें - अंक - 1 // 2   //...

संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक 23

अच्छा नागरिक


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लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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ज़िंदगी बिता दी, सोहन लाल ने मास्टरी करते-करते। भले कोई कार्मिक थर्ड ग्रेड अध्यापक हो या स्कूल व्याख्याता..मगर लोग उस कार्मिक को मास्टर साहब ही कहेंगे। लोगों की नज़र में कोलेज के प्रोफ़ेसर भी मास्टर हैं, उनको भी मास्टर साहब कहने की आदत बन गयी है..इन लोगों की। सोहन लाल भी, इससे अलग-थलग रहे नहीं। पहले जनाब सीनियर हायर सेकण्ड्री स्कूल सुमेरपुर में व्याख्याता थे, मगर जब इनकी सेवानिवृति नज़दीक आने लगी... तब इनकी क़िस्मत चमकी..! वे सीनियर डिप्टी का परमोशन पाकर, इस एलिमेंटरी दफ़्तर में आ गए। मगर, यह दफ़्तर उनके लिए आराम के स्थान पर सर-दर्द बन गया। तीन मंजिल ऊपर बने इस दफ़्तर में आने के लिए, रोज़ सीढ़ियां चढ़ने और उतरने का आनंद कैसा रहा होगा ? यह तो, उनका दिल ही जानें। हाम्पते-हाम्पते सोहन लाल सीढ़ियां चढ़ा करते थे, फिर कार्यालय में आकर धम्म से कुर्सी पर बैठ जाते थे सोहन लाल...वे इस इस अफ़सरी के रोमानी तुज़ुर्बे के लुत्फ़ को, कभी भूल नहीं पाए ? इधर इनका सीनियर डिप्टी बनना, और उधर इनके साहबज़ादे का पढ़ाई-लिखाई छोड़कर दिन-रात धारा-प्रवाह गालियाँ देने की आदत अपना लेना...महज़, सयोग कैसे हो सकता है ? इस होनहार लाडले पर गाली-छाया, उनके पड़ोसी के लोफ़र छोरे की प्रेत संगत ने डाली थी...पहले पड़ोसी का लोफ़र छोरा सुधरे, फिर सुधर पाते सोहन लाल के लख़्ते-ज़िगर। अब पत्ता पड़ा है कि, दुनिया के नक़्शे पर मक्खी सी टांग वाले अनजाने मुल्क से...विदेश मंत्रालय दोस्ती करने के लिए, उत्सुक क्यों रहता है ? हम व्यक्ति हैं, हमारे अड़ोसी-पड़ोसी पास के व्यक्ति हैं। देश विशाल है, उसके दूर-दराज़ के..!

सोहन लाल के पड़ोसी जानकी दास वर्मा स्टेट बैंक ऑफ़ बीकानेर एंड जयपुर कलेक्ट्रेट ब्रांच के मैनेजर थे, इसी बैंक से सरकारी विभागों के कार्मिकों का वेतन उठता था। यों वर्माजी सिर्फ़ शब्दार्थ और भौगोलिक स्थिति से, सोहन लाल के पड़ोसी थे। उनसे ताल्लुक़ात दोस्ती से कम, अरुचि से अधिक रहे थे। यह नापसंदगी जज़बाती होने का सवाल नहीं, क्योंकि जब सोहन लाल अपने मकान की सीढ़ियां हाम्पते-हाम्पते चढ़ते थे..और उधर वर्माजी दस-बारह फीट के लोन में डटकर फावड़ा चलाया करते, और सब्जियां उगाया करते थे। दिन में उनके घर प्याज-लहसन के तड़के की गंध सोहन लाल के ढाई कमरे में टहलती थी, रात को खाद-गोबर की महक। ओस्कर वाइल्ड की सलाह यही है कि, अपने पड़ोसी से प्यार करो..मगर हमारे सोहन लाल का पूरा ख़ानदान जुंझारू संस्कार का प्रतिनिधि रहा था, फिर भला सोहन लाल उनसे कैसे पटे ? अभी हाल में, एक और वारदात हो गयी। वर्माजी की तैयार की गयी लौकी की बेल ने, देश की आबादी सी ताबड़-तोड़ तरक्की की। अब सोहन लाल की खिड़की से, बस वह बित्ते-भर दूर थी। लौकी से ललचाकर, किसी के धैर्य की परीक्षा लेना उचित है क्या ? हुआ यूं, सोहन लाल की पत्नि ने उनको उकसा दिया और उन्होंने लंगर लगाकर एक लौकी तोड़ डाली। फिर उस लौकी के कोफ्ते बने, और दूसरे दिन लौकी की खीर बनाने का कार्यक्रम था। यों तो लौकी, सोहन लाल के परिवार की लोक-प्रिय सब्जी नहीं थी। मगर यह सब्जी मुफ़्त में मिल जाए तो, बुरा क्या था ? हमारे नेताओं को मुफ़्त की चप्पल खाने से परहेज नहीं है, उसी तरह सोहन लाल दफ़्तर में दूसरे कार्मिकों की मुफ़्त में चाय पीना बुरा नहीं मानते थे। अत: दफ़्तर से लौटकर सोहन लाल ने बांस पर हंसिया बांधा, और खिड़की खोलकर अपने लौकी-लपेट अभियान में जुट गए। एक दिन के इंतज़ाम में, क्या धरा है ? अपने कौशल और हाथ की सफ़ाई के कमाल से, कद्दावर लौकी फांसे...दो-तीन दिन की छुट्टी हो तो। पत्तों की शुरुआती सर-सर खर-खर के बाद, हंसिया निशान पर जा लगा। तब उनको याद आ गया बचपन, कैसे वे पुराने पतंग उड़ाया करते थे..अब उसी पैच काटने के अंदाज़ से लौकी को झकझोरने लगे। वह बेल से विदा लेकर, सोहन लाल के बांस की शरण में उलझ गयी। अपनी क़ामयाबी के कीर्तिमान पर सोहन लाल रीन्झ रहे थे कि, लूंगी लपेटे वर्माजी नीचे अवतरित हुए।

