डॉ. कविता भट्ट जन्म: 06 अप्रैल, 1979, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड शिक्षा : स्नातकोत्त र (दर्शनशास्त्र, योग,अंग्रेजी, समाजकार्य), पीएच .डी .(...
डॉ. कविता भट्ट
जन्म: 06 अप्रैल, 1979, टिहरी गढ़वाल, उत्तराखंड
शिक्षा : स्नातकोत्तर (दर्शनशास्त्र, योग,अंग्रेजी, समाजकार्य), पीएच .डी .(दर्शन शास्त्र-योग),यू.जी.सी .नेट: (दर्शन शास्त्र एवं योग )
सम्प्रति : फैकल्टी डेवलपमेंट सेण्टर, पी.एम.एम.एम.एन.एम.टी.टी., प्रशासनिक भवन II,हे.न.ब.गढ़वाल केन्द्रीय विश्वविद्यालय, श्रीनगर (गढ़वाल), उत्तराखंड -246174
सम्पर्क सूत्र: mrs.kavitabhatt@gmail.com
ब्लॉग : https://neelaambara.blogspot.in
डॉ. कविता भट्ट की कविताएँ
1.कुछ याद सी है
नदी के किनारे जोड़ती
एक पुलिया से चलकर,
वृक्ष-कतारों के झुरमुट
वहीं है मेरा पुराना घर
मिट्टी और पत्थरों की
खुरदुरी दीवारों के ऊपर,
पठालियों से छत है बनी
लकड़ी-जंगला उस पर
घर के किसी कोने में
उसी जंगले से सटकर,
बैठी होगी आँखें गड़ाए
ओढ़कर वह अस्थि-पंजर
घने पेड़ों के बीच निरन्तर
व्याकुल हो मन डोलता है
पाँखले वाली बूढ़ी औरतों को
सुनता और कुछ बोलता है
कुछ याद सी है- धुँधली
बुराँस-चीड़-बाँज-अँयार
बूढ़ी आँखें जो जोर देकर,
पिघल आती होंगी गालों पर
चूल्हे से लग पूछती होंगी पता
दिल्ली की सँकरी गलियों का
और रोटी की खातिर भटकते
गुम अपने बहू और बेटे का
2.कौन -सी चर्चा चलती है
पहाड़- पीठ पर बँधे बच्चे- सा
फिर भी शान से चलती है
खेतों में खपती है हर दिन
इसके पालन को निकलती है
हँसती चेहरे पर झुर्री ओढ़े
पानी-गोबर-मिट्टी में पलती है
हर दिन उसका अठारह घंटे का
रात कराहती करवट बदलती है
पीटता उसे जो, माथे पर सिंदूर सजा
सवेरे की आस प्रतिदिन मचलती है
मेरे पहाड़ की एक-एक घुँधरी
हर रोज अग्नि-परीक्षा से निकलती है
रात वाले घाव आँसुओं से धोकर
बोझे ढोती, गिरती और सँभलती है
वैज्ञानिक युग में महिला विकास की
न जाने कौन सी चर्चा चलती है
3.पहाड़ी की ओर
सूरज निकलते ही
कभी खुलता था
पहाड़ी की ओर
जो बन्द दरवाज़ा
साथी दरवाजे से
सिसकते हुए बोला-
बन्धु! सुनो तो क्या
है अनुमान तुम्हारा
हमें फिर से क्या
कोई आकर खोलेगा
घर की दीवारों से
क्या अब कोई बोलेगा
इस पर कई वर्षों से
बन्द पड़ी एक खिड़की
अपनी सखी खिड़की की
सूनी आँखों में झाँककर
अँधेरे में सुबकती रोने लगी
इतने में भोर होने लगी
दरवाजे भी चुपचाप हैं
खिड़कियाँ भी हैं उदास
खुलने की नहीं बची आस
मगर सच कहूँ? न जाने क्यों
इन सबको है हवा पर विश्वास
लगता है; सुनेगी सिसकियाँ
पगडंडियों से उतरती हवा
पलटेगी रुख शायद अब
धक्का देकर चरमराते हुए
पहाड़ी की ओर फिर से
खुलेगा- बन्द पड़ा दरवाजा
चरमराहट के संगीत पर
झूमेंगी फिर से खिड़कियाँ
घाटी में गूँजेंगी स्वर -लहरियाँ
4.न जाने वह किस बात पर ऐंठा है?
सच- पीड़ा से कराहते पहाड़ों का
रोती नदियों-सिसकती घाटियों का
दर्द- खेतों से पेट न भरने का
बर्तनों-गागरों के प्यासे रहने का
जानकर भी अनजाना- सा बैठा है
न जाने वह किस बात पर ऐंठा है?
सच- सर्दी में धधकते वनों का
बिना रोपे ही सूखे उपवनों का
खाली होते पंचायती स्कूलों का
सूखते झरनों गुम बुराँस फूलों का,
जानकर भी अनजाना -सा बैठा है
न जाने वह किस बात पर ऐंठा है?
सच- पहाड़ी घरों के खाली होने का
वीरान आँगन वानर-राज होने का
जाल बुनती सड़कों के नारों का
बिकते मूल्यों, बिकते झूठे वादों का
जानकर भी अनजाना सा बैठा है
न जाने वह किस बात पर ऐंठा है?
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5.नशे का अँधेरा भविष्य
पहाड़ी गाँव की पगडंडी
और सड़क पर बिखरे
कुछ टूटी हुई शीशियाँ
कुछ बोतलों के ढक्कन
आँखें भरीं याद आए
युवा लड़खड़ाते कदम
कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ
कुछ बिखरे हुए कंगन
बिखरे बाल डूबी साँसें
गहरे दुःख परदे झलमल
आह निकली एक दिल से
और तब थम गई धड़कन
गाढ़ा पसीना संस्कार मान
सब नशे में घोल आया
शेष- कुछ टूटी शीशियाँ
कुछ बोतलों के ढक्कन
ताश में सब झोंक आया
पास पत्नी के बचे अब
कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ
और चन्द टूटे हुए कंगन
पत्नी झुर्रियाँ ओढ़ बैठी
अपने समय से पहले ही
बच गए बच्चों के पास
टूटे खिलौने कुछ बर्तन
बस्ते और कॉपी पेन को
मिला था निश्छल बचपन
बीता ढाबों की टेबल पर
सोते बोरी पर, धोते जूठन
ऊँची पहाड़ी पर ऊँघता है
ढलते सूरज- सा प्रतिदिन
शेष- कुछ टूटी शीशियाँ
कुछ बोतलों के ढक्कन
6.टूटे मकान में
क्या मेरे टूटे मकान में वे फिर से आएँगे
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे
उमंगों वाला एक सुन्दर संसार लिये आए
मन में यादों का दीप जलाकर चले गए
उन्हें विदाई दी, तो उनकी याद आती रही
लौटी भारी कदमों से पथरीले पुराने घर में
किचन-बाथरूम न कोई सुविधा थी जिसमें
बरसात में रिसते टप-टप उसी जर्जर में
टीवी, फ्रिज, कम्प्यूटर न ही मोबाइल
वह कुछ न था; जो उन्हें चाहिए (था)
चारों ओर घने पेड़ बाँज-बुराँस-अँयार
चीड़ के पत्तों की मधुर बाँसुरी-सितार
वे चले गए सब सुख-शांति त्याग
जहाँ मैं आती थी खेतों से थककर
कोदे की घी वाली रोटी खाकर
और सोती थी गहरी नींदें लेकर
मुझ संग पशु पलते थे इस घर
और दूध पीती थी मन भरकर
जबकि मेरे पास नहीं थे बिस्तर
मैंने सोचा शायद वे अपने घर चले गए
पता चला सुविधाओं में कहीं और ठहर गए
मैंने सोचा -अब मैंने उसको भुला दिया
पर उसकी यादों ने मुझको रुला दिया
अब सोचती हूँ यही रह-रह कर कि
क्या मेरे टूटे मकान में वे फिर से आएँगे?
जिनके आते ही मेरे सपने रंगीन हो जाएँगे
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