संस्मरणात्मक शैली पर आधारित पुस्तक “डोलर हिंडा” का अंक ७ “हो गया कबाड़ा” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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संस्मरणात्मक शैली पर आधारित पुस्तक “डोलर हिंडा” का अंक ७ “हो गया कबाड़ा” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित “अरे आनंद कुमार। क्या करते हो, भय्या ? यह ...

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संस्मरणात्मक शैली पर आधारित पुस्तक “डोलर हिंडा” का अंक ७ “हो गया कबाड़ा”

लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

“अरे आनंद कुमार। क्या करते हो, भय्या ? यह ट्रांसफ़र कैम्प है, देहली का मीना बाज़ार नहीं। भोले रहे तो उतार लेंगे लोग तुम्हारा पेंट-बुशर्ट, और दिखला देंगे हवाई क़िला..समझे ?”

“भाई साहब दिन लद गए, कारवां गुज़र गया बुरे दिनों का। अब तो भाई साहब, चांदी ही कूटनी है। हुज़ूर। हम इतने बेवकूफ़ नहीं हैं, जो हवाई किले के आसरे पड़े रहें हम ? हम ठहरे खिलाड़ी सियासत के, जो हवाई किले से दूह लेते हैं चांदी के सिक्के।”

“भय्या, ज़्यादा होश्यारी कभी-कभी काँटों के बिछोने छोड़ जाती है। इसलिए कह देता हूँ आनंद कुमार, बड़े साहब के आस-पास किसी एरे-ग़ैरे को फ़टकने मत देना। अगर भूले-भटके किसी को आने दिया तो, वह कर देगा कबाड़ा।” ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] दफ़्तर के उप ज़िला शिक्षा अधिकारी जनाब शिव कुमार शर्मा, आनंद कुमार को चेताकर, उन्हें गुरु मन्त्र देते हुए कहा। इतना कहकर, वे ज़िला शिक्षा अधिकारी जनाब गणपत लाल जैन के कमरे की ओर बढ़ गए। काफ़ी वक़्त से गणपत लाल जैन के पास, मास्टर राम रतन बोहरा बैठे थे। शिव कुमार जानते थे कि, मास्टर राम रतन को वहां से भगाकर ही आनंद कुमार को बड़े साहब के नज़दीक लाया जा सकता है। आनंद कुमार को बड़े साहब के नज़दीक लाना ही, शिव कुमार दायित्व रहा। वे दरवाज़े के पास खड़े होकर, मास्टर राम रतन बोहरा की गतिविधि देखने लगे। इस वक़्त राम रतन माचिस की तीली जलाकर, बड़े साहब के लबों में थामी सिगरेट को सिलगा रहे थे। उनकी सिगरेट सिलागाकर, वे बड़े साहब से बोले “साहब, अब तो आपको सीट से उठ जाना चाहिए..भोजन का वक़्त हो गया है।”

मगर शिव कुमार को कहाँ पसंद कि, और कोई आकर बड़े साहब को भोजन का निमंत्रण दे दे..? वे झट अन्दर दाख़िल होकर, मास्टर राम रतन से कहने लगे “राम रतनजी, छोड़िये ना..काहे बड़े साहब को अपने घर ले जाकर इनका क़ीमती वक़्त बरबाद कर रहे हैं ? इनको तबादले के कैम्प में जाना है, कोई मटरगश्ती करने नहीं। भय्या जमकर काम करना है, वहां। आप फ़िक्र मत कीजिये, हम भोजनालय से खाना मंगवाकर इन्हें खिला देंगे।” इनको पूरा भरोसा था कि, यह राम रतन मास्टर बड़ा शातिर दिमाग़ वाला है। इसलिए इनको संदेह था, ‘यह कमबख़्त खाने के बहाने अपने घर बुलाकर, इनको उल्टी पट्टी न पढ़ा दे..? और कहीं, मास्टरों से सेटिंग की हुई तबादला करवाने की फ़ेहरिस्त इनके आगे परोस न दे...? अगर ऐसा हो गया तो, महीने-भर की मेहनत पर पानी फिर जाएगा। और बेचारे आनंद कुमार, हाथ मलकर रह जायेंगे।’ इस आशंका ने शिव कुमार को मज़बूर कर डाला, आपबीती सोचने।

ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] के दफ़्तर में, बहुत-हल-चल थी। ज़िला शिक्षा अधिकारी जनाब प्रेम सिंह कच्छवाहा से गुफ़्तगू कर रहे शिव कुमार को मालुम नहीं था कि, ‘उनके मूड की दिशा क्या है ?’ मगर जनाब प्रेम सिंह कच्छवाहा समझ गए कि, ‘शिव कुमार क्या चाहते हैं ?’ इसलिए वे मुस्कराकर, उनसे कहने लगे “भाई साहब, ये छोटे-बड़े काम आज़कल इन बच्चों को करने दीजिये। काहे की फ़िक्र करते हैं आप, ये सभी बच्चे आपकी सेवा में है। आप तो भाई साहब, आराम कीजिये।” सुनकर, शिव कुमार हो गए ख़ुश। उन्होंने बहुत आभार माना कि, “इतने बड़े अधिकारी इनको भाई साहब कहकर, उनको कितना सम्मान दे रहे हैं ?” बस, जनाब का दिल बाग़-बाग़ हो गया। और भूल गए जनाब कि, ‘इस सम्मान के पीछे, क्या रहस्य है ?’ वैसे भी दफ़्तर में बैठे, इनकी मानसिक तरंगे इनको अपने प्राइवेट धंधे की ओर ज़्यादा खींचा करती थी। इनका यह “ऑटोमोबाइल सामान बेचने का धंधा” इन्होंने अपने पुत्र के नाम चला रखा था। बस, इनको इंतज़ार ही रहता, कब यहाँ से जाने की छूट मिले और वे झट पहुँच जाए अपनी दुकान।

शिव कुमार शर्मा जैसे ही ज़िला शिक्षा अधिकारी के कमरे में दाख़िल हुए थे, और उनके पीछे-पीछे आनंद कुमार आकर दरवाज़े की ओट में छुपकर खड़े हो गए और अन्दर हो रही हलचल पर ध्यान देने लगे। चाहे शिव कुमार समझे नहीं हो, मगर आनंद कमार समझ गए ज़िला शिक्षा अधिकारी क्यों इनको छूट देकर आराम करने का कह रहे हैं ? एक बार उनकी इच्छा हुई कि अन्दर जाकर वह शिव कुमार से यह कह दे कि “अरे भाई साहब, यह इनकी चाल है आपको और हमें सत्ता से दूर रखने की। आप चाहे तो, ‘यह इनका दिया गया सम्मान आपके पास रखो, मगर हमें तो सत्ता का सुख भोगने दो।’

