चौथा पत्र बर्लिन से 21 सितम्बर प्रिय बब्बू, सुखी रहो राम जाने तुम्हें मेरे पहले वाले पत्र मिले भी होंगे या नहीं। मैं यही मानकर निरन्तर तुम्ह...
चौथा पत्र
बर्लिन से
21 सितम्बर
प्रिय बब्बू,
सुखी रहो
राम जाने तुम्हें मेरे पहले वाले पत्र मिले भी होंगे या नहीं। मैं यही मानकर निरन्तर तुम्हें लिखता जा रहा हूँ कि मेरे सभी पत्र तुम्हें बराबर मिल रहे होंगे।
सार्थकता जहाँ सर्वोपरि है
आज बर्लिन आये हम लोगों को पूरा हफ्ता हो गया है। इस हफ्ते में हम लोग बहुत व्यस्त रहे और बर्लिन को खूब घूम फिर कर देखा। आसपास के इलाकों में भी हम लोग गये और कई संस्थानों, संस्थाओं और कारखानों में हम लोग घूमते फिरते रहे, मिलते रहे और इस देश को निकट से देखते रहे। अब मेरे पास लिखने को बहुत है, तो भी मैं जानता हूँ कि मैं उतना सब नहीं लिख पाऊँगा जितना कि लिखा जाना चाहिये। इन पत्रों के द्वारा मेरा उद्देश्य इस देश के बारे में नीरस आँकड़े लिख कर किसी तरह का प्रचार करना नहीं है। मैं तो उन बातों पर विशेष जोर दे रहा हूँ जो लगती बहुत छोटी हैं पर जिनके अर्थ कहीं गहरे होते हैं। जैसे आज अठारह दिन हो गये हम लोगों ने इतने भ्रमण के बावजूद इस देश में एक भी बच्चा रोता हुआ नहीं देखा। एक भी कार, बस या ट्रक या ट्रेक्टर का हॉर्न नहीं सुना। भौंकता हुआ कुत्ता नहीं देखा, हाथापाई करते हुए आदमी नजर नहीं आए और व्यर्थ की बहस या निकम्मी गपशप किसी रेस्तराँ या चौराहे पर होते नहीं देखी। न कोई ऊलजलूल नारेबाजी, न कोई अनचाही भीड़, न कोई धक्का-मुक्की। ये सारी बातें बहुत छोटी हैं पर किसी देश के चरित्र से इन बातों का बहुत गहरा सम्बन्ध है। काश! मैंने कहीं भी एक भी क्यू टूटता हुआ देखा होता। कोई आदमी क्यू को तोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता। गलत जगह से सड़क पार करते हुए किसी को नहीं देखने पर हम लोगों को न जाने कैसा लगता रहा है। क्या तुम विश्वास करोगे कि इतना घूमने फिरने के बाद भी हम लोगों ने मुश्किल से दस महिलाएँ गर्भवती देखी होंगी? मेरे पाठक इस बात पर शायद मेरी आलोचना करेंगे कि मैं वहाँ क्या यही सब देखने गया था? पर बब्बू! मुझे बहुत आनन्द हो रहा है यह लिखने में कि कितनी कम आबादी बाला देश होते हुए भी जी. डी. आर. परिवार नियोजन के प्रति बिना किसी आन्दोलन के अत्यन्त सजग है। अनावश्यक बच्चे पैदा करना इस देश की फितरत नहीं है।
सैक्स : शरीर की निकम्मी भूख नहीं-
जब बात गर्भवती महिला की आती है तो मुझे यह लिखकर बहुत सुख मिल रहा है कि इस देश में ज्यों ही साढ़े तीन महीने से ऊपर का गर्भ हुआ कि उस महिला को एक विशेष तरह का वस्त्र पहनना होता है जो एप्रीन की तरह का होता है। दूर से ही पता चल जाता है कि सामने वाली महिला गर्भवती है। बात यहीं समाप्त नहीं होती। उस महिला को एक विशेष टोकन या कार्ड दे दिया जाता है, जिसे बताने मात्र से उसे फिर किसी क्यू में खड़ा नहीं होना पड़ता। वह भीड़ से बचायी जाती है और सर्वत्र प्राथमिकता के आधार पर बैठने का स्थान पाती है। उसकी समुचित देखभाल का पूरा जिम्मा सरकार का होता है। जच्चा और बच्चा दोनों की सारी देखभाल डाक्टरों के जिम्मे हो जाती है। उसे भरपूर निर्वाह का पैसा मिलता है और जब बच्चा पैदा हो जाता है तो उसके साल भर बाद तक उसे पर्याप्त रुपया अपने खर्च के लिए घर बैठे मिलता रहता है। साल भर के बाद वह महिला इत्मीनान से अपने काम पर लौट सकती है और अपने पुराने स्थान पर निश्चिन्त होकर काम कर सकती है। लेकिन वहाँ इतने (आर्थिक) आकर्षण के बावजूद बच्चे कम पैदा किये जाते हैं। एक गोष्ठी में मैंने वहाँ के एक जिम्मेदार व्यक्ति से जब यह पूछा कि आखिर आपके देश में बच्चे कम क्यों पैदा किये जाते हैं? तो उन महाशय ने मुझे उत्तर दिया कि जब स्त्री और पुरुष सबेरे आठ बजे से रात को साढ़े आठ बजे तक कठोर परिश्रम करें और अत्यन्त व्यस्त दिनचर्या जियें तो बच्चा पैदा करने की शारीरिक स्थिति कैसी होती होगी, इसका अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। बात मेरे गले उतर गई। सेक्स इस देश में विलास नहीं है, वह शरीर की निकम्मी भूख भी नहीं है।
यूसाडेल से बर्लिन लौटने के दिन हम एक ट्रेड यूनियन के दफ्तर में खाना खाने गये और जब उस ट्रेड यूनियन के विशाल हाली-डे-होम में घूम रहे थे तब मैंने उसे एप्रीन के आधार पर पहचान लिया कि जो लड़की इस समय हमारी गाईड है, वह गर्भवती है। मैंने उससे पूछा कि आपको इससे पहले कितने बच्चे हैं, उसका निस्संकोच उत्तर था, जी यह मेरा पहला गर्भ है। मैंने और हमारे सभी मित्रों ने बारीकी से देखा कि इस प्रश्न और उत्तर के समय उसकी आंख में कोई झिझक या व्यर्थ की लज्जा नहीं थी। वह सन्तुलित थी, पर उसका अतिरेक एकाएक उस समय फूट पड़ा, जब मैंने उससे कहा- आपके प्रथम पुत्र के जन्म के उपलक्ष में मेरा हार्दिक अभिवादन स्वीकार करें और यदि सम्भव हो तो उस बच्चे को पहला चुम्बन भारत की ओर से दें। मेरा यह कथन सुनते ही उसकी आँखें बरबस बह चलीं और वह सब कुछ भूल कर मुझसे लिपट सी गई। पहले गर्भ से उसे पुत्र होगा, यह शुभकामना मात्र ही उसके लिए आनन्ददायक थी। होता यह है कि हम दुभाषियों के माध्यम से बात कर रहे होते हैं, तब भावों का सम्प्रेषण, वाक्य समाप्त होते ही नहीं हो जाता है। पर माँ अन्ततः माँ होती है। नारी केवल नारी होती है। व्यवस्था और वातावरण उसकी कोमलता को नष्ट नहीं कर पाते। इसका प्रमाण यह छोटी सी घटना है। भगवान उस कन्या को पुत्र ही प्रदान करे।
