हास्य नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक ११ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र एक आक़िल मियां...
हास्य नाटक
“दबिस्तान-ए-सियासत”
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक ११
राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित
मंज़र एक
आक़िल मियां से बदला लिया जाय ?
[मंच रोशन होता है ! दूसरी पारी शुरू होने का वक़्त हो चुका है, बरामदे का मंज़र सामने आता है, शमशाद बेग़म स्टूल पर बैठी नज़र आती है ! अब दीवार घड़ी को देखकर, शमशाद बेग़म उठकर घंटी लगा देती है ! घंटी की आवाज़ सुनकर पहली पारी की सब लड़कियां बस्ता उठाये, स्कूल के मेन गेट की तरफ़ क़दम बढ़ाती नज़र आती है ! अब शमशाद बेग़म इधर-उधर नज़रें दौड़ाती है, मगर उसको कोई चपरासी नज़र नहीं आता ! तभी उसे क़दमों की आहात सुनाई देती है, और पोर्च में तौफ़ीक़ मियां अन्दर आते दिखाई देते हैं ! वह उन्हें ज़ोर से आवाज़ देकर, पुकारती है...उनके नज़दीक आने पर झाड़ू को अपने कंधे पर, ऐसे रखती है मानो वह झाड़ू न होकर किसी सिपाही की बन्दूक हो ? और फिर वह ख़ुद ऐसे तनकर खड़ी हो जाती है, मानो कोई सिपाई जंग-ए-मैदान की तरफ़ जा रहा हो ? अब, वह उनसे कहती है !]
शमशाद बेग़म – [सिपाही की तरह, झाड़ू को थामे हुई] – मियां, घंटी बजने के बाद तुम ऐसा किया करो...सभी काम छोड़ दो,पहले ! फिर झाड़ू को लिए बन जाओ, जंग-ए-सिपाही ! और, उतर जाओ, इस जंगाह में...जहां इस स्कूल के सफ़ाई-कार्य में आपको दिखलाना है, बड़ी बी को कि, वक़्त पर स्कूल के हर कमरे की सफ़ाई हो गयी है !
तौफ़ीक़ मियां – [लबों पर मुस्कान बिखेरते हुए] – जो हुक्म, हुजूरे आलिया ! अब आप इस सफ़ाई-कार्य की बन जाइए जमादार ! फिर इस फ़ौज की हरावल बनकर, आगे चलिए..तब-तक आपका यह ताबेदार बड़ी बी को आबेजुलाल पिलाकर, आपके पास आ ही रहा है ! [धीरे से, जनाब कहते हैं] जानती है, हम बड़े-बड़े मुसाहिबों को पानी पिला चुके हैं...जो तुम्हारे हाथ क्या आयेंगे ? [मुंह पर हाथ रखकर, हंसते है, फिर पानी से भरा लोटा लिए अपने क़दम बड़ी बी के कमरे की तरफ़ बढ़ा देते हैं !]
[शमशाद बेग़म जानती है, यह मियां ठहरा चतुर कलाग़ ! जंगल में आग लगती है, मगर यह कलाग़ कभी आतिश [आग] में नहीं जलता ! कमबख़्त आख़िर काम से बचने का बहाना बनाकर, खिसक गया..बड़ी बी के पास अपनी हाज़री देने ! शतरंज के खेल में हर मोहरे के पीछे किसी बड़े मोहरे का हाथ होता है, बस यही बात है यह शातिर हर्राफ़ बड़ी बी का नाम लेकर काम से बचकर चला गया ! बस यहीं आकर शमशाद बेग़म मात खा जाती है, वह जानती है उसके ख़ुद के पीछे किसी बड़े आदमी का ज़ोर नहीं..यानी वह इस खेल में एक फिसड्डी खिलाड़ी है ! आख़िर, मन मारकर वह क्लासों में सफ़ाई करने चल देती है, दरवाजे की ओट में खड़े तौफ़ीक़ मियां उसको जाते देखते हैं ! उसके जाने के बाद, उनके चेहरे पर रौनक छा जाती है ! अब वे आराम से बरामदे में आ जाते हैं, और अपने दोनों हाथ ऊपर लेजाकर अंगड़ाई लेते हैं ! फिर अपनी तन्हाई को मिटाने के लिए, सिगरेट सुलगाना चाहते हैं ! फिर क्या ? वे झट बरामदे की जाली के पास रखे स्टूल पर तशरीफ़ आवरी होकर, अपनी जेब में हाथ डालते हैं ! मगर, यह क्या ? बेचारे मियां अपनी तन्हाई मिटाने के लिए सिगरेट सुलगाना चाहते थे, मगर जेब में सिगरेट का पैकेट नदारद ! बेचारे खिसियाना चेहरा लिए, बड़बड़ाना शुरू कर देते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [बड़बड़ाते हैं] – हम तो अपने-आपको उस्ताद कहते आये हैं ! मगर, हमारी बेग़म नूरजहाँ तो हमसे आगे निकल गयी..कमबख़्त निकली, छिपी रुस्तम ! उसने चुपचाप हमारी जेब से मार लिया, सिगरेट का पैकेट..और ऊपर से कहती गयी “अरे ओ, सज्जाद के अब्बा ! आप ठहरे चैन स्मोकर ! मुझे डर है, कहीं आपको केंसर जैसी जान-लेवा बीमारी न हो जाय ? अब तौबा करो, इस मुई सिगरेट से !”
[फिर उठकर आबेजुलाल पीने के लिए मटकी के निकट चले आते हैं ! लोटे से मटकी से आबेजुलाल बाहर निकालकर अपने हलक़ को तर करते हैं ! वापस आकर स्टूल के पास खड़े होकर, फिर से बड़बड़ाने लगते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [बड़बड़ाते हैं] – तब जनाब, यह क्या कह डाला उसको ? हाय अल्लाह हमने जोश में आकर, कह डाला हमारी बेग़म नूरजहाँ को कि, “ओ मेरी प्यारी प्यारी नूरजहाँ, हम आपके लिए क्या नहीं कर सकते ? कभी आप हमें भी, अजमाकर देख लीजिएगा !”
[खड़े-खड़े तौफ़ीक़ मियां की टांगों में दर्द उठने लगा, आख़िर मियां की बढ़ती उम्र के कारण यह दर्द उठना अब वाजिब ठहरा ! वे पास रखे स्टूल पर तशरीफ़ आवरी होते हैं ! अब बेचारे तौफ़ीक़ मियां को, क्या मालुम ? दालान के बाहर साईकल खड़ी करके दिलावर खां इधर ही तशरीफ़ रखने वाले हैं ! उनसे अनजान तौफ़ीक़ मियां, लगातार बड़बड़ाते जा रहे हैं !]
तौफ़ीक़ मियां - तब हमने बोल दिया जनाब कि, “उस बादशाह शाहजहां ने अपनी बेग़म के लिए ताज़महल खड़ा कर डाला, क्या हम हमारी बेग़म के लिए यह मुई सिगरेट नहीं छोड़ सकते ?”
[तभी दिलावर खां अपनी साईकल बाहर खड़ी करके बरामदे में दाख़िल होते हैं ! अब वहां तौफ़ीक़ मियां को इस तरह बड़बड़ाते देख, वे उनके कंधे पर अपना हाथ रख देते हैं ! अचानक पड़े इस दबाव के कारण मियां तौफ़ीक़ घबरा जाते हैं, और घबराये हुए वे अपने ख़्याल में खोये बोल जाते हैं...!]
तौफ़ीक़ मियां – [ख़्याल में घबराकर, बोलते हैं] – छोड़ो बेग़म, हम कान पकड़कर कहते हैं कि, “अब सिगरेट को कभी हाथ नहीं लगायेंगे !
[यह सुनकर, बेचारे दिलावर खां हंसते-हंसते बेहाल हो जाते हैं ! फिर, क़हक़हे गूंजाते हुए ज़ोर से कहते हैं !]
दिलावर खां – [क़हक़हे गूंजाकर, कहते हैं] – दिन में सपने मत देखा करो, मियां ! रास्ता भटक जाओगे ! वाह यार, यह तुम्हारी बीबी का आसेब तो सपने में भी मियां का पीछा नहीं छोड़ता ?
