जल तू जलाल तू प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास प्रबोधकुमार गोविल प्रथम संस्करण विकास कम्प्यूटर एण्ड प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा,...
जल तू जलाल तू
प्रकृति और जीव के अन्तःसम्बन्धों का सशक्त उपन्यास
प्रबोधकुमार गोविल
प्रथम संस्करण
विकास कम्प्यूटर एण्ड प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110 032
जिन्दगी के तपते रेतीले रास्ते पर झरने की तरह टपकती बीते समय की रेखा के नाम...!
दुर्गम यात्रा के पहले...
पानी में बहुत ताकत है। सही मौसम में यह पथरीले बीज के भीतर घुसकर एक भरा-पूरा पेड़ निकाल लाता है। चन्द छींटों से भड़कती ज्वाला का मान-मर्दन कर देता है। स्वाति नक्षत्र में सीप के कलेजे में उतरकर उसे मोती कर छोड़ता है।
पानी ने इन्सान पर अपना हक कभी नहीं छोड़ा। कभी उसका खून सफेद कर दिया, तो कभी इन्सानी रिश्ते रेत कर छोड़े।
इस उपन्यास में एक ऐसी औरत की कहानी है जिसकी माँ को एक बाल्टी पानी ने बचपन में उससे छीन लिया। इसलिए जब अमरीका के विशालकाय तूफानी झरने ‘नायग्रा’ ने अपना घुमड़कर बहता जलजला उसके बेटे की जान के पीछे लगाया तो वह बदहवास होकर बौखला उठी।
इसी उपन्यास में एक ऐसे किशोर की भी कहानी है जिसने दुनिया के महानतम झरने की शक्ल में बहते पानी को उसी तरह पी जाने का सपना देखा, जिस तरह कभी पवनपुत्र हनुमान ने जलते सूरज को हलक में रख लेने का दुस्साहस किया था।
इस उपन्यास की चादर पर लाल-काले-पीले दाग उन जिन्दगियों के भी लगे हैं जो कुदरत के जन्मचक्र में अपना संवेग खोकर लड़खड़ा गईं। अकस्मात इससे उनका परमतत्त्व खो गया और वे मात्रा ‘आत्मा’ रह गईं।
उपन्यास आपसे यह सवाल भी पूछेगा, कि राष्ट्रीयता क्या होती है? पिता, पति और पुत्र के साथ अपना नसीब बाँधकर औरत जब देश-दर-देश, सीमा बदलती हुई घूमती है तो उसकी राष्ट्रीयता किसके मनमाफिक होती है? औरत का धर्म क्या होता है? औरत की जाति क्या होती है? और शायद ये भी बताने की कोशिश करेगा कि...खुद औरत क्या होती है!
मुझे डर है कि इन तल्खीभरे सवालों में उलझकर आपका मनोरंजन तो शायद ही हो पाए। पर फिर भी मेरी गुजारिश है कि पढ़ते समय थकिएगा मत, तितलियों के पीछे भागती कोई मासूम बच्ची अगर दूर किसी बगिया में निकल भी जाए तो छिपकर नजरों से उसकी हिफाजत कीजिएगा, कहीं उसके पीछे जाता कोई निर्दोष किशोर उसे अकेले में चूम न ले। कहीं एकान्त में किसी गुलजार की मखमली दूब पर लेटे युवा दिल परमात्मा की परीक्षा न लेने लगें।
यह उपन्यास केवल पानी की कहानी नहीं है, यह पानी सूख जाने की भी कहानी है। पानी के सूखते ही धरती भी सूखने लगती है, इन्सान भी जलने लगता है। और तब पश्चाताप की आग में खुद पानी भी सुलगने लगता है। मनुष्य की ईर्ष्या ऐसे में उसके जमीर को भाप बनाकर उड़ा देती है। यह भाप का बादल जब आसमान में परमात्मा की चौखट पर पहुँचता है तो विस्मित परमात्मा घबराकर नीचे झाँकता है। वह सूखे नदी, नाले और ताल फिर से भर देता है। मदमाते युवक फिर से अल्हड़ युवतियों के पेट में ‘अण्डा’ डालने के बहाने खोजने लगते हैं। सब गाते हैं, सब नाचते हैं। जिन्दगी चल निकलती है। आसमान चैन की साँस लेता है।
प्रकृति ने जब इन्सान बनाए तो उन्हें भी अपने-से रूप से सजाया। अपने-से पेड़, अपने-से पत्ते...अपने-से झरने...गन्दे पानी के निकास के झरने, मीठा पानी किसी बदन में टपकाने के झरने, नव-पल्लव पालने के लिए दूध के झरने, रिश्ते बनाने के लिए खून के झरने, अन्तरशुद्धि के लिए मैल के झरने।
झरने सीमाएँ तोड़ देते हैं। ये शिखर से तलहटी तक बहते हैं। आकाश-पाताल की सीमा बन जाते हैं, देशों की सरहद बन जाते हैं, समन्दर के खारे जल का सदानीरा स्रोत बन जाते हैं, और बन जाते हैं इतिहास में दर्ज महानायकों की उम्मीद की नावों के मस्तूल...!