स्कूली बच्चे : कितने सहज, कितने समझदार
बर्लिन आने से पहले हम लोग एक और काउण्टी के केन्द्रीय नगर में ले जाए गये। यहाँ हमें जवाहरलाल नेहरू स्कूल में ले जाया गया। पण्डितजी के नाम पर सात समन्दर पार इतना अच्छा स्कूल चलना अपने आप में एक सुखद उपलब्धि है। यह भारत का गौरव है। जिस शहर में यह स्कूल चल रहा है उसकी आबादी 30 हजार के आसपास होगी किन्तु मैं कह सकता हूँ कि ऐसा स्कूल भारत में शायद बम्बई व दिल्ली में भी नहीं होगा। स्कूल में सारी कार्यवाही का संचालन 12 वर्ष तक की उम्र के बच्चों ने किया। उन्होंने तरह-तरह के गीत गाये और अपने स्कूल की गतिविधियों की कई स्लाईडें अपने प्रोजेक्टर पर हमें दिखाईं। इन स्लाइडों की कामेण्ट्री भी वे बच्चे ही कर रहे थे। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के जी. डी. आर. दौरे के समय उस स्कूल के बच्चों ने उनसे भेंट की थी। उस भेंट की कुछ पारदर्शियाँ हमें बच्चों ने दिखाई। इस में सबसे अन्तिम पारदर्शी जो दिखाई गई वह थी पकवानों से सजी सजाई एक टेबल। याने हमारे दोपहर के भोजन की पूर्व सूचना।
इस स्कूल के बच्चों ने एकाएक हमसे कहा कि अब आप लोग हमसे मनचाहे प्रश्न कर सकते हैं। सारा प्रतिनिधि मण्डल एकाएक सन्नाटे में आ गया। सन्नाटा बच्चों ने ही तोड़ा। एक मिनिट तक जब उनसे किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया तो एक बच्चे ने अपनी ओर से प्रश्न किया कि आप भारत के कौन-कौन से प्रान्तों से आये हैं और क्या आप हमें अपना परिचय देंगे?
उस स्कूल में मैंने दो गीत गाये। पर जब सारा कार्यक्रम समाप्त हुआ तब हम लोग नीचे उनकी मेस में गये, तो मैंने देखा कि वहाँ सैकड़ों बच्चे भोजन कर रहे हैं। कहीं शोर-शराबा नहीं था। हमारे दल को अपने बीच पाकर भोजन करते हुए एक बच्चे ने उठकर कहा माननीय महानुभाव! आईये, हमारे साथ भोजन कीजिये। हमने सुना है कि आपके दल में एक कवि भी है, क्या वे कवि महाशय हमें अपनी कोई रचना सुनायेंगे? और सारी मेस तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज गई। मैं गीत गाता रहा। बच्चों ने खाना रोक दिया और जब दुभाषिये ने उन्हें पूरा गीत समझाया तब फिर उन्होंने मेरा अभिवादन किया। मेरे लिये यह सब कुछ किसी कविता से कम नहीं था। इतने निस्संकोच, ताजा और उमंग भरे मुखर बच्चे मैंने अपने जीवन में शायद पहली बार देखे थे। हमारा दोपहर का भोजन इस स्कूल की ओर से था, पर था वह एक शानदार होटल में। स्कूल के बाल प्रतिनिधियों ने हमारे साथ भोजन किया पर किसी किस्म की बीयर या शराब या सिगरेट उन्होंने हमारे सामने नहीं पी। हाँ, उनकी शिक्षिकाएँ अवश्य यह सब सेवन कर रही थी।
सफर निःशुल्क हो गया तो?
बर्लिन अपने आपमें एक अद्भुत शहर है। इसकी प्राचीनता और आधुनिकता दोनों अपनी-अपनी जगह बेमिसाल हैं। सारे शहर में आवागमन के पर्याप्त साधन हैं। जमीन के अन्दर चलने वाली मेट्रो मैंने पहली बार देखी। यह गाड़ी बहुत तेज चलती है। इस गाड़ी में हम लोग कोई 3-4 स्टेशन तक गये। मेट्रो के ऊपर बिजली से चलने वाली सामान्य रेलें हैं और फिर ट्राम, बसें और कारें हैं। किसी यात्री पर कोई चेकिंग नहीं। हमारे अस्सी पैसे याने उनके बीस पैसे का टिकिट लो और मनचाहा घूमो। टिकिट की मशीन रहती है, खुद ही टिकिट निकालो और उसे खुद ही पन्च करो तथा सफर शुरु करो। वैसे टिकिट के लिये खिड़की पर आदमी भी बैठता है। वक्त-बेवक्त वहाँ क्यू भी लगते हैं, पर कोई यात्री बिना टिकिट सफर नहीं करता। पन्च किया हुआ टिकिट दूसरी बार काम नहीं आता। लोग एक ही बार जितना पैसा होता है उतना टिकिट निकाल लेते हैं। अपने पास रखते हैं। सफर शुरु करने से पहले उस टिकिट को पन्च कर लेते हैं। बेईमानी की पूरी गुंजाईश है पर कोई बेईमान हो तो बेईमानी करे! आप क्यू में खड़े हैं, आपके पास टिकिट के लिये यदि बीस पैसे नहीं है तो आपका पड़ोसी अपनी जेब से 20 पैसे आपको टिकिट के लिए दे देगा। संगोष्ठी में मैंने जब उन 20 पैसों के बारे में जानकारी ली, तो संगोष्ठी के प्रमुख ने मुझे बताया कि हमें यह बीस पैसा मशीन से खजाने तक पहुँचाने में 28 पैसा खर्च करना पड़ता है, याने प्रति टिकिट आठ पैसे का घाटा। सरकार यह सोच रही है कि वहाँ ऐसी यात्री फ्री कर दी जाये ताकि इस घाटे से देश को बचाया जा सके। बर्लिन की आबादी कोई 11 लाख है और वहाँ इन साधनों से प्रतिदिन कम से कम 10 लाख आदमी सफर करते हैं। इससे तुम प्रतिदिन के घाटे का अन्दाजा लगा सकते हो। यदि देश में यह ट्रांसपोर्ट मुफ्त कर दिया तो सारे संसार में तहलका मच जाएगा। उधर रूस के अर्थशास्त्री इस मुद्दे पर काम कर रहे हैं कि पूरे रूस में डबल रोटी मुफ्त हो जाए। तुम सोचो, अगर रूस में डबल रोटी मुफ्त और जी. डी. आर. में शहरी भ्रमण निःशुल्क हो गया तो संसार का अर्थशास्त्र किस मोड़ पर जाकर खड़ा हो जाएगा?