[अब लगाये गए क़हक़हों के कारण, ख्याल आने बंद हो जाते हैं ! और, तौफ़ीक़ मियां ऊंघ से उठ जाते हैं ! वे चेतन होकर, कहने लगते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [अपनी झेंप मिटाते हुए, कहते हैं] – अरे ना रे, मेरे काग़ज़ी शेर ! हम तो रिहर्सल कर रहे थे, नाटक का ! अरे भाई, तुम ही सोचो..हम किसी नज़र से, डरपोक लगते हैं क्या ?
दिलावर खां – [दिलचस्पी दिखलाते हुए, कहते हैं] – अरे यार, कौनसा नाटक ? असल ज़िंदगी का, या...?
तौफ़ीक़ मियां – ख़ुदा जाने, दुनिया के हज़ार डफ़र दफ़न हुए होंगे तब तुम्हारे जैसा एक नामाकूल डफ़र पैदा हुआ होगा ? यार तुम इतना भी नहीं जानते कि, बड़ी बी के शौहर रशीद मियां अपनी बीबी यानी इस आयशा मेडम के सामने कैसे थर-थर कांपते हैं ? बस, मैं तो उनकी नक़ल उतार रहा था ! आपको मालुम है, कल बड़ी बी क्या कह रही थी ?
दिलावर खां – [कोतुहल मिटाते हुए] – कहिये, जल्दी कहिये ! क्या कहा, उन्होंने ?
तौफ़ीक़ मियां – उन्होंने कहा [आयशा मेडम की नक़ल उतारते हुए] “तौफ़ीक़ मियां, आप ठहरे नेक बख्त ! हमारे शौहर, आपसे गुफ़्तगू बहुत करते हैं ! आपकी बात बहुत मानते हैं, मियां ! ज़रा एक दिन आप हमारे दौलतखाने तशरीफ़ रखिये ना, बस हमारे रशीद मियां को ऊंची सोसाइटी में बैठने की तहज़ीब सिखा दो..कैसे रहना चाहिए, ऐसी सोसाइटी में ?
दिलावर खां – फिर क्या ? आप गए क्या, बड़ी बी के दौलतखाने ?
तौफ़ीक़ मियां – [दोनों हाथ फेंकते हुए, कहते हैं] – क्या करता, मियां ? बेचारी मोहतरमा ने, इतनी लाचारी से मिन्नत की...तो उस्ताद, जाना तो पड़ेगा ही ! फिर हम गए, उनके दौलतखाने...हाय अल्लाह यह क्या देख लिया, हमने ? उनके शौहर-ए-नामदार, बावर्ची खाने में खाना पका रहे थे !
दिलावर खां – [अचरच से] – क्या, यह सच्च है ?
तौफ़ीक़ मियां – मेरे ख़िल..मेरे अज़ीज़ दोस्त, तुम्हारे सर की कसम ! क्या, मैं झूठ बोलूंगा तुमसे ? वैसे भी आपसे झूठ बोलने की गुस्ताख़ी कर भी नहीं सकता, आपको मैं कभी धोके में रख नहीं सकता ! आख़िर, आप ठहरे पाक मज़ार के ख़ादिम साहब !
दिलावर खां – [लबों पर तबस्सुम बिखेरते हुए] – ठीक है...चलिए, चलिए ! अब, आगे की ख़बर बयान करो !
तौफ़ीक़ मिया - सुनिये हुज़ूर ! ज़रा दिमाग़ की सारी खिड़कियाँ खोलकर सुनना ! बेचारे रशीद मियां रोटी पका रहे थे, और यह मोहतरमा पलंग पर लेटी हुई जासूसी कहानियों की किताब पढ़ रही थी ! जैसे ही मोहतरमा की निग़ाहें इस नाचीज़ पर गिरी, बस उसने तपाक से अपने शौहर को हुक्म सुना दिया !
दिलावर खां – अरे यार, बीबी ख़ाविंद हुक्म नहीं दे सकती ! वह तो बीबी को हुक्म देता है ! इस बारे में आप क्या जानते हैं, मियां ?
तौफ़ीक़ मियां – इसमें कौनसी, आपकी बहादुरी झलकती है ? एक बेचारी मज़लूम नाबालिग बीबी, जो उम्र में तक़रीबन आपकी बेटी की उम्र की हो..उस पर रौब झाड़ना कहाँ का इंसाफ़ ? एक बच्ची के ऊपर हुक्म लादने का, क्या मफ़हूम है ?
दिलावर खां – [खिसयानी हंसी हंसते हुए] – ही...ही...! चलिए, अपनी बात पूरी कह दीजिये ! क्या कह रहे थे, आप ?
तौफ़ीक़ मियां – [आयशा की आवाज़ में] – “अजी सुना, आपने ? तौफ़ीक़ मियां हमारे दौलतखाने में तशरीफ़ लाये हैं ! ज़रा, शरबत-ए-आज़म तैयार करके लेते आइये ना... !
दिलावर खां – [लबों पर व्यंगात्म्मक मुस्कान बिखेरते हुए, कहते हैं] – बड़े क़िस्मत वाले ठहरे, बिरादर ! क्या कहना है, आपके ख़ास्सा का ? जनाब बड़ी बी के पहलू में बैठकर, शरबत-ए-आज़म नोश फ़रमाकर आये हैं !
तौफ़ीक़ मियां – यह तो अपनी-अपनी क़िस्मत है, प्यारे ! ख़ुदा की इनायत से....
[क्लासों की सफ़ाई का काम पूरा करके, अब शमशाद बेग़म वापस इधर आती नज़र आती है ! जो आते-आते, दिलावर खां का आधा अधूरा जुमला सुन लेती है ! अब उसको यहाँ देखकर तौफ़ीक़ मियां की ज़बान तालू पर चिपक जाती है, यही कारण है....वे आगे बोल नहीं पाते !]
शमशाद बेग़म – [क़रीब आकर, कहती है] – क़िस्मत अच्छी पायी है, तुम दोनों साहबज़ादों ने ! वाह, वाह ! मानों आप दोनों, बहुत बड़ी एस्टेट के नवाब बहादुर हैं ? बेचारी ख़ाला निकालती रहे, ख़ारोखस, और इधर ये ख़ाला के भाई शरबत-ए-आज़म नोश फरमाते रहें ?
तौफ़ीक़ मियां – [बात बदलते हुए, हंसकर कहते हैं] – [सहमकर] – शरबत-ए-आज़म नोश फ़रमाया नहीं, ख़ाला ! हम तो ख़ाली, तबादला-ए-ख्याल में डूबे थे ! अब आप हुक्म दीजिये, क्या करना है मुझे !
शमशाद बेग़म – [नाराज़गी ज़ाहिर करती हुई] – हुक्म..हुक्म..क्यों लग्व करते जा रहे हो ? सफ़ाई के वक़्त, जनाब आये नहीं ? अब सब काम निपट जाने के बाद, अब आप मुझे काम का पूछ रहे हो..क्या हुक्म है ? जानते हो ? स्कूल के सभी कमरों की सफ़ाई करके अब आ रही हूं, देखते नहीं..पसीने से लथपथ, मेरी जान निकली जा रही है !
दिलावर खां – [ख़ाला की बात को हवा में उड़ाते हुए, कहते हैं] - ख़ाला, हमें तो लगा कि, आप नहाकर सीधी यहाँ आयी हैं !
शमशाद बेग़म – [पल्लू से ज़ब्हा पर छलक रहे पसीने के एक-एक कतरे को, पोंछती हुई] – काम करने से भय्या, जिस्म घिसता नहीं ! एक चपरासी को सरकार तनख्वाह देती है, पानी भरने, झाड़ू निकालने के लिए...समझे ? ऐसा नहीं है भय्या, इस्त्री की हुई उज़ली सफ़ेद वर्दी पहनकर स्कूल में कहीं बैठकर बेफ़ालतू की हफ्वात हांकते रहो ?
