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कार्यालय ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] पाली में हो गया जमघट, अध्यापकों का। इन अध्यापकों की एक ही मंशा थी कि, ‘किसी तरह इनका तबादला, इच्छित स्थान पर हो जाय।’ यही कारण है, तबादले के चक्कर में संस्थापन के कमरे में इन अध्यापकों का जमाव अक्सर हो जाया करता था।
कल ही पाली के सूरज पोल पर ‘आकाशवाणी’ द्वारा समाचार प्रसारित हुए थे, जिसमें ख़ास समाचार था “नए ज़िला शिक्षा अधिकारी, आज़ इस दफ़्तर में ड्यूटी ज्वाइन करेंगे”। जिसके अनुसार, आज़ नए ज़िला शिक्षा अधिकारी का आगमन इस दफ़्तर में होने वाला था। आप सोच में रहे होंगे कि, वास्तव में रेडिओ आकाशवाणी द्वारा ऐसे कोई समाचार तो प्रसारित हुए नहीं...और हम काहे कर गए, इतनी देर यह बकवास ? अजी आली जनाब पाली शहर में सूरज पोल नाम का एक ऐसा स्थान है, जहां चाय की एक होटल है...वहां रोज़ शाम के छह बजे से रात के नौ बजे तक, शिक्षा विभाग के दफ़्तरे निग़ारों और अध्यापकों का जमाव होता है। यहाँ शेयर-मार्किट की तरह, विभाग की कई ख़बरों का प्रसारण होता है। यहाँ की ख़बरें, शेयर-बाज़ार के बेजान दारुवाले की भविष्यवाणी के समान विश्वसनीय होती है।
इस दफ़्तर में इन दफ़्तरे निग़ारों की बेहतरीन तदाद है, मगर अधकारी वर्ग की संख्यां भी कम नहीं। तीन-तीन तो अतिरिक्त ज़िला शिक्षा अधिकारी, दो उप ज़िला शिक्षा अधिकारी और उनसे पिसते हुए बेचारे दो व्याख्याता समकक्ष अवर उप ज़िला शिक्षा अधिकारी भी हैं...और शारीरिक शिक्षा के कोच को, कैसे भूला जा सकता है ? वे भी, इस दफ़्तर की रौनक बढ़ाते हैं। इन दफ़्तरे निग़ारों के हेड यानी कार्यालय अधीक्षक की भी पोस्ट है, जिनकी कुर्सी दफ़्तर के पोर्च में लगी है। जिस पर, कार्यालय सहायक आनंद कुमार को बैठे देखा जा सकता था। यह एक ऐसी जगह है, जहां कार्यालय में आने-जाने वालों पर कड़ी नज़र रखी जा सकती है। बस इसी कार्यालय अध्यक्ष की कुर्सी पर क़ब्जा जमाकर, आनंद कुमार इस लंका रूपी दफ़्तर के बाबूओं और चपरासियों पर लंकेश की तरह शासन करते थे। हाज़री रजिस्टर, यात्रा रजिस्टर, आवागमन रजिस्टर और आगंतुक रजिस्टर वगैरा अपने पास रखकर, वे अपना महत्त्व बनाये रखते। कोई ज़माना था, जब पूरे जिले के शिक्षा कार्मिकों के दिलों में, श्रीमानजी की तूती बोलती थी। तब इनके पास, संस्थापन शाखा का प्रभार था। कार्मिकों के तबादले, पदोन्नतियाँ और नियुक्तियां करवाने का ज़बरदस्त आकर्षण इनके पास था। जैसे पुष्प की तरफ़ मधु प्राप्त करने के लिए, मधु मक्खियाँ आकर्षित होती है, उसी तरह अपना-अपना काम करवाने के लिए शिक्षा कार्मिकों का जमाव इनकी सीट के आस-पास बना रहता था। इन प्रकरणों की संख्या कम होने का तो सवाल ही नहीं, एक निपटाओ तो दस और सामने आ जाया करते थे। अधिक काम के मारे, बेचारे आनंद कुमार प्रकरण निपटाते-निपटाते ऐसे थक जाते थे कि ‘उनमें किसी अध्यापक से बात करने की, ताकत नहीं रहती। तब वे परेशान होकर झल्लाते-झल्लाते, अपनी मुस्कान खो बैठे।’ एक बात और है, आनंद कुमार ठहरे भोले शिव शम्भू के भक्त, ‘वे कभी एक पैसा बेईमानी का खाते नहीं, फिर ईमानदारी से काम को नियमानुसार निपटाना कोई सरल काम नहीं।’ मगर यहाँ आने वाले ज़्यादातर ज़रूरतमंद अध्यापक लघु मार्ग पर चलने का अनुयायी होते थे, रिश्वत देकर अपना काम फटा-फट निपटाने की प्रवृति इन लोगों में बनी रहती थी। फिर अपने सिद्धांतों को क़ायम रखते हुए, प्रति दिन इतने सारे कार्मिकों को झेलना, और उनका काम करना कोई सहज काम नहीं...कई बार वे परेशान होकर, इनको झल्लाना पड़ता था। इस तरह बार-बार झल्लाते रहने से, इनकी खोयी मुस्कान वापस इनके लबों पर न पायी। अब उनके खिसियाते चेहरे की अमिट रेखाएं इनको बार-बार याद दिलाती रही कि, आज़ जो इस दफ़्तर में संस्थापन-प्रभारी भवानी सिंह बैठा है...वह कल इनके अधीनस्थ, शागिर्द के तौर पर काम करता था। और, वे इनके बोस थे। मगर, आज़ वह अपने गुरु को धता बता गया। “गुरु गुड़ ही रहे, और चेला चीनी बन गया” यह कहावत सौ फीसदी सच्च है। इस दफ़्तर से कब नियुक्ति आदेश ज़ारी होते हैं, और कब तबादले की फ़ेहरिस्त तैयार होती है ? बेचारे आनंद कुमार इन भावी सूचनाओं से ऐसे मरहूम हो गए कि, ये जनाब दफ़्तर के नोटिस बोर्ड पर आदेश या फ़ेहरिस्त चस्पा देने के बाद ही इसकी जानकारी हासिल कर पाते।
