भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग 7 18. हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण: काव्य-पाठ एवं व्याख्यान हार्वर्ड विश्वविद्यालय ...
भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 भाग 5 भाग 6 भाग 7
18. हार्वर्ड से बहुदिगंत आनुष्ठानिक भ्रमण:
काव्य-पाठ एवं व्याख्यान
हार्वर्ड विश्वविद्यालय का नृतत्व विभाग
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी का नृतत्व विभाग शिकागो विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग की तरह बहुत प्रसिद्ध है। इस विभाग में कई प्रसिद्ध नृतत्वविद हैं, जिन्होंने अमेरिका के अलावा दुनिया के कई आर्थिक-सम्पन्न देशों पर शोध किया है। उन्होंने दक्षिण अमेरिका की अमेज़ॅन घाटी,अफ्रीका के नाइजीरिया, केन्या आदि राष्ट्र, दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों की अर्थव्यवस्था के विकास के लिए पारंपरिक समाज में होने वाले परिवर्तनों और समस्याओं के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण से चर्चा की है। नृतत्व विभाग के मुखिया मेबुरी लुईस दक्षिण अमेरिका के विभिन्न अंचल, विशेषकर अमेज़ॅन नदी घाटी में आर्थिक विकास के ख्याति लब्ध गवेषक थे। हार्वर्ड प्रवास के दौरान मुझे प्रोफेसर लुईस, प्रोफेसर नूर यूलमान और अन्य लोगों के साथ मिलने का अवसर प्राप्त हुआ था। नृतत्व विभाग द्वारा आयोजित होने वाले अधिकांश मासिक सेमिनारों में मैंने भाग लिया था। प्रोफेसर लुईस के अनुरोध पर मैंने 'भारत के आदिवासी समाज के लिए उपयुक्त विकास की योजना का स्वरूप' विषय पर व्याख्यान दिया था। व्याख्यान के विभिन्न सैद्धांतिक पहलुओं पर यहाँ चर्चा करने की कोई खास जरूरत नहीं है। मैं केवल अपने व्याख्यान का सारांश यहां बताना चाहता हूं।
भारतीय आदिवासी समाज कई तरह से विभाजित एक जटिल समाज है। यह समाज लगभग दो सौ पचास समुदायों में विभाजित है। इन समुदायों को देखने के अलग-अलग दृष्टिकोण हैं। उनके आर्थिक विकास और शिक्षा के स्तरों में अंतर हैं। भारत के तीन सबसे बड़े आदिवासी समुदाय की आबादी 60 लाख से ज्यादा है, जबकि अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में कुछ आदिवासी समुदायों की आबादी केवल तीन या चार सौ तक ही सीमित है। संथाल उन तीन सबसे बड़ी समुदायों में से एक है। वे पूर्वी भारत के तीन राज्यों के निर्दिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में रहते हैं। अब इन अंचलों को लेकर झारखंड राज्य बनाया गया है। संथाल समुदाय विकास की मुख्य धारा से अपने आपको जोड़ने में सक्षम है। इसके विपरीत, ओड़िशा के बोंडा और जुयांग समुदाय (जिनकी जनसंख्या पांच-छह ह हजार है) देश द्वारा संचालित विकास प्रक्रिया से बहुत दूर हैं।
ऐसे जटिल, विभक्त समुदाय के लिए कोई उपयुक्त योजना तैयार करना आसान है। नृतत्वविद, अर्थशास्त्री और योजना विशेषज्ञों के बीच दो विरोधाभासी दृष्टिकोण देखे जा सकते हैं। पहला, यह है कि इन समुदायों की मौलिक संस्कृति अत्यंत मूल्यवान है और आर्थिक विकास के परिप्रेक्ष्य में ऐसी संस्कृति को बिलकुल नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है। दूसरा दृष्टिकोण है: भारतीय आदिवासी समाज की पारंपरिक संस्कृति विकास विरोधी है और जब तक कि उनकी पारंपरिक संस्कृति को मिटाया नहीं जाता, उनका आर्थिक विकास संभव नहीं है। सौभाग्य से, एक और नया दृष्टिकोण उभरा है, जिसके अनुसार उनकी पारंपरिक संस्कृति की मौलिकता को बरकरार रखते हुए उनके लिए आर्थिक विकास कार्यक्रम किए जा सकते हैं।
