उपन्यास - अमावस्या का चांद - भाग 9 // बैरिस्टर गोविंद दास // अनुवाद - दिनेश माली

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भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग 7   भाग 8   7 बिखरे केश, मधुर अधर, नम्र नेत्र और सुप्त नारी। श्वेत वस्त्र से ढका हुआ समूचा देह...

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भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग 7 भाग 8 

7

बिखरे केश, मधुर अधर, नम्र नेत्र और सुप्त नारी। श्वेत वस्त्र से ढका हुआ समूचा देह। निस्तब्ध रात्रि को ठंडी हवा इस निश्चल देह के वस्त्र को थोड़ा हिलाकर मृदु सिहरन पैदा कर रही थी। वातायन को भेदकर आ रही चांदनी उस नारी देह में प्राणों का संचार कर रही थी। इस झंकारमयी चांदनी रात में काउल अपलक चुपचाप उसे निहार रहे थे। अपेक्षित दैहिक उभार ही तो नारी का दूसरा नाम है। इसमें नूतनता क्या होगी?एशियन, यूरोशियन सभी को

नजदीक से देखा है, उनका उपभोग किया है, क्या फर्क है?कुछ तो है, शारीरिक सुडौलता के अनुसार विविधता अवश्यंभावी है।

स्टेशन पर स्टेशन पार होते जा रहे थे, रेलगाड़ी की गति बढ़ती जा रही थी। मनुष्य में एक तरह की विशेष चीज होती है, जिसका नाम होता है-“लिबिडो”। यह शरीर में हलचल पैदा करती है। जब इसकी गति तेज होती है तो मनुष्य बहुत चंचल हो जाता है। यह चंचलता जब अधिक देर तक रहती है तो मनुष्य का साधारण मन-बुद्धि उसके आगे आत्मसमर्पण कर देती हैं। इसके वशीभूत होकर वह त्याग देता है अपना राज्य, अपना सुख यहाँ तक कि अपना जीवन भी। मनोवैज्ञानिक इसे प्रेम कहते हैं।

विभिन्न परिस्थितियों की सीमा के भीतर शारीरिक मिलन के गंभीर प्रयास का नाम प्रेम है। मन भी तो शरीर का अंश है! मन तो केवल शारीरक जरूरतों को बल देता है, उन्हें साहचर्य प्रदान करता है। मगर इसकी उत्पत्ति-विलय शरीर में ही है। जो अन्य प्राणियों के लिए सामयिक मामूली-सी जीवन प्रक्रिया है, मनुष्य उस पर एक आवरण चढ़ा देता है। उसे एक नाम दे देता है ‘प्रेम’। यह तत्ववेत्ताओं का मत है।

इस तर्क का मन-ही-मन काउल विश्लेषण कर रहे थे। अन्य असंख्य नारियों की तरह यह भी एक साधारण नारी है। खासियत बस इतनी है-रेल की खिड़की से उसके चेहरे पर अंधेरे-उजाले के आंख-मिचोली का खेल उसके चेहरे पर चंचलता ला रहा है। बस, सिर्फ यही फर्क है। नाइट क्लब में ग्लास ब्रेकर स्टेज पर नर्तकी के देह पर बीच-बीच में रोशनी बीच-बीच में अंधेरे की तरह। अंधेरा-उजाले का क्रमागत खेल और तेज संगीत दर्शकों के रोम-रोम में सिहरन पैदा कर देता है। इसी तरह आज भी रेल का संगीत नारी के मुख सौंदर्य पर धूप-छांव का नृत्य कर रहा हैं।

जनसमूह विश्वसनीय, शांतिपूर्ण होता है। उसका मुकाबला करने में कोई संदेह या तकलीफ नहीं होती है। अपने परिधान, दृष्टिकोण, कर्म में तुम पूरी तरह स्वतंत्र हो, निश्चिंत हो। मगर किसी व्यक्ति विशेष के समक्ष उपस्थित हो तो स्वयं को मर्यादित रखो। संयमित विचार रखने होंगे। यह हमेशा पैमाना होता है कि जो आदमी हमारे सामने बैठा है, उसकी प्रतिक्रिया पर ध्यान मत दो। उसके साथ तालमेल बैठाना पड़ेगा, चाहे कुछ समय के लिए ही।

काउल इसलिए जनसमुदाय को पसंद करता है। जब तक काउल प्लेटफार्म पर थे, प्रसन्न थे।

असंख्य लोगों के बीच अथवा जब तक उस कंपार्टमेंट में अन्य लोग उपस्थित थे। धीरे-धीरे वहां से पैसेंजर उतरते गए।

आधी रात को आख़री पैसेंजर भी उस डिब्बे से उतरकर चला गया। काउल और वह नारी डिब्बे में अकेले रह गए। काउल विचलित अनुभव कर रहे थे। शायद वह नारी भी ऐसा ही महसूस कर रही थी। वह बिस्तर से उठकर बैठ गई। काउल ने पूछा, “अकेले मेरे साथ रहने में कोई आपत्ति हो तो दूसरे कम्पार्टमेंट में पहुंचाने में आपकी मदद कर सकता हूँ। ”

