सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी - मानव जाति हार नहीं मानती (9 सितंबर 2018 के दैनिक 'जागरण' के 'सप्तरंग' में छपा अरविंद कुमार का ...
सूचना प्रौद्योगिकी और हिंदी - मानव जाति हार नहीं मानती
(9 सितंबर 2018 के दैनिक 'जागरण' के 'सप्तरंग' में छपा अरविंद कुमार का लेख)
बचपन में मैं तख़्ती पर मुलतानी मिट्टी पोत कर उसे हिला हिला कर सुखाता था और फिर बुदके में क़लम डूबो कर काली स्याही से लिखता था, तो वह भी प्रौद्योगिकी थी। तख़्ती पर लिखे का जीवन एक दिन का होता था। उस की क्षमता और पहुँच सीमित थी - मुझ तक, मेरे घरवालों तक और अध्यापक तक। तख़्ती पर बार बार सुधार भी नहीं किया जा सकता था।
तख़्ती के मुक़ाबले स्लेट की उपयोगिता अलग थी। स्लेट पर लिखना और मिटाना संभव था, जैसे कक्षा में ब्लैकबोर्ड पर। अंतर केवल इतना था कि स्लेट की आडिएंस एक दो जन थे, तो ब्लैक बोर्ड की आडिएंस पूरी क्लास थी, और उस पर टीका टिप्पणी में सब लोग साझा हो सकते थे। जो बात तख़्ती में थी, कुछ वैसी ही स्कूल की कापियों की थी। तख़्ती के मुक़ाबले स्कूल की कापी में काटछाँट भी हो सकती थी। वह टीचर जी को दी जाती थी, सहपाठियों को भी दी जा सकती थी। लेकिन किताब चाहे कोर्स की किताब हो या कविता कहानी उपन्यास या ज्ञानपूर्ण साहित्य की हो – उस का संप्रेषण क्षेत्र बहुत बड़ा हो सकता था। यही बात पत्रपत्रिकाओं पर लागू होती है।
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नाटक और फ़िल्म देखना शुरू किया तो संप्रेषण तकनीक का एक नया रूप दिखाई दिया। नाटक के मुक़ाबले फ़िल्म का संप्रेषण बहुत विशाल था।
इन सब से आगे बढ़ कर प्रौद्योगिकी का एक बिल्कुल और अलग पहलू लगभग साठ सत्तर साल पहले उभरना शुरू हुआ – ‘सूचना प्रौद्योगिकी’: “आंकड़ों की प्राप्ति, सूचना संग्रह, सुरक्षा, परिवर्तन, आदानप्रदान, अध्ययन, डिजाइन आदि कार्य।” इन के निष्पादन के लिए आवश्यक हैं कंप्यूटर हार्डवेयर एवं साफ़्टवेयर। स्मार्ट टेलीफ़ोन के द्वारा भी हम वह सब जानकारी हासिल कर सकते हैं जो किसी कंप्यूटर से।
सूचना प्रौद्योगिकी से ही संचालित इंटरनैट पर हर तरह की जानकारी मिल जाती है। वहाँ अगर ‘विकिपीडिया’ नाम का मुफ़्त एनसाइक्लोपीडिया है, तो हमारा अपना पूरी तरह भारतीय ‘भारत कोष’ भी है। अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर श्री आदित्य चौधरी इसकी रचना करवा रहे हैं, जबकि विकिपीडिया अनेक संस्थाओं से प्राप्त अनुदानों से चलता है। मैं यहाँ कहना चाहता हूँ कि हम में से कोई कुछ नया, कुछ अत्यावश्यक, करने को कमर कस लेता है तो उसे कहीं से कोई सहायता नहीँ मिलती। ‘समांतर कोश’ पर काम करने से पहले मैं ने कई जगह से सहायता माँगी, कुछ नहीं मिला।
इस आज इंटरनेट पर हर कोई ब्लाग, फ़ेसबुक, वाट्सअप, गूगल, इन्स्टाग्राम, ट्विटर, ईमेल, लिंक्डइन, मैसेंजर आदि माध्यमों से परस्पर संपर्क में रह सकता है। फ़ेसबुक पर मेरी गहरी दोस्ती ऐसे लोगों से संभव हो पाई जिनके नाम भी मैं ने नहीं सुने थे। यूट्यूब पर मैं भूली बिसरी फ़िल्में और हर विषय के वीडियो देख सकता हूँ। गूगल के नक़्शे अब हिंदी में मिलने लगे हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि इंटरनैट पर हिंदी सामग्री हर साल 95 प्रतिशत बढ़ रही है।
इस प्रौद्योगिकी की ही कृपा है कि ईमेल, फ़ेसबुक, वाट्सऐप, लिंक्ड-इन, मेसेंजर, ट्विटर के ज़रिए करोड़ों लोग सामूहिक जन संपर्क कर रहे हैं। दिन में कम से कम एक बार मैं विकिपीडिया के इंग्लिश संस्करण की शरण जाता हूँ। एक अनुमान के अनुसार इनमें से लगभग एक लाख हिंदी लेख भी हैँ, पर उनकी गुणवत्ता असंतोषजनक है।
रेल मंत्रालय के पूर्व निदेशक (राजभाषा) श्री विजय मलहोत्रा सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हिंदी के प्रयोग के विख्यात पैरोकार हैं। उन का कहना है-
“यह एक ऐतिहासिक संयोग ही है कि कंप्यूटर का विकास सर्वप्रथम ऐसे देशों में हुआ, जिनकी भाषा मुख्यत: अंग्रेज़ी या रोमन लिपि पर आधारित कोई योरोपीय भाषा थी। कदाचित् यही कारण है कि जटिल लिपियों में लिखी जाने वाली हिंदी सहित रोमनेतर भाषाओं में प्राकृतिक भाषा संसाधन का कार्य कुछ देरी से आरंभ हुआ, लेकिन यूनिकोड के आगमन के बाद तो हिंदी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व की सभी विकसित भाषाओं के समकक्ष आ गई है।
“कुछ वर्ष पूर्व गैर-यूनिकोड फ़ौंटों के व्यापक उपयोग के कारण हिंदी में संपादन, खोज और प्रकाशन जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं थीं, लेकिन आज ये सभी सुविधाएँ कंप्यूटर पर सुलभ हैं और हम इन तमाम अधुनातन साधनों का उपयोग करके हिंदी में खोज की सुविधा के साथ अधुनातन वैब साइट का निर्माण कर सकते हैं, हिंदी में गपशप, ई-मेल, ऑटो-करेक्ट, थिसॉरस आदि का विकास कर सकते हैं। हिंदी में ई-शिक्षण के लिए मल्टीमीडिया और अंत: क्रियात्मक पाठ्यसामग्री का निर्माण कर सकते हैं और हिंदी में कॉर्पस के आधार पर कोशनिर्माण आदि जैसे कार्य भी कर सकते हैं।
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“विडंबना है कि यूनिकोड की उपलब्धता के बावजूद आज भी हिंदी में प्रकाशित पुस्तकों में स्पैलचैकर आदि बुनियादी सुविधाओं का उपयोग नहीं किया जाता। प्रामाणिक ओसीआर का आज भी हिंदी में अभाव है (संपादकीय टीप - इंडसैंज का हिंदी ओसीआर 100% शुद्धता के साथ ओसीआर करने में सक्षम है)। इंटरनैट पर अरविंद लैक्सिकॉन जैसे प्रामाणिक थिसॉरस की उपलब्धता के बावजूद इसका व्यापक उपयोग नहीं किया जाता। ई-बुक के नाम पर पीडीएफ़ की प्रति रख दी जाती है, जिसमें खोज (सर्च) की बुनियादी की सुविधा का अभाव रहता है। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि हम आज के डिजिटल युग में यूनिकोड के माध्यम से उपलब्ध तमाम सुविधाओं के व्यापक प्रयोग के लिए हिंदी के प्रयोक्ताओं को तैयार करें। 18-20 अगस्त, 2018 को मॉरीशस में आयोजित 11 वें विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर प्रौद्योगिकी संबंधी सत्रों में इन विषयों पर गहन विचार किया गया। आशा है इन सत्रों में की गई अनुशंसाओं पर यथाशीघ्र अनुवर्ती कार्रवाई की जाएगी और इससे प्राकृतिक भाषा संसाधन के क्षेत्र में हिंदी का मार्ग स्वत: ही प्रशस्त हो जाएगा।”
फ़ेसबुक पर कई मित्र इंग्लिश में कुछ लिखते हैं। मेरे लिए यह कोई समस्या नहीं है। पर सब तो इंग्लिश नहीं जानते। और तो और, एक बार मुझे एक संदेश थाई भाषा में मिला। अब? इन सब जगहों पर एक सुविधा मिलती है – see translation। यह अनुवाद कोई आदमी नहीं करता, इन कंपनियों की मशीनें करती हैँ – वह भी तत्काल। ऐसे में उनके परिणामों को देखना, उनकी कमियाँ समझना, और इन मशीनों की क्षमता में उत्तरोत्तर बढ़त देखना हम सब की उत्सुकता का विषय है।
गूगल ट्रांसलेट आज 103 भाषाओं में परस्पर अनुवाद करता है – अफ़्रीकांस से ले कर चीनी से डच, इंग्लिश, फ़्रैंच, गुजराती, जापानी, ज़ूलू तक।
मुलाहज़ा फ़रमाएँ:
पेश है एक वाक्य “जो सवाल आज हमारे समाज के, भाषा के सामने हैं वही मीडिया के सामने भी हैं” के कुछ अनुवाद:
इंग्लिश: The question that is in front of the language of our society today is also in front of the media.
बांग्ला: আজ আমাদের সমাজের ভাষা সামনে থাকা প্রশ্নটি মিডিয়াগুলির সামনেও রয়েছে,
फ़्रैंच: La question qui se pose devant la langue de notre société aujourd'hui se pose également devant les médias
Italian: La domanda che è di fronte alla lingua della nostra società di oggi è anche di fronte ai media
Kannada ಇಂದು ನಮ್ಮ ಸಮಾಜದ ಭಾಷೆಯ ಮುಂದೆ ಇರುವ ಪ್ರಶ್ನೆಯೂ ಸಹ ಮಾಧ್ಯಮದ ಮುಂಭಾಗದಲ್ಲಿದೆ
मैं ने यही वाक्य “The question that is in front of the language of our society today is also in front of the media”
भारत सरकार द्वारा विकसित कई प्रोग्रामों के सामने रखा। पहले तो उन्होंने पूछा कि वाक्य का विषय क्या है, जैसे कि ‘चिकित्सा’ या ‘प्रशासनिक’ या ‘सामान्य’। मैं ने चुना ‘सामान्य’। जो अनुवाद मिले वे इतने हास्यास्पद हैं कि यहां देते हुए शर्म आती है, फिर भी एक उत्तर यह मिला – “यह प्रस्ताव है कि हमारे समाज की भाषा के सामने है भी मीडिया के सामने आज है”
अब मैं ने दो बेहद आसान वाक्य “A round of our lane in the Garden measured 600 meters. We used to take five rounds a day.” भारत सरकार द्वारा विकसित तत्काल अनुवाद करने वाली साइटों पर रखे। देखें परिणाम:
Anuvadakash:
“बगीचा में हमारी गली की – सीमा ने माप दी 600 मीटर हमपाँच गोलों - - दिन - - लेते थे”
MANTRA-RajBhasha:
“उद्यान में हमारे लेन की चरण ने 600 मीटर को माप दिया है
हम ने पांच गश्त को दिन लेने के लिए प्रयोग किया”
Google Translate:
“गार्डन में हमारे लेन का एक दौर 600 मीटर मापा गया- हम दिन में पांच राउंड लेते थे”
(अगर हम मानव-एडेड अनुवाद स्वीकार कर लें तो बड़ी आसानी से इसे यूँ सुधार सकते हैं – “गार्डन में हमारी लेन का एक राउंड (दौर या चक्कर) 600 मीटर का था। हम दिन में पाँच राउंड लगाते थे”)
गूगल अनुवाद का विकास कितनी कोशिशों के बाद किस तरह हुआ है सौभाग्यवश मेरे पास इस के कुछ पुराने उदाहरण सुरक्षित हैं जैसे किप्लिंग की किसी कहानी के दो पहले वाक्य:
“Once upon a time there was a beautiful jungle and it had lots of different nice animals living in it. The animals were happy and they didn’t fight with each other.”
पाँच छह साल पहले: “एक बार एक बार पर एक ख़ूबसूरत जंगल था और यह विभिन्न अच्छा पशुओँ मेँ रहने का बहुत सारे थे। पशुओँ ख़ुश थे और वे एक दूसरे के साथ झगड़ा नहीँ था।”
2016: “एक समय की बात है कि वहाँ एक खूबसूरत जंगल था और यह उस में रहने वाले विभिन्न अच्छा जानवरों के बहुत सारे थे। जानवरों खुश थे और वे एक दूसरे के साथ लड़ाई नहीं थी।”
2018: “एक बार एक खूबसूरत जंगल था और इसमें बहुत से अच्छे जानवर रहते थे। जानवर खुश थे और वे एक-दूसरे से लड़ते नहीं थे।”
आपने देखा कि सूचना प्रौद्योगिकी में सुधार के लिए दुनिया भर की सरकारों के साथ साथ हर देश की कई कंपनियों के लाखों लोग लगे रहते हैं। नए से नए उपकरण बन रहे हैं, नए से नए साफ़्टवेयर बन रहे हैँ। मानव जाति हार नहीं मानती।
(अरविंद कुमार के फ़ेसबुक पोस्ट https://www.facebook.com/arvindkumarlexicon/posts/1965954576831263?__tn__=K-R से साभार)
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 13 सितम्बर 2018 को प्रकाशनार्थ 1154 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
साधुवाद...
जवाब देंहटाएंआपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन वराह जयन्ती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंआज इतनी सुविधाओं के होने के बावजूद हमारी राजभाषा हिन्दी को लागू करने में सरकार क्यों पीछे हट रही है समझ नहीं आ रहा|आज जब हिन्दी विश्व में में अपनी पैठ बना रही है तो तो उसे घर में ही उचित स्थान देने में हम क्यों हिचक रहे हैं जबकि जो हिन्दी नहीं समझाते वे उसको अंगरेजी या अपनी भाषा में समझने जब सक्षम हो सकते है| इस लेख में बहुत सुंदर जानकारी दी गई है जो यह सब कुछ सोचने के लिए विवश करती है|
जवाब देंहटाएंसार्थक आलेख
जवाब देंहटाएंअरविंद कुमार जी का लेख और उस में विजय मल्होत्रा की टिप्पणी पठनीय हैं । मोरिशस में तकनीकी सत्र में करता अनुशंसाएं की गई यह जानना चाहता हूं ।
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