यह याद रखना होगा कि भारतीय आदिवासी समाज में अढ़ाई सौ विभिन्न समाज शामिल हैं। उनके लिए कोई भी योजना बनाते समय इस पहलू को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। मैंने अपने व्याख्यान में विस्तार से भारतीय आदिवासी लोगों के जटिल नृतात्विक परिवेश, जीवन के प्रति उनके पारंपरिक दृष्टिकोण आदि पर प्रकाश डाला। मैंने इस बात पर बल दिया था कि आदिवासी समाज के मूल्यवान गुणों को उनके आर्थिक विकास हेतु नष्ट नहीं किए जाने चाहिए। उनके महत्वपूर्ण गुण निम्न हैं :-
1 उनमें जीवन के प्रति गहरी अनुरक्ति है जो हमारे समय की जीवन विमुखता से पूरी तरह से अलग है। इस अनुरक्ति के कारण दु:ख-दुर्दशा, शोषण और उत्पीड़न होने के बावजूद भी वे जीवन विमुख नहीं हो पाए।
2 आदिवासी लोगों का समाज-प्रेम, समुदाय-स्नेह और अनुरक्ति हमें अभिभूत करती है। यह सामूहिकता समुदाय के संगीत, नृत्य और त्योहारों इत्यादि के जरिए आंतरिक बंधन बनाए रखती है।
आधुनिक समाज में व्यक्तिचेतना, देवता, पूर्वज और आसपास की प्रकृति से संबंध छिन्न-भिन्न होने के कारण हम लोग सामान्य धूल कणों की तरह तैर रहे हैं। इस दृष्टि से आदिवासी समाज की स्वाभाविक जीवनप्रीति और समुदाय के प्रति प्रेम आधुनिक समाज के लिए शिक्षाप्रद है।
आदिवासियों का मानना है कि व्यक्तिगत जीवन में आनंद, सुख और संतोष सबसे महत्वपूर्ण चीजें हैं। इसलिए उनका मानना है कि आर्थिक विकास मायने रखता है। दूसरी बातें, आधुनिक व्यक्ति आदिवासी लोगों से मूल्यबोध सीख सकते हैं। यह जरूरी है कि उनके आर्थिक विकास की योजना बनाते समय इन गुणों की तिलांजलि नहीं दी जा सकती है।
समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र और योजना के विभिन्न पहलुओं पर मैंने उपरोक्त पृष्ठभूमि की अपने व्याख्यान में प्रस्तुति की थी। मुझे नहीं लगता कि इन सब की विस्तृत चर्चा यहाँ प्रासंगिक है।प्रोफेसर मेबूरी लुईस ने इस बैठक की अध्यक्षता की थी। नृतत्व विभाग, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र विभाग के कई प्रोफेसरों, शोधकर्ताओं और विद्यार्थियों ने इस संगोष्ठी में भाग लिया था। व्याख्यान के बाद लंबा समय सवाल-जवाब सत्र में व्यतीत हुआ था।
मैंने बोस्टन विश्वविद्यालय में नृतत्व पर एक और व्याख्यान दिया था। मैंने आदिवासी लोगों के आर्थिक विकास हेतु भूमि और जंगल के महत्व पर प्रकाश डाला था। मेरे व्याख्यान का शीर्षक था "आदिवासी विकास में भूमि और जंगल की भूमिका : अधिकार एवं अधिकार वंचित" मैंने उन संदर्भों के बारे में एक विस्तृत ब्यौरा प्रदान किया था, जिसमें गरीब आदिवासियों ने अपनी अल्प जमीन खोई थी। आजादी के बाद में बड़ी-बड़ी सिंचाई परियोजनाओं, बड़े उद्योगों और खनिज उत्तोलन के लिए आदिवासियों की भूमि का सरकार द्वारा अधिग्रहण किया गया था। इसके