संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “ डोलर-हिंडा ” का अंक १७ “ फड़सा पार्टी ” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित पिछले अंक यहाँ पढ़ें - अंक - 1 //...
संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक १७ “फड़सा पार्टी”
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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लगभग हर सरकारी महकमें में, कुछ होश्यार किस्म के फालतू जीव पनपते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि, ये ही लोग महकमें की रौनक, विद्यालय के लिए सर-दर्द व कार्यालय में काम बिगाड़ने वाले होते हैं। ऐसे लोग कभी जिम्मेदारी का काम नहीं करते..चाहे वे विद्यालय में हो या कार्यालय में, यह बात ज़रूर है कि “नेतागिरी इनके ही हिस्से में आती है।”
ऐसे चरित्र वाले लोगों की एक मंडली बन जाया करती है, इस मंडली में आदमी की उम्र और योग्यता नहीं देखी जाती..जितनी देखी जाती है, उस आदमी की वाचालता, और ख़बरें पाने की ध्राण-शक्ति।” इसी मंडली के लोग अधिकतर सुबह-शाम पान अरोगने और रात को डीनर लेने के बाद, पाली शहर के ज़्यादा चहल-पहल वाले स्थान सूरज पोल पर इकट्ठे हो जाते हैं। उस वक़्त वे चाय की होटल के बाहर रखी बेंचों पर, कौओं की तरह बैठे नज़र आते हैं। यहाँ बैठकर, दूसरों के खपरे गिनना ही इनका मुख्य काम होता है। इसी वज़ह से विभाग के कर्मचारी, इन्हें फड़सा पार्टी के नाम से संबोंधित करते हैं।
विद्यालयों में अक्सर इस तरह के जीव, शारीरिक-शिक्षक, पुस्तकालयध्यक्ष और प्रयोगशाला-सहायक के पदों पर आसीन नज़र आते हैं। इनके पास कोई ख़ास कामकाज न होने से, ये लोग किसी के फटे में अपना पांव घुसाने के काम को महत्त्व दे बैठते हैं। आख़िर करते क्या, बेचारे..? इनका जॉब-चार्ट ही कुछ ऐसा है, कोई प्रधानाध्यापक या प्रधानाचार्य ऐसा माई का लाल पैदा नहीं हुआ जो उनको पीरियड लेने को मज़बूर कर सके..? जब पीरियड न लें तो, इनके पास वक़्त ही वक़्त..जिसे बिताना इनके लिए मुसीबत। कहते हैं, निक्कमा बनिया क्या करता..? इधर के तोले लेकर उधर रखता है, और उधर के तोले इधर रखता है। बस हमारी फड़सा पार्टी, ग्रामीण मिडल स्कूलों में भी यही रोल प्ले करती है। बस, फिर क्या ? गाँव वालों और अध्यापकों के मध्य, नारद मुनि का रोल खेलने की..इनकी प्रवृति बन जाया करती है। इस तरह, महाभारत का रोमानी मंज़र पैदा करना इनके लिए आसान काम ठहरा। आख़िर करते क्या, बेचारे ? मन लगता नहीं इनका..इनको चाहिए बस्ती, जिससे इन लोगों का मनोरंजन होता रहे...उसी मनोरंजन के ख़ातिर ये लोग कभी-कभी प्रधानाध्यापक को अपनी उँगलियों पर नचाते हुए, स्टाफ़ में दो फाड़ बना देते हैं। ज़रासंघ की निर्मात्री महाअसुरी ‘ज़रा’ आज़ ज़िंदा होती तो ऐसे फाड़ देखकर, वह भी दांतों तले उंगली दबा देती।
यह कहानी गाँव सींगला की मिडल स्कूल की है, जो उस दौरान आउट ऑफ़ रूट पर स्थित थी । यानी स्कूल जाने के लिए, सही वक़्त पर...आसानी से वाहन नहीं मिलते थे। कहते हैं...कभी महा असुर भस्मासुर से बचने के लिए, देवताओं ने इस गाँव में शरण ली थी। उनको भस्मासुर के गुप्तचरों से बचने के लिए, असुरों के वस्त्र पहने रहना पड़ते थे। यही कारण था, जब भी ये देवता दिन के वक़्त घर से बाहर निकलते थे, तब इनको असुरों की तरह सर पर जानवरों के सींग का ताज़ लगाना पड़ता था। ताकि, वहां विचरण कर रहे भस्मासुर के गुप्तचर इनको असुर मान सके।
तदन्तर भस्मासुर तो हो गया, भस्म। और देवता भी चले गए, अपने स्वर्ग.. मगर वे छोड़ गए, गाँव में सींग लगाने की प्रथा। जिससे, इस गाँव का नाम सींगला रख दिया गया।
सींग तो जानवरों की प्यारी चीज़ है, जिसे बारहसींगा तो अपने सर पर राजमुकुट की तरह धारण करता है। मारवाड़ के ठाकुर तो आज़ भी इस “सींग” पर इतने कायल हैं कि, वे इसे अपने नाम के पीछे जोड़कर शासक बनने का दिवास्वप्न संजोये बैठे हैं। हमारा देश, आज़ाद क्या हुआ..? यह आज़ादी क्या मिली, इन जातियों को ? आज़ाद होते ही, स्वर्ण जाति, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति व पिछड़ी जाति इस “सींग” को अपने नाम के पीछे लगाने के लिए उतावले हो गए। बाली हायर सेकेंडरी स्कूल में पहले कभी, वरिष्ठ लिपिक प्रताप मलजी राव नौकरी करते थे। उनके बेटे बाबू लाल ने ठाकुरों के समकक्ष नज़र आने के लिए, उनकी तरह सींग लगा दिया अपने नाम के पीछे। तब भय्या बाबू लाल, बाबू लाल की जगह बन गए बाबू सींग। सींग ग्रहण करते ही बेचारे आ गये संदेह के घेरे में, जब उनको आरक्षित जाति का प्रमाण-पत्र लेने एस.डी.एम. के सामने खड़ा होना पड़ा..उस वक़्त इस सींग के कारण बेचारे एस.डी.एम. समझ न सके कि, इस छोरे की असली जात कौनसी है ? आज़ का ज़माना, किसी की जात पूछने का नहीं रहा,..! जात पूछते ही, आज़ का नागरिक अपना अपमान समझ बैठता है। बस बेचारे एस.डी.एम. साहब सोचते रहे “यह सींग यानी सिंह, कैसे आरक्षण के दड़बे में घुस पड़ा ?” एस.डी.एम. साहब जानते थे, ‘मार्ग में अगर ये सींग वाले गुज़रते थे, तब इन आरक्षित जाति वालों को अपनी जूतियाँ उतारकर परे हटना पड़ता और इन सींग वालों को रास्ता देना पड़ता था....