हाय राम..अब तो इतना बुरा हाल पोर्च में दाख़िल आगंतुक अध्यापक इनको बिना नमस्कार किये वह सीधा भवानी सिंह के कमरे की तरफ़ बढ़ जाता था। कहते हैं, इस ख़िलकत का रिवाज़ है “चढ़ते हुए को पूछना, जिससे उनका काम सरता हो..और भूल जाना उनको, जिनसे पहले काम सरते थे।” आनंद कुमार थे बेचारे सीधे-सरल आदमी, किसी के प्रति बुरा विचार अपने दिल में नहीं रखते थे, जो भी बात कहनी थी वह अध्यापक के मुंह पर कह देते थे। मगर दुनिया बड़ी ज़ालिम है, सीधे-सरल आदमी को उसकी योग्यता अनुरूप कुर्सी पर टिकने नहीं देती। उनको तो ऐसे आदमी चाहिए, जो मुंह पर मीठा बोले..भले मुंह पर राम और बगल में छुरी रखने वाले आदमियों में, उनकी गणना होती हो..? बस, भवानी सिंह उनकी इच्छा के अनुकूल आदमी ठहरे। इनका व्यवहार आनंद कुमार से कुछ अलग था, दिल के अन्दर कुछ और बाहर कुछ। वे अध्यापक को मुंह पर कभी असलियत बताकर, उसे नाराज़ करते नहीं थे। बस ऊपर से मीठे बोलते हुए उस अध्यापक को भरोसा देकर वापस भेज देते, मगर उसका काम वे नहीं करते। इस तरह भवानी सिंह का छलिया व्यवहार कभी-कभी, आनंद कुमार के दिल में घाव लगा लगा दिया करता। वास्तव में बात यही होती थी, ‘भवानी सिंह उस मुलाक़ाती अध्यापक का काम करते भी नहीं, मगर वह अध्यापक उनके कमरे से ख़ुश होकर बाहर निकला करता था।’ बात यही है, आगंतुक अध्यापक भवानी सिंह के लबों पर फ़ैली मुस्कराहट देखकर ही वह उन पर क़ायल हो जाता..भले उन्होंने उसका कार्य न किया हो...? काम भी नहीं करें, और लोग उनकी तारीफ़ करते रहें..? यह कैसी अचरच की बात..? जहां आनंद कुमार इस सीट पर थे, तब वे अध्यापकों का काम ईमानदारी से भी करते...मगर लबों पर मुस्कान न ला पाने के कारण, उनके रूखे व्यवहार से आगंतुक अध्यापक भाई उनसे नाख़ुश ही रहते थे। बात यही समाप्त नहीं होती, सभी जानते थे कि ‘आनंद कुमार किसी आगंतुक की मस्कागिरी न करते हुए, साफ-साफ शब्दों में कह देते थे कि काम होगा या नहीं।’ बस यही बात, अध्यापक भाइयों को पसंद आती नहीं।
नए ज़िला शिक्षा अधिकारी का कब हो, आगमन..? इस दफ़्तर के स्टाफ में सीनियर मोस्ट होने के कारण, आनंद कुमार को परंपरा अनुसार..नव आगंतुक ज़िला शिक्षा अधिकारी का स्वागत करना था। बस वे उनकी प्रतीक्षा में कब से पुष्प-माला लिए पोर्च में बैठे थे कि, अभी-तक उन्होंने अपना दैनिक काम भी नहीं निपटाया। उनको आशंका थी, न मालूम कब डी.ई.ओ. साहब दफ़्तर में अपने चरण-कमल रख दें..? आख़िर वे आते नज़र नहीं आये, तब बेचारे लघु-शंका निवारण करने के लिए उठे। गलियारा पार करते वक़्त, उन्होंने संस्थापन कमरे में झाँक कर देख लिया। अन्दर झांकते ही वे चौंक उठे, उनको अन्दर सेवा निवृत अध्यापक भोपाल सिंह नज़र आ गए, जो भवानी सिंह से कह रहे थे “भवानी प्यारे, इन लबों पर छाई मुस्कान को कभी खोना मत। यही मुस्कान, सफलता की कुंजी है। इसे खो दी तो, तुम भी बन जाओगे ‘खिसयानी बिल्ली’ जो खम्भा नोचती हो..! यह संस्थापन का चार्ज आज़ तुम्हारे पास है, तो कल नहीं रहेगा। अगर इन लबों पर मुस्कराहट और दिल में प्रेम रखोगे प्यारे, तो चार्ज न रहने पर कल भी ये अध्यापक भाई तुम्हें पूछेंगे और तुम्हारा आदर करेंगे। भय्या, यह सच्च है कि, ‘आप अध्यापक का काम करो या मत करो, यह इतना ज़रूरी नहीं..मगर उनसे आप प्रेम से बोलोगे तो, उनके दिल पर आप राज़ करोगे और वे तुम्हें कभी नहीं भूलेंगे। न तो तुम भी लंकेश की तरह, पड़े रहोगे दफ़्तर के गेट पर।” भोपाल सिंह के ये बोल उनके कानों में ऐसे गिरे, जैसे इतिहास के अतीत के पन्ने खुल गए हों..? फिर क्या ? आनंद कुमार के दिमाग़ में अतीत के मंज़र चित्र पट की तरह छाने लगे।
“भोपाल सिंहजी बन्ना, यह क्या ? आपकी सरकार है, राज्य में..और हम बैठे हैं अपने घर से दूर..क्या, आपको हमारा इतना भी ख़याल नहीं ?”
“वाह आनंद कुमार, क्या बेवकूफों जैसी बातें करते हो तुम..? मैं बैठा हूँ ना तुम्हारा बड़ा भाई, और हमारी कांग्रेस पार्टी बैठी है सत्ता में। तुमको तो भाई आर्डर देते हुए मुझे यह कहना था कि ‘चलो भाई साहब, कल ही चलते हैं जयपुर, और मुझे पाली में लाने के लिए सरकारी आदेश हाथो-हाथ लेकर आना है आपको। फिर आपके मिनिस्टर खेत सिंहजी राठौड़, कब काम आयेंगे ?”
बस भोपाल सिंह का कहना ही हुआ, और तपाक से आनंद कुमार ने तबादले का आवेदन-पत्र थमा दिया उन्हें। कुछ रोज़ बाद, इसी ज़िला शिक्षा अधिकारी [माध्यमिक] पाली के दफ़्तर में आनंद कुमार का तबादला हो गया। और बड़े साहब के पास सुफ़ारस पहुंचाकर, भोपाल सिंह ने आनंद कुमार को संस्थापन का चार्ज दिलवा दिया। बस, तब से भोपाल सिंह बन्ना आनंद कुमार के लिए सम्मानित व्यक्ति बन गए। जब भी इनके ऊपर तबादले सम्बन्धी कोई बादल मंडराते, तब आनंद कुमार झट अग्नि शमन रूपी भोपाल सिंह के पास चले जाते और हो जाते निश्चिंत। धीरे-धीरे आनंद कुमार संस्थापन सीट पर दही के माफ़िक ऐसे जम गए कि, उनको वहां से उठाने वाला कोई रहा नहीं..और, तब से हो गए निश्चिंत..यानी अब इनको, कोई इस सीट से हिलाने वाला नहीं। आये दिन अध्यापकों की भीड़ से निपटते-निपटते...नहीं उलझते-उलझते खो बैठे लबों की मुस्कान, और भूल बैठे पुराने अहसान। वक़्त बदल गया, राज्य में सत्ता परिवर्तन हो गया..कांग्रेस के स्थान पर जनता पार्टी की राज्य में सरकार बन गयी। और इधर बढ़ती उम्र के साथ, भोपाल सिंह पा गए सेवा निवृति। एक दिन वे किसी अध्यापक का काम लेकर आये...इस कार्यालय में, तब ज़िला शिक्षा अधिकारी को कक्ष में न पाकर उन्होंने वक़्त बिताने के लिए संस्थापन के कमरे की ओर रुख किया। उन्होंने सोचा, चलो बड़े साहब न आये तब-तक आनंद कुमार के पास बैठकर इधर-उधर की बातें करेंगे। मगर जैसे ही वे कमरे में आकर उनके पास रखी ख़ाली कुर्सी पर बैठे..और आनंद कुमार को बहुत बुरा लगा, उस कुर्सी पर उनकी अनुमति लेकर ही बैठा जा सकता था। बस, फिर क्या ? तपाक से आनंद कुमार उनसे कड़े शब्दों में बोल पड़े “ओ मिस्टर, यहाँ कैसे बैठ गए ? भय्या यह हथाई नहीं है, जो हफ्वात करने यहाँ जम गए ? ना टाइम पास का कक्ष..चलो बाहर...!” इस तरह बदतमीज़ों की तरह बोल पड़े, यह भी न सोचा ये जनाब वही है जिनकी मेहरबानी से इनका तबादला इस दफ़्तर में हुआ और इनको संस्थापन का चार्ज मिला। उनको अहसान-फ़रामोश पाकर, भोपाल सिंह के दिल को चोट लगी और वे गुस्से से बोल उठे “गेलसप्पे। मुंह संभालकर बोला कर, कल-तक तो पूंछ हिलाकर तू मेरे आगे-पीछे..” इतना कहते-कहते उनका दिल बैठ गया, और वे आगे बोल न सके। फिर क्या ? दफ़्तर की मर्यादा बनाए रखने के लिए, वे कमरे से बाहर निकलकर आ गए गलियारे में। उनके दिल में बार-बार यही विचार उठने लगा कि, ‘आज़ इनकी पार्टी सत्ता में नहीं है, और यह आदमी अहसानमंद होने के स्थान पर अहसान-फ़रामोश हो गया और हमसे मुंह फेर लिया..?’ उनके दिल से बददुआ निकलने लगी “ईश्वर ने चाहा तो एक दिन ऐसा आयेगा, तेरी कुत्ते भी खीर नहीं खायेंगे।” तभी उनकी मुलाक़ात, गलियारे में आ रहे श्योपत सिंह से हो गयी। इनके मुख पर छाई मलिनता को देख, वह चुप न रह सका। आख़िर, उसने जुमला बोल ही दिया “कहाँ चढ़ लिए गुरु, नीम चढ़े करेले पर..?” यह जुमला सुन लिया, आनंद कुमार ने..जो उनके पीछे-पीछे ही कमरे से बाहर निकले थे..युरीनल जाने के लिए। श्योपत सिंह का जुमला सुनकर, वे कुपित हो उठे। गुस्से में, बरबस वे उससे बोल उठे “साला मुझे तू नीम चढ़ा करेला कहता है..? मर इधर...”
तभी किसी ने आनंद कुमार का कंधा थपथपाया, जनाब तंद्रा से बाहर निकलकर जागृत हो गए। आँखें मसलकर उन्होंने सामने देखा, सामने शिव कुमार खड़े थे जो उनका कंधा थपथपाकर उनको जगा रहे थे।
“रोज़ करेला खिलाकर तेरा दिल नहीं भरा रे, आनंद कुमार ? आज़कल तो यार, तूझे सपने में भी करेले नज़र आते हैं ?” शिव कुमार इतना कहकर, ठहाके लगाकर ज़ोर से हंसने लगे। उनकी हंसी सुनकर, बेचारे आनंद कुमार झेंप गए। आज़ दफ़्तर में शिव कुमार के सिवाय कोई अधिकारी नहीं आये, इस कारण शिव कुमार निश्चिन्त थे। अत:, वे उनके बगल की कुर्सी पर आराम से बैठ गए। उनकी विशाल काय काया भार सहती हुई कुर्सी, चरमराने लगी। फिर क्या ? झट उन्होंने दरवाज़े के पास खड़े द्वारका प्रसाद को आवाज़ लगाकर, हुक्म दे डाला “जा रे दरगला, जा..श्योपत सिंह को बुलाकर ला। उसे कहना कि मुझे बाहर जाना है इसलिए जीप लेता आये।”
सुबह से संस्थापन शाखा में चहल-पहल थी, तब द्वारका प्रसाद ने सोचा “श्योपत सिंह के दीदार अब, संस्थापन के कमरे में ही हो सकते हैं। इस कक्ष को छोड़कर, वे कहीं नहीं जा सकते। बस, फिर क्या ? द्वारका प्रसाद संस्थापन के कमरे में जा पहुंचा, वहां वह अध्यापकों और बाबूओं के बीच चल रही चर्चा सुनने का का आनंद उठाने लगा। और बेचारा भूल गया कि, उसे शिव कुमार ने क्या आदेश दिया था ? वहां एक टेबल पर लेटे श्योपत सिंह, अपने कानों को उस चल रही चर्चा की ओर दिशा चुके थे। भवानी सिंह की टेबल के चारों ओर अध्यापक और दफ़्तर के बाबू कुर्सी लगाए बैठे थे। उनकी टेबल पर नाना प्रकार के सेम्पो और बाल बढ़ाने वाले मसालों की पुड़ियाँ रखी थी। मसालों की पुड़ियों की सुगंध पाकर श्योपत सिंह उठे, और टेबल पर बिखरी पुड़ियों की जांच कर उनकी जानकारी लेने लगे। तभी भोपाल सिंह बोल उठे “भाइयों, हमारे दफ़्तर में जो डी.ई.ओ. साहब आ रहे हैं, उनका नाम है डाक्टर केश वाला।” फिर, वे भवानी सिंह की तरफ़ देखते हुए बोले “भवानी सिंह, ज़रा ध्यान रखना ‘आने वाले साहब को चिढ़ है, गंजो से।’ उन्हें खूबसूरत घुंघराले बाल वाले कार्मिक, ज्यादा पसंद है। अब समझ गए, प्यारे भवानी सिंह ?” इनकी बात सुनकर, वहां बैठे स्टेनो राजेंद्र कुमार रांका ने झट अपना हाथ अपने घुंघराले बालों पर फेरना शुरू किया।
उनको सर पर हाथ फेरते देखकर श्योपत सिंह ने टेबल पर रखी चमेली तेल की शीशी उठायी, और बोले “पी.ए. साहब, ज़रा इस चमेली के तेल को अपने बालों पर लगाकर इन्हें और खूबसूरत बना दीजिये।” इतना कहकर, श्योपत सिंह ने उस शीशी को पुन: टेबल पर रख दी। जैसे ही श्योपत सिंह ने शीशी टेबल पर रखी, तपाक से राजेंद्र कुमार ने उस शीशी को उठायी और पास बैठे टकले नारायण दास को थमा दी। फिर, बोल उठे “लीजिये जनाब, आपके चाँद पर इसे लगायें और बन जाए...!” मगर, यह क्या ? बीच में ही श्योपत सिंह ने उस शीशी को नारायण दास से छीनकर, उस शीशी का ढक्कन खोला..फिर थोड़ा तेल हथेली में लेकर बेचारे नारायण दास की सफ़ाचट खोपड़ी पर मालिश करते हुए बोल पड़े “छूछून्दर की खोपड़ी पर चमेली का तेल..वह क्या कहना, नारायण दासजी..?“ और फिर, गीत गाने लगा “सर अगर चकराए या दिल डूबा जाए, आ जा प्यारे पास हमारे..”
“जल्दी-जल्दी हाथ चला रे, श्योपत..तेरे आगे तो फिल्म प्यासा का अभिनेता जानी वाकर, मालिश क्या करेगा ? कमबख़्त पानी भरेगा, पानी।” नारायण दास बोले, फिर ठहाका लगाकर हंसने लगे। सुनकर श्योपत ने झट अपने हाथ रोक दिए, मगर नारायण दास कहाँ उसे छोड़ने वाले ? वे झट उसे तेल की शीशी थमाते हुए कहने लगे “श्योपत, हाथ मत रोक यार, अभी मेरे बाद में तूझे भाई भवानी की मालिश करनी है और इसके बाद राजेंद्र कुमार पी.ए. साहब की, और फिर इसके बाद में..तेल की तू फ़िक्र करना मत, एक और शीशी और मंगवा दूंगा।” बेचारे श्योपत सिंह की बोलती बंद हो गयी, नारायण दस ने ऐसा नहला पर दहला मारा कि बेचारा श्योपत आब-आब हो उठा।
सर पर मालिश हो जाने के बाद, नारायण दास ने अपने सर पर हाथ फेरा और बाद में जेब से कंघा बाहर निकालकर सर पर उगे चार बालों को संवारने लगे।
“काहे संवारते हो, ये चार बाल खोपड़ी के ? अक्लमंद लोगों को ही मिला करती है, ऐसी सफ़ाचट खोपड़ी। यार, ज़रा सोच। राजनीति का पंडित चाणक्य ने कब अपने सर पर, बालों का घोंसला सजाकर रखा था ?” भवानी सिंह मुस्कराकर, बोले।
“संस्थापन-ए-आज़म कम से कम बोलने के पहले, आप अपने चाँद को भी देख लीजिएगा। खेती न सही, तो क्या हुआ ? कम से कम इस चाँद पर, घास-पूस तो उगा दीजिये। आपके पास वक़्त कहाँ, राजनीति करने का ? जो आप चाणक्य बने रहेंगे..? बस इन फाइलों से माथा-पच्ची करनी है, आपको। बस अब आप, बाबू सुदर्शन के लाये गए नाइल सेम्पो को मौक़ा दीजिये, इस तरह बेचारे सुदर्शन भी ख़ुश हो जायेंगे और उनकी ख़रीदकर लाई गयी बोतल काम आ जायेगी।” नारायण दास बोले।
तभी बगल में बैठे सेकेंडरी स्कूल के वरिष्ठ लिपिक नरेश भावु बीच में बोल पड़े “भाई भवानी मैं तो यही कहूंगा कि. ‘फिल्म गोलमाल के चरित्र अभिनेता उत्पल दत्त कितने फेमस है, यार ? कल ही कोलेज रोड पर बैठे नारायण दासजी को कोलेज के छोरे इनको घेरकर खड़े हो गए, और इनसे ओटोग्राफ माँगने लगे। फिर जनाब ऐसे अकड़ने लगे, मानो वास्तव में ये उत्पल दत्त ही हो..! ग़नीमत है उस दिन मिशन स्कूल में टी.वी. सीरियल बनाने वालों की टीम रुकी हुई थी..होरर शो की सूटिंग करने। इस तरह इनकी बात ढकी ही रही कि, आली जनाब उत्पल दत्त न होकर उनके हम-शक्ल हैं। अब भाई भवानी, इनको ऐसी-वैसी बात मत कहना...जनाब तो असली लाइफ़ में, हीरो से कम नहीं है।” अचानक श्योपत सिंह की नज़र वहां खड़े द्वारका प्रसाद पर गिरी, जो काफ़ी देर से यहाँ खड़ा इन लोगों की गुफ़्तगू सुनता जा रहा था। उसे देखते ही श्योपत सिंह उठा और झट टेबल पर फैलाए गए सेम्पो, तेल और बाल बढ़ाने के मसाले उठाकर, झट भवानी सिंह की अलमारी में रख दिए। क्योंकि, वह जानता था ‘यह द्वारका आता भी है मेरे पास, केवल मुझे बुलाने।’ फिर, वह भवानी सिंह से कहने लगा “भवानी सिंहजी भाबा। अब आप एक बात ध्यान रखना कि, जिला शिक्षा अधिकारीजी को ख़ुश रखना हो तो आप कभी किसी टकले अध्यापक को उनके पास न फटकने देना। दूसरी बात, तबादला बाबत कोई अध्यापक अपना आवेदन आपकी टेबल पर रखता है...तो पहले उससे मुफ़्त में एक नाइल सेम्पो की बोतल, लेकर अपने पास रख लेना। बस अब आप, सेम्पो की बोतल आने के बाद ही उसका आवेदन पत्र हेंडल करेंगे। अभी से आप इसकी ट्रेनिंग ले लेना... बाद में यह तौर-तरीक़ा, आपके काम आएगा।”
“अरे हुज़ूर, बोतल आये या न आये..मगर आप घुंघराले बालों वाली विग मंगवाकर अपने पास रख लेना। जब भी साहब के पास जाओगे, तब इसे पहनकर ही आपको जाना होगा।” द्वारका प्रसाद मुस्कराकर बोला, फिर श्योपत सिंह से कहने लगा “जागीरदारों हम में से कोई उनको पहचानता नहीं है, ना किसी ने उनकी शक्ल देखी है...आख़िर, उन्हें पहचानेगा कौन ? यह ज़रूर हो सकता है, ‘आप अक्सर बैठा करते हैं दफ़्तर के गेट पर, उस चाय की केन्टीन पर..’ आप ज़रूर उनको पहचानकर, हमें बता देना।” द्वारका प्रसाद बोला, और फिर ख़िल-खिलाकर हंसने लगा।
“दरगला तेरी मौत आयी है, या तेरा आटा वादी कर रहा है ? कमबख़्त, हमको गेटमेन समझ रखा है तूने ?” द्वारका प्रसाद की व्यंगात्मक बात सुनकर, श्योपत सिंह भड़क उठा।
“गेट..गेट” शब्द द्वारका प्रसाद के दिमाग़ में कोंधने लगा..गेट के पास यानी पोर्च में आनंद कुमार के बगल में बैठे शिव कुमार उसे याद आ गए। शिव कुमार का नाम उसके लबों पर आते ही, उनका हुक्म याद आ गया। बेचारा श्योपत सिंह को बुलाने यहाँ आया था, मगर यहाँ चल रही गुफ़्तगू को सुनते-सुनते वह भूल गया कि वह यहाँ क्यों आया था ? अब सब याद आते ही वह बेचारा घबरा गया, उसको आशंका होने लगी ‘अब तो उनके बगल में बैठे लंकेश, यानी आनंद कुमार का पारा ऊपर चढ़ गया होगा...? एक तो उनके कड़वे बोल, और ऊपर से उन पर शिव कुमार जैसे अफ़सर उन पर मेहरबान..अब तो उनकी ज़बान की कड़वाहट नीम चढ़े करेले के सदृश हो गयी होगी..?’ यह विचार उसके दिमाग़ में आते ही वह कांप उठा, और घबराता हुआ श्योपत सिंह से कहने लगा “जागीरदारों, फटा-फट पधारो..शिव कुमारजी ने जीप मंगवाई है।” इतना कहकर, द्वारका प्रसाद चला गया।
“घर की गाड़ी को देते हैं ठेके पर, लोगों को चलाने के लिए। और फिर सरकारी गाड़ी को रगड़ते हैं, घर के काम के लिए। अब इनके पास जाए, मेरी जूती।” इतना कहकर, श्योपत सिंह चल दिए लघु-शंका के बहाने गलियारे की ओर।
पोर्च में रखे टेलीफ़ोन पर घंटी बज उठी, शिव कुमार ने चोगा उठाया। फ़ोन उनके किसी व्यापारी मित्र का था।
“हल्लो कौन ? मिश्री मलसा ?...हाँ, मिश्री मलासा मुझे याद है...थोडा वक़्त दो, भाई। पैसा मार्केट में फंसा है...अरे जनाब, हम पर भरोसा नहीं है ?.....ठीक है, हम यह काम आपका कर देंगे। अभी जाते हैं, मार्केट में। क्या कहूं, मिश्री मलसा..भाटों का काम ही कुछ ऐसा है। माल मंगा देते हैं झट, मगर पैसे देने में इनको आती है मौत।...ठीक..ठीक, मुजरोसा...अब रखूँ ..?” इतना कहकर उन्होंने चोगे को क्रेडिल पर रख दिया। फिर बेंच पर सुस्ता रहे मोहने जमादार को, फटकारते हुए कह डाला “हाथी जैसे पसर गया, गधा। यह दफ़्तर है, या जवाहर खाना..?” फिर, शिव कुमार गुस्से में तल्ख़ आवाज़ में बोले “उठ, जा बुला उस श्योपत को..उल्लू अभी-तक आया नहीं ?”
मोहने ने अपने पाँव समेटे, जिसकी लात पास बैठे अलाउद्दीन जमादार को जा लगी। लात क्या लगी, अलाउद्दीन फट पड़ा “गधा..गधा है तू। साहब सही कहते हैं, हाथी जैसे पसर गया..गधा, दिखता नहीं मैं पास बैठा हूँ..कमबख़्त लगता है लातें ?”