“क्यों बे, लौकी चुराता है ?” कुछ उनकी अनपेक्षित आवाज़ का आंतक और कुछ अंतर की अपराध-भावना से ऐसी कमज़ोरी आयी कि, बांस उनके हाथ से छूट गया सेबरजेट की स्पीड से। हनुमान-चालीसा का जाप करके आँखें खोली तो नीचे देखा, वर्माजी अपने बगीचे में चित्त पड़े थे। यहाँ तो, सोहन लाल के लौकी प्रयास में उनकी पत्नि उन्हें शास्त्र-सम्मत सहयोग दे रही थी। उन्होंने हाथ जोड़कर भगवान को धन्यवाद किया, और उन्हें बताया “ग़नीमत है, आपने इस बांस से सिर्फ़ वर्माजी की चाँद चटकाई। अगर कहीं, हंसिया होता तो...?”

इतने में शोर-गुल सुनकर, वर्माजी की पत्नि पार्वती वहां आ टपकी...और पतिदेव को वहां धाराशायी पाकर लगी, गाली-पुराण बांचने।

“ओsss.., मास्साब की बहू। आ नीचे। तेरी मां ने अजमा खाया हो तो, झट आ जा नीचे।” वह चीख़-चीख़कर, आसमान सर पर उठाने लगी “तेरे बाप की ज़मीन है यह, जो मर्ज़ी आये वह खिड़की से नीचे फेंक दिया ?”

“ख़बरदार। जो तूने मुझे, मास्साब की बहू कहा तो..! मास्साब होगा तेरा खसम, मेरे गीगले के बापू अफ़सर है शिक्षा विभाग के।” सोहन लाल की पत्नि चीख़ती हुई बोली।

“अफ़सर नहीं, भंगियों के ज़मादार होंगे...दस रोज़ पहले तो इस कोलोनी में तुम्हारे खसम फिरते-फिरते लोगों से पूछ रहे थे तुम्हारे घर में कितने पढ़े-लिखे हैं, और कितने हैं अनपढ़ ? गली-गली में मुंह डाले, फिरते थे...” ताना देती हुई, पार्वती बोली।

उसकी बात सुनते ही सोहन लाल की पत्नि को आया गुस्सा, और फटाक से वह सीढ़ियां उतरकर झट घुस गयी वर्माजी के घर में। और पार्वती को घसीट लाई बाहर, और लगा दी करारे तमाचों की झड़ी उसके कोमल-कोमल गालों पर। तमाचे लगाने के पीछे जो ज़ोश काम आ रहा था, वह था...सोहन लाल के अफ़सर बन जाने का। उसको भान हो गया था कि, ‘अब वह मास्साब की बहू न होकर, वह एक अधिकारी की पत्नि है।’