अलावा, गैर-आदिवासी लोगों ने आदिवासियों की जमीन चालाकी से हड़प ली, भले ही, कानून ने इसे प्रतिबंधित क्यों न कर दिया हो। उपर्युक्त कारणों के कारण छोटे और सीमांत आदिवासी किसान अपनी जमीन लूटाकर, घर-ज़मीन से अपने अंतरंग और गहरे संबंध छिन्न-भिन्न कर शहरों में दैनिक मज़दूरी करने के लिए बाध्य हुए हैं। सरकारी परियोजनाओं के लिए भूमि खोने पर उन्हें पर्याप्त मुआवजा मिलता है, मगर मुआवजे के पैसे आदिवासियों के हाथ में लंबे समय तक रह नहीं सकते। उनका पैसा बहुत ही कम समय में स्थानीय शराब दुकानदार या व्यापारियों के हाथों में अनायास अपना रास्ता तलाश लेता है। नतीजतन, मिट्टी,गाँव और समुदाय के प्रति आसक्त आदिवासी लोग जटिल शहरी जीवन से समझौता करने लगते हैं। दूसरा आदिवासी लोगों का युगों से जंगलों से संबंध रहा है। ऐसा नहीं है कि वे केवल पहाड़ियों, घाटियों और जंगलों के ढलान पर रहते हैं। वे जंगल में रहने के लिए घर बनाने की चीजों को इकट्ठा करते हैं, वे जंगली द्रव्यों को इकट्ठा कर बेचते हैं, उनसे मिलने वाले पैसों का इस्तेमाल अन्य चीजों को खरीदने में करते हैं, जो उनकी जीविका के लिए आवश्यक है। पहाड़ों और जंगलों से आदिवासी लोगों को हटाने का अर्थ है मछह ली को पानी से बाहर निकालकर कहीं और फेंकना। उनकी आर्थिक योजनाओं के उद्देश्य का आधार होना चाहिए, जमीन और जंगल दोनों को लेकर स्वस्थ,सुखी और आत्मनिर्भर आदिवासी समाज का निर्माण करना। मैंने अपने व्याख्यान में आदिवासी लोगों की जमीन खोने के कारण, अवांछित तरीके और उनके परिणामों पर विशद चर्चा की थी। दूसरा, मैंने जंगलों के साथ आदिवासी लोगों के घनिष्ठ संबंधों पर भी चर्चा की थी। अंत में, मैंने दोनों को लेकर आदिवासी लोगों के लिए विकास योजना प्रणयन और उनके विभिन्न बिन्दुओं पर प्रकाश डाला था।
आदिवासी लोगों की जमीन का कानूनी अधिग्रहण और उचित मुआवजा मिलते ही बहुत कम अवधि में उन्हें मिले मुआवजे के वे पैसे खर्च हो जाते हैं। स्थानीय मदिरा, कपड़ा व्यापारी उनके मुआवजे के पैसों पर गिद्ध दृष्टि रखते हैं। इसलिए पैसा जल्द ही उनके हाथों से निकल जाता है और वे शहर जाकर दैनिक श्रमिक बनने पर मजबूर हो जाते हैं । सामाजिक संहति की दृष्टि से यह अवांछह नीय है, जिसके फलस्वरूप शहरों में नाना समस्याएं पैदा होती हैं।
इसलिए मैंने अपने व्याख्यान में जंगल और जंगलाती द्रव्यों पर आदिवासी लोगों के अधिकारों के बारे में विशिष्ट टिप्पणी की थी। मैंने ओड़िशा के आदिवासी अंचलों में (एक सरकारी कर्मचारी और शोधकर्ता के रूप में) लंबे समय तक काम करने के कारण मेरा विश्वास है कि इस मामले में मेरे पास गहरा अनुभव है। वास्तव में, मेरा व्याख्यान मुख्य रूप से मेरे उन व्यक्तिगत अनुभवों पर ही आधारित था। मेरे व्याख्यान का मूल प्रतिपाद्य था कि आदिवासी लोगों के लिए नूतन समाज, अर्थनीति और समाजिकता के लिए जमीन और जंगल के उनके पुराने अधिकार और व्यवहार के मद्देनजर नीति-निर्माण की आवश्यकता।
व्याख्यान के बाद सवाल-जवाब सत्र का आयोजन किया गया था। सेमिनार में मौजूद प्रोफेसरों और छात्रों ने मेरे व्याख्यान पर सारगर्भित मंतव्य दिया था। बोस्टन विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग के प्रति मेरी श्रद्धा दोगुनी हो गई थी।