प्रबोध कुमार गोविल
बी-301, मंगलम जाग्रति रेजीडेंसी, 447, कृपलानी मार्ग, आदर्शनगर, जयपुर-302004 (राजस्थान)
जल तू जलाल तू उपन्यास
एक
उस समय कुल ग्यारह लोग थे उस कक्ष में, लेकिन वे पर्यटक थे और अन्य देशों से आए थे। उनकी भाषाएँ भी अलग-अलग थीं, और शायद उनके सोच भी।
लेकिन सब एक ही दिशा में सोच रहे थे। ज्यादातर लोगों का खयाल यही था कि ये आत्महत्याएँ ही थीं, और किसी भी कीमत पर इन्हें रोका जाना चाहिए था। कौन जाने रोकने की कोशिशें हुई भी हों, लेकिन अब वे सब किसी युद्ध के दिवंगत योद्धाओं की तरह इतिहास में दर्ज थे।
अमेरिका के एक छोटे-से नगर बफलो के एक मुख्य मार्ग पर बना यह स्मारक-संग्रहालय उन लोगों की कहानी कह रहा था जिन्होंने कभी विश्व-विख्यात जल-प्रपात ‘नायग्रा फाल्स’ के अत्यधिक ऊँचाई से गिरते पानी में ऊपर से बहकर नीचे आने की खौफनाक कोशिश की थी। कोई नहीं जानता था कि इस दुस्साहस से उन्हें क्या मिलनेवाला था, लेकिन इससे क्या उनके हाथ से छिन गया था, यह अब दुनिया देख रही थी। दुनियाभर के हजारों पर्यटकों ने संवेदना और समर्थन में उनके चित्रों पर हस्ताक्षर किए थे, और हृदय-विदारक सन्देश लिखे थे। पानी, जिसे जीवन-अमृत कहा जाता है, उनका जीवन लील गया था। लेकिन दोष पानी का नहीं, बल्कि उनके जोखिम-भरे खतरनाक इरादे का था। वे सब निस्सन्देह अच्छे तैराक रहे होंगे, किसी ने लकड़ी का बॉक्स बनाकर उसमें अपने को बन्द करके ऊपर से बिजली की गति से बहते पानी में छलाँग लगाईं थी, कोई प्लास्टिक की नौकानुमा पनडुब्बी बनाकर उसमें बन्द होकर ऊपर से कूदा था, किसी ने पैराशूट की भाँति अपने लिए मजबूत पारदर्शक चैम्बर बनाकर, उसमें जल-समाधि ली थी।
लेकिन उन सभी ने सफलता नहीं, बल्कि सफलता के सपने को इतिहास में कैद किया था। इस जल-प्रपात को देखने आनेवाले सभी पर्यटक यहाँ जरूर आते थे और इन लोगों के बारे में जानकर दाँतों तले अँगुली दबा लेते थे।
मैं वहाँ से बाहर निकला तो उन्हीं लोगों के बारे में सोच रहा था जिन्होंने अमर होने के लिए जीवन की बाजी लगा दी। सड़क से थोड़ा आगे जाकर एक कॉर्नर पर विशाल इमारत थी, जिसमें जल-प्रपात देखने के लिए टिकट-घर था।
यहीं पर पर्यटकों के लिए एक बड़ा बाजार भी था, जहाँ आकर्षक चीजें बिक रही थीं। कई देशों के लजीज व्यंजन यहाँ उपलब्ध थे। छोटे से लेकर बड़े तक, सभी लोगों में एक अजब उत्साह था। यह बिल्डिंग जिस तिराहे पर थी, उससे एक सड़क आगे जाकर वाशिंगटन की ओर जानेवाले मुख्य मार्ग से मिलती थी, दूसरी तरफ दरियाई विशाल नहर के समानान्तर जाता रास्ता था, जो ‘वर्लपूल’ के करीब से होकर बफलो विश्वविद्यालय के मनोरम परिसर तक जाता था। तीसरा रास्ता फाल्स की ओर ले जाता था।
यहाँ मेरा ध्यान एक खास चीज की ओर गया। आमतौर पर इतनी तेजी से बहते पानी में किसी भी मछली का अस्तित्व सम्भव नहीं होता, पर ध्यान से देखने पर केसरिया रंग की इमली जैसे आकार की वह मछली मुझे पानी की सतह पर यहाँ कई जगह दिखाई दी। चौड़े पाट की जिस नदी से बेशुमार पानी आकर झरने की शक्ल में गिर रहा था, वह कहीं से बहुत गहरी, और कहीं-कहीं से उथली थी। पानी की धारा की तीव्रता भी अलग-अलग जगह अलग-अलग तेवर लिए हुए थी।
शायद यही पानी भूमिगत रास्ते से निकलकर दो विशाल देशों की सीमा बना रहा था। पानी के उस पार कैनेडा की चित्ताकर्षक इमारतें दिखाई दे रही थीं।
नायग्रा फाल्स के समीप स्थित इसी बफलो विश्वविद्यालय के मुख्यद्वार के पास कुछ युवाओं ने पिछली शाम अपने कैमरे से फोटो खींचते समय एक वृक्ष की पतली-सी टहनी पर किस नजारे को कैमरे में कैद कर लिया, ये शायद वे भी नहीं जानते थे। वैसे भी युवा पर्यटक घूमते हुए जिन कोणों को क्लिक करते हैं, उनमें ज्यादातर चेहरे ही होते हैं। भीड़-भरे पर्यटन-स्थलों से एक-दूसरे के कैमरों में दर्ज होकर न जाने क्या-क्या कहाँ-से-कहाँ तक पहुँच जाता है। बाद में इन्हीं में से कुछ चीजें तरह-तरह से सामने आ जाती हैं, और प्रसिद्ध हो जाती हैं। पेड़ की उस टहनी पर एक छोटा-सा तिनकों से बना घर था, जो यदि किसी चिड़िया का बनाया हुआ होता तो घोंसला कहलाता, पर वह घर ही था, क्योंकि उसे किसी चिड़िया ने नहीं बल्कि इन्सानों ने बनाया था, मात्रा सजावट के लिए।