इतने में, लौकी-अभियान में हुए शिकार वर्माजी को आ गया होश। घर के बाहर हो रहे शोर-गुल को सुनकर, वे उठकर बाहर आ गए। अपने पति को आते देखकर, पार्वती के बदन में ज़ोश का संचार होने लगा और वह ज़ोर-ज़ोर से चीख़ने लगी “देख लूंगी..देख लूंगी। मेरा पति है, बैंक मैनेज़र...उसके आगे तेरा खसम भंगियों का ज़मादार, पानी भरता है।”

तब सोहन लाल भी नीचे उतरकर, आ गए वहां। उनको आया देखकर, वर्माजी ने उनकी कमीज़ का कोलर [गिरेबान] पकड़कर गुस्से में चीख़ते हुए उनसे कहने लगे “आज़ तो मैं तेरे मकान की इस खुली खिड़की को, नगर परिषद से बंद करवाकर ही रहूँगा। नगर परिषद के वार्ड मेंबर को चार पैसे खिलाकर, तूने यह खिड़की हमारे मकान की तरफ़ बनवा दी तो क्या..? इस तरह, तू पूरी कोलोनी को ख़रीद लेगा ? आख़िर, नियम भी होते हैं।”

खिड़की क्यों खोली..? इस सवाल पर, दोनों आये दिन लड़ पड़ते थे। उनके चीख़ने-चिल्लाने से मोहल्ले के बच्चे तमाशा देखने वहां खड़े हो जाते थे। इस तरह उन बेचारे बच्चों की पढ़ाई मारी जाती, और उन पर ग़लत प्रभाव पड़ता था। मगर, यह क्या ? आज़ भी, वही झगड़ा..? इस झगड़े बीमारी को दूर करने के लिए, अभिभावकों ने इस बार भी इन दोनों को समझा-बुझाकर इनका झगड़ा शांत करवाया। वर्माजी के मन में, कहीं शराफ़त के कीटाणु थे। वे मान गए, मगर घर में जाने के पहले सोहन लाल को चेतावनी देते गए “आगे से ध्यान रहे, न लौकी तोड़ना और न खिड़की से कचरा नीचे फेंकना।”

घर के अन्दर आकर, थके हुए सोहन लाल और उनकी पत्नि डाइनिंग रूम के सोफ़े पर धडाम से बैठ गए...उनके बैठते ही, वह पुराना सोफ़ासेट चरमरा गया। जब से वर्माजी का परिवार पड़ोस में रहने आया, तब से सोहन लाल की पत्नि इन्फीरियरटी काम्प्लेक्स से ग्रसित हो गयी। मगर जब सोहन लाल एलिमेंटरी दफ़्तर में सीनियर डिप्टी बने, तब से वह अपने-आपको एक अफ़सर की बीबी समझने लगी। और उसने, तपाक से सुपीरियरटी काम्प्लेक्स का जामा पहन लिया। फिर क्या ? पार्वती को करार ज़वाब देने का मौक़ा ढूँढ़ने लगी। जो इस लौकी-पुराण में, सहसा उसके हाथ आ गया। मगर, पड़ोसियों के बीच-बचाव कर देने से...वह अपने दिल की भड़ास, पूरी बाहर न निकाल पायी। फिर क्या ? भड़ास न निकाल पाने के कारण, वह अपने पति पर उबल पड़ी और उनको ताने देने लगी “दफ़्तर में सीनियर डिप्टी बनकर, आपने कौनसा तीर मार लिया ? क्या, आपने देखा नहीं ? जब हम सरकारी क्वाटर में रहते थे, तब हमारे पड़ोसी सवाई सिंहजी जो पुलिसिया महकमें में डिप्टी थे, उनके आगे-पीछे, कितने सारे पुलिस वाले उनकी ख़िदमत में खड़े रहते थे ? वह तो ख़ाली डिप्टी थे, मगर आप तो सीनियर डिप्टी है ना ? जानते नहीं, आप ? आपकी इस पत्नि को आज़, ऐरे-ग़ैरे नत्थू सरीखों से मुक्की खानी पड़ी।” फिर आगे और अपनी भड़ास बाहर निकालती हुई, सोहन लाल को ताना देती हुई उनसे कहने लगी “सही कहते हैं लोग, तुम तो ठहरे भंगियों के ज़मादार..? कम से कम आप भंगियों के ज़मादर भी होते, तो अच्छा था....मेरे लिए। फटाक से इन भंगियों को तो, बुला लेते....तो आज़ इस तरह मेरी इज़्ज़त का पलीता तो न बनता ?” बेचारे सोहन लाल अपनी पत्नि को कैसे समझाते कि, वे पुलिस महकमें के सीनियर डिप्टी न होकर शिक्षा विभाग के सीनियर डिप्टी हैं ? जिसके पास इतने पॉवर नहीं, जितने पॉवर पुलिस के डिप्टी के पास होते हैं। अब वे सोचने लगे “कैसे समझाऊं, इस मूर्ख को..? यह कमबख़्त इतना भी समझ नहीं रही कि, ‘उनके भूतपूर्व पड़ोसी डीवाई. एस.पी. साहब थे..उनके आस-पास पुलिस हर पल सुरुक्षार्थ तैनात रहती थी..उनके लिए, यह बात साधारण थी। उनसे बराबरी नहीं की जा सकती, क्योंकि वे थे पुलिस विभाग के, और हम ठहरे सीनियर डिप्टी शिक्षा विभाग के। इस शिक्षा विभाग में पुलिस कर्मी की सुविधा मिलना तो दूर, यहाँ तो रास्ते में खड़ा चपरासी सलाम नहीं ठोकता। उस दौरान हमें कोई सुविधा उपलब्ध नहीं थी, मगर हम डिप्टी साहब से अच्छे रसूख़ात रखते थे...तब उनकी दया पर, हमें छोटी-बड़ी सुविधा मिल जाया करती।’ अब यह बात, इस मूर्ख को कैसे समझायी जाए ?”