मगर बेचारे आनंद कुमार कुछ बोल न पाए, और बाहर आकर पोर्च में लगी अपनी सीट पर आकर बैठ गए। फिर इन्होने डिबिया खोली, और डिबिया से पान की गिलोरी बाहर निकाली। उस गिलोरी को अपने मुंह में ठूंसकर, ज़िला शिक्षा अधिकारी के हुक्म से आराम करने जा रहे शिव कुमारजी को रोका...और उनको, वह पान की डिबिया पेश कर दी। आराम आख़िर आराम होता है, वह भी भारी शरीर वाले इंसान के लिए इसकी ज़्यादा ज़रूरत बनी रहती है। अब उन्हें पान की डिबिया का, क्या करना ? वे आली जनाब क्यों ध्यान देंगे कि, ‘उनके शागिर्द आनंद कुमार की पान खिलाने की मंशा के पीछे, इनका क्या इरादा है ?’ वे आराम जैसी आनंददायक चीज़ को, एक पान की गिलोरी के पीछे कैसे छोड़ सकते थे...? फिर क्या ? उन्होंने उनकी बात अनसुनी करके, दफ़्तर के दरवाज़े की ओर क़दम बढ़ा दिए।

इस दफ़्तर में कई प्रभार है। इनके अलग-अलग प्रकोष्ठ बने हुए है। जैसे सामान्य प्रकोष्ठ, संस्थापन प्रकोष्ठ, शैक्षिक प्रकोष्ठ, सांख्यकी प्रकोष्ठ लेखा और रोकड़ प्रकोष्ठ। इन सब में रीढ़ की हड्डी होती है, संस्थापन। जिसकी एक ललक पाने के लिए, दफ़्तर का हर बाबू बैचेन रहता है। अध्यापकों की नियुक्तियां, पदोन्नतियाँ, प्रतिनियुक्तियां, तबादले और न जाने जाने कितने आयाम होते होंगे, लोगों को अनुग्रहित करके सत्ता हासिल करने के..? अरे, जनाब। सत्ता प्राप्त होने की कल्पना ही एक ऐसा सुखद जन्नती सपना है, जिसे साकार करने के लिए आनंद कुमार का शिव कुमार के नज़दीक आना स्वाभाविक था। वे चाहते थे, शिव कुमार नाम की बैशाखी के सहारे उन्हें संस्थापन शाखा का सुपरविज़न संबंधी काम मिल जाएगा। शिव कुमार का उठना-बैठना सत्ता के गलियारे में था, और उनके कई मंत्रियों के साथ अच्छे रसूख़ात थे। आनंद कुमार इनको सीढ़ी बनाकर, संस्थापन शाखा के ऊपर सुपरविजन करने का सत्ता-सुख भोगना चाहते थे। मगर, तत्कालीन ज़िला शिक्षा अधिकारी प्रेम सिंह कच्छवाहा ने अपनी ध्राण शक्ति से इनकी मंशा जान ली। फिर क्या ? उन्होंने शिव कुमार को आराम तलबी का सुख देकर, उन्हें दफ़्तर के कामों से छूट दे दी। इस तरह, शिव कुमार दफ़्तर से छूट मिलते ही अपने निजी धंधे में व्यस्त हो गए। बेचारे आनंद कुमार को उनके हाल पर ही छोड़ दिया। अब आनंद कुमार का क्या हाल हुआ होगा ? बेचारे अच्छे दिनों को याद करते, अपने सत्ताच्युत दिनों को बिताने लगे।

कई दफ़े तो उनको अपना आसन, हिलता हुआ महशूस होने लगा। कई बार ऐसा हुआ कि, ‘उन्होंने अध्यापकों को स्वेच्छिक तबादला जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य करवाने की तसल्ली दे दी...मगर, वे संस्थापन शाखा से उन अध्यापकों के काम करवाने में सफल नहीं हुए।’ मगर ये काम श्योपत सिंह जैसे वाहन-चालाक, चुटकियों में करवाने की क़ाबिलयत रखने लगे। काम हो जाने के बाद, ये अध्यापक लोग आनंद कुमार के सामने उसे शुक्रिया अदा करते थे..तब रामसा पीर जाने, उनको कैसा लगता होगा ? मगर यहाँ तो अध्यापकों के काम करवाने के बाद, श्योपत सिंह को ज़रा भी घमंड नहीं..? जनाब अध्यापकों से यही कहते नज़र आते कि, ‘भय्या, करने वाला तो ऊपर वाला है, इस दो टके के ड्राइवर की कहाँ औकात..? बस, हमें तो उस ऊपर वाले की कृपा चाहिए.जिससे आपका काम बन जाए और ख़ुश रहें।’ ऐसे जुमले श्योपत सिंह के मुंह से सुनकर, बेचारे आनंद कुमार के दिल पर क्या बीतती होगी ? बस, उनके दिल में एक ही टीस उठती थी..कि, ‘हाय राम। अब तो इस दफ़्तर का ढर्रा ही बदल गया..आज़कल साहब लोग भी राय लेने लगे हैं – इन ड्राइवर चपरासियों से..? हाय राम, अब हमको पूछेगा कौन ?’

कल कहते थे, आनंद कुमार..’ये दो टके की पोस्ट वालों की क्या औकात ? जो हम इनके, मुंह लगें ? मगर अब इसी दो टके की पोस्ट वालों ने, बाबू क्या..? अफ़सरों को भी, चक्कर में डाल दिया। जबसे इनको पूछकर, होते गए दफ़्तर के काम। प्रेम सिंहजी के लिए इस दफ़्तर की पल-पल की ख़बर रखना अब मुश्किल नहीं रहा, कौन बाबू काम से दबा है और कौनसा बाबू कर रहा है, मौज़ ? कौनसा बाबू दफ़्तर के सामान की चोरी कर रहा है, तो किस बाबू के हाथ रंगे हैं रिश्वत से ? ऐसी गोपनीय खबरों की जानकारी रखने वाले श्योपत सिंह को, अगर ज़िला शिक्षा अधिकारी अहमियत दे भी तो यह कोई अजूबा नहीं..!