बसों, रेलों और ट्रमों में फाटक अपने आप खुलते हैं, अपने आप बन्द होते हैं और बच्चों, अपाहिजों, बीमारों तथा घायलों के लिये सीटें अलग से चिह्नित की हुई रहती हैं। यदि ऐसा कोई व्यक्ति सफर नहीं कर रहा तो तो उन सीटों पर कोई भी बैठ सकता है।
जी. डी. आर. में मैंने विकलांग बहुत देखे। शायद यह सब युद्ध का अवशेष है, पर मुझे बहुत आश्चर्य हो रहा है कि वहाँ मुझे अन्धे, काने और ऐंचकताने चेहरे देखने को नहीं मिले। होंगे जरूर पर अपने हिसाब से रहते होंगे। महिलाओं में एक विशेष खब्त देखा। वे अपने आपको काला या साँवला बनाना और दिखाना चाहती हैं। इसलिये पाँवों में कमर तक के साँवले और हल्के साँवले रंग के नायलॉन के स्लेक्स पहनना वहाँ बहुत प्रचलित हैं। तुम कल्पना करो कि टाँगें साँवली और हाथ-मुँह गोरे! कैसी लगती होंगी ऐसी महिलाएँ?
बर्लिन का आकर्षण : टेलीविजन टॉवर
बर्लिन में मुख्य चौक पर वहाँ का आधुनिकतम विशाल टेलीविजन टॉवर है। यह टॉवर विज्ञान का एक चमत्कार ही कहा जाएगा। जमीन से 365 मीटर ऊपर गगनचुम्बी ऊँचाई लिये यह टेलीविजन टाॅवर मीलों दूर से दिखाई पड़ता है। इसकी लिफ्ट अद्भुत है। कोई 260 मीटर ऊपर इसमें एक आधुनिकतम रिवाल्विंग कैफे बना हुआ है, जिसमें बैठकर दर्शक चाय काफी पीते हुए एक घण्टे तक बर्लिन को दूर-दूर तक आराम से देख सकते हैं। दर्शक अपनी सीट पर ही बैठे रहते हैं और होटल पूरा एक चक्कर लगा लेता है। सारे संसार में यह काफी हाऊस “टेली कैफे“ के नाम से मशहूर है। हम 21 लोगों का इस काफी हाऊस में काफी और केक खाने का बिल कोई 220 मार्क याने केवल 880 भारतीय रुपयों का आया। टॉवर की प्रवेश फीस अलग है, जो कि प्रति व्यक्ति शायद दो या पाँच मार्क है। इस टॉवर पर से पूर्वी और पश्चिमी बर्लिन साफ दिखाई पड़ता है। बर्लिन की ऐतिहासिक दीवाल यहाँ बैठकर देखने वालों के लिए अपने सारे अर्थ खो देती है। इस टॉवर पर हमारे दल के अधिकांश सदस्यों ने एक काम जानबूझकर किया। वह काम है धरती पर 260 मीटर की ऊँचाई से पेशाब करना।
बर्लिन में प्रायः तीन तरह के पेशाब घर बने होते हैं। होटल के अपने कमरों में पेशाब करने के सिवाय यदि कोई बाहर किसी मूत्रालय में मूत्र विसर्जन करता है तो उसे वहाँ के दस, बीस या तीस पैसे चुकाने पड़ते हैं। याने भारतीय हिसाब से 40, 80 और 120 पैसे हुए। व्यवस्था और स्थान के हिसाब से मूत्रालय तीन श्रेणियों में बँटे हुए हैं। भारतीय जलवायु में पले हुए शरीरों से, ठण्डे प्रदेशों में चाय, काफी, बीयर और व्हिस्की तथा कोला आदि पेय अधिक पीने के कारण बार-बार मूत्र विसर्जन के लिए जाना पड़ता है। तुम इसे मजाक समझोगे, पर यदि कोई व्यक्ति बर्लिन में एक महीना रहे और दिन में 4-5 बार भी पेशाब करने के लिए ऐसे पेशाब घरों में जाए तो भारत सरकार जितनी विदेशी मुद्रा उसे देती है वह सारी की सारी केवल इसी काम में खर्च होने की पूरी सम्भावना सर पर मँडराती रहती है। पर टेलीविजन टॉवर पर जब मैंने इस काम की शुरुआत की तो लोग एक दूसरों से चिल्लर-पैसा उधार लेकर बाथरूम में घुस गये। इस टॉवर को देखने के लिए संसार भर के यात्री यहाँ भीड़ बनाये खड़े रहते हैं।
इस टॉवर के ठीक नीचे मैंने पहली बार भारत की प्रसिद्ध पुतली विशेषज्ञा पत्तोबाई से बात की। जिन दिनों हम लोग जी. डी. आर. में घूम रहे थे, उन दिनों वहाँ भारतीय हस्त शिल्पकला की एक प्रदर्शनी चल रही थी। कोई श्रीमती प्रसाद इस प्रदर्शनी की इंचार्ज थी और मधुबनी तथा राजस्थान के कई कलाकार वहाँ अपनी कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे। पत्त्ोबाई ग्वालियर की हैं और राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत हैं। यह दल गये कुछ महीनों से यूरोप में घूमकर अपनी कला प्रदर्शनी लगा रहा है। मकवाना के एक राजस्थानी शिल्पी से जब मैंने मालवी बोली में बात शुरु की तो वह अपनी कठपुतलियों का तमाशा रोककर मेरे पास आकर मुझसे बात करने लगा। महीनों बाद उसने अपनी बोली सुनी। उसे बिलकुल विश्वास नहीं हुआ कि यहाँ कोई उससे उसकी बोली में बोलने इस तरह आ जाएगा।
और बच्चे तब भी नहीं रोएँगे
बर्लिन शहर में घूमते हुए हमारी गाईड, हमारी चलती हुई बस में हमें लाउडस्पीकर पर अंग्रेजी में गलियों और इमारतों का परिचय दे रही थी। तब एक स्थान पर एकाएक श्रीमती रुथ ने गाड़ी रुकवाकर मुझसे कहा कि मिस्टर बैरागी आप कुछ देर के लिये सामने वाली इमारत में चले जाईये, आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी। आप दो हफ्तों से हमारे देश में रोता हुआ बच्चा ढूँढ रहे हैं, वह आपको इस इमारत में मिल जाएगा। जब मैंने उस इमारत का परिचय जानना चाहा, तो रुथ ने हँसते हुए बताया कि वह बर्लिन का प्रसिद्ध जच्चाखाना है और हमारे बच्चे यहाँ जन्म लेते हैं। पर जब बस चली तो श्रीमती रुथ ने बहुत गम्भीर होकर मुझसे कहा कि मेरे कवि मित्र! हम लोग समाजवाद की ओर से साम्यवाद की ओर बढ़ रहे हैं। हमारा बस चला तो हम यह प्रयत्न करेंगे कि हमारी व्यवस्था में बच्चा पैदा होते समय भी नहीं रोये। बच्चों को प्रसन्न रखना हमारा एक राष्ट्रीय दायित्व है। यद्यपि यह बात तब हँसी में उड़ा दी गई थी, पर इस बात के पीछे एक छटपटाता हुआ संकल्प मुझे साफ दिखाई दे रहा है। असम्भव को सम्भव करने के लिये ये लोग कितने आतुर हैं!
