संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी किताब “डोलर हिंडा” का अंक चार - अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर, और महमूदिया की टोपी अहमदिया के सर। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

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संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी किताब “डोलर हिंडा” का अंक चार अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर, और महमूदिया की टोपी अहमदिया के सर। लेखक दिनेश च...

संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी किताब “डोलर हिंडा” का अंक चार

अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर, और महमूदिया की टोपी अहमदिया के सर।

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लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित


सुनता नहीं रे...पेमला, इधर आ।”

“हुज़ूर, मेरा नाम वेना राम है...”

वेनिया हो या पेनिया, मुझे क्या करना तेरे नाम से? मैं तो तुझको, पेमला ही कहूंगा। आज़ से तेरा नाम हो गया, पेमा राम। समझ गया..”

“जैसी हुज़ूर की मर्जी, आप कुछ ही कहिये मुझे तो आपका हुक्म बजाना है। कहिये, मेरे लिए क्या हुक्म है?”

“ठीक है, ठीक है। अब तू जाकर, दस वाइट पेपर मांग ला स्टोर से।”

“हुज़ूर. पहले आप ऑफिस नोट खींचिए..क्या चाहिए आपको? आप तो मालिक जानते ही है, इस स्टोर से बिना ऑफिस नोट खींचे एक आल पिन भी नसीब नहीं हो सकती।”

चपरासी पेमा राम से रोज़ सर ख़पाना तो दफ़्तर-ए-निग़ार सदानंद के लिए, दैनिक दिनचर्या का हिस्सा बन गया। अपनी जिद्दी आदतों के कारण, उसने बेचारे वेनाराम का नाम बिगाड़कर नाम पेमा राम कर डाला। पहले एक ने उसको पेमा राम कहना शुरू इया, तो दूसरे ने..फिर तीसरे ने, इस तरह बेचारे वेना राम को सभी दफ़्तर वाले पेमा राम नाम से पुकारने लगे। वेना राम को, नाम से क्या करना? उस बेचारे नए लगे चपरासी को, केवल तनख़्वाह से मतलब..!

जब से यह दफ़्तर ज़िला परिषद कार्यालय से मुक्त होकर इस हवाई बिल्डिंग में आया है, तब से इस दफ़्तर के बज़ट पर न जाने किसकी काली छाया गिर गयी कि, सरकार ने इस दफ़्तर के स्टेशनरी बज़ट की तरफ ध्यान देना बंद कर डाला? लिमिटेड मात्रा में स्टोर में स्टेशनरी आने लगी, जो दो-तीन दिन में इस दफ़्तर में ख़त्म हो जाया करती। इस हर्ज़-मुर्ज़ से परेशान होकर, सदानंद ने अपनी जेब के पैसे ख़र्च करके कई दफ़े बाज़ार से स्टेशनरी मंगवा डाली...मगर स्टेशनरी की ख़पत ज़्यादा, बेचारा सदानंद कब तक जेब के पैसे ख़र्च करके स्टेशनरी बाज़ार से मंगवाता? आख़िर, यह सरकार सुबह दस बजे से से शाम के पांच बजे तक कलम घिसाई करने वाले एक बाबू को तनख़्वाह कितनी देती..? बेचारे के लिए सुविधा जुटाना तो दूर, वह तो बड़ी मुश्किल से पूरे महीने घर-ख़र्च चला पाता..?

रोज़ यह सरकार काम निपटाने के लिए अक्सर हुक्म ज़ारी कर देती और साथ में “काम निपटाओ” नाम के कार्यक्रम अलग से चला देती...मगर, कभी इस दफ़्तर को को यह न पूछती कि, ‘दफ़्तर में स्टेशनरी का बज़ट कितना शेष है, और अतिरिक्त बज़ट कितना देना है?’ अब सदानंद के लिए यह समस्या पैदा हो गयी कि, किस तरह बिना स्टेशनरी काम को निपटाए? पेमा राम को स्टेशनरी लाने स्टोर में भेजना उसकी मज़बूरी, व पेमा राम का वापस ख़ाली हाथ लौट आना उसका नसीब..! आख़िर एक दिन उसने कमर कस ही ली कि, “लूंगा तो सरकारी स्टेशनरी, न तो आज़ से काम बंद।” फिर क्या? बेचारे सदानंद ने ऑफिस नोट चला दिया, जैसे ही फ़ाइल वरिष्ठ उप ज़िला शिक्षा अधिकारी जनाबे आली पुष्कर नारायण शर्मा के पास के पहुँची, जनाब फ़ाइल लौटाते हुए अफ़सरशाही का रौब ज़ाहिर करते हुए बोल उठे “स्टोर कीपर का नोट, कहाँ है?” इतना कहकर, उन्होंने मांग पत्रावली लौटा दी।

अब बेचारा पेमा राम, क्या करता? बेचारा लौट चला, फ़ाइल लेकर..अब स्टोर कीपर महेश शर्मा के पास। वैसे भी इसका यहाँ तो आना-जाना बना रहता है, कारण यह है कि, जनाब महेश शर्मा के पास रोकड़ और स्टोर का चार्ज ठहरा। और यह पेमा राम ठहरा, लेखा शाखा का चपरासी।

“लीजिये, वापस आ गया हूँ...अपनी टांगें तुड़ाने। कभी साहब के पास जाओ तो कभी बाबू के पास, तो कभी लेखाकारजी के पास..! मगर हुज़ूर, स्टेशनरी के दीदार नहीं होते हैं..ऐसी नौकरी गयी, तेल लेने..!” दुखी होकर, पेमा राम महेश से बोला।

“ए..ए..क्या बोल रहा है? तूझे काम करना है तो कर, न तो ऐश कर।” महेश बोला और मुंह में चबा रहे गुटके की पीक दीवार पर थूक दी। फिर वह आगे कहता गया “देख पेमा, स्टेशनरी मिले या न मिले..गाड़ी तो गुड़कती रहेगी तेरी और मेरी। समझा, तनख़्वाह में कोई अंतर आने वाला नहीं।” इतना कहकर, उसने पत्रावली में नोट दर्ज़ किया “स्टेशनरी अनुपलब्ध, बाज़ार से क्रय करने की अनुमति दिलावें।” इतना लिखकर, पत्रावली लेखाकार शिव राम प्रजापत के पास की भेज दी। लेखाकार शिव राम साधारण पेट-बुशर्ट पहनते हैं, मगर अपने सर पर चुटिया अवश्य रखते हैं। उनका ख़्याल है कि, आदमी की अक्ल उसकी चुटिया में होती है। इनमें एक बुरी आदत है, किसी भी मेटर के पीछे पड़ जाना और उसे लम्बे वक़्त तक घसीटते रहना। इस कारण दफ़्तर में उनका नाम शिव राम के स्थान पर घसीटा राम मशहूर हो गया। वैसे भी घर में उनका नाम घसीटा ही था, इन्हें मां-बाप इसी नाम से पुकारा करते थे।