[तौफ़ीक़ मियां व दिलावर खां की निग़ाहें, ख़जालत [शर्म] के मारे नीचे झुक जाती है ! ऐसा ख़ाला ने इन दोनों को, क्या कह डाला ? कि, दोनों बेचारे आब-आब हो गए हैं ! और अब वे दोनों, एक-दूसरे को देखने लगे ! घंटी लगाने का वक़्त हो गया है, शमशाद बेग़म झट इस मआमले को यहीं छोड़कर घंटी लगाने चली जाती है ! घंटी बजने से, उसकी आवाज़ गूंज़ती है !]
दिलावर खां – [तौफ़ीक़ मियां से] – ओ बिरादर ! ज़रा ध्यान रखा करो, बेचारी ख़ाला कब से काम में जुटी है ?
तौफ़ीक़ मियां – [तुनककर कहते हैं] – हुज़ूर ! आपको इतनी ख़ाला से हमदर्दी है, तब आप चले जाते सफ़ाई करने ? कम से कम इतना तो आप कर सकते हैं, जाकर घंटी लगाकर आ जाते आप ! इससे ख़ाला को थोड़ा-बहुत आराम तो नसीब हो जाता ?
[घंटी लगाने के बाद, शमशाद बेग़म पानी से भरा लोटा लिए, बड़ी बेग़म के कमरे में दाख़िल होती है ! वहां उसे बड़ी बी आयशा के पास इमतियाज़ बैठी है ! वह आयशा की पक्की सहेली है, इसलिए आयशा स्कूल के हर मआमले में, इमतियाज़ की सलाह लेती है ! इस वक़्त इमतियाज़ स्वेटर बुनती हुई, आयशा से कह रही है !]
इमतियाज़ – [स्वेटर बुनती हुई] - स्कूल के चपरासी कितना काम करते हैं, आपसे क्या छुपा ? आपको सच्च कहती हूं, पहली पारी की चाँद बीबी बहुत मेहनती है ! सफ़ाई का काम तो इतनी मेहनत से करती है कि, फर्श पर पोचा लगाकर उसे आईने के माफ़िक चमका देती है !
[शमशाद बेग़म से लोटा लेकर, आयशा पानी पीती है ! फिर लोटा उसे थमाकर, वह कहती है !]
आयशा – अजी नाई से पूछो कि, बाल कितने बढ़े ? नाई कहता है कि, ‘’अभी सामने आकर गिरेंगे, तब आप देख लेना !” कहने का मफ़हूम यह है कि, हाथ कंगन को आरसी की क्या ज़रूरत ?
इमतियाज़ – सही कहा, आपने !
आयशा – ज़रा मेरी इस टेबल को देखिये, इसे चमका दिया इस चाँद बीबी ने ! अब इन दूसरे चपरासियों को देखिये, या तो बैठे-ठाले ज़र्दा मुंह में ठूंसकर गुफ़्तगू में मशगूल रहेंगे...न तो [खिड़की की तरफ़ इशारा करती हुई] मेरे कमरे की इस खिड़की के बाहर सटकर खड़े हो जाते हैं, और मेरे कमरे में चल रही गुफ़्तगू पर कान दिए रहते हैं !
[अब आगे सुनना शमशाद बेग़म के लिए, नाक़ाबिले बर्दाश्त ठहरा ! वह झुंझलाकर, बड़ी बी से कहती है !]
शमशाद बेग़म – [झुंझलाकर, कहती है] – बड़ी बी ! आज़ दिन-तक मैं अपना फ़र्ज़ समझती हुई इस स्कूल का हर काम करती आयी हूं, दूसरे चपरासियों के हिस्से का काम भी मैंने किया है तो....कुछ बात नहीं, चुपचाप करती आयी हूं ! हुज़ूर, इस सफ़ाई के मामले में हमारी...
आयशा – साफ़-साफ़ निडर होकर बात कीजिये ना, आप जानती है ख़ाला...सभी चपरासी मेरी निग़ाहों में बराबर है, ग़लत बात में मैं किसी का फेवर नहीं करती !
शमशाद बेग़म – मैंने आपसे, कभी किसी की शिकायत की नहीं है ! कभी आपको यह नहीं कहा, किस चपरासी ने अपने ख़ाकदान का ख़ारोखस स्कूल के बाहर न डालकर अलमारियों के पीछे छुपा दिया है ! या कोई चपरासी अपनी वर्दी की इस्तरी बचाए रखने के लिए, काम के वक़्त गायब हो जाता है ?
आयशा – [अचरच करती हुई] – आप सच्च कहती है, ख़ाला ? हम बिना देखें, किसी चपरासी की झूठी तारीफ़ नहीं करती हैं ! यह सब, आप जानती हैं !
[यहाँ झूठ का बोलबोला है, अभी थोड़ी देर पहले चाँद बीबी की तारीफ़ कर रही थी....उसे क्या मालुम ? वह मोहतरमा बड़ी बी की निग़ाहों में अच्छी दिखने के लिए, उनके कमरे में पोचा लगाकर सफ़ाई करती है ! मगर क्लासों में पोचा तो दूर, वहां वह झाड़ू के भी हाथ नहीं लगाती ! इस तरह नाराज़ होकर शमशाद बेग़म, पाँव पटककर चली जाती है !]
आयशा – क्या करें, इमतियाज़ बी ? अपनी इच्छा के मुताबिक़, इन चपरासियों से काम लेना कठिन हो गया है ! आप तो हमारी ख़ास सहेली ठहरी, आप तो मेरा भला ही चाहती हैं ! मैं चाहती हूं, आप हमारे लिए काम करें ! इन सारे मुलाज़िमों पर कड़ी नज़रें रखती हुई आप मुझे सही-सही रिपोर्ट दिया करें कि, ये पूरे दिन क्या काम करते हैं ?
इमतियाज़ – [लबों पर तबस्सुम बिखेरती हुई, कहती है] – मल्लिका-ए-आज़म ! [नीमतस्लीम करके आगे कहती है] हुज़ूर, इस बंदी को आप इस स्कूल की होम-मिनिस्टर बना दीजिएगा !
आयशा – [लबों पर तबस्सुम बिखेरती हुई, कहती है] – चलो, समझ लीजिये आप ! आपको मिनिस्टर क्या ? सहायक वज़ीरे आला, यानी असिस्टेंट हेडमिस्ट्रेस बना दिया ! बस कल से आप, पहली पारी की शिफ्ट इंचार्ज कहलाओगी !
इमतियाज़ – शुक्रिया, मल्लिका-ए-आज़म ! अब ज़रा दीवान-ए-ख़ास पर ग़ौर किया जाय ! समझ गयी ना, आप ? मेरे कहने का मफ़हूम यह है कि, फाइनेंस का महकमें के बारे में ख़ास-ख़ास बातें की जाए !
आयशा – देखो इमतियाज़, उस जीनत को आप जानती होगी ? जिसके शौहर दीन मोहम्मद, कुछ याद आया आपको ?
इमतियाज़ – [अपना हाथ सर पर रखती हुई, कहती है] – हाय अल्लाह ! यह जीनत अब कौन है ? याद नहीं आ रहा है, हमें !
आयशा – वल्लाह ! आप तो इतनी भुल्लकड़ निकली, उस मोहतरमा को भी भूल गयी ? अरे यार, याद करो ! जो अभी उस स्टेशन एरिया मिडल स्कूल की, हेडमिस्ट्रेस बनी हुई है ! जो अपने जूड़े में गोभी का फूल डाले आती थी, स्कूल ! अब तो पहचाना, उसको ?
इमतियाज़ – वल्लाह ! उसे कौन भूल सकता है, भला ! वह तो आपकी ख़ास सहेली है ! एक दिन का वाकया यह भी रहा, वह कुर्सी पर बैठे-बैठे सो गयी और उसे नींद में पाकर आपने उसके बालों का जूड़ा खोल डाला ! फिर गोभी का फूल बाहर निकालकर चपरासिन फूली बाई को सब्जी बनाने के लिए दे दिया..और उस गोभी के फूल के स्थान पर आपने बच्चियों के लाये गए क्राफ्ट में डस्टर डालकर, वापस उसका आपने जूड़ा बना डाला ! ऐसी शैतान की ख़ाला ठहरी, आप ! [हंसती है]
आयशा – अब पहचान गयी ना, यह जीनत वही है...जिसके शौहर दीन मोहम्मद ने, हेडमास्टरी का कोम्पीटेशन टेस्ट हमारे साथ ही दिया था ! फिर क्या ? हम दोनों का हो गया, सलेक्शन ! दीनमोहम्मद के ख़ास दोस्त ठहरे, हमारे ये जमाल मियां ! अभी, कल की बात है...