शिकागो विश्वविद्यालय का नृतत्व विभाग और विलियम वॉन मूडी व्याख्यान
‘दक्षिण एशियाई अध्ययन समिति’ ने मुझे हार्वर्ड प्रवास के दौरान शिकागो विश्वविद्यालय में नृतत्व विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। यह समिति शिकागो विश्वविद्यालय में सम्मानित संस्था है और उसके नृतत्व विभाग के साथ मिलकर काम करती है। उस समय विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग में मैकिम मैरियट और बी.एस. कोन समेत लगभग सात विश्व प्रसिद्ध नृतत्वविद थे। श्री कोन मेरे व्यक्तिगत दोस्त थे। मैं उन्हें 'बार्नी' कहता था और वे मुझे 'एसके' । वहाँ का नृतत्व विभाग विश्वविख्यात था। अर्थशास्त्र विभाग भी नृतत्व विभाग की तरह प्रसिद्ध था। बहुत सारे नोबेल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर वहाँ पढ़ाते थे।जिनमें थियोडोर शुल्ज़, वसीली लोंतीफ, लॉरेंस क्लाइन, मिल्टन फ्रिडमैन, मर्टन मिलर, रॉबर्ट लुकास आदि के नाम शामिल थे। मैंने उनकी कुछ पुस्तकें पहले पढ़ रखी थीं।
नृतत्व विभाग के प्रमुख और शिकागो विश्वविद्यालय के विलियम वॉन मूडी लेक्चर कमेटी के अध्यक्ष डा॰ केनेथ नॉर्टकोट ने मुझे उस वर्ष के वार्षिक व्याख्यान हेतु आमंत्रित किया था। मुझे पहले अपनी कविताएं पढ़ने, उनके बारे में कुछ कहने का और उपस्थित साहित्य के प्रोफेसरों और छात्रों के साथ चर्चा करने का अनुरोध किया गया था। मैं एक ही बार दोनों कार्य पूरा करना चाहता था। अतः तदनुसार व्यवस्था की गई थी।
हार्वर्ड पाठ्यक्रम के प्रतिभागियों को जब कोई अन्य विश्वविद्यालय या संगठन आमंत्रित करता है तो न उन्हें केवल अनुमति दी जाती है वरन प्रोत्साहित भी किया जाता है। मैं बोस्टन हवाईअड्डा से उड़ान पकड़कर (मेरी घड़ी के अनुसार सवा चार बजे) शिकागो पहुंच गया, लेकिन स्थानीय समय सवा तीन बज रहा था। आकाश घटाटोप छाया हुआ था,हल्की-हल्की बूंदा़बाँदी हो रही थी। विश्वविद्यालय हवाई अड्डे से ज्यादा दूर नहीं था। आगे से जगह की जानकारी थी, इसलिए लिमोसिन (बड़ी टैक्सी) पकड़ कर वहाँ पहुँच गया। साथ ही साथ नॉर्मन भी मेरे पास पहुंच गए। क्वाड्रंगल क्लब में मेरे रहने की व्यवस्था की गई थी। सूट बहुत बड़ा था, सोफा सेट, टेलीविजन, ड्राइंग रूम सब थे। बेडरूम दूसरा था। नॉर्मन ने बताया कि यह विश्वविद्यालय का सबसे पुराना और सबसे महंगा क्लब था। क्लब के डाइनिंग हॉल में हम दोनों ने एक साथ खाना खाया, लंबे झींगों का भोजन, जो हम दोनों का प्रिय था। क्लब से मंगाए खाने में सलाद और फल सबसे ज्यादा स्वादिष्ट थे। मैंने देखा कि नॉर्मन को गहरे लाल तरबूज पसंद थे। नॉर्मन ने अपने ओड़िशा दौरे में मुझे ओड़िया खाद्य खिलाने के लिए कहा था उस दिन स्वादिष्ट भात खाने को मिला था।
