संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक १९ “ईर्ष्यालु” यानी बळोकड़ा लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित लेखक दिनेश चन्द्...
संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी पुस्तक “डोलर-हिंडा” का अंक १९
“ईर्ष्यालु” यानी बळोकड़ा
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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कोई ज़माना था, जब गाँवों में ठाकुरों का राज़ था। तब उनके चलते थे, सिक्के। गाँव तब गाँव नहीं कहलाते, अमुख-अमुख ठाकुर साहब की जागीर कहलाती थी। तब ठाकुर साहब का परिचय इन ठिकानों के नाम से दिया जाता था..चाहे प्रीत की डोर हो या डंडे का बल हो, मगर ठाकुर इज़्ज़तदार माने जाते थे। लोगों के दिल में उनके प्रति टके की इज़्ज़त न हो, मगर जुहाराजी, या बन्ना वगैरा अल्फाज़ों से उन्हें सम्मान मिलता रहता और वही जुहारजी या बन्ना इज़्ज़त पाने के लिए लोगों की जूतियाँ उतरवा देते, और सरे-आम उनकी इज़्ज़त नीलाम कर देते। जूतियाँ उतरते ही लोगों की कमर लचका दी जाती, खम्मा घणी का मधुर शब्द सुनने के लिए। लोगों की झुकी कमर, झुके सिर और उनके मुंह से निकलते “खम्मा-घणी” के अल्फ़ाज़ ठाकुर साहब को सत्ता का अहसास करवा देता। तब यह ठाकुर रूपी केसरी सिंह नाहर, सबको अपने दर्शन देकर गुज़र जाया करता।
मगर, बदक़िस्मती रही इन ठाकुरों की..देश आज़ाद हो गया। अंग्रेज देश छोड़कर चले गए, और रियासतें भारत-सरकार में विलीन हो गयी। रही-सही इस सीलिंग क़ानून ने तो कमर तोड़ दी, इन ठाकुरों की। ज़मीन किसानों के बीच में बाँट दी गयी, और दहाड़ते इन शेरों की नाक में नकेल डाल दी गयी। अब बेचारे ठाकुर, आम आदमियों की तरह जीवन बसर करने लगे। जमा पूँजी के नाम जो इनके पास दौलत थी, जो इन लोगों ने सत्ता के नशे में रहते हुए तवायफ़ों और दारु की महफ़िलों में उड़ा दी। वक़्त रहते ये लोग न सुधरे, नारी को भोग की सामग्री समझते हुए उसे इज़्ज़त न दे सके। जो नारी देवी लक्ष्मी का रूप होती है, वह लक्ष्मी इन लोगों से रूठ गयी। पैसा है तो इज़्ज़त होती है, समाज में। इस कंप्यूटर युग में, पैसे को ही धर्म माना जाने लगा। इसी पैसे के लिए ये गरज़ने वाले केसरी सिंह नाहर, नौकरी-चाकरी की तलाश में गली-कूचे में घूमने लगे। जो कल हज़ारों चाकरों से घिरे रहते थे, वे आज़ ख़ुद चाकर बन गए। कोई किसी फेक्टरी या कारख़ाने का चौकीदार बन गया, तो कोई पुराने रसूख़ात को काम में लेकर किसी सरकारी दफ़्तर में चपरासी या अर्दली बन गया। इतना कुछ हो गया, फिर भी इन लोगों को अपने-आपको ‘ठाकुर साहब’ कहलवाना अच्छा लगता..चाहे वह अफ़सर या सेठ व्यंग में उनको ऐसा कहे ‘ठाकुर साहब, ज़रा पानी पिला दीजिएगा।’ यह सुनकर, इनकी बांछे खिलना स्वाभाविक ठहरा। ‘ठाकुर साहब’ शब्द सुनकर, वे अपनी मूछों पर ताव देने बैठ जायेंगे।
यह कहानी है, रोहिड़ा गाँव की। ठाकुर सबल सिंह इस गाँव के जागीरदार थे, नारी और सुरा के व्यसन ने इनको सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया। इनकी घरवाली इस दुर्दशा को बरदाश्त न कर सकी, वह अपने एक-मात्र बालक जीवन सिंह को इनकी गोद में डालकर इस दुनिया से कूच कर गयी। पत्नि के ग़म को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए, और वे ज़्यादा दिन इस ख़िलक़त में जी न सके...और दिल पर आघात लगने से वे अपने १० साल के बालक जीवन सिंह को, बेसहारा अनाथ छोड़कर इस दुनिया से कूच कर गए..!
ईश्वर की लीला है, भाग्य से सबल सिंह के मित्र राम सिंह खीची ने जीवन सिंह को अपने सरंक्षण में ले लिया। तब राम सिंह के बड़े पुत्र नारायण सिंह, शिक्षा विभाग में चपरासी के पद पर नौकरी करते थे। नौकरी करते-करते उन्होंने किसी तरह टेंथ क्लास उत्तीर्ण कर ली, और इसी विभाग में कनिष्ठ लिपिक के पद पर पदोन्नति पा गए। कालांतर जीवन सिंह के बालिग़ होने पर, उन्होंने उसकी भी नौकरी अपने विभाग में...चपरासी के पद पर, लगा दी। इस तरह, उन्होंने अपने पिता की छोड़ी जिम्मेदारी पूरी की।
जीवन सिंह ने अपनी ज़िंदगी में आर्थिक संघर्ष ही पाया, इस कारण उसने एक-एक पैसे की कद्र करने की आदत बना डाली। जिसकी बदौलत उसने गांधी-कोलोनी में एक भूखंड ख़रीदा, और ठेकेदार करीम खां को मकान बनाने का ठेका दे दिया। कमरे बनने तक उसे किसी तरह की कोई तक़लीफ़ न आयी, क्योंकि जीवन सिंह जिस मिडल स्कूल में काम करता था..वहां के हेडमास्टर कुंदन मल, राम सिंह खीची के अभिन्न मित्र थे। इसी कारण, वे जीवन सिंह पर मेहरबान थे। उनकी मेहरबानी से, उसे स्कूल के काम से काफ़ी छूट मिली हुई थी। उसका जब जी चाहता, वह स्कूल आता और जब जी करता स्कूल छोड़ देता। इस कारण जब-तक कमरा बनता रहा, तब-तक उसे कमठे की देख-रेख में किसी प्रकार का व्यवधान उठाना नहीं पड़ा। यहाँ तो उसने कुंदन मलजी की भलमानसहत पाकर, उसने एक क़दम और आगे बढ़ा दिया था। उसने शादी-विवाह के सीज़न में, विडिओ सूटिंग करने का धंधा भी चमकाना शुरू कर दिया।
धंधे की बरकत ने कर दी, सारी मुश्किलें हल। अब तो मकान बनने लगा, धड़ा-धड़। तभी जयपुर में, विधान-सभा सत्र शुरू हो गया। सचिवालय सभी सरकारी दफ़्तरों से तारांकित सवालों की जानकारी, दूर-भाष द्वारा हासिल करने लगा। एलिमेंटरी दफ़्तर में तारांकित सवालों के आने से कार्यालय सहायक घीसू लाल शर्मा के ऊपर जिम्मेदारी आ गयी कि, वह किस क़ाबिल कर्मचारी को टेलीफ़ोन पर सन्देश लेने के लिए बैठाये...और प्राप्त तारांकित सवालों के सन्दर्भ में, सूचनाओं सेट दफ़्तर के बाबूओं से वक़्त पर कैसे तैयार करवाएं ? इस कार्य को क्रियान्वन करने के लिए, घीसू लाल ने दफ़्तर में बाबूओं की बैठक ली। इस बैठक में बाबू गरज़न सिंह के दिशा-निर्देशन में, सभी बाबूओं और चपरासियों की ड्यूटी का चार्ट तैयार किया गया। काम करने के लिए तीन पारी रखी गयी। अगर देखा जाय तो, नियमानुसार एक अधिकारी, एक लिपिक, कार्यालय सहायक या वरिष्ठ लिपिक की ड्यूटी हर पारी में लगती है। मगर ऐसा करने से, दफ़्तर में तूफ़ान खड़ा हो जाता। इस दफ़्तर में लगे नए कनिष्ठ लिपिकों का समूह जो बाबू गरज़न सिंह के साथ रोज़ जोधपुर से आना-जाना करता था, उनकी ड्यूटी लग जाने से उनके आने-जाने पर रोक लग सकती थी..इस कारण घीसू लाल शर्मा ने उनकी ड्यूटी, विधान-सभा सत्र में नहीं लगायी। कारण यह रहा, इन बाबूओं के सर पर, दफ़्तर के स्तम्भ ‘बाबू गरज़न सिंह’ का कृपा हस्त था। इनका कृपा-हस्त रहेगा भी, क्यों नहीं..? ये नामाकूल बड़े काम के सदर सिपहसालार ठहरे, जिनकी जांफ़िशानी, वफ़ादारी और तुर्जुबेदारी पर बाबू गरज़ सिंह को नाज़ था। वे इनका सपोर्ट करेंगे भी क्यों नहीं ? ये सारे बाबू इनके सदर सिपहसालार ठहरे, जो इनकी ताकत थी..जिनके बलबूते पर गरज़न सिंह इस दफ़्तर में धाक जमाये बैठे थे। चपरासी रमेश इनका ख़बरनवीस ठहरा, जो अपनी ताक-झांक करने की कला को काम में लेता हुआ लेखा शाखा की हर गोपनीय ख़बर लाकर बाबू गरज़न सिंह को परोस देता था। लेखाकार घसीटा राम यानी शिव राम प्रजापत किसी को नियमों के ज़ाल में फंसाकर, घसीटे या नहीं घसीटे..उसके पहले रमेश के द्वारा लाई गयी ख़बर की सच्चाई को, बाबू गरज़न सिंह अपने इन सिपहसालारों से कन्फर्म कर लिया करते थे....जो उस वक़्त, लेखा शाखा में ही काम किया करते थे। फिर इस रमेश और इन सिपहसालारों की ड्यूटी, विधान-सभा सत्र के चार्ट में कैसी लगती ? घीसू लाल शर्मा की मज़बूरी ठहरी, बेचारे खौफ़ खाते थे बाबू गरज़न सिंह से..कहीं वह दफ़्तर में बवाल खड़ा न कर दे..? मक़बूले आम बात यही है, ज़बरों से सभी डरते हैं। सियासत यही कहती है, इन ज़बरों को अपने पक्ष में रखकर, आप कहीं भी किसी भी क्षेत्र अपना काम निकलवा सकते हैं। चाहे वह क्षेत्र दफ़्तर हो, या लोकतंत्र का सियासती मंच ? फिर क्या ? इस रमेश और इनके सिपहसालारों की ड्यूटी विधान-सभा सत्र कार्य में न लगाकर, घीसू लाल ने बाबू गरज़न सिंह पर अहसान का बोझ लाद दिया। इस तरह, इसके साथ सिपहसालारों को अपने पक्ष में कर लिया। लोकतंत्र में मत-शक्ति ही, ताकत मानी जाती है। जिसे यह शक्ति मिल जाए, वह शख़्स सियासत के क्षेत्र में सफ़ल आदमी सिद्ध होता है। फिर क्या ? इन सिपहसालारों के स्थान पर, विधान-सभा सत्र में बाबू नारायण सिंह की नाईट-ड्यूटी निश्चित कर दी गयी। और इधर रमेश ने झट अपनी जगह, जीवन सिंह को ड्यूटी पर लगाने का प्रस्ताव रख दिया।
हेडमास्टर जनाब कुंदन मल के हाथ में दफ़्तर का इज़रा [आदेश] पहुंचा, जिसे पढ़कर उनके हाथ के तोते उड़ गए। उसमें साफ़-साफ लिखा था “विधान-सभा सत्र के चलने से, आपकी स्कूल में काम कर रहे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी श्री जीवन सिंह को इस दफ़्तर में आगामी आदेश तक लगाया जाता है। सम्बंधित कर्मचारी को आप अविलम्ब कार्य-मुक्त करें, और उसे निर्देशित करें कि वह शीघ्र इस दफ़्तर में उपस्थिति देवें। इस आदेश की अवहेलना करने पर, आपके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की जा सकती है।” अनुशासनिक कार्यवाही का नाम पढ़ते ही, बेचारे कुंदन मल के पेट में मरोड़े उठने लगे...ग़नीमत है, उनको निपटने के लिए पाख़ाना नहीं जाना पड़ा। जीवन सिंह की दिनचर्या में बवाल उठ खड़ा हुआ, क्योंकि अब रहा-सहा ‘जनाब कुंदन मल का सपोर्ट’ भी हाथ से चला गया।
अब उसे यकीन हो गया, इसके डेपुटेशन के पीछे इस बलोकड़े यानी ईर्ष्यालु रमेश का हाथ है। उसका नाम दिमाग़ में आते ही जीवन सिंह के दिल में रमेश के लिए भद्दी सी गाली निकल गयी, वह अपने होंठों में ही बोल उठा “हरामखोर। बाबूओं की चमचागिरी करता-करता, तूने मेरा डेपुटेशन एलिमेंटरी दफ़्तर में करवा डाला। इस तरह तूने, अपने दिल की भड़ास पूरी निकाल ली। अरे ए, नामाकूल। क्यों जलता है, मुझसे ? मैं बरातों में विडिओ फ़िल्में बनाता हूँ, लोगों की एल.आई.सी. करता हूँ...चार पैसे कमाता हूँ तो अपनी मेहनत से। तू क्यों नहीं कमाता, करमज़ले। तूझे किसने मना किया, कमाने को..?”