यात्रा के दौरान हर अफ़सर को ज़रूरत बनी रहती है, गाड़ी के ड्राइवर का साथ लेने की। उसका साथ न मिलने से यात्रा, सहज नहीं होती। यात्रा के दौरान अफ़सर की अच्छी और बुरी आदतों से ड्राइवर वाकिफ़ होता है, अफ़सर की हर कमज़ोरी उसे ध्यान में रहती है। ड्राइवर का साथ न मिले, अफ़सर ऐसा सपने में भी नहीं सोच सकता कि, ‘उसकी यात्रा सहज होगी।’ अक्सर ड्राइवर आते हैं, चपरासी के कोटे से..साक्षात्कार के वक़्त, अफ़सर पहले देख लेते हैं कि ‘उम्मीदवार गाड़ी चलाता है, या गाड़ी चलाते-चलाते वह आदमी को इस दुनिया से दूसरी दुनिया में भेज देता है ? जहां से लौटकर, वह आ नहीं सकता।’ गोपनीय बातों के मामले में, ‘उम्मीदवार की बात पचाने की, शक्ति कैसी है ? खाना चाहे, वह पचनोल की गोलियां खाकर पचाता हो..इससे अफ़सर को कोई मतलब नहीं। मगर अफ़सर की गूढ़ बातों को दफ़न कर दे, हमेशा के लिए कफ़न डालकर। वही, विश्वासपात्र अच्छा ड्राइवर माना जा सकता है।’ इन गुणों को धारण करने वाले श्योपत सिंह को, पूर्व ज़िला शिक्षा अधिकारी सिन्हा साहब बहुत चाहते थे।

clip_image003तदन्तर सिन्हा साहब तो पदोन्नति पाकर शिक्षा विभाग में उप निदेशक बन गए, मगर भूले नहीं श्योपत की सेवाओं को। वे मौक़े की तलाश में थे, ‘कब वे उसके द्वारा की गयी सेवा का उपकार का बदला, उसकी भलाई करके चुका सकें ?’ आख़िर उनको मौक़ा मिल गया, श्योपत सिंह उस वक़्त प्रोढ़ शिक्षा कार्यालय में नियुक्त था। वहां अचानक, उसकी पोस्ट ख़त्म हो गयी। तब पदस्थापन के चक्कर में श्योपत सिंह को पाली शहर छोड़ना पड़ता, मगर सिन्हा साहब की मदद मिल जाने से उसको पाली शहर छोड़ना नहीं पड़ा। उस वक़्त सिन्हा साहब ने उसका तबादला इस कार्यालय ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] पाली में करके, उसके पास आदेश की प्रति भेज दी। तब आदेश की प्रति मिलने पर, श्योपत सिंह इस दफ़्तर में आया।

“क्यों आया रे, श्योपत ? कहीं तूझे, काला कौआ तो नहीं काट खाया ?”

“हुज़ूर, कौए तो इस दफ़्तर में है..जहां चार-चार नीम के वृक्ष लगे हों। और, हुज़ूर...”

“क्यों नज़र लगता है, हमारे नीम के वृक्षों पर ? अपना खून सींचकर, इन्हें बड़ा किया है।”

“आप खून सींचो या पानी..हमें क्या करना हुज़ूर, हम तो दफ़्तर की जीप देखने आये हैं। उस पर मेहरबानी रखना हुज़ूर, वह आपके खून से नहीं चलती..उसको चलाने के लिए डीज़ल की ज़रूरत रहती है।”

दफ़्तर के पोर्च में बैठे आनंद कुमार से इतनी बात कहकर श्योपत सिंह, दफ़्तर के पिछवाड़े की ओर अपने क़दम बढ़ा दिए...जहां दफ़्तर की जीप खड़ी थी। मगर रास्ते में लगे नीम के पेड़ों पर बैठे कौए करने लगे, हरक़त। उसे देखते ही वे सब उस पर मंडराते हुए, ज़ोर-ज़ोर से कांव-कांव करने लगे।

तभी दफ़्तर के गेट के पास अपना स्कूटर रखकर, बाबू कैलाश भटनागर दफ़्तर के पोर्च में दाख़िल हुए। उन्होंने अन्दर आते वक़्त इन कौओं की कांव-कांव सुनकर, अपने कानों में उंगली डाल दी। और आनंद कुमार को सुनाते हुए, ज़ोर से कहने लगे “हाय राम। अब इस कबूतरख़ाने में, एक नया कबूतर आ गया ?”

“कबूतर नहीं रे, तू इसे बाझ कह। यह कमबख़्त इस बेचारे उम्मेद सिंह को मिलने वाली पोस्ट, पर अपना कब्जा जमा लेगा, और दिखा देगा उसे...दफ़्तर से बाहर जाने का गेट। आ गया मर्दूद, रंग में भंग में भंग डालने..बांगी कहीं का।” पान की गिलोरी मुंह में ठूंसकर, आनंद कुमार कैलाश भटनागर से बोले “ लेकर आ गया, ऊपर का आदेश...इस आदेश को गोल-गोल करके बना दे भूंगली, और चढ़ा दे...”

“अरे साहब, क्या फ़रमा रहे हैं हुज़ूर ? कहीं आप सुबह-सुबह भंग का गोला तो चढ़ाकर, तो यहाँ नहीं आ गए...आप ?” इतना कहकर, कैलाश भटनागर उनके पास रखी चरमराती हुई हुई पर जा बैठे। फिर उस पर आराम से पसरकर, वे आगे बोले “आप गोला चढ़ाकर आ गए जनाब, मगर हमें तो आप चाय के दीदार करवा दीजिये..महादेव आपका भला करेगा।” और फिर, गलियारे से गुज़रते बाबू शान्ति लाल भंडारी को रोककर, ज़बरदस्ती अपने पास रखी कुर्सी पर बैठा दिया। फिर गलियारे में, स्टूल पर बैठे द्वारका प्रसाद को आवाज़ देकर, चाय लाने का हुक्म अलग से दे डाला “जा रे द्वारका, बाहर चाय की केन्टीन पर कह दे कि, हेड साहब ने अपने खाते में सात कप चाय मंगवाई है।” सुनकर आनंद कुमार चौंके, और कैलाश भटनागर का चेहरा देखने लगे। और, सोच बैठे “वाह रे, कैलाशिया। हुक्म ऐसे देता है, जैसे अपने खाते से चाय मंगा रहा है..?” अचरच करते हुए उनकी उंगली मुंह में चली गयी, और उनको डर था कहीं मुंह से पान की पीक बाहर न निकल जाय..? इस कारण, बेचारे बोले नहीं। इधर द्वारका बाहर चाय लाने गया, और उधर आकर बैठ गयी बेंच पर उनके शागिर्दों की मंडली। इस मंडली के हेमंत ओझा, हरी प्रसाद, अश्वनी कुमार वगैरा बाबू लोग करने लगे, परबीती पर चर्चा। अपने गुट के बाबूओं को वहां देखकर, भाई आनंद कुमार चहकने लगे, और वे हेमंत ओझा से कहने लगे “देख हेमंतिया, मुझे तेरे अन्दर एक भी बाबू का तौर-तरीक़ा नज़र नहीं आता। तुझसे तो अच्छा है, मेरा छोरा मुकेश। जो अपने दम पर दुकान चला रहा है। अरे यार क्या कहूं, तूझे ? पुस्तकालय की किताबों की ख़रीद में, कभी हेडमास्टर आ जाता है कमीशन की राशि लेने तो कभी उसका बाबू आ जाता है। भय्या समस्या खड़ी हो जाती है कि, किसको यह राशि दी जाय ? मगर मेरा छोरा ठहरा होश्यार, झट उसने इन लोगों को मुंह-तोड़ ज़वाब दे डाला...कह दिया उसने, बड़े आत्म-बल के साथ ‘मेरी दुकान पर जो आदमी बिल का पेमेंट लाएगा, उसी को मैं कमीशन की राशि दूंगा..चाहे वह हेडमास्टर हो या बाबू या फिर हो पुस्तकालयध्यक्ष। मैं कोई छक्का नहीं हूँ, जो इन तीनों के बीच तिगनी का डांस करता रहूँ।’’ इतना कहकर, आनंद कुमार ने पास पड़े ख़ाकदान में पान की पीक थूकी। फिर, वे आगे कहने लगे “क्या होश्यारी दिखाई, मेरे छोरे ने..? बेचारा अकेला और मार्किट में उसके बीसों कोम्पीटेटर, मगर उसने ऐसा मारा धोबी-पाट कि ‘शिक्षा विभाग में नियमानुसार रजिस्टर्ड फर्म से ख़रीदा जाता है माल...है कोई माई का लाल जो बताये हमें कि, उसकी फर्म रजिस्टर्ड है।’ फिर क्या ? ऐसा कहकर उसने लाखों का बिजनस मार लिया, और वे इसके नौसिखिये कॉम्पीटेटर करते रहे कांव-कांव।”

केन्टीन का छोरा आया, उसने पोर्च में बैठे सभी बाबूओं को चाय से भरे प्याले थमाए। चाय के प्याले थमाकर, वह चला गया। आनंद कुमार ने गरमा-गरम चाय से भरा प्याला उठाया, और चाय की चुस्कियां लेते हुए वे शान्ति लाल भंडारी से कहने लगे।

“शान्ति लालाजी। अक्सर आप अल्पबचत का ढिंढोरा पीटते हैं, मगर आज़ मैं आपको आपबीती सुनाता हूँ..कैसे बचत होती है, घर में ? सुनिए, मैं छुट्टी के बाद घर पहुंचता हूँ..तब वहां बैठते ही, शान्ति से चाय मिल जाती है मुझे। आपको अचरच होगा कि, मैं जूते भी नहीं उतारता और उसके पहले मेरी छोरी चाय लिए हाज़िर। मेरी छोरी इतनी सेणी है कि, मेरा मूड देखकर ही वह बात करती है। भंडारी साहब, इन बच्चों के कारण ही घर में बरक़त है। आप जानते हैं, ऐसे तो कोई नयी चीज़ घर में आती नहीं। मगर...”

मुद्दे से भटक जाने के पहले, उनको मुद्दे पर लाने के लिए हरी प्रसाद बीच में बोल पड़ा “हुज़ूर, आप आप अल्पबचत के विषय पर कुछ कह रहे थे...?”

आँखें तरेरकर, आनंद कुमार बोल उठे “ओय लपका चौथ, बड़ों के बीच में बोलता है ?” फिर, भंडारी साहब को देखते हुए, कहने लगे “किस्सा कहने का सारा मज़ा किरकिरा कर दिया, भंडारी साहब।”

हाथ जोड़कर, भंडारी साहब बोले “जनाब, आप कुछ कह रहे थे, इस उल्लू के पट्ठे को बकने दो..बस, आप आगे की कथा बांचिये।” यह सुनकर, आनंद कुमार उनसे खफ़ा हो गए। और चिढ़ते हुए, कहने लगे “क्या बोले आप, अभी..कथा बांचिये..? क्या मैं आपको, कथावाचक लग रहा हूँ ? मैं तो बेचारा आपको समझा रहा हूँ कि, घर में बचत कैसे की जा सकती है ? सुनिए, एक बार टी.ए. के एक साथ क़रीब पांच रुपये आये। छोरी ने सुनकर कहा ‘पापाजी, घर में फ्रिज नहीं है, अगर इन रुपयों से फ्रिज खरीद लिया जाय तो कितना अच्छा हो..? फिर क्या ? फ्रिज में घट रहे रुपये की पूर्ती के लिए वह अपनी गुल्लक से क़रीब दो हज़ार रुपये निकाल लाई। और इधर हमारी श्रीमतीजी महान ने झट घर-ख़र्च से बचाए तीन हज़ार रुपये लाकर मेरी हथेली पर रख दिए। तो भय्या, इस तरह बच्चों और श्रीमतीजी की समझदारी से हमारे घर में फ्रिज आ गया। न तो हम तो हैं नौकरी पेशे वाले, कहाँ हैं हमारे पास इतनी दौलत ?” आनंद कुमार बोले।

“हुज़ूर, दौलत दिल की..उसके मुक़ाबले में कोई दौलत नहीं। कहीं भी जगह न हो तो, कोई बात नहीं मगर इंसान के दिल में जगह होनी चाहिए..तो उसका काम आराम से चल सकता है।” जीप की जांच करके श्योपत सिंह आ गए, और यहाँ आकर इनकी चल रही गुफ़्तगू में बीच में बोल पड़े। फिर जनाब, आगे बोले “मैंने सुना है, आप कहेंगे कि ‘दफ़्तर में, कोई ख़ाली पोस्ट नहीं है।’ कुछ नहीं जी, पोस्ट नहीं है तो नहीं करेंगे ज्वाइन..और क्या ?”

“अरे श्योपत, क्यों बिखरता है ? यह बात नहीं है रे, वास्तव में जगह ख़ाली नहीं है। जगह होती तो इस उम्मेद सिंह को, परमानेंट करवाकर इस सीट पर ज्वाइन नहीं करवा देता ?” अपनी सफ़ाई पेश करते हुए, आनंद कुमार बोले।

“छोड़ो साहब, इसमें क्या पड़ा है ? दुनिया आज़ हैं, कल नहीं। पोस्ट होगी तो देखेंगे। सभी जानते हैं, रांडा रोती रहती है और पाहुने जीमते रहते है। पोस्ट होगी, तो लोग आयेंगे।” श्योपत सिंह ने कहा।

“पधारिये, पधारिये श्योपत सिंह जागीरदार साहब। न तो नौ मन तेल होगा, और न राधा नाचेगी। आप बेफिक्र होकर पधारिये, जागीरदार।” व्यंग भरी मुस्कान अपने लबों पर छोड़ते हुए, आनंद कुमार बोल उठे।

श्योपत सिंह चल दिए, दफ़्तर के बाहर। उनके पेड़ों के निकट से गुज़रते ही कौओं में हलचल हुई, और वे ज़ोर-ज़ोर से करने लगे कांव-कांव। उनकी कांव-कांव के साथ, आनंद कुमार की मंडली की हंसी गूंज़ उठी। तभी सारे कौए छतरा गए, गेट और केन्टीन के आस-पास। अब इन कौओं की कांव-कांव के सिवाय कुछ नहीं सुनायी दिया। तभी शांति लाल भंडारी मज़हाक़ के मूड में, कैलाश भटनागर से कहने लगे “कैलाश बाबू, तुम्हारी बिरादरी के कौओं को श्राद्ध में भोजन खिलाना श्रेष्ठ ...” शांति लाल भंडारी ने आस-पास मंडरा रहे, इन कौओं पर नज़र डालते हुए कहा। कैलाश बाबू ठहरे कायस्थ जाति के, उनको जो कहना था वह गुड़ में लपेटकर शान्ति लाल ने कह डाला। मगर यहाँ तो कैलाश बाबू ठहरे, पक्के राय साहब। वे उनको, बोलने का अवसर कैसे दे पाते ? जनाब बोल उठे “भंडारी साहब, हमारा समाज ही समाजवादी विचारों का है, हम कभी अकेले नहीं खाते..मिल-बांटकर खाने में विश्वास करते हैं। और हमें पसंद है, ये कौए। कहीं भी इनको खाना नज़र आ जाए, तो करने लगेंगे कांव-कांव। इस तरह अपने बंधुओं को बुला लेंगे, और बाद में बड़े प्रेम से भोजन पर टूट पड़ेंगे। जनाब एक बात और है, जब-तक दूसरे कौए नहीं आ जाते तब-तक ये कौए भोजन पर कड़ी निग़ाह जमाये रखेंगे। समझे, भंडारी साहब ? दुनिया में इसे काक दृष्टि कहते हैं, आप ही देख लीजिये इनकी हिम्मत और संगठन को। हिम्मत हो तो हाथ डालकर देख लीजिये इनके घोंसले में, और चुरा लीजिये इनके अंडे।”

“नमो अरिहंताणाम, नमो अरिहंताणाम। नमो: नमो:। अरे दुष्ट, पर्यूषण में चुप रह, काहे अण्डों की बात करता है ? पाप लगता है, अंडा, मांस आदि का नाम लेने से।” झट भंडारी साहब ने कानों में उंगली दे दी, और बाद में बोल उठे “शुभ-शुभ बोल, अलग रख तेरा समाजवाद। अब उधर देख, गेट की तरफ़। तेरा कायस्थ-बन्धु आ रहा है।” गेट में दाख़िल हो रहे मास्टर छुट्टन लाल जोशी की ओर, उंगली का इशारा करते हुए भंडारी साहब बोल उठे।

“अरे भंडारी साहब, कानों में उंगली देने के साथ-साथ आँखों पर पट्टी बांधकर न बोला करें। यह जोशी है, मगर कायस्थ नहीं है। अगर कायस्थ होता तो, यह अपना सरनेम माथुर, भटनागर, श्री वास्तव आदि लगाता। समझे, भंडारी साहब ?”

तभी छुट्टन लाल निकट आ गए, कैलाश बाबू का मत सुनकर बीच में बोल पड़े “क्यों पावणा। नाराज़ हैं, क्या ? आपको वापस याद दिलाता हूँ, हमारे गाँव ब्यावर में आपका ससुराल है। आप ससुराल पधारते हैं तब, आप कैसे मिश्री से घुले हुए शब्दों से कहते हैं “पधारो समधीसा हमारे पाली शहर में, आपकी ख़ूब ख़ातिर करेंगे।” अब कीजिये, सत्कार-वत्कार..?

“अजी जोशी सरदार, इसमें नाराज़ होने की क्या बात है ? करेंगे आपका सत्कार, चलिए व्यवसायिक शिक्षा के कक्ष में।” कैलाश भटनागर उठकर, बोले।

“अजी करना है तो यहाँ कीजिये ना, हम भी देखते हैं जनाब में कितना दम है मेहमानों का सत्कार करने का।” पेसी खोलकर, ज़र्दा हथेली पर रखते हुए भंडारी साहब बोले...फिर दूसरे हाथ से, ज़र्दे को मसलते रहे।

“दम-ख़म सब रखते हैं, भंडारी साहब। मेहमान-बाजी करेंगे ज़रूर, मगर अपनी सीट पर। अजी भंडारी साहब, दूसरों की सीट के पास बैठकर अंटी ढीली करनी हमारे उसूलों में नहीं।” इतना कहकर, कैलाश भटनागर ने झट छुट्टन लाल के गले अपनी बांह डाली और चले गए अपने कक्ष में। उनके जाते ही, आनंद कुमार बरबस बोल उठे “दूसरों की सीट के पास बैठकर दूसरों के खातों से चाय मंगवाने का आदेश देने की इनकी अदा निराली है, भंडारी साहब। अच्छा दम-ख़म है, इन कौओं में। अपनी रोटी छोड़ परायों की रोटी में, इनको घी अधिक नज़र आता है। इनकी रोटी इनके लिए, और इनके बिरादरी वालों के लिए ही बनी है।”

व्यवसायिक कक्ष के कोने में कैलाश भटनागर की सीट लगी थी, जिसके बगल में खिड़की से ताज़ी हवा का लुत्फ़ उठाया जा सकता था। इनकी टेबल के अगल-बगल में कुर्सियां रखी थी, और एक बड़ा लोहे का बॉक्स भी रखा था, जिस पर ये जनाब अपने मिलने वालों को बैठाया करते थे। इनकी सीट के बगल में एक और टेबल रखी थी, जिसका उपयोग दफ़्तर में प्रतिनियुक्ति पर लगे शिक्षक और बाबू इस्तेमाल करते थे। जो सुबह से शाम तक काम निपटाओ कार्यक्रम के तहत अक्सर दफ़्तर में डेपुटेशन पर लगे रहते, जिनकी एक ही अभिलाषा होती थी कि “इस दफ़्तर के चित्रगुप्तों की मेहरबानी उन पर हमेशा बनी रहे, ताकि उनको स्कूल न जाने की छूट मिल जाए और रोज़ के उप-डाउन करने के पैसे वे बचाते रहे।” अक्सर कैलाश भटनागर के पास काम ज़्यादा नहीं रहता था, वे अपना वक़्त ज़्यादातर दूसरे प्रभारियों के कमरों में गुफ़्तगू करते हुए बिताते थे। इनकी सीट ख़ाली रहने से यहाँ शान्ति से प्रतिनियुक्ति पर लगे कार्मिक बैठकर, दफ़्तर का काम निपटाया करते थे। जनाब कैलाश भटनागर जिस प्रभारी के कमरे में बैठकर अपना वक़्त जाया करते थे, वहां उस प्रभारी का बकाया काम निपटाने में वे बिल्कुल भी मदद नहीं करते। अगर इनको कोई काम का कह दे, तो जनाब फ़रमाया करते थे कि, “हरामखोरी करने की सरकार वेतन देती नहीं, काम करने के लिए सरकार वेतन देती है। समझे..? आज़-तक आपने मलाई चाटी है, कभी छाछ चखी नहीं। अब ज़रा, छाछ भी चखकर देख लीजिये।” कहीं इनकी कांव-कांव की आवाज़, गलियारे से गुज़र रहे ज़िला शिक्षा अधिकारी के कानों में न पड़ जाय..? इस भय से बेचारा प्रभारी, हो जाया करता था चुप..अगर, बोले तो गुड़-गोबर। बस बेचारे के दिल में आह उठ जाया करती थी कि, “जंगल में आग लग जाए, मगर यह कमबख़्त कौआ आग में जलता नहीं।“ इस तरह कैलाश भटनागर रहते फ्री, और किसी प्रभारी के कमरे में वक़्त जाया करते थे। और उसी प्रभारी को कुछ न कुछ सुनाकर, आ जाया करते। चाय-नाश्ता ज़रूर कर लेते वहां, मगर इनके काम में किसी तरह का सहयोग नहीं करते थे। इस तरह जनाब, दफ़्तर के हर कमरे में जाकर अपना फ्री वक़्त जाया करते।

“भय्या सुदर्शन, जमा दिया आसन..बैठो, बैठो। हम उठाएंगे नहीं, आप जमे रहो।” इतना कहकर, कैलाश भटनागर बगल में रखी कुर्सी पर जम गए। फिर, साथ आये छुट्टन लाल से कहते गए “जोशीजी, खड़े क्या हो ? बैठो ना, यार। बक्सा हाज़िर है, जानते हो..? यह बक्सा, हमारे दफ़्तर का सोफ़ासेट है।” इनकी बात सुनकर, छुट्टन लाल हंस पड़े। फिर क्या ? आकर जम गए, बॉक्स पर।

“कैलाशजी, ये जनाब कौन है ? मुझे तो नहीं लगता, ये आपकी जमात के हैं ? भरोसा भी कैसे करें, भय्या ? एक तो यह है जोशी, और दूसरे आप हैं कायस्थ।” सुदर्शन बाबू छात्रवृति की फ़ाइल खोलते हुए, बोले। इस तरह उन्होंने, अपनी शंका इनके सामने प्रकट की।

“हम भी पहले यह कहते थे, यार। मगर, ये मानने वाले नहीं। अगर आपके दिमाग़ में इस सन्दर्भ में कोई थ्योरी हो तो, आप निकाल दीजिये इनके दिमाग़ का भूसा।” कैलाश भटनागर ने, लबों पर मुस्कान छोड़ते हुए कहा।

“पावणा, यह क्या..? क्या..क्या बक रहे हैं ये...भू..भू..सा भूसा..?” छुट्टन लाल भड़क उठे।

“अरे मालिक, नाराज़ न होइए। यह तो हमारे बोलने की स्टाइल है। हर कोई समझ नहीं सकता।” कैलाश भटनागर सकपकाकर बोले। बेचारे डर गए, कहीं यह छुट्टन लाल का बच्चा अर्थ का अनर्थ न कर दे..? आखिर, ठहरा ससुराल के गाँव का। वहां जाकर कहीं इसने नारदपंथी दिखला दी, तो फिर हम रहे काम से। फिर क्या ? ससुराल में होने वाली ख़ातिरदारी में, आ जायेगी कमी।

“देखिये कैलाशजी, इसका एक यह कारण हो सकता है..इनका इतिहास। इनके इतिहास पर नज़र दौड़ाई जाय, तो आपको मालुम होगा कि ‘मुग़ल काल में, हज़ारों राजपूत, बनिए आदि धर्म परिवर्तन करके बन गए मुसलमान। मगर भय्या ये मेहतर, सुथार, कायस्थ आदि कौमें बची रही। इन पर मुगलों ने कोई ज़ोर-ज़बरदसती नहीं की।’ बोलिए, क्यों नहीं की ? क्या लगते थे, ये कुत्तिया के ताऊ इनके ?’ सुदर्शन ने कहा।

“सीधी सी बात है, सुदर्शन। इन मुगलों की कोई दुखती रग दबती थी, मेरे यार। देख लो, यह कायस्थ कौम ठहरी पढ़ी-लिखी कौम। ये लोग राजा-महाराजा और ज़मीनदारों के यहाँ, सम्मानित पद पर काम करते थे। हमारी कौम के अन्दर ही कई आदमी इनके खजांची रहे, इस शासक वर्ग के कई गोपनीय भेद इनके पेट में दबे रहे। राजाओं के जाने के बाद आये, मुग़ल। सबको ज़रूरत रहती थी, धन, दौलत और गोपनीय भेदों की...सत्ता की सीढ़ी पर, चढ़ने के लिए। यही कारण रहा ‘कोई इन लोगों को नाराज़ नहीं कर सकता था, और फिर ज़ोर-अज़माइश की बात तो बहुत दूर की रही।” कैलाश भटनागर ने अपना मत रखा।