अपनी शान को बकरार रखने के लिए, वे अपनी पत्नि को इस तरह समझाने लगे “उनके कहने से, क्या होता है ? वे हमें भंगियों का ज़मादार कहें, या घसियारा ? मगर हम हैं, आख़िर..गज़टेड ऑफिसर। गज़टेड ऑफिसर का क्या मफ़हूम, वह पागल औरत क्या जानें ? गज़टेड ऑफिसर क्या होता है, वे बैंक वाले क्या जानें ? इसके बारे में तो, सरकारी मुलाज़िम जानता है। देख अभी मैं थाने में टेलेफ़ोन लगाता हूँ, फिर देखना क्या रौब ग़ालिब होता है ?” इतना कहकर, सोहन लाल ने क्रेडिल से चोगा उठाया और थाने के नंबर डायल करके वे बोले “ हेल्लो...पुलिस स्टेशन...? ... हाँ हाँ, जनाब मैं कमला नेहरू नगर की रामदेव गली के मकान नंबर ४२० से सोहन लाल सीनियर डिप्टी बोल रहा हूँ.....हाँ जनाब, गंभीर फौज़दारी का मामला है..आप फ़ौरन आ जाइए।” चोगे को क्रेडिल पर रखकर, सोहन लाल बोले “अब देखना, क्या इफ़ेक्ट पड़ता है ?”

इस फ़ोन को सुना, थाने के हवलदार शान्ति लाल ने। जो जनाब ठहरे पूरे नशेडी, वे रोज़ सुबह-शाम भंग का गोला चढ़ाया करते थे। फिर उसके बाद, लगभग किलो-भर रबड़ी का भोग लगाया करते। उनकी आदत एक ही ख़राब थी, जनाब भंग के नशे में बात को आधी सुना करते...और बाद में अपनी तरफ़ से कुछ मसाला जोड़कर, थानेदार साहब को सुना देते।

फिर क्या ? थानेदार साहब के थाने में आते ही, उन्होंने इस तरह इस मामले को परोसते हुए कह डाला कि, “साहब, आपके बाहर जाने के बाद डिप्टी साहब का फ़ोन आया, जो अभी-अभी नए ही आये हैं शहर में। उन्होंने कहा है कि, ‘कमला नेहरू नगर हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी में फौज़दारी केस हुआ है, बस आपको जाकर झट एक्शन लेना है।’ समझ गए, हुज़ूर ?”