आख़िर, मन-मसोसकर वह दफ़्तर जाने के लिए तैयार हुआ। जाते वक़्त, घरवाली बदन कौर ने बीड़ियों का बण्डल और माचिस उसके हाथ में थमायी। फिर, वह कहने लगी “मैं जा रही हूँ, कमटे की देख-रेख के लिए। याद रखना, छोटे मुन्ने को बुख़ार है..उसे किसी डॉक्टर को
दिखलाकर इलाज़ ले लेना।” इतना कहकर, बदन कौर चली गयी। पीछे से, जीवन सिंह सोचने लगा “पहले कहाँ जाऊं, अस्पताल या दफ़्तर ?”
अगर दफ़्तर में देरी से पहुंचे, तो वहां साक्षात यमराज के अवतार घीसू लाल दरवाज़े के सामने ही अंगार उगलते नज़र आयेंगे, और जनाब मुंह बनाकर यह बात ज़रूर कहेंगे कि ‘कहाँ चल दिए, साहबेआलम ? इस तरह मुंह छिपाकर, जाते कहाँ हो ?’ और इनके उगले गए अंगारों के साथ-साथ, रमेश और कैलाश बाबू सैन के विष-भरे व्यंग-बाण भी तैयार..तरकश से निकलने के लिए। जैसे भेल-पुड़ी में प्याज़..जिसे खाना बड़ा लज़ीज़, मगर खाने के बाद वह आँखों से पानी उतार दे..?
हारकर बेचारा जीवन सिंह बच्चे को गोद में उठाया, और उसे कम्बल से लपेटा। फिर, हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां चढने के लिए तैयार हो गया। दफ़्तर में दाख़िल होने के बाद उसने बच्चे को बेंच पर सुलाया, जोइनिंग एप्लीकेशन लिए घीसू लाल के सामने हाज़िर हुआ। और उनसे रोनी आवाज़ में कह बैठा “हुज़ूर, रहम। बच्चे की तबियत ख़राब है, उसे अस्पताल ले जाना है जनाब। मेहरबानी करके मुझे आज़ ही कार्य-मुक्त करके वापस स्कूल भेज दीजिएगा...आपकी बहुत मेहरबानी होगी। भगवान आपका भला करेगा।”
“यह हम देख लेंगे, अभी तुम जाओ लेखा चेंबर में,..सभी को पानी पिलाओ।” ओ.ए. घीसू लाल ने, आँखों पर ऐनक चढ़ाकर कहा। फिर क्या ? बेचारा जीवन सिंह मटकी के पास गया और पानी से भरा लोटा उठाया, फिर चल दिया सबको पानी पिलाने। इस वक़्त उसने पानी से भरे लोटे को इस तरह उठाया, मानों उसे निपटने के लिए दिशा-मैदान जाना हो।
“आनंद, किस आदमी की ड्यूटी कब लगी है...? काग़ज़ कब बनाकर लाएगा, भाई ? कब से, इस काग़ज़ की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ?” आनंद को आवाज़ देकर, घीसू लाल ने कहा “अरे भाई, क्या कर रिया है तू ? परेशान हो गया यार, इन्तिज़ार करते-करते। यह दफ़्तर है, या तुमने इसे जवाहर ख़ाना बना रखा है ? भय्या यह दफ़्तर है, लोग यहाँ ड्यूटी ज्वाइन करने आ रहे हैं..और, अभी-तक तुम ड्यूटी-चार्ट बनाकर लाये नहीं..अब ख़ाक ड्यूटी ज्वाइन करवाकर, इनसे काम लूं ?”
“हेडसाहब, यह ललित बोल रिया है कि, वह चार्ट बना देगा।” लापरवाही बरतता हुआ आनंद, वहीँ अपनी सीट पर बैठा-बैठा बोला।
“काम किसे दिया, तूझे या इस ललित दवे को..?” नाराज़गी के साथ, घीसू लाल बोले।
“हेड साहब, वह काम कर लेगा। आप काहे फ़िक्र करते हैं..? हुज़ूर, आप तो आम खाने से मतलब रखिये। काम कोई करे, इससे क्या लेना-देना ?” सामान्य शाखा दो के चेंबर में बैठा आनंद ज़ोर से बोल उठा।
“यह दफ़्तर है या कुंजड़ों की मंडी ? कोई इधर से चिल्ला रहा है, तो कोई उधर से..? अरे हुज़ूर, इस होल को कुंजड़ो की मंडी मत बनवाइए। बस आप तो हर शाखा में रखवा दीजिये, इंटर-कॉम..तब इन कुंजड़ों का चीख़ना-चिल्लाना बंद होगा।” दफ़्तर के दरवाज़े के पास लगी सीट पर बैठे, नारायण सिंह बोल उठे।
“नारायण सिंहजी। एक इंटरकॉम का सेट नीचे भंवर की दुकान पर लगा दीजिये, फिर रहेगा आपको आराम..बार-बार आपको सीढ़ियां नहीं उतरनी पड़ेगी।” व्यंगात्मक मुस्कान लबों पर फैलाते हुए, आनंद बोला। फिर, धीरे-धीरे आगे बोला “फिर क्या ? टी.सी. लेने जो महानुभव चाय की दुकान पर आयेगा, यह भंवर आपसे वहीँ बैठा बात करवा देगा..और आप, आराम से यहीं बैठे उससे सेटिंग कर लेना।”
“क्या बोला रे, आनंद ? मुझे सब सुनायी देता है, तू क्या बोल रिया है ? अब सुन..दूसरों के पाप गिनाने से आनंद, तेरे पाप कम नहीं होंगे। कुछ तो ख़्याल कर, मैंने अपने ये बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं। रोज़ देखता हूँ, बेटा। यहाँ अक्सर निजी फ़ोन आते किसके हैं, बोल तेरे ? यह इंटरकॉम तेरे काम की चीज़, और तेरे लैला के काम की..नीचे चाय की दुकान पर बैठकर तेरी लैला चाय की चुस्कियां लेती हुई, इंटरकॉम से तुझसे बात कर लेगी..उस बेचारी को, ऊपर आना नहीं पड़ेगा।” अंगार उगलते हुए नारायण सिंह ने, उसकी पोल-पट्टी खोलते हुए कह दिया। सुनकर बेचारा आनंद, स्तब्ध होकर रह गया। वह बेचारा, आगे क्या बोलता ? आगे बोलने का अर्थ है, उसके खपरे निकलना तय। रेलगाड़ी की यात्रा के दौरान, उसके साथ रोज़ आना-जाना करने वाली सुदर-सुन्दर नवयोवानाएं उसके पास ज़रूर बैठा करती। उनके साथ होती उसकी गुफ़्तगू की बातें, अब सबके सामने न आ जाए..? अगर ये बातें सबको मालुम हो गयी तो, उसकी इज़्ज़त की बखिया उधड़नी तय..! इस डर से, वह बेचारा चुप होकर रह गया। मगर इस रमेश को इस गुफ़्तगू से कोई लगाव था नहीं, उसकी तो एक ही योजना थी ‘किसी तरह इस जीवन सिंह को, इस दफ़्तर में रोके रखना। कहीं घीसू लाल इस पर रहम खाकर, इसे रवाना न कर दें..?’ बस, उसके शातिर दिमाग़ ने दिखला दी दिशा। फिर क्या ? झट उसने अपने टिफ़िन से प्याज़ बाहर निकाला, और वह झट जा पहुंचा घीसू लाल के पास। फिर, उनके कान में फुसफुसाकर कहने लगा “साहब, देखी आपने इस जीवन सिंह की करतूत ? यह कमबख़्त, बड़ा चालाक निकला। अपने बच्चे की बगल में प्याज़ दबा दिया, हुज़ूर। तब तो हुज़ूर..थर्मामीटर बढ़ा तापक्रम ही दिखलायेगा। इसकी यह क़ारश्तानी कोई नयी नहीं है, कई दफ़े इसे अजमा चुका है।” इतना कहकर, रमेश ने झट उनकी टेबल पर उस लाये गए प्याज़ को प्रमाण के तौर पर रख दिया। फिर क्या ? घीसू लाल ठहरे भोले पंडित, झट उसकी बातों में आ गए और कह उठे “अच्छा sss..! यह कुतिया का ताऊ, इतना होश्यार निकला ? काठ का उल्लू हूँ, मैं ? क्या मेरे पास आला दिमाग़ की जगह, कूड़ा भरा है..? कमबख़्त...बच्चे का फर्ज़ी बुख़ार दिखलाकर, दफ़्तर की ड्यूटी से जी चुराना चाहता है ? अभी करता हूँ तेरा ऐसा बंदोबस्त, कमबख़्त हमेशा याद रखेगा मुझे...कभी मेरे जैसा, शेर का सवा शेर मिला..!” उस टेबल पर रखे प्याज़ को उठाया, फिर घीसू लाल उसे परखने लगे।
दो घंटे बीत गए, जीवन सिंह को दफ़्तर में आये...! बेचारा काम से थक गया, जैसे ही उसने अपनी थकावट दूर करने के लिए ज़ेब से बीड़ी का बंडल बाहर निकाला..तभी उसे घीसू लाल की पुकार सुनायी दी। वापस बण्डल को अपनी ज़ेब के हवाले कर, और झट जा पहुंचा घीसू लाल के पास।
“हुकूम।” बरबस रुआंसा होकर इतना ही बोला सका, बेचारा। फिर क्या ? फ़िल्मी विलेन की तरह घीसू लाल ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा, फिर विलेन अजीत कुमार की तरह बोले “सुन ले एक बार, आज़ से तेरी नाईट-ड्यूटी है...अभी तू घर चला जा। अब तू शाम के पांच बजे एक्यूरेट टाइम पर, दफ़्तर आ जाना..समझे ?”
“हुज़ूर, दो घंटे पहले कह देते तो मुन्ने को सरकारी अस्पताल में दिखला देता..अब तो हुज़ूर, अस्पताल का आउट-डोर भी बंद हो गया होगा ? अब कल से ड्यूटी देने की अनुमति दे दीजिये, हुज़ूर बच्चे का इलाज़ भी हो जाएगा आपके रहम से।” जीवन सिंह ने हाथ जोड़कर, निवेदन किया।
“तो तू आयेगा नहीं, विधान सभा ड्यूटी कोई बच्चों का खेल नहीं है ? दिन के २४ घंटें होते हैं भय्या, सरकारी कर्मचारी को जब भी बुलाया जाय, उस वक़्त ड्यूटी पर आना पड़ता है..समझे ?” घीसू लाल बोले। फिर आक-थू की आवाज़ निकालते हुए, पास पड़े ख़ाकदान [कूड़ादान] में ज़र्दे की पीक थूकी। तभी जीवन सिंह की नज़र दीवार पर लगे पोस्टर पर गिरी, जिस पर लिखा था “जनाब, ख़ाकदान [कचरादान] में कचरा डाला जाता है। इसे आप पीकदान न बनाएं।” इस तरह, दफ़्तर के बनाये उसूल पर यह मखौल..? घीसू लाल ने ख़ाकदान में फिर पीक थूकी, और खंखारना शुरू किया ताकि इस दफ़े कचरादान में कफ़ थूक सके। दफ़्तर के बाबूओं के हेड का यह आचरण देखकर, जीवन सिंह को अचरच हुआ..वह बेचारा उनका मुंह ताकता रह गया।
“क्या ताक रहा है...? अब चला जा, अपने घर। शाम को आ जाना, एक्यूरेट टाइम पर।” घीसू लाल बोले, फिर मूंछों पर ताव देते हुए आगे बोले “अगर तू वक्त पर ड्यूटी पर न आया तो, समझ लेना सी.सी.ए. सत्रह की कार्यवाही तेरे खिलाफ़ शुरू हो जायेगी। फिर कहना मत, तूझे कहा नहीं। जानता है, यह मामला विधान-सभा का है ?” सुनकर, वह बेचारा अवाक होकर खड़ा रह गया। खड़ा-खड़ा वह कभी उस पोस्टर को देखे, कभी उनका मुंह। जहां कथनी और करनी में इतना अंतर, वहां न्याय की उम्मीद रखना बेकार..? फिर क्या ? बच्चे को गोद में उठाकर, वह हवाई-बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने लगा।
सरकारी अस्पताल के आउट-डोर का अब समय रहा नहीं..फिर क्या ? झट उसे लुना स्टार्ट की, और बच्चे को लिए चल दिया प्राइवेट नर्सिंग होम की तरफ़। उसने समझ लिया ‘अब तो डॉक्टर को फीस देकर ही, बच्चे का इलाज़ कराना होगा।’
आसियत [रात] का अँधेरा फैलता जा रहा था, दफ़्तर के होल की तमाम ट्यूब लाईट और बल्व के स्विच ओन करके जीवन सिंह आकर बैठ गया बेंच पर। वहां बेंच पर बैठे रमेश को बीड़ी थमाकर, जीवन सिंह कहने लगा “भाई रमेश, थोड़ी मानवता तो अपने दिल में रखा कर। अब बता तू मुझे, मेरी ड्यूटी लगवाने के बाद तूझे क्या मिला ? तुम तो वैसे ही टाइम पास करने के लिए, इस वक़्त दफ़्तर में आकर बैठ जाया करते हो..” जीवन सिंह लाचारगी से बोला, फिर अपनी बीड़ी माचिस से सिलागाकर उसने माचिस रमेश को थमा दी।
“मेरे यह बता देने से तेरी यह ड्यूटी तो ख़त्म होगी नहीं, फिर बताने से क्या फ़ायदा ?” अपनी बीड़ी सिलागाकर, रमेश बोला। फिर, माचिस जीवन सिंह को थमा दी।
“तू समझ भाई, कितना परेशान हूँ मैं ? बच्चा बीमार है, घर पर कमटा चल रहा है...थोड़ी इनायत...” मुंह से धुए के गुब्बार छोड़ता हुआ, जीवन सिंह बोला।
“क्या कर सकता हूँ, मेरे भाई ? तुम तो यार, अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हो...वाह यार, सरकारी नौकरी के साथ में प्राइवेट धंधा भी ?” इतना कहकर रमेश ने लंबा कश खींचा, फिर बीड़ी के टुकड़े को दूर फेंकता हुआ, आगे कहता गया “देख भाई, अभी तूझे आर्डर मिल जाए बारात में विडिओ फिल्म उतारने का..फिर तुम तो यार, झट लपक पड़ोगे फोटूएं खींचने के लिए। उस वक़्त तुम्हें याद आयेगी नहीं बच्चे की बीमारी, और न याद आएगा कमटा..समझे प्यारे। इसलिए कहता हूँ प्यारे, जब-तक नौकरी करते हो...ईमानदारी से करो, और ईमानदारी की खाओ। सरकारी नौकरी के साथ, यह प्राइवेट धंधा...सरासर सरकार के साथ, यह धोखा ?”