उस नारी ने कहा, “हां, थोड़ा संकोच जरूर है, मगर कोई संदेह नहीं। मगर मैं अस्वस्थ हूँ। इसलिए कोई साथ रहे तो हर्ज क्या है?फिर दूसरे कंपार्टमेंट में जाने पर अपरिचित मिलेंगे ही, जबकि आप तो कुछ परिचित हो चुके हैं। ”

काउल ने कहा, “अगर जरूरत हो तो मेरी मदद लेने में आप किसी भी प्रकार का संकोच न करें। मेरी नींद वैसे गहरी है। मगर थोड़ी सी आवाज से मेरी नींद टूट जाएगी। मगर इसके लिए सबसे अच्छी दवाई रोशनी है। अगर उठाना हो तो इस स्विच को दबा देना। उजाला होते ही मेरी नींद टूटने में कोई संदेह नहीं है। ”

नारी ने कहा, “भगवान करे, ऐसी स्थिति न आए। मगर आपकी बात याद रखूंगी। ”

कुछ समय बाद वह नारी सो गई। चेहरे पर बीमारी के हाव-भाव साफ नजर आ रहे थे।

मगर सारी रात काउल अपलक प्रतीक्षा करते रहे। जरूरत पड़ने पर शायद वह नारी उनकी सहायता मांगे।

काउल सोच रहे थे कि इस नारी में ऐसी क्या खासियत है, जो इतने कम समय में उसके प्रति आसक्ति उत्पन्न हो गई। कुछ समझ नहीं पाए।

ऐसे ही रात बीत गई। सुबह ट्रेन मद्रास पहुंच गई। कंपार्टमेंट के बाथरुम से बाहर आकर काउल ने देखा कि वह नारी कंपार्टमेंट छोड़कर जा चुकी है। प्लेटफार्म पर उसे इधर-उधर खोजा। कुछ पता नहीं चला। काउल अपने घर आ गया। ड्राइवर गाड़ी लेकर स्टेशन आया था।

उस दिन सुबह जल्दी उठ कर दिनचर्या से निवृत्त होकर तैयार होते समय उसे पता चला कि टाइपिन खो गई है। स्विजरलैंड के ड्यूरीक से लाया था उसे। उस टाइपिन में छोटा सफ़ेद हीरा लगा हुआ था। वह पिन कमीज के बटन से मैच कर रही थी। अब शायद बटन बदलने होंगे। काउल कितना अंधविश्वासी था! व्यापारिक समस्याओं के संदर्भ में अन्य लोगों से बातचीत करते समय यदि किसी प्रकार की अशुभ परिस्थिति उपजती तो यह हीरा उस परिस्थिति को उनके अनुरूप बनाने में सहायक सिद्ध होता था, यह काउल की मान्यता थी।

आज काउल के लिए खास दिन था। हांगकांग के व्यापारी-दल के साथ सवेरे बातचीत के दौरान निर्यात की जाने वाली वस्तुओं के दाम तय होने थे। व्यापार की दुनिया में इससे बड़ा कोई शुभ लग्न नहीं होता है।

सुबह होते-होते...

काउल बाजार की ओर चल पड़े। पहले श्रीखंडी संग्रह करना होगा। उसी तरह सोना, हीरा। वैसे ही टाइपिन। इतनी जल्दी दुकानें खुली भी नहीं है। खोजते-खोजते एक बनिए की दुकान पर पहुंचते समय लगभग एक घंटे की देर हो चुकी थी। काउंटर पर पहुंचकर काउल ने पूछा, “कोई इंपोर्टेंट चीज़ होगी? स्विस मेक? टाइपिन?”

सेल्समेन ने काउल को विभिन्न प्रकार के टाइपिन दिखाए। पास ही दूसरे काउंटर पर एक महिला खड़ी थी, उसके हाथ में सोने का हार था। दुकानदार कह रहा था, इसका वजन है..... सफ़ेद साड़ी में आवृत्त। सूखे बालों की एक लट आगे आकर झूल रही थी। गर्दन और छाती की हड्डियों पर ब्लाउज चिपका हुआ था। कानों में दो मामूली सोने के फूल। उन पर लगे हुए थे टाइपिन के जैसे सफेद डायमंड। शरीर में कोई जान नहीं। उत्साह नहीं। झील की तरह शांत, निराडंबर और अनासक्त।

शायद उनसे कहीं मुलाक़ात हुई होगी। हुई होगी, कोई नई बात नहीं है।

“इसका दाम होगा............ । आप चेक लेगी या नगद?”