इधर पेमा राम का लेखा चेंबर में आगमन, और उधर घसीटा राम का हुक्म का गोला फेंकना “ठहर पेमला, पहले सभी को पानी पिला। फिर नीचे जाकर उस भंवरिये चाय वाले से पांच कप चाय लेकर आ।” अब तो बेचारी फ़ाइल घुमती-घुमती थक गयी, और सुस्ताने लगी। पेमा राम ने उसको घसीटा राम की टेबल पर रखकर, उसे विश्राम दे डाला। फिर पेमा राम लोटा लेकर चल दिया, मटकी के पास।

घसीटा राम ने अपने युसूबत हलक़ को ठन्डे पानी से तर करके, लोटा वापस पेमा राम को थमा दिया। अब आदत के मुताबिक़ घसीटा राम ने अपनी चुटिया सहलाई, और चुटिया सहलाते ही उनको याद आ गए बाबू सुदर्शन। और, उनको आवाज़ दे बैठे “अरे ओ, पी.ए. साहब आपकी फाइलें मिल गयी है, अब तो आकर हमारा मुंह मीठा करा दो।” सुदर्शन ठहरे इस दफ़्तर के यु.डी.सी.। इनको दफ़्तर में प्रभार मिला है, कोर्ट केसेज़ और जांच का। जनाब के विधि स्नातक होने के कारण, इनको यह प्रभार दिया गया। इस दफ़्तर के जिला शिक्षा अधिकारी कपूरा राम गर्ग इनका बहुत सम्मान करते थे, और कई बार इनसे सलाह भी लिया करते थे। कारण यह रहा, कमला नेहरू नगर कोलोनी में आयी महावीर पब्लिक स्कूल के संस्थापक विजय नाहर से इनके अच्छे रसूख़ात थे। और सियासत के गलियारे में इनका अच्छा-ख़ासा प्रभाव था। बस, फिर क्या? नाहर साहब से अपना काम निकालने के लिए, ज़िला शिक्षा अधिकारी कपूरा राम गर्ग को अक्सर उनसे मुलाक़ात करना ज़रूरी था। सुदर्शन बाबू ठहरे उनके अधीनस्थ, अत: उनका हुक्म सुदर्शन को मानना आवश्यक था। बस, फिर क्या? कपूरा राम सुदर्शन के साथ, उनके स्कूटर पर बैठकर नाहर साहब से मिलने चल देते। जब भी इनके सामने कोई समस्या आती तो, आली जनाब यदा-कदा मुफ़्त की सलाह सुदर्शन बाबू से ले लिया करते। यही कारण रहा, घसीटा राम सुदर्शन हो जाया करते थे ख़फ़ा। सुदर्शन बाबू को कपूरा राम का सलाहकार मानकर, घसीटा राम ने उनको ‘पी.ए. ऑफ़ कपूरा राम’ की पदवी दे डाली। मगर, यहाँ तो कपूरा राम के निजी काम से सुदर्शन बाबू को कोई लेना-देना नहीं। घीसू लाल, गरजन सिंह और कपूरा राम आपस में मिलकर, तबादलों के मामले में क्या करते हैं? इससे, सुदर्शन बाबू को कोई लेना-देना नहीं। मगर, घसीटा राम हमेशा उन पर संदेह किया करते। जब भी जांच के मामले में सुदर्शन बाबू को, कपूरा राम से गोपनीय वार्ता में शराकत करना पड़ता...और कमरे से बाहर आते ही घसीटा राम सुदर्शन को व्यंगात्मक भाषा में उनकी खिल्ली उड़ाते हुए कह दिया करते कि, “कहो मियाँ, “ख़ूब अन्दर घुस चुके हो, और कितना घुसोगे..?” अजी, चमचागिरी छोड़िये, और हमसे हाथ मिलाइए।”

कार्यालय में “लेखाकार” का पद महत्वपूर्ण होता है, मगर कपूरा राम ने घसीटा राम की कुछ ऐसी गतिविधियां देखी..जिसके कारण वे उनको महत्त्व नहीं दिया करते थे। घसीटा राम को संदेह था कि, कहीं सुदर्शन ने ही कपूरा राम के सामने उनकी छवि बिगाड़ी है...? मगर असल बात कुछ ओर थी, उनकी आदतें बाबू गरज़न सिंह और घीसूलाल के काम में दख़ल करने की रही। और ये दोनों न तो घसीटा राम को अपने पास फ़टकने देते...और न, तबादले और अन्य काम में उनकी राय लिया करते। उन दोनों कि यही कोशिश रही कि, “किसी हालत में, घसीटा राम ज़िला शिक्षा अधिकारी के नज़दीक न आयें।”

महत्त्व न मिलने पर, घसीटा राम ने अपनी पूरी ताकत सुदर्शन की छवि बिगाड़ने में झोंक डाली। उअनाकी कोशिश यही थी कि, किसी तरह कपूरा राम सुदर्शन को अपना शत्रु मान लें ..? इस योजना को काम में लेते हुए, उन्होंने विधि शाखा की दो फाइलें अपने गुर्गों के जरिये गायब गायब करवा डाली। मगर, इनका यह प्रयास बेकार साबित हुआ। कारण यह रहा कि, इन दोनों फाइलों का काम निपट गया था और ये दोनों फाइलें पंजीबद्ध हो गयी थी। अत: सुदर्शन बाबू को, इनकी कोई आवश्यकता रही नहीं। जब यह समाचार उनके के मुख़्बिरों जरिये उनको मिले, तब घसीटा राम ने उन फाइलों को ढूंढनें का नाटक किया। और, सुदर्शन बाबू को अपने चेम्बर में बुलाया। फिर उनको अपने पास कुर्सी पर बैठाया।

“मेहरबानी रखिये, जनाब। इस तरह आपकी कृपा दृष्टि हम पर बनी रखें, हुज़ूर। आपसे ज्यादा कोई मिठाई होती है, क्या? हुज़ूर, आप हुक्म कीजिये...” अपनी ज़बान पर मिश्री घुले हुए शब्दों का इस्तेमाल करते हुए, सुदर्शन बोले।

सुन रे, पेमला, साहब ने हुक्म दे दिया है मिठाई लाने का। अब तू मेरी तरफ़ से, प्याज की कचोरियाँ लेता आ।” अपनी चुटिया को सहलाते हुए, घसीटा राम बोले।

हुक्म पाकर, पेमा राम बहुत ख़ुश हुआ। उसका मन-मयूर नाच उठा, बरबस वह अपने होंठों में ही कहने लगा “अच्छा हुआ, यह तो मेरे ऊपर ईश्वरीय कृपा है। इन फाइलों के चक्कर में घुमते-घुमते मेरी इन टांगों में दर्द होने लगा, शुक्र है ऊपर वाले का..अब कहीं जाकर, ऊपर वाले ने मेरे लिए नाश्ते का प्रबंध किया है। यदि कुछ और घूम लेता, तो शायद पत्ता नहीं क्या मिलता?

काम अब हो या न हो स्टेशनरी का, अब छोड़ दिया सोचना..पेमा राम ने। अब तो पेट-पूजा ही सर्वोपरी है..इसी सिद्धांत को मानता हुआ पेमा राम ने, झट दोनों से पैसे लिए और हवाई बिल्डिंग की सीढ़ियां उतरने चल दिया। अब तो नाश्ता आने की आशा ने उसके बदन में ऐसी ताकत दे डाली कि, वह जीने के एक स्टेप की जगह दो-दो स्टेप एक साथ उतरने लगा। यहाँ तो इन चपरासियों के लिए इन सीढियों को चढ़ना और उतरना, महज़ खेल है..कभी डाक लेने-ले जाने के लिए, तो कभी चाय-नाश्ता लाने के लिए। और कभी भंवर लाल की चाय की दुकान पर बैठे बाहर से आने वाले ग्रामीण अध्यापकों, और दफ़्तर के बाबूओं के मध्य कड़ी की तरह मलाई का काम कर बैठते हैं। अजी, बड़े-बुजुर्ग कहते आये हैं कि, ’ज़मीन पर पड़ा गोबर, धूल के कण लेकर ही उठता है। और लड्डू को हिलाओ तो, लड्डू के दाने बिखर जाया करते हैं। बस इस दफ़्तर में, इन धूल के कण और लड्डू के दानों से इन चतुर्थ श्रेणी अफ़सरों का काम चल जाया करता था। इस दफ़्तर में कैलाश बाबू सैन भी ऐसे ही होश्यार व चतुर चतुर्थ श्रेणी अफ़सर ठहरे, जो लिफ़ाफा देखकर ही मजनून भांपकर लहरें भी गिन लिया करते थे। इन्हें चपरासी कहकर, अपनी ख़ुद की तोहिन कराना था..क्योंकि, इन्होंने पहले से ही अपने नाम के पीछे ‘बाबू’ जो लगा रखा था। अब जब भी कोई बाबू उनको आवाज़ देगा, तो वह बाबू ऐसे ही बोलेगा ‘ओ कैलाश बाबू। ज़रा, इधर आना।’ तब पास खड़ा अध्यापक यही सोचेगा, कि “उसका काम कराने वाला शत प्रतिशत चालू बाबू ही नहीं, बल्कि दफ़्तर में हर कोई शख़्स उसे बाबू कहकर बुलाता है..चाहे वह दफ्तर-ए-निग़ार हो या ज़िला शिक्षा अधिकारी। फिर क्या? यही समझा जाता था कि, वह इस दफ़्तर का सम्मानित बाबू ही हो सकता है। अरे जनाब, क्या कहें आपको? इस दफ़्तर के, शख़्स क्या...? यहाँ तो ये बाहर वाले अध्यापक भाई भी, उसे सम्मान से “कैलाश बाबू” कहकर पुकारने लगे। कैलाश बाबू नाम से पुकारे जाने पर, जनाब चतुर्थ श्रेणी अफ़सर महोदय अपनी शान में फूलकर कुप्पा हो जाया करते थे। यह ऐसे अनोखे बाबूजी थे, जनाब, कि वे किस तरफ देख रहे हैं..? कोई नहीं जान सकता था। जब ये जनाब घीसू लाल से बात कर रहे होते, तो इनकी नज़र पास खड़े आशामुखी अध्यापक पर टिकी रहती। इस बात पर, दफ़्तर का दूसरा चपरासी रमेश इनको देखकर अपनी बेसुरी आवाज़ में यह गीत गाने लगता “कहीं से निग़ाहें कहीं पे इशारा...”

clip_image002एक दिन का वाकया आपसे जिक्र करूंगा, वह यह था कि उस दिन मिडल स्कूल सलोदारिया के अध्यापक मोटू राम इस दफ़्तर की आवक-जावक शाखा के बाबू नारायण सिंह से पूछ बैठे “यहाँ कैलाश बाबू साहब है, ना? उनसे, हमारा कुछ काम है?” टूटे ग्लास के ऐनक को भौओं पर चढ़ाकर, वे अध्यापकजी को घूरते हुए कहने लगे “गुरूजी, आपके बाबू साहब तो स्कूलों में डाक देने गए हैं।”

मोटू राम ठहरे धूर्त आदमी, जो राई का पहाड़ बना दिया करते थे..वे अपना काम निकालने के लिए, गधे को भी बाप बनाने में नहीं चूकते थे। उनका ख़याल यह रहा कि, ‘अगर उनका काम कोई चपरासी कर दे, तो फिर लेखाकार के पास जाने की कहाँ ज़रूरत?’ ये जनाब, मक्खनबाजी में इतने परिपक्व कि, ‘मक्खनबाजी में उनका हेडमास्टर चम्पा लाल शर्मा भी उनसे चार क़दम पीछे रह जाया करता।’ बस, इसी मक्खनबाजी के ज़ाल में एक बार हमारे कैलाश बाबू ऐसे फंसे कि, वे अपने आपको ऐसा क़ामयाब शख़्स समझने लगे कि “ये इस दफ़्तर में वह शख़्स है जो राज्य बीमा का बिल ख़ुद तैयार करके, अधिकारी के उस पर हस्ताक्षर करवाकर कोषागार से बिल पारित कराने की पूरी क़ाबिलियत रखता है। ऐसा काबिल आदमी, इस दफ़्तर में और कोई नहीं।”

अब सीढ़ियां उतरते वक़्त पेमा राम की नज़र, नीचे से ऊपर आ रहे कैलाश बाबू सैन पर जा गिरी। तपाक से पेमा राम कैलाश बाबू को रोकते हुए, उससे कहा “ओय कैलाश, अब तू मिठाई और नमकीन लाने सूरज पोल तू चला जा, और तब-तक मैं भंवर की दुकान से चाय लेता आऊंगा।”

“नो, नो मिस्टर। यह मिठाई-नमकीन लाना मेरा काम नहीं, इतना भी तू नहीं जानता रे मूर्ख..? कार्यालय की डाक लाने-ले जाने का, किसका काम है? कोषागार से, बिल कौन पारित कराएगा..? चल हट, सामने से..देर हो रही है।” मुंह-तोड़ ज़वाब देकर, कैलाश बाबू ने अपने क़दम लेखा चेंबर की तरफ़ बढ़ा दिए।

कैलाश बाबू सैन ऐसे छिपे रुस्तम निकले कि, किसी को मालुम नहीं हुआ ‘जनाब कब लेखा चेंबर में दाख़िल हुए, कब उन्होंने राज्य बीमा लोन का बिल बनाया और कब पुष्कर नारायण शर्मा से हस्ताक्षर करवाये? फिर उसे कब कोषागार रजिस्टर में डालकर, कब कोषागार चले गए..? और कब बिल पारित करवाकर, वापस भी आ गये लेखा चेंबर में...? जब वे इस चेंबर में आये, तब यह तो तब मालुम हुआ, जब घसीटा राम की मंडली मिठाई और नमकीन पर हाथ साफ़ कर रही थी। कुछ देर बाद, लेखाकार घसीटा राम मिठाई और नमकीन पर हाथ साफ़ करके अपनी मूंछों पर ताव देने लगे। तभी, उन्होंने अपने सामने अध्यापक मोटू राम को खड़ा पाया।

“लेखाकार साहब, आपको साहब बुला रहे हैं। ज़रा चलकर, आप उनसे मिल आयें।” मोटू राम उनके समीप आकर, बोला।

“आ जाऊँगा, आ जाऊँगा। तुम आगे चलो।” घसीटा राम बोले।

“जनाब लेखाकार साहब, अध्यापकजी आगे क्यों जायेंगे? ये तो आपको अपने साथ ले जायेंगे, साहब के पास। आख़िर, काम इनका ही है।” चपरासी रमेश बोल उठा, जो मोटू राम के साथ ही यहाँ आया था।

“फिर कह दे, साहब को कि “हम अभी काम में व्यस्त हैं, काम समाप्त होने पर स्वयं आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जायेंगे।” घसीटा राम, ज़रा तुनककर बोले। उनको कतई पसंद नहीं कि, कोई उनको साहब की आड़ में हुक्म देता हुआ कुछ कहे? और यह बात रमेश कहे..तो यह बात, उनके लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त ठहरी। क्योंकि, वे इस रमेश को तो वे कतई इस चेंबर में देखना नहीं चाहते थे। उनके दिमाग़ में एक बात बैठ गयी कि, “यह रमेश यहाँ केवल ताक-झांक करने आता है, और यहाँ की एक-एक ख़बर मुख़्बिर की तरह बाबू गरज़न सिंह के पास पहुंचा देता है।” फिर क्या? घसीटा राम के ऐसे ज़वाब की उम्मीद, मास्टर मोटू राम और रमेश को नहीं थी.. आख़िर, बेचारे दोनों वापस साहब के पास चले गए। इस रमेश की शक्ल देखकर, घसीटा राम का मूड ऑफ़ हो गया था..अब वे आये गुस्से को, किस पर उतारे? तभी उनको महेश शर्मा से, स्पष्टीकरण का ज़वाब लेना याद आ गया। वे झट बाबू जसा राम से बोल उठे “अरे जसा राम, थोड़ी देर पहले इस महेश के खिलाफ़ मैंने स्पष्टीकरण का लेटर तैयार किया था, वह अब कहाँ है? ज़रा ढूंढना, यह बदमाश मुझे ही चकमा देता है..? सेटिंग किये हुए बिलों को रोज़ कोषागार ले जाकर, भुगतान उठा लता है?” भौंए चढ़ाते हुए, घसीटा राम बोल उठे।

“चकमा आपको क्या, यह नालायक तो पुष्कर नारायणजी को भी नहीं छोड़ता...जबसे इन पी.ए. साहब का चेला बना है..तब से।” प्रावधायी निधि कि पास बुकों का सेट बनाता हुआ, जसा राम बोल उठा।

“भाई, ज़माना है चमचागिरी का। बड़े साहब की चमचागिरी में लगा है यह सुदर्शन, और इसकी चमचागिरी में लगा है यह हमारा महेश। साहब को तो स्कूटर पर छोड़ते ही हैं..सुदर्शन बाबू। मगर, रोज़ छुट्टी के वक़्त यह महेश भी तैयार मिलता है इन्हें..इनके साथ स्कूटर पर सवारी करने।” लेखा शाखा का बाबू प्रदीप, बरबस बोल उठा।

प्रदीप की बात सुनकर, घसीटा राम के पास बैठा छात्रवृति प्रभारी आनंद को ऐसा लगा कि, मानों जहां बह बैठा है उस सीट के नीचे बैठे बिच्छू ने उसके पिछवाड़े पर अपना डंक मार दिया हो..? वह झट उठा, और पास पड़े ख़ाकदान में काग़ज़ टटोलने लगा...जिन पर मिष्ठान और नमकीन रखकर, इन लोगों ने लुत्फ़ उठाया था। उसकी ऐसी हरक़त देखकर, प्रदीप बोल उठा “चटोखरा मत बन, भूक्खड़ शर्मा। अब तू इन काग़ज़ों को, चाटने चला..? अरे यार, तूझे ऐसी भूख लगी है तो मेरा टिफ़िन खोलकर परामठे खा ले।” संदीप का व्यंगबाण सुनकर, आनंद शर्मा तिलमिला गया। और अपनी कड़वी ज़बान से, बोल उठा “भूक्खड़ होगा तू, और तेरी वह...जिसका टिफ़िन खोलकर, रोज़ तू उस बेचारी के परामठे ठोक जाता है। अब आया तू, मुझ पर दया दिखाने वाला..? clip_image003

“हट, क्यों ख़ाकदान में मुंह डाल रहा है?” घसीटा राम आनंद शर्मा पर टूट पड़े, वे क्यों चाहेंगे कि ‘उनका ख़ास सहायक कलेज़ा का टुकड़ा रद्दी काग़ज़ों में अपना मुंह डाले?’

“भाई साहब, बस...बस। अब आप नाराज़ मत हो, और देखो इस काग़ज़ को।” इतना कहकर, आनंद शर्मा ने तेल से सने एक रद्दी कागज़ को उनको टेबल पर रख दिया।

“हटा, हटा इसे। चाटने का काम हमारा नहीं, उनका है।” संस्थापन शाखा के बाबू गरज़न सिंह की ओर इशारा कर डाला।

“छोड़ो ना, भाईजान। बेचारों को परिवेदना कैम्प में बहुत मिला होगा, चाटने का....चाटा। अब आप चाटने की बात को छोड़िये और देखिये इस काग़ज़ को। यह वही स्पष्ठीकरण का काग़ज़ है, जिसे आप ढूंढ रहे थे।” उनके हाथ में काग़ज़, थमाकर आनंद बोल उठा।

उस तेल से सने काग़ज़ को देखकर, घसीटा राम ठहाके लगाकर हंस पड़े। और, कहने लगे “अरे वाह सुदर्शन पी.ए. साहब, आज़ तो आपने मैदान मार लिया...? बड़े जंगजू निकले यार, चुपचाप इस स्पष्ठीकरण के काग़ज़ पर प्याज की कचोरी रखकर आपने हमको हो खिला दी..वास्तव में आप हो तो, कलाकार।”

“हुज़ूर, तभी तो सुबह से आपके पास बैठकर मस्का लगा रहे थे आपको।” कैलाश बाबू बोल उठा। बेचारे वार्ता में लिप्त घसीटा राम को पत्ता ही न लगा कि, “कब तो यह कैलाश यहाँ आया इस चेंबर में? और कब इसने घसीटा राम की अलमारी खोलकर, मोटू राम के पारित बिल को चुपचाप पारित बिलों के पेड में उसे रख दिया?”

इस रमेश की ऐसी आदत बन गयी कि, वह हर कोण से लेखा शाखा में ताक-झाँक किया करता..विशेषत: घसीटा राम की हर गतिविधि को देखकर, संस्थापन प्रभारी गरज़न सिंह के पास एक-एक ख़बर पहुंचा दिया करता। इस वक़्त ताक-झाँक करते वक़्त, उसकी निग़ाह में कैलाश बाबू आ गया। जो चुपचाप घसीटा राम की अलमारी में, मोटू राम का पारित बिल रखा रहा था। मगर वह उसको कुछ नहीं कहकर, घसीटा राम के पास आकर कहने लगा “साहब आपको याद कर रहे हैं।”

“लीजिये हुकूम, लीजिये..पहले इस फ़ाइल को पुष्कर नारायणजी के हुजूरिया दरबार में पेश कीजिये।” फ़ाइल थमाते हुए, वे व्यंग से बोल उठे।

घसीटा राम की बोलने की अदा पर, कैलाश बाबू हंस पड़ा।

“नालायक, हँस रहा है..? अपनी डेड आँख से, हमसे आँख लड़ा रहा है..?” रमेश बोला, कैलाश बाबू की हंसी सुनकर, उसे ऐसा लगा मानों किसी ने उस पर जलते अंगारें उंडेल दिए हो..बस, वह उस पर क्रोध से उबल पड़ा। तभी वहां उसकी आवाज़ सुनकर, महेश वहां आ गया। वह सुरेश को शांत करता हुआ, कहने लगा “महाराजा गरज़न सिंहजी के कामदार साहब, इस मृग नयनी की डेड आँखें कहीं आपको घायल न कर बैठे...? इससे बेहतर है, आप इस मांग पत्रावली को ले जाइए..बेचारी कब से लेखाकाराजी के पास पड़ी सुस्ता रही है?” महेश को बहुत गुस्सा आ रहा था, सुबह से यह फ़ाइल इनके पास पड़ी है और टिप्पणी लिखी जाने के बाद भी कोई चपरासी इसे पुष्कर नारायणजी के पास ले जा नहीं रहा है..? इस कारण मज़बूरन, महेश को रमेश पर व्यंग बाण कसने पड़े। फिर क्या? व्यंग बाण से आहत होकर, रमेश ने मांग-पत्र की पत्रावली उठायी और शैलेश बाबू को छेड़ता हुआ उसे बेसुरी धुन सुना बैठा “कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना..” बस, इसी गीत गाता हुआ...वह वहां से चल दिया।

वहां बैठे मास्टर और बाबू लोग, उसका बेसुरा गीत सुनकर ज़ोर से हंस पड़े। अब वे कभी इस डेड आँख वाले कैलाश को देखते, तो कभी वे इस जाते हुए इस बेसुरे मोहम्मद रफ़ी को।

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घसीटा राम ने जम्हाई ली, और सर की चुटिया अच्छी तरह से बांधते हुए बोले “भाई काल वंशी..

“हुज़ूर, कालवंशी नहीं। मुझे बालवंशी कहिये, हुज़ूर आपके इस बन्दे को लोग भंवर लाल बालवंशी कहते हैं।” घसीटा राम के पास बैठा, मास्टर भंवर लाल बालवंशी तड़फ़कर बोल उठा। फिर हाथ जोड़कर, हो गया खड़ा..मगर घसीटा राम को तो तरंग चढ़ी हुई, कल रात को ही इन्होंने फिल्म देखी थी “हाथ की सफ़ाई”। अब वे उसका डायलोग बोलना, कैसे भूलते? जनाब, बोल उठे “बालवंशी हो या कालवंशी, हमें क्या करना यारों..हमें तो पीना चाहिए। पीने वालों को, पीने का बहाना चाहिए...” फिर अंगड़ाई लेते हुए, बोल उठे “चलिए, कुछ नहीं। मैं कह रहा था कि, मेरा गुरु पक्का उस्ताद था...कच्ची गोलियां नहीं खेली, कालवंशी। अरे नहीं रे भाई, तू तो है बालवंशी। पहले बैठ जा और सुन मेरी बात, गुरु ने एक ही गुरु-मन्त्र दिया “उसूलों की लड़ाई फाइलों से हो, दस बोलो और एक लिखो।”

“वह, उस्ताद वाह।” कहता-कहता, भंवर लाल बालवंशी वापस कुर्सी पर बैठ गया।

“हुज़ूर, घुटनों में दर्द उठने लगा है..आपके और साहब के बीच आते-जाते।” हाम्पता हुआ रमेश बोला और वहीँ फर्श पर बैठ गया बेचारा। फिर, आगे बोला “”साहब ने याद किया है, आपको। अब तो, आपका काम पूरा हो गया होगा?” इतना कहकर, सुरेश ने अपने हाथ जोड़ दिए।

“भाई, रात को काम मत कर..घुटनों को सलामत रहने दे। अभी तो तू जवान है..तू एक बार क्या, दस दफ़े आ-जा सकता है। ले, चल आगे..मैं पीछे आ रहा हूँ।” लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए, घसीटा राम ने कहा। सुरेश चला गया। टेबल से फाइलें उठाकर, घसीटा राम भी पीछे चल दिए..सीनियर डिप्टी पुष्कर नारायण के पास। ज़िला सिक्षा अधिकारी के कमरे के बाहर पहलू में इस होल का ऐसा खांचा है, जहां से पूरे होल में बैठे हर अध्यापक और बाबू की गतिविधि पर नज़र रखी जा सकती हैं। बस यही जगह, पुष्कर नारायण के बैठने की सीट है। यहाँ बैठने के बाद उनको ऐसा लगता है कि, ‘उनको भी महाभारत के युद्ध का वृत्तांत सुनाने वाले संजय की तरह, दिव्य चक्षु मिल गए हैं..?’ मगर जब से नियम १०६ द्वारा, उनको बड़े साहब से आहरण एवं वितरण के वित्तीय अधिकार मिले हैं..तब से उनको आते बुढ़ापे में, जवानी का आभास होने लगा। जब से इनको ये शक्तियां इली है, तब से अपने-आपको अच्छा प्रशासक समझ बैठे हैं। एक दिन इसी बात पर, वे बड़े साहब कपूरा राम से उलझ पड़े। और, कह बैठे “बड़े भैय्या, आप क्यों इन मास्टरों और इन बाबूओं के मुंह लगते हैं? इनके मुंह लगना, मैं पसंद नहीं करता।”

“तब आप ही संभाला करें यह प्रशासन, आख़िर मैं दफ़्तर में आता ही कितना हूँ?” उनकी बात सुनकर, बड़े भैया बोले।

“नहीं, नहीं। ऐसी बात नहीं, चलिए मैं आपको मेरे साथ बीती एक घटना सुनाता हूँ। एक बार स्वतंत्रता दिवस स्टेडियम में मनाया जा रहा था, तब एक पब्लिक-मेन स्टेडियम के ग्राउंड में चहलक़दमी कर रहा था। कहने पर भी, वह बाज न आया। मुझे उसका मैदान में तफ़रीह करना, बहुत बुरा लगा। आख़िर मैं उठकर उसके पास गया, और उसका कान पकड़कर उसे मैदान से बाहर ले आया। इस घटना को ज़िला कलेक्टर, एडिशनल कलेक्टर, एस.डी. एम. वगैरा सभी अधिकारी देख रहे थे।” पुष्कर नारायण बोले।

“वाह भाई, वाह। कमाल कर दिया, अब आप अपना यह कमाल इस दफ़्तर में दिखला देना। कई महिनों का काम, पेंडिंग पड़ा है। आप जानते ही हैं, रोज़ ये शिक्षक संघ वाले उलाहना देते रहते हैं।” बड़े भैया हंसते हुए, बोले।

“हीं..हीं..हीं..कोई फ़र्क नहीं पड़ता, सब ठीक हो जाएगा।” पुष्कर नारायण बोले, वे बड़े भाई की बात सुनकर काफ़ी झेंप चुके थे। बात यह है कि, ये अधिकतर शिक्षक और अधिकारी जिनका सम्बन्ध कभी न कभी सनाढ्य गुट से रहता आया है, और यह सनाढ्य गुट राष्ट्रीय स्वयं सेवक से सीधा सम्बन्ध रखता आया है। अत: इन लोगों में एक-दूसरे को भाई साहब कहने की आदत बन गयी है, बस यही कारण है “ये लोग, ज़िला शिक्षा अधिकारी कपूरा राम गर्ग को “बड़े भाई या बड़े भाई साहब” कहने की आदत बना चुके थे। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कहिये या भारतीय जनता पार्टी, बात एक ही है। इस वक़्त प्रदेश में, भारतीय जनता पार्टी सत्ता में थी। अत: काम निकालने के लिए, लोगों को “भाई साहब” कहने की आदत अलग से बन गयी। इस सियासत में, भाई साहब कहने से काम जल्दी बन जाता था।

टी.ए., मेडिकल, वेतन-स्थितिकरण वगैरा के बकाया एरियरों का भुगतान को तो छोड़िये, कई बदनसीब अध्यापकों का स्वेच्छिक स्थानान्तरण कर ऐसे स्थानों पर उनको बैठा दिया जहां उनके पद भी स्वीकृत नहीं। गरज़न सिंह की मेहरबानी और पुष्कर नारायणजी की दूरदृष्टि “अभी लगा दो, बाद में देखा जाएगा..इतना तो हम कर ही सकते हैं।”

यह भी कमाल का ख़्याल था, पुष्कर नारायणजी का – स्कूलें क्रमोन्नत हो रही है, बस आप लोगों का भला करो।”

मगर सवाल खड़ा हो गया, पैसों का। यहाँ तो जिन मास्टरों का तबादला किया गया, उनको तो फटा-फट वेतन चाहिए महीने की एक तारीख़ को। इस कारण पुष्कर नारायण ने घसीटा राम को हुक्म दिया कि, वे झट अन्य स्कूलों से इन स्थानांतरित मास्टरों की सेलेरी उठाने की कार्यवाही करें। मगर घसीटा राम का एक ही ज़वाब कि, “नियम से काम होगा, स्वीकृत पद से ही सेलेरी उठ सकती है। निदेशालय ने प्रतिनियोक्ति पर रोक लगा रखी है, अत: अन्य स्थान से वेतन उठाया जाना संभव नहीं। मेरे उस्ताद पेढ़ीवाल साहब का एक यही कहना है कि, काम करना है तो नियम से करो, नहीं तो नहीं। अगर वे वेतन चाहते हैं तो आप गरज़नजी से कह दीजिये, उनका वहीँ तबादला कर दे जहां स्वीकृत पद है।”

आज़ भी हमेशा की तरह, पुष्कर नारायण के हुज़ूरिये दरबार में पेशी हुई। तब पुष्कर नारायण ने घसीटा राम का ज़वाब सुनकर, उनसे कहा “अगर आप इन अध्यापाकों को वेतन नहीं दिलवा सकते, यह बात हमने आपके मुंह से कई दफ़े सुन ली है। मगर, उनके पारित लोन के बिल का भुगतान करने में आपका क्या जाता है..?”

पुष्कर नारायण ने केसरी सिंह नाहर की तरह गरज़ते हुए, घसीटा राम से कहा। अब उनको यह बर्दाश्त नहीं हुआ कि, “एक गज़टेड अफ़सर के बार-बार बुलाने पर, यह लेखाकार आया क्यों नहीं..? एक अधिकारी के आदेशों की, इसे कोई परवाह नहीं..?”

“साहब, कौनसा बिल? किसका बिल? मेरे पास अभी, कोई लोन का पारित बिल नहीं हैं ..” घसीटा राम घबराकर, बोल उठे। वे बेचारे समझ न सके कि, ‘साहब किस बिल की ओर, इशारा कर रहे हैं? कहीं इस धूर्त महेश की, कोई नयी चाल तो नहीं है?’

“लेखाकार साहब, ज़रा अपने गिरहबान में झाँककर देखा करो, और इसके बाद में दूसरों की ग़लतियाँ ढूंढ़ा करो” पुष्कर नारायण बोले, और पास खड़े रमेश को हुक्म दे डाला ”जा रे रमेश, इनकी अलमारी से मोटू रामजी का एस.आई. का पारित बिल ढूंढकर ले आ।”

कुछ ही पल बाद, रमेश ने बिल लाकर घसीटा राम के सामने ला पटका। और पास खड़े कैलाश बाबू सैन की तरफ़ देखता हुआ, मुस्कराने लगा। बेचारे घसीटा राम हो गए, हक्के-बक्के। उनको यह बात बिल्कुल भी समझ में नहीं आ रही थी कि, ”कब बिल बना, किसने चैक किया और यह बिल पारित भी कब हुआ?” उनके दिमाग़ में इतने सारे सवाल चक्कर काटने लगे, बेचारे घसीटा राम को बिल्कुल भी भरोसा नहीं हो रहा था..क्या हो रहा है, इस दफ़्तर में? इस कारण, उन्होंने एक बार क्या? पांच बार उस बिल की, जांच-पड़ताल कर डाली। फिर, वे बोले “साहब इस बिल पर मेरे हस्ताक्षर नहीं है, और न मेरे किसी बाबू के हस्ताक्षर हैं।”

“छोड़िये घसीटा रामजी, आपके हस्ताक्षर है या नहीं..इससे हमें क्या लेना-देना..? आपकी आदत से मैं परिचित हूँ, आप हर बनते काम में अडंगा लगाया करते हैं। बस, मेरे लिए इस पर अधिकारी के हस्ताक्षर काफ़ी है। अगर इस दफ़्तर को सुचारू रूप से चलाना है तो, किसी तरह से काम होना चाहिए। बस, आप इस बात को ध्यान में रखा करें...समझे? आपकी अलमारी में यह बिल मिला है, इसका अर्थ है कि ‘यह बिल, आपके पजेशन में था। और आप इसे अन्दर पड़े रखकर, इसके भुगतान में विलम्ब करते जा रहे हैं।’ जानते नहीं, यह बेचारा अध्यापक सुबह से पैसों की फ़िराक में घूम रहा है?” पुष्कर नारायण गंभीरता से, बोले।

“साहब, यह बात ग़लत है...मैं..” घबराकर, घसीटा राम बोले।

चुप रहिये। मैं सब समझता हूँ, घसीटा रामजी। आख़िर क्या कारण है, जिसके कारण आपने इस बिल के भुगतान में अनावश्यक देरी की?” गुस्से में पुष्कर नारायण बोले, और फिर कार्यालय सहायक घीसू लाल से बोले...जिनकी सीट, पास ही लगी थी....बिल्कुल, होल के गेट के सामने।

“घीसू लालाजी, इनके खिलाफ़ स्पष्ठीकरण लेटर तैयार कीजिये। और लिखिए कि, भुगतान वक़्त पर क्यों नहीं हुआ..? आगे लिखिए कि, इनकी लापरवाही से एक अध्यापक को आर्थिक कष्ट उठाना पड़ा..जिसके लिए ये स्वयं जिम्मेदार हैं। क्यों नहीं इनके खिलाफ़, प्रशासनिक कार्यवाही प्रस्तावित की जाय..? आज़ छुट्टी होने से पहले, इनको अपना लिखित ज़वाब अधोहस्ताक्षर-कर्ता को देना है। न देने पर, इनके खिलाफ़ कार्यवाही प्रस्तावित कर दी जायेगी। समझ गए, ओ.ए. साहब?”

पुष्कर नारायणजी की बात सुनकर घसीटा राम पेशो-पेश में पड़ गए, यहाँ तो उनके अधिकारों पर अतिक्रमण किया जा रहा है...और इधर सामने वाली कुर्सियों पर बैठे बाबू गरज़न सिंह और घीसू लाल, उनकी दुर्दशा पर व्यंगात्मक मुस्कान अपने लबों पर छोड़ते जा रहे हैं। लगभग दो माह पहले बाबू गरज़न सिंह ने घीसू लाल को पटाकर, कार्य-विभाजन के मुद्दे पर दफ़्तरे इज़रा जारी करवा डाला, जिससे इनके अधिकारों पर काफ़ी अतिक्रमण हुआ था। उनकी कई शक्तियां, कार्यालय के कनिष्ठ लेखाकार को मिल गयी। अब गरज़न सिंह का यह दूसरा प्रहार, घसीटा राम बर्दाश्त नहीं कर पाए। बेचारे घसीटा राम तड़फ उठे, मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वे झट सदानंद की डिमांड फ़ाइल, साहब के आगे रखते हुए कहने लगे “साहब, लेखाकार की शक्तियों को जाने दीजिये। कार्यालय में लेखाधिकारी की शक्तियां आपके अधीन है, इसलिए स्टेशनरी डिमांड पर आप क्रय आदेश दे दीजिये।”

घसीटा राम का इरादा था, साहब को आहरण एवं वितरण के वित्तीय अधिकार ज़रूर है मगर बाज़ार से सामग्री ख़रीद करने की शक्ति इनको हासिल नहीं। अगर जोश में आकर, पुष्कर नारायण डिमांड नोट पर क्रय करने के आदेश दे देते हैं तो यह उनकी कमज़ोरी उनके हाथ लग जायेगी। फिर क्या? इस दहाड़ते सिंह को काबू में करने का हथियार, स्वत: उनके पास चला आयेगा।

मगर, पुष्कर नारायण निकले, विजय नगर के तेनाली रामा..जो षडयंत्र की गंध पहले ही पा लिया करते। वे जानते थे कि, क्रय के आदेश वे दे नहीं सकते..क्योंकि उनके पास ख़रीद करने का कोई अधिकार ही नहीं..? मामला है पैसों का, ग़लत ख़रीद से मामला ऑडिट में जा सकता है। जहां मौक़े की तलाश में बैठे हैं घसीटा राम..फन फैलाए कोबरा की तरह।

अब दूसरी तरफ़ बाबू सदानंद को देखा जाय, उसकी स्टेशनरी मंगवाने की मांग का क्या हुआ..? वहां उनके पास पोमावा मिडल स्कूल के हेडमास्टर अहमद बख्स और सापूनी मिडल स्कूल के हेडमास्टर महमूद खां न मालुम कब से वहां कुर्सी लगाये जमे है। और, उनका कोई ख़ास काम हो या न हो..? मगर, वे बराबर उस सदानंद से व्यर्थ बकवास करते हुए उसका सर खा रहे हैं ...?

“आपको हज़ार दफ़े कह दिया, आदेश जारी नहीं होगा..तो नहीं होगा। क्यों मेरा सर खा रहे हो मियाँ?” इतना कहकर, बाबू सदानंद दोनों हाथों से अपना सर दबाने लगा।

“बाबूजी प्लीज़, काम कर दीजिये ना। हमारे पास इतना वक़्त नहीं है, इन्तिज़ार करने का। हमारी स्कूल में चार दिन बाद, टूर्नामेंट होने जा रहे हैं।” अब सापूनी मिडल स्कूल के हेडमास्टर महमूद खां बीच में बोल पड़े, जो अपने चाचाजान अहमद बख्स के साथ यहाँ आये थे।

“कहाँ से निकालूं, मेरे बाप? इस दफ़्तर में स्टेशनरी है नहीं, और बिना स्टेशनरी मैं कैसे टूर्नामेंट बाबत प्रतिनियुक्ति करने के आदेशों चक्राकिंत करूँ? इतनी सारी कोपियाँ, टाइप की नहीं जा सकती, यह आप जानते ही हैं।” सदानंद बोला।

“बस यार, बाबूजी। इतनी सी बात..? वाह यार, इतनी छोटी बात के लिए आप सर पकड़कर बैठ गए? अब आपकी समस्या का समाधान, हमारे पास है। देखिये चाचा की स्कूल में हैं, टूर्नामेंट..उनके पास है बज़ट, और मेरे पास है डुप्लीकेट काग़ज़ की रिमें। रिमों के वाउचर्स चले जायेंगे चाचा की स्कूलमें, और काग़ज़ की रिमें पहुँच जायेगी आपके पास...अब बाबूजी मिलाओ, हाथ।” इतना कहकर, महमूद खां ने अपना बायाँ हाथ आगे बढ़ा दिया।

इस वक़्त घीसू लाल, बाबू गरज़ सिंह, घसीटा राम और पुष्कर नारायण अपने कानों से, सदानंद और इन हेडमास्टरों का वार्तालाप सुन रहे थे। जैसे ही महमूद खां बोला ‘अब मिलाओ, हाथ’ सुनकर घीसू लाल अपनी हंसी को रोक नहीं पाए, और वे खुलकर हँसे और हंसते हुए गरज़न सिंह से बोल उठे “कमाल हो गया, भाई गरज़न। डिमांड फ़ाइल तो स्टेशनरी ला न सकी मगर सेटिंग के तरीक़े ने ढेर लगा दिए रिमों के। वाह, भाई वाह। अब मैं यह ज़रूर कहूंगा कि, “अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर...”

“महमूदिये की टोपी अहमदिया के सर” बाबू गरज़न सिंह बोले, ज़ोर से।

“महमूदिया फिरे नंगे सर” बाबू नारायण सिंह बोले, जिनकी सीट घीसू लाल की सीट के बिल्कुल सामने गेट के पास थी।

पुष्कर नारायणजी के अधिकार में नहीं था कि, वे बाज़ार से बाज़ार से इस कार्यालय के लिए स्टेशनरी ख़रीद सके..? फिर क्या? जनाब ने उस फ़ाइल पर लिख दिया कि, “पुट अप बिफोर डी.ई.ओ.” यह लिखकर, उन्होंने फ़ाइल वापस लौटा दी। इस टिप्पणी को देखकर, घसीटा राम जल भुन गए, क्योंकि उनकी मंशा “पुष्कर नारायणजी को ज़ाल में फंसाने की” धरी रह गयी। उनका चेहरा देखकर, बाबू गरज़न सिंह से रहा नहीं गया चुप बैठना। बस, झट दौड़कर उठा लाये फ़ाइल को..घीसू लाल को दिखलाने। फ़ाइल को दिखलाते हुए, वे बोल पड़े “साहब ने भी अहमदिया की टोपी रख दी, महमूदिया के सर पर।”

बाबू गरज़न सिंह का डायलोग सुनकर, बेचारे हेड मास्टर अहमद बख्स और हेडमास्टर महमूद खां ने झट ला पटका अपना हाथ..अपने सर पर। और, बरबस बोल पड़े “हुज़ूर, हम पर मेहरबानी रखें। आपका हर हुक्म हमारे सर पर, आप जो कहेंगे हम करेंगे..मगर, आप हमारी टोपियों को न छेड़ें। ये हमारी केवल टोपियाँ ही नहीं, बल्कि हमारी इज्ज़त भी है हुज़ूर।”

घसीटा राम का फेंका गया ज़ाल बेकार गया, ज़ाल में फंसने वाला कबूतर चालाकी से बच निकला। आख़िर कुपित होकर, घसीटा राम ने अपने चेंबर की तरफ़ क़दम बढ़ा दिए। अब वे सोचने लगे कि, अगली ऐसी कौनसी चाल चली जाय जिससे मैं भी घीसू लाल और बाबू गरज़न सिंह के दिमाग़ को चक्करघन्नी की तरह घुमा दूं ....ताकि मैं भी, अहमदिया टोपी महमूदिये के सर पर रख सकूं।

तभी उनकी विचारों के सोचने की श्रंखला टूटी, उनको लगा कि रमेश एक फिल्मी गीत गुनगुनाता जा रहा है “ राज़ की बात कह दूं तो...”

फाइलिंग करता हुआ कैलाश बाबू सैन अपनी डेड आँख से, रमेश को खा जाने नज़रों से देखता जा जा रहा था। इस मंज़र को देख रहे घसीटा राम के दिमाग़ में यह किस्सा बराबर फिट हो गया, और उनको अपने उस्ताद पेढ़ीवाल साहब की कही बात याद आ गयी। उनका कहना था कि, “बेटा, किसी पर भरोसा मत करो। इस जगत में ऐसे धूर्त आदमी हैं, जो अपने स्वार्थ के लिए अहमदिये की टोपी महमूदिये के सर पर रखते आये हैं...!”


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(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

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पाठकों।

डोलर हिंडा का अंक ४ “अहमदिया की टोपी महमूदीये के सर...” आपने पढ़ लिया होगा? मुझे आशा है कि, यह अंक आपको बहुत पसंद आया होगा? अब आप पढेंगे अंक ५ “प्रक्षिक्षण”। इसे पढ़ते-पढ़ते आप ख़ूब हसेंगे। चलिए, अब देर किस बात की..? अब आप तैयार हो जाइए, अंक ५ पढ़ने के लिए। पढ़कर, आप मुझे मेरे ई मेल पर अपने विचारों से ज़रूर अवगत करेंगे।

शुक्रिया।

दिनेश चन्द्र पुरोहित

ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com

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रचनाकार: संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी किताब “डोलर हिंडा” का अंक चार - अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर, और महमूदिया की टोपी अहमदिया के सर। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
संस्मरणात्मक शैली पर लिखी गयी किताब “डोलर हिंडा” का अंक चार - अहमदिया की टोपी महमूदिया के सर, और महमूदिया की टोपी अहमदिया के सर। लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
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