अब बेचारा जीवन सिंह, आगे क्या बोलता..? वह जानता था कि, भैंस के आगे भागवत पढ़ना मूर्खता है। उस भैंस को घास खिलाकर ही, अपना काम निकलवाया जा सकता है। उसे चुप देखकर, रमेश ने झट अपनी ज़ेब से ज़र्दे-चूने की पेसी बाहर निकाली। फिर, उसमें से ज़र्दा और चूना बाहर निकालकर उस मिश्रण को अपनी हथेली पर फैलाया। अब वह उस मिश्रण को इस तरह अंगूठे से मसलने लगा, जैसे यह ईर्ष्या की आग में जलता हुआ उस जीवन सिंह को ओखली में डालकर कूट रहा हो...? फिर, वह अपने फ़ायदे की बात सोचने लगा। इस माह में, छुट्टियां कितनी आयेगी ? द्वितीय शनिवार, रविवार और अन्य राज़पत्रित अवकाश मिलाकर कुल कितने दिन..? अगर इन दिनों में जीवन सिंह के स्थान पर वह ड्यूटी दे देता है तो, कुल मिलाकर कितने क्षतिपूर्ति अवकाश वह अर्जित कर लेगा ? ये सारे अर्जित क्षतिपूर्ति अवकाश, दीपावली के आस-पास लोगों के घर पुताई करने में काम आ जायेंगे..और भय्या, पी.एल. या मेडिकल छुट्टियां भी ख़र्च होगी नहीं। इस तरह उसका घरों में पुताई करने का धंधा भी चमक जाएगा, और दो पैसे भी कमा लेगा दीपावली सीज़न में। इतना सोचकर बोल पड़ा, जीवन सिंह से “देख जीवन सिंह, तू इतना कहता है..तो हर रविवार, द्वितीय शनिवार या अन्य आने वाली हर राज़पत्रित छुट्टी के दिन, तेरी जगह मैं ड्यूटी दे सकता हूँ। बाकी दिनों की, तू जाने भाई। तू इतना अज़ीज़ी से बोल रहा है, इसलिए..न तो भाई अपुन तो करते हैं मस्ती।” इतना कहने के बाद, रमेश ने हथेली पर लगाई थप्पी “थप्प-थप्प”। उसकी महक ने, टेलीफ़ोन के पास बैठे नारायण सिंह के नासा-छिद्रों को खोल डाला। फिर क्या ? “आक-छीं, आक छीं” आवाज़ निकालते, नारायण सिंह ने बेशुमार छींकों की झड़ी लगा दी।
“वाह नारायण बाबू, जब मैं जाने की सोचता हूँ तभी आप अपशकुन करने के लिए छींकते है...चलिए एक दफ़े आप और छींक दीजिये, शायद अपशकुन मिट जाए..?” रमेश ने नारायण सिंह से कहा, फिर हथेली पर रखी तैयार सुर्ती उठाकर अपने होंठ के नीचे दबाई।
“ठोकिरा, खाने की चीज़ हो तो मैं खा लूं...मगर, तू तो मुझे छींक खाने का कहता है..जो मेरे वश में नहीं। मुफ़्त में यहाँ बैठकर मग़जमारी मत कर यार, तूझे कहीं जाना हो तो जा। अगर तू चला गया, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। मगर पीछे से गरज़न बाबू यहाँ चले आये, और तू उनको नहीं मिला..तो तू जाने भाई वे तेरी क्या गत बनायेंगे..? बस, तू सोच-समझकर ही जाना प्यारे।” नारायण सिंह ने साफ़-साफ़ कह दिया, उसे।
“राम, राम। अब चलूं, जनाब। आप टेलीफ़ोन का ध्यान रखना, न मालुम कब क्या सन्देश आ जाय..? पीछे से गरज़न बाबू आ जाए, तो आप उनसे कह देना कि ‘रमेश अभी आ ही रहा है।’ अच्छा, चलता हूँ।” इतना कहकर, रमेश बेंच से उठ गया और चल दिया सीढ़ियां उतरने। बेचारे ने पहली सीढ़ी पर अपना क़दम रखा होगा..और उसी वक़्त लाईट चली गयी। अब सीढ़ियां उतरना उसके लिए हो गया, मुश्किल। काज़ल सा अँधेरा, हाथ को हाथ नज़र न आये..ऐसी हालत में सीढ़ियों के मोड़ पर कोई चोर-उचक्का खड़ा हो तो क्या होगा..उस बेचारे रमेश का ? तभी सामने से शेर की आँखों की तरह चमकते दो लाल लट्टू नज़र आये, जो उस बेचारे रमेश की और बढ़ते जा रहे थे। उसे तो ऐसा लगा, मानों किसी होरर शो के पिशाच की आँखें उसे घूरती हुई उसके नज़दीक आ रही है..? बेचारे का खून इस भीषण गर्मी में, जमता महसूस होने लगा। डर के मारे उसके मुंह से चीख़ निकल गयी, वह चीख़ता हुआ कह बैठा “मार दिया रे, मेरी जामण [मां]। भूत..भूत, कोई बचाओ रे..ओ रामा पीर।”
“थप्प-थप्प” बूटों की आहट उसके नज़दीक आने लगी, तभी उसको ऐसा लगा...किसी ने उसके कंधे पर धोल जमा दी है..? डर के मारे उसने चीख़ने की कोशिश की, मगर किसी ने उसके लबों पर हाथ रखकर उसका मुंह बंद कर डाला। चारों तरफ़ फ़ैली छाई हुई नीरवता को भंग को करती हुई, किसी की कड़कती हुई कर्कश आवाज़ गूंज़ उठी “डफ़ोsssल मैं हूँ, डर मत।” बाबू गरज़न सिंह की जानी-पहचानी आवाज़ सुनकर, उसकी जान में जान आयी।
“मार देते, हुज़ूर। अरे बेटी के बाप, इन डिस्को लट्टू को फेंक आओ कुए में। भूतों की चीज़ें रखना, जान के लिए ख़तरनाक है मेरे बाप...!” सहमता हुआ रमेश बोला, फिर गरज़न सिंह से उनकी ज़ेब पर लगे चमकते लट्टूओं को हाथ में लेकर परखने लगा। फिर वह, आश्चर्य से कह बैठा “अरे हुज़ूर, यह तो विज्ञान का करिश्मा है..इन कमबख़्त लट्टूओं में, बेट्री के सूखे सेल डाल रखे हैं।” उन चमकते लट्टूओं को वापस गरज़न सिंह को लौटाते हुए, उसने कहा “हुज़ूर, मुझे याद है...आपका हुक्म। नमकीन लाने, जा रहा हूँ। जल्द लौट आऊंगा।”
“बहुत ख़ुशी है, बेटा अब तूझे याद आया..सुबह से भूखा हूँ, पेट में अन्न का एक दाना पहुंचा नहीं, अब प्यारे पेट-पूजा तो करनी ही होगी।” बाबू गरज़ सिंह बोले, और फिर उसके कंधे पर एक धोल जमा दी। रमेश भींत का सहारा लिए, धीरे-धीरे सीढ़ियां उतरने लगा। रास्ते-भर बेचारा रामा-पीर को याद करता गया, और उनसे अरदास करता रहा “ओ अजमालजी के कुंवर, रानादे के भरतार..मेरा हेला सुनो रे, रामा पीर। कहीं रास्ते में, किसी से टक्कर न हो जाय।” उसके सीढियां उतरते ही, लाईट चली आयी।
होल के सभी पखें ओन करके, जीवन सिंह मटकी के पास गया। वहां उसने मटकी में लोटा डूबाया, फिर उसमें पानी भरकर उसे ले आया। बाबू गरज़न सिंह को पानी पिलाकर, उनसे कहने लगा “इतनी रात बीते दफ़्तर आने की, काहे तक़लीफ़ की हुज़ूर ? घर पर कूलर ओन करके, आप आराम से सोते। यहाँ कहाँ घर जैसी सुविधा है, हुज़ूर ?”
बाबू गरज़न सिंह के आने के पहले, जीवन सिंह नारायण बाबू को पटाकर यहाँ से भागने की योजना बना चुका था। मगर अब, गरज़न सिंह के आ जाने से उसकी पूरी योजना मिट्टी में मिल गयी। अब समस्या आ गयी..दाल-भात में मूसल चंद बने बाबू गरज़न सिंह को, यहाँ से कैसे भगाया जाय..? शिक्षा विभाग के सभी कर्मचारी जानते थे कि, “बाबू गरजन सिंह एक खूंखार बाबू ठहरे, उनका सामना करना गरज़ते शेर से सामना करने के बराबर है।” संस्थापन प्रभारी से बैर लेने का अर्थ, अपनी बसी-बसाई गृहस्थी में आग लगाने के बराबर। कहीं भी डेज़र्ट प्लेस पर तबादला करके लगा दिया, तो दिन में भी तारे गिनने पड़ेंगे। तब तो, उसके हेडमास्टर कुंदन मलजी भी उसे बचा नहीं पायेंगे। लाचार होकर, बेचारा जीवन सिंह उनके सामने हाथ जोड़े खड़ा हो गया।
“हाथ जोड़ने से काम नहीं बनता, ठाकुर जीवन सिंह। काम करो, प्यारे। ड्यूटी को, धर्म समझो। अभी-तक तुमने छोटी-छोटी स्कूलें ही देखी है, दफ़्तर तो अब पल्ले पड़ा है तुम्हारे। झट आ गए जनाब, पल्ला झाड़ने ? हरामखोर कहीं के।” गरज़ते हुए, बाबू गरज़न सिंह बोले..उनकी एक ही दहाड़ से बेचारा जीवन सिंह डर के मारे कांपने लगा। बेचारा गिड़गिड़ाया “साहब, माफ़ कीजिये। मैं तो बेचारा रोहिड़ा [जंगल] का जानवर हूँ, आपकी दया पर जी रहा हूँ..सभी जानते हैं हुज़ूर, इस शिक्षा विभाग के बियावान जंगल में एक ही शेर दहाड़ सकता है..वह है, आप।” सुनते ही, बाबू गरज़न सिंह के लबों पर [होंठों पर] मुस्कान छा गयी। अब वे ठहाके लगाकर ऐसे हंसने लगे, मानों लंका का लंकेश अट्टहास कर रहा हो..? फिर अपनी हंसी रोककर, सहजता से कहने लगे “प्यारे लाल, अपने-आपको रोहिड़ा का जानवर मत कहो। कहना है तो कहिये, रोहिड़ा का जागीरदार। ठाकुर साहब, हंसी और रोद्र रूप दिखलाना तो हमारी अदा है...प्यारे। नाराज़ हो गया, प्यारे जीवन सिंह ?”