“पूरे नगद। ”

काउल देख रहे थे इस नारी की तरफ-विगत रात के ट्रेन में सहयात्री की तरह लग रही थी। चेहरा वैसे ही, होठ वैसे ही, रात के मद्धिम प्रकाश में ठीक से नहीं देख पा रहे थे उसे। मन में कौतूहल पैदा हुआ। इतनी सुबह यह नारी अकेली आकर गहने बेच रही है, एक अपरिचित शहर में।

“सर, और कोई टाइपिन नहीं है। अगर चाहो तो इसे ले जा सकते हैं। पर सफेद डायमंड नहीं मिल पाएगा। ” सेल्समेन ने काउल को बताया।

दुकान से काउल बाहर निकले। नारी भी बाहर निकली। काउल ने पूछा, “पहचानती हो? गत रात ट्रेन में आपका सहयात्री। ”

अत्यंत धीमे स्वर में उसने कहा, “नमस्ते। ”

काउल ने नमस्ते का उत्तर दिया।

“ कहां जा रही हो?” काउल ने पूछा।

“बस, थोड़ी ही दूर। एक परिचित मेहमान के यहां जा रही हूं। ”

काउल ने गाड़ी की तरफ हाथ दिखाकर कहा, “चलो, गाड़ी में छोड़ दूँ?’

“माफ करें, मैं टैक्सी कर लूंगी। ”

काउल टैक्सी खोजने के लिए फुटपाथ से सड़क की ओर गए। कुछ समय के लिए इधर-उधर खोजने लगे। मगर कोई टैक्सी नहीं मिली। पीछे मुड़ कर देखा तो वह नारी उनकी गाड़ी के सहारे आँखें बंद कर निस्तेज पड़ी हुई थी। वह तुरंत गाड़ी के पास लौटे। उसे जगाने की कोशिश की। मगर कोई उत्तर नहीं मिला। उसे हिलाया भी, कोई फायदा नहीं हुआ। ऐसा लग रहा था कि वह बेहोश हो गई हो। गाड़ी का दरवाजा खोलकर उसे पीछे की सीट पर सुला दिया। थर्मस से पानी निकालकर उसके मुंह पर छिड़कने लगे। अपनी गोद में सर रखकर चेहरा पानी से पोंछ दिया। बिखरे बालों को कान और ललाट से उठाकर गर्दन के पीछे कर दिया। थोड़े समय बाद उस नारी ने आंखें खोली और फिर बंद कर दी। काउल धीरे-धीरे उसके माथे को सहलाते रहे। वह नारी पीड़ा से कराह रही थी। काउल के पैंट, शर्ट, रुमाल भीग चुके थे। उनके शर्ट के स्लीव और बटन पर आँसू की बूंदे गिरकर जम चुकी थी।

“ थोड़ा पानी। ”

काउल ने छोटे गिलास से पानी पिलाया। वह उनके मुंह को अपनी गोद में रखे हुए थे। ताकि उसे कोई असुविधा न होने पाए।

उस नारी को थोड़ा आराम मिला।

काउल ने पूछा, “तुम्हें अपने घर छोड़ दूँ ?”

उसने उठकर बैठने की भरसक कोशिश की। मगर सब बेकार। काउल ने उठने से नहीं रोका। शायद एक अपरिचित नारी एक अनजान आदमी के सानिध्य में असंकोच अनुभव कर रही हो।

“यह राजरास्ता है। फिर गाड़ी में दिक्कत होती होगी। चलो छोड़ आऊं मैं तुम्हें अपने ठिकाने पर। ”

नारी ने कहा, “मेरे बैग में डायरी है। उसमें अस्पताल की पर्ची होगी। उसी पते पर लेकर चलिए, अनुकंपा होगी। ”आंखें मूंदे पड़ी रही वह नारी।

काउल ने हैंडबैग खोलकर डायरी बाहर निकाली। डायरी के पन्नों के भीतर खुले लिफाफे में एक चिट्ठी पड़ी हुई थी। लिफाफे पर पता लिखा हुआ था- मनीषा चौधरी। लिफाफा खोलकर काउल ने पत्र पढ़ा। मेडिकल ऑफिसर के नाम पत्र लिखा हुआ था, उस दिन नर्सिंग होम में एडमिशन कराने के लिए। कुछ दिन रुकना होगा। फीस, घर का किराया आदि लिखा हुआ था। सारा भुगतान पहले से करना होगा। पता था कैंसर हॉस्पिटल नर्सिंग होम, चेन्नई।

काउल का सिर चकराने लगा।

ड्राइवर को अस्पताल चलने के लिए निर्देश दिए। मनीषा का सिर अभी भी उनकी गोद में था। गाड़ी की गति के साथ मनीषा का सिर हिल रहा था, हाथ से काउल उसे रोकते जा रहे थे। ड्राइवर से कहने लगे, “जरा आहिस्ता चलो। ”

लिफाफे में एक और चिट्ठी थी।

किसी मित्र के नाम मनीषा का लिखा हुआ खत था।

“बंधु, मैंने बहुत वर्ष तक अंतहीन संघर्ष किया। शायद जीवन पर थोड़ा-बहुत अनुसंधान कर पाऊँ। यह मेरी आखिरी यात्रा है। तुम्हारा उपकार मैं जीवन भर नहीं भूल पाऊँगी। शायद और कितने दिन जीने की चेष्टा करूंगी। अगर संभव हुआ तो अस्पताल से खत लिखूंगी। मन में यही शांति कि चलो जिंदगी में मेरे लिए कोई आंसू बहाने वाला न था और न कोई रहेगा। किसी के प्रति मेरा भी कोई कर्तव्य नहीं बचा है। जन्म-मरण तो मामूली रोजमर्रा की घटनाएँ हैं। दूसरों के लिए इनकी क्या खासियत हो सकती है?