ऐसा बहुत कम ही हो पाता था कि किसी आने-जानेवाले का ध्यान उस पर जाए, लेकिन अनजाने ही वह किसी कैमरे में दर्ज हो गया। आपस में बातें करते हुए न जाने कितने लोग रोज वहाँ से गुजरते थे। उन लोगों में न जाने कहाँ-कहाँ से आए लोगों का शुमार था।
नायग्रा के गिरते हुए पानी का नजारा देखने के लिए पहले एक लिफ्ट से जमीन से काफी नीचे जाना होता था, फिर शिप में बैठकर लहरों पर किसी राजहंस की-सी शान और गति से अथाह पानी के गिरते दरिया से सामना होता था। पानी
का वेग और मात्रा देखकर लोगों को समुद्र के भीतर बने किसी लोक का अहसास होता था। असीमित पानी के इस दर्शन से पहले या बाद में आसपास के इलाके में घूमना लोगों को शायद इसीलिए सुहाता था। और गुजरे समय के ऐसे ही क्षणों में कई लोगों ने इस उफनते-मचलते सागर को नापने के तरह-तरह से प्रयास किए थे।
कहते हैं कि ऐसे ही स्थानों पर, जहाँ इन्सानी किस्म की कोई सीमा नहीं होती, ‘आत्माएँ’ रहना पसन्द करती हैं। कहा जाता है कि संसार में करोड़ों लोग आते-जाते रहते हैं, फिर भी कुछ लोग दुनिया में आने के बाद विभिन्न कारणों से यहाँ से जाने से रह जाते हैं, जिसमें सुख-दुःख-अन्याय-जिज्ञासा-चमत्कार-दुर्भाग्य- सौभाग्य-संशय आदि विभिन्न कारणों से दुनिया में ही रह जानेवालों का समावेश होता है। शरीर को तो प्राकृतिक रूप से मिला समय पूरा होने पर वापस मिट्टी में मिलना होता है, लेकिन प्राण कई बार इस चक्र से उछटकर संसार में बने रह जाते हैं, और फिर मायावी शक्तियों से अपना अधूरा अभीष्ट पूरा करते हैं। इन्हें ही कहीं कोई भूत-प्रेत कहता है तो कोई आत्मा।
एक पर्यटक के कैमरे में कैद पेड़ की टहनी पे लटके घर ने सबको असमंजस में डाल दिया। यह फोटो कहने को तो साधारण छायाचित्रों की तरह ही खींचा गया था, लेकिन इसमें एक विशेषता अपने आप जाने कहाँ से आ गई थी कि इसे देखते समय इसका रंग और शेड हर बार अलग दिखाई देता था। पर्यटक ने चित्र को एक स्टूडियो में बेच दिया। यह स्टूडियो एक विज्ञापन कम्पनी का था जो दुनियाभर के आकर्षक छायाचित्रों को एक-से-एक आकर्षक विज्ञापनों में काम लेती थी और भारी मुनाफा कमाती थी।
कुछ महीने ही बीते होंगे, कि टर्की के एक फल व्यापारी ने अपने घर के नजदीक एक प्रिंटिंग प्रेस में कदम रखा। व्यापारी बेहद उत्साहित दिखाई दे रहा था। उसका बेटा कुछ दिन पहले ही दुबई से प्रबन्धन की पढ़ाई पूरी करके लौटा था। अब बाप-बेटे ने मिलकर लम्बी-चौड़ी प्लानिंग करके अपने एक्सपोर्ट कारोबार को विस्तार देने की योजना बनाई थी। फल व्यापारी अपने पैकिंग मेटेरियल की डिजाइन लेकर उसे छपवाने आया था। प्रेस ने उसे कई आकर्षक डिब्बों के नमूने दिखाए। इन्हीं डिब्बों में एक बेहद खूबसूरत तिनकों से बने डिब्बे का नमूना भी था। यह देखने में ऐसा लगता था, मानो किसी चिड़िया के बड़े-से घोंसले में ताजे फल रखकर पैक किए गए हों। इस तरह की पैकिंग से फल प्राकृतिक और पर्यावरणीय अभिरक्षा में रखे गए प्रतीत होते थे। इतना ही नहीं, बल्कि छापेखाने के मालिक ने बताया कि यह डिजाइन बिलकुल मौलिक है, इसका प्रतिरूप कहीं उपलब्ध नहीं है क्योंकि प्रेस द्वारा उस डिजाइन का पेटेण्ट करा लिया गया है।
तिनकों से बने डिब्बे का यह नमूना उसी फोटो के आधार पर तैयार किया गया था, जिसे फल व्यापारी की बेटी कभी अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान खुद खींचकर लाई थी। इस डिब्बे की खासियत यह थी कि इसमें रखे फल पेड़ पर लगे फलों की तरह ही दीखते थे, मानो उन्हें वहीं समेटकर तिनकों में लपेटा गया हो।
व्यापारी को यह डिब्बा खूब पसन्द आया, और चन्द दिनों बाद वह उसके द्वारा दुनिया-भर में भेजे जानेवाले फलों की पहचान ही बन गया। डिब्बे को देखकर ऐसा आभास होता था, जैसे ताजे फलों की खुशबू तक डिब्बे में महफूज हो।
दुनिया चल रही है। यह न केवल चल रही है, बल्कि इसकी रफ्तार भी दिन दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है। इसी का नतीजा था कि पतझड़ के बाद बसन्त, और बसन्त के बाद ग्रीष्म ऋतु ने जब दस्तक दी तो बफलो में आनेवाले पर्यटकों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ गई। आनेवाले विदेशी बढ़े तो अमेरिका के इस नगर में फलों की खपत भी बढ़ गई। पर्यटक चाहे जहाँ से आएँ, वे पानी की इस अलौकिक खान का नजारा देखने जरूर आते। नायग्रा देखने आते तो उन्हें उस इमारत में भी आना पड़ता जहाँ से बुकिंग के बाद उनकी इस दुर्दमनीय झरने को देखने की ललक-भरी यात्रा शुरू होती। इमारत के स्टोर्स और केफेटेरिया माल और मनुष्यों से लबालब भरे रहने लगे।
रात के दो-तीन बजे तक पीले और सफेद रंग की सुन्दर-सी लॉरी इमारत की ऊपरी मंजिल पर फल के डिब्बों के अम्बार लगा देती। तीन मजदूर लड़के लिफ्ट से ढो-ढोकर न जाने कब तक उन डिब्बों को लाते रहते। इस तरह सैलानियों की आवभगत का इन्तजाम करते-करते बफलो की उस इमारत में न दिन दीखता न रात। रात को भी पर्यटकों की आँखों को लुभानेवाली रंग-बिरंगी रोशनी शहर-भर में फैली रहती। झरने के आसपास तो विशेष रूप से। और झरने को चारों ओर से घेरता बगीचा तो ऐसे जगमगाता जैसे स्वर्ग से इन्द्र टॉर्च डालकर देख रहे हों कि कहीं धरती पर मेरे लोक से भी लुभावना मंजर तो नहीं खड़ा हो गया? उसी बफलो में एक रात एक जोड़ा अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ एक भारतीय रेस्तराँ में खाना खाने घुसा।
चारों में से किसी की रुचि रेस्तराँ की साज-सज्जा को देखने में नहीं थी।
शायद सुबह से घूमते रहने के कारण थके हुए भी थे और भूखे भी। लगता था जैसे जल्दी से खाना खाकर होटल के अपने कमरे में लौटना और सो जाना चाहते हों।
वेटर द्वारा रखा गया मेनू भी सभी ने अनमने भाव से देखा। बच्चों के दिल की बात माँ समझती है, शायद इसी खयाल से पिता ने कोई दखल नहीं दिया, और माँ ने सभी के लिए साधारण दक्षिण भारतीय भोजन का आदेश दे दिया। खाना आने में ज्यादा देर नहीं लगी।
तभी एक ऐसी घटना घटी कि बच्चों के माता-पिता दोनों बुरी तरह चांक गए। सात वर्षीय पुत्र ने खाने की थाली एक ओर सरकाकर पानी से भरा बड़ा जग हाथ में उठाया और उसे सीधे मुँह से लगाकर गटागट पानी पीने लगा। तीनों एक साथ चांके, क्योंकि बेटा इतना नासमझ नहीं था जो होटल में जग को सीधे मुँह लगाकर पानी पिए। आखिर वह एक अच्छे स्कूल में पढ़नेवाला बच्चा था। उसकी आदतें भी बिगड़े बच्चों जैसी नहीं थीं। फिर घोर अचम्भे की बात यह थी कि उस छोटे-से बच्चे ने लगभग तीन लीटर पानी एक साँस में पी डाला। माँ, बाप और हमउम्र बहन हैरानी से उसे देखते रह गए। एक वेटर के आ जाने, और आश्चर्य से लड़के को देखते रहने के कारण पूरा परिवार शर्मिन्दा भी हुआ। पर वेटर को वह घटना हैरानी से ज्यादा मनोरंजन की लगी। वह जग उठाकर उसमें फिर से पानी भरकर लाने के लिए दौड़ा।
लेकिन जब तक वेटर पानी लेकर आया तब तक देर हो चुकी थी, बच्चे के माँ-बाप सारा माजरा समझते, इसके पहले ही बच्चे की आँखें बन्द हो गईं, और वह भरी नींद के बोझ से एक ओर लुढ़क गया। माँ ने तुरन्त अपने पास खींचकर अपनी गोद में लिटा लिया और अपने आँचल से हवा करने लगी। नन्ही बच्ची इस अकस्मात् घटी घटना पर भयभीत हो गई। उसने अपने भाई को इस वहशियाना तरीके से पानी पीते हुए कभी नहीं देखा था।
खाना आया, पर बिना किसी से कुछ भी कहे वह परिवार वहाँ से उठ गया।
खाना किसी ने न खाया। बिल चुका दिया गया। सोते हुए बेटे को पिता ने अब अपनी गोद में उठाकर कन्धे से लगा लिया। बीच-बीच में माँ बेटे को जगाने की कोशिश जरूर करती, पर बेटा जैसे बेहोशी की गहरी नींद में था।
जिस होटल में वह परिवार ठहरा था, वह ज्यादा दूर नहीं था। वे लोग होटल में लौट गए। कमरे में पहुँचकर लड़के को बिस्तर पर लिटा दिया गया। बच्चा केवल गहरी नींद में ही था, और किसी तरह से उसकी तबियत नहीं बिगड़ी थी। उसे आराम से सोते देखकर अब परिवार का भय और विस्मय थोड़ा कम हुआ, साथ ही भूख ने भी दस्तक दी। रात भी गहरी हो चली थी।