जब बी. बी. सी. पर समाचार आया कि पाकिस्तान ने हमारे अपहृत हवाई जहाज को अपनी सूझबूझ और विवेक से बचा लिया है तथा सभी यात्रियों को अपना मेहमान बना लिया है, तब हम लोगों में हर्ष की लहर व्याप्त हो गई। हमारे मेजबान देश ने भी अच्छा महसूस किया। तुम्हें मालूम है कि इस हवाई जहाज में राजस्थान के मन्त्री श्री गुलाबसिंह शक्तावत (जो मेरे निजी मित्र हैं) भी सफर कर रहे थे। मैं बहुत चिन्तित था।
जी. डी. आर. में हमारे राजदूत श्री अरविन्द देव एक सुलझे हुए व्यक्ति हैं और अत्यन्त आदर पाते हैं। जिस इमारत में भारतीय दूतावास है, उसी में पाकिस्तान का दूतावास भी है। नीचे की मंजिल पर पाकिस्तान और ऊपर की मंजिल पर भारत के झण्डे लहराते हुए दूर से दिखाई पढ़ते हैं। श्री देव से हमारी मुलाकात कोई तीन बार हुई। पहली बार उनके कार्यालय में। दूसरी बार इण्डिया क्लब के स्वागत समारोह में और तीसरी बार आज की काकटेल पार्टी में। काकटेल पार्टी को मैंने ”मयूरपंखी पार्टी”़ कहना ठीक समझा। लोगों ने रात को कोई दो बजे तक शराब पी। शराब क्या, तरह तरह की शराबें पी। मैं वहाँ से रात साढ़े आठ बजे ही लौट आया और तुझे पत्र लिखने बैठ गया। अभी तक लोग उस पार्टी से लौट रहे हैं। अधिकृत तौर पर यह कार्यक्रम हमारा इस यात्रा का अन्तिम कार्यक्रम था।
‘नमूने’ मिल ही गये
आज दिन में हम लोग खरीददारी के लिये बाजार में गए। खरीददारी क्या करनी थी, एक रस्म अदाई मात्र थी। जो कुछ थोड़े पैसे हमारी जेबों में थे, उनसे क्या लिया जा सकता था? कुछ भी तो नहीं। पर टी. वी. टॉवर के पास बना हुआ बर्लिन का मुख्य बाजार “सेन्ट्रम” अपने आप में एक विशालतम बाजार है। मेरा ऐसा अनुमान है कि इस बाजार में प्रतिदिन नहीं नहीं तो भी एक या डेढ़ करोड़ रुपयों का सौदा बिकता होता। अलग-अलग मंजिलों पर चित्रों द्वारा उन सभी चीजों के संकेत कर दिये गये हैं जो कि आप वहाँ खरीद सकते हैं। काउण्टरों पर सारा काम लड़कियाँ देखती हैं। इस बाजार में एक लड़की के व्यवहार ने हमें निराश किया। जब मैं अपने मित्रों के लिये बाल पेन खरीदने के लिये क्यू में काउण्टर पर पहुँचा तो उस लड़की ने न तो उस क्यू की परवाह की न उस देश की परम्परा की ही। उल्टे, वह लोगों से मुँहजोरी करती रही। हम लोग कुछ नहीं बोले। इस देश में हमारे लिये नया अनुभव था।
रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल ने मुझे कोई चालीस मिनट के लिये रेकार्ड किया। 12 मिनिट कविताएँ और 28 मिनिट भेंटवार्ता। कविताएँ वे लोग 23 सितम्बर को प्रसारित करेंगे। इस सारे रेकार्डिंग का जो भी पैसा मुझे मिलने वाला था, वह मैंने हमारे शिष्ट मण्डल की तरफ से वहाँ के इण्डिया क्लब को विनम्र भेंट के रूप में अर्पित कर दिया है। मुझे नहीं पता कि यह राशि कितनी होगी। पर इण्डिया क्लब के सदस्य इस घोषणा से चकित भी थे और हर्षित भी। कोई चालीस परिवार यहाँ भारत के हैं। वे यहाँ विभिन्न स्तरों पर अपने काम करते हैं। रेडियो बर्लिन इन्टरनेशनल में पटना की कुमारी पुष्पा सिन्हा काम करती हैं। अच्छी गायिका हैं। कहती थी कि उन्होंने मेरे कई गीत यहाँ-वहाँ गाये हैं। ये सब लोग यहाँ इण्डिया क्लब के सदस्य हैं और हर महीने नियमित तौर पर मिलते रहते हैं। इण्डिया क्लब के समारोह में मेरी भेंट मेरे मित्र, संसद सदस्य श्री शशिभूषण वाजपेयी के पुत्र प्रशान्त से हुई। प्रशान्त मेरा परिचित है और जी. डी.आर. में फिल्म का कैमरामैन बनने का प्रशिक्षण ले रहा है।
भारतीय फिल्में याने सत्यजित राय-
फिल्म की बात चलने पर तुम्हें यह अविश्वसनीय लगेगा कि भारत के श्री सत्यजित राय को छोड़कर इस देश के लोग हमारी किसी भी फिल्मी हस्ती को नहीं पहचानते। हमारी फिल्में वहाँ चलती भी नहीं हैं। इन दिनों हमारे होटल के पास ही यहाँ के प्रसिद्ध निर्देशक श्री इंगमार बर्गमेन की एक फिल्म चल रही है, पर हम लोग उसे नहीं देख पाये। मेरा और दिनेश भाई का बड़ा मन था इस फिल्म को देखने का।
कल सुबह हमें साढ़े ग्यारह बजे यह होटल छोड़ देना होगा। मैं अपनी एक इच्छा यहाँ अपूर्ण ही छोड़कर जा रहा हूँ। मेरी बहुत इच्छा थी कि मैं जी. डी. आर. की महान कवयत्री श्रीमती अन्ना सेगर से मिलूँ पर मैं नहीं मिल पाया। दूसरी इच्छा हम सबकी थी दक्षिण में लिपजिग जाने की, पर वह भी अपूर्ण ही रह गई। लिपजिग का विशाल मेला अभी समाप्त हुआ है और दक्षिणी प्रान्तों के सारे होटल भरे पड़े हैं। ठहरने का स्थान नहीं है अन्यथा शायद हम लोग उधर ले जाये जाते।
समर्पित समाजवादी वे लोग-