॥इति॥

काउल ने एक दीर्घश्वास ली। मनीषा का चेहरा शांत, नीरव, निश्चल भाव से पड़ा हुआ था काउल की गोद में।

दोनों पत्र लिफाफे में रख दिए। गाड़ी नर्सिंग होम पहुंच गई थी। स्ट्रेचर पर रख कर निर्धारित कक्ष में ले जाया गया। डॉक्टर पहुंचे। रोगी की परीक्षा की गई।

बीमारी बढ़ती चली गई। छाती का कैंसर। मनीषा निस्तेज भाव से बिस्तर पर पड़ी हुई थी। किसी से कोई शिकवा नहीं। जिंदगी में उसे कुछ भी नहीं मिला। किसी से कोई आशा भी नहीं। मरुभूमि की बालू तरह मूल्यहीन, गंधहीन और अर्थहीन।

कोठरी से सब लोग जा चुके थे। काउल के हाथ में मनीषा का हैंडबेग था। उसमें से सारे कागज़ निकालकर काउल ने पढकर समझा मनीषा के जीवन के विक्षिप्त इतिहास। कभी पिता नैनीताल के रहने वाले थे। मां-पिता जल्दी चले गए इस दुनिया से। कोई सगा-संबंधी नहीं था। कुछ दिन पहले कलकत्ते की किसी कैंसर अस्पताल में इलाज के लिए गई हुई थी। वहाँ कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। सारा धन इसके इलाज के लिए खर्च किया जा चुका था। फिर भी कोई आशा नहीं थी। इसलिए डॉक्टर ने आखिरी कोशिश के लिए उसे चेन्नई की इस कैंसर अस्पताल में भेजा था। उनका दृढ़ विश्वास था, बस वह कुछ महीने की मेहमान है। फिर यह

छोटा-सा दीप सदा-सदा के लिए बुझ जाएगा।

मनीषा ने फिर से आँखें खोली। उसके बिस्तर पर बैठकर काउल ने धीमे से पुकारा, “मनीषा! ”

जवाब देने भर की शक्ति नहीं थी मनीषा में।

“कष्ट हो रहा है?”

एक विनतीपूर्ण दर्दीली हंसी से देखती रही काउल की तरफ।

“सोने की कोशिश करो! ” निरीह शिशु की तरह मनीषा ने आंखें बंद कर ली। काउल ने चादर से उसका शरीर ढक दिया। अपनी घड़ी की ओर देखा तो उनके उस दिन के इंगेजमेंट का समय कब से निकल चुका था।

काउल ने नीचे उतरकर फॉर्म में गार्जियन की जगह अपना नाम लिख दिया। जरुरत होने पर किसे खबर दी जाए, उस जगह पर अपना पता लिख दिया। चेक काटकर डॉक्टर की फीस और नर्सिंग होम का किराया जमा करा दिया काउल ने। गहने बेचकर मिले पैसों को मनीषा के बैग में डालकर ऑफिस में जमा करवा दिया। डॉक्टर को हिदायत दी गई कि मनीषा उनकी आत्मीय है। यथासंभव इसे बचा लें। जो कुछ करना होगा, उसके लिए वह तैयार है। इस फोन नंबर पर मुझे खबर देना, अगर कोई अर्जेंट जरूरत हो तो।

वहाँ से विदा लेकर काउल गाड़ी में बैठे। ड्राइवर को अपनी पूर्व निर्धारित एंगेजमेंट वाले कार्य-स्थल पर जाने के निर्देश दिए। गाड़ी में बैठे-बैठे अपने कोट की टाइ को संयत कर लिया। शर्ट के बटनों को रुमाल से साफ कर लिया। दफ्तर में पहुंचने पर पता चला कि मौसम की खराबी के कारण हवाईजहाज समय पर नहीं आ सका। आगंतुक लोग निर्धारित समय पर नहीं पहुँच पाए। काउल को उस दिन अपने ऑफिस का काम पूरा-पूरा करते करते दिन के दो बज गए। उस दिन काउल ने लंच होटल में लिया। फिर अपने कमरे में लेटकर अखबार पढ़ने लगे। अखबार के पीछे वाले पन्ने पर बनी एक फोटो उस दिन की खबर को बीच-बीच में याद दिला देती थी- मनीषा का बीमार सफेद बदन, विनती भरी निगाहें, असहाय होठ।

काउल की ऐसी धारणा थी कि किसी भी सामयिक प्रकृति ने उसे अपने जीवन में प्रभावित नहीं किया है। जीवन में उसने जो कुछ किया, धीर बुद्धि, स्थिर चित्त से। चाहे घोड़ों की रेस हो, चमड़े का व्यापार हो, यहाँ तक कि नारी उपभोग का प्रस्ताव क्यों न हो। पता नहीं क्यों, आज खुद पर थोड़ा संदेह हो रहा था। सोचने लगे, उसकी आंखें और होठों के समन्वय में कुछ बात जरूर है। लेकिन वह तो किसी शाम का सहारा बनने लायक भी नहीं है। फिर उसके साथ संबंध तो श्मशान की शोभायात्रा वाला संबंध है। केवल कुछ पल बाकी है।