माँ ने यह तय किया कि कुछ फल मँगा लिए जाएँ। नाश्ते का थोड़ा सामान उनके पास पहले से भी मौजूद था। थोड़ी ही देर में एक वेटर एक छोटी-सी ट्रॉली लेकर कमरे में प्रविष्ट हुआ। ट्रॉली पर जूस के गिलासों के साथ एक सुन्दर-से डिब्बे में कुछ फल भी थे। छोटी बच्ची ने उस सुन्दर डिब्बे को देखा तो खुश होकर तुरन्त ट्रॉली के पास चली आई। इतना सुन्दर डिब्बा उसने पहले कभी कहीं देखा न था।
ऐसा लगता था, मानो डिब्बा क्या था, किसी चिड़िया के घोंसले में तिनकों के बीच ताजे फल रखे थे।
शायद वह दिन उस परिवार के लिए अचम्भों का दिन था। नन्ही बिटिया ने जैसे ही फलों के उस डिब्बे को हाथ लगाया, डिब्बा अचानक जलने लगा। पहले कुछ चिनगारियाँ निकलीं, फिर उसमें से लपटें निकलने लगीं। लड़की के पिता ने दौड़कर वेटर को बुलानेवाला इमरजेंसी कॉल स्विच दबाया और बेटी को हाथ के झटके से जलते हुए डिब्बे से दूर किया। लड़की के माता-पिता दोनों पसीने में नहा गए।
झटके की आवाज के साथ कमरे का दरवाजा खुला और उसमें घुसे दोनों कर्मचारी मुस्तैदी से आग को बुझाकर मेज के इर्द-गिर्द आग लगने का कारण खोजने लगे। कोई कारण न पाकर वह एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे। जब वे बाहर निकलने को हुए, बच्चों के पिता ने उन्हें इशारे से ट्रॉली बाहर ले जाने को कहा।
कुछ देर की ऊहापोह के बाद बिना कुछ खाए-पिए परिवार सो तो गया पर माता-पिता, दोनों में से किसी की आँखों में नींद का नामोनिशान न था। न जाने रात के किस पहर में जाकर उन्हें नींद आई।
सुबह जल्दी ही वे उठ गए। दोनों बच्चों को भी जगाया गया। पर दोनों बच्चों पर रात की घटनाओं का कोई असर नहीं था। वे आम दिनों की तरह उठे।
यहाँ तक कि लड़के को तो अब ये याद भी नहीं था कि रात को क्या हुआ।
माता-पिता ने याद दिलाना मुनासिब भी नहीं समझा और वे रोजाना की तरह तैयार होकर निकल गए। जो कुछ हुआ, वह रात के साथ ही बीत गया था। अब यदि कहीं उसके चिह्न थे तो केवल माता-पिता की मानस-कुण्डली में थे।
उस परिवार का आज वापस लौटकर जाने का कार्यक्रम था। वे अब कुछ घन्टों की यात्रा करके एक अन्य मशहूर पर्यटन-स्थल देखने जानेवाले थे।
वे जब यहाँ पहुँचे तो दोपहर लगभग बीतने को थी। चारों ओर से बेहद शान्त दिखाई देनेवाली इस जगह का नजारा किसी बड़े-से होटल जैसा था। किन्तु इसमें दाखिल होते ही पता चला कि इस जगह पर भूमि के नीचे एक पूरा पाताल- लोक मौजूद है। टिकट लेकर लिफ्ट से जब वे लोग नीचे पहुँचे, तो आँखों के साथ-साथ मन को भी ठंडक मिली। जमीन के नीचे बहुत प्राचीन प्राकृतिक गुफाएँ थीं, जिनके तल में बर्फीला ठण्डा पानी बह रहा था। इन गुफाओं में कुछ भी मानव-निर्मित नहीं था। पत्थरों और चट्टानों को जमीन के नीचे बहते पानी ने ही काट-काटकर इस सुरम्य स्थान को बनाया था। गुफाओं के इस अद्भुत गुंजलक में लकड़ी की छोटी-छोटी नौकाओं में बैठकर दुनियाभर के पर्यटक घूमने का आनन्द ले रहे थे। भारतीय परिवार भी यहाँ के आनन्द में जैसे कल की अजीबो-गरीब घटनाओं को भुला बैठा था। यहाँ की चट्टानों में पत्थर पर पानी के प्रहार से बने एक से एक अद्भुत अजूबे फैले पड़े थे। नौकाओं को चलानेवाले स्थानीय युवक- युवतियाँ पर्यटकों के लिए गाइड का कार्य भी कर रहे थे।
यह परिवार जिस नौका में बैठा था, उसे एक लड़की चला रही थी। लड़की ने उन्हें काफी-कुछ बताया था। यात्रा पूरी होते ही जब वे नौका से उतरने लगे, तब लड़की ने दोनों बच्चों के गाल थपथपाकर उनका नाम भी पूछा था। उन्हें उतारकर लड़की दूसरे फेरे के पर्यटकों को नौका में बैठाकर फिर से गुफाओं में चली गई।
लिफ्ट में चढ़कर जब वे ऊपर आए, तो लिफ्ट का दरवाजा खुलते ही दोनों बच्चे तेजी से बाहर निकले। सामने अचानक फिर उसी लड़की को देखकर वे दोनों उसी तरफ दौड़े, और उससे लिपट गए। लड़की जोर से चिल्लाई, और उन्हें झटकते हुए पीछे हटी। माता-पिता को कुछ भी समझ में नहीं आया, कि यह क्या हुआ।
लड़की अमरीकन थी, जो उन्हें नाव में बैठाकर घुमाकर लाई थी। बच्चों से उतरते समय उसने खुद बात की थी। फिर अब वह बच्चों से मिलते ही अजनबी की तरह डरकर क्यों चिल्लाई, यह समझ के परे था। शिष्टाचार के भी परे, क्योंकि इतने छोटे बच्चों से भला कैसा भय या घृणा? लड़की के चिल्लाने से बच्चों के माता-पिता एकदम घबरा गए, और सिर पकड़कर पास के सोफे पर निढाल होकर गिर पड़े। दोनों छोटे बच्चे भी सहमकर पीछे हटे। अब माता-पिता को यह आशंका होने लगी कि पिछली रात से ही उनके बच्चों पर कोई-न-कोई मुसीबत आई हुई है। वे किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। बच्चों की माँ की आँखों से आँसू भी आने लगे। बच्चे दौड़कर पिता से लिपट गए।
तभी बिजली की-सी गति से काउण्टर के उस ओर से लगभग दौड़कर एक बूढ़ी महिला आई, और जल्दी-जल्दी बच्चों के पिता को बताने लगी कि उन लोगों को गलतफहमी हुई है। उसने बताया कि उनकी कम्पनी में यहाँ दो जुड़वाँ बहनें काम करती हैं। एक बहन उन्हें नाव में लेकर गई थी, जिसे बच्चे जान गए। लेकिन यह वह नहीं है, बल्कि उसी सूरत की उसकी दूसरी बहन है। बच्चे इसे पहचानकर मिले, पर इसने उन्हें नहीं पहचाना, इसीलिए घबरा गई।
इस स्पष्टीकरण के बाद बच्चों के माता-पिता को काफी राहत मिली। उन्होंने प्यार से बच्चों के सिर पर हाथ फेरा और आइसक्रीम पार्लर की ओर बढ़ गए।
लेकिन तभी उस लड़की ने बूढ़ी महिला के कान में जल्दी-जल्दी कुछ कहा, जिसे सुनकर बूढ़ी महिला गश खाकर गिरने लगी। एक बार फिर से हड़कम्प-सा मच गया। लड़की ने महिला को सम्भालकर सोफे पर लिटाया। कुछ और कर्मचारी भी महिला की ओर दौड़े। बच्चों के पिता ने आइसक्रीम पार्लर से यह दृश्य देखा तो वे भी दौड़े। बच्चे अपनी माता के साथ चिपके वहीं आइसक्रीम खाते रहे।
महिला को होश में लाने की कोशिश की जाती रही।
आधे घण्टे के बाद समीप के एक रेस्तराँ में बच्चे, उनकी माँ और बूढ़ी महिला कुछ खा रहे थे और बाहर लॉन में बच्चों के पिता और वह लड़की कोई गम्भीर वार्तालाप करने में मशगूल थे।
लड़की ने उन्हें बताया कि वह और उसकी बहन यहाँ नौकरी करती हैं और बफलो शहर में रहती हैं। लड़की ने बच्चों के पिता को जो जानकारी दी, उससे उनके पाँव तले से जमीन खिसक गई। लड़की कह रही थी कि वह बच्चों से अनजान होने के कारण उनके निकट आने पर नहीं चीखी थी, बल्कि उन बच्चों के सिर पर मुसीबत को खेलते देखकर चीखी थी। उसने बताया कि वह बच्चों को देखते ही पहचान गई कि उन पर किसी ‘आत्मा’ का प्रभाव पड़ा हुआ है, और बच्चे पूरी तरह उस शक्ति की गिरफ्त में हैं।
लड़की के नाना बफलो में ऐसी ही दैवी शक्तियों के अस्तित्व पर शोध कर रहे थे, और उनकी लम्बे समय तक सहायिका रहने के कारण वह भी इस बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी रखती थी। लड़की की बातों पर बच्चों के पिता को पूरा विश्वास हो चला था। लड़की ने उन्हें सुझाव दिया कि वे लोग उन बहनों के साथ बफलो चलें, और उनके नाना से अवश्य मिलें। दोनों बहनें अगले दिन सप्ताहांत होने के कारण घर जानेवाली थीं।
अगली सुबह एक कार से वे सभी बफलो की ओर जानेवाली सड़क पर निकल पड़े। दोनों बहनों ने रास्ते में उन्हें ‘आत्माओं’ के कई अजीबो-गरीब किस्से सुनाए। भारतीय परिवार ने सपने में भी नहीं सोचा था कि अमरीका जैसे विकसित देश में उन्हें इस तरह के विचित्र किस्से सुनने को मिलेंगे जो उन्होंने प्राचीन भारतीय आख्यानों में सुने थे। लेकिन पिछले दिनों उनके बच्चों के साथ जैसी घटनाएँ घटती रही थीं, अब वे इन बातों को केवल कपोल-कल्पित मानने के लिए भी तैयार नहीं थे। वे इन घटनाओं का आनन्द भी नहीं ले पा रहे थे। लेकिन फिर भी इस यात्रा में अपनी दो शुभचिन्तक स्थानीय युवतियों के साथ होने से पूरा परिवार खुश था। वे सभी तरह के भय से मुक्त हो चुके थे और अब आपस में खुलकर बातें कर रहे थे। दोनों बच्चे कार की खुली खिड़की से मनोरम अमेरिकी दृश्यों का आनन्द ले रहे थे। कार एक दिशा में भागी जा रही थी और रास्ता जैसे दूसरी दिशा में। कभी-कभी बादल बिलकुल सड़क पर चले आते और बच्चों को लगता कि जमीन-आसमान में गहरी दोस्ती है।
दोनों बहनों में मात्रा चार मिनट का अन्तर था, उनकी उम्र में। लेकिन छोटी बहन बड़ी को सम्मान देने में इन चार मिनटों का पूरा मोल चुका रही थी। ज्यादातर बातें बड़ी बहन ही पूछ रही थी, जिसके दिल पर बच्चों पर बेवजह चिल्ला पड़ने का अपराध-बोध अभी तक हावी था।
”आप सिमी को जानते हैं?“ युवती ने बच्चों के पिता से पूछा तो वे एकाएक सकपका गए।
छोटी बहन भी जिज्ञासा से इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए बच्चों के पिता का मुँह ताकने लगी। लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला।
”सिमी ग्रेवाल...इण्डियन और हॉलीवुड ऐक्ट्रेस,“ अब जैसे युवती ने और क्लू देने के लिए कहा।
”ओह, हाँ...हाँ...पर वो अब ज्यादा फेमस और सक्रिय नहीं है।“ यह सुनकर दोनों ही युवतियों के चेहरे पर थोड़ी मायूसी आई। युवतियों ने उन्हें बताया कि वे भारत के बारे में केवल दो बातें ही जानती हैं। एक तो यह कि वहाँ पानी बहुत कम है, और दूसरे वहाँ सिमी ग्रेवाल रहती है, जिसकी एक फिल्म उन्होंने कभी पहले देखी है।
बच्चों के पिता अब तपाक से बोल पड़े,”पानी कम नहीं है, केवल देश का एक भाग ऐसा है जहाँ रेगिस्तान है। वहाँ बारिश नहीं होती, और चारों ओर रेत के बड़े-बड़े टीले हैं। वैसे तो भारत के तीन ओर समुद्र है, कई बड़ी नदियाँ भी हैं।
चेरापूँजी में तो...“ बच्चों के पिता ने देश की साख बचाने के लिए जैसे अपने बचपन में पढ़ा भूगोल का सारा ज्ञान उँडेलना चाहा।
इसके पहले कि युवतियाँ और कोई प्रतिक्रिया देतीं, बच्चों की माता ने पति को प्यास लगने का इशारा किया। संयोग से सर्विस क्षेत्र भी निकट आ रहा था।
बीच में कॉफी पीने के लिए गाड़ी को रोक लिया गया।
सभी एक केफेटेरिया में दाखिल होने लगे। लड़के की माँ उसे शौचालय ले जाने के लिए पीछे रुक गईं। छोटी बच्ची ने इतना शानदार शोरूम देखा तो उसकी आँखों में भी कोई फरमाइश मचलने लगी।
बातें भी चलती रहीं, और कॉफी भी आकर बिलकुल ठंडी हो गई। लेकिन लड़के और उसकी माँ का इन्तजार अभी भी था। अब बच्चों के पिता ने उठ के देखने का मन बनाया ही था कि बदहवास-सी दौड़ती माँ एकाएक दाखिल हुईं। वह बुरी तरह घबराई हुई थीं, और बार-बार कह रही थीं कि बेटा न जाने कहाँ चला गया। सब चांक पड़े। ऐसा कैसे हो सकता है? शौचालय के दरवाजे पर माँ खड़ी रहे और बेटा भीतर से गायब हो जाए? कोई और दूसरा दरवाजा भी तो नहीं था।
दोनों युवतियाँ भी उनके साथ घबराकर देखने के लिए दौड़ीं... बड़ी बहन ने तुरन्त पुलिस को फोन करके सूचना दी। छोटी ने बच्चों की माँ को सम्भाला जो अब धैर्य खोकर रोने लगी थीं। अफरा-तफरी के छः मिनट मुश्किल से गुजरे होंगे, कि बाहर पुलिस की गाड़ी रुकने की तेज आवाज आई।
किसी को इस बात पर अचम्भा करने का समय नहीं मिला कि सूचना पाते ही बिजली की गति से पुलिस कैसे आ गई, क्योंकि अचम्भा सभी को इस बात पर हो रहा था, कि गाड़ी में एक पुलिस अधिकारी के साथ उस परिवार का लाड़ला बेटा मौजूद था। सभी हक्के-बक्के रह गए। फोन करनेवाली युवती से हाथ मिलाकर पुलिस अधिकारी ने गाड़ी की ओर नजर डाली ही थी कि सपाट-से चेहरे से बच्चा गाड़ी से नीचे उतरकर खड़ा हो गया। माँ ने दौड़कर उसे अपने से चिपटा लिया।
छोटी बच्ची, जो अब तक केवल उदास थी, अब रोने लगी। पर उसके बिसूरने पर किसी ने शायद यह सोचकर तवज्जो नहीं दी कि ये शायद खुशी के आँसू हों।
अब वे दोनों युवतियाँ पुलिस अधिकारी की बात पर जोर-जोर से हँस रही थीं। शौचालय के भीतर मरम्मत का काम चल रहा था, जिसके चलते छत से एक ट्रॉली पाइपों की जाँच के लिए भीतर उतारी गई थी। इधर माँ मुख्यद्वार पर खड़ी रहीं, उधर बेटा वहाँ ट्रॉली पड़ी देखकर उस पर चढ़ गया। बच्चा कुछ समझ पाता इसके पहले ही वह छत पर पहुँचा दिया गया। ट्रॉली-मैन ने उसे तुरन्त परिसर में घूम रही पुलिस के सुपुर्द किया। युवतियों की हँसी सबके चेहरे पर परिहास-भरा सुकून बनकर कांधी।
धूप की तेजी अब धीरे-धीरे कम हो रही थी। तेज चलती गाड़ी में सभी, कुछ उनींदे-से थे। बच्चों के पिता ने न जाने क्या सोचते हुए अब फिर से वार्तालाप की कड़ी जोड़ी। शायद उन्हें सिमी ग्रेवाल की कुछ फिल्मों का नाम याद आ गया था।
वे बताने लगे कि भारत के एक मशहूर डायरेक्टर ख्वाजा अहमद अब्बास ने रेगिस्तान में पानी की कमी को एक फिल्म ‘दो बूँद पानी’ में दर्शाया था, जिसमें सिमी ग्रेवाल ने काम किया था। नाम सुनते ही दोनों युवतियों के चेहरे पर खुशी छलकी, क्योंकि यह वही फिल्म थी जो उन्होंने देखी थी। इसी फिल्म ने उनके मन में ऐसी धारणा बना दी कि भारत में पानी का अभाव है।
जब वे लोग बफलो पहुँचे, रात हो चुकी थी। दोनों बहनों ने अब उन्हें होटल में नहीं ठहरने दिया। उस परिवार को भी यही निरापद लगा कि वे उन लोगों के साथ ही ठहरें। भारतीय परिवार उन्हीं का मेहमान बन गया। रात को खाना खाने के बाद बच्चे तो जल्दी सो गए, किन्तु उनके पिता युवतियों के नाना से जल्दी-से-जल्दी मिलना चाहते थे। फोन पर बात हुई और उनसे सुबह मिलने का समय ले लिया गया। रात देर तक बातें करने से दोनों को बहुत-सी जानकारी मिली।
बच्चों के पिता को उन बहनों ने अपने नाना के काम के बारे में भी बताया।
नाना को पुरानी चीजें जमा करने का शौक था। वे खुद भी तरह-तरह की चीजें बनाते थे। उन्होंने बड़ी मेहनत से एक बेहद सुन्दर घोंसला बनाया था, जिसे उन्होंने अपने घर के सामने एक पेड़ पर सजा दिया था। वे कहते थे, यह अद्भुत मायावी घोंसला है, जिसमें एक दिन अपने आप रंगीन अण्डे आ जाएँगे। उन्हें उस दिन का हमेशा इन्तजार रहता था। उनके अलावा और कोई नहीं जानता था कि अण्डे कहाँ से आएँगे। बच्चों के पिता को इन बातों में केवल इतनी ही दिलचस्पी थी कि वे उनके बच्चों पर आए संकट को दूर कर सकें। दिनभर की थकान भूलकर वे सुबह के इन्तजार में थे...सुबह युवतियों के नाना आए और उस मेहमान परिवार को अपने साथ अपने घर पर ले आए जो नजदीक ही था। दोनों युवतियों को तो वैसे भी अगले दिन अपने काम पर लौट जाना था।
नाना वहाँ अकेले की रहते थे। दोनों छोटे बच्चों की तकलीफ सुनकर उन्होंने भारतीय परिवार को आग्रहपूर्वक कुछ दिन वहीं, उनके साथ रहने का अनुरोध कर दिया। दम्पति ने सहर्ष नाना की बात मान ली, क्योंकि वे भी अपने बच्चों पर अचानक आए इस अजीबो-गरीब असर से मुक्ति पाना चाहते थे। नाना के आग्रह में किसी डॉक्टर-सी आत्मीयता थी जो अच्छी तरह जानता है कि मरीज को दवा के साथ-साथ अपनेपन की भी जरूरत होती है। और जब मरीज के रूप में दो दूर देश के मासूम बच्चे हों, तो यह आत्मीयता स्वाभाविक ही थी।
बच्चों ही नहीं, उनके माता-पिता को भी नाना बहुत पसन्द आए। बरसों पहले स्कॉटलैंड से आकर ब्राजील में बसा उनका परिवार, जिसमें केवल वे और उनकी दोनों नातिनें थीं, बाद में बफलो का ही होकर रह गया। वे बिना किसी संकोच के बताते थे कि बचपन में वे उत्पाती हिंसक बालक थे। उन्हें हर किसी को दुःख में देखने से ही आनन्द मिलता था। लेकिन पुरानी वस्तुओं से उनका मोह पागलपन की हद तक था। हर पुरानी वस्तु उन्हें बात करने योग्य बुजुर्ग जैसी लगती थी। वे कहते - यदि किसी बूढे़ ने चालीस साल तक किसी छड़ी के सहारे अपने कदम बढ़ाए हैं, तो बूढ़े के मरने के बाद निश्चय ही वह छड़ी बूढ़े के बारे में खूब बातें करेगी, बशर्ते कोई उसकी जुबान समझनेवाला हो। किसी बुजुर्ग स्त्री का बरसों पुराना चश्मा उसकी आँखों की रामकहानी क्यों नहीं जानेगा, वे सुननेवालों से ही पूछते थे।
उनका लाल सुर्ख चेहरा बिना हड्डियों के बना कोई बुत दिखता था।
ग्रोव सिटी के नजदीक उनकी लम्बी-चौड़ी जमीन थी, जो उन्होंने बनाना रिपब्लिक कम्पनी को सस्ते में केवल इसलिए दे दी, क्योंकि कम्पनी ने नई इमारत बनवाने के लिए उसकी खुदाई करते समय उसमें मिलनेवाले सारे ताबूत उन्हें वापस लौटाने का आश्वासन दिया था। नाना कहते थे कि अब उनके खजाने में सदियों पहले गुजरे कई इन्सानों की रूहें हैं।
(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)
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