बाबू गरज़न सिंह के लिए भले यह मज़हाक़ [परिहास] रहा होगा, मगर जीवन सिंह अपने-आपको अपमानित महसूस करने लगा। उसने सुन रखा था उसके बाप कभी रोहिड़ा गाँव के जागीरदार थे। समय के फेर ने उनके बेटे को, रोहिड़ा का जानवर बना दिया..? “काम भालो है, चाम नहीं” [लोगों को काम चाहिए, काम करने वाले की चमड़ी से कोई लेना-देना नहीं] इस व्यवहारिक सिद्धांत को अपना उसूल बनाकर, उसने अपने दिल में उतार लिया..अब वह विधान-सभा ड्यूटी से छुटकारा पाने के लिए, किसी के आगे भीख नहीं मांगेगा। अब काम ही करना है तो, अब स्कूल क्या और दफ़्तर क्या ? अब तो काम ही करना है, बस।
“छोटी-छोटी स्कूलें ही देखी है ठाकुर जीवन सिंह, यह दफ़्तर तो अब तुम्हारे पल्ले पड़ा है।” गरज़न सिंह ने कह तो दिया, सुनते-सुनते जीवन सिंह को ऐसा लगा कि अब बर्दाश्त करने की सीमा ख़त्म होती जा रही है। वह भूल नहीं पा रहा था, उसने नौकरी की शुरुआत कार्यालय ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] पाली से ही की थी। जहां चपरासियों पर राज़ करने वाला, माना हुआ तुर्रम खां ‘मोहना जमादार’ वहां मौजूद था। उसकी ग़लत नीति का विरोध करने वाला, एक-मात्र जीवन सिंह ही था। उसकी खिलाफ़त करता हुआ, उसने उसके साथ लोहा लिया। बात यह थी, वह दफ़्तर के सभी चपरासियों से दफ़्तर की सफ़ाई का काम करवाता..मगर, वह ख़ुद कभी झाड़ू के हाथ नहीं लगाया करता। कारण यह था, उस पर संस्थापन प्रभारी आनंद कुमार मेहरबान रहते थे। दफ़्तर में काम करने की अपेक्षा उसने उनकी मस्कागिरी में, वह अपना वक़्त जाया करता था। इस कारण किसी चपरासी में इतनी हिम्मत न होती कि, वे उसे काम करने का कहे..! आनंद कुमार का सपोर्ट पाकर, जनाब बन गए चपरासियों के लीडर। फिर क्या ? दफ़्तर का काम-काज कुछ करना नहीं, और दूसरे चपरासियों पर राज़ करना..जिससे उसकी शाम मुफ़्त की दारु और सिगरेट के साथ अच्छी तरह से गुज़र जाया करती..और साथ में उसके पाँव दबाने वाला कोई ज़रूरतमंद चपरासी, ज़रूर उसकी सेवा में वहां हाज़िर रहता। एक दिन उसकी जीवन सिंह से ऐसी खटपट हो गयी, जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘उसने ऐसे ठाटबाट में पल रहे मोहने को मज़बूर करके, उसके हाथ में झाड़ू और पोचा पकड़ा दिया..तब से मोहना दफ़्तर में बराबर सफ़ाई करने लगा।’ इस तरह छठी का दूध पीकर, बेचारा मोहना घबरा गया। फिर क्या ? उसने अपने आका आनंद कुमार के आगे गुहार लगाई, आनंद कुमार को उस पर रहम आ गया। जिससे कुछ दिन बाद, जीवन सिंह का तबादला मिडल स्कूल में कर दिया गया..तब बेचारे मोहने को शान्ति मिली। तब से वही तुर्रम खां मोहना जमादार यूनियन लीडर की हैसियत से, जीवन सिंह से आँख मिलाकर बात नहीं कर पाया। अगर यहाँ उसकी बदक़िस्मती ठहरी, इस मक्खनबाजी के खिलाड़ी रमेश चौहान से मात खाकर उसे इस एलिमेंटरी दफ़्तर में तक़लीफ़ें देखनी पड़ी।
टेबल पर ख़ाली ग्लास रखकर, बाबू गरज़न सिंह दहाड़ते हुए बोले “अरे ओ बावले। फिर चिंता में डूब गया ? जा, इस मुच्छड़ नारायण को पानी पिला।” उनकी बुलंद आवाज़ ने जीवन सिंह के मानस में आ रहे विचारों पर, ताला लगा दिया। तत्काल उसके क़दम नारायण सिंह को पानी पिलाने के लिए, उनकी तरफ़ बढ़ गए।
गर्मी बढ़ गयी थी, इस भीषण गर्मी से व्याकुल होकर बाबू गरज़न सिंह ने अपना पेंट और बुशर्ट उतारकर खूटी पर डाल दिया। फिर वे बनियान और चेक वाला चड्डा पहने, असुरों के राजा महिषासुर की तरह वे टेबल पर पसर गए। टेबल पर पसरे हुए गरज़न सिंह, अपने मुख से बोल उठे “हाय, इतनी गर्मी..? काम नहीं होता।” वे टेबल पर ऐसे पसरे हुए थे, मालुम होता...भीषण गर्मी को बर्दाश्त न कर, महिषासुर ठन्डे जल के सरोवर में घुस गया हो..?
गर्मी से व्याकुल गरज़न बाबू को एक ग्लास पानी एक बार और पिलाकर, जीवन सिंह ने उनसे पूछा “यह विधान-सभा सत्र कब ख़त्म होगा, हुज़ूर ?”
सुनकर, गरज़न सिंह हंस पड़े..अपनी बत्तीसी निकाले। फिर, अपने लबों पर ज़हरीली मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए कह बैठे “डफ़ोल शंख। उधर देख पीछे मुड़कर, यह मुच्छड़ नारायण तूझे देखकर मुस्करा रहा है...अगर मैं तूझे घर जाने दूं तो साले, तू तो जाकर अपनी बीबी के साथ हमबिस्तर हो जाएगा। मगर यह मुच्छड़ कहाँ जाएगा, बेचारा ? इसकी डोकरी इसके बुलाने पर भी, इसके पास नहीं आती। यह विधान-सभा ड्यूटी तो, इसका टाइम-पास का ज़रिया है। यह जनाब ऐसे हैं, जो दूसरे बाबूओं की ड्यूटी निकालकर अपना टाइम पास करते हैं। क्या अब तू इस डोकरे का, टाइम पास का जरिया बंद करना चाहेगा..बेवकूफ ?”
“काहे मज़हाक़ करते हो, उस्ताद ? गज़ब के अमरीश पुरी ठहरे आप, ठहाके लगाना तो कोई आपसे सीखे। जनाब, मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, जो मुफ़्त में इन बाबूओं की ड्यूटी निकालूंगा ? मुफ़्त में ड्यूटी निकाले, मेरी जूती।” बाबू नारायण सिंह ने, अपनी मूंछों के बालों को सहलाते हुए कहा “जानते हैं, आप ? इस दफ़्तर में ढेर सारे काग़ज़ों को इनवर्ड करना पड़ता है, और ढेर सारी डाक रोज़ डिस्पेच करके भेजनी पड़ती है..? अब समझे ? इन लोगों से मैं इंवर्ट-आउट वर्ड का काम पूरा करवाकर, इनकी ड्यूटी निकालता हूँ। आख़िर, सौदा है भाई।” कहते-कहते इनकी मूछों के बाल मुंह में आने लगे, इधर इनका मुंह खुलते ही सामने आगे के दांत नज़र नहीं आये..ऐसा लगा, मानों इन दांतों को कोई चूहा चुराकर ले गया हो ? इन दांतों के न होने के कारण, वे मुंह के अन्दर घुस रहे मूंछों के बालों को रोक नहीं पा रहे थे। तभी टेलीफ़ोन की घंटी बजी, क्रेडिल से चोगा उठाकर वे बोले “हल्लो..हल्लो। तारांकित सवाल..?....अरे हुज़ूर, उतार रहा हूँ..आप बोलिए।.....ठीक है, ठीक है..अब रखता हूँ।” डायरी में मेसेज़ नोट करके, उन्होंने कलम नीचे रख दी।
फिर क्रेडिल पर चोगा रखते हुए, नारायण बाबू बाबू गरज़न बाबू से बोले “भाई गरज़नजी, कैसा ज़माना आया है ? अब बाबू लोग जागेंगे और अफ़सर लेंगे नींद। रामसा पीर, तेरी माया को कोई नहीं जानता। फिर क्या ? अब अफ़सरों के घर चक्कर काटो, आगे-आगे हम और पीछे-पीछे ये भौंकते कुत्ते।”
“फ़िक्र मत कीजिये, बस आप कुत्ते को कुत्ता कहकर उसका अपमान मत कीजिएगा। इनको भंडारी साहब कहिये, आख़िर ये कुत्ते ठहरे आपके दोस्त। बताइये आप, सीढ़ियों के मोड़ पर आप इनके पहलू में बैठकर धूम्र-पान का लुत्फ़ लेते हैं या नहीं ?” यह कहकर, बाबू गरज़न सिंह उठे, और उठकर अपनी अलमारी खोलकर दफ़्तर का कार्य निपटाने के लिए दो-चार फाइलें बाहर निकालकर टेबल पर रखी। फिर कहने लगे “चलते ऑफ़िस में ये करमज़ले मास्टर काम करने नहीं देते, बार-बार बोलकर करते हैं डिस्टर्ब.. बोलते हैं, ‘हुज़ूर, मेरा ख़्याल कीजिये..’ तो कोई कहता है ‘आपके पाँव पड़ता हूँ, आप मेरा तबादला अमुख जगह पर कर दीजिये।’ एक दिन मैंने झटक दिया इन साल्लों को, यह कहकर.. ‘मुझे तुम लोगों ने अंगद समझ रखा है, जो तुम जैसे रावण आकर मेरे पाँव पकड़े ?’ इसी लिए, रात को दफ़्तर आकर मैं अपना काम निपटाता हूँ।”
सुनकर, जीवन सिंह उनका मुंह ताकता रह गया। और सोचने लगा “अमरीश पुरी की छठी औलाद। फिर, तू दिन में दफ़्तर आता ही क्यों ? रात की विधान-सभा ड्यूटी ले लेता, और साथ में अपना बकाया काम निपटा लेता। फिर, हमें काहे यहाँ रात को बुलाकर दुःख देता है ? अजी एलिमेंटरी दफ़्तर है, क्या ? यह कमबख़्त ठहरा, अंधेर नगरी..जहां विधान-सभा सत्र में एक ही बाबू की ड्यूटी कई बार लग जाया करती है, और बाबू गरज़न सिंह और रमेश जैसे चपरासी की ड्यूटी एक बार भी नहीं लगती। अरे भय्या, यहाँ तो दिया तले अँधेरा है..ख़ुद घीसू लालजी और दफ़्तर के एस.डी.आई. लोग सफ़ा-सफ़ बच गए इस ड्यूटी से।” तभी ज़ोर-ज़ोर से बोलता हुआ, रमेश सीढ़ियां चढ़ता हुआ दफ़्तर में दाख़िल हुआ। उसकी आवाज़ से जीवन सिंह के मानस में चल रही विचार श्रंखला टूट गयी। आते ही उसने टेबल पर टिफ़िन, मिठाई का डब्बा और नमकीन रखा, फिर वह तपाक से बोला “अरे हुज़ूर, जल्दी करो..पहले जीम लो।” इतना कहकर, उसने फाइलें हटायी..फिर, टेबल पर अख़बार बिछाने लगा।
“मिठाई कहाँ से लाया रे, मादरकोड ? किसने दिए तूझे, मिठाई के पैसे ?” गुस्से से काफ़ूर होकर, गरज़न सिंह ने रमेश से पूछा।
“आम खाने से मतलब रखो ना, क्यों...” रमेश झेंपता हुआ बोला।
“आम क्या ? तूझे खा जाऊं, और डकार भी न लूंगा..समझे, उल्लू की औलाद ? बता, मिठाई के पैसे किसने दिए ?” रमेश की आँखों में घूरते हुए, गरज़न सिंह ने कहा।
“साहब, सुमेरपुर मिडल स्कूल के हेडमास्टर नेका रामजी वहीँ खड़े थे, उन्होंने अपने पैसे से मिठाई दिलाकर मुझे कहा ‘बाबूजी को ज़रा रोकना, मैं अभी दफ़्तर आ ही रहा हूँ।’ समझ गए, हुज़ूर ? नेका रामजी तशरीफ़ ला रहे हैं, उनके आने के पहले आप जीम लीजिये..फिर आराम से बैठकर, आप उनसे गुफ़्तगू करते रहना।” सपकाता हुआ, रमेश बोला।
नेका राम यानी ‘बहरे महोदय’ उनका नाम सुनकर गरज़न सिंह का रोम-रोम कांप उठा। नेका राम ऐसे बहरे आदमी थे, जो अपने कान में कभी सुनने की मशीन नहीं रखते थे..उनसे बात करना, एक तरह से चिल्ला-चिल्लाकर अपने गले में दर्द पैदा करने के बराबर था। ख़तरे का आभास पाकर झट गरज़न सिंह ने कपडे पहन लिए, फिर वे रमेश से बोले “फ़टाफ़ट थैली में रख दे, मिठाई और नमकीन। अब तो प्यारे, अपने रूम पर चलकर ही खाना खायेंगे। अगर वह यहाँ आ गया तो, मेरा सर खा जाएगा। टिफ़िन और थैली उठा ले, और फटा-फट अलमारी बंद करके मेरे साथ चल..फिर, मुझे अपनी साइकल पर छोड़ दे, कमरे पर।”
यह सुनते ही, यहाँ से भगने के लिए तैयार बैठा जीवन सिंह..रमेश के उठने के पहले ही, उसने टेबल पर रखी फाइलें उठाकर अलमारी में रख दी और अलमारी लोक करके चाबियाँ बाबू गरज़न सिंह को थमा दी। फिर क्या ? एक मिनट भी ख़राब नहीं किया बाबू गरज़न सिंह ने, झट बैग थामे हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने लगे। और उनके पीछे-पीछे बळोकड़ा रमेश, हाथ में थैली और टिफ़िन लिए।