“आपने वज़ा फ़रमाया, कैलाशजी। ये जोशी है ना, इन्होने उस काल में कायस्थों के घर ली होगी शरण। जनाब, आप तो जानते ही हैं कि ‘मार-मारकर मुसलमान बनाना, इन मुगलों का काम था।’ फिर क्या ? इन मुगलों के अत्याचार से बचने के लिए, ये बेचारे बन गए कायस्थ।” मुस्कराकर, सुदर्शन बाबू बोल उठे। इनकी बात सुनकर, छुट्टन लाल खीज़ गए। और, नाराज़गी से कहने लगे “बाबू साहब, झूठ बोलना आपसे सीखे। इस तरह झूठ बोलना आपको शोभा नहीं देता। इतने पढ़े-लिखे होकर, आप मनगढ़ंत किस्से सुनाते जा रहे हैं आप ? जानते नहीं आप, हम असली कायस्थ हैं ? फर्जी नहीं, जैसा आपने बोला है। आपको हिम्मत कैसे हो गयी, हमें फ़र्जी कायस्थ कहने की ?” छुट्टन लाल क्रोधित होकर, अंगार उगलते हुए बोले। मगर, बाबू सुदर्शन को क्या पड़ी ? कौनसे ये जनाब छुट्टन लाल, इनके मेहमान ठहरे ? जो इनके क्रोध को, शांत करने की कोशिश करें ? वे तो इसके विपरीत, उनके क्रोध को बढ़ाते हुए आगे कहने लगे “क्यों नाराज़ होते हो, यार ? ऐसा क्या कह दिया, हमने ? आज़कल ऊँची जाति वाले फ़र्जी अनुसूचित जाति के सदस्य बन जाया करते हैं, सरकारी नौकरी लेने के लिए। मगर यहाँ तो आपको फ़र्जी कायस्थ बनकर, नौकरी क्या परमोशन भी मिलने वाला नहीं। आज़कल का ज़माना अनुसूचित और अनुसूचित जन जाति का है, जनाब।” सुदर्शन बाबू बोले, फिर भी कहने से पेट भरा नहीं..आगे उनको कचोटते हुए, बोले “यार तो फिर आप ऐसे कह देते भय्या, हमारे बुजुर्गों को ज्योतिषी बनने का शौक चर्राया..पीढ़ी दर पीढ़ी काम किया ज्योतिष का..फिर क्या ? कायस्थ होने के बाद भी, जोशी कहलाये। क्या सच्च बोलने में, आपकी नानी मर जाती है ?”

“रुकिए, रुकिए..बाबू साहब। अभी जाने के वास्ते, उठना मत सीट से। पहले आप अपनी इस चार इंच की लालकी पर कर लगाम कस दीजिएगा, ना तो...” छुट्टन लाल ने शेर की तरह दहाड़ते हुए कहा, और बक्से से उठने लगे।

“अरे, बैठो जोशी सरदार। क्या छोटी-बड़ी बातों पर रूठ जाते हैं, आप ? अरे यार, ससुराल वालों से थोड़ी-बहुत तो मज़हाक़ चलती ही है। चलिए, आपके लिए कुछ मंगवाते हैं। बोलिए, ठंडा या गरम ?” मनुआर करते हुए, कैलाश भटनागर बोले, और उनका हाथ थामकर उनको रुकने का आग्रह करने लगे। मगर छुट्टन लाल इतना सुनने के बाद, यहाँ कैसे बैठे ? जनाब को अब यह बक्सा सोफ़ासेट नहीं, यह काँटों का बिछोना लगने लगा। अपमान भरे इन काँटों की चुभन से आहत होकर, छुट्टन लाल रूपी शेर भड़क उठा। कैलाश भटनागर का हाथ झटककर, गुस्से से छुट्टन लाल बोले “रहने दीजिये, आदर-सत्कार। ख़ूब कर दिया आपने, आदर-सत्कार हमें यहाँ बुलाकर...जात दिखला दी, हमें। चलते हैं, अब ख़ूब सत्कार करेंगे पावणा..ससुराल ज़रूर पधारना और इन्हें साथ लेकर आना, अपने जोड़ीदार को..! शायद, सहारे की ज़रूरत पड़ जाए आपको।” गुस्से में छुट्टन लाल बोले, फिर झट कक्ष से बाहर निकल पड़े।

संस्थापन कक्ष से बाबू भवानी सिंह ने घंटी बजायी, मगर बाहर उनकी घंटी को सुनने वाला कौन ? उनका ख़ास चहेता चपरासी रतन लाल भी, गधे के सींग की तरह गायब..? वह तो दफ़्तर के सभी चपरासियों को इकठ्ठा करके लेकर गया था, बाहर केन्टीन पर..जहां वह उन सब को प्रेम से चाय पिला रहा था। जब से यह रतन लाल, भवानी सिंह का ख़ास चहेता बना था.. और इसको गोपनीय डाक सौंपने की जिम्मेदारी दी गयी..तब से जमादार मोहन लाल हो गया इससे नाराज़। फिर क्या ? मोहन लाल ने झट पाला बदला, और आ गया आनंद कुमार के पाले में। अब इसका एक ही काम रहा, बाबू भवानी सिंह को चपरासियों की यूनियन के मंच पर बदनाम करना। अब रतन लाल की चाय पार्टी में शामिल नहीं होकर, वह पोर्च में बेंच पर बैठकर बीड़ी पीने लगा। अब तो उसे शिव कुमार के पोर्च में हाज़िर होने के बाद भी, उनका भय सता नहीं रहा था। कारण यह था कि, ‘जनाब शिव कुमार ज़िला शिक्षा अधिकारी की राय मानकर गए ज़रूर थे, अपनी दुकान पर..मगर व्यापारियों की हड़ताल होने के कारण उनको दुकान की छुट्टी रखनी पड़ी और जनाब वापस दफ़्तर में लौट आये। और थके होने के कारण, वे पोर्च में रखी कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊँघ ले रहे थे। यही कारण रहा, यह मोहना ने आराम से बिना डरे बीड़ी सुलगा दी। फिर वह, धूम्र-पान का लुत्फ़ उठाने लगा।’ घंटी बजाने के बाद भी कोई चपरासी नहीं आया, जिससे भवानी सिंह नाराज़ हो गए। अब उनके गुस्से का, कोई पार नहीं..उनको ख़ुद पर गुस्सा आने लगा कि ‘क्यों उन्होंने इस रतन के बच्चे को, संस्थापन शाखा में आने की इजाज़त दी ?’ संस्थापन शाखा में आ गया, तो क्या ? कमबख़्त आख़िर था तो, कौआ। और अब तो यह कौआ, हंस के पंख लगाकर उड़ने लगा ? कमबख़्त अब, अपनी औकात भूल गया ? सोचते-सोचते उनका गुस्सा बढ़ता गया, और वे ज़ोर-ज़ोर से घंटी बजाने लगे। इस तेज़ घंटी के सुर ने, शिव कुमार की तंद्रा भंग कर डाली। आँखें मसलते हुए उन्होंने अपनी आँखें खोली, सामने देखा तो उनको बीड़ी पीता हुआ मोहना नज़र आया। फिर क्या ? वे बिफ़र उठे, और गरज़ते हुए उससे कहा “ओय बीड़ी-बाज। यह दफ़्तर है, या धर्मशाला ? जा, घंटी सुन। बैठा है यहाँ, बंशी बजने।”

“जनाब, बंशी तो अब हम तीनों मिलकर बजायेंगे..आप, आनंद कुमारजी और मैं। अभी आने दो, रतन को। फिर सुनिए, दरवाज़े की ओट में खड़े होकर...” इतना कहकर मोहने ने सुलगती बीड़ी गेट की तरफ़ उछाल दी। जो हड़बड़ाते हुए आ रहे रतन लाल के चरण को छूकर, उससे चिपक गयी। चिपक क्या गयी....? उस बेचारे की चमड़ी को जलाने लगी, बेचारा रतन दर्द के मारे तिलमिलाने लगा। इस स्वागत से बेचारा रतन सकपका गया, और पाँव से बीड़ी को दूर करके वह सांड की तरह संस्थापन कक्ष में घुस पड़ा।

“हुक्म दीजिये, कैसे याद किया आपने ?” रतन लाल बोला।

“बोल कमबख़्त, मेरी दराज़ में रखा कार्बन पेपर कहाँ चला गया ?” क्रोधित होकर, भवानी सिंह बोले।

“साहब, आनंद कुमारजी को कार्बन पेपर की सख्त ज़रूरत थी। वह कार्बन पेपर ले जाकर, उनको दे आया।” ज़राफ़त से, रतन लाल बोला।

“अरे नालायक, तेरी बेवकूफ़ी के कारण हो गया कबाड़ा। अब खड़ा क्यों है, मूर्ख..? फूट यहाँ से..!” भवानी सिंह गुस्से से बोले, और फिर सर पकड़कर बैठ गए बेचारे।

तभी उनको, किसी की हंसी सुनायी दी। इस आवाज़ के पीछे, आनंद कुमार की आवाज़ गूंज उठी। जो शिव कुमार से कह रहे थे “साहब, पाशा बदल गया। बिल्ली मौसी ने सभी पेंतरे अपने भानजे शेर को सिखाये, मगर एक पेंतरा नहीं सिखाया..उस पेंतरे को काम में लेकर, वह बिल्ली मौसी जान बचाकर पेड़ पर चढ़ गयी। आख़िर, यही उपाय बिल्ली मौसी के काम आया। समझ गए, साहब ? अक्लमंद उस्ताद वही होता है जो एक दाव शागिर्द को नहीं सिखाता, उसे अपने पास बचाकर रखता है..बाद में, यही दाव उस्ताद के असतित्व को बचाता है। आखिर हम ठहरे उस्ताद, कैसे बताते हम यह दाव...कार्बन पेपर को पढ़कर, दुश्मन की चाल को समझ लेना ?” बेचारा रतन लाल कभी दफ़्तरों में रहा नहीं, वह क्या समझे..दफ़्तर में क्या सियासती दाव-पेच चलते हैं, एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ? बेचारा नादान रतन लाल समझ नहीं पाया, कि “केवल एक कार्बन पेपर देने से ऐसी कौनसी आफ़त्त गले आ पड़ेगी, जिससे बना-बनाया काम हो जाएगा गुड़-गोबर ?” कार्बन पेपर क्या हाथ आया, आनंद कुमार को...? बस, संस्थापन शाखा का एक भेद खुलकर उनके सामने आ गया। मोहने ने जब भवानी सिंह के खिलाफ़ मोर्चा खोला था, तब भवानी सिंह उससे नाराज़ हो गए। नाराज़ होकर उन्होंने मोहने का तबादला बांगड़ हायर सेकेंडरी स्कूल में कर देने के आदेश तैयार किया था, जिसका मजनून ज़िला शिक्षा अधिकारी के हस्ताक्षर करने के पूर्व सबको मालुम हो गया। अब यह गोपनीय बात, ओपन हो गयी। कार्बन पेपर को देखकर, आनंद कुमार ने उसके टंकण की उल्टी लिखावट पढ़ ली। इस तरह, भवानी सिंह के मंसूबे पर पानी फिर गया। बस, हो गया कबाड़ा। क्योंकि, आदेश जारी होने के पहले मोहने ने पूरी तैयारी कर ली..कि, किस तरह इस आदेश को कैसे रोका जाय ?

पाठकों।

आपको यह अंक ७, बहुत पसंद आया होगा ? अब आप इसके बाद, अंक ८ नीम का पेड़ पढेंगे। नीम का पेड़ कटाने के बाद उसकी लकड़ी मुफ्त में हासिल करने के लिए कौन क्या करता है ? जिससे कई हास्य वाकये पैदा होते हैं, जिन्हें पढ़कर आप ख़ूब हसेंगे। चलिए, आप तैयार हो जायें, हंसी के ठहाके लगाने के लिए।

आपके ख़तों की प्रतीक्षा में तारीख़ ०२ दिसम्बर. २०१८

दिनेश चन्द्र पुरोहित dineshchandrapurohit2@gmail.com

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. इस अंक के बाद आप पढ़ेंगे अंक 8 "नीम का पेड़" !
    दिनेश चंद्र पुरोहित

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रचनाकार: संस्मरणात्मक शैली पर आधारित पुस्तक “डोलर हिंडा” का अंक ७ “हो गया कबाड़ा” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
संस्मरणात्मक शैली पर आधारित पुस्तक “डोलर हिंडा” का अंक ७ “हो गया कबाड़ा” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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रचनाकार
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