नॉर्मन ने कोरापुट की दिदाई (एक जनजाति) भाषा पर शोध कार्य किया था। उन्हें मुंदरी (एक अन्य जनजाति) भाषा भी आती थी। उनकी पत्नी आरर्लेन को मैं जानता था। मैंने उनसे पूछा कि उनकी पत्नी उस रात डिनर पर क्यों नहीं आई? उन्होंने कहा, "आप बोस्टन से शिकागो आए हैं।आरर्लेन आज बोस्टन गई है। आपके रहते-रहते वह आ जाएगी।" नॉर्मन के दो पुत्र थे। मैंने उन्हें भुवनेश्वर में अपने पिता के साथ देखा था, जब वे बहुत छोटे थे। उनके बड़े बेटे ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी कर फिल्मों में आने की कोशिश कर रहा था। छोटा बेटा अभी भी पढ़ रहा था। क्लब पहुँचते-पहुँचते मेरे मित्र रामानुजन ने मुझे फोन किया।अनौपचारिक रूप से मैं उन्हें रमन या ए के कहकर बुलाता था और वह मुझे ‘एस॰के॰’। फोन पर उन्होंने बताया कि अपनी बेटी को हवाई अड्डे से रिसीव करने के कारण वह रात्रिभोज में शामिल नहीं हो पाएगा। उनकी बेटी ने इंडियाना विश्वविद्यालय से साहित्य की पढ़ाई पूरी कर ग्रीक संस्कृति पर काम कर रही थी। उनका बेटा शिकागो में काम करता था।
अगली सुबह नींद खुलते समय तेज धूप पड़ रही थी। आकाश में और बादल नहीं थे। स्थानीय समय साढ़े छह ह बजे कमरे में चाय पीकर टहलने के लिए बाहर आया। क्लब के पीछे दो टेनिस कोर्ट थे, उसके उस तरफ यूनिवर्सिटी की सड़क पर वाहन चल रहे थे। सुंदर धूप वाली सुबह रात की हल्की-हल्की बूँदाबाँदी और सामान्य बर्फबारी को अतीत में बदल दे रही थी। मुझे उस दिन पहले रिक स्वेडर से मिलना था। वे सामाजिक विज्ञान के डीन थे। उनके विभाग में कुछ समय व्यतीत करने पर नॉर्मन वहाँ आया था। रिक ने भारतीय समाज और संस्कृति पर कुछ काम किया था। उन्होंने मुझे अपना विभाग दिखाया। उसके बाद हम दोनों ने तहखाने में रखी समाजशास्त्र की पुस्तकें देखी।इस विषय पर बहुत सारी पुस्तकें एक ही स्थान पर देखकर मुझे बहुत खुशी हुई। उसके बाद झील के बगल में विस्तृत सड़क पर जाते हुए हमने विज्ञान और उद्योग संग्रहालय, आधुनिक आर्ट गैलरी और प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय देखते हुए सीयर्स टावर्स में कुछ समय बिताया। यहाँ दो बहुत लंबे टावर थे। एक सफेद था और दूसरा काला। हम रास्ते में मछह लीघर और चिड़ियाघर भी देखकर झील के किनारे कुछ समय इधर-उधर घूमे। उसके बाद लंच के लिए क्लब में आए। लंच के बाद शिकागो विश्वविद्यालय में उर्दू साहित्य के प्रोफेसर सी॰एम॰ नैम, और उनकी एक छात्रा मुझसे मिलने आई। 'अमरशतक' पर पीएचडी करने वाला एक छात्र भी उनके साथ था।
30 मार्च, संध्या 7.30 बजे हार्पर लाइब्रेरी में मेरे काव्य-पाठ और व्याख्यान की व्यवस्था की गई थी। उसके लिए व्याख्यान समिति ने मुझे बहुत पहले से विज्ञापित नोटिस भेज दिया था। उसमें यह उल्लेख किया गया था कि कार्यक्रम के लिए कोई टिकट नहीं रखे गए थे। मेरे दोस्त स्व॰ ए.के. रामानुजन ने प्रेक्षागृह में मेरा परिचय दिया और विभागीय प्रमुख प्रोफेसर नॉर्थकोट ने बैठक की अध्यक्षता की। कई स्थानीय कवि और साहित्य के प्रोफेसर उपस्थित थे। पहले मैंने दस कविताएं पढ़ीं, उसके बाद मैंने आधुनिक भारतीय कविता और मेरी कविता के बारे में संक्षेप में रोशनी डाली। परवर्ती चर्चा बहुत उच्च स्तर की थी। कई सवाल काफी ‘तेज’ थे। सत्र खत्म होने के बाद प्रोफेसर नॉर्थकोट ने अपने घर में मेरे लिए रात्रि भोजन का आयोजन किया था। वहाँ मैं रामानुजन, अन्य कवियों और साहित्यिकारों से अनौपचारिक परिवेश में फिर से एक बार मिला था। मेरे दोस्त ए.के. (राननुजन) ने डिनर के दौरान बताया कि विलियम वॉन मूडी व्याख्यान में मुