संस्मरणात्मक शैली पर आधारित “डोलर हिंडा” का अंक २ “सहायक किसका..?” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित दूसरे दिन पंडित घीसू लाल ने, आकस्मिक अवकाश की अ...
संस्मरणात्मक शैली पर आधारित “डोलर हिंडा” का अंक २ “सहायक किसका..?”
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
दूसरे दिन पंडित घीसू लाल ने, आकस्मिक अवकाश की अर्जी दफ़्तर में भेज दी। दिन भर इन ग्रामीण अध्यापकों की हर्ज़-मुर्ज़ निपटाने के लिए दफ़्तर के दफ़्तरे निग़ारों से बहस करना, युनियनों और ज़िला शिक्षा अधिकारी के मध्य होने वाली मीटिंगों में भाग लेकर दफ़्तर की साख़ बचाए रखना, फिर रोज़ आने-जाने वाली डाकों पर अपनी टिप्पणी लिखना, और इसके बाद वक़्त बचे तो मिडल स्कूलों के हेड मास्टरों और अवर उपज़िला शिक्षा अधिकारियों, उप ज़िलाधिकारी और वरिष्ठ उप ज़िलाधिकारी वगैरा का संस्थापन कार्य निपटाना। फिर कहीं शायद वक़्त मिल जाय तो, जेब से बीड़ी का बण्डल निकालकर...बीड़ी सुलगाकर दो फूंक मार लेना..व भी कड़का-कड़क चाय के साथ। इस तरह व्यस्त रहने वाले पंडित घीसू लाल, कैसे घर पर ख़ाली बैठे रह सकते हैं ? ख़ाली बैठे-बैठे वक़्त गुज़ारना, पंडितजी के स्वाभाव में नहीं। आख़िर, जनाब ने सोहन लाल दवे के रिहाइश ख़ाने की तरफ़ जाने का मानस बना डाला। उन्होंने सोचा कि, “चलो आगे का किस्सा भी सुन लेंगे, और टाइम भी पास हो जाएगा। इससे बेहतर समय का उपयोग, और क्या हो सकता है..?”
फिर क्या ? अपनी कोलोनी बजरंग नगर से बाहर निकलकर जनाब पहुंचे ही थे, आदर्श नगर वाले चोराए के पास। और उन्होंने वहां इधर-उधर नज़र दौड़ाई, मगर उनको कहीं भी रिक्शा नज़र नहीं आया...तब उनको याद आया कि, “विरोधी दल ने, आज़ भारत बंद का आव्हान किया है।” वे इसी उधेड़बुन में खड़े थे, तभी उनके पास आकर एक स्कूटर रुका। सवार के हेलमेट हटाने पर, उन्हें मालुम हुआ कि, ‘आगंतुक वरिष्ठ लिपिक कैलाश भटनागर हैं।’ जो माध्यमिक शिक्षा के ‘कार्यालय ज़िला शिक्षा अधिकारी पाली’ के, संस्थापन शाखा के दफ़्तरे निग़ार हैं।
“कहो, ओ.ए. साहब। ख़ैरियत है ?” कैलाश भटनागर बोले।
“कहाँ ख़ैरियत है, मियाँ ? दफ़्तर की ये रोज़ सीढ़ियां चढ़ना और उतरना, ही मेरे नसीब में लिखी है। भाई इस कारण इन हाथ-पांवों में होने लगा है दर्द, जो नाक़ाबिले बर्दाश्त ठहरा। इस चलते दर्द के मारे, आज़ मुझको दफ़्तर से अवकाश लेना पड़ा। छुट्टी तो ले ली, भाई। फिर घर पर वक़्त काटना हो गया, मुश्किल। सोचा ‘चलो ओ.एस. सोहन लाल दवे के घर चलकर, कल अधूरी छोड़ी गयी ‘प्राम्म्भिक शिक्षा के दफ़्तर की शेष गाथा’ भी सुन लेंगे और वक़्त भी आराम से कट जाएगा।” पंडित घीसू लाल बोले। मगर यहाँ तो ‘उलटे बांस बरेली’ वाली कहावत चरितार्थ होने लगी, जनाब कैलाश भटनागर सोहन लाल का नाम सुनते ही भड़क गए। और कह बैठे कि, “अरे ओ.ए. साहब, आप किसके फेर में पड़ गए ? ये सज्जन ठहरे, एक नंबर के खर्रास। अपनी बांची गयी गाथा में ख़ाली अपनी शान में कसीदे पढ़ते रहे होंगे, और असल बात बतायी न होगी। अगर आप वास्तविक गाथा सुनना चाहते हैं तो आप मुझसे सुनिए ना..” जेब से रुमाल निकालकर, अपनी ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को साफ़ किया...फिर, वे तसल्ली से कहने लगे कि, “एक रोज़ ये आपके सोहन लाल हमारे दफ़्तर ज़िला परिषद में तशरीफ़ लाये, मुझे वहां बैठे एस्टाब्लिशमेंट का काम करते देखकर आये मेरे पास। फिर अपनी ज़बान पर मिश्री घोलकर, शीरी ज़बान से मुझसे कहने लगे कि, “कैलाशजी, आप तो हमारे घर के ही निकले। आपके बड़े भाई जमुना प्रसाद तो, मेरे ख़ास दोस्त हैं। इस दफ़्तर में आपकी बहुत चलती है, आख़िर आप हैं संस्थापन के इंचार्ज। फिर क्या ? आप इस बड़े भाई का काम नहीं करेंगे, तो कौन करेगा ? सुना है आपके यहाँ वर्त्तमान ओ.ए. जनाब पन्ने सिंह रिटायर होने वाले हैं। और इधर हमारा नाम भी ओ.ए. की परमोशन फ़ेहरिस्त में है। क्यों न आप मेरी मदद करके, इस दफ़्तर में मेरे आने का मार्ग प्रशस्त कर दें ?” फिर, क्या करता जनाब ? उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों के ज़ाल में फंसकर, मैंने कोशिश करके इनकी पोस्टिंग मेरे दफ़्तर करवा डाली। मगर....”
“मगर, क्या ? आगे कहिये ना..” कैलाश भटनागर की कही बात सुनकर, घीसू लाल को इस गुफ़्तगू में दिलचस्पी होने लगी। अत: उनके रुकते ही, जनाब बोल पड़े।
“बातों की गाड़ी ऐसे आगे नहीं चलती, जनाब। पहले जेब से पेसी निकालिए, और हथेली पर सुर्ती तैयार करके लगाइए थप्पी। फिर इस ज़बान को, बोलने की उर्जा मिलेगी...” कैलाश भटनागर मुस्कराते हुए, बोले।
कैलाश भटनागर की बात सुनकर, घीसू लाल झट जेब से पेसी बाहर निकाल बैठे। फिर पेसी से ज़र्दा और चूना बाहर निकालकर अपनी हथेली पर रखा, और उस मिश्रण को अंगूठे से अच्छी तरह से मसला। सुर्ती तैयार होते ही, दूसरे हाथ से घीसूलाल लगाने लगे थप्पी। फिर क्या ? ज़र्दा व चूना मिश्रित महक़ ने खोल दिए, दोनों के नासाछिद्र। फिर घीसू लाल ने “जय मंडल नाथ की।” बोलकर अपनी हथेली उनके सामने लाये। उनके सुर्ती उठाने के बाद, ख़ुद बची हुई सुर्ती अपने होंठ के नीचे दबा डाली। होंठ के नीचे सुर्ती पहुंचते ही, उन दोनों के बदन में आ गयी ताज़गी।
“मैं कह रहा था, ओ.ए. साहब। आज़ का ज़माना, किसी की भलाई करने का नहीं है। उनको ज़िला परिषद में लाकर, उनकी भलाई की...मगर उन्होंने यहाँ आकर सबसे पहले काम किया, मेरे रास्ते में कांटे बिछाने का। जनाब ने भरसक कोशिश की कि, कैसे भी मेरे पाँव ज़िला परिषद से उखड़ जाय।” इतना कहकर, कैलाश भटनागर ने सड़क पर ज़र्दे की पीक थूक दी और फिर जेब से रुमाल बाहर निकालकर उन्होंने अपने ऐनक के ग्लास साफ़ कर डाले।
“क्या, वास्तव में आपके पाँव उखड़ गए...?” आश्चर्य से, घीसू लाल ने सवाल किया।
“वाह, जनाब वाह। अब आप भी हमारे पाँव खींच रहे हैं...?” घबराकर, कैलाश भटनागर बोले।
“पाँव क्यों..? हम तो आपका पूरा बदन ही खींच लेंगे, साहबज़ादे। बस आप आगे बयान करें, रुकिए मत।” इतना कहकर, घीसू लाल ने सड़क पर पीक थूक दी।
“ना, ना...! अब आगे का किस्सा तभी आगे बढ़ेगा, जब इस हाथ में चाय का प्याला होगा। बस चाय की चुस्कियों के साथ, आगे का किस्सा बयान करेंगे ओ.ए. साहब। चलिए....और चलकर बैठते हैं, सूरज पोल की किसी चाय की दुकान पर..वहां तसल्ली से बैठकर चाय पियेंगे, और गुफ़्तगू का दौर भी चलता रहेगा।” कैलाश भटनागर बोले।
“ना, ना...! ऐसा ख़तरा, मुझे मोल नहीं लेना। अरे साहबज़ादे आप जानते नहीं कि, मैं आज़ छुट्टी पर हूँ। और यह बकवादी ज्ञान चंद उर्फ़ गरज़न सिंह फिटोल की तरह वहां घुमता हुआ आ जाएगा..सूरज पोल। अगर उसने मुझे एक बार देख लिया तो, वह किसी काम के बहाने मुझे वापस दफ़्तर ले जाएगा। भय्या, इधर है मेरे पांवों में दर्द....नाक़ाबिले बर्दाश्त। और वह मुझे मज़बूर कर देगा, जीना चढ़ने के लिए...! क्या करें ? यह कमबख़्त दफ़्तर भी, सूरज पोल के नज़दीक है।” घीसू लाल आनाकानी करने लगे।
“छोड़िये, अब सूरज पोल नहीं। रेलवे स्टेशन चलेंगे, अब आप बैठ जाइए स्कूटर पर। वहां स्टेशन के बाहर आयी हुई किसी दुकान पर चलकर, चाय का लुत्फ़ उठा लेंगे।” कैलाश भटनागर बोले, और उन्होंने स्कूटर स्टार्ट कर दिया। अब घीसू लाल, पिछली सीट पर बैठ गए। स्कूटर अब, हवा से बातें करने लगा। थोड़ी देर बाद, वह स्कूटर स्टेशन एरिया पर स्थित स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की शाखा के पास आकर रुका, जहां नज़दीक है कंचन रेस्टोरेंट। झट दोनों कांच का दरवाज़ा खोलकर, रेस्टोरेंट में दाख़िल हो गए। वहां शानदार मधुर कर्ण-प्रिय पॉप संगीत धीमी आवाज़ में चल रहा था। लाल-हरी मंद रौशनी बिखरी हुई थी, और कूलर की ठंडी-ठंडी शीतल लहरें मन-मयूर को ख़ुश कर रही थी। फिर क्या ? इस महंगे रेस्टोरेंट में वे दोनों, टेबल नंबर पांच के पास रखी कुर्सियों पर बैठ गए। एकांत था, शांत मंद आवाज़ में म्युज़िक...ऐसा दिल को प्रसन्न करने वाला वातावरण, जहां तसल्ली से बैठकर गुफ़्तगू की जा सके। बस, ऐसे वातावरण में घीसू लाल ने सस्ता देसी ज़र्दा पेसी से बाहर निकालने कि कोशिश की। मगर, उनको ऐसा करते देखकर, जनाब कैलाश भटनागर परिहास करते हुए बोल उठे “क्या कर रहे हो, ओ.ए. साहब ? इस महंगे रेस्टोरेंट में कहाँ जाकर, थूकोगे पीक ? रहने दीजिये, पेसी को। पहले चाय पी लेते हैं, फिर तसल्ली से...” इतना कहा ही था कैलाश भटनागर ने, और वहां आर्डर लेने आ गया बेरा। झट-पट उन्होंने, बेरे को दो कप चाय लाने का हुक्म दे डाला। बेरा झट गया, और दो कप चाय लेकर आ आ गया। चाय के कप टेबल पर रखकर, वह सलाम करके चला गया।
उसके जाने के बाद, कैलाश भटनागर ने चाय का कप उठाया..फिर चाय की चुस्कियां लेते हुए उन्होंने शेष बची ज़िला परिषद की गाथा अपने शब्दों में कहनी शुरू की।
“ओ.ए. साहब, मैं आपको उस दिन से किस्सा बयान करूंगा..जब मैं ज़िला परिषद में पहली बार आया था। तो सुनिए – ज़िला परिषद में उस वक़्त, कोई अपनी पोस्टिंग वहां करवाना नहीं चाहता था। कारण यह रहा कि, ‘ज़िला परिषद में, उन दिनों इन अनपढ़ पंच-सरपंचों का वर्चस्व में था। कोई भी कर्मचारी या अधिकारी इन अनपढ़ पंच-सरपंचों के अधीन रहकर, काम करना नहीं चाहते थे।’ और दूसरी बात यह भी थी कि, “एक बार कोई अपनी पोस्टिंग यहाँ करवा लेता तो, यहाँ से वापस किसी दूसरी जगह अपना पदस्थापन नहीं करवा सकता।” किसी हालत में, वह अपना तबादला करवाने में सफल नहीं होता। तबादले के लिए ज़रूरत रहती थी, अनापत्ति प्रमाण-पत्र की। जिसे ज़िला परिषदों के निदेशालय से हासिल करना, आसान नहीं था। मुझे तबादले से, क्या लेना-देना ? मेरे लिए बात कुछ अलग थी, ओ.ए. साहब। मैं हमेशा अपने काम की इज्ज़त करता हूँ, जहां रहूँगा वहां अपने काम से लोगों को ख़ुश कर दूंगा। मेरे लिए माध्यमिक शिक्षा हो या प्राम्भिक शिक्षा, दोनों मेरे लिए समान है। मेरे लिए ज़िला परिषद में आना इतना सहज...व भी रहना शहरी क्षेत्र में, जहां है मेरा अपना घर का मकान। फिर क्या ? दे दी दरख़्वास्त, यहाँ आने के लिए। फिर जनाब, हो गया हमारा तबादला यहाँ ज़िला परिषद में। तीन दिन बाद ही सी.ओ. साहब यानी मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने, मुझे बुला दिया अपने कमरे में। हमने जाकर देखा वहां, एक टेबल पर नियुक्ति सम्बन्धी प्रपत्रों के बंडलों का ढेर लगा था। और उस टेबल के आस-पास ओ.ए. पन्ने सिंह, ज़िला शिक्षा अधिकारी महेंद्र प्रसाद माथुर और संस्थापन शाखा का दफ़्तरे निग़ार खियां राम कुर्सियों पर बैठे थे। वे लोग यहाँ, इन प्रपत्रों के दस-दस के बण्डल बांधने का काम कर रहे थे। मैं दरवाज़े के पास खड़ा चुप न रह सका, और बोल पड़ा “माय, आई कामे इन सर..?
इज़ाज़त लेकर, मैं उनके कमरे में दाख़िल हुआ।
“ओ मिस्टर, बैठ जाओ इन लोगों के पास..फिर अपना इंट्रोडक्शन देना।” सी.ओ. साहब रौबीली एवं कड़कदार आवाज़ में बोले।
“जनाब, मेरा नाम कैलाश भटनागर है और चार रोज़ पहले मैंने इस दफ़्तर में ख़ाली रहे वरिष्ठ लिपिक के पद पर ज्वाइन किया है।” मैंने तपाक से, ज़वाब दे डाला।
“क्या कहा, यंग मेन ? तुम यू.डी.सी. हो..? अरे हमने तो यह सोचा कि, तुम उम्र में अधेड़ हो..मगर तुम तो यंग मेन निकले। इतना जल्दी, परमोशन..? हमारे ज़िला परिषद में तो आदमी अधेड़ हो जाता है, तब कहीं उसे होप होती है..शायद अब उसका परमोशन हो जायेगा। मगर तुम....” आश्चर्य चकित होकर, सी.ओ. साहब बोले।
“हुज़ूर, हमारे एजुकेशन महकमें में नयी-नयी स्कूलें खुलती रहती है, और साथ में पुरानी स्कूलें क्रमोन्नत होती जा रही है। इस तरह पोस्टें स्वत: बढ़ जाती है, और साथ में पदोन्नति के चांसेज भी बढ़ जाते हैं। आप समझ लीजिये, एक नया लगा एल.डी. सी. क़रीब पांच साल बितते ही यु.डी.सी. की पदोन्नति पा लेता है।” मैंने ज़वाब दिया।
“अच्छा मिस्टर, अब यह टेबल पर पड़ा काम निपटा लो..कोई तक़लीफ़ हो तो मुझे कहना।” इतना कहकर, सी.ओ. साहब अपने काम में जुट गए।
फिर मैंने इन लोगों को देखा, जो सी.ओ. साहब के सामने भीगी बिल्ली बने, बिना सोचे-समझे प्रपत्रों के बंडल बांधते जा रहे हैं। अरे यार ओ.ए. साहब, आपसे क्या कहूं..? इस तरह तो हमारे माध्यमिक शिक्षा दफ़्तर का ‘आवक-जावक’ शाखा का दफ़्तरे निग़ार भी, काम नहीं करता। वह भी पहले यह सोचता है कि, जिस प्रपत्र को इन्द्राज करने के लिए हाथ में लें..उसकी सभी प्रविष्टियां एक साथ हो जाय। बार-बार उस प्रपत्र को, हाथ में लेना न पड़े। बार-बार प्रपत्रों के बण्डल न खोलने से, समय की भी बचत हो जाती है। मगर यहाँ तो अक्ल के दुश्मन..एक अधिकारी से लेकर दफ़्तरे निग़ार तक जुटा था, प्रपत्रों के बण्डल बांधने में। फिर ये महानुभव बाहर जाकर अपने किये गए काम की तारीफ़, ख़ुद करके मियाँ मिट्ठू बन गए हैं। जब असल बात लोगों के सामने आयेगी, तब लोग ही कहेंगे कि, ‘ये सभी महानुभव ख़ाली बण्डल मारते हैं।’ अब सुनिए आगे, जैसे ही मैं इनकी बेवकूफ़ी पर सोच रहा था, तभी सी.ओ. साहब की कड़कदार आवाज़ ने मुझे चेता दिया।
“ओय मिस्टर, हाथ रोके कैसे लंगूर की तरह खड़े हो ? नहीं करना है, काम ?” सी.ओ. साहब दहाड़ उठे।
“साहब, बीस-बीस के बण्डल बनाकर फिर खोलेंगे और लिस्टे बनायेंगे...तो फिर ऐसा क्यों नहीं कर लिया जाय कि, पहले अनुसूचित और अनुसूचित जन जाति वगैरा आरक्षित वर्गों के सम्बंधित प्रपत्र छांटकर अलग कर लिए जाय..साथ में इनकी मेरिट भी बन जायेगी। इस तरह साहब, श्रम और समय की बचत भी हो जायेगी।” निवेदन करता हुआ, मैं बोला।
सुनकर सी.ओ.साहब कुछ देर मौन रहे, फिर अपने लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए मुझसे कहने लगे “सही कहा तूने, बड़ा समझदार लगता है साहबज़ादे। भूल गया तेरा नाम, मिस्टर वापस बोल तेरा नाम क्या है ?”
“हुज़ूर, इस बन्दे को कैलाश भटनागर कहते हैं।” मैंने ज़वाब दिया।
फिर उन्होंने महेंद्र प्रसाद माथुर की तरफ़ देखते हुए कहा “ सुन रे, माथुर। तूझे ध्यान है, यह छोरा अभी क्या बोला ?”
“हुकुम।” ज़िला शिक्षा अधिकारी महेंद्र प्रसाद माथुर, सहमते हुए बोले।
“सूना, इस बच्चे ने अभी क्या कहा ? कितना होशियार है, पट्ठा। इतनी सी बात, तेरे भेजे में न आयी..ख़ाक, बांधते जा रहे हो इतने दिन ये बण्डल...? अच्छा होता, इतने दिन रद्दी तोल लेते बैठकर ?” सी.ओ. साहब ने, उनको फटकार पिला डाली। फिर, वे आगे कहने लगे “एक बात सुन ले, माथुर। अब तू यह बण्डल बांधने का काम छोड़ दे, और यह छोरा कैलाश जैसा कहे..उसी तरह इस काम को कर, अपनी टीम को लेकर।” सी.ओ. साहब उनको निर्देश देते गए, मगर पन्ने सिंह का ध्यान अपनी और न पाकर वे कड़ककर उनसे पूछ बैठे “सुनता है, पन्ने सिंह..? मैं तूझे ही कह रहा हूँ कि तेरी बिल्लोरी आँखों को मत मटका, काम की तरफ़ ध्यान दे। कमबख़्त बन गया ओ.ए, और इतनी छोटी सी बात तेरे भेजे में नहीं आयी रे तेरे..? तुझसे तो बेहतर, यह छोरा कैलाश अक्लमंद निकला।” सी.ओ. साहब की फटकार पाकर सभी चुप हो गए, चारों तरफ़ नीरवता छा गयी। उस सन्नाटे को तोड़ते हुए, मैंने कहा “हुज़ूर, फ़ेहरिस्त काफ़ी लम्बी बनेगी। हाथ से लिखने से वक़्त ज्यादा बरबाद होगा, हुज़ूर का हुक्म हो तो टंकण की सुविधा हो जाती...वैसे ये जनाब खियां राम माने हुए टाइपिस्ट हैं।” मैंने बेहिचक होकर, अपनी मांग प्रस्तुत कर दी।
“ठीक है, ठीक है। मैं समझ गया।” सी.ओ. साहब ने अपनी सहमति दे डाली, और फिर खियां राम से कहने लगे “देख खियां राम। कल से तू इस छोरे कैलाश के अंडर में काम करेगा, जो कहे वह टाइप कर देना। काम ग़लत करना मत, समझ गया ? ग़लती की, तो क्या होगा नतीज़ा ? तू जानता ही है।”
सी.ओ. साहब का हुक्म सुनकर, पन्ने सिंह और खियां राम जल-भुन गए और मुझे खा जाने वाली नज़रों से देखने लगे। तभी सी.ओ. साहब को ज़िला कलेक्टर के कमरे में होने वाली मिटिंग याद आ गयी, वे झट उठे और चल दिए ज़िला कलेक्टर के कमरे की तरफ़। मैं युरिनल जाने के बहाने उठा, और जाकर खड़ा हो गया इस कमरे के बाहर..खिड़की से सटकर। तब मुझे मालुम हुआ कि, खियां राम को क्यों अब दिन में तारे दिखाई देने लगे हैं ? वह मुझसे नाराज़गी ज़ाहिर करता हुआ, पन्ने सिंह से गुफ़्तगू करने बैठ गया। इनकी गुफ़्तगू, मुझे बाहर साफ़-साफ़ सुनायी देने लगी। खियां राम ओ.ए. साहब से कह रहा था..!
“ओ.ए. साहब, अब मैं इस दफ़्तर में रहना नहीं चाहता।” खियां राम ने कहा।
“बस, हार गया रे..इतना जल्दी..? जानता है ? बुजुर्ग क्या कहते आये हैं..? सुन, जुंओं कारण जुंआरा रखा नहीं जाता...समझा ? हम सरकारी नौकर हैं, हम जानते हैं ‘इन अफ़सरों को कैसे चलाना..?’ यह हमारी कला है। जानता है, तू ? राजा-महाराजों के वक़्त, उनकी छवि उनके कामदार बनाया करते थे। अब राजा-महाराजा के स्थान पर आ गए, ये अफ़सर। अब इनकी छवि, हम-लोग बनाते हैं।” अब पन्ने सिंह को प्रवचन देने का मूड बन गया, और उधर बेचारे महेंद्र प्रसाद प्रपत्रों के बण्डल बांधते-बांधते थक गए। उनकी पलकें भारी होने लगी, और वे झट कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊँघने लगे। उनके ऊँघने से, पन्ने सिंह को क्या लेना-देना...? वे तो जनाब, किस्सा बयान करते गए “ ले रे, सुन खियां राम। देवगढ़ रियासत के राजा का निशाना चूक जाया करता, इसके अलावा वे ठहरे डरपोक नंबर एक। अक्सर इनके पास आ जाया करते, अंग्रेजों के बड़े ओहदेदार। और हुक्म दे दिया करते कि, ‘झट शिकार खेलने का इंतज़ाम करें।’ तब, बेचारे राजा करते क्या ? इस तरह शिकार खेलने की पूरी व्यवस्था इनके कन्धों पर आ जाती, मगर इस व्यवस्था को संभालने के लिए इनका ख़ुद का धुरंधर शिकारी होना बहुत ज़रूरी था। मगर इनके लिए धुरंधर शिकारी होना तो दूर, वे तो बेचारे बन्दूक को आसानी से थाम नहीं पाते। इस कारण शिकार खेलने कि पूरी जिम्मेदारी, इनके कामदार मुस्तैदी से निभाया करते। और साथ में, वे अपने राजा कि छवि को बकरार बनाये रखते। एक बार हमेशा की तरह अंग्रेज ओहदेदार आ गए, शिकार खेलने। बेचारे कामदारों ने, पूरी व्यवस्था संभाल ली। फिर शिकार का काफ़िला वन्य जंतुओं का शिकार करने चला। अंग्रेज ‘साहब बहादुर’ थे हिम्मत वाले, और उनका निशाना रहता अचूक। मगर, राजा के बारे में सभी कामदार उनकी असलियत जानते थे। अत: राजा की इज्ज़त को बचाने के लिए, उन्होंने पहले आगे जाकर जंगल में एक मरा हुआ बघेरा रख दिया। ये कामदार अच्छी तरह से जानते थे कि, अगर राजा बन्दूक से फायर करेंगे तो वन्य जंतु का मरना तो दूर...बस, उनकी बुलेट सीधी पेड़ों की पत्तियां ज़रूर हिला दिया करेगी । यहाँ तो वे जानवर की गरज़ती आवाज़ सुनकर, डर के मारे थर-थर कांपने लगते...तो वे इनकी बहादुरी पर, कैसे भरोसा रख पाते ? मगर, उनको तो अपने राजा की इज्ज़त बचानी थी। वे जानते थे, जब-तक हल्ला मचाने वाले तय शुदा आदमी चिल्लाकर यह नहीं नहीं कहेंगे कि, “महाराजा की जय हो। अन्नदाता ने, शेर को मार गिराया।” तब-तक उनके राजा, हाथी के हौदे से नीचे नहीं उतरेंगे। बस, फिर क्या ? थोड़ी देर बाद, सारी तैयारी पूरी हो गयी, और हाथी पर बैठे राजा और अंग्रेज उस स्थान पर पहुंचे, जहां बघेरे का मृत शरीर रखा था। अंग्रेज और कामदारों ने गोलियां चलाई, तभी हल्ला बोलने वाले कामदार हल्ला मचाने लगे कि, “राजा साहब, जिंदाबाद। राजा साहब ने, शेर को मार गिराया।” फिर क्या ? राजा साहब झट हाथी के हौदे से नीचे उतरे, और एक पाँव उस मृत जानवर के ऊपर रखा..और, मूंछों पर ताव देते हुए उन्होंने अपना फोटो खिंचवा दिया। अंग्रेज अफ़सर को कहाँ मालुम कि, इस वन्य जंतु का शिकार किसने किया ? वह भी उनकी तारीफ़ करने लगा, और एक अपनी फोटो राजा साहब के साथ खिंचवा डाली। इस तरह, अंग्रेज अफ़सर ख़ुश...शिकार पर आकर, और राजा भी ख़ुश अपनी बहादुरी का बखान पाकर। फिर अंग्रेज अफ़सर के चले जाने के बाद, उस मृत बघेरे को शहर के चौक में रखा गया। ताकि, जनता अपने बहादुर राजा द्वारा किये गए शिकार को देख सके। अब वहां महाराजा की बहादुरी पर, जनता ने ख़ूब तालियाँ पीटी, मगर तभी एक अनुभवी बुढ़ा शिकारी वहां आ गया, और उसने उस बघेरे के बदन को परखना शुरू किया। परखते ही, वह नासमझ शिकारी ज़ोर से बोल उठा “अरे भाइयों, इस वन्य जंतु की मूंछों के बाल गायब है। अरे भाई, इसके बदन पर तो एक भी गोली का निशान नहीं।” बस, फिर क्या ? कामदार उसे फटकारते हुए उसकी ज़बान, यह कहकर बंद करवा डाली कि, “अरे मूर्ख। महाराजा की बहादुरी सुनकर, इस शेर ने अपनी मूंछे पहले से ही मुंडवा डाली। जानता नहीं तू कि, जैसे ही इस शेर ने अपना मुंह खोला और महाराजा ने झट दुनाली इसके मुंह में रखकर चला दी। फिर इस दुनाली की गोली इसके मुंह में घुसी और इसके पिछवाड़े से निकल गयी, अब तू बता कि “कैसे इसके बदन पर, गोली लगने का निशान होगा ?” बस, फिर क्या ? चारों तरफ़ महाराजा के जयकारों से, जनता ने आसमान गूज़ा दिया। उस नासमझ शिकारी की बात, किसी ने नहीं सुनी। अब समझा, खियां राम ? किस तरह हम लोग अपने अफ़सरों की अच्छी छवि, सरकार और जनता के सामने बनाए रखते हैं। और इसके बाद, हम अपने अफ़सरों ख़ुश रखकर अपने फ़ायदे में उल्लू सीधा करते हैं। पहले के ज़माने में राय साहब आदि के ख़िताब हासिल कर लिया करते, और अब हम हर स्वतंत्रता दिवस या गणतंत्र दिवस पर इन अफ़सरों के हाथ कर्मठ कर्मचारी का ख़िताब प्राप्त कर लेते हैं और इसके साथ उत्कृष्ट सी.आर. इन अफ़सरों से भरवा लिया करते हैं।” इतना बड़ा प्रवचन देकर, ओ.ए. पन्ने सिंह चुप हुए। मगर यहाँ तो आज़ खियां राम को, सी.ओ. साहब द्वारा की गयी मेरी तारीफ़ बर्दाश्त नहीं हुई। अब वह व्यंगात्मक भावों को उज़ागर करता हुआ बोल उठा “वाह जनाब, वाह। ख़ूब कहा, आपने ? तभी तो हमारे बुजुर्ग देसी बोली में यही कहते आये हैं कि, “पैसो असांदा नै सांदे, कुतको बड़ो ख़िताब और लाठा लटका करे...” खियां राम बोला। मगर, पन्ने सिंह को उसकी बात कहाँ पसंद आयी...? जनाब झट बोल पड़े “रहने दे, रहने दे। तेरी इस लाठाई के कारण ही हम, छोटे से प्यादे से मात खा गए। कल का छोरा कैलाशिया, सहायक हमारा और बना गया हमें सहायक...!” बस, इतना सुनते ही हंसी के मारे हमारे बुरे हाल हो गए, अब इस हंसी को मैं कैसे रोकता..? यहाँ तो जनाब, हंसी के मारे मेरे पेट के बल खुलने लगे। मैं झट वहां से हटा, और चल पड़ा युरिनल की तरफ़। अब आगे सुनिए, हेड साहब। अगले दिन, सी.ओ. साहब चले गए टूर पर। उनके कमरे में आ जमी, हमारी नियुक्ति समिति। मैं ऊँची आवाज़ में, खियां राम से कहने लगा।
“कहो खियां राम, क्या हाल है ?”
“हुज़ूर, आपकी मेहरबानी से सब ठीक है। कहिये हुज़ूर, हुक्म दीजिये..आज़ क्या काम करना है ?” डरता हुआ खियां राम बोला।
“जनाब के मिज़ाज़, कैसे हैं ?” मैं पूछ बैठा।
“ठीक है, जनाब। हुजूरे आलिया, आपकी मेहरबानी से सब ठीक है।” सकपकाता हुआ, खियां राम बोला।
“अब बोल भाई खियां राम, अब नियुक्ति की फाइलें किसके पास रहेगी ?” मैंने कहा।
“हुज़ूर, आपके पास।” खियां राम बोला।
“तबादले की...?” मैंने पूछा।
“हुज़ूर, आपके पास।” खियां राम बोला।
“तब बोल, कौन फाइलिंग करेगा..? और, कौन जमाएगा सेवाभिलेख ?” मैंने रौब से कहा।
“फाइलिंग हम करेंगे, हुज़ूर..आप जो कहेंगे, वह काम झट निपटा देंगे हुज़ूर। आख़िर, हम यहाँ किस लिए आपकी ख़िदमत में बैठे हैं ?” खियां राम बोला।
मुझे हंसी आ गयी, चार दिन पहले यह यही खियां राम था..जो मुझे देखकर कहने लगा था “जनाब, किस महकमें से तशरीफ़ लाये हैं आप ? हमें तो जनाब के कपड़ों से, ऐसी गंध आ रही है...मानों आप मुर्गियों के दड़बे से उठकर, यहाँ आये हैं।” फिर ओ.ए. पन्ने सिंह की तरफ़ देखते हुए जनाब कहने लगे थे “ओ.ए. साहब, देखा आपने जनाब को ? ऐसा लगता है, जनाब मुर्गियों के अण्डों की आमलेट मुफ़्त में खाकर यहाँ आ गए हैं...! ओ.ए. साहब, इनको कुछ नहीं आता..इस कारण, हमें इनको ट्रेनिंग देनी होगी। हमें सिखाना होगा कि, फाइलिंग कैसे की जाती है..? सेवाभिलेख कैसे जमाये जाते हैं ? ठीक कहा ना, ओ.ए. साहब ? यह संस्थापन का काम, किसी नौसिखिये का तो है नहीं...तुजुर्बेदार आदमी ही, इस काम को कर सकता है। ये आगंतुक महोदय स्कूल के दफ़्तरे निग़ार रहे होंगे, इनको क्या मालुम..कि, संस्थापन शाखा क्या होती है ?” इतना कहने के बाद, खियां राम ठहाके लगाकर ख़ूब हंसा था और इसकी बात का समर्थन करते हुए पन्ने सिंह भी ठहाके लगाने में कम नहीं थे। मैं तो पहले दिन ही समझ बैठा कि, यहाँ दाल में काला है। बस, समझ गया “इन दोनों महानुभवों के बीच में ज़रूर कोई खिचड़ी पक रही है...और इन दोनों को भय था “कहीं किसी काले कौए की बुरी नज़र, इनकी खिचड़ी पर न पड़ जाए..? अगर कौआ नज़र आ गया तो, कौए को उड़ाकर ही इस खिचड़ी का घी खा सकते हैं।” बस, घीसू लालजी...मुझे इनका सारा माज़रा, समझ में आ गया। अब तो मुझे इन दोनों मुर्गों को आपस में लड़ाकर ही, अपना काम निकालना होगा। न तो ये तो शातिर सुरसा के भतीजे, हमें पूरा निगलकर डकार भी नहीं लेंगे। अब तो बेटा कैलाश भटबगर...चित्रगुप्त के वंशज। तूझे जादू का पिटारा, खोलना ही होगा। अब, दिखाने पड़ेंगे जादू के खेल। बस घीसू लालजी, हमने पहला खेल दिखला दिया।
इतना कहकर, कैलाश भटनागर ने चाय का अंतिम घूँट मुंह में लिया..और, फिर ख़ाली कप को टेबल पर रख दिया। और घीसू लाल से कहते गए “घीसू लालजी, ज़ंग आख़िर ज़ंग होती है..चाहे तलवार की हो या, फिर कलम की। तलवार और कलम पोले हाथों से थामी नहीं जाती, घीसू लालजी। यहाँ तो पल-पल में जनाब, संस्थापन का चार्ज आने-जाने का ख़तरा सर पर मंडराता रहां है। वहां फिर, सियासती चालें चलने में देर क्यों ? क्या कहूं, घीसू लालजी ? हमारे भाग्य अच्छे थे, और ज़िला परिषद के गलियारे में जनाबे आली वासु देवजी आर्य के दीदार हो गए। झट हमने उनको चरण-स्पर्श किया और कह बैठे “उस्ताद, आदाब अर्ज़ हो। “
“जीते रहो, बेटे। जीते रहो। साहबज़ादे, कहीं आप जानकी प्रसादजी के नेक दख़्तर तो नहीं हैं ?
“हुज़ूर ने वज़ा फ़रमाया।” मैं ज़राफ़त से ज़वाब दिया।
“कहाँ खो गए, साहबज़ादे ? इतने साल आपके दीदार नहीं हुए, हमने तब आपको देखा जब आप तुतलाते हुए बोलते थे ‘भाईजान, हम आपके छात तलेंगे।’ कहीं बरखुदार आप भूल तो न गए कि, आपके बड़े भाई यमुना प्रसाद हमारे मित्र हैं..जब आपका काबिना धान मंडी के पास किराए के मकान में रहता था, तब हम अपने बचपन में उनके साथ चोर-पुलिस का खेल खेला करते। और मियाँ, तुम हमारे पीछे-पीछे नंगे दौड़ते थे। अरे मियां, वह यमुना प्रसाद तो हमारा लंगोटिया यार है।” इतना कहकर, आर्य साहब ने हमें गले लगाया। फिर, क्या कहूं घीसू लालजी ? हमारा यह पारवारिक सम्बन्ध रंग लाया, और आर्य साहब ने हमें आगे बढ़ने की दिशा दे डाली। आगे क्या बताऊं, घीसू लालजी ? आर्य साहब तो बड़े काम की चीज़ निकले। जब भी वे सी.ओ. साहब और ज़िला प्रमुख मिलते, तब वे उनके सामने मेरे काम की तारीफ़ कर आते। उन्होंने यहाँ तक कह दिया, उनको..कि, ‘छोरा वर्कर है, और संस्थापन शाखा का अच्छा-ख़ासा तुजुर्बा रखता है।’ अब तो, महेंद्र प्रसादजी क्या ? सी.ओ. साहब और ज़िला प्रमुख सुगन चन्दजी जैन को, हमारे बिना चैन नहीं। हर छोटे-बड़े काम में, वे हमारी सलाह लेने लगे।
इतना कहकर, आगे का किस्से पर जाम लगा दिया। फिर खिड़की के बाहर देखने लगे। देखा, संध्या हो चुकी थी। ओ.ए. साहब को शबा खैर कहने से पहले, उन्होंने चित्रगुप्त के वंशज होने का प्रमाण दे डाला..जनाब फूंक मारते हुए, कह दिया कि ज़रा सोहन लालजी से पूछना कि, “प्रोढ़ शिक्षा महकमें के दफ़्तर-ए-निग़ार रौशन लाल ने, जयपुर वाली फर्म को दरी पट्टियों के बिल का भुगतान किया या नहीं ?” और फिर रुख़्सत होते उन्होंने, आदाब कहा और बाहर चल दिए। कुछ ही पलों में, उनके स्कूटर स्टार्ट होने की आवाज़ आयी, और इस आवाज़ को सुनकर भाई घीसू लाल चमक उठे..’अब चाय के पैसे का भुगतान, कौन करेगा..?’ चित्र गुप्त के वंशज ठहरे बड़े होश्यार, आदर्श नगर के चौराहे से उठाकर ले आये मुझे स्टेशन एरिया...अब जनाब घीसू लाल को वापस वहां छोड़ना तो दूर, वे तो यहाँ बैठकर मुफ़्त की चाय अलग से पीकर चले गए..और, बिल बकाया छोड़ गए ? अब घीसू लाल ने सोचा कि, ‘अब यहाँ से चलें, पैदल..या फिर रिक्शा का किराया ख़र्च करके वापस जाएँ अपने घर..? यह हर्ज़-मुर्ज़ कैलाश मियाँ ने उनके सर पर डाल दी, अब इसका निवारण उनको ही करना होगा।’ अब उनको समझ में अच्छी तरह से आ गया कि, ‘वास्तव में चित्रगुप्त का वंशज कैलाश भटनागर, पक्का दफ़्तर-ए-निग़ार ठहरा।’
अब करते क्या, घीसू लाल ? चाय के पैसों का भुगतान करके, बेचारे थके-मांदे घीसू लाल बाहर आये और चौराहे पर आकर पकड़ा रिक्शा..फिर, चल दिए अपनी कोलोनी बजरंग नगर। घर के दरवाज़े पर उनका सहबज़ादा..मौजूद। वह बोल उठा “पापाजी, आप कहाँ चल दिये ? यहां आपके कमरे में बैठे सोहन लालजी को आये हुए, एक घंटा बीत गया है। जल्दी चलिए अन्दर, वे कब से आपका इन्तिज़ार कर रहे हैं।”
अपने कमरे में दाख़िल होकर, घीसू लाल कह उठे “जय श्याम बाबा की। सोरी दवे साहब, आपको इन्तिज़ार करना पड़ा।” इतना कहकर, उनके बगल में रखी कुर्सी पर घीसू लाल बैठ गए। फिर, अपने बेटे बबलू को आवाज़ देकर कहने लगे “बेटा बबलू। दवे साहब के लिए चाय बनाकर लाना।” इतना कहकर जनाब ने अपने जेब से हाथ डालकर, बीड़ी का बण्डल निकाला। फिर एक एक बीड़ी बण्डल से निकालकर, उसे माचिस से सुलगाई। फिर, बण्डल व माचिस दवे साहब के सामने रख दी। रखकर, वे उनसे कहने लगे “जनाब, आप भी एक बीड़ी बाहर निकालकर सुलगा दीजिये और धूम्रपान का मज़ा लीजिये। तब-तक चाय आ जायेगी।” मगर दवे साहब मुंह बिगाड़कर, कहने लगे “अजी पंडित साहब। यह क्या बीड़ी जैसी घटिया चीज़ पेश कर रहे हैं आप ? हम जैसे मेहमानों की ख़ातिर ही करनी है तो, देसी घी का हलुआ-पूरी पेश करते..?”
“दवे साहब, काहे नाराज़ हो रहे हैं आप ? लीजिये, पेसी। अब बाहर निकालिए, बेहतरीन चीज़..देसी ज़र्दा और चूना। फिर उन्हें मसलकर तैयार कीजिये ए वन सुर्ती...आप भी चखिए, और मुझे भी चखाइये। फिर कीजिये, जन्नत की सैर।” घीसू लाल बोले। उनका इस तरह बोलना, क्या हुआ ? जनाब सोहन लाल उनका मुंह ताकने लगे।
“अजी क्या देख रहे हैं, मुझे ? हलुआ-पूरी का कहाँ इनकार करता हूँ, मैं ? मगर पहले आप, हलुआ-पूरी खिलाने जैसी कोई बात तो बताइये..कोई मज़ेदार वाकया बता दीजिये, जनाब।” घीसू लाल बोल पड़े।
“चलिए घीसू लालजी, अब मैं ज़िला परिषद में घटित हुई आगे की घटनाएं आपके समक्ष रखता हूँ। पहले आप यह बताइये, कि ‘मैंने पिछला किस्सा, कहाँ पर लाकर छोड़ा..?’ ठीक, याद आया। आर्य साहब और म्युज़िक चेयर के बारे में कुछ बताया था, मैंने। लीजिये सुनिए, आगे।” इतना कहकर दवे साहब ने अपनी हथेली पर चूना और ज़र्दा रखा, और फिर उसे अंगूठे से मसलते रहे। सुर्ती तैयार हो जाने के बाद, उन्होंने दूसरे हाथ से उस पर थप्पी लगाई थप्प..थप्प। थप्प..थप्प से बाहर निकली ज़र्दे कि महक़ ने खिड़कियाँ खोल डाली, घीसू लाल के दिमाग़ की। और उनको याद आ गया कि, वह मक्खियों का माऊ कैलाश भटनागर कल कुछ कह रहा था..? सौ फीसदी, दफ़्तर-ए-निग़ार रौशन लाल के बारे में। बस, फिर क्या ? जनाब घीसू लाल, लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए सोहन लाल से कह बैठे कि, ‘भाईजान, बहुत सुन चुका आपके श्रीमुख से आपकी गाथा। अब पहले आप प्रोढ़ शिक्षा महकमें के दरी पट्टी काण्ड के बारे में बताएं कि ‘आख़िर, खाज़िन रौशन लाल ने जयपुर वाली दरी पट्टियों की फर्म को बकाया बिल का भुगतान किया या नहीं ? या फिर, आपकी अंटी ढीली हुई इस मामले में...?”
पाठकों।
आपने डोलर हिंडा का यह अंक २ पढ़ लिया, मुझे आशा है कि “यह अंक २ सहायक किसका” बहुत पसंद आया होगा ? दफ़्तर-ए-निग़ार खियां राम, ओ.ए. पन्ने सिंह और वरिष्ठ लिपिक कैलाश भटनागर की सियासती चालों को पढ़कर आप ज़िला परिषद दफ़्तर का सियासती माहौल को समझ गए होंगे कि, “ज़ंग आख़िर ज़ंग होती है..चाहे तलवार की हो या, फिर कलम की। तलवार और कलम पोले हाथों से थामी नहीं जाती, जहाँ तो पल-पल में जनाब, संस्थापन का चार्ज आने-जाने का ख़तरा सर पर मंडराता रहा है। वहां फिर, सियासती चालें चलने में देर क्यों ?” मुझे आशा है, आप इस अंक को पढ़कर आप मुझे अपने विचारों से ज़रूर अवगत करेंगे।
- दिनेश चन्द्र पुरोहित [लेखक],
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