मैं बहुत सोच समझकर एक वाक्य लिखना चाहता हूँ। इस वाक्य को तू कम से कम दस बार पढ़। शायद दस बार पढ़ने पर भी यह वाक्य तेरी समझ में नहीं आएगा। क्या तू, मैं या और कोई तेरा-मेरा साथी अपने दिल पर हाथ रखकर ऐसा कह सकता है कि हम सबसे पहले कांग्रेसमेन हैं, बाद में भारतीय? शायद हम नहीं कह सकेंगे। यदि हम ऐसा कहेंगे तो हमें देशद्रोही माना जाएगा। पर यहाँ एक संगोष्ठी में जी. डी. आर. की विदेशी नीति के प्रबल स्तम्भ एक महानुभाव ने जब पहला ही वाक्य यह बोला कि हम सबसे पहले सोशलिस्ट हैं, बाद में जर्मन, तो सारे कमरे में सन्नाटा खिंच गया। वे सज्जन निरन्तर एक घण्टे तक जी. डी. आर. की विदेशी नीति पर धारा प्रवाह अंग्रेजी में बोलते रहे और जब एक घण्टा पूरा हो गया, तो उन्होंने कार्यक्रम के अनुसार हमसे कहा अब आप प्रश्न करने के लिये स्वतन्त्र हैं। इतना सुलझा हुआ वक्तव्य कमरे में तैर चुका था कि केवल हमारे सहयात्री श्री के. एन. सेठ ने मात्र दो प्रश्न किये और कार्यक्रम समाप्त हो गया। जिस देश के नागरिकों और नीति निर्धारकों का मस्तिष्क इतना साफ, सुथरा, नपा-तुला और सुस्पष्ट हो, उस देश पर प्रश्न बहुत कठिनाई से हो पाते हैं। समाजवाद के प्रति ये लोग कितने समर्पित हैं और अपने लक्ष्य के प्रति कितने स्पष्ट हैं, इस बात का आभास मात्र उसी वाक्य से हो जाता है कि हम सबसे पहले सोशलिस्ट हैं, बाद में जर्मन। मैं नहीं कह सकता हूँ कि भारत में हम लोग इतना स्पष्ट चिन्तन कभी काँग्रेस की राजनीति में ला भी पायेंगे या नहीं।
संगोष्ठियों का चरित्र प्रायः सभी दूर एक सा ही रहता है। पहले परिचय, फिर प्रवक्ता का वक्तव्य और बाद में प्रश्न-उत्तर। दो घण्टे तक चलने वाला यह कार्यक्रम एक घण्टे तक प्रवक्ता के जिम्मे होता था और शेष एक घण्टे में सवाल जवाब होते थे। देखने को यह समय दो घण्टे का दिखाई पड़ता है, पर काम उसमें एक ही घण्टे का होता था। क्योंकि सारा काम दुभाषिये की मदद से होता था, इसलिये हर संगोष्ठी का आधा समय रूपान्तर में बीत जाता था।
दिनचर्या के बारे में मैं तुझे लिख चुका हूँ। पर इस देश में नाश्ता के लिये एक घण्टा, लंच के लिये दो घण्टे, शाम की चाय के लिये फिर एक घण्टा और डिनर के लिये फिर दो घण्टे। इस तरह हमारे छः घन्टे तो खाने-पीने में ही निकल जाते थे। लेकिन बचा हुआ समय जो कि कोई आठ या नौ घण्टे का होता था, इतनी व्यस्तता में बीतता था कि शरीर थककर चूर हो जाता था।
जहाँ पुलिस प्रकट होती है
दफ्तर हो, कारखाना हो या कोई और संस्थान हर जगह तीन पदाधिकारी निश्चित तौर पर रहते हैं। पहला मैनेजर या जनरल मैनेजर, दूसरा ट्रेड यूनियन का पदाधिकारी और तीरा पार्टी का एक सक्षम पदाधिकारी। दोनों का तालमेल अद्भुत होता है। विवाद पहले ये तीनों आपस में निपटाते हैं। यदि इन तीन से विवाद नहीं निपटे तो फिर बात आगे जाती है। पर उसका अन्तिम निर्णय पार्टी के दफ्तर में होता है। इस देश में न्यायाधीश नियुक्त नहीं होते, चुने जाते हैं। इस देश में पुलिस पहुँचती नहीं, प्रकट होती है। कहीं कोई ऐसी वैसी बात हुई तो दस सेकण्ड के भीतर पुलिस ने वहाँ प्रकट हो जाना चाहिए अन्यथा पुलिस पर सख्त कार्यवाही होती है। सामान्यतया पुलिस दिखाई नहीं पड़ती है। जीवन के कार्य कलाप में दखल भी नहीं देती है। पर ज्यों ही कानून टूटा कि दस सेकण्ड में पुलिस न जाने कहाँ से प्रकट हो जाती है। पता ही नहीं चलता कि यह पुलिस वाला कहाँ से आ गया। हर पुलिसमेन के पास अपनी मोटर सायकल और वायरलेस सेट रहता है। ट्रेफिक पुलिस का सारा काम महिलाएँ देखती हैं, और उनके पास एक लम्बा, डण्डे जैसा शस्त्र होता है जो दूर से केवल डन्डे जैसा लगता है, पर उसके भीतर वस्तुतः होता है, दूर तक मार करने वाला एक तमंचा। जो भी वाहन ट्रेफिक का नियम तोड़ता है और चेतावनी की अवहेलना करता है, उसका टायर वहीं फोड़ दिया जाता है। चालक की सजा अलग और सवारियों को अलग से दण्ड।
इस सप्ताह हम लोग संसार प्रसिद्ध ओरवो फिल्म कम्पनी के उस प्रभाग को देखने गये, जहाँ एक्सरे की निगेटिव फिल्में बनाई जाती हैं। हमें बड़ी उमंग थी कि हम यह फैक्ट्री घूम-फिर कर देखेंगे। पर संगोष्ठी और प्रश्नोत्तर काल के बाद जब हमने फैक्ट्री देखने की इच्छा व्यक्त की तो हमें बताया गया कि महाशय सारा निर्माण कार्य निगेटिव फिल्मों का होता है और आप जानते हैं कि ऐसा निर्माण अँधेरे में किया जाता है। मशीनें सब ऑटोमेटिक हैं। आप मात्र मशीनों का शोर सुन सकते हैं। देख कुछ नहीं सकते। फिर एक विशेष तरह के इन्फ्रारेड प्रकाश में से आपको गुजरना पड़ेगा, जिसके लिये आपके पास विशेष पोषाक होना चाहिये। इस स्थिति में उस फैक्ट्री के भीतर जाना ही हमारे लिये असम्भव था। जाते भी कैसे। जब मैंने वहाँ बताया कि मेरा बड़ा बेटा फिल्म में सहायक कैमरामेन है और ओरवो फिल्म उसकी प्रिय फिल्म है, तो प्रबन्धक बहुत प्रसन्न हुए।