थानेदार साहब को भी मालुम था कि, शहर में नए डीवाई.एस.पी ने कार्यभार संभाला है, वे यंग और स्मार्ट है। इस शहर में आते ही, उन्होंने अपनी धाक जमा ली है। उनका सन्देश सुनकर, थानेदार साहब की पी हुई मुफ़्त की शेम्पेन वाइन का नशा उड़न-छू हो गया। मुफ़्त के माल का नशा उड़न-छू हो जाना, दुःखदाई होता है। अत:, गुस्सा आना स्वाभाविक था। फिर क्या ? आव देखा न ताव, थानेदार साहब ने आदेश दे मारा “हेडकांस्टेबल जीप तैयार करो।”

जीप में बैठकर पुलिस टीम कमला नेहरू नगर हाउसिंग बोर्ड कोलोनी जा पहुँची, मकान नंबर ४२० के पास पहुंचते ही सभी पुलिस-कर्मी गाड़ी से नीचे उतरे। उन्होंने इधर-उधर अपनी निग़ाहें दौड़ायी, मगर उनको कहीं डिप्टी साहब नज़र नहीं आये। वहां मकान के बाहर खड़े सोहन लाल को देखकर, थानेदार झटपट सिंह बोले “कहाँ है, डिप्टी साहब..कहीं आपने देखा है, उनको ?”

“देखते नहीं, ये तुम्हारी आँखें है या आलू ? पांच फुट चार इंच का यह आदमी खड़ा है सामने, दिखाई नहीं देता ?” सीनियर डिप्टी सोहन लाल तपाक से, थानेदार झटपट सिंह के सामने आकर बोले।

सोहन लाल ने अपने बदन पर, लोकल मिल के सस्ते कपड़े से बने बुशर्ट और पतलून पहन रखे थे। बुशर्ट के भी दो बटन खुले हुए, सर के बाल बिखरे हुए और पांवों में दो पट्टी के हवाई-चप्पल धारण किये हुए सोहन लाल को देखकर झटपट सिंह हंस पड़े ठहाका लगाकर। हंसते-हंसते, उनके पेट के बल खुलने लगे।

“श्रीमान आप...और डिप्टी साहब हा..हा.. हा..। क्यों मज़हाक़ कर रहे हो, भाई ?” हंसते-हंसते, झटपट सिंह बोल उठे।

“यार झटपट। क्या इस मशखरे को, तूने डिप्टी साहब समझ लिया..क्या ? इस साले भंगियों के ज़मादर ने ‘खिड़की के झगड़े’ में मेरा सर-दर्द बढ़ा दिया, हफ़्ते में केवल एक छुट्टी मिलती है यार....वह भी रविवार की..! वह भी, इसने बरबाद कर डाली।” बैंक के मैनेजर वर्माजी ने अपने बचपन के यार झटपट सिंह को देखते ही, उसे सोहन लाल की सारी कारश्तानी कह डाली।

“क्या कहते हो, ऑफिसर..एक गज़टेड अफ़सर की बात का कोई महत्त्व नहीं ? हम हैं, गज़टेड अफ़सर...हमने फ़ोन किया है, क्या उसका कोई मायना नहीं ?” हाथ नचाते हुए, सोहन लाल बोले।

“मेरे हुज़ूर, आपने फ़ोन किया ? चलिए सही बात है...तुमने बुलाया और हम चले आये. डंडा घुमाए यों चले आये।” फ़िल्मी गाने की तर्ज़ पर, झटपट सिंह बोले।

सड़क के किनारे एक नीम का पेड़ था, उसके नीचे झटपट सिंह ने अपना दरबार लगाने की सोची....और झट सोहन लाल के घर से, कुर्सी-टेबल मंगवाकर पेड़ के नीचे रखवा दी। फिर कुर्सी पर बैठकर, झटपट सिंह सोहन लाल की ओर देखते हुए कहने लगे “अरे ओ फ़रियादी मिस्टर...अरे नाम भूल गया, बोलो क्या नाम है तुम्हारा ?”

“सोहन लाल। सुन लो एक बार, रेडियो केवल एक बार बोलता है..बार-बार नहीं समझे ? ख़ाक पुलिस वाले हो, नाम याद रखा नहीं जाता ?” सोहन लाल तड़कते हुए, बोले।

“कह रहा था, हमारे झटपट दरबार में सब बराबर है..कोई गजटेड-वज़टेड अफ़सर नहीं, समझे ? केवल फ़रियादी और विक्टिम और गवाह वगैरा।” झटपट सिंह बोल रहे थे तभी सोहन लाल पास पड़ी दूसरी कुर्सी पर बैठने की कोशिश करने लगे, मगर झटपट सिंह ने झट कुर्सी खींचकर आगे ले ली। इस तरह उनको बैठने नहीं दिया, फिर डंडा फटकारते हुए कर्कश सुर में सोहन लाल से कहा “खड़े रहो, बैठते कहाँ हो ? हमारे दरबार में मुलज़िम-गवाह वगैरा खड़े रहते है..क्या मास्टरी करते-करते, इतनी सी तहज़ीब भी भूल गए ?”