इमतियाज़ – कहिये ना, कहो तो खिड़की बंद कर दूं ? कोई मुख्बिर हमारी गुफ़्तगू सुन ना ले ?
आयशा – [हंसती हुई] – अरी पागल लड़की, खिड़की तो पहले से बंद है ! तू तो बस अपने कान की खिड़कियों का ध्यान रखना, जो बंद न हो जाय ? ले सुन, मेरी हमशीरा ! जमाल मियां व दीन मोहम्मद, कल ही हमारे दौलत खाने तशरीफ़ लाये ! बेचारे दीन मोहम्मद बहुत लाचारगी के साथ, मुझे कहने लगे कि,...
इमतियाज़ – आगे क्या कहा, उन्होंने ?
आयशा – [दीन मोहम्मद की नक़ल उतारती हुई, कहती है] – “मेडम, आपकी मेहरबानी होगी तो इस जमाले को ख़ाजिन का चार्ज का चार्ज मिल जाएगा जी, ना तो ता-ज़िंदगी इसे यह चार्ज नहीं मिलेगा !”
इमतियाज़ – दे दीजिये ना, ख़ाजिन का चार्ज ! आपके दर पर, कोई सवाली [भिखारी] भी ख़ाली हाथ नहीं लौटता ! याद कीजिये, आप जब-जब भी रशीदा बेग़म से नाराज़ होती थी...तब, यही जमाल आपको कानूनी मश्वरा दिया करता था !
आयशा – याद है, बेचारा कितनी इज़्ज़त करता है हमारी ? कहीं भी मिल जाता है यह, यह गधा मेरे पाँव छूकर आदाब अर्ज़ कहता है ! अरे यार, वह हमें इतनी इज़्ज़त देता है कि, उतनी इज़्ज़त तो मेरी छोटी बहन रोशन आरा भी नहीं देती होगी हमें ! आदाब..आदाब कहते रहना, तो इसका ज़बान-ए-लफ्ज़ बन गया है !
इमतियाज़ – फिर क्या ? दिला दीजिये बेचारे को, केश का चार्ज !
आयशा – आप जिद्द न करें, बीबी ! आप नहीं समझती...आक़िल मियां ठहरे, रोकड़ शाखा के जानकार ! उनको अच्छा-ख़ासा तुजुर्बा रहा है, इस रोकड़ शाखा का ! यह कोदन [मूर्ख, मूढ़] रोकड़ शाखा की ए बी सी डी नहीं जानता, उसे केश ब्रांच में बैठाकर गोबर के उपले बनवाऊं ? जानती नहीं, आप ? यह तो डूबा देगा, मुझे ऑडिट के ज़ाल में फंसाकर !
इमतियाज़ – [नाराज़ होकर] – मुझे ज़रा अलील है, बड़ी बी ! मैं ठहरी कोदन मोहतरमा, आप बड़े आदमी हैं...मेरी कहाँ है औकात, आपको सलाह देने की ? आपको सलाह देकर मैंने ग़लती की, इस गुस्ताख़ी के लिए मुआफ़ी चाहती हूं !
आयशा – [[इमतियाज़ को ख़ुश करती हुई, कहती है] - मेरी प्यारी सहेली...मेरी लख़्तेज़िगर ! क्यों ख़्वामख़्वाह नाराज़ हो रही हैं आप ? आपके सिवाय इस स्कूल में मेरा भला सोचने वाला है, कौन ? अब ज़्यादा मस्का मत लगवा, यार ! कहीं इस तेरे चेहरे की तेलीय त्वचा, तेरे रोने से हो जायेगी हो जायेगी ख़राब ! अब तुम कुछ बोलने का क्या लोगी, मेरी हमशीरा [बहन] ?
इमतियाज़ – [एहसान लादती हुई] – तो इतना कहते हैं, आप....अब सलाह तो मुझे, देनी ही होगी ! अल्लाह मियां के फ़ज़लो करम से, सच्च कहती हूं कि, आप प्रोग्रेस की सीढ़ियाँ ऐसे आराम से नहीं चढ़ती आ रही है...?
आयशा – यह क्या कह दिया, इमतियाज़ ?
इमतियाज़ – सच्च कह रही हूं, न जाने कितने लोगों के कन्धों पर चढ़कर आपने परमोशन और पाली जैसा पोस्टिंग प्लेस पाया है ! आप जैसी हुस्न की मल्लिका के लिए, यह कोई असंभव नहीं ! जनाबे आलिया, आप नए कपड़े एक बार पहनकर, पुराने कपड़े फेंक दिया करती है..फिर, उन कपड़ों के प्रति आपका कोई मोह नहीं रहता !
आयशा – यह तो आप ही जानती है, “सियासत के मामले में, इन पुराने कपड़ों की क्या ज़रूरत ? काम न आने पर उसे ख़ारोखस मानकर, ख़ाकदान में डालना ही बेहतर उपाय है ! न तो इन पुराने कपड़े में पाए जाने वाले जर्म्स, बदन में घाव पैदा करके, उसे क़ुरेदते रहते है !” अरी मेरी हमशीरा, यही तो इस ख़िलकत का क़ायदा है..इसे तू भी, अच्छी तरह से जानती है !
इमतियाज़ – वज़ा फ़रमाया, आपने ! अब मुझे कुछ कहने की, क्या ज़रूरत ?
आयशा – साफ़-साफ़ बोलो, बीबी ! इस तरह बातों की पहेलियों में मुझे उलझाकर, यूं मुझे तन्हा मत छोड़ो ! आप यह ध्यान भी रखा करें कि, इस तरह आप मेरी इज़्ज़त की बखिया न उधेड़ा करें..कि, हम किसी के कंधे का सहारा लेकर आगे बढ़ती हैं, और बाद में उस सपोर्ट देने वाले भले मानुष को बीच मजधार में ....
इमतियाज़ – वल्लाह ! हम नावाकिफ़ नहीं, हम आपके बारे में सब कुछ जानती हैं ! यह ज़रूर कहूंगी, आपसे कि, आप ऐसी इंसान है जो अच्छा खाती-पीती है, और नहीं तो उसे उग़ालदान में उंडेल देती हैं !
आयशा – [होंठों में ही] – अरी पीराना, तू तो पूरी धीट निकली...कमबख़्त तू मुझे ही बार-बार आइना दिखला रही है कि, हम कौन हैं और कैसे हैं ? अगर मुझे तेरी ज़रूरत न होती तो, अभी तूझे उग़लकर उग़ालदान में डाल देती..मगर, करूँ क्या ? अभी मुझे, तेरी सलाह की बहुत ज़रूरत है ! [प्रकट में] मैं समझी नहीं, तू क्या कहना चाहती है ? यह उग़ालदान और यह उग़ल देना में, तेरा क्या मफ़हूम छुपा है ?
इमतियाज़ – [कान के पास मुंह ले जाकर, फुसफुसाती है] – इस नेकबख्त आक़िल मियां को सबक सिखाना तेरे लिए बहुत ज़रूरी है ! कमबख़्त तेरे दिए गए वाउचरों को बता रहा है...फ़र्जी ? अब मेरी सलाह यही है कि, अब तू...
आयशा – आख़िर, फिर देती क्यों नहीं सलाह ?
इमतियाज़ – इस गधे जमालिये को दिला दीजिये ख़ाजिन का चार्ज ? वह जब तक आपको ख़ुश रखेगा, तब-तक वह ख़ाजिन बना रहेगा..जैसे ही वह अपनी ऑंखें दिखा दे, उसी वक़्त आप उससे यह चार्ज छीनकर वापस आक़िल मियां या और किसी और को दे देना !
आयशा – ठीक है, इमतियाज़, अब प्लान के मुताबिक़ काम करना है ! आक़िल मियां ऐसे गुस्सेल ठहरे, उनके गुस्से के आगे हारून मियां का गुस्सा न के बराबर है ! बस, अब इस हिज़ब्र को भड़काना है ! भड़कते ही वह हो जाएगा, गुस्से से लाल-पीला ! फिर क्या ? बेक़ाबू होते ही, मुझे....
इमतियाज़ – उनको भड़काने का काम जमालिए पर छोड़ दें, आप जानती न, वह गधा महाभारत के मामा शकुनी की तरह से चालें खेलता है ! फिर देखना आप, किस तरह से यह आक़िल मियां को गुस्सा दिलाकर उनको बेकाबू करता है ? इधर शोले भड़केंगे और उधर आप उन पर स्टाफ़ के साथ अशोभनीय व्यवहार करने का आरोप लगाकर, उनसे केश जैसा जिम्मेदारी का चार्ज छीन ....
आयशा – वाह ! इमतियाज़ इस तरह, उनसे केश का चार्ज लेकर इस जमाल को दे देंगे ! इस मामले में तो हमें केवल, तवालत का ध्यान रखना है !
[गुफ़्तगू करती-करती आयशा, छत्त पर निग़ाह डालती है, जहां मकड़ी के कई ज़ाल चिपके नज़र आते हैं ! अब यहाँ इस मकड़ी को मारना तो दूर, ये कमबख़्त चपरासी कभी इन ज़ालों पर नज़र भी नहीं डालते हैं ! कारण यह है कि, ये सभी ख़ुदा के बन्दे स्कूल में इतने व्यस्त रहते हैं, बेचारे...! इन बेचारों को निग़ाहें ऊपर करके, इन ज़ालों को देखने की भी फुर्सत नहीं ! जो वक़्त मिलने पर, इन ज़ालों की सफ़ाई कर दें ? अगर ये चपरासी इस काम के लिए वक़्त जाया करेंगे तो, फिर स्कूल में कहीं बैठकर गप-शप कौन करेगा ? और कौन बड़ी बी के कमरे की खिड़की के बाहर खड़े होकर, कमरे में बड़ी बी और उसके एहाबाबों के बीच हो रही गुफ़्तगू सुनेगा ? यही कारण है, ये मकड़ियां इन चपरासियों की मेहरबानी पाकर, निडरता से छत्त पर ज़ाला बुनती जा रही है ! ताकि, यहाँ उड़ते कीट-पतंगों को, वह इन ज़ालों में फंसाकर आसानी से उनका शिकार कर सके ! इन मकड़ी द्वारा बुने जा रहे ज़ाल को देखकर आयशा को वह मंज़र याद आ गया, जब रशीदा मेडम का हुक्म मानकर आक़िल मियां ने कई कानूनों का हवाला देते हुए इमतियाज़ के ख़िलाफ़ एक्सप्लेनेशन लेटर तैयार किया था ! फिर लेटर पर रशीदा मेडम के दस्तख़त लेकर, इसे रजिस्टर्ड पोस्ट के ज़रिये इसके घर भेजा गया ! असल में कारण यह था, उन दिनों उसके बच्चे के आठवी बोर्ड एग्जामिनेशन चल रहे थे ! और उस बच्चे के को गाइड करने के लिए, इमतियाज़ मेडकल छुट्टी पर चली गयी ! इस मामले में इमतियाज़ ने, अनाधिकृत डॉक्टर का लिखा सर्टिफिकेट पेश कर डाला ! फिर क्या ? बड़ी बी रशीदा ने, इस पूरे केस को डी.ई.ओ. दफ़्तर भेज दिया ! इस मआमले को सुलझाने में, इमतियाज़ के शौहर-ए-नामदार को अपनी नानी याद आ गयी....जब उसके शौहर शिफ़ाअत लगाने डी.ई.ओ. दफ़्तर गए थे, तब न मालुम उनको कलेक्टर, एस.पी. न जाने कितने ओहदेदारों को शिफ़ाअत बाबत फ़ोन लगाना पड़ा ? अब आज़ इस मोहतरमा इमतियाज़ को आक़िल मियां से बदला लेने का मौक़ा मिल गया ! मौक़ापरस्त इंसान की तरह, इमतियाज़ भी इस मकड़ी की तरह आक़िल मियां को लपेटे में लेने के लिए ज़ाल बुनती जा रही है ! वह अपने दिमाग़ में प्लान बना रही है, किस तरह अब आक़िल मियां से बदला लिया जाय ? इस वक़्त इमतियाज़ को स्वेटर बुनते देखकर, उसे ऐसा लग रहा है कि, यह इमतियाज़ स्वेटर नहीं बुन रही है बल्कि मकड़ी की तरह ज़ाल बुनती जा रही है ! आख़िर उसे स्वेटर बुनते देखकर, आयशा उससे सवाल कर बैठती है !]
आयशा – इमतियाज़ ! यह हाथ में, क्या ले रखा है ?
इमतियाज़ – सलाइयां है, फंदे डाल रही हूं...और क्या ?
आयशा – [हंसती हुई, कहती है] – तुम तो यार, उस्ताद ठहरी ! तुम्हारे द्वारा डाले गए फंदो से, शिकार न फंसे...ऐसा हो नहीं सकता, मेरी हमशीरा ! [क़हक़हे गूंजाती है !]
[आयशा की कही गयी गूढ़ बात को इमतियाज़ समझ नहीं सकी, वह बेचारी लाचारगी से छत्त पर मकड़ी को ज़ाला बुनते देखती रहती है ! मंच पर, रोशनी गुल हो जाती है !]
नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” का अंक ११ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र २ शतरंज की सौ चालें होती है, चाल से चाल निकलती है !
[मंच रोशन होता है, मनु भाई की दुकान का मंज़र सामने नज़र आता है ! अभी मनु भाई की दुकान पर कोई ग्राहक मौज़ूद नहीं है ! दुकान की दीवार पर लगी घड़ी के कांटें, बारह के अंक पर आकर रुक गए हैं ! आज़ तो वसीम मियां भी दुकान पर बैठे हैं, उन्हें स्कूल की लड़कियों के आने का इन्तिज़ार है ! इसलिए चुपके से मियां उनको देने के लिए कई टोफियाँ मर्तबान से बाहर निकालकर, अपनी जेब के हवाले कर रखी है ! सामने पत्थर की बैंच पर फन्ने खां साहब शतरंज बिछाए, मनु भाई का इंतिजार कर रहे हैं ! अब कहीं जाकर दुकान पर कोई ग्राहक उनको नज़र नहीं आ रहा है..इस घड़ी का ही उनको इन्तिज़ार रहा है ! अब वे मनु भाई को आवाज़ देते हुए, कहते हैं !]
फन्ने खां – [आवाज़ देते हुए] – अरे, ओ मनु भाई ! आ जाओ, यार बहुत चांदी कूट ली..अब तो ज़रा, इन शतरंज के मोहरों को देख लो ! बेचारे कब से तुम्हारा, इन्तिज़ार कर रहे हैं !
मनु भाई – वाह भाई, सद्दाम साहब ! आख़िर आपकी बुरी नज़र काम आयी, और दुकान पर ग्राहक आने बंद हो गए..अब तो बिरादर, मुझे आना ही होगा ! [वसीम से] वसीम मियां ! ज़रा दुकान पर कोई ग्राहक आये तो, पैसा लेकर उनको सौदा दे देना ! याद रहे, कोई ग्राहक ख़ाली नहीं जाएँ !
[मनु भाई आकर, पत्थर की बैंच पर बैठते हैं ! अब दोनों सोच-समझकर, अपने मोहरे चलाते हैं ! तभी, तौफ़ीक़ मियां दुकान पर तशरीफ़ लाते हैं ! और काउनटर के पास खड़े होकर वसीम मियां से सिगरेट ख़रीदते हैं,, फिर उनसे माचिस लेकर सिगरेट सुलगाते हैं ! इसके बाद लबों पर, उसे रखकर धुएं के छल्ले बनाते हैं ! छल्ले बनाते-बनाते वे इन लोगों का खेल देखने के लिए फन्ने खां साहब के पास आकर खड़े हो जाते हैं ! अब अपनी मूंछों पर ताव देते हुए, फन्ने खां साहब मनु भाई से कहते हैं !]
फन्ने खां – [अपनी मूंछों पर, ताव देते हुए] – मनु भाई ! आज़ तो आप शहंशाह जहांगीर के वक़्त की चालें खेल लीजिये, मगर आप जीतेंगे नहीं ! आपके मोहरे पिट जायेंगे, हमारे मोहरों से !
[मनु भाई हाथी का मोहरा चलाते हुए, फन्ने खां साहब के बादशाह के सामने रख देते हैं ! फिर, ज़ोर से बोल पड़ते हैं !]
मनु भाई – [ज़ोर से बोलते हुए] - किश्त...! बिरादर बचाओ, अपने बादशाह को ! ना तो आपका वजीर क़ुरबान हो गया, समझो !
फन्ने खां – [झुंझलाते हुए] – यह क्या कर डाला, बिरादर ? शरे-ओ-अदब हम तो बदहवास यानी परवाज़े तख़य्युल [कल्पना की उड़ान] में थे ! आपने चढ़ा दिया, हाथी ? वल्लाह, अब बादशाहे तख़्त का क्या होगा ? अब तो हमारे बिगड़े शऊर से, बेचारा वजीर क़ुरबान हो जाएगा !
[शतरंज की चालों को कड़ी नज़रों से देख रहे, मियां तौफ़ीक़ से अब रहा नहीं जाता ! वे झट बिछाए मोहरों में से फन्ने खां साहब का ऊंट उठा लेते हैं, फिर उसे टेडी चलाते हुए, ऐसी जगह रख देते हैं...जहां एक तरफ़ मनु भाई का हाथी इस ऊंट की टेडी चाल में सामने आ जाता है, और दूसरी तरफ़ मनु भाई के बादशाह को भी मिल जाती है किश्त !]
तौफ़ीक़ मियां – लीजिये, मनु भाई ! संभालिये किश्त...अब किसकी हिम्मत है, जो हमारे सद्दाम साहब के वज़ीर की क़ुरबानी लें ले ?
[सद्दाम साहब यानी हमारे फन्ने खां साहब, जिनकी अब बांछे ख़िल जाती है ! अब वे खुशी से, उछल पड़ते हैं !]
फन्ने खां – तौफ़ीक़ मियां, यार ! आप तो छुपे रुस्तम निकले, उस्ताद ! इतने दिन, कहाँ छिपाकर बैठे थे ?
[अब तौफ़ीक़ साहब, सिगरेट का लंबा कश खींचते हैं ! फिर धुएं के बादल छोड़कर, आगे कहते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – गुस्ताख़ी माफ़ करना, फन्ने खां साहब ! मैं तो अदना सा प्यादा हूं, आप जैसे फ़नकारों की सोहबत पाकर इस शतरंज के आलिफ..बे....पे सीख गया हूं ! हुज़ूर आपसे, हमारा क्या मुक़ाबला ?
[इतना बोलने के बाद, तौफ़ीक़ साहब धीरे-धीरे कहने लगे !]
तौफ़ीक़ मियां – [दबी ज़बान में] – अरे, जनाब ! हम तो शतरंज के वह खिलाडी हैं, जो डवलपमेंट कमेटी में आपके लफ्ज़ी इख्तिलाफ़ पर अलीगढ का ताला भी जड़ सकते हैं !
मनु भाई – मियां, क्या बुदबुदाते जा रहे हैं आप ? हमें सुनायी नहीं पड़ा, अरे जनाब आप तो आला चालें चलते आ रहे हैं, ऊपर से कहते जा रहे हैं कि, “यह नाचीज़ तो प्यादा ठहरा !”
[मनु भाई का दिमाग़ अब ठिकाने नहीं, जनाब को कुछ एहसास नहीं हो रहा है कि, वे क्या बोलते जा रहे हैं ? और करते भी क्या ? इंसानी फ़ितरत के तौर पर शह से बचने के लिए झट मनु भाई अपना बादशाह आगे बढ़ा देते हैं ! फिर, यह क्या ? इसी का इन्तिज़ार था, तौफ़ीक़ मिया को ! बस...फन्ने खां साहब का प्यादा आगे बढ़ाकर दे देते हैं मात !]
तौफ़ीक़ मियां – लीजिये, मनु भाई ! देख लीजिये, हम तो शतरंज के प्यादे ही हैं ! आख़िर, एक प्यादे ने दे दी मात आपके बादशाह को !
[मनु भाई ठहरे, शतरंज के शातिर खिलाड़ी ! मात मिलते ही, जनाब की ज़ब्हा पर पसीने की बूँदें छलकने लगी ! इधर उनका दिल, इस हार को कैसे बर्दाश्त कर रहा है, वह उनका ख़ुद का दिल ही जानता है ! तभी दुकान पर लगी दीवार घड़ी पर निग़ाह गिरती है, निग़ाह गिरते ही जनाब का गुस्सा बेचारे वसीम मियां पर उतर आता है ! इस हार के गुस्से के कारण, वे न जाने क्या-क्या बेचारे को सुना देते हैं ?]
मनु भाई – [गुस्से में] – अरे ए उल्लू की औलाद ! पांच-सात रुपयों की कंजूसी, क्या काम की ? घड़ी के सेल बदले नहीं, कमबख़्त ? तेरी इस घड़ी में बारह बजे हैं, और यहां मेरी बज गयी है बारह....अब उठकर तेरी टाट पर चार ठोले मारकर, बजा देता हूं तेरी बारहा ! [उठते हैं]
फन्ने खां – अजी मनु भाई, क्यों बेचारे पर क़हर ढाह रहे हैं आप ? बोलने का ध्यान भी, आपसे रखा नहीं जाता ! बताइये क्या बोला, आपने ? “उल्लू की औलाद ?” अरे जनाब, फिर, आप क्या हैं ? उल्लू के बाप, यानी ख़ुद को भी उल्लू कहते जा रहे हैं ? [लबों पर तबस्सुम बिखेरते हुए] अबे, उल्लू उस्ताद ! अगली बाज़ी कब खेलेंगे आप ?
[अब गुस्से में मनु भाई, एक बार अपने मोहरों पर नज़र डालते हैं ! अभी-अभी मिली है हार, शतरंजी जंगाह में ! वे बेचारे, अब कैसे बर्दाश्त करें ? कि, “उस शतरंजी जंगाह में उनके बादशाह को मिली है ऐसी करारी मार, वह भी एक अदने से प्यादे से ?” उनके वजीर, हाथी और ऊंट जैसे बड़े-बड़े मोहरों की मौजूदगी में, ऐसी करारी हार ? और फन्ने खा साहब के मोहरों को देखा जाय तो, जनाब फन्ने खां साहब लगते हैं शतरंजी जंगाह के शातिर खिलाड़ी..? वाह, हाई वाह ! उनके घोड़े, हाथी, वज़ीर और प्यादे सभी, उनके बादशाह को चारों तरफ़ से बचा रहे हैं ? अब तो उनका यह बुरा हाल हुआ कि, “फन्ने खां साहब का यह अदना सा प्यादा भी, उनको भयानक लगने लगा ! यहाँ तो भैया, फन्ने खां साहब के सारे मोहरे जंगजू की तरह उनके बादशाह की हिफ़ाजत में मुस्तैदी से खड़े हैं ! इतने सारे मोहरों की मौज़ूदगी में मिली इस शर्मनाक हार को, मनु भाई जैसे शातिर खिलाड़ी के लिए क़ुबूल करना अब इतना आसान नहीं ! इस करारी हार के कारण, वे अपना सर पीट लेते हैं !]
मनु भाई – [सर पकडे हुए] – क़िब्ला तौफ़ीक़ साहब, अब कभी न खेलेंगे आपके साथ यह मुई शतरंज ! पहले ध्यान होता तो मियां, हम कभी फन्ने खां साहब के पास आपको भटकने नहीं देते ! आप जैसे उस्तादों के साथ खेलना, तो बस हार का ही मुंह देखना है !
तौफ़ीक़ मियां – [होंठों में ही] – अजी, करें क्या ? रहते हैं, पाली के प्यारा चौक में ! जहां शतरंज के उस्तादों के उस्ताद खिलाड़ी रहते हैं ! हम तो ख़ाली, उनके ख़िदमतग़ार हैं !
[अब तौफ़ीक़ साहब को क्या पड़ी हैं, जो मनु भाई के दिल की बात सुनें ? उनके हाथ में थामी गयी सिगरेट, अब राख में बदल गयी है ! अब वे नयी सिगरेट सुलगाकर, धुएं के गुब्बार उड़ाते हुए कहते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – मनु भाई, ज़रा दिमाग़ पर ज़ोर दीजिएगा ! और इस बात को अपने दिल में उतार लीजिएगा कि, “शतराज की सौ चालें होती है, चाल से चाल निकलती है !”
फन्ने खां – [मनु भाई से] – मनु भाई ! चालों की जानकारी रखने से, उस्ताद की क़ाबिलियत नहीं मानी जाती ! बल्कि, अपने मोहरों को बचाने से उस्ताद की क़ाबिलियत मानी जाती है ! क्यों जनाब, अब तो आप अपने-आपको उल्लू मानते हैं या नहीं ?
[फन्ने खां साहब की तक़रीरों की झड़ी लग चुकी है, मगर उन्हें मालुम नहीं कि, “आली जनाब मनु भाई कब के शतरंज के मोहरे और उसकी जाजम उठाकर अपनी दुकान की तरफ़ क़दम बढ़ा चुके हैं ! और हमारे शतरंज के खिलाड़ी जनाब तौफ़ीक़ मियां, स्कूल के मेन गेट की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा चुके हैं ! जो थोड़ी देर में ही, स्कूल के अन्दर पहुंच जाते हैं ! अपनी दुकान के बाहर साबू भाई, कुर्सी पर बैठे हैं ! वे इस मंज़र को देखकर, ज़ोर-ज़ोर से हंसते हैं ! फिर वे ज़ोर से, फन्ने खां साहब से कहते हैं !]
साबू भाई – [ज़ोर से कहते हैं] – अरे ओ सद्दाम साहब, जनाब अब आपकी तक़रीरें सुनने वाला यहाँ कौन बैठा है ? आँखें खोलकर, देखिये ! किसको दे रहे हैं आप, ये नसीहतें ? मनु भाई जाकर बैठ गए हैं अपनी दुकान पर, और इस वक़्त वे ग्राहकों को किराणे का सामान दे रहे हैं ! यानी, आपकी भाषा में “जनाब, चांदी कूट रहे हैं !”
फन्ने खां – कुछ नहीं दुल्हे भाई, चलिए आप ही मेरी तरफ़ से उनको नसीहत दे देना कि, “एक वक़्त, एक ही काम किया जाता है ! या तो आप शतरंज खेलिए, या फिर दुकान पर आये-गए ग्राहकों का ध्यान रखते रहें ! दोनों काम, एक साथ नहीं किये जा सकते !”
साबू भाई – दे दूंगा, जनाब ! मगर, अब सुनेगा कौन ? बस, आप बड़बड़ाते रहिये पहले की तरह ! शायद आप जैसे निक्कमों पर रहम करके, मनु भाई सुन लें !
[भन्नाए हुए फन्ने खां साहब, नज़रें उठाते हैं ! अरे जनाब, उन्होंने नज़रें ऊपर क्या उठायी ? और सामने क्या देखा, न तो वहां तौफ़ीक़ मियां वहां मौज़ूद हैं और न बैंच पर मनु भाई ! अब तो मनु भाई के दीदार भी नहीं हो रहे हैं, क्योंकि वे वे सौदा लेने आये ग्राहकों से घेरे जा चुके हैं ! जैसे छत्ते पर, मधु मक्खियाँ छाई रहती है ! अब फन्ने खां साहब को लगने लगा कि, “क्या अब-तक वे, पागलों की तरह बड़बड़ा रहे थे ? या वे ख़ुद उल्लू बन गए, जो मनु भाई सरीखे को उल्लू का ख़िताब देना चाह रहे थे...अब यहाँ इस बैंच पर बैठकर, वे क्यों वक़्त जाया कर रहे हैं ? जबकि, मनु भाई तो वक़्त की क़ीमत समझ चुके हैं..और दुकान पर ग्राहकों को सौदा देकर, वे चांदी कूटते जा रहे हैं !” फिर क्या ? फन्ने खां बैंच से उठ जाते हैं, फिर मनु भाई को जहरीली नज़रों से देखते हुए अपने घर की तरफ़ क़दम बढ़ा देते हैं ! उधर स्कूल में “टन टन” की आवाज़ करती हुई घंटी बजती है, मंच की रोशनी धीरे-धीरे गुल हो जाती है !
दबिस्तान-ए-सियासत का अंक ११ राक़िम दिनेश चन्द्र पुरोहित मंज़र ३ सफ़ाई का जुम्मा
[मंच रोशन होता है, प्रेयर के बाद दूसरी पारी की लड़कियां, अपनी क्लासों में जाती हुई नज़र आती है ! क्लास आठ की बच्चियां ठहरी, सफ़ाई पसंद ! धुले हुई वर्दी, बिना इस्त्री की हुई, ये लड़कियां कभी पहनती नहीं ! जहां आठवी क्लास के कमरे की सफ़ाई का जुम्मा, दिलावर खां जैसे चपरासी को दिया गया हो...वहां इनकी सफ़ाई पसंदगी, क्या काम की ? दिलावर खां द्वारा कमरे की सफ़ाई न करने से, कुछ बच्चियां झाड़ू लेने बड़ी बी के कमरे में चली जाती है ! मियां दिलावर खां के पास अतिरिक्त चार्ज है, डाक लाने और ले जाने का ! इस काम के लिए उनको, दफ़्तर से भत्ता भी मिलता है ! दिलावर मियां की एक आदत है, बुरी ! वे बार-बार, बाहर जाने के काम हाथ में नहीं लेते ! जो भी बाहर के काम उनको एक बार सौंप दिए गए हो, वे सभी काम बाहर निकलने पर एक साथ पूरा कर देते हैं ! फिर, बार-बार, बाहर नहीं जाते ! बाहर से लौटते भी उस वक़्त, जब बच्चियां क्लासों में बैठ गयी हो ! तब उनको बहाना मिल जाता है कि, “क्लासों में, बच्चियां बैठी हुई है ! इस कारण उनको उठाकर, सफ़ाई नहीं की जा सकती !” सौंपे गए कामों में कोई एक भी काम ऐसा हो, जिसको अंजाम नहीं दिया जा सकता...तब मियां सभी बाहर के काम रोककर, इस बस्ती में कहीं भी वक़्त काटने चले जाया करते हैं ! मगर सफ़ाई करने के वक़्त, स्कूल में मौज़ूद नहीं रहते ! इधर-उधर वक़्त गुज़ारने के बाद, जनाब जब वापस स्कूल में आते हैं,,,तब काम न करने का कारण पूछने पर, वे प्राय: कई बहाने गढ़ लेते हैं ! इस तरह, वे काम न होने का कारण बता दिया करते हैं ! फिर, अगले दिन वे बाहर निकलकर, सभी काम निपटा देते हैं ! आज़ भी कुछ ऐसा ही हुआ, डाकखाने से बॉयज फंड के रुपये विड्रोल करवाकर लाने थे ! मगर, विड्रोल करने का निर्धारित समय निकल गया था ! इस तरह डाकखाने से पैसे लाना संभव नहीं रहा, तब जनाब इधर-उधर कोलोनी में वक़्त जाया करके शेष बचे सभी काम को मुतलवी करके वापस स्कूल लौट आये ! आते वक़्त, दालान में उनकी मुलाकात तौफ़ीक़ मियां से हो जाती है !]
तौफ़ीक़ मियां – [दिलावर से] – कहाँ उड़न छू हो गए, मियां ? कहीं जनाब कनकौआ [पतंग] उड़ाने चले गए, या कहीं नशा करने....?
दिलावर खां – [झेंप मिटाते हुए] – मुकर्रम बन्दा परवर आपकी फ़ितरत ही कुछ ऐसी ठहरी, जनाब आप इतनी बड़ी नातिका रखकर हम जैसे ख़ादिमों की सच्ची बात को झूठी बता दिया करते हैं ! गुस्ताख़ी न करें, जनाब ! हम कहीं दुनिया ज़हान को छोड़ नहीं जा रहे हैं, वसूक न हो तो देख लें...वक़्त, अपनी हाथ घड़ी से !
तौफ़ीक़ मियां – अजी ख़ादिम साहब, आप कहाँ झूठ बोलने वाले ? कह दीजिये ज़रा, एलकार-ए-ट्रेज़री ने बिल लिया नहीं...डाकखाने का वक़्त हो गया, और यह सब देर हुई तौफ़ीक़ साहब आपके कारण ! [तल्ख़ आवाज़ में] हमें क्या ? कहीं भाड़ में जाओ आप, आपके जैसे अक्लेकुल इंसानों के पास काम न करने के बहुत बहाने होते हैं !
दिलावर खां – तौबा...तौबा ! क्यों मियां, काहे हमें आब-आब करने में तुले हैं आप ? यह क्या कह डाला, आपने ? क्या, हम बहानेबाज़ हैं ? ख़ुदा रहम ! एक पाक मजार के ख़ादिम के लिए, आपने ऐसी बेदरेग़ बात कह डाली...?
तौफ़ीक़ मियां – बस, कह दिया आपको ! आपसे अपना फ़र्ज़, निभाया नहीं जाता ! अस्तग़फ़िरुल्लाह ! कर लिया मैंने तौबा, अब कुछ कहा तो....जाइए, आठवी के क्लास रूम में तशरीफ़ रखिये, फिर अपनी इन आँखों से देख लीजिएगा हक़ीक़त ! हमें इस तरह, अफ़सोशनाक ज़हालत से ना गुजारें !
[बेदिली से दिलावर मियां उधर क़दम बढ़ा देते हैं, जहां उन्होंने डाक की थैली रखी है ! तभी, उनको बड़ी बी की आवाज़ सुनायी देती है !
बड़ी बी – [अपने कमरे से] – ज़रा इधर आना, तौफ़ीक़ मियां !
तौफ़ीक़ मियां – [वहीँ से, ज़वाब देते हैं] – आया, हुज़ूर !
[हाथ में पानी से भरा लोटा लिए, तौफ़ीक़ मियां बड़ी बी के कमरे में दाख़िल होते हैं !]
तौफ़ीक़ मियां – [लोटा थमाते हुए] – लीजिये, हुज़ूर ! गर्मी बढ़ चुकी है, इधर बिजली भी चली गयी ! अब आप आबेजुलाल से, अपने हलक को तर कीजिये !
[आयशा पानी पीकर, लोटा वापस थमा देती है !]
आयशा – सफ़ाई करना, आज याद नहीं आया ? कहो मियां, इस आठवी क्लास के कमरे में कौन ख़ारोखस साफ़ करेगा ? अभी-अभी आठवी क्लास की बच्चियां शिकायत करके गयी है कि, उनकी क्लास में किसी ने ख़ारोखस नहीं निकाला है !
तौफ़ीक़ मियां – हुज़ूर मुझे जिस-जिस कमरे की सफ़ाई का जुम्मा दिया गया है, उन सभी कमरों से मैंने ख़ारोखस निकाल डाला...और उसे, बाहर भी फेंक आया ! हुज़ूर, गुस्ताख़ी माफ़ हो ! आठवी क्लास की सफ़ाई का जुम्मा, दिलावर मियां को दे रखा है !
आयशा – [नाराज़गी से] – बुलाइए, आक़िल मियां को ! जनाब करते क्या हैं, आज़कल ? स्कूल में बेदरग़ [बिना सोचे-समझे] बदइन्तज़ामी [अव्यवस्था] फैला रखी है ! आख़िर, वे करते क्या हैं ? ख़ुदा रहम, यहाँ तो कोई काम करना भी नहीं चाहता...? अगर आक़िल मियां से चार्ज संभाला नहीं जाता तो कह दे हमें, हम किसी और को यह चार्ज सुपर्द कर देंगे !
[आयशा ने आख़िर, इमतियाज़ की सलाह पर काम करना शुरू कर दिया ! स्कूल के प्रति इतने बड़े वफ़ादार आक़िल मियां के बारे में ऐसा सुनकर, तौफ़ीक़ मियां को अचूम्भा होने लगा...वे विस्मित होकर, आयशा का चेहरा देखने लगे ! इस तरह अपनी ओर उनको ताकते देखकर, आयशा तौफ़ीक़ मियां से कहती है !]
आयशा – क्यों मेरा मुंह ताक रहे हो, मियां ? अब जाओ, आक़िल मियां से कह दो कि, वे झट दिलावर मियां के खिलाफ़ स्पष्ठीकरण तैयार करें और उनके खिलाफ़ यह आरोप लगाएं कि, ‘उन्होंने अपने फ़र्ज़ के प्रति लापरवाही क्यों बरती ? क्यों नहीं उनका मअमाला, डी.ई.ओ. दफ़्तर भेज दिया जाय ?’ अब जाओ, उनसे यह काग़ज़ तैयार करवाकर लाओ !
[तौफ़ीक़ मियां कमरे से बाहर आते हैं, बाहर आकर वे क्या देखते हैं ? कि, कमरे के अन्दर चल रही बातों को सुनने के लिए दिलावर खां बड़ी बी के कमरे की खिड़की के पास कान दिए खड़े हैं ! दिलावर मियां की चोरी इस तरह पकड़े जाने पर, दिलावर खां तौफ़ीक़ मियां से बेबाक होकर बोलने लगे !]
दिलावर खां – [बेबाक होकर, गुस्से से कहते हैं] – क्या लग्व है, मियां ? तरुन्नुम आफ़रीनी को छुपाने की कोशिश न करो ! सभी जानते हैं, अब आप हमारी ज़बान मत खुलवाइये तो आपके लिए अच्छा ! झूठ बोलना क़िब्ला, कोई आपसे सीखे ! कि, फ़र्ज़ क्या है ?
तौफ़ीक़ मियां – आप काहे उबल रहे हैं, आख़िर आप कहना क्या चाहते हैं ?
दिलावर खां – जनाब स्कूल आने का वक़्त सरकार ने सुबह दस बजे का रखा है, मगर आप जैसे मुअज्ज़म इब्तिदाई तैयारी करके ही स्कूल में तशरीफ़ लाते हैं..यानी, [कलाई पर लगी घड़ी को दिखाते हुए] दिन के बारह बजे ! फिर कहिये दूसरी पारी की बच्चियों के क्लास में बैठ जाने के बाद, आप उस कमरे की सफ़ाई का जुम्मा कैसे निभाएंगे ? हक़ीक़त यह है, अभी-तक किसी बच्ची ने शिकायत दर्ज़ न की कि, “तौफ़ीक़ मियां अपने एलोटेड कमरों में, सफ़ाई नहीं किया करते ! उनके कमरों की सफ़ाई, मुफ़लिस शमशाद बेग़म किया करती है !”
[तौफ़ीक़ मियां अब, अपने ख़िलाफ़ कही हुई ऐसी बात क्यों सुनेंगे ? वे तो झट, आक़िल मियां के कमरे की तरफ़ अपने क़दम बढ़ा देते हैं ! मंच की रोशनी, गुल हो जाती है !]
कठिन शब्दों के अर्थ – [१] जंगजू =योद्धा, [२] जंगाह =युद्ध का मैदान, [३] शमशीर = तलवार, [४] ख़ारोखस = कूड़ा, [५] ख़ाकदान = कूड़ादान, [६] कनकौआ = पतंग, [७] बेदरेग़ = बिना सोचे-समझे, [८] बदइन्तज़ामी = प्रबंध की खराबी, [९] कलाग़ = कौआ, [१०] ख़ाजिन = ख़जांची, [१२] शिफ़ाअत करना = सिफ़ारिश करना, [१३] परवाज़े तख़य्युल = कल्पना की उड़ान !
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