इस समारोह में मैंने गीत पढ़े। पर समारोह का सबसे अधिक अविस्मरणीय प्रसंग यदि है तो वह है भाई दिनेश गोस्वामी का पैंतालीस मिनिट का धुँआधार अंग्रेजी में भाषण और भारत सरकार की उपलब्धियों पर शानदार भाषण। इस भाषण को भी कभी नहीं भुला पाऊँगा। उन्होंने इतना ही अच्छा भाषण काकटेल पार्टी में भी दिया। जैसा कि तय था हमारी नेता श्रीमती फूलरेणु गुहा, श्री प्रफुल्ल गढ़ई और श्री प्रसाद साहब, कल मास्को के लिये रवाना हो चुके हैं। नेता की अनुपस्थिति में केवल दो दिन के लिये हमने कोई नया नेता नहीं चुना। पर दिनेश भाई अपने आप, सबके द्वारा हमारे मुख्य प्रवक्ता मान लिये गये। उनके जिम्मे कस्टम की क्लियरेंस तक का सारा काम उसी तरह कर दिया गया है, जिस तरह कि गुहा दीदी को करना होता। वैसे हमारे प्रतिनिधि मण्डल के सचिव श्री श्रीधरन स्वयं सारा काम देख ही रहे हैं।
संधि : जिसने हिटलर की शव पेटिका पर कीलें ठोंकी
यों तो हमारा हर क्षण महत्वपूर्ण कामों में बीता, पर इस सप्ताह में सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन मुझे वह लगा, जब हम श्रीमती रुथ की व्यवस्था में पोत्सडम देखने गये। यह वह शहर है जहाँ सन 1945 में महत्वपूर्ण चर्चा, जर्मनी के भाग्य को लेकर हुई थी। जर्मनी का बँटवारा इसी शहर में तय हुआ। इंगलैण्ड, फ्रांस, रूस और अमेरिका ने इसी शहर में बैठकर हिटलर के सपनों का अन्तिम संस्कार किया। नाजीवाद और फासिस्टवाद की शव पेटिका पर मजबूत कीलें इसी शहर में ठोकी गई। इस चर्चा का सबसे अधिक उत्तेजक और दिलचस्प पहलू यह है कि जिन दिनों हिटलर का पतन हुआ, उन दिनों इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री सर विन्सटन चर्चिल थे और इस चर्चा के दौरान ही इंगलैण्ड में आम चुनाव भी चल रहे थे। चर्चिल युद्ध का विजेता था और भारत की आजादी का विरोधी। नौ दिन तक चर्चा करने के बाद श्री चर्चिल और श्री एटली दोनों इंगलैण्ड अपने चुनाव के लिये गये। किन्तु जब दो दिन बाद चुनाव परिणाम निकला तो इंगलैण्ड का महान् प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी सहित आम चुनाव में हार गया। तब पोत्सडम के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिये प्रधानमन्त्री के नाते श्री एटली वापिस आये। जब यह सन्धि हुई, तब तेरा जन्म भी नहीं हुआ था। और तो और बर्लिन के बँटवारे की भूमिका भी यहीं तय हो गई थी। तुम सोचो कि युद्ध का विजेता एक प्रधानमन्त्री युद्ध के तत्काल बाद उसके देश की जनता द्वारा अमान्य कर दिया जाए, चुनाव में हरा दिया जाए, उसकी और उसकी पार्टी की नीतियों को जनता ठुकरा दे, तब उस पर कैसी बीती होगी? इस महान् सन्धि पर एटली ने ब्रिटेन की ओर से, रुजवेल्ट ने अमेरिका की ओर से और स्तालिन ने रूस की ओर से हस्ताक्षर किये थे। फ्रांस के जनरल डिगाल ने इस सन्धि को पहले ही अपनी सहमति दे दी थी। तीनों देशों के पाँच-पाँच प्रतिनिधि एक गोल मेज के आसपास जिस जगह बैठे थे, वे कुर्सियाँ, वह कमरा, वह फर्नीचर और वह वातावरण ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा गया है। फ्रांस का दल पोत्सडम नहीं आया था।
यह भवन जिसमें कि यह चर्चा हुई थी, यहाँ के किसी राजा का राजमहल था, जिसमें केवल 176 कमरे हैं। जिस कमरे में जिस देश का प्रतिनिधि मण्डल ठहरा था, उसे वैसा का वैसा सजाकर रखा गया है। गाईड जब इन कमरों को दिखाता है, तब ऐसा लगता है मानो वे सभी सदस्य अभी कहीं बाहर गये हैं और कुछ देर बाद लौटकर चर्चा करने ही वाले हैं। चर्चिल के लिये उसके कमरे में मोटाई के हिसाब से विशेष सोफा रखा गया था। आज उस सोफे के ठीक पीछे एक कुत्ते की बड़ी तस्वीर लगा दी गई है, क्योंकि चर्चिल को कुत्ते से बहुत प्यार था।
इस सन्धि को दुनिया तक पहुँचाने के लिये पत्रकारों का जो दल आया था, उसमें अमेरिका की ओर से जॉन एफ. केनेडी नामक 23 वर्षीय एक पत्रकार भी शामिल था, जो आगे जाकर अमेरिका का, इस शताब्दी का सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति बना। जब गाईड मुझे यह सब समझा रहा था और पत्रकारों का कक्ष दिखा रहा था, तब मेरी आँखों के सामने तेरी शक्ल मँडरा रही थी।
इसी शहर में हम लोग फ्रेड्रिक द्वितीय का विशाल राजमहल भी देखने गये। फ्रांस और इटली के कलाकारों की विशाल कलाकृतियाँ इस महल की सर्वाधिक मूल्यवान धरोहर है। औसतन प्रतिदिन तीन हजार से पाँच हजार तक यात्री इस महल को और पोत्सडम सन्धि स्थल को देखने के लिये आते हैं तथा अपनी भावांजलियाँ अपने राष्ट्र नायकों को अर्पित करते हैं। इस सन्धि चर्चा के दो चित्र यहाँ दिवालों पर लगे हैं, उनमें स्तालिन की मुद्रा देखने योग्य है। गोल मेज पर एक सतर्क चीते की तरह पैनी आँखों से चर्चाकारों को देखता हुआ, अपनी कुर्सी में तनकर बैठा स्तालिन वास्तव में एक महान राष्ट्रनायक और प्रबल विजेता का साक्षात अवतार लगता है। शायद तू जानता होगा द्वितीय विश्व युद्ध में अकेले रूस के दो करोड़ आदमी मारे गये थे। अपने इन दो करोड़ शहीदों को रूस कभी नहीं भुला पायेगा। हिटलर के बर्बर अत्याचार और नाजियों की नालायक करतूतों का कलंकित इतिहास विश्व मानवता कैसे भूल सकती है? जी. डी.आर. को देखने के बाद ऐसा लगता है कि महान् रूस ने अपने इन दो करोड़ शहीदों की याद को ताजा रखने के लिये जी. डी. आर. की पौने दो करोड़ आबादी को शायद ”गोद” ले लिया है। जिस तरह जी. डी. आर. का विकास हो रहा है, जिस तेजी से यह राष्ट्र उभर रहा है, उससे संसार के राजनीतिज्ञ आज यह भविष्यवाणी करते हैं कि हो न हो आने वाले 10 वर्षों में जी. डी. आर. रूस के लिये भी एक चुनौती नहीं बन जाए। पर मैं कह सकता हूँ कि ऐसा होगा नहीं। जी. डी. आर. एहसान-फरामोश देश नहीं है।