क्लब में उस शाम उनकी मुलाक़ात हुई मिस्टर चौहान, मिस्टर सिंह, मैथ्यू और अनेक लोगों से। रमी का खेल चलता रहा रात के आखिरी प्रहर तक। खेल के लिए प्रेरित करते रहे मिस गुप्ता और जानी वाकर।

“डार्लिंग, तुम बहुत बड़े लकी हो। ”

“मिस गुप्ता, जीत आजकल की नारियों की तरह है। उपेक्षा करो तो आग्रह मिलेगा। ”

“तुम्हारे दंभ से घृणा करने पर भी तुम्हारे कृतकार्य का सम्मान करती हैं। ”

“रात के बचे-खुचे क्षणों में अपने सारे कृतकार्य तुम्हारे कदमों में समर्पित करता हूँ, मिस गुप्ता। ”

काउल नाटकीय अंदाज में सिर झुकाकर, हाथ हिलाकर सहमति प्रकट कर रहे थे।

अंत में खेल खत्म हुआ।

बटलर और चौकीदार ने उन्हें सलाम किया। चारों ओर से अर्धसुप्त ड्राइवर गाड़ी में लाइट लगाकर पोर्टिको तक चले आए। मिस गुप्ता और काउल चल पड़े काउल के फ्लैट की ओर।

सुबह उठने में देर हो चुकी थी। मिस गुप्ता बहुत पहले ही जा चुकी थी। एक कागज सिरहाने

पर रखा हुआ था। उसमें लिखा हुआ था- “ब्रह्मचर्य प्रमाणित करने के लिए किसी नारी के साथ रात भर सोने की जरूरत नहीं है। अफसोस है कि मिस्टर काउल जैसे बुद्धिमान को यह बताना पड़ा। ”

गुप्ता

काउल ने कागज फाड़कर डस्टबिन में फेंक दिया। यथाशीघ्र तैयार हो गया नर्सिंग होम जाने के लिए।

रास्ते में कुछ फूल खरीद लिए। नर्सिंग होम पहुँचकर उन्हें देते हुए कहने लगे, “गुड मॉर्निंग। ”

मनीषा ने कृतज्ञता से काउल को नमस्कार किया।

बाएँ हाथ में एक अंगूठी पहनी हुई थी। जिसके ऊपर एक छोटा लाल पत्थर जड़ा हुआ था। नाखून लंबे और निस्तेज थे। बाकी उंगलिया नम्रता का सुंदर चित्र आंक रही थी।

“आज कैसा लग रहा है?”

मनीषा जरा-सी मुस्कुराई। कहने लगी, “कोलकाता में डॉक्टर हमेशा कहा करते थे, मनीषा! आज तुम्हारी अवस्था ‘बेटर’ है। मगर कहां कभी तो ‘गुड’ नहीं कह पाई। ”

काउल ने बात बदल दी।

कहने लगे, “अपने किसी आत्मीय के बारे में बता रही थी? उनके पते पर कुछ खबर करना है?”

“कोई जरूरत नहीं है। बस, वहाँ मेरा एक सूटकेस था, मंगवा लिया है। वह भी मेरे दूर-रिश्ते के हैं। कोई चारा नहीं मिला तो एक रात वहाँ रुकी थी। ”

कुछ सोचकर मनीषा गंभीर हो गई। भरे गले से पूछने लगी, “क्या मैं आपका नाम पूछ सकती हूं?”

“रमेश काउल। ”

“आप यहां ?”

“व्यापार करता हूं। पूरे भारत में। यहां भी हमारा केंद्र है। ”

“मैंने कल आपका वक्त और धीरज बर्बाद किया। ”

“कोई भी आदमी एक दूसरे के लिए इतना तो कर ही सकता है। ”

“शायद आपको पता नहीं है। मेरा रोग जानलेवा ..असाध्य ...है! बस उसकी एक ही परिणति है। ” मनीषा की आंखें छलछला उठी। अपने आप को संभालने के लिए मनीषा दूसरी दिशा में देखने लगी।

“मनीषा! सच या झूठ जानने की चेष्टा मैंने नहीं की। झूठ भी हो सकता है। मगर मन को संतोष देने और जीवित रहने में मदद करने वाली एक चीज है, जिस पर भरोसा करना होगा। वह है ‘भाग्य’। उस पर विश्वास करो। शायद परिवर्तन हो जाए। असाध्य साध्य में बदल जाए। असंभव संभव हो जाए। ”

“काउल साहब! मैं ढलता हुआ सूरज हूँ। कोई भी शक्ति मुझे ढलने से बचा नहीं सकती। दिग्वलय में लीन होने में बस वक्त कितना बाकी है?आज मन करता है कि आज की रात, संगीत, रोशनी, जिंदगी सब-कुछ का उपभोग कर लूँ। कुछ देर के लिए इच्छा होती है, खुद को सजाऊँ। दुनिया के सारे रूपों में खुद को ढक दूँ। मन-ही-मन देखती हूँ यह मेरी मम्मी है, यह मेरे डैडी है, यह मेरे पति है, मेरे बेटा, मेरी बेटी-इस तरह सभी को। रात बीत रही होती है। सभी लोग मुझे चारों तरफ से घेर लेते हैं। हल्का-हल्का प्रकाश घर को रंगीन बना देता है। धीरे-धीरे