“चल मैं तो गधा सही, मगर तू तो इंसान है ? जा साहब का हुक्म बजा..श्योपत को बुला ला।” इतना कहकर, मोहना अपने बेग से सहायक कर्मचारियों की डाक निकालकर, उसे देखने बैठ गया। अलाउद्दीन सोचने लगा “यार इंसान हूँ तब ही सोचता हूँ, अपने परिवार के बारे में। तेरा जैसा नहीं, जो दारु पीकर पड़ा रहता है गंदी नालियों में ? शाम को घर जाऊंगा, महमूद मियाँ के लिए किताब ख़रीदकर ले जानी है। मेमूनी कल ही मुझसे लिपटकर, बोली ‘अब्बा, मेरे लिए फ्राक भी लेते आना।’ उसकी फ्राक लाऊंगा तब बीबी बोलेगी कि, ‘मेमूनी के अब्बा, अम्मा जान जा रही है हज़ पर। पैसों का इंतज़ाम हुआ या नहीं ? क्या करूँ ?..वेतन आये दस दिन बीत गए, एक पैसा रहा नहीं जेब में। वेतन अब आयेगा जब आयेगा, तब-तक घर-ख़र्च कैसे चलेगा ? चलो, श्योपत सिंह ठहरा जागीरदार। उसे पैसों की तंगी नहीं...बस अब मैं उससे कुछ रुपये उधार ले लेता हूँ, तो बचे-खुचे कम्युनिष्ट दिन निकल जायेंगे।”
इतना सोचकर, अलाउद्दीन चल पड़ा..श्योपत सिंह को बुलाने। चलो, एक से दो काम सधे। साहब का काम भी हो जाएगा, और बन्दे का काम भी हो जाएगा। फिर साहब और बन्दा, दोनों ख़ुश।
लम्बे वक़्त तक प्रतीक्षा करने के बाद भी बड़े साहब आये नहीं, और बठे-बैठे अध्यापक हताश हो गए। वे सोचने लगे, अब बड़े साहब आने वाले नहीं। लंच का वक़्त भी हो गया, संस्थापन के कमरे से सभी बाबू और अध्यापक बाहर निकल आये और उनके साथ-साथ श्योपत सिंह भी चुप-चाप बाहर निकल आया। न तो उस पर आनंद कुमार की निग़ाह गिरी, और न शिव कुमार की। बाहर आकर, सभी चाय की केन्टीन पर रखे स्टूलों पर बैठ गए। जहां पहले से सुदर्शन बाबू, मास्टर शान्ति लाल और राजेंद्र कुमार रांका बैठे, साहित्य और कला पर चर्चा कर रहे थे। बाबू सुदर्शन ठहरे कलाकार, मगर शैक्षणिक योग्यता में विधि-स्नातक होने के कारण प्रारंभिक शिक्षा दफ़्तर में उन्हें विधि व जांच प्रकरणों का प्रभार मिला था। जांच प्रकरणों के प्रभारी होने से जनाब इतने होश्यार बन गए, कि ‘वे आसानी से दो सभ्य आदमियों के बीच में, तनाव पैदा करके झगड़े को जन्म दे दिया करते..फिर, झगड़ा होते ही उन दोनों आदमियों का जांच प्रकरण दफ़्तर में चलता, और फिर क्या ? वे इन दोनों किरदारों को, दफ़्तर के बाबूओं का वक़्त पास करने का साधन बना देते।’ ऐसे मामले पैदा करने की, उनको महारत हासिल हो गयी। फिर ऐसे बाबू को शिव कुमार जैसे सज्जन अगर कलाकार कहें, तो क्या ग़लत है ? उनका साहित्य व अभिनय के प्रति रुन्झान, अध्यापक शांति लाल रावल जैसे कलाकार का नज़दीक आना कोई मामूली बात नहीं। जनाब शांति लाल स्कूल में अक्सर अनुपस्थित रहते थे, उन पर स्वेच्छिक अनुपस्थित रहने का प्रकरण बनना स्वाभाविक था। इस वक़्त इनको शांति लाल और सेकेंडरी स्कूल के वरिष्ठ लिपिक दिगंबर एक साथ दिखाई दे गए, और अब वे अपने इस कलाकारी के गुण को इस्तेमाल न करें..तो ऐसा हो नहीं सकता। अरे साहब ये जनाब तो इतने पारंगत हो गए, बेचारे भूले-भटके मास्टर को किस तरह जांच के ज़ाल में लाना..उनका बाएं हाथ का कमाल हो गया। फिर वे इन दोनों कलाकारों को सांडों की तरह आपस में, क्यों न लड़ाएँगे ?
उन दिनों सेकेंडरी स्कूल झीतड़ा के वरिष्ठ लिपिक दिगंबर व्यास का, इस दफ़्तर में अक्सर आना-जाना था। कारण यह था, इन दिनों स्कूलों में गणतंत्र दिवस, विदाई समारोह आदि उत्सव स्कूलों में मनाये जा रहे थे। इस कारण, दिगंबर बाबू अपनी प्रतिनियुक्ति दफ़्तर या स्कूलों में करवा देते थे। इनको ढोलक बजाने और नृत्य करने का, अच्छा-ख़ासा अनुभव था। डेपुटेशन पर लग जाने के बाद, स्कूलों में ये बाबूजी छात्र-छात्राओं को संगीत और नृत्य की शिक्षा देते थे। इस तरह ये बाबूजी यात्रा-भत्ता भी कमा लिया करते, और साथ में ज़िला कलेक्टर द्वारा सम्मान भी प्राप्त कर लेते थे। शिक्षा विभाग भी कोई निरा बेवकूफ़ नहीं, जो बिना फ़ायदा देखे इनको पाली में डेपुटेशन पर लगा दे ? इनको स्कूलों में डेपुटेशन पर रखने से, निजी संगीत अध्यापक को दी जाने वाली मज़दूरी भी बच जाती थी।
इस वक़्त भाग्य वश संगीत के अध्यापक शान्ति लाल रावल के दीदार चाय की केन्टीन पर हो गए, सुदर्शन को। मकबूले आम यह बात है कि, एक कलाकार दूसरे कलाकार को एक ही मंच पर देख ले तो वह ईर्ष्या का सबब बन जाता है। फिर क्या ? सुदर्शन बाबू ने जब दिगंबर बाबू को दफ़्तर में दाख़िल होते देखा, तब ही उनके दिमाग़ में अगली योजना पैदा हो गयी। वे उनकी ओर उंगली से इशारा करते हुए, मास्टर शांति लाल रावल के दिल में शोले भड़काने के उद्देश्य से कहने लगे “गुरु देख लो, आपके संगीतकार उस्ताद दिगंबर दफ़्तर में तशरीफ़ ला रहे हैं। वाह यार, क्या कहूं ? इनकी बहुत डिमांड है, आज़कल। छोरो-छोरियों की स्कूलों को तो छोड़िये, आज़कल तो इनकी डिमांड कई कार्यालयों में भी है। देख लीजिये, ज़िला कलेक्टर कार्यालय में ख़ुद कलेक्टर साहब इनको प्रीफर करते हैं। उनका मानना है कि, अगर ये आ गए तो प्रोग्राम शत प्रतिशत सफल।” इतने में बगल में विराजमान राजेंद्र कुमार बोल पड़े “शांति लालजी, आप ज़रूर देखिये इस छोरे का प्रोग्राम। क्या ढोलकी बजाता है, छोरियों की स्कूल में ? इसके डांस का तो, कहना ही क्या ? इसको नाचते देखकर, छोरियां दांतों तले उंगली दबा देती है। हाय रामा पीर, यह तो लोक नृत्य तो ऐसा करता है..मानों स्वर्ग से ख़ुद कामदेव धरती पर उतर आये हों ? मैं सच्च कहता हूँ कि, यह अगर यह छोरी होता तो नचा देता बड़े-बड़े...” जैसे-जैसे राजेंद्र कुमार दिगंबर की तारीफ़ करते जा रहे थे, वैसे वैसे शांति लालजी के दिल में ईर्ष्या की आग बढ़ती जा रही थी, और बस अब ज़रूरत थी उस आग में हाथ सेकने की।
ऐसी स्थिति में, बाबू सुदर्शन चुप बैठने वाले कहाँ ? शान्ति लालजी के चेहरे पर आते-जाते भावों को पढ़, उन्होंने आगे एक जुमला और बोल दिया “कमला नेहरू नगर में उस्ताद दिगंबर ने धूम मचा दी यार, लोगों की ज़बान पर उनका खोला गया ‘संगीत नृत्य कला मंदिर’ चढ़ गया। वहां उस्ताद कोलोनी के छोरो-छोरियों को, संगीत और नृत्य की तालीम दे रहे हैं।’ फिर, उन्होंने शांति लालजी को आगे और कह डाला “गुरु, आप तो इस छोरे से काफ़ी पीछे रह गए। आप जैसे पंडित भारत नाट्यम और कत्थक के महान ज्ञानी होकर भी, संगीत सेवा में इतने पीछे...?”
इतनी देर तक चुप बैठे, शान्ति लालजी ईर्ष्या से जल-भुन गए। अब उनसे, बिना बोले रहा नहीं गया। और जनाब, दिल की भड़ास निकालते हुए कह बैठे “बाबू साहब छोड़िये यार, आज़कल का यह लौंडा क्या बराबरी करेगा हमसे ? इसने चार बोल क्या सिख लिए हमसे..अब चला अपनी चवन्नी चलाने ? सुनो यार, दूसरी बात यह है इसने पकड़ रखा है उस दारूखोरे मोडिये कलाकार को..और उसने चार लटके-झटके इसको सिखा दिए लोक नृत्य के, अब बेचारा चला रहा है अपना काम। कमाने दो यार, उसे। फिर क्या ? चार दिन की चांदनी, फिर अंधेरी रात। ये साले, दारू के लिए मरते हैं। पीने-पिलाने के लिए, इन लोगों ने किराए पर मकान ले रखा है..कमला नेहरू नगर में। वहां इनको कोई देखने वाला नहीं, यह कला-मंदिर तो इन बदमाशों का नाटक है।” इतना कहकर, शांति लालजी ने उस केन्टीन वाले को हुक्म दे डाला “ला सबको चाय पिला भाई, और इस श्योपत के लिए स्पेसल रेड एंड वाइट..!”
तभी अलाउद्दीन आया श्योपत सिंह के पास, और कहने लगा “जागीरदारों। आपको साहब ने बुलाया है।”
“दो समझदार आदमी बात कर रहें होते तो बीच में बोला नहीं जाता, खां साहब।” श्योपत सिंह बोला “आप यहाँ स्टूल पर तशरीफ़ आवरी होवें, और चाय नोश फ़रमाए।” अलाउद्दीन स्टूल पर बैठ गया, और सोचने लगा “अच्छा हुआ, सुबह से चाय नसीब हुई नहीं..अब आराम से बैठकर चाय की चुस्कियां लेंगे, और वक़्त देखकर जागीरदारों से रुपये उधार लेने का चक्कर चला लेंगे।”
“श्योपत भाई, वैसे तो मैं अपनी तारीफ़ करता नहीं...मगर, आप महानुभव जानना चाहते हैं इसलिए....अब आप मेरी बात सुनिए, मेरे पास कलेक्टर, एस.पी., और बड़े-बड़े सेठ-साहूकारों की की लड़कियां शास्त्री गायन और नृत्य सिखने आती है...इस बात को ये नौशिखिये क्या जाने..संगीत क्या चीज़ है ? भाई, अगर आपको भरोसा न हो तो, आप हमसे रात के दस बजे वागेश्वरी राग सुनिए फिर..”
शान्ति लालजी का, फिर कहना ही क्या ? संगीत का ऐसा मुद्दा उनको मिल गया, जिस पर अच्छा-ख़ासा व्याख्यान दिया जा सकता था। फिर क्या ? उस्ताद ने चहकते-चहकते, अपने भाषण को लंबा कर डाला। भाषण को लंबा होते देखकर, राजेंद्र कुमार बोर होकर उठने की कोशिश करने लगे। मगर, शान्ति लालजी ने झट उनका हाथ पकड़कर उन्हें वापस बैठा दिया। फिर, उनसे कहने लगे “बैठो हुज़ूर, दफ़्तर का काम चलता ही रहेगा, हम कौनसे रोज़ यहाँ आते हैं ?” इतना कहकर, उन्होंने केन्टीन वाले से कहा “इतनी देर लगाते हो, भय्या ? क्या, चाय बागन से आ रही है...?”
साहब तैयार है, लीजिये...चाय की चुस्कियां लेते हुए, लुत्फ़ उठाइये।” इतना कहकर, केन्टीन वाले ने सबको चाय से भरे प्याले थमा दिए। तभी, सुदर्शन बाबू बोल उठे “कुछ लिखा हो तो, गुरु अर्ज़ कीजिये। हम तो बेताब हैं, आपकी नज़्म सुनने।” सुनकर, शान्ति लालजी ख़ुश हो गए और चहकते हुए कहने लगे “कल ही नज़्म लिखी है, इसे परसों होने वाले मुशायरे में पेश करूंगा। चलिए, पहले आप लोगों को सुना देता हूँ। अर्ज़ किया है, भाई..”
“विराजमान महानुभवों से निवेदन है, जनाब का हौंसला बढ़ाने [अफ़जाई] के लिए इरशाद..इरशाद अल्फ़ाज़ मुंह से निकालते रहिये..आली जनाब नज़्म पेश कर रहे हैं।” सुदर्शन ने बैठे सभी महानुभवों से, निवेदन करते हुए बोल पड़े।
“इरशाद, इरशाद।” सभी बैठे महानुभव, एक ही सुर में बोल उठे। मगर राजेन्द्र कुमार ने अजीब सा मुंह बनाया, और दिल में सोचने लगे “है भगवान। एक प्याला चाय ने हमें कहाँ फंसा डाला ?” फिर क्या ? जल्दी-जल्दी, चाय का घूँट मुंह में डालने लगे।
‘इरशाद, इरशाद’ अल्फाजों को सुनते ही शांति लालजी के बदन में ऐसी शक्ति का संचार हुआ कि, जनाब वाही वाही लुटने के लिए तेज़ सुर में नज़्म पढ़ने लगे “देखिये साहेबान, आज़ की राजनीति पर ताज़ा कलाम पेश है। ऑफ़िस को यहाँ पे करना धार, बेईमान हुवे..ऑफ़िस को तो भय्या राम ही रखवारो है। भेड़न को मूंडे जाय...गीलन गलीचे बने गधा बड़े मौज़ करे और सीनाज़ोरी करे। मोटी-मोटी जनता पे ज़ुल्म गुज़ारो है, ऑफ़िस के कपूतन ने तन छार-छार किया है, कारी क़रतूतन करे जो काढ़ी डारो है। ऐसे ऑफ़िस को तो राम ही रखवारो है..!”
बेचारे राजेंद्र कुमार को, इस काव्य में अब दफ़्तर के कार्मिकों की गयी आलोचना कैसे बर्दाश्त होगी ? वे बेचारे इन व्यंग बाणों से इतने घायल हो गए कि, अब वे सोचने लगे अगर इस तरह कार्मिकों की आलोचना होती रही, तो देर नहीं लगेगी...अफ़सरों के साथ-साथ, उनकी बनी-बनायी इज्ज़त पर भी ख़तरे के बादल भी मंडरा सकते हैं। और कहीं इस काव्य द्वारा, इनके क़ारनामें उज़ागर न हो जाय...? वे झट उठे, और मास्टर साहब का थामा गया हाथ छुड़ाकर चलते बने।
बेचारा अलाउद्दीन श्योपत सिंह से रुपये उधार लेने की गर्ज़ से इन निक्कमों के बीच में बैठा, मज़बूरी से मास्टर साहब की नज़्म सुन क्या रहा था..? उसे तो यह अहसास हो रहा था कि, ‘गरमा-गरम उबला तेल उसके कानों में उंडेला जा रहा है।’ इधर सुदर्शन बाबू का काव्य प्रेम देखकर, और उनकी वाह वाह कहने की अदा पर मास्टर साहब का जोश बढ़ता जा रहा था...वे और जोश से आकर, एक ख़त्म होने के बाद में दूसरी नज़्म सुनाते जा रहे थे। एक ख़त्म हुई तो दूसरी, और दूसरी ख़त्म हुई तो तीसरी शुरू हो जाती थी। मगर, श्योपत सिंह के लिए यहाँ बैठने की कोई मज़बूरी नहीं, वह तो यह खेल देखना चाहता था कि अगर यह अलाउद्दीन वापस नहीं लौटा तो पोर्च में कौन और कैसे बन्दर की तरह खीज़ेगा..गाड़ी न पाकर ? बस अब तो श्योपत सिंह नीम चढ़े करेले का एक और रूप देखने के लिए, अपने-आपको तैयार करने लगा।
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पाठकों,
कैसा लगा आपको, यह अंक ९ “नीम चढ़ा करेला” ? करेला वैसे भी कड़वा होता है, और ऊपर से वह नीम पर चढ़ा हुआ..? बेमिसाल कड़वाहट भरी होगी, उसमें। मगर, दूसरी नज़र से देखा जाय तो आपको इसकी कड़वाहट की तरफ़ ध्यान न देकर उसके गुणों को देखना चाहिए..यह करेला ही राम-बाण दवा है, डाईबिटिज के मरीज़ों के लिए। इसी तरह, इस ख़ालक में कई आनंद कुमार जैसे इंसान मुंह-फट इंसान होते हैं, जो सामने वाले को मुख पर सत्य बात कह देते हैं..चाहे अगल इन्सान उनकी बात सुनकर, नाराज़ भले हो जाय ? फिर, सत्य क्या है ? वह उस इंसान के भले में ही, ऐसी सत्य बात कहकर बुरा बन जाता है। मकबूले आम यह सच्च है, अपने आदमी ही आपको आपके अवगुणों का आईना दिखला सकते हैं..जो आपके मुख पर झूठी तारीफ़ करते हैं और आपको अँधेरे में रखते हैं..वे आपके अपने नहीं हो सकते, वे पराये ही होंगे। जिनके लिए मुवाहरा बना है, मुंह पर राम और बगल में छुरी। आपको अगर यह अंक अच्छा लगे तो आप मुझे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com और dineshchandrapurohit2018@gmail.com पर ज़रूर लिखें। अब मैं आपके समक्ष, अगला अंक १० “तारे गिनों भाई..” प्रस्तुत कर रहा हूँ। मुझे आशा है, यह अंक १० “तारे गिनों भाई..” आपको बहुत पसंद आयेगा।
शुक्रिया। ११ दिसम्बर. २०१८
दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक] अँधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर .
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