इंच-इंच पर मौत : बर्लिन की दीवार
बर्लिन की दीवार पर लोगों ने बहुत लिखा है। मैं उस पर ज्यादा लिखना नहीं चाहता। यह मनहूस दीवार इंच-इंच बिजली के करण्ट से भरी पड़ी है। सफेद रंग के विशेष प्रसाधन से इस दीवार की चद्दरों का निर्माण किया गया है। सारा परिश्रम और सामग्री जी. डी. आर. की है। दोनों ओर सेना का सख्त पहरा है। बर्लिन का बटवारा बिलकुल बनावटी लगता है। पश्चिम बर्लिन मीलों दूर दूर तक चारों ओर जी. डी. आर. से घिरा पड़ा है। रूस चाहता तो बर्लिन का बटवारा अस्वीकार कर सकता था। पर तब तत्काल तीसरा विश्व युद्ध हो जाता। विश्व शान्ति के नाम पर पूँजीवादी देशों ने समाजवादी देशों से कितना बड़ा धोखा किया है, इसे देखना हो तो कोई बर्लिन की दीवार देखे। मैंने इस दीवार को 50 गज दूर से देखा है। एक मौत का सन्नाटा दीवार पर इंच-इंच चिपका सा लगता है। बर्लिन के निवासी इधर उधर जाने आने के लिए पास लेते हैं, सीमा शुल्क अदा करते हैं और पास की अवधि समाप्त होते ही वापस अपने-अपने इलाके में लौट जाते हैं। एक रेलवे स्टेशन की तो यह स्थिति है कि रेल की एक पटरी पश्चिम बर्लिन में है, दूसरी पूर्वी बर्लिन में। स्टेशन पर कब्जा जी. डी. आर. का है और स्टेशन उपयोग करता पश्चिम बर्लिन है। दीवार को गैरकानूनी तरीके से पास करने का मतलब है गोली का शिकार हो जाना। दीवार की मोटाई कुल एक टिन की चद्दर की है, पर लंबाई पूरे बर्लिन के आरपार है।
मँहगाई और कीमतों के बारे में दोनों पक्षों के अपने-अपने दावे हैं। पर मैंने पाया यह है कि जो खाना पूर्वी बर्लिन याने जी. डी. आर. में 6 या 7 रुपयों में मिलता है, वही खाना पश्चिम बर्लिन में 60 या 70 रुपयों में मिलता है। इसलिए पश्चिम के कई लोग छः मार्क सीमा शुल्क देकर अक्सर पूर्वी बर्लिन में खाना खाने के लिये आते हैं। दीवाल पर चेकिंग बहुत कड़ी होती है और मुद्रा की जाँच बहुत मुस्तैदी से की जाती है। मुद्रा की अवैध हेराफेरी का मतलब है, सीधे सात साल की सजा। सारी कार्यवाही केवल एक घण्टे में पूरी हो जाती है। सात वर्षों के खाने पीने की व्यवस्था जेल में सरकार की ओर से मुफ्त हो जाती है।
नारी : इतनी सम्मानित
एक संगोष्ठी में मैंने प्रश्न उठाया कि आखिर इस देश में नारी का इतना सम्मान क्यों है? तो जो उत्तर मिला, वह साम्यवादियों की भावुकता का परिचायक था। मुझे बताया गया कि युद्ध के बाद इस देश में एक ऐसा भी क्षण आया था, जब पुरुष एक और महिलाएँ सात का अनुपात आया था। ऐसी स्थिति में इस सारे देश को बचाना और बनाना यह काम खुले तौर पर वहाँ की नारी ने किया है। नारी के प्रति अतिरिक्त आदर का शायद यह भी एक आधार है।
एक एक कमरे में 4-4 कक्षाओं के विद्यार्थियों को 4-4 घन्टे तक एक ही मास्टर ने पढ़ाकर इस देश को उस समय शिक्षा दी थी। मास्टर गाँव-गाँव सायकल से जाते थे और इसी तरह बच्चों को पढ़ाते थे। उस देश में आज बच्चों के लिये बीच शहर में चेकोस्लाविया पद्धति पर जो नये स्कूल बनाये जा रहे हैं वे अलग से अध्ययन के विषय हैं। वे स्कूल तीन मंजिले हैं। सबसे निचली मंजिल में बच्चों के खेलने के खिलौना भवन बने हुए हैं। दूसरी मंजिल में बाग-बगीचे, पार्क और खेल के मैदान तथा तीसरी मंजिल पर पढ़ाई के कमरे। बच्चों की पढ़ाई को कमरों में बैठना जरूरी नहीं है। वे पहली मंजिल से खेलते कूदते अपने आप कक्षाओं में आ जाते हैं। यकीनन वे पढ़ाये नहीं जाते, पढ़ते जाते हैं। उनकी रुचि का अध्ययन तीन वर्षों की उम्र से ही कर लिया जाता है।
बर्लिन के विश्व प्रसिद्ध हमबोल्ट विश्वविद्यालय में आज पैंतीस हजार विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं। इनमें 50 विद्यार्थी हिन्दी और संस्कृत पढ़ रहे हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर नेस्पीटाल यहीं काम करते हैं। विश्वविद्यालय भवन के ठीक सामने वह लायब्रेरी है, जहाँ युद्ध के वक्त नाजियों ने कई कीमती ग्रन्थ और पाण्डुलिपियाँ जला-जला कर खिड़कियों से बाहर फेंक दी थी। गाईड गर्व के साथ हमें कहती थी कि मार्क्स इसी विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था।
पास ही नाजियों के जुल्म से शहीद हुए अज्ञात शहीदों की याद में विशाल ”ज्योति स्मारक” बना हुआ है। यहाँ सेना के पहरे में अखण्ड ज्योति आठों प्रहर जलती रहती है। जब सिपाही पहरा बदलते हैं, तो वह दृश्य दर्शनीय होता है। पहरा हर आधे घण्टे में बदला जाता है। आधा घण्टे तक वे जवान ज्योति द्वार पर अविचल, प्रस्तर मूर्तियों की भाँति खड़े रहते हैं।
सारे देश में उन भवनों का नवीनीकरण हो रहा है जिन पर लाल सेना और नाजियों के बीच आमने-सामने गोलीबार हुआ था। सड़कों पर लाल सेना थी और भवनों के भीतर नाजी गोलियाँ चला रहे थे। विशाल भवनों की दीवारें गोलियों से छलनी हुई आज भी देखी जा सकती हैं। महात्मा गाँधी और पण्डित नेहरू के साथ भारत में रहे डॉक्टर फिशर जब इस गोलीबार के बारे में हमें बताते थे, तो उनके शब्द एक अनजानी वेदना में डूब-डूब जाते थे।
पीपुल्स पैलेस : एक अनुभव
”पीपुल्स-पैलेस” जिसे कि वहाँ का संसद भवन कहा जाता है, के ठीक बाजू में स्प्री नदी के किनारे एक विशाल राष्ट्रीय स्मारक का पुनः निर्माण जोरों से चल रहा है। इस स्मारक को कैसा बनाया जाए, इस पर सारे देश में मत-संग्रह किया गया। जनता ने मत दिया कि इसका पुराना स्वरूप कायम रखकर इसका नवीनीकरण कर दिया जाय। करोड़ों रुपयों की यह योजना आने वाले साल दो साल में आनन-फानन पूरी हो जाएगी।
प्रारम्भ के दो दिन इस होटल में किसी का मन नहीं लगा। जब श्रीमती रुथ या श्रीमती इमी साथ होती थी, तो व्यवस्था अच्छी रहती थी। पर ज्यों ही व्यवस्था दूसरों के हाथ में जाती थी कि कुछ न कुछ ऐसा-वैसा हो ही जाता था। लाण्ड्री में कपड़े धुलवाने के लिये हमें विशेष पूछताछ करनी पड़ी। यदि लाण्ड्री का बिल हम लोगों को चुकाना पड़ता तो शायद, हम अपने परिजनों के लिये एक कलम भी नहीं खरीद पाते।
जी. डी. आर. के सांस्कृतिक मन्त्री ने हमें लम्बी भेंट देकर उपकृत किया। जब मैंने उनके साथ फोटो खिंचवाने का आग्रह किया, तो वे अपने कार्यालय की इमारत से बाहर फुटपाथ पर आकर खड़े हो गये और टी. वी. टॉवर की पृष्ठभूमि लेकर फोटो खींचने का निर्देश अपने कैमरामेन को देने लगे। हम लोग चहल-पहल भरे फुटपाथ पर एक महत्वपूर्ण मन्त्री के साथ खड़े थे। पर यातायात में कोई व्यवधान नहीं हुआ। किसी ने हमारी ओर ध्यान भी नहीं दिया। वहाँ मुझे उस कथन पर हँसी आई, जब बार-बार पूँजीवादी देश कहा करते हैं कि साम्यवादी देशों के मन्त्री व राजनेता खुली सड़कों पर घूमने से डरते हैं। कितना गलत है यह कथन?
किसी भी भारतीय या जर्मन मित्र ने हमें अपने घर आकर चाय पीने का निमन्त्रण नहीं दिया। पर श्री सेठ 4-5 बार असद भाई के यहाँ हो आए और मैं श्री गुप्ता तथा श्री सेठ, श्री सुनील दासगुप्ता के यहाँ भोजन के लिए गये। मेरा व्रत था। मैंने केवल फल लिये, पर श्री दासगुप्ता, जिन्हें कि लोग वहाँ ”रामू दादा” के नाम से जानते हैं, की जर्मन पत्नी ने बढ़िया भारतीय भोजन बनाकर श्री सेठ व श्री गुप्ता को तृप्त कर दिया। इस भोज के समय पंजाबी लोक गीतों का एल. पी. रेकार्ड भोजनगृह में पूरा भारतीय वातावरण बना रहा था।
ईश्वर और भाग्य गैर हाजिर रहे
इस देश को छोड़ने की कल्पना मात्र से एक गहरी उदासी हम सबको घेर रही है। अपने-अपने कमरों में हमारा हर सदस्य जाग रहा है। सब एक दूसरे को टेलिफोन कर रहे हैं- मैं लिख रहा हूँ। सोने के प्रयत्न में सब जाग रहे हैं। सबको प्रतीक्षा है अपनी हवाई टिकटों की। टेलीफोन पर श्री गुप्ता मुझसे पूछ रहे हैं कि हमारी हवाई जहाज की स्पीड क्या होगी। मेरे कमरे से लगा हुआ ठीक पास वाला कमरा श्री सेठ का है और उसके ठीक पास श्री गुप्ता का। सामने वाली पंक्ति में श्री शर्मा का कक्ष है और हम लोग टेलीफोन पर ऐसे ही प्रश्न कर रहे हैं। जब मैंने श्री गुप्ता को बताया कि हमारा हवाई जहाज हमें 850 मील प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ाकर भारत ले जाएगा, तो श्री गुप्ता किलोमीटरों के मील बनाकर उसमें गति का भाग दे रहे हैं कि हम कितने घण्टों में भारत पहुँच जाएंगे। यह मानसिक विकलता है।
18 दिन हो गये इस देश में। मैं हजारों मील घूमा। सैकड़ों लोगों से मिला। पचासों जगह गया- बीसों संगोष्ठियों में सवाल-जवाब करता रहा पर कहीं भी मुझे एक शब्द सुनने को नहीं मिला, वह शब्द है ईश्वर। एक और शब्द भी कहीं नहीं सुना। वह है भाग्य।
अब कल मैं तुझे मास्को से फिर लिखूँगा। आखिर वहाँ समय कटेगा कैसे? इन दिनों जी. डी. आर. में भारत के दो प्रतिनिधि मण्डल और घूम रहे हैं। एक है संसद सदस्यों का और दूसरा है शिक्षा शास्त्रियों का। म.प्र. के डी. पी. आई. श्री सत्यम् इस शिष्ट-मण्डल में हैं। हम कोई भी इन शिष्ट-मण्डलों से नहीं मिले। समय ही नहीं मिला।
मैं स्वस्थ्य हूँ और आज जब रेल्वे स्टेशन पर वजन की मशीन पर तुला तो 69 किलो उतरा। यहाँ आया था तब 67 किलो था। दो किलो वजन और हजारों मित्रों की यादें लेकर मैं तुझे अपने आत्मीय स्नेह देता हूँ। जल्दी ही भारत में भेंट होगी।
भाई
बालकवि बैरागी
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