उन दोनों के जाने के बाद, जीवन सिंह दफ़्तर का ताला हाथ में लेकर बाबू नारायण सिंह से बोला “भाई साहब, चलिए। चलते वक़्त क्रेडिल से चोगा उठाकर नीचे रख देना, फिर घंटी आने का कोई सवाल नहीं। आख़िर, इस अमरीश पुरी को अमिताभ बच्चन नज़र आ ही गए। चलो, अच्छा हुआ। यह ईर्ष्यालु यानी बळोकड़ा भी चला गया, अमरीश पुरी के साथ।”
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“ईर्ष्यालु” यानी बळोकड़ा
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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कोई ज़माना था, जब गाँवों में ठाकुरों का राज़ था। तब उनके चलते थे, सिक्के। गाँव तब गाँव नहीं कहलाते, अमुख-अमुख ठाकुर साहब की जागीर कहलाती थी। तब ठाकुर साहब का परिचय इन ठिकानों के नाम से दिया जाता था..चाहे प्रीत की डोर हो या डंडे का बल हो, मगर ठाकुर इज़्ज़तदार माने जाते थे। लोगों के दिल में उनके प्रति टके की इज़्ज़त न हो, मगर जुहाराजी, या बन्ना वगैरा अल्फाज़ों से उन्हें सम्मान मिलता रहता और वही जुहारजी या बन्ना इज़्ज़त पाने के लिए लोगों की जूतियाँ उतरवा देते, और सरे-आम उनकी इज़्ज़त नीलाम कर देते। जूतियाँ उतरते ही लोगों की कमर लचका दी जाती, खम्मा घणी का मधुर शब्द सुनने के लिए। लोगों की झुकी कमर, झुके सिर और उनके मुंह से निकलते “खम्मा-घणी” के अल्फ़ाज़ ठाकुर साहब को सत्ता का अहसास करवा देता। तब यह ठाकुर रूपी केसरी सिंह नाहर, सबको अपने दर्शन देकर गुज़र जाया करता।
मगर, बदक़िस्मती रही इन ठाकुरों की..देश आज़ाद हो गया। अंग्रेज देश छोड़कर चले गए, और रियासतें भारत-सरकार में विलीन हो गयी। रही-सही इस सीलिंग क़ानून ने तो कमर तोड़ दी, इन ठाकुरों की। ज़मीन किसानों के बीच में बाँट दी गयी, और दहाड़ते इन शेरों की नाक में नकेल डाल दी गयी। अब बेचारे ठाकुर, आम आदमियों की तरह जीवन बसर करने लगे। जमा पूँजी के नाम जो इनके पास दौलत थी, जो इन लोगों ने सत्ता के नशे में रहते हुए तवायफ़ों और दारु की महफ़िलों में उड़ा दी। वक़्त रहते ये लोग न सुधरे, नारी को भोग की सामग्री समझते हुए उसे इज़्ज़त न दे सके। जो नारी देवी लक्ष्मी का रूप होती है, वह लक्ष्मी इन लोगों से रूठ गयी। पैसा है तो इज़्ज़त होती है, समाज में। इस कंप्यूटर युग में, पैसे को ही धर्म माना जाने लगा। इसी पैसे के लिए ये गरज़ने वाले केसरी सिंह नाहर, नौकरी-चाकरी की तलाश में गली-कूचे में घूमने लगे। जो कल हज़ारों चाकरों से घिरे रहते थे, वे आज़ ख़ुद चाकर बन गए। कोई किसी फेक्टरी या कारख़ाने का चौकीदार बन गया, तो कोई पुराने रसूख़ात को काम में लेकर किसी सरकारी दफ़्तर में चपरासी या अर्दली बन गया। इतना कुछ हो गया, फिर भी इन लोगों को अपने-आपको ‘ठाकुर साहब’ कहलवाना अच्छा लगता..चाहे वह अफ़सर या सेठ व्यंग में उनको ऐसा कहे ‘ठाकुर साहब, ज़रा पानी पिला दीजिएगा।’ यह सुनकर, इनकी बांछे खिलना स्वाभाविक ठहरा। ‘ठाकुर साहब’ शब्द सुनकर, वे अपनी मूछों पर ताव देने बैठ जायेंगे।
यह कहानी है, रोहिड़ा गाँव की। ठाकुर सबल सिंह इस गाँव के जागीरदार थे, नारी और सुरा के व्यसन ने इनको सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया। इनकी घरवाली इस दुर्दशा को बरदाश्त न कर सकी, वह अपने एक-मात्र बालक जीवन सिंह को इनकी गोद में डालकर इस दुनिया से कूच कर गयी। पत्नि के ग़म को वे बर्दाश्त नहीं कर पाए, और वे ज़्यादा दिन इस ख़िलक़त में जी न सके...और दिल पर आघात लगने से वे अपने १० साल के बालक जीवन सिंह को, बेसहारा अनाथ छोड़कर इस दुनिया से कूच कर गए..!
ईश्वर की लीला है, भाग्य से सबल सिंह के मित्र राम सिंह खीची ने जीवन सिंह को अपने सरंक्षण में ले लिया। तब राम सिंह के बड़े पुत्र नारायण सिंह, शिक्षा विभाग में चपरासी के पद पर नौकरी करते थे। नौकरी करते-करते उन्होंने किसी तरह टेंथ क्लास उत्तीर्ण कर ली, और इसी विभाग में कनिष्ठ लिपिक के पद पर पदोन्नति पा गए। कालांतर जीवन सिंह के बालिग़ होने पर, उन्होंने उसकी भी नौकरी अपने विभाग में...चपरासी के पद पर, लगा दी। इस तरह, उन्होंने अपने पिता की छोड़ी जिम्मेदारी पूरी की।
जीवन सिंह ने अपनी ज़िंदगी में आर्थिक संघर्ष ही पाया, इस कारण उसने एक-एक पैसे की कद्र करने की आदत बना डाली। जिसकी बदौलत उसने गांधी-कोलोनी में एक भूखंड ख़रीदा, और ठेकेदार करीम खां को मकान बनाने का ठेका दे दिया। कमरे बनने तक उसे किसी तरह की कोई तक़लीफ़ न आयी, क्योंकि जीवन सिंह जिस मिडल स्कूल में काम करता था..वहां के हेडमास्टर कुंदन मल, राम सिंह खीची के अभिन्न मित्र थे। इसी कारण, वे जीवन सिंह पर मेहरबान थे। उनकी मेहरबानी से, उसे स्कूल के काम से काफ़ी छूट मिली हुई थी। उसका जब जी चाहता, वह स्कूल आता और जब जी करता स्कूल छोड़ देता। इस कारण जब-तक कमरा बनता रहा, तब-तक उसे कमठे की देख-रेख में किसी प्रकार का व्यवधान उठाना नहीं पड़ा। यहाँ तो उसने कुंदन मलजी की भलमानसहत पाकर, उसने एक क़दम और आगे बढ़ा दिया था। उसने शादी-विवाह के सीज़न में, विडिओ सूटिंग करने का धंधा भी चमकाना शुरू कर दिया।
धंधे की बरकत ने कर दी, सारी मुश्किलें हल। अब तो मकान बनने लगा, धड़ा-धड़। तभी जयपुर में, विधान-सभा सत्र शुरू हो गया। सचिवालय सभी सरकारी दफ़्तरों से तारांकित सवालों की जानकारी, दूर-भाष द्वारा हासिल करने लगा। एलिमेंटरी दफ़्तर में तारांकित सवालों के आने से कार्यालय सहायक घीसू लाल शर्मा के ऊपर जिम्मेदारी आ गयी कि, वह किस क़ाबिल कर्मचारी को टेलीफ़ोन पर सन्देश लेने के लिए बैठाये...और प्राप्त तारांकित सवालों के सन्दर्भ में, सूचनाओं सेट दफ़्तर के बाबूओं से वक़्त पर कैसे तैयार करवाएं ? इस कार्य को क्रियान्वन करने के लिए, घीसू लाल ने दफ़्तर में बाबूओं की बैठक ली। इस बैठक में बाबू गरज़न सिंह के दिशा-निर्देशन में, सभी बाबूओं और चपरासियों की ड्यूटी का चार्ट तैयार किया गया। काम करने के लिए तीन पारी रखी गयी। अगर देखा जाय तो, नियमानुसार एक अधिकारी, एक लिपिक, कार्यालय सहायक या वरिष्ठ लिपिक की ड्यूटी हर पारी में लगती है। मगर ऐसा करने से, दफ़्तर में तूफ़ान खड़ा हो जाता। इस दफ़्तर में लगे नए कनिष्ठ लिपिकों का समूह जो बाबू गरज़न सिंह के साथ रोज़ जोधपुर से आना-जाना करता था, उनकी ड्यूटी लग जाने से उनके आने-जाने पर रोक लग सकती थी..इस कारण घीसू लाल शर्मा ने उनकी ड्यूटी, विधान-सभा सत्र में नहीं लगायी। कारण यह रहा, इन बाबूओं के सर पर, दफ़्तर के स्तम्भ ‘बाबू गरज़न सिंह’ का कृपा हस्त था। इनका कृपा-हस्त रहेगा भी, क्यों नहीं..? ये नामाकूल बड़े काम के सदर सिपहसालार ठहरे, जिनकी जांफ़िशानी, वफ़ादारी और तुर्जुबेदारी पर बाबू गरज़ सिंह को नाज़ था। वे इनका सपोर्ट करेंगे भी क्यों नहीं ? ये सारे बाबू इनके सदर सिपहसालार ठहरे, जो इनकी ताकत थी..जिनके बलबूते पर गरज़न सिंह इस दफ़्तर में धाक जमाये बैठे थे। चपरासी रमेश इनका ख़बरनवीस ठहरा, जो अपनी ताक-झांक करने की कला को काम में लेता हुआ लेखा शाखा की हर गोपनीय ख़बर लाकर बाबू गरज़न सिंह को परोस देता था। लेखाकार घसीटा राम यानी शिव राम प्रजापत किसी को नियमों के ज़ाल में फंसाकर, घसीटे या नहीं घसीटे..उसके पहले रमेश के द्वारा लाई गयी ख़बर की सच्चाई को, बाबू गरज़न सिंह अपने इन सिपहसालारों से कन्फर्म कर लिया करते थे....जो उस वक़्त, लेखा शाखा में ही काम किया करते थे। फिर इस रमेश और इन सिपहसालारों की ड्यूटी, विधान-सभा सत्र के चार्ट में कैसी लगती ? घीसू लाल शर्मा की मज़बूरी ठहरी, बेचारे खौफ़ खाते थे बाबू गरज़न सिंह से..कहीं वह दफ़्तर में बवाल खड़ा न कर दे..? मक़बूले आम बात यही है, ज़बरों से सभी डरते हैं। सियासत यही कहती है, इन ज़बरों को अपने पक्ष में रखकर, आप कहीं भी किसी भी क्षेत्र अपना काम निकलवा सकते हैं। चाहे वह क्षेत्र दफ़्तर हो, या लोकतंत्र का सियासती मंच ? फिर क्या ? इस रमेश और इनके सिपहसालारों की ड्यूटी विधान-सभा सत्र कार्य में न लगाकर, घीसू लाल ने बाबू गरज़न सिंह पर अहसान का बोझ लाद दिया। इस तरह, इसके साथ सिपहसालारों को अपने पक्ष में कर लिया। लोकतंत्र में मत-शक्ति ही, ताकत मानी जाती है। जिसे यह शक्ति मिल जाए, वह शख़्स सियासत के क्षेत्र में सफ़ल आदमी सिद्ध होता है। फिर क्या ? इन सिपहसालारों के स्थान पर, विधान-सभा सत्र में बाबू नारायण सिंह की नाईट-ड्यूटी निश्चित कर दी गयी। और इधर रमेश ने झट अपनी जगह, जीवन सिंह को ड्यूटी पर लगाने का प्रस्ताव रख दिया।
हेडमास्टर जनाब कुंदन मल के हाथ में दफ़्तर का इज़रा [आदेश] पहुंचा, जिसे पढ़कर उनके हाथ के तोते उड़ गए। उसमें साफ़-साफ लिखा था “विधान-सभा सत्र के चलने से, आपकी स्कूल में काम कर रहे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी श्री जीवन सिंह को इस दफ़्तर में आगामी आदेश तक लगाया जाता है। सम्बंधित कर्मचारी को आप अविलम्ब कार्य-मुक्त करें, और उसे निर्देशित करें कि वह शीघ्र इस दफ़्तर में उपस्थिति देवें। इस आदेश की अवहेलना करने पर, आपके विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की जा सकती है।” अनुशासनिक कार्यवाही का नाम पढ़ते ही, बेचारे कुंदन मल के पेट में मरोड़े उठने लगे...ग़नीमत है, उनको निपटने के लिए पाख़ाना नहीं जाना पड़ा। जीवन सिंह की दिनचर्या में बवाल उठ खड़ा हुआ, क्योंकि अब रहा-सहा ‘जनाब कुंदन मल का सपोर्ट’ भी हाथ से चला गया।
अब उसे यकीन हो गया, इसके डेपुटेशन के पीछे इस बलोकड़े यानी ईर्ष्यालु रमेश का हाथ है। उसका नाम दिमाग़ में आते ही जीवन सिंह के दिल में रमेश के लिए भद्दी सी गाली निकल गयी, वह अपने होंठों में ही बोल उठा “हरामखोर। बाबूओं की चमचागिरी करता-करता, तूने मेरा डेपुटेशन एलिमेंटरी दफ़्तर में करवा डाला। इस तरह तूने, अपने दिल की भड़ास पूरी निकाल ली। अरे ए, नामाकूल। क्यों जलता है, मुझसे ? मैं बरातों में विडिओ फ़िल्में बनाता हूँ, लोगों की एल.आई.सी. करता हूँ...चार पैसे कमाता हूँ तो अपनी मेहनत से। तू क्यों नहीं कमाता, करमज़ले। तूझे किसने मना किया, कमाने को..?”
आख़िर, मन-मसोसकर वह दफ़्तर जाने के लिए तैयार हुआ। जाते वक़्त, घरवाली बदन कौर ने बीड़ियों का बण्डल और माचिस उसके हाथ में थमायी। फिर, वह कहने लगी “मैं जा रही हूँ, कमटे की देख-रेख के लिए। याद रखना, छोटे मुन्ने को बुख़ार है..उसे किसी डॉक्टर को
दिखलाकर इलाज़ ले लेना।” इतना कहकर, बदन कौर चली गयी। पीछे से, जीवन सिंह सोचने लगा “पहले कहाँ जाऊं, अस्पताल या दफ़्तर ?”
अगर दफ़्तर में देरी से पहुंचे, तो वहां साक्षात यमराज के अवतार घीसू लाल दरवाज़े के सामने ही अंगार उगलते नज़र आयेंगे, और जनाब मुंह बनाकर यह बात ज़रूर कहेंगे कि ‘कहाँ चल दिए, साहबेआलम ? इस तरह मुंह छिपाकर, जाते कहाँ हो ?’ और इनके उगले गए अंगारों के साथ-साथ, रमेश और कैलाश बाबू सैन के विष-भरे व्यंग-बाण भी तैयार..तरकश से निकलने के लिए। जैसे भेल-पुड़ी में प्याज़..जिसे खाना बड़ा लज़ीज़, मगर खाने के बाद वह आँखों से पानी उतार दे..?
हारकर बेचारा जीवन सिंह बच्चे को गोद में उठाया, और उसे कम्बल से लपेटा। फिर, हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां चढने के लिए तैयार हो गया। दफ़्तर में दाख़िल होने के बाद उसने बच्चे को बेंच पर सुलाया, जोइनिंग एप्लीकेशन लिए घीसू लाल के सामने हाज़िर हुआ। और उनसे रोनी आवाज़ में कह बैठा “हुज़ूर, रहम। बच्चे की तबियत ख़राब है, उसे अस्पताल ले जाना है जनाब। मेहरबानी करके मुझे आज़ ही कार्य-मुक्त करके वापस स्कूल भेज दीजिएगा...आपकी बहुत मेहरबानी होगी। भगवान आपका भला करेगा।”
“यह हम देख लेंगे, अभी तुम जाओ लेखा चेंबर में,..सभी को पानी पिलाओ।” ओ.ए. घीसू लाल ने, आँखों पर ऐनक चढ़ाकर कहा। फिर क्या ? बेचारा जीवन सिंह मटकी के पास गया और पानी से भरा लोटा उठाया, फिर चल दिया सबको पानी पिलाने। इस वक़्त उसने पानी से भरे लोटे को इस तरह उठाया, मानों उसे निपटने के लिए दिशा-मैदान जाना हो।
“आनंद, किस आदमी की ड्यूटी कब लगी है...? काग़ज़ कब बनाकर लाएगा, भाई ? कब से, इस काग़ज़ की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ?” आनंद को आवाज़ देकर, घीसू लाल ने कहा “अरे भाई, क्या कर रिया है तू ? परेशान हो गया यार, इन्तिज़ार करते-करते। यह दफ़्तर है, या तुमने इसे जवाहर ख़ाना बना रखा है ? भय्या यह दफ़्तर है, लोग यहाँ ड्यूटी ज्वाइन करने आ रहे हैं..और, अभी-तक तुम ड्यूटी-चार्ट बनाकर लाये नहीं..अब ख़ाक ड्यूटी ज्वाइन करवाकर, इनसे काम लूं ?”
“हेडसाहब, यह ललित बोल रिया है कि, वह चार्ट बना देगा।” लापरवाही बरतता हुआ आनंद, वहीँ अपनी सीट पर बैठा-बैठा बोला।
“काम किसे दिया, तूझे या इस ललित दवे को..?” नाराज़गी के साथ, घीसू लाल बोले।
“हेड साहब, वह काम कर लेगा। आप काहे फ़िक्र करते हैं..? हुज़ूर, आप तो आम खाने से मतलब रखिये। काम कोई करे, इससे क्या लेना-देना ?” सामान्य शाखा दो के चेंबर में बैठा आनंद ज़ोर से बोल उठा।
“यह दफ़्तर है या कुंजड़ों की मंडी ? कोई इधर से चिल्ला रहा है, तो कोई उधर से..? अरे हुज़ूर, इस होल को कुंजड़ो की मंडी मत बनवाइए। बस आप तो हर शाखा में रखवा दीजिये, इंटर-कॉम..तब इन कुंजड़ों का चीख़ना-चिल्लाना बंद होगा।” दफ़्तर के दरवाज़े के पास लगी सीट पर बैठे, नारायण सिंह बोल उठे।
“नारायण सिंहजी। एक इंटरकॉम का सेट नीचे भंवर की दुकान पर लगा दीजिये, फिर रहेगा आपको आराम..बार-बार आपको सीढ़ियां नहीं उतरनी पड़ेगी।” व्यंगात्मक मुस्कान लबों पर फैलाते हुए, आनंद बोला। फिर, धीरे-धीरे आगे बोला “फिर क्या ? टी.सी. लेने जो महानुभव चाय की दुकान पर आयेगा, यह भंवर आपसे वहीँ बैठा बात करवा देगा..और आप, आराम से यहीं बैठे उससे सेटिंग कर लेना।”
“क्या बोला रे, आनंद ? मुझे सब सुनायी देता है, तू क्या बोल रिया है ? अब सुन..दूसरों के पाप गिनाने से आनंद, तेरे पाप कम नहीं होंगे। कुछ तो ख़्याल कर, मैंने अपने ये बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं। रोज़ देखता हूँ, बेटा। यहाँ अक्सर निजी फ़ोन आते किसके हैं, बोल तेरे ? यह इंटरकॉम तेरे काम की चीज़, और तेरे लैला के काम की..नीचे चाय की दुकान पर बैठकर तेरी लैला चाय की चुस्कियां लेती हुई, इंटरकॉम से तुझसे बात कर लेगी..उस बेचारी को, ऊपर आना नहीं पड़ेगा।” अंगार उगलते हुए नारायण सिंह ने, उसकी पोल-पट्टी खोलते हुए कह दिया। सुनकर बेचारा आनंद, स्तब्ध होकर रह गया। वह बेचारा, आगे क्या बोलता ? आगे बोलने का अर्थ है, उसके खपरे निकलना तय। रेलगाड़ी की यात्रा के दौरान, उसके साथ रोज़ आना-जाना करने वाली सुदर-सुन्दर नवयोवानाएं उसके पास ज़रूर बैठा करती। उनके साथ होती उसकी गुफ़्तगू की बातें, अब सबके सामने न आ जाए..? अगर ये बातें सबको मालुम हो गयी तो, उसकी इज़्ज़त की बखिया उधड़नी तय..! इस डर से, वह बेचारा चुप होकर रह गया। मगर इस रमेश को इस गुफ़्तगू से कोई लगाव था नहीं, उसकी तो एक ही योजना थी ‘किसी तरह इस जीवन सिंह को, इस दफ़्तर में रोके रखना। कहीं घीसू लाल इस पर रहम खाकर, इसे रवाना न कर दें..?’ बस, उसके शातिर दिमाग़ ने दिखला दी दिशा। फिर क्या ? झट उसने अपने टिफ़िन से प्याज़ बाहर निकाला, और वह झट जा पहुंचा घीसू लाल के पास। फिर, उनके कान में फुसफुसाकर कहने लगा “साहब, देखी आपने इस जीवन सिंह की करतूत ? यह कमबख़्त, बड़ा चालाक निकला। अपने बच्चे की बगल में प्याज़ दबा दिया, हुज़ूर। तब तो हुज़ूर..थर्मामीटर बढ़ा तापक्रम ही दिखलायेगा। इसकी यह क़ारश्तानी कोई नयी नहीं है, कई दफ़े इसे अजमा चुका है।” इतना कहकर, रमेश ने झट उनकी टेबल पर उस लाये गए प्याज़ को प्रमाण के तौर पर रख दिया। फिर क्या ? घीसू लाल ठहरे भोले पंडित, झट उसकी बातों में आ गए और कह उठे “अच्छा sss..! यह कुतिया का ताऊ, इतना होश्यार निकला ? काठ का उल्लू हूँ, मैं ? क्या मेरे पास आला दिमाग़ की जगह, कूड़ा भरा है..? कमबख़्त...बच्चे का फर्ज़ी बुख़ार दिखलाकर, दफ़्तर की ड्यूटी से जी चुराना चाहता है ? अभी करता हूँ तेरा ऐसा बंदोबस्त, कमबख़्त हमेशा याद रखेगा मुझे...कभी मेरे जैसा, शेर का सवा शेर मिला..!” उस टेबल पर रखे प्याज़ को उठाया, फिर घीसू लाल उसे परखने लगे।
दो घंटे बीत गए, जीवन सिंह को दफ़्तर में आये...! बेचारा काम से थक गया, जैसे ही उसने अपनी थकावट दूर करने के लिए ज़ेब से बीड़ी का बंडल बाहर निकाला..तभी उसे घीसू लाल की पुकार सुनायी दी। वापस बण्डल को अपनी ज़ेब के हवाले कर, और झट जा पहुंचा घीसू लाल के पास।
“हुकूम।” बरबस रुआंसा होकर इतना ही बोला सका, बेचारा। फिर क्या ? फ़िल्मी विलेन की तरह घीसू लाल ने उसे ऊपर से नीचे तक निहारा, फिर विलेन अजीत कुमार की तरह बोले “सुन ले एक बार, आज़ से तेरी नाईट-ड्यूटी है...अभी तू घर चला जा। अब तू शाम के पांच बजे एक्यूरेट टाइम पर, दफ़्तर आ जाना..समझे ?”
“हुज़ूर, दो घंटे पहले कह देते तो मुन्ने को सरकारी अस्पताल में दिखला देता..अब तो हुज़ूर, अस्पताल का आउट-डोर भी बंद हो गया होगा ? अब कल से ड्यूटी देने की अनुमति दे दीजिये, हुज़ूर बच्चे का इलाज़ भी हो जाएगा आपके रहम से।” जीवन सिंह ने हाथ जोड़कर, निवेदन किया।
“तो तू आयेगा नहीं, विधान सभा ड्यूटी कोई बच्चों का खेल नहीं है ? दिन के २४ घंटें होते हैं भय्या, सरकारी कर्मचारी को जब भी बुलाया जाय, उस वक़्त ड्यूटी पर आना पड़ता है..समझे ?” घीसू लाल बोले। फिर आक-थू की आवाज़ निकालते हुए, पास पड़े ख़ाकदान [कूड़ादान] में ज़र्दे की पीक थूकी। तभी जीवन सिंह की नज़र दीवार पर लगे पोस्टर पर गिरी, जिस पर लिखा था “जनाब, ख़ाकदान [कचरादान] में कचरा डाला जाता है। इसे आप पीकदान न बनाएं।” इस तरह, दफ़्तर के बनाये उसूल पर यह मखौल..? घीसू लाल ने ख़ाकदान में फिर पीक थूकी, और खंखारना शुरू किया ताकि इस दफ़े कचरादान में कफ़ थूक सके। दफ़्तर के बाबूओं के हेड का यह आचरण देखकर, जीवन सिंह को अचरच हुआ..वह बेचारा उनका मुंह ताकता रह गया।
“क्या ताक रहा है...? अब चला जा, अपने घर। शाम को आ जाना, एक्यूरेट टाइम पर।” घीसू लाल बोले, फिर मूंछों पर ताव देते हुए आगे बोले “अगर तू वक्त पर ड्यूटी पर न आया तो, समझ लेना सी.सी.ए. सत्रह की कार्यवाही तेरे खिलाफ़ शुरू हो जायेगी। फिर कहना मत, तूझे कहा नहीं। जानता है, यह मामला विधान-सभा का है ?” सुनकर, वह बेचारा अवाक होकर खड़ा रह गया। खड़ा-खड़ा वह कभी उस पोस्टर को देखे, कभी उनका मुंह। जहां कथनी और करनी में इतना अंतर, वहां न्याय की उम्मीद रखना बेकार..? फिर क्या ? बच्चे को गोद में उठाकर, वह हवाई-बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने लगा।
सरकारी अस्पताल के आउट-डोर का अब समय रहा नहीं..फिर क्या ? झट उसे लुना स्टार्ट की, और बच्चे को लिए चल दिया प्राइवेट नर्सिंग होम की तरफ़। उसने समझ लिया ‘अब तो डॉक्टर को फीस देकर ही, बच्चे का इलाज़ कराना होगा।’
आसियत [रात] का अँधेरा फैलता जा रहा था, दफ़्तर के होल की तमाम ट्यूब लाईट और बल्व के स्विच ओन करके जीवन सिंह आकर बैठ गया बेंच पर। वहां बेंच पर बैठे रमेश को बीड़ी थमाकर, जीवन सिंह कहने लगा “भाई रमेश, थोड़ी मानवता तो अपने दिल में रखा कर। अब बता तू मुझे, मेरी ड्यूटी लगवाने के बाद तूझे क्या मिला ? तुम तो वैसे ही टाइम पास करने के लिए, इस वक़्त दफ़्तर में आकर बैठ जाया करते हो..” जीवन सिंह लाचारगी से बोला, फिर अपनी बीड़ी माचिस से सिलागाकर उसने माचिस रमेश को थमा दी।
“मेरे यह बता देने से तेरी यह ड्यूटी तो ख़त्म होगी नहीं, फिर बताने से क्या फ़ायदा ?” अपनी बीड़ी सिलागाकर, रमेश बोला। फिर, माचिस जीवन सिंह को थमा दी।
“तू समझ भाई, कितना परेशान हूँ मैं ? बच्चा बीमार है, घर पर कमटा चल रहा है...थोड़ी इनायत...” मुंह से धुए के गुब्बार छोड़ता हुआ, जीवन सिंह बोला।
“क्या कर सकता हूँ, मेरे भाई ? तुम तो यार, अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हो...वाह यार, सरकारी नौकरी के साथ में प्राइवेट धंधा भी ?” इतना कहकर रमेश ने लंबा कश खींचा, फिर बीड़ी के टुकड़े को दूर फेंकता हुआ, आगे कहता गया “देख भाई, अभी तूझे आर्डर मिल जाए बारात में विडिओ फिल्म उतारने का..फिर तुम तो यार, झट लपक पड़ोगे फोटूएं खींचने के लिए। उस वक़्त तुम्हें याद आयेगी नहीं बच्चे की बीमारी, और न याद आएगा कमटा..समझे प्यारे। इसलिए कहता हूँ प्यारे, जब-तक नौकरी करते हो...ईमानदारी से करो, और ईमानदारी की खाओ। सरकारी नौकरी के साथ, यह प्राइवेट धंधा...सरासर सरकार के साथ, यह धोखा ?”