मैं मिटती जाती हूँ। मगर नारीत्व की सार्थकता बनी रहती है। ”

“एक महीने बाद आप सुनेंगे नर्सिंग होम का पाँच नंबर कमरा खाली है। यह लंबा रास्ता जो है, इस पर सामने से एक और पीछे से दूसरा कोई स्ट्रेचर पर ठेल रहा होगा। मुंह ढककर रखा हुआ होगा। शरीर इधर-उधर डोलता होगा। लोग कहेंगे ‘शव’। कहां गए डैडी, कहां गई मम्मी, कहो काउल साहब! ”

इतनी बातें कर एक ही सांस में कहकर मनीषा थक-सी गई। फिर कहने लगी, “यह चित्र मेरे पास नया नहीं है। कई दिनों से परिचित हो चुकी हूं। लेकिन चिर-मिलन कब होगा, उसकी प्रतीक्षा है केवल। ”

मनीषा के चेहरे में कोई न कोई खास बात है, जिसके कारण कई लोग उस पर विश्वास करते हैं। थोड़ी देर में उसने गोपनीय गूढ सत्य को उजागर किया। काउल ने भी उसका आदर किया।

अकेले खाई में सोते हुए तेजी से निकट आ रहे शत्रु के इंतजार में बैठे सिपाही की तरह मौत के साथ हिसाब-किताब कर रही थी मनीषा। फर्क केवल इतना है दुश्मन के साथ संधि करना संभव है, मगर मनीषा का भविष्य अपरिवर्तनीय है। अतः कौन आता-जाता है?कौन परिचित-अपरिचित है? क्या नया-पुराना है?काउल साहब, कोई मायने नहीं रखता है। इतना कहने पर भी मनीषा के मन में कोई पछतावा नहीं था। मगर मन में इतना संकोच जरूरत था-शायद यह सज्जन मेरे इस आत्मचरित को पसंद नहीं करें!

नर्स, डॉक्टर पहुँच गए। मनीषा को इंजेक्शन वगैरे दिए गए। डॉक्टर ने कहा, “कल से पूरी जांच शुरु होगी। ”

काउल की तरफ देखते हुए डाक्टर ने कहा, “आपका पेशेंट अच्छा है। आपके मुताबिक मिस चौधरी के इलाज की दैनिक रिपोर्ट आपके पते पर भेज दी जाएगी। ”

इधर-उधर की मामूली-सी बातचीत कर डॉक्टर और नर्स चले गए।

मनीषा ने घड़ी देखकर कहा, “अभी दस बज गए है। आप ऑफिस नहीं जाएंगे?”

“रोजमर्रा का काम खास नहीं होने पर भी मुझे आज जाना होगा। ”

“ तब तो बेमतलब देरी हो जाएगी। ”

मनीषा का इतिहास काउल की नस-नस में स्पंदन कर रहा था। कैसी निसंग और लाचार जिंदगी! एक मुट्ठी दाने के लिए अख़बार बेचकर फुटपाथ की रोशनी में जो जिंदगी उसने बिताई थी, अपनी रोग-शय्या में उनींदे रात भर बैठे थे। खोज रहे थे, इस सारी दुनिया में कोई तो होता जिसे वह अपना कह सकते, अपने मन की वेदना बता पाते पल भर के लिए सही। मगर आशा अधूरी रह गई। काउल के अतीत जीवन का एक पन्ना थी मनीषा।

चेयर से उठ गए काउल।

मनीषा के बिस्तर पर दोनों हाथ रखकर मनीषा के बारे में गहराई से सोचने लगे। मन-ही-मन एक महत्वपूर्ण फैसला लेने के बारे में सोचने लगे। यह नारी इसके लायक है या नहीं! किसी प्रतिदान का प्रश्न नहीं था, कोई हताशा हाथ लगने वाली भी नहीं थी, केवल विजय पाने के लिए। अपने अतीत पर वर्तमान की। मनीषा की निस्सहाय परिस्थिति पर काउल की कृतकार्यता की।

बिना कुछ कहे काउल कमरे से बाहर निकल पड़े। बाहर निकलते समय दरवाजे पर हाथ हिलाकर मनीषा से विदा ले रहे थे।

उस दिन ऑफिस का काम पूरा होते-होते शाम हो गई। काउल सीधे नर्सिंग होम चले गए। नर्सिंग होम में शयन-बत्ती का हरा रंग कमरे में हल्का प्रकाश भर रहा था। मनीषा जूड़े में फूल खोंसे हुई थी। खूब सुंदर दिख रहा था उसका बीमार पांडुर चेहरा।

“मनीषा! ”

उत्तर में धीरे-से नमस्ते कर दिया मनीषा ने।

“देखो, तुम्हारे लिए क्या लाया हूं। ”

मनीषा के हाथ में उन्होंने एक पैकेट थमा दिया। उत्साह के साथ मनीषा ने वह पैकेट खोला। धागे की गांठ को हल्के से खोलकर कागज की परत को अच्छे से हटाकर देखा। अंदर में एक साड़ी थी। कोमल केले के पत्ते की तरह एक हरी साड़ी।

दोनों हाथों में लेकर छाती से चिपकाते हुआ कहा, “काउल साहब! थैंक्यू, थैंक्यू। ”

कुछ समय तक साड़ी को खोलकर चारों ओर उलट-पलटकर वह उसका बॉर्डर, रंग और धागे को देखने लगी। अपने शरीर पर उस साड़ी को बिछाकर कहने लगी, “काउल साहब! एक बात जानते हो? जब मैं नैनीताल में पढ़ा करती थी। कान्वेंट स्कूल का वह आखिरी साल था। हम सब पास हो गए थे। आखरी दिन हम फैंसी नाईट मना रहे थे। सब अलग-अलग चेहरे बनाकर वहां पहुंचे थे। कोई वेस्टइंडीज बना था तो कोई इंडियन प्रिंस तो कोई मिलिट्री ऑफिसर। मुझे रानी बनने के लिए कहा गया था। मैं मुकुट लाई थी, वास्तविक मुकुट। हमारे साथ ग्वालियर के लड़की पढ़ा करती थी, उसका मुकुट। डैडी, मम्मी मुझे बाजार ले गए थे। ठीक ऐसे ही साड़ी खरीदी थी मेरे लिए। ऐसी ही सोने की जरी। मुकुट में साड़ी पहनकर मैं सचमुच एक रानी की तरह दिख रही थी। मम्मी खुश होकर मुझे गले लगा रही थी। मुझे उसमें फर्स्ट प्राइज मिला था। यह बहुत दिन पुरानी बात होगी। आज इसे पहनने पर मजाक-सा लगेगा। ”

“मनीषा, बिना गहनों के भी तुम सदा रानी लगती हो। यह सारा आवरण तुम्हारे रूप की क्या मर्यादा बढ़ाएगा?”

“काउल साहब, पता नहीं आप मनोवैज्ञानिक है या नहीं। मगर इससे अधिक मधुर बात आप मुझे और कुछ नहीं कह सकते हैं। मेरा रूप, फिर उसकी समीक्षा। ”

“मनीषा! तुम्हारे साथ परिचय इतने कम समय का है कि शायद ही मैं तुम्हारे बारे में कुछ कह पाऊं। ”

“काउल साहब! रात बहुत हो गई। क्लब में आपका डिनर लेट हो जाएगा। फिर कभी वक्त निकालकर आइएगा तो मैं अपनी जिंदगी और अपने परिवार के बारे में बताऊँगी। बस, धीरज चाहिए। आपको फिर किसी शिकवे की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी। ”

मनीषा के लिए रात का भोजन नर्स टेबल पर सजा कर चली गई। काउल ने कहा, “ठीक है। पहले डिनर कर लो। फिर तुम्हारे सोने के बाद मैं चला जाऊंगा। ”

“ मां का मतलब ऑफिस जाते समय या बाजार में सौदा करने के समय बच्चों की देखभाल करने के लिए घंटे की दर से जिस व्यक्ति को नियुक्त किया जाता था, उसे बेबीसिटर कहते हैं। मगर मरणासन्न रोगी नारी को साड़ी और अपना समय देकर डिनर तक अस्पताल में इंतजार करने वाले को क्या कहा जाएगा, जानते हो?”

“ सूप ठंडा हो रहा है, मनीषा! तुम्हारी डेफिनेशन के लिए ब्रेकफास्ट तक अनायास प्रतीक्षा की जा सकती है। ”

डिनर करने के बाद मनीषा छोटी टेबल से उठकर अपने बिस्तर की तरफ चली गई। काउल ने पीछे से स्प्रिंग मोडकर बिछौने को आधी ऊंचाई तक फ़ोल्ड कर दिया। मनीषा आराम कुर्सी पर बैठने की तरह विश्राम लेने लगी। काउल ने एक सफेद चादर उसके कमर तक ओढा दी।

“काउल साहब! लगता है मैं बहुत स्वार्थी हो गई हूँ। मैंने डिनर कर लिया है और अब विश्राम कर रही हूं। आप हैं कि ऑफिस से लौटकर यहां इतनी देर तक मेरे पास बैठे हैं। एक कप कॉफी तक नसीब नहीं हो सकी। बना लेती हूँ? यहाँ सारा इंतजाम है। ”

असहमति के लहजे में सिर हिलाते हुए काउल ने कहा, “मनीषा, एक बार नारद ने भगवान से पूछा, ‘प्रभु! माया क्या है?’”

भगवान ने कहा, “समय आने पर समझा दूंगा। ”

बहुत दिनों के बाद दोनों वेश बदलकर मृत्यु-लोक के सुख-दुख जानने के लिए विचरण कर रहे थे। गर्मी के दिन थे। गांव के मुहाने पर पहुंचकर भगवान को प्यास लगने लगी। भगवान ने कहा, “नारद! मेरे लिए थोड़ा पानी लाओ। ”

नारद पानी लाने के लिए गांव की ओर निकल पड़े। गाँव में घरों के सारे दरवाजे बंद हो चुके थे। कई घरों के दरवाजे खटखटाए, मगर किसी ने जवाब नहीं दिया। वह एक गांव से दूसरे गांव गए। वहाँ महामारी फैली हुई थी। फिर वह दूसरे गाँव गए। उस गांव में पहुंचने तक शाम हो चुकी थी। नारद को कमजोरी लग रही थी। उन्होंने थोड़ा विश्राम लिया। रात में एक ब्राह्मण के घर में अतिथि बने। ब्राह्मण की एक सुंदर कन्या थी। घर में कोई मां-बाप नहीं थे। उस कन्या ने नारद की खूब सेवा की। नारद उसके प्रेम-जाल में पड़ गए। उससे विवाह किया। कई दिन बीत गए। बाल-बच्चे भी पैदा हुए। भगवान को भूलकर नारद घर-संसार बसाकर सुख से रहने लगे। दुनियादारी की बाकी सारी बातें भी भूल गए। अचानक एक दिन भयावह बाढ़ आई। घर-बार सब बह गए। लोग-बाग ऊंची छतों और पेड़ों पर आश्रय लेने लगे। फिर भी स्थिति संभाल नहीं पाई। पानी का स्तर बढ़ता गया। पेड़ों और छतों तक पहुँच गया। नारद के कंधे पर बैठ गई उनकी स्त्री। उनकी स्त्री के कंधे पर बैठा उनका बेटा। उसके कंधे पर बैठा दूसरा लड़का। इस तरह वे पानी को पार कर रहे थे। मगर पानी बढ़ता ही जा रहा था। पानी बढ़ते-बढ़ते नारद के कंधे, गर्दन, नाक तक पहुँच गया। जब पानी का स्तर और ऊपर चढ़ने लगा तो नारद छटपटा कर बोलने लगे, “हे भगवान, रक्षा करो। ”

भगवान ने भक्त की पुकार सुनी। वहाँ प्रकट होकर भगवान ने कहा, “नारद, एक दिन तुमने पूछा था न माया क्या है! क्या इसका उत्तर मिला?”

मनीषा एकाग्रता से सुन रही थी। करवट बदलकर बैठ गई।

“मनीषा, मेरे मन में कोमल भावनाएँ नहीं है। वैसे किसी काम का नहीं हूं। मगर थोड़े ही परिचय ने तुम्हारे लिए मेरे मन में ममता पैदा कर दी है। मैं माया में पड़ गया हूं। यद्यपि मैं नारद नहीं हूं। ”

ममत्व की बात सुनकर मनीषा हंसने लगी।

वह कहने लगी, “ यह ममता नहीं है काउल साहब, यह दया है। दुर्भाग्य से सड़क पर किसी की दुर्घटना हो जाती है तो बटोही वहाँ जमा हो जाते हैं। यथा-संभव मदद करते हैं। एंबुलेंस में बैठाते हैं। फिर अपने-अपने घर लौट जाते हैं। एकाध आदमी अगले दिन अस्पताल में फोन कर कर लेते हैं, एक्सीडेंट केस का हाल-चाल जानने के लिए। काउल साहब! इसका मतलब यह नहीं है कि मैं आपकी मेहरबानी की हंसी उड़ा रही हूं या मैं आपके प्रति अकृतज्ञ हूं। ”

“मनीषा, कृतज्ञता या सम्मान की मैं आपसे आशा नहीं रखता। मानवता के नाते जितना मुझे करना चाहिए, बस मैंने उतना ही किया है। ” तभी नर्स नींद की दवा देने के लिए वहां आई। चे काउल वहाँ से चले गए।

अगले दिन वह व्यापार के सिलसिले में सिंगापुर चले गए। फोन पर नर्सिंग होम के डॉक्टर को कहा, “मनीषा को बता देना कि मुझे लौटने में एक हफ्ता लग जाएगा। मनीषा को मेरी तरफ से शुभकामनाएं दे दीजिएगा। ”

काउल को दैनिक समस्याएं हवाई-जहाज में बहुत मामूली लगती है। ऊंची-ऊंची इमारतें बच्चों के प्लास्टिक के खिलौने की तरह दिखती है। सड़के कागज पर खींची हुई सुर्ख लकीरों की तरह लगती है। कुछ समय बाद सफेद बादल रुई के फाहे बन जाते हैं। हवाई जहाज जब बादलों के

ऊपर उठता है तब चारों ओर केवल शून्य, महाशून्य दिखाई देता है।

(क्रमशः अगले भागों में जारी...)

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रचनाकार: उपन्यास - अमावस्या का चांद - भाग 9 // बैरिस्टर गोविंद दास // अनुवाद - दिनेश माली
उपन्यास - अमावस्या का चांद - भाग 9 // बैरिस्टर गोविंद दास // अनुवाद - दिनेश माली
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