ताकि, ये केसरी सींग आराम से सबको दीदार देते हुए वहां से गुज़र सके। फिर, यह कैसे ? जिन जाति वालों से ये सींग वाले अपनी जूतियाँ उठावाया करते थे, अब ये ही लोग इन्हीं अछूत जातियों के समुदाय में जाने के लिए काहे होड़ लगाये बैठे हैं ?’ एस.डी.एम. साहब को ‘बाबू सींग वाला प्रकरण’ फर्ज़ी लगा, इस तरह बेचारा प्रताप मलजी राव का सपुत्र बाबू लाल सींग लगाने के कारण वंचित रह गया, आरक्षण पाने में..!’ आरक्षण न मिलने पर उसकी आँखें खुली, और उसे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ कि, ‘आज़कल का ज़माना, सींग लगाने का न रहा। अगर सींग लगा दिए तो हम, सरकार से मिलने वाले आरक्षण के फ़ायदे से वंचित रह जायेंगे।’ इस तरह अपने नाम के पीछे सींग लगाने का अर्थ है, आरक्षण के लाभ से दूर होना। फिर क्या ? जैसे ही यह ख़बर व्यंगकारों को मिली, और उनकी कलम मचल उठी..और इस कलम से व्यंगात्मक तहरीरें उन बेचारों पर लिखी जाने लगी, जो बेचारे फ़र्जी ठाकुर बनने चले थे और ज़माने की मुक्की खाकर नीचे आ गिरे..! फिर क्या ? इन व्यंगकारों की कलम से बचने के लिए, ये बेचारे दौड़ पड़े..जहां उनके सींग समाये।
राजनीति भी रंग ली गयी, इन सींग वालों से..जहां उनका स्वार्थ टकराता है वहां सींग मारने दौड़े चले आते हैं..भय्या अब तो ज़माना आ आया है, इन सींगों से बचने का। जिसका एक ही उपाय है, चोला बदलना। अध्यापक में यह पहला गुण होना चाहिए कि, वक़्त को देखकर चोला बराबर बदलता रहे। स्कूल में रहे तब-तक प्रधानाध्यापक को लुभाने वाली बातों का चोला पहने रहे, यानी उनकी चमचागिरी करते रहे। और स्कूल से बाहर निकलते ही, गाँव के केसरी सिंह नाहर यानी सरपंचजी के “मुरीद” रूपी चोला पहन लें। जैसे ही मार्ग में गांव के केसरी सिंह नाहर यानी सरपंचजी के दीदार हो जाय तो, झट “जय माताजी” बोलते हुए उनको नीमतस्लीम करना अध्यापक का परम-धर्म है। “जय माताजी” कहने के भी, कई रूप हैं। अगर सरपंचजी ठाकुर है तो अध्यापक को अपने पाँव से जूते उतारकर, उनके निकलने का मार्ग छोड़ना होगा। फिर उनके सामने सर झुककर “जुहारजी” या “खम्मा घणी अन्नदाता” जैसे मक्खन से लबरेज़ शब्दों का इस्तेमाल करके, उनका अभिवादन करना होगा। गाँव के इस केसरी सिंह नाहर के गुज़र जाने के बाद, अध्यापक भाई अपना सर ऊपर उठाकर प्रस्थान कर सकता है। इस तरह उनकी नज़रों में, अध्यापक की इज़्ज़त बढ़ जायेगी। तत्काल इनके व्यवहार से ख़ुश होकर ठाकुर साहब यानी सरपंचजी अध्यापकजी के पास भेज देंगे निमंत्रण, और अपने कामदार के साथ कहलायेंगे “पधारिये गुरूजी, हमारे दीवानख़ाने..शाम की महफ़िल की रौनक बनने।” यदि सरपंचजी महाज़न है तो, अध्यापकजी को अपनी पादुका उतारने की कोई ज़रूरत नहीं। दुर्भाग्य से उन्होंने अध्यापकजी को जूत्ते उतारते देख लिया तो, सरपंचजी की शामत आ जायेगी। कच्चा दिल रखने वाले सरपंचजी दौड़ पड़ेंगे, जहां उनके सींग समाये। ऐसे सरपंचजी को अध्यापक सामान्य मुद्रा में मात्र “जय जिनेन्द्र” या “मुजरोसा” कहकर, अपना काम चला सकते हैं।
सरपंचजी के ब्राह्मण होने से अध्यापकजी का गौरव स्वमेव बढ़ जाएगा, सभी जानते हैं पुरातन काल में गुरुकुल ब्राह्मण ही चलाया करते थे...जहां वे बच्चों को शिक्षा देते थे। अत: ब्राह्मण सरपंचजी के विचारों में ‘अध्यापन जैसे पावन कार्य करने वाले अध्यापक, संत से कम नहीं होते।’ ऐसे सरपंचजी के चरण-स्पर्श करके, अध्यापक को अपने मुख से “पायलागू पंडितजी” शब्द इतना ही कहना होगा। फिर क्या ? सरपंचजी के मुख से, आशीर्वाद की झड़ी लग जायेगी। इसके साथ, अध्यापकजी से हुए सारे गुनाह हो जायेंगे माफ़। कहते हैं श्री राम ने रामेश्वर शिव लिंग की स्थापना करने के बाद, ब्राह्मण राजा रावण को प्रणाम किया, तब ब्राह्मण राजा रावण ने ख़ुश होकर उनको आशीर्वाद दिया “विजयी भव”, यह भी न देखा रावण ने कि ‘अपने शत्रु को विजय होने का आशीर्वाद, देने से क्या होगा ?’ तब ही कहा गया है, “ब्राह्मण भोली जात, वह क्या लड़ना जाने ? जो करे प्रणाम, उसे आशीष बखाने।” बाकी रहे मेघवाल, कुम्हार, चौधरी आदि सरपंचों को, अध्यापक भाई मात्र “राम राम सा” कहकर अपना काम चला सकता है। इनके लिए विशेष कोई अदाकारी की कोई ज़रूरत नहीं। मगर ऐसा भी कभी अवसर आ जाय, कहीं एक स्थान पर चौधरी, शेख, ब्राह्मण, और बाबाजी एक साथ दिखाई दे जाय, तो चतुर अध्यापक यही कहेगा “राम राम चौधरी, सलाम मियांजी, पायलागू पंडितजी दंडोत बाबाजी।” हमारा मफ़हूम बस यही है, ‘जैसी परिस्थिति हो उसके अनुसार अध्यापक भाई ढल जाय, तो वह पिछड़े हुए गाँव में राज़ कर सकता है।’
गाँव सींगला है, बाहुबली ठाकुरों का गाँव। ठाकुरों का ‘गौरव और हठ’ आज़ भी, गाँव में अचल है..इसमें अभी-तक कोई अंतर नहीं आया है। पुरानी परम्पराओं को ढ़ोते-ढ़ोते इन गाँव वालों की कमर हो गयी है टेडी, फिर भी इनकी आन-बान मियांजी की टांग की तरह ऊंची है। कहते हैं, एक बार मियांजी दंगल में नीचे गिर गए...तब उनके शागिर्द चिल्लाए “उस्ताद, आप हार गए।” तब अपनी एक टांग ऊँची करके, मियांजी बोल पड़े “अभी हमारी टांग ऊंची है, हम हार नहीं सकते।” इस तरह गांव के ठाकुर आर्थिक विपिन्नता से जूंझ रहे होंगे, मगर इनके बेटे-बेटियों के विवाह में दारु की महफ़िल ज़रूर जमेगी और उस महफ़िल में ढोलानियें दाकूड़ी ज़रूर गायेगी और नोटों की बरसात भी ज़रूर होगी। आप सोच सकते हैं, चाहे दुनिया चाँद पर पहुँच गयी है..मगर, सींगला ग्रामवासियों का दायरा वही है ‘नदिया की पाल से, हनुमान टेकड़ी तक।’ तब ही गाँव की पोल के पास, इन ठाकुरों ने एक बोर्ड लगा रखा है। जिस पर, लिखा गया “गाँव में प्रविष्ट होने वाले सज्जनों को हिदायत दी जाती है कि, वे अपने वाहन यहीं रख दें। उस पर सवार होकर, गाँव में प्रवेश करना सख़्त मना है। अन्यथा कोई नुक्सान हो गया तो, उसकी जिम्मेवारी आप की ख़ुद की होगी।”
अब आइये आप, गाँव की मिडल स्कूल के हेडमास्टर की जानकारी लेने। बेचारे बड़े सज्जन ठहरे, जो विद्धवान पुरुष ज़रूर है..मगर, गाँव की बदक़िस्मती से वे दलित जाति के ठहरे। और इस सरकार ने इस बात पर गौर नहीं किया कि, इस गाँव में उच्च जाति के रुढ़िवादी ठाकुर ज़्यादा रहते हैं..वहां इनको पदोन्नति देकर, इस स्कूल में लगाये जाने से क्या समस्या आ सकती है ? बेचारे हेडमास्टर साहब को, क्या पत्ता..? सींगला गाँव है, बाहुबली ठाकुरों का गाँव..यहाँ आने पर इन ठाकुरों के तेज़ से इनका क़द छोटा हो सकता है। यही कारण रहा, वे इस गाँव में न रहकर नज़दीक शहर में जाकर रहे...और वहां से उन्होंने रोज़ स्कूल आना-जाना बस से प्रारंभ कर डाला। बस से रोज़ आना-जाना कोई आसान काम नहीं, इस तरह रोज़ बस से आने-जाने से बेचारे थक गए। भाग्यवश ऊपर वाले ने इनकी दुर्दशा को देखा, और इनके हाथ लग गया ठाकुर जंग बहादुर सिंह को अनुग्रहित करने का अवसर। न जाने ठाकुर जंग बहादुर सिंह का कपूत बेटा, कैसे कम उपस्थिति के कारण परीक्षा में बैठने के क़ाबिल न रहा ? बस, फिर क्या ? काम निकल गया, हेडमास्टर मस्का लालजी का। बस, दूसरे ही दिन बड़े ठाठ से मस्का लालजी गाँव में किराए के मकान से बैग लिए बाहर निकले...स्कूल जाने के लिए। उसी दिन स्कूल के स्टाफ़-रूम में चाय की चुस्कियां लेते हुए, वे बहक गए और बंशी लाल चपरासी को कहने लगे “ओय बंशिया, देखा तुमने ? अब इस गाँव ने, आधुनिकता अपना ली है। आख़िर, मुझे इसी गाँव में किराए का मकान मिल गया भाई..अब तू चाय के प्याले, अलग-अलग मत रख। और छोड़ दे, हमारे लिए अलग मटकी भरना..अब हम सभी, एक ही मटकी से पानी पियेंगे।” मस्का लालजी को, गाँव में मकान क्या मिल गया..? उनको तो ऐसा लगने लगा, उन्हें महल मिल गया है। फिर क्या ? महलों के मिजाज़ उनके मानस पर छा गए, और वे सोचने लगे ‘हम भी, ठाकुरों से कम नहीं हैं। हमारे पास भी ओहदा है, सरकार का दिया हुआ..स्कूल के हेडमास्टर की कुर्सी कोई गाँव के सरपंच से कम नहीं।’ उधर एक दिन नापट [नाई] बंशी लाल ने ढ़ोलियों का इतिहास बांचकर, उनको भरोसा दिला दिया “जुहारजी हेडमास्साब, आप मालिक जात रा ढ़ोली हुया तो कांई हुयो सा ? हो तो राठोड़ों रा ढ़ोली, राजपूतां सूं उपज्योड़ा। ठाकर-वंस रा, सिरदार हो सा।” बस, फिर क्या ? बंशी लाल की मस्कागिरी ने बेचारे हेडमास्टर साहब इतना ऊपर चढ़ा दिया कि, ‘अब वे अपने-आपको उच्च वंश का ठाकुर ही समझने लगे..झूठी तारीफ़ से, उनके पाँव ज़मीन पर न पड़ रहे थे।’ अब, आगे क्या होगा ? इसकी फ़िक्र, इस बंशी लाल को क्यों...? वह तो जाति-स्वभाव के कारण मज़बूर था, लोगों की झूठी तारीफ़ करके उनको राई के पहाड़ पर चढ़ा देता। और फिर आगे होने वाले ख़िलका का इन्तिज़ार करता, वह मन ही मन यही कहता “चढ़ जा बेटा सूली पर, भला करेगा राम।”
फिर क्या ? मस्का लालजी ने इतिहास की कई पोथियाँ पढ़ डाली, और समाजोपयोगी शिविर आयोजित करके प्रशिक्षण के नाम वार्ता के लिए कई पोथियाँ बांचने वाले भाटों को स्कूल में इकठ्ठा कर डाला। और उस गोष्ठी का नाम दे दिया, उन्होंने “दलित समाज की ज्योति” और गोष्ठी में मुख्य अतिथि का हार पहना दिया, अपने मकान मालिक जनाब जंग बहादुर सिंह को। बस, यहीं ग़लती हो गयी हेडमास्टर मस्का लालजी के खाते में। जिसका कटु परिणाम बाद में, उनको भुगतना पड़ा।
हेडमास्टरी का जोश और फ़र्जी ठाकुरों का देदीप्यमान वंशज का तेज़, मस्का लालजी बर्दाश्त नहीं कर पाए। चादर से पाँव, बाहर निकाल बैठे। फिर क्या ? वे रोज़ आना-जाना करने वाले अध्यापकों पर, ‘उनके देर से आने, और जल्दी स्कूल से चले जाने का आरोप’ लगाते हुए उनके खिलाफ़ अनुशासनिक कार्यवाही करने की धमकी भी साथ में देने लगे। इस तरह रोज़ टोका-टोकी करते रहने से, नाराज़ अध्यापकों ने उनको भैरिये राक्षस का ख़िताब नवाज़ दिया। इस दौरान इन्होने हमारी फड़सा पार्टी के कर्मठ सदस्य राजेंद्र सिंह शारीरिक शिक्षक को, अमानवीय तरीक़े से प्रताड़ित कर डाला। मक़बूले आम बात है ‘प्राइवेट बस बेचारी जब आगे बढ़ती है, तब वह पैसेंजरों से पूरी भर जाती है।’ इस कारण प्राइवेट बसें, अक्सर शिक्षकों को देरी से गाँव पहुंचाया करती थी। मस्का लालजी को तो रोज़ का आना-जाना करना नहीं, फिर वे क्या जानें रोज़ आना-जाना करने वाले शिक्षकों की पीड़ा..? इस तरह रोज़ इनके कड़वे शब्द सुनना, शारीरिक शिक्षक राजेंद्र सिंह को बर्दाश्त नहीं हुए। अत: वे बस की जगह, रोज़ अपनी मोटर साइकल ‘हीरो-हांडा’ से आना-जाना करने लगे। फिर क्या ? अब इनकी मोटर साइकल रोज़ धूल उड़ाती हुई, बिगड़े सांड की तरह गाँव में घुस जाया करती। और इसके पीछे, लग जाती गाँव की बानर सेना। जो इन महाशय के डील-डोल को देखकर, छुपी आवाज़ में वह बानर सेना कह बैठती “हाथी पर हाथी बैठा है, कैसा ज़माना आया है ?”
एक बार ठाकुर जंग बहादुर सिंह के छोरे का ऐसा ही दबा डाइलोग, उनके कानों में जा गिरा। फिर क्या ? आख़िर हमारे राजेंद्र सिंह भी ठहरे ठाकुर..उनके दिमाग़ में यह बात बैठ गयी “यह साला जंगबहादुर, है कैसा ठाकुर..? आख़िर, है कमबख़्त कम केरेट का ठाकुर..हाथ मिलाता है, इस ढ़ोले मस्का लाल से..? तब यह मर्दूद अपने बच्चों को, क्या संस्कार देता होगा ?”
स्कूल में जब चल रहा था, समाजोपयोगी शिविर..तब पी.टी.आई. को कहाँ ज़रूरत, वक़्त पर आने की ? क्योंकि, वहां तो ज़रूरत थी नए उभरते भाटों की..! जो ‘दलित समाज की ज्योति’ नामक गोष्ठी का प्रकाश उज़ागर करते रहें, और ज़रूरत थी ‘जय-माला पहनने वाले, रणबाँकुरे ठाकुर जंग बहादुर सिंह की।’ राजेंद्र सिंह ने यही सोचा कि, ‘इस वक़्त इनकी चम्पी में लगे हेडमास्टर मस्का लालजी, स्वयं शौध में व्यस्त हैं..अत: देरी से आने पर टोका-टोकी का विषय होगा नहीं..फिर भी कोई स्टाफ़ का बन्दा करे ऐतराज़, तो उनके व उनकी भाट मंडली के लिए मिष्ठान-नमकीन पड़े हैं हीरो-हांडा की टोकरी में। फिर, क्या फ़िक्र करना..?’ बस रेस दी गाड़ी को, और जा पहुंचे स्कूल के गेट के पर। जहां यमराज सा काला बदन, उस बदन पर बुगले के पंख की तरह सफ़ेद धोती-कमीज़ पहने ठाकुर जंगबहादुर सिंह अपने गले में महकते गुलाबों का पुष्प-हार धारण करके, अपनी झाड़ू-कट मूंछों पर एक हाथ फेरते नज़र आये। राजेंद्र सिंह पर उनकी नज़र गिरते ही, उन्होंने दूसरे हाथ में लगा रखी हाथ-घड़ी को देखा। फिर गुस्से से, राजेंद्र सिंह पर नज़र डाली। तभी गाँव के सरपंच ठाकुर जोरावर सिंह अपने बजुर्ग साथियों के साथ, उधर ही तशरीफ़ लाते नज़र आये। इस वक़्त उनके बीच में, पूर्व सरपंच ठाकुर जंगबहादुर सिंह द्वारा जवाहर-योजना में किये गए घोटाले पर चर्चा चल रही थी। तभी इन सबकी नज़र ठाकुर जंगबहादुर सिंह पर गिरी, ठाकुर साहब के गले में जय-माला पड़ी देख..सभी हंस पड़े। फिर क्या ? उनका साथ हमारे पी.टी.आई. राजेंद्र सिंह न देते, तो बात कैसे जमें..? उन्होंने हंसी के किल्लोर के साथ-साथ, जंगबहादुर सिंह की शान में कसीदे पढ़ते हुए ठाकुर जोरावर सिंह से कहां “दाजी, आप कहाँ रह गए, आप सबको जंग बहादुर साहब की बरात में साथ चलना था ? वाह क्या हाल है, हमारे ‘दलित समाज की ज्योति’ की गोष्ठी के अध्यक्षजी ठाकुर जंग बहादुर साहब के ?” राजेंद्र सिंह की बात सुनकर, ठाकुर जोरावर सिंहजी के लिए ज़रूरी हो गया, “जवाहर-योजना के आदरणीय घोटालेबाज़, जनाब जंग बहादुर सिंह के सम्मान में कुछ बोलना।” क्योंकि, वे जानते थे “जहाँ चार-पांच समान्नित गाँव-वाले इकट्ठे हो, उस वक़्त अपने सियासती दुश्मन की बख़िया उधेड़ना ही सफ़ल सियासती दाव हैं।” वे झटपट बोल पड़े “ठाकरां। क्या शानदार वरमाला पहनी है, आपने.?” फिर आगे उन्होंने एक दोहा पढ़ते हुए, कह डाला ‘कोई अरज़ कीधो है सा, क ‘बावंट पसार ढ़ोली मिळया, जय-माला पहनाय। अब तो ढ़ोल बजायसी, जंग बहादुर साहब।!’ कहिये, क्या बढ़िया अर्ज़ किया है ?’
ठाकुर जोरावर सिंहजी के साथ आये बुजुर्ग साथियों और पास में खड़े कई गाँव वालों ने, उनका दोहा सुना और सुनते ही, ठहाका लगाकर वे ज़ोर से हंसने लगे। इनको हंसते देखकर, जंगबहादुर सिंह आब-आब हो गए। अब पब्लिक प्लेस पर ‘तू तू-मैं मैं’ करनी ठाकुरों के स्वभाव में नहीं, बस बेचारे गुस्से को दबाये चुपचाप चल दिए अपनी हवेली की तरफ़।
दूसरे दिन, हेडमास्टर मस्का लालजी का घर-गृहस्थी का सामान घर के बाहर बिखरा हुआ था, और उनके किराए के मकान पर ताला लगा था। इस तरह जंगबहादुर सिंह ने अपने कामदारों के हाथ मस्का लालजी के घर-गृहस्थी का सामान बाहर फिंकवाकर, मकान के दरवाज़े पर ताला लगा दिया। यह काम पूरा करके, ठाकुर जंगबहादुर सिंह ने राहत की सांस ली। और होंठों में ही, बड़बड़ाये “चलो, समय पर ग़लती सुधार ली। अब तो ठाकुरों के बीच, हमारा हुक्का-पानी सुरुक्षित...”
इस तरह, मस्का लालजी अपने साथ हुए इस अमानवीय व्यवहार, और दलितों के प्रति अपमान को भूल नहीं पाए। इसका सियासती फ़ायदा ठाकुर जोरावर सिंह ने, अपने दोनों हाथों से उठाया। एक तरफ़ अपने सियासती दुश्मन जंगबहादुर सिंह के खिलाफ़, मस्का लालजी के हाथों अस्पर्श्यता और छूआ-छूत की शिकायत शिक्षा मंत्रीजी के पास भिजवा दी। और दूसरी तरफ़ अपने चार-पांच चमार हागड़ियों को चश्मदर्शी गवाह बनाकर, जंगबहादुर सिंह के खिलाफ़ उनके बयान दर्ज करवा डाले। इस तरह उन्होंने मस्का लालजी को, बिना दाम दिए ख़रीद लिया।
अब मस्का लालजी पछताने लगे, ‘उन्होंने ठाकुर जंगबहादुर सिंह को माला पहनाकर, कितनी बड़ी ग़लती की। इससे अच्छा होता, वे राज्य के मिनिस्टर कैलाश मेघवाल को बुलाकर मोगरे के सुगन्धित पुष्पों के हार पहना देते..? इससे कम से कम उनकी ए.सी.आर. रिपोर्ट तो बढ़िया लिखी जाती, और साथ में उनका तबादला उनके ख़ुद के स्थायी निवास-स्थान गाँव में हो जाता।’ इस घटना ने, मस्का लालजी यानी भैरिये राक्षस के नाखून पैने कर डाले। अब वे लगे, स्टाफ़ के बन्दों को नोचने..जो जातिगत ठाकुर थे। उनका पहला शिकार पी.टी.आई. राजेंद्र सिंह का बनना निश्चिन्त था, और वह भी सहजता से। उनको भ्रम हो गया कि, ‘इसी नामाकूल ने जंगबहादुर सिंह को भड़काकर, उनका मकान ख़ाली करवाया है ?’
थोड़े दिन बाद वेतन दिवस पर, मस्का लालजी वेतन केंद्र [मिडल स्कूल, मेला दरवाज़ा पाली] जाकर स्टाफ़ का वेतन ले आये। और वापस आकर उन्होंने, स्टाफ-रूम में स्टाफ़-मिटिंग ली। उस मिटिंग में अध्यापकों को संबोधित करते हुए, उन्होंने कहा “छात्र-कोष की दयनीय स्थिति को मद्दे-नज़र रखते हुए, वे अब “दलित समाज की ज्योति” की गोष्ठी में हुए मिष्ठान एवं नमकीन का व्यय भुगतान नहीं कर सकते।”
देखा जाय तो यह भुगतान, पी.टी.आई. राजेंद्र सिंह द्वारा हुआ था। अब उनको मिष्ठान और नमकीन के रुपये लौटाने की बात आयी तो, मस्का लालजी ने रुपये लौटाने से साफ़ इनकार कर दिया। राजेंद्र सिंह जानते थे, ‘उनका यह स्टाफ़ ऐसा है, जो एक-एक पैसा चोंच से पकड़ता है..ऐसे स्टाफ़ से पैसे वसूल करना, उनके लिए संभव नहीं।’ बस, अब तो उनको अपनी जेब से ही भुगतना होगा। यह सोचकर, वे मन-मसोसकर रह गए। फिर अपने दिल को राज़ी करने के लिए उन्होंने यह मान लिया, कभी पेट्रोल ख़र्च ज़्यादा हुआ होगा..? यह सोचकर, उन्होंने संतोष की सांस ली।
समय, बीतता गया। राजेंद्र सिंह और मस्का लालजी के मध्य जो खाई पैदा हुई, उसे भरने का कोई प्रयास नहीं किया गया। खाई के भरने के स्थान पर, वह खाई उन दोनों के मध्य बढ़ती गयी। फिर क्या ? शैक्षिक पीरियड लेने के लिए, मस्का लालजी उनको मज़बूर करते रहे। मगर, राजेंद्र सिंह के सर पर कोई जूं न रेंगी....इस तरह यह किया गया वार, वापस ख़ाली मस्का लालजी के पास लौट आया। उनके आदेश की अवहेलना होने पर, वे घायल शेर की तरह तड़फ उठे....और उन पर बौछार कर दी, स्पष्टीकरण के आदेशों की। ‘आप स्कूल देरी से, क्यों आते हैं ? गाँव वालों के साथ मिलकर, आप स्कूल के प्रशासन के खिलाफ़ षडयंत्र रचते हैं। आपने आचरण-सहिंता के नियमों की पालना, क्यों नहीं की ?’ वगैरा-वगैरा आरोपों के हर प्रहार का ज़वाब, वे महाभारत टी.वी.सिरिअल के पात्र अर्जुन के बाणों की तरह देते रहे। आख़िर इनके हर सवाल का माक़ूल ज़वाब देते-देते, बेचारे राजेंद्र सिंह थक गए। और एक दिन उनको स्टाफ़-रूम में बैठे-बैठे, नींद आ गयी। उनको नींद में पाकर, मस्का लालजी हो गए आपे से बाहर। झट उन्होंने इनका गिरेबान पकड़कर इन्हें उठाया, और उनसे तल्ख़ आवाज़ में कहने लगे “जाओ मिस्टर, क्लास में। यह सोने की जगह नहीं, समझे ?” अनुकूल ग्रहदशा न चलने के कारण, वे इस अपमान का घूँट पी गए..और बिना उनसे बहस किये, उसी वक़्त क्लास में चले गए।
मगर अगले ही दिन, मस्का लालजी बुरी हालत में स्कूल आये। उनके सिर और हाथ-पांवों पर, अस्पताल की कई पट्टियां बंधी पायी गयी। जब स्टाफ़ वालों ने उनसे ज़ख़्मी होने की वज़ह पूछी, तब उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि ‘कोई ख़ास बात नहीं, ज़रा सीढियों से नीचे गिरकर चोट खा गया..अब काफ़ी ठीक है।’ उस दिन के बाद, मस्का लालजी की मानसिक शान्ति छीन ली गयी। छुट्टी होने के बाद वे गाँव की किसी भी गली से गुज़रते, तब उस गली के बच्चों की बानर सेना का यह गीत गूंज़ उठता “ढ़ोला ढ़ोल मंज़ीरा बाजे रे, आंख्यां मारी छोरियां ने तू जूता खाया रे।” मस्का लालजी जैसे ही इस बानर सेना को डपटते, उसी वक़्त वहां खड़े उनके अभिभावक मस्का लालजी को कह दिया करते “छोड़ो गुरु, बेचारे बच्चें हैं। बेचारे गीत गाने का अभ्यास करते हुए, अपना जी बहला रहे हैं।” आख़िर खून का घूंट पीकर, वहां से खिसक जाने में ही मस्का लालजी अपना हित समझने लगे। क्योंकि, वहां उनकी इज़्ज़त धूल में मिलने की पूर्ण संभावना बनी रहती। तब उन्होंने समझ लिया, ‘ऐसी स्थिति बन जाए तो, उनका रणछोड़ बनना ही बेहतर होगा।’
समय बीतता गया। गणतंत्र दिवस भी नज़दीक आने लगा, स्कूलों में ज़ोर-शोर से उत्सव मनाने की तैयारियां होने लगी। मगर, सींगला मिडल स्कूल में ड्रम बजे नहीं। जिसका कारण था, राजेन्द्र सिंह ने लंबा अवकाश ले लिया। छुट्टी लेने का कारण यह था, ‘उनकी बहन खाना बनाते वक़्त ३० % जल गयी, और वह अस्पताल में एडमिट थी।’ इसलिए उन्होंने स्कूल की तरफ़ से ध्यान हटाकर, अपना पूरा ध्यान अपनी बहन की ख़िदमत में लगा दिया। इस वक़्त, उनके स्कूल में न आने से स्कूल में शान्ति छाई रही। मगर इस वक़्त नारद मुनि का रोल निभाने वाला चपरासी बंशी लाल. कैसे चुपचाप बैठा रहता ? उसके दिमाग़ में, नए-नए फितूर जन्म लेने लगे।
बस, फिर क्या ? एक दिन वह कक्षा आठवी के अध्ययनरत ठाकुरों के बेटों को इकठ्ठा करके, उन्हें सीख दे बैठा “आप सभी, कुलीन ठाकुरों के शहजादे हो। ज़रा सोचिये, आपके प्रिय पी.टी.आई. जी लम्बी छुट्टी पर चल रहे हैं..अब बताइये आप, उनके बिना स्कूल के छोरों को कौन करेगा कण्ट्रोल ? आप जानते नहीं, अनुशासन क़ायम रखना आप जैसे ठाकुर जागीरदारों का काम है..यानी, आपका धरम है। इस धरम को आप, सदियों से निभाते आ रहे हैं।” दूसरे शब्दों में उसका कहना था, दादागिरी करना आप-जैसे ठाकुरों का जन्म-सिद्ध अधिकार है..जो इस देश में सत्ता हासिल करने की पहली सीढ़ी है।
“खवासजी सा, आप मारग बताओ, म्होने। म्हा सैंग जणा, तयार बैठा हां।” एक सुर में, सभी ठाकुरों के बेटे बोल उठे। आख़िर, बोलेंगे भी क्यों नहीं ? बंशी लाल खवास के मक्खन से लबरेज़ शब्दों ने, उन पर खूब रंग चढ़ा दिया था। ठाकुरों की शान में कसीदे पढ़े जाने से, छोरे फूलकर हो गए कूप्पे। अपनी बात का असर होते देख, खवास बंशी लाल ने आख़िर चला दिया नारद अस्त्र। वह उनसे कहने लगा “करना क्या है ? जानते हो, स्कूल के छोरे ड्रम बजने से कण्ट्रोल में आते हैं। फिर क्या ? स्कूल में आप सभी सरदार सीनियर हो, बस ड्रम संभाल लो..और गणतन्त्र-दिवस की परेड और पीटी की तैयारी शुरू करवा दो, और क्या ? आपके काम से हेडमास्टर साहब भी ख़ुश, और आपके पी.टी.आई. जी भी ख़ुश हो जायेंगे।”
बस, फिर क्या ? बंशी लाल से प्रेरणा पाकर इन ठाकुर पुत्रों ने ड्रम संभाल लिये, और उन्होंने ड्रम बजा-बजाकर आसमान गूंज़ा दिया। उधर बंशी लाल का छोरा श्रवण, जो कक्षा सातवी में पढ़ता था। वह बन गया, परेड नायक। अब तो वह जोश में परेड के आगे चलता हुआ, पीछे चलने वाले छोरों को लेफ्ट-राईट, लेफ्ट-राईट ज़ोर-ज़ोर से बोलता हुआ उन्हें दिशा-निर्देश देने लगा। फिर क्या ? स्कूल के ग्राउंड में परेड की तैयारी को देख रहे, मस्का लालजी के कान में फुसफुसाकर कहने लगा “सरकार कैसी रही..? ठाकुरों को, ढोल पकड़ा दिए। वाह क्या, ढ़ोल पीट रहे हैं ? अन्नदाता, इतना बढ़िया ढ़ोल बजाना तो गाँव के ढोलियों को भी कहाँ आता है ? इतनी प्यारी धुन तो आज़-तक, हमने कभी गाँव के ढोलियों से भी नहीं सुनी।” फिर क्या ? बंशी लाल का कंधा थपथपाकर, मस्का लालजी ने अपने लबों पर मुस्कान फैला दी। आज़ कई दिनों के बाद, उनके चेहरे पर रौनक लौट आयी।
अवकाश ख़त्म होने के बाद राजेंद्र सिंह ड्यूटी पर लौटे, उनके आते ही बंशी लाल ने स्पष्टीकरण पियोन बुक में डालकर उन्हें थमा दिया। डायरी में उनके प्राप्ति-हस्ताक्षर लेकर, वह चलता बना। राजेंद्र सिंह ने काग़ज़ पढ़कर, अवाक रह गए। अपने होंठों में ही, कहने लगे “छुट्टियां ली मैंने, अपने अवकाश-खाते से। फिर, इस ढ़ोलिड़े का दिल क्यों जल रहा है ? अब यह बेवकूफ़, मुझसे पूछ रहा है ‘गणतंत्र दिवस की तैयारी का काम, क्यों नहीं करवाया..? उत्तर दो।’ अब ढ़ोले तुझको ऐसा ज़वाब दूंगा कि, तेरी सात पुश्तें यह सवाल पूछने के काबिल नहीं रहेगी।”
पाली शहर में सूरज पोल, ऐसा चहल-पहल का स्थान....जहां कहीं तो नमकीन की दुकान नज़र आती थी, तो कहीं मिष्ठान की दुकान। वहां खड़े खावण-खंडे, मिष्ठान-नमकीन ख़रीदने के लिए, बेचारे दुकानदारों पर इस तरह गिरते-पड़ते जा रहे थे....मानों सुगन्धित फूलों के ऊपर, मधुमक्खियां मंडरा रही हो। पान और गुटके के शौकिनों के लिए तो यहाँ की पनवाड़ियों की दुकानें, टाइम पास करने का स्थान बन गयी। यहाँ ये लोग पान या गुटका मुंह में ठूंसकर खड़े हो जाते और मुफ़्त में अख़बार पढ़ने का आनंद उठाया करते थे। ये पनवाड़ी भी अपनी दुकान पर भीड़ इकट्ठी करने के मामले में, पीछे रहने वाले नहीं। वे इन लोगों की सुविधा के लिए पोर्टेबल टी.वी. ओन करके, इन लोगों को क्रिकेट-कोमेंटरी देखने का अनुपम अवसर दे दिया करते थे। इसे वे, अपना फ़र्ज़ समझा करते। गली कूचे में दारु का ठेका भी पाली के पियक्कड़ों का चहल-पहल का स्थान ठहरा, जहां पुरुष दारु बेचते ही थे....मगर सांसी जाति की महिलाएं भी इन पुरुषों से दो क़दम आगे रहती थी..दारु बेचने में। वे हाथ से बनायी हुई देसी दारु मटकी में भरकर, यहाँ बैठ जाती थी। कई बार तो यह भी देखने में आया, ये उज्जड़ महिलाएं दस-पंद्रह क़दम दूर टेम्पो या सिटी बस स्टेंड के पास बैठकर...गाड़ियों से उतरने-चढ़ने वाली सवारियों को, फूहड़ भाषा में दारू ख़रीदने की खुले-आम गुहार लगाती थी। कई बार सीधे-सादे सभ्य आदमियों को बाज़ारू भाषा में बतलाती हुई, उनकी इज्ज़त दो टके की बना देती। सूरज पोल पर राजेंद्र टाकिज़ भी है, उस वक़्त मज़दूर-अमीर सभी को एक ही लाइन में खड़े होकर टिकट लेना पड़ता था।
फड़सा पार्टी के सदस्यों की पहली पसंद, ऐसे चहल-पहल वाले स्थान पर बैठना। अक्सर चाय की दुकान के बाहर रखी बेंचों पर, ये लोग बैठे हफ्वात हांकते दिखाई देते थे। ग्राहकों की तादाद बढ़ने के ख़्याल से, चाय वाला अपनी दुकान के बाहर दो-चार बेंचें ज़रूर रखा करता। जिसके पास पनवाड़ी की दुकान होने से, ये लोग पान-गुटका लेकर इन बेंचों पर बैठ जाते और गाय-भैंसियों की तरह उसे चबाते नज़र आते थे। कभी-कभी विशेष ग्राहकों की सुविधा के लिए, पनवाड़ी दुकान के फ्रिज में बीयर या इंग्लिश शराब ज़रूर रखता था। चाय की दुकान के बाहर बैठे फड़सा पार्टी के सदस्यों की नज़रें, चारों तरफ़ दौड़ा करती। इनकी ख़बरें प्राप्त करने की ध्राण-शक्ति, वहां सूरज-पोल पर होने वाली हर घटना-दुर्घटना, भीड़-भड़कम वगैरा मौक़ों पर इन्हें चश्मदीह गवाह के रूप में खड़ा करती थी। क्योंकि, इन लोगों को घटित घटना के पीछे यानी परदे के पीछे की इतनी विस्तृत जानकारी होती थी..जितनी सी.आई.डी. महकमें के अनुभवी गुप्त-चर खींव सिंह के पास नहीं रहती। अब हमारे समक्ष यह सवाल खड़ा हो गया कि, ‘दिन-भर अज़गर की तरह यहाँ पड़े रहने वाले ये लोग, प्रत्यक्षदर्शी कैसे हो गए..?’ ऐसा लगता है कि, महाभारत के किरदार संजय के पश्चात दिव्य-दृष्टि इन्हीं लोगों को प्राप्त हुई है। तभी इसी बात पर, बाबू सुदर्शन भी बगलें झांकने लग गए। जब इस मंडली के सरदार मास्टर राम रतन बोहरा ने, ज़िला शिक्षा अधिकारी यानी “बड़े भैय्या” की रिपोर्ट उनके सामने यूं की यूं ला पटकी। साहब ने कब सुदर्शन बाबू के घर लंच लिया, कब वे इनके साथ अमुख-अमुख स्कूल में निरिक्षण बाबत गए और बाद में अब कहाँ जायेंगे ? इस बात का जिक्र करते हुए राम रतन बोहरा ने, अपनी ध्राण-शक्ति की तारीफ़ करते हुए फड़सा पार्टी के सदस्यों को संबोधित किया “भाइयों। हमारी ख़बरें प्राप्त करने की ध्राण-शक्ति इतनी तेज़ है, जिसके आगे बड़ों-बड़ों के छक्के छूट गये..दो पल में ख़बर ला पटकते हैं, हम। अजी हम तो अगर गुप्तचर विभाग में होते तो, रोज़ हम रबड़ी-मलाई खाते। मगर, करें क्या ? आ गए बदक़िस्मती से, इस भिक्षा-विभाग में।”
“ख़ूब कहा, भा”सा..ख़ूब कहा। आप तो रियल में, बड़े काम की चीज़ हैं। वास्तव में, आपको तो गुप्तचर विभाग में होना चाहिए था।” राम रतन बोहरा को मक्खन के पहाड़ पर चढ़ाते हुए, ठाकुर गिरधारी सिंह बोल पड़े। “यही तो रोना है, यार। उस वक़्त, उस विभाग में कोई जगह ख़ाली नहीं थी।” मायूस होकर, राम रतन बोहरा बोल उठे।
“ख़ाली की क्या फ़िक्र करते हो, भा”सा ? उधर देखो, सामने कौन आ रहा है ? वह है सी.आई.डी, महकमें का अफ़सर, उसके पास कुत्तों को टहलाने की दो ज़ंजीरें थी। रोज़ इस वक़्त दो जासूसी कुत्तों को टहलाने जाता था। मगर, आज़ इसके हाथ में एक ही ज़ंजीर है। इसका एक कुत्ता, कल ही मर गया।” मुस्कराकर ठाकुर गिरधारी सिंह बोले, और सामने मिष्ठान-नमकीन की दुकान के पास से गुज़रते सी.आई.डी. अफ़सर की तरफ़ उंगली से इशारा किया। जिसने अपने हाथ में कुत्ते की ज़ंजीर थाम रखी थी, और वह कुत्ता उसके आगे-आगे दौड़ रहा था..अगर देखा जाय तो वह कुत्ते को नहीं दौड़ा रहा था, बल्कि कुत्ता उसे दौड़ा रहा था। उसे देखकर, सभी ठहाके लगाकर हंस पड़े। मगर, राम रतन बोहरा उसे देखकर भड़क उठे। वे नाराज़ होकर, कहने लगे “कमबख़्त। ध्राण-शक्ति मेरी तेज़ है, इसका मतलब यह नहीं कि मैं पुलिस का कुत्ता बन जाऊं ?”
“आपको कुत्ता कहकर, क्या हमें दोज़ख में जाना है ? हुज़ूर, हम कैसे आपको एक वफ़ादार प्राणी के ओहदे से नवाज़ेंगे ? हम जानते हैं हुज़ूर, आप कहाँ और वह कहाँ ? कल जो जासूसी कुत्ता मरा था, वह अपने मालिक की वफ़ादारी निभाता हुआ इस दुनिया से कूच कर गया...मगर, आप...?” गिरधारी सिंह बोले, और सामने से राजेंद्र सिंह को आते देख वे चुप हो गए। राजेंद्र सिंह ने मोटर-साइकल रोककर उसे स्टेंड पर खड़ी की..फिर आकर, राम रतन बोहरा के पास बेंच पर बैठ गए। और उनको प्रणाम करके, वे कहने लगे “भा”सा, पायलागू।” फिर, ठाकुर गिरधारी की तरफ़ देखते हुए कहा “ठाकुर साहब, जय माताजी री।” इसके बाद इनके पास बैठे दूसरे फड़सा पार्टी के सदस्य श्योपत सिंह, पुख नाथ वगैरा को दुआ-सलाम करके उनकी ख़ैरियत पूछी। फिर वे, अपनी समस्या राम रतन बोहरा को बताने लगे “क्या बताऊं भा”सा, मुसीबत में पड़ा हूँ। ढ़ोले ने फिर स्पष्टीकरण का काग़ज़ थमा दिया, मुझे....अब लिखता है, गणतंत्र दिवस की तैयारी मैंने क्यों नहीं करवाई ? इस मां के दीने को, क्या बताऊं...? भा”सा, तुम तो जानते ही हो..? उस वक़्त मेरी बहन अस्पताल में भर्ती थी..तब उसे बचाता, या फिर इस ढ़ोले की चमचागिरी करता वहां लेफ्ट-राईट करवाता ?”
“देख राजेंद्र सिंह, तू है शत-प्रतिशत गधा नंबर एक। तेरी जितनी एप्रोच मेरे पास होती तो, राज़ करता साले। तेरा बड़ा भाई सरदार सिंह, इस देवेन्द्र बोड़ा का क्या है ? पक्कम-पक्का दोस्त, यानी उसका लंगोटिया यार। उसका प्रभाव काम में न लेकर तू अपनी ‘लो-लो पच्चू’ करवा रहा है, उस ढ़ोले से..? जानता है प्यारे ? यह बोड़ा ठहरा, उप निदेशक दफ़्तर का संस्थापन प्रभारी। वह डी.डी. का हाथ पकड़कर, आदेश ज़ारी करवाने की ताकत रखता है।” बिफ़रते हुए, ठाकुर गिरधारी सिंह बोल उठे।
“ठाकुर साहब, देखो मैं ग़लत नहीं हूँ। जो दूसरों के बल पर लड़ता है, वह बहादुर नहीं होता। मैं जो कुछ हूँ, अपने बल-बूते पर हूँ।” राजेंद्र सिंह ने तिलमिलाते हुए, ज़वाब दे डाला।
“फिर रोता क्यों है, कुतिया के ताऊ ? साले चला दे बन्दूक, किसी दूसरे के कंधे पर रखकर।” राम रतन बोहरा ने, सियासती दाव-पेच सिखाते हुए कहा। फिर वहां फड़सा पार्टी के सदस्य जब-तक वहां जमे रहे, तब-तक स्कूलों और दफ़्तरों में छाये तरह-तरह के विषयों पर चर्चा करते रहे। और इसके साथ वारदातों में अजमाए गए दाव-पेचों के तोड़ पर, गहन विचार-विमर्श भी चलता रहा। वहां चाय पी रहे ग्राहकों को ऐसा लगने लगा कि, “यहाँ विराजमान सभी महानुभव तो वास्तव में, इस महान भारत देश की राजनीति के गुरु चाणक्य तो है ही।”
ठाकुर जोरावर सिंह गाँव सींगला के सरपंच ठहरे, तो उनके लाडले पुत्र ठोला सिंह और उनके लघु-भ्राता मुगदड़ सिंह...गांव के युवा नेता। जोरावर सिंह के बाद में कोई न कोई, इस सरपंच की कुर्सी का हक़दार होगा ही..अत: ठाकुर साहब ने पहले से ही इन दोनों को युवा नेता बनाकर, इनका मार्ग प्रशस्त कर दिया। इस तरह उन्होंने गाँव वालों के सामने, गाँव के भावी नेता के भविष्य का पर्दा हटा दिया। अक्सर मुगदड़ सिंह और ठोला सिंह गाँव के शातिर बच्चों के साथ, गाँव के बाहर बने पीपल के चबूतरे पर बैठे नज़र आते थे। अक्सर ये दोनों फिराक़ में रहते, कोई जान-पहचान का आदमी इधर से मोटर साइकल पर गुज़रे...और ये दोनों उसे रोककर, उसकी मोटर-साइकल पर क़ब्ज़ा कर लें। इस तरह उस गाड़ी को, वे अपने फिटोल-काम के लिए उपयोग में लेते रहें। हमेशा की तरह गाड़ी के इन्तिज़ार में बैठे, दोनों युवा नेता किसी को आते न देखकर परेशान हो गए। तभी सामने से धूल उड़ती नज़र आयी, थोड़ी देर बाद हीरो-हांडा पर सवार राजेंद्र सिंह पर उन दोनों की नज़र गिरी। फिर क्या ? उन्हें अपनी तमन्ना पूरी होती, नज़र आने लगी। बस, झट रास्ते के बीच दोनों युवा नेता खड़े हो गए...और चिल्ला-चिलाकर, राजेंद्र सिंह को रुकने का कहने लगे “पी.टी.आई.जी, पी.टी.आई.जी, ओ पी.टी.आई.जी, ज़रा रुकिए। अरे रुको, उस्ताद।” इस तरह दोनों ने आवाज़ लगाकर, रोका।
“बन्ना, कांई है ? मोड़ो हुय रयो है। हमार औ ढ़ोलो हाज़री रजिस्टर में म्हारा दस्तख़त रा कोलम नै रातौ-पीलौ कर न्हाखेला।” सकपकाकर, राजेंद्र सिंह बोल उठे।
“सरदार होकर डरते हो, इस ढ़ोले से..? डूब मरो, पी.टी.आईजी। हमें शर्म आती है, आपको हमारा बिरादर कहते हुए।” मुगदड़ सिंह बोला, और पीक थूक दी गुटके की..जो सीधी जाकर उनकी मोटर-साइकल के मडगार्ड पर आकर गिरी।
“आप क्या समझते हैं, नौकरी करना क्या इतना आसन है ? क्या आप जानते हैं, यह साली अफ़सर जात माटी सूं भूंडी। अब आप-दोनों मार्ग छोड़िये, मेरा..मुझे जाने दीजिये।” इतना कहकर, राजेंद्र सिंह ने हीरो-हांडा के किक मारी। गाड़ी से भड़-भड़ की आवाज़ निकलने लगी, और काले धुंए के गुब्बार छूटने लगे।
“अरे रुको, यार। इस ढ़ोले से, क्या डरना..? जब से दाजी ने इस ढ़ोले के पक्ष में हमारे चार हागड़ियों के बयान करवाए हैं, तब से वह कमबख़्त ढ़ोला उनके पाँव पूजता है। अरे यार, तुमसे क्या कहूं..? यह मर्दूद दाजी का माथा खा गया, यह कहकर कि ‘दाजी, अब आप जल्दी मेरा तबादला मेरे गाँव में करवा दीजिये ?’ साला आगे कहता है, ‘जुहारजी, मेरा तबादला करवा दो..मैं ता-ज़िंदगी आपके गुण गाऊंगा।” हीरो-हांडा का हैंडल थामकर, ठोला सिंह बोला।
“अरे यार, गुण गायेगा तेरे दाजी के। और जूती पूजेगा, तुम्हारी। मेरी तो बची-बचाई सी.एल. पर डाका डाल देगा, कमबख़्त।” राजेंद्र सिंह बोले।
“वह तुम जानों, यार। हमें तो तुम्हारी गाड़ी चाहिए..पड़ोस के गांव में जाकर ज़रा आई टोनिक लेना है। दे दो ना, भाई। बड़े भाई हो, आख़िर।” आँख मारकर, ठोला सिंह बोला।
“देख भाई, मेरी गाड़ी है तो पिंचर..रास्ते भर साइकल के पम्प से हवा भरता आ रहा हूँ। तुम ऐसा क्यों नहीं करते, इस मास्टर तेज़ा राम से मांग लो उसकी बजाज एम.एटी. या फिर इसको इस ढ़ोले से छुट्टी दिलवाकर अपने साथ ले लो। आख़िर है तो इस ढ़ोले का चमचा, रोज़ इसे अपनी गाड़ी पर बैठाकर ले जाता है इसके गाँव। मना करने की उस कमबख़्त में हिम्मत है, कहाँ ?” राजेंद्र सिंह ने झट अपने विरोधी पर सियासती दाव फेंका, और झट तेज़ा राम अध्यापक के कंधे पर बन्दूक रखकर चला दी। फिर क्या ? इस गाँव के दोनों कर्णधार मोटर-साइकल के आगे से हट गए, उनके हटते ही इनसे पिंड छुड़ाने की फ़िराक में बैठे राजेंद्र सिंह ने झट हीरो-हांडा तेज़ी से दौड़ाते हुए स्कूल की तरफ़ चले गए। वे दोनों युवा नेता, पीछे से उड़ती धूल के गुब्बार को देखते रहे।
इस तरह फड़सा पार्टी एक मेंबर ने अपने सरदार का सिखाया गया सियासती दाव, इस्तेमाल कर डाला। इस तरह हेडमास्टर मस्का लालजी को शिकस्त देने के लिए, रणभेरी बजा दी गयी।
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