अब बेचारा जीवन सिंह, आगे क्या बोलता..? वह जानता था कि, भैंस के आगे भागवत पढ़ना मूर्खता है। उस भैंस को घास खिलाकर ही, अपना काम निकलवाया जा सकता है। उसे चुप देखकर, रमेश ने झट अपनी ज़ेब से ज़र्दे-चूने की पेसी बाहर निकाली। फिर, उसमें से ज़र्दा और चूना बाहर निकालकर उस मिश्रण को अपनी हथेली पर फैलाया। अब वह उस मिश्रण को इस तरह अंगूठे से मसलने लगा, जैसे यह ईर्ष्या की आग में जलता हुआ उस जीवन सिंह को ओखली में डालकर कूट रहा हो...? फिर, वह अपने फ़ायदे की बात सोचने लगा। इस माह में, छुट्टियां कितनी आयेगी ? द्वितीय शनिवार, रविवार और अन्य राज़पत्रित अवकाश मिलाकर कुल कितने दिन..? अगर इन दिनों में जीवन सिंह के स्थान पर वह ड्यूटी दे देता है तो, कुल मिलाकर कितने क्षतिपूर्ति अवकाश वह अर्जित कर लेगा ? ये सारे अर्जित क्षतिपूर्ति अवकाश, दीपावली के आस-पास लोगों के घर पुताई करने में काम आ जायेंगे..और भय्या, पी.एल. या मेडिकल छुट्टियां भी ख़र्च होगी नहीं। इस तरह उसका घरों में पुताई करने का धंधा भी चमक जाएगा, और दो पैसे भी कमा लेगा दीपावली सीज़न में। इतना सोचकर बोल पड़ा, जीवन सिंह से “देख जीवन सिंह, तू इतना कहता है..तो हर रविवार, द्वितीय शनिवार या अन्य आने वाली हर राज़पत्रित छुट्टी के दिन, तेरी जगह मैं ड्यूटी दे सकता हूँ। बाकी दिनों की, तू जाने भाई। तू इतना अज़ीज़ी से बोल रहा है, इसलिए..न तो भाई अपुन तो करते हैं मस्ती।” इतना कहने के बाद, रमेश ने हथेली पर लगाई थप्पी “थप्प-थप्प”। उसकी महक ने, टेलीफ़ोन के पास बैठे नारायण सिंह के नासा-छिद्रों को खोल डाला। फिर क्या ? “आक-छीं, आक छीं” आवाज़ निकालते, नारायण सिंह ने बेशुमार छींकों की झड़ी लगा दी।
“वाह नारायण बाबू, जब मैं जाने की सोचता हूँ तभी आप अपशकुन करने के लिए छींकते है...चलिए एक दफ़े आप और छींक दीजिये, शायद अपशकुन मिट जाए..?” रमेश ने नारायण सिंह से कहा, फिर हथेली पर रखी तैयार सुर्ती उठाकर अपने होंठ के नीचे दबाई।
“ठोकिरा, खाने की चीज़ हो तो मैं खा लूं...मगर, तू तो मुझे छींक खाने का कहता है..जो मेरे वश में नहीं। मुफ़्त में यहाँ बैठकर मग़जमारी मत कर यार, तूझे कहीं जाना हो तो जा। अगर तू चला गया, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होगी। मगर पीछे से गरज़न बाबू यहाँ चले आये, और तू उनको नहीं मिला..तो तू जाने भाई वे तेरी क्या गत बनायेंगे..? बस, तू सोच-समझकर ही जाना प्यारे।” नारायण सिंह ने साफ़-साफ़ कह दिया, उसे।
“राम, राम। अब चलूं, जनाब। आप टेलीफ़ोन का ध्यान रखना, न मालुम कब क्या सन्देश आ जाय..? पीछे से गरज़न बाबू आ जाए, तो आप उनसे कह देना कि ‘रमेश अभी आ ही रहा है।’ अच्छा, चलता हूँ।” इतना कहकर, रमेश बेंच से उठ गया और चल दिया सीढ़ियां उतरने। बेचारे ने पहली सीढ़ी पर अपना क़दम रखा होगा..और उसी वक़्त लाईट चली गयी। अब सीढ़ियां उतरना उसके लिए हो गया, मुश्किल। काज़ल सा अँधेरा, हाथ को हाथ नज़र न आये..ऐसी हालत में सीढ़ियों के मोड़ पर कोई चोर-उचक्का खड़ा हो तो क्या होगा..उस बेचारे रमेश का ? तभी सामने से शेर की आँखों की तरह चमकते दो लाल लट्टू नज़र आये, जो उस बेचारे रमेश की और बढ़ते जा रहे थे। उसे तो ऐसा लगा, मानों किसी होरर शो के पिशाच की आँखें उसे घूरती हुई उसके नज़दीक आ रही है..? बेचारे का खून इस भीषण गर्मी में, जमता महसूस होने लगा। डर के मारे उसके मुंह से चीख़ निकल गयी, वह चीख़ता हुआ कह बैठा “मार दिया रे, मेरी जामण [मां]। भूत..भूत, कोई बचाओ रे..ओ रामा पीर।”
“थप्प-थप्प” बूटों की आहट उसके नज़दीक आने लगी, तभी उसको ऐसा लगा...किसी ने उसके कंधे पर धोल जमा दी है..? डर के मारे उसने चीख़ने की कोशिश की, मगर किसी ने उसके लबों पर हाथ रखकर उसका मुंह बंद कर डाला। चारों तरफ़ फ़ैली छाई हुई नीरवता को भंग को करती हुई, किसी की कड़कती हुई कर्कश आवाज़ गूंज़ उठी “डफ़ोsssल मैं हूँ, डर मत।” बाबू गरज़न सिंह की जानी-पहचानी आवाज़ सुनकर, उसकी जान में जान आयी।
“मार देते, हुज़ूर। अरे बेटी के बाप, इन डिस्को लट्टू को फेंक आओ कुए में। भूतों की चीज़ें रखना, जान के लिए ख़तरनाक है मेरे बाप...!” सहमता हुआ रमेश बोला, फिर गरज़न सिंह से उनकी ज़ेब पर लगे चमकते लट्टूओं को हाथ में लेकर परखने लगा। फिर वह, आश्चर्य से कह बैठा “अरे हुज़ूर, यह तो विज्ञान का करिश्मा है..इन कमबख़्त लट्टूओं में, बेट्री के सूखे सेल डाल रखे हैं।” उन चमकते लट्टूओं को वापस गरज़न सिंह को लौटाते हुए, उसने कहा “हुज़ूर, मुझे याद है...आपका हुक्म। नमकीन लाने, जा रहा हूँ। जल्द लौट आऊंगा।”
“बहुत ख़ुशी है, बेटा अब तूझे याद आया..सुबह से भूखा हूँ, पेट में अन्न का एक दाना पहुंचा नहीं, अब प्यारे पेट-पूजा तो करनी ही होगी।” बाबू गरज़ सिंह बोले, और फिर उसके कंधे पर एक धोल जमा दी। रमेश भींत का सहारा लिए, धीरे-धीरे सीढ़ियां उतरने लगा। रास्ते-भर बेचारा रामा-पीर को याद करता गया, और उनसे अरदास करता रहा “ओ अजमालजी के कुंवर, रानादे के भरतार..मेरा हेला सुनो रे, रामा पीर। कहीं रास्ते में, किसी से टक्कर न हो जाय।” उसके सीढियां उतरते ही, लाईट चली आयी।
होल के सभी पखें ओन करके, जीवन सिंह मटकी के पास गया। वहां उसने मटकी में लोटा डूबाया, फिर उसमें पानी भरकर उसे ले आया। बाबू गरज़न सिंह को पानी पिलाकर, उनसे कहने लगा “इतनी रात बीते दफ़्तर आने की, काहे तक़लीफ़ की हुज़ूर ? घर पर कूलर ओन करके, आप आराम से सोते। यहाँ कहाँ घर जैसी सुविधा है, हुज़ूर ?”
बाबू गरज़न सिंह के आने के पहले, जीवन सिंह नारायण बाबू को पटाकर यहाँ से भागने की योजना बना चुका था। मगर अब, गरज़न सिंह के आ जाने से उसकी पूरी योजना मिट्टी में मिल गयी। अब समस्या आ गयी..दाल-भात में मूसल चंद बने बाबू गरज़न सिंह को, यहाँ से कैसे भगाया जाय..? शिक्षा विभाग के सभी कर्मचारी जानते थे कि, “बाबू गरजन सिंह एक खूंखार बाबू ठहरे, उनका सामना करना गरज़ते शेर से सामना करने के बराबर है।” संस्थापन प्रभारी से बैर लेने का अर्थ, अपनी बसी-बसाई गृहस्थी में आग लगाने के बराबर। कहीं भी डेज़र्ट प्लेस पर तबादला करके लगा दिया, तो दिन में भी तारे गिनने पड़ेंगे। तब तो, उसके हेडमास्टर कुंदन मलजी भी उसे बचा नहीं पायेंगे। लाचार होकर, बेचारा जीवन सिंह उनके सामने हाथ जोड़े खड़ा हो गया।
“हाथ जोड़ने से काम नहीं बनता, ठाकुर जीवन सिंह। काम करो, प्यारे। ड्यूटी को, धर्म समझो। अभी-तक तुमने छोटी-छोटी स्कूलें ही देखी है, दफ़्तर तो अब पल्ले पड़ा है तुम्हारे। झट आ गए जनाब, पल्ला झाड़ने ? हरामखोर कहीं के।” गरज़ते हुए, बाबू गरज़न सिंह बोले..उनकी एक ही दहाड़ से बेचारा जीवन सिंह डर के मारे कांपने लगा। बेचारा गिड़गिड़ाया “साहब, माफ़ कीजिये। मैं तो बेचारा रोहिड़ा [जंगल] का जानवर हूँ, आपकी दया पर जी रहा हूँ..सभी जानते हैं हुज़ूर, इस शिक्षा विभाग के बियावान जंगल में एक ही शेर दहाड़ सकता है..वह है, आप।” सुनते ही, बाबू गरज़न सिंह के लबों पर [होंठों पर] मुस्कान छा गयी। अब वे ठहाके लगाकर ऐसे हंसने लगे, मानों लंका का लंकेश अट्टहास कर रहा हो..? फिर अपनी हंसी रोककर, सहजता से कहने लगे “प्यारे लाल, अपने-आपको रोहिड़ा का जानवर मत कहो। कहना है तो कहिये, रोहिड़ा का जागीरदार। ठाकुर साहब, हंसी और रोद्र रूप दिखलाना तो हमारी अदा है...प्यारे। नाराज़ हो गया, प्यारे जीवन सिंह ?”
बाबू गरज़न सिंह के लिए भले यह मज़हाक़ [परिहास] रहा होगा, मगर जीवन सिंह अपने-आपको अपमानित महसूस करने लगा। उसने सुन रखा था उसके बाप कभी रोहिड़ा गाँव के जागीरदार थे। समय के फेर ने उनके बेटे को, रोहिड़ा का जानवर बना दिया..? “काम भालो है, चाम नहीं” [लोगों को काम चाहिए, काम करने वाले की चमड़ी से कोई लेना-देना नहीं] इस व्यवहारिक सिद्धांत को अपना उसूल बनाकर, उसने अपने दिल में उतार लिया..अब वह विधान-सभा ड्यूटी से छुटकारा पाने के लिए, किसी के आगे भीख नहीं मांगेगा। अब काम ही करना है तो, अब स्कूल क्या और दफ़्तर क्या ? अब तो काम ही करना है, बस।
“छोटी-छोटी स्कूलें ही देखी है ठाकुर जीवन सिंह, यह दफ़्तर तो अब तुम्हारे पल्ले पड़ा है।” गरज़न सिंह ने कह तो दिया, सुनते-सुनते जीवन सिंह को ऐसा लगा कि अब बर्दाश्त करने की सीमा ख़त्म होती जा रही है। वह भूल नहीं पा रहा था, उसने नौकरी की शुरुआत कार्यालय ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] पाली से ही की थी। जहां चपरासियों पर राज़ करने वाला, माना हुआ तुर्रम खां ‘मोहना जमादार’ वहां मौजूद था। उसकी ग़लत नीति का विरोध करने वाला, एक-मात्र जीवन सिंह ही था। उसकी खिलाफ़त करता हुआ, उसने उसके साथ लोहा लिया। बात यह थी, वह दफ़्तर के सभी चपरासियों से दफ़्तर की सफ़ाई का काम करवाता..मगर, वह ख़ुद कभी झाड़ू के हाथ नहीं लगाया करता। कारण यह था, उस पर संस्थापन प्रभारी आनंद कुमार मेहरबान रहते थे। दफ़्तर में काम करने की अपेक्षा उसने उनकी मस्कागिरी में, वह अपना वक़्त जाया करता था। इस कारण किसी चपरासी में इतनी हिम्मत न होती कि, वे उसे काम करने का कहे..! आनंद कुमार का सपोर्ट पाकर, जनाब बन गए चपरासियों के लीडर। फिर क्या ? दफ़्तर का काम-काज कुछ करना नहीं, और दूसरे चपरासियों पर राज़ करना..जिससे उसकी शाम मुफ़्त की दारु और सिगरेट के साथ अच्छी तरह से गुज़र जाया करती..और साथ में उसके पाँव दबाने वाला कोई ज़रूरतमंद चपरासी, ज़रूर उसकी सेवा में वहां हाज़िर रहता। एक दिन उसकी जीवन सिंह से ऐसी खटपट हो गयी, जिसका परिणाम यह हुआ कि ‘उसने ऐसे ठाटबाट में पल रहे मोहने को मज़बूर करके, उसके हाथ में झाड़ू और पोचा पकड़ा दिया..तब से मोहना दफ़्तर में बराबर सफ़ाई करने लगा।’ इस तरह छठी का दूध पीकर, बेचारा मोहना घबरा गया। फिर क्या ? उसने अपने आका आनंद कुमार के आगे गुहार लगाई, आनंद कुमार को उस पर रहम आ गया। जिससे कुछ दिन बाद, जीवन सिंह का तबादला मिडल स्कूल में कर दिया गया..तब बेचारे मोहने को शान्ति मिली। तब से वही तुर्रम खां मोहना जमादार यूनियन लीडर की हैसियत से, जीवन सिंह से आँख मिलाकर बात नहीं कर पाया। अगर यहाँ उसकी बदक़िस्मती ठहरी, इस मक्खनबाजी के खिलाड़ी रमेश चौहान से मात खाकर उसे इस एलिमेंटरी दफ़्तर में तक़लीफ़ें देखनी पड़ी।
टेबल पर ख़ाली ग्लास रखकर, बाबू गरज़न सिंह दहाड़ते हुए बोले “अरे ओ बावले। फिर चिंता में डूब गया ? जा, इस मुच्छड़ नारायण को पानी पिला।” उनकी बुलंद आवाज़ ने जीवन सिंह के मानस में आ रहे विचारों पर, ताला लगा दिया। तत्काल उसके क़दम नारायण सिंह को पानी पिलाने के लिए, उनकी तरफ़ बढ़ गए।
गर्मी बढ़ गयी थी, इस भीषण गर्मी से व्याकुल होकर बाबू गरज़न सिंह ने अपना पेंट और बुशर्ट उतारकर खूटी पर डाल दिया। फिर वे बनियान और चेक वाला चड्डा पहने, असुरों के राजा महिषासुर की तरह वे टेबल पर पसर गए। टेबल पर पसरे हुए गरज़न सिंह, अपने मुख से बोल उठे “हाय, इतनी गर्मी..? काम नहीं होता।” वे टेबल पर ऐसे पसरे हुए थे, मालुम होता...भीषण गर्मी को बर्दाश्त न कर, महिषासुर ठन्डे जल के सरोवर में घुस गया हो..?
गर्मी से व्याकुल गरज़न बाबू को एक ग्लास पानी एक बार और पिलाकर, जीवन सिंह ने उनसे पूछा “यह विधान-सभा सत्र कब ख़त्म होगा, हुज़ूर ?”
सुनकर, गरज़न सिंह हंस पड़े..अपनी बत्तीसी निकाले। फिर, अपने लबों पर ज़हरीली मुस्कान लबों पर बिखेरते हुए कह बैठे “डफ़ोल शंख। उधर देख पीछे मुड़कर, यह मुच्छड़ नारायण तूझे देखकर मुस्करा रहा है...अगर मैं तूझे घर जाने दूं तो साले, तू तो जाकर अपनी बीबी के साथ हमबिस्तर हो जाएगा। मगर यह मुच्छड़ कहाँ जाएगा, बेचारा ? इसकी डोकरी इसके बुलाने पर भी, इसके पास नहीं आती। यह विधान-सभा ड्यूटी तो, इसका टाइम-पास का ज़रिया है। यह जनाब ऐसे हैं, जो दूसरे बाबूओं की ड्यूटी निकालकर अपना टाइम पास करते हैं। क्या अब तू इस डोकरे का, टाइम पास का जरिया बंद करना चाहेगा..बेवकूफ ?”
“काहे मज़हाक़ करते हो, उस्ताद ? गज़ब के अमरीश पुरी ठहरे आप, ठहाके लगाना तो कोई आपसे सीखे। जनाब, मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ, जो मुफ़्त में इन बाबूओं की ड्यूटी निकालूंगा ? मुफ़्त में ड्यूटी निकाले, मेरी जूती।” बाबू नारायण सिंह ने, अपनी मूंछों के बालों को सहलाते हुए कहा “जानते हैं, आप ? इस दफ़्तर में ढेर सारे काग़ज़ों को इनवर्ड करना पड़ता है, और ढेर सारी डाक रोज़ डिस्पेच करके भेजनी पड़ती है..? अब समझे ? इन लोगों से मैं इंवर्ट-आउट वर्ड का काम पूरा करवाकर, इनकी ड्यूटी निकालता हूँ। आख़िर, सौदा है भाई।” कहते-कहते इनकी मूछों के बाल मुंह में आने लगे, इधर इनका मुंह खुलते ही सामने आगे के दांत नज़र नहीं आये..ऐसा लगा, मानों इन दांतों को कोई चूहा चुराकर ले गया हो ? इन दांतों के न होने के कारण, वे मुंह के अन्दर घुस रहे मूंछों के बालों को रोक नहीं पा रहे थे। तभी टेलीफ़ोन की घंटी बजी, क्रेडिल से चोगा उठाकर वे बोले “हल्लो..हल्लो। तारांकित सवाल..?....अरे हुज़ूर, उतार रहा हूँ..आप बोलिए।.....ठीक है, ठीक है..अब रखता हूँ।” डायरी में मेसेज़ नोट करके, उन्होंने कलम नीचे रख दी।
फिर क्रेडिल पर चोगा रखते हुए, नारायण बाबू बाबू गरज़न बाबू से बोले “भाई गरज़नजी, कैसा ज़माना आया है ? अब बाबू लोग जागेंगे और अफ़सर लेंगे नींद। रामसा पीर, तेरी माया को कोई नहीं जानता। फिर क्या ? अब अफ़सरों के घर चक्कर काटो, आगे-आगे हम और पीछे-पीछे ये भौंकते कुत्ते।”
“फ़िक्र मत कीजिये, बस आप कुत्ते को कुत्ता कहकर उसका अपमान मत कीजिएगा। इनको भंडारी साहब कहिये, आख़िर ये कुत्ते ठहरे आपके दोस्त। बताइये आप, सीढ़ियों के मोड़ पर आप इनके पहलू में बैठकर धूम्र-पान का लुत्फ़ लेते हैं या नहीं ?” यह कहकर, बाबू गरज़न सिंह उठे, और उठकर अपनी अलमारी खोलकर दफ़्तर का कार्य निपटाने के लिए दो-चार फाइलें बाहर निकालकर टेबल पर रखी। फिर कहने लगे “चलते ऑफ़िस में ये करमज़ले मास्टर काम करने नहीं देते, बार-बार बोलकर करते हैं डिस्टर्ब.. बोलते हैं, ‘हुज़ूर, मेरा ख़्याल कीजिये..’ तो कोई कहता है ‘आपके पाँव पड़ता हूँ, आप मेरा तबादला अमुख जगह पर कर दीजिये।’ एक दिन मैंने झटक दिया इन साल्लों को, यह कहकर.. ‘मुझे तुम लोगों ने अंगद समझ रखा है, जो तुम जैसे रावण आकर मेरे पाँव पकड़े ?’ इसी लिए, रात को दफ़्तर आकर मैं अपना काम निपटाता हूँ।”
सुनकर, जीवन सिंह उनका मुंह ताकता रह गया। और सोचने लगा “अमरीश पुरी की छठी औलाद। फिर, तू दिन में दफ़्तर आता ही क्यों ? रात की विधान-सभा ड्यूटी ले लेता, और साथ में अपना बकाया काम निपटा लेता। फिर, हमें काहे यहाँ रात को बुलाकर दुःख देता है ? अजी एलिमेंटरी दफ़्तर है, क्या ? यह कमबख़्त ठहरा, अंधेर नगरी..जहां विधान-सभा सत्र में एक ही बाबू की ड्यूटी कई बार लग जाया करती है, और बाबू गरज़न सिंह और रमेश जैसे चपरासी की ड्यूटी एक बार भी नहीं लगती। अरे भय्या, यहाँ तो दिया तले अँधेरा है..ख़ुद घीसू लालजी और दफ़्तर के एस.डी.आई. लोग सफ़ा-सफ़ बच गए इस ड्यूटी से।” तभी ज़ोर-ज़ोर से बोलता हुआ, रमेश सीढ़ियां चढ़ता हुआ दफ़्तर में दाख़िल हुआ। उसकी आवाज़ से जीवन सिंह के मानस में चल रही विचार श्रंखला टूट गयी। आते ही उसने टेबल पर टिफ़िन, मिठाई का डब्बा और नमकीन रखा, फिर वह तपाक से बोला “अरे हुज़ूर, जल्दी करो..पहले जीम लो।” इतना कहकर, उसने फाइलें हटायी..फिर, टेबल पर अख़बार बिछाने लगा।
“मिठाई कहाँ से लाया रे, मादरकोड ? किसने दिए तूझे, मिठाई के पैसे ?” गुस्से से काफ़ूर होकर, गरज़न सिंह ने रमेश से पूछा।
“आम खाने से मतलब रखो ना, क्यों...” रमेश झेंपता हुआ बोला।
“आम क्या ? तूझे खा जाऊं, और डकार भी न लूंगा..समझे, उल्लू की औलाद ? बता, मिठाई के पैसे किसने दिए ?” रमेश की आँखों में घूरते हुए, गरज़न सिंह ने कहा।
“साहब, सुमेरपुर मिडल स्कूल के हेडमास्टर नेका रामजी वहीँ खड़े थे, उन्होंने अपने पैसे से मिठाई दिलाकर मुझे कहा ‘बाबूजी को ज़रा रोकना, मैं अभी दफ़्तर आ ही रहा हूँ।’ समझ गए, हुज़ूर ? नेका रामजी तशरीफ़ ला रहे हैं, उनके आने के पहले आप जीम लीजिये..फिर आराम से बैठकर, आप उनसे गुफ़्तगू करते रहना।” सपकाता हुआ, रमेश बोला।
नेका राम यानी ‘बहरे महोदय’ उनका नाम सुनकर गरज़न सिंह का रोम-रोम कांप उठा। नेका राम ऐसे बहरे आदमी थे, जो अपने कान में कभी सुनने की मशीन नहीं रखते थे..उनसे बात करना, एक तरह से चिल्ला-चिल्लाकर अपने गले में दर्द पैदा करने के बराबर था। ख़तरे का आभास पाकर झट गरज़न सिंह ने कपडे पहन लिए, फिर वे रमेश से बोले “फ़टाफ़ट थैली में रख दे, मिठाई और नमकीन। अब तो प्यारे, अपने रूम पर चलकर ही खाना खायेंगे। अगर वह यहाँ आ गया तो, मेरा सर खा जाएगा। टिफ़िन और थैली उठा ले, और फटा-फट अलमारी बंद करके मेरे साथ चल..फिर, मुझे अपनी साइकल पर छोड़ दे, कमरे पर।”
यह सुनते ही, यहाँ से भगने के लिए तैयार बैठा जीवन सिंह..रमेश के उठने के पहले ही, उसने टेबल पर रखी फाइलें उठाकर अलमारी में रख दी और अलमारी लोक करके चाबियाँ बाबू गरज़न सिंह को थमा दी। फिर क्या ? एक मिनट भी ख़राब नहीं किया बाबू गरज़न सिंह ने, झट बैग थामे हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने लगे। और उनके पीछे-पीछे बळोकड़ा रमेश, हाथ में थैली और टिफ़िन लिए।
उन दोनों के जाने के बाद, जीवन सिंह दफ़्तर का ताला हाथ में लेकर बाबू नारायण सिंह से बोला “भाई साहब, चलिए। चलते वक़्त क्रेडिल से चोगा उठाकर नीचे रख देना, फिर घंटी आने का कोई सवाल नहीं। आख़िर, इस अमरीश पुरी को अमिताभ बच्चन नज़र आ ही गए। चलो, अच्छा हुआ। यह ईर्ष्यालु यानी बळोकड़ा भी चला गया, अमरीश पुरी के साथ।”
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