इतना कहने के बाद, झटपट भाई ने अपने दरबार की कार्यवाही प्रारम्भ कर डाली। अब वर्माजी से गहन वार्ता हुई, सारा किस्सा बयान करने के बाद वर्माजी ने सुझाव दे डाला “भय्या, ऐसी-वैसी कोई बात नहीं। सर पर लगी मेरे और तक़लीफ़ मैंने पायी..मगर फ़रियादी होते हुए भी मैंने आपको बुलाया नहीं। इन श्रीमानजी ने बुलाया होगा, दोषी होते हुए भी। पर भाई इंस्पेक्टर मैं नहीं चाहता, भाभी बीच में पड़े। मर्दों की लड़ाई में औरतों का क्या काम ? आख़िर पड़ोसी है, यार..पड़ोसियों के बीच खट्टा-मीठा चलता रहता है। इन बातों से बैर नहीं बांधा जाता, मेरे भाई।”

“अरे ओ मास्टर, खड़े-खड़े क्या मेरा मुंह ताक रहे हो ? जाओ, काग़ज़ की एक रिम और कार्बन पेपर का एक पैकेट लेते आओ। आलपिनें लाना भूलना मत, फिर कर लेना हम-सब के लिए चाय-कॉफ़ी का बंदोबस्त। एक बात और अपने दिमाग़ में बैठा देना कि, तुमने हमें बुलाया है..हमारा क़ीमती वक़्त बरबाद करने।” झटपट सिंह गरज़ते हुए बोल उठे, उनके आदेश की पालन करने सोहन लाल चले गए।

“यार वर्मा, हमारा यहाँ आना बेकार नहीं हो। सबक ज़रूर मिलना चाहिए, बच्चू को। दिल में आया, और घुमा दिया फ़ोन..? हम क्या, निक्कमें बैठे हैं ?” झटपट सिंह ने अंगड़ाई लेते हुए, कहा।

फिर क्या ? एक घंटे तक, कार्यवाही चली। दरबार की समाप्ति के वक़्त, झटपट सिंह ने हेडकांस्टेबल को आदेश दे डाला “जहाँपनाह को सरकारी गहने पहना दो, मेरे भाई। अब इनको, सरकारी महल ले जाना हैं।”

हुक्म की तामिल में हथकड़ी लिए, हेड कांस्टेबल सोहन लाल की ओर बढ़ा।

“रुको, रुको। क्या करते हो, भाई ?” हेड कांस्टेबल के क़दम थम गए, सत्ता-दल के नेता विजय कृष्ण नाहर की तेज़ आवाज़ सुनकर। विजय कृष्ण नाहर नज़दीक आकर, कहने लगे “घरेलू झगड़े में कहाँ पुलिस वाले दाल-भात में मूसल चंद बन, तपाक से टपक पड़ते हैं..? इंस्पेक्टर, आप इनको आपस में निपटने दीजिये।”

“हुज़ूर, फिर क्या ? आप इन दोनों को लाठियां थमा दीजिये, निपट लेंगे आपस में..और क्या ? हम दूर बैठे, तमाशा देखते रहेंगे।” इंस्पेक्टर ने इतना कहकर, नेताजी को कुर्सी पर बैठाया। कुर्सी पर विराज़मान होकर, नेताजी ने अपनी बुलंद आवाज़ में आगे कहा “भाई इंस्पेक्टर, ये दोनों हमारी कोलोनी के निवासी हैं...और, हमारी पार्टी के मतदाता हैं। इनको कोई तक़लीफ़ न हो, मैंने फ़ोन पर डिप्टी साहब से बोल दिया है। इस कोलोनी में शान्ति है, कोई बात नहीं। यह हमारा क्षेत्र है, छोड़ दो इन्हें।” नेताई अंदाज़ में, विजय कृष्ण नाहर बोल पड़े। इस हाउसिंग बोर्ड कोलोनी में, इनकी नेतागिरी की धाक को झटपट सिंह जानते थे। इस कारण वे इनसे पंगा लेना नहीं चाहते थे, क्योंकि झटपट सिंह जानते थे ‘ये आली जनाब सत्ता दल के नेताजी हैं....ये आली जनाब जब चाहे, सरकारी कार्मिकों के तबादला आदेश ला सकते हैं। कारण यह है, इनका कई मंत्रियों से अच्छे मित्रवत रसूख़ात हैं।’ आख़िर, होना क्या ? पुलिस-दल सूखी धमकी देकर, वहां से चला गया।

सुबह नींद से उठे तब उनके बदन में अफ़सरी का नया ज़ोश था, भुजाएं फड़क रही थी....बस, उसी ज़ोश में उलझ पड़े अपने पड़ोसी जानकी दास वर्मा एस.एस.बी.जे. कलेक्ट्रेट ब्रांच के मैनेजर से। अगर नाहर साहब वहां न आते तो परिणाम अच्छा नहीं रहता, बेचारे भले मानुष सोहन लाल महिला पर हाथ उठाने के आरोप में अन्दर धर लिए जाते। यह तो उनकी ख़ुशकिस्मती ठहरी, नेताजी ने वक़्त पर यहाँ आकर...इन्हें बचा लिया। अब रही-सही इज़्ज़त सलामत रह जाने की ख़ुशी में सोहन लाल, विजय कृष्ण के गले मिले। गले मिलने के बाद, विजय कृष्ण नाहर बोल पड़े “आपस में सुलह-समझौता करना ही अच्छा है, सोहन लालजी। अपने पड़ोसियों से मधुर व्यवहार रखना ही, अच्छे नागरिक का धर्म है। आख़िर, तुम तो जानते ही हो मुझे बुलाया किसने ? वर्मा की पत्नि ने फ़ोन करके, मुझे यहाँ बुलाया है। इस बच्ची ने तो यहाँ-तक हिदायत भी दे दी, ‘अगर आप नहीं आये..और, ऐसा-वैसा कुछ हो गया तो बाद में मत कहना।’ उसने आगे कहा ‘कि, सोहन लालजी का सहबज़ादा बंद कर देगा आपकी शागिर्दगी।’ आप सब लोग यह तो जानते ही हैं, यह सहबज़ादा गालियों का धाकड़ उस्ताद है..जो हमारी पार्टी का, युवा कर्मठ कार्यकर्ता भी है। वर्तमान समय में, ऐसे ही स्टूडेंट लीडर हमें चाहिए। अब हमारे दल की प्लानिंग यही है, ‘जो युवा सर्व श्रेष्ठ गाली बाज होगा, उन युवाओं चुन-चुनकर हमारी पार्टी राष्ट्रीय युवा परिषद में रखकर उन्हें सम्मानित करेगी...!’ ऐसे होनहार युवा का हमारी पार्टी से जुड़ने से, सीधा फ़ायदा हमें ही होगा..समझे ?”

इतना कहकर विजय कृष्ण नाहर ने अपनी ज़ेब से रुमाल बाहर निकाला, और अपने ऐनक के ग्लास साफ़ करते हुए बोले “सोहन लालजी लगता है, आप भुल्लकड़ किस्म के इंसान ठहरे..मिठाई खिलाने के मामले में। पिछले दो-तीन साल आपने गुहार की ‘भाई साहब, घर से बहुत दूर बैठा हूँ, मुझे नज़दीक ला दीजिये।’ फिर क्या ? हमने आपकी प्रार्थना पर गौर करके, आपका तबादला राजकीय सीनियर हायर सेकण्ड्री स्कूल बाप में करवा दिया। वाह भाई, वाह। काम बन जाने के बाद, आपने तो अपना मुंह हमें दिखलाना भी बंद कर डाला...? भय्या मुंह दिखलाते रहा करो, हम तो प्रेम के भूखे हैं..आख़िर, भक्त हैं उस कृष्ण कन्हैया के।”

“चलिए भाई साहब, पहले अन्दर चलिए। फिर आप जो हुक्म देंगे, वह तैयार है आपकी सेवा में।” सोहन लाल नाहर साहब से बोले, और साथ में वर्मा परिवार को भी अन्दर चलने का निमंत्रण दे बैठे।

“वर्माजी अन्दर चलिए ना, यहाँ काहे खड़े हैं आप ? ऐसी नोक-झोक तो, पड़ोसियों के बीच होती रहती है।” वर्माजी से इतना कहकर, सोहन लाल ने उनकी पत्नि पार्वती को भी निमंत्रण दे डाला “भाभीजी आप भी चलिए न, अन्दर। रसोई में जाकर चखकर बताना कि, आपके बगीचे की लौकी की खीर कैसी बनी ?”

सभी सोहन लाल के घर में घुसे। जब सोहन लाल का तबादला गवर्मेंट सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल, बाप में हुआ तब उनको बाप जाने के लिये कई बसें और जीपें बदलकर बाप पहुँचना पड़ता था। ऐसा डेज़र्ट प्लेस उन्होंने अपनी लाइफ में, कभी नहीं देखा था..जहां आने-जाने में ही उनका बदन का पानी, भाप बनकर उड़ जाया करता। इस बाप ने तो उनकी भाप निकाल डाली, और बेचारे ऐसी स्थिति में आना-जाना करते दिल का रोग ले बैठे। कहते हैं, जीवन अनुभव की पाठशाला है। इस घटना से सोहन लाल समझ गए कि, ‘जो आदमी कर्तव्य के प्रति निष्ठावान हो, वही आदमी सदा सुखी रहता है।’ इस तरह बाप में कर्तव्य निष्ठा दिखलाने पर, इनका तबादला हो गया सीनियर हायर सेकेंडरी स्कूल सुमेरपुर में। यहीं सुमेरपुर रहते-रहते वे पदोन्नति पा गए, और बन गए पाली एलिमेंटरी दफ़्तर के सीनियर डिप्टी।

अब सबने पकोड़े और खीर खानी शुरू की, मुंह में पकोड़े रखते हुए नाहर साहब बोले “सोहन लालजी आदमी वही होता है, जो सीढ़ी-दर-सीढ़ी उन्नति करता रहे। भाई तुम्हारा भी यही केस है..देख लो, पहले तुम्हें बाप लाया और फिर सुमेरपुर फिर इसके बाद एलिमेंटरी दफ़्तर में।” सुनकर अवाक रह गए, सोहन लाल ? और भूल गए, उन्हें क्या खाना है ? फिर क्या ? बेचारे सोहन लाल ने पकोड़े के स्थान पर, मिर्च उठाकर मुंह में डाल दी। जो जाकर उनके गले में अटक गयी, फिर खो-खो करते पानी पीया और फिर नाहर साहब से बोले “हाँ, भाई साहब। सीढ़ी-दर-सीढ़ी उन्नति करना अच्छा है, बस आपकी मेहरबानी हम पर बनी रहे।” इतना कहकर, वे अपने होंठों में ही बोले “आपकी मेहरबानी से बाप में दिल का मरीज़ बना, और अब तीन मंजिल ऊपर बने एलिमेंटरी दफ़्तर की सीढ़ियां रोज़ चढ़ता हूँ....”

सोहन लाल ने, प्रभु को धन्यवाद दिया। इस तरह वे पड़ोसी और नेताजी को, खीर-पकोड़ों का भोग लगाकर अच्छा नागरिक बनने का आश्वासन पा गए।

पाठकों।

यह अंक २३, आपने पढ़ लिया होगा ? अब आप समझ गए होंगे कि, अच्छा नागरिक बनने के लिए इंसान को क्या-क्या जुगत जुटानी पड़ती है ? सीधे-सादे सरल प्रवृति के सोहन लाल को अच्छा नागरिक बनने का आश्वासन पाने के लिए, उनको अफ़सर शाही को दूर रखकर पड़ोसियों से हाथ मिलाना पड़ा। पुलिस जैसे महकमें में, अफ़सर शाही चल सकती है...मगर शिक्षा विभाग जैसे महकमें में अफ़सर शाही को दूर रखकर, प्रेम से अपना काम निकलवाना पड़ता है। चाहे अगला आदमी मास्टर हो, या बाबू या फिर चपरासी। सबसे हिल-मिलकर काम करने वाला, निष्ठावान और कर्मठ अधिकारी या कार्मिक बन सकता है।

अब इस अंक के बाद, आप पढेंगे अंक २४ “एक दिन का सुल्तान”। पुस्तक ‘डोलर-हिंडा’ के हरेक अंक को पढ़कर, आप मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com और dineshchandrapurohit2018@gmail.com पर अपने विचार प्रस्तुत करें....यही मेरी आपसे गुजारिश है।

शुक्रिया।

दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक – पुस्तक “डोलर-हिंडा’]

निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: स्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक 23 - अच्छा नागरिक - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
स्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक 23 - अच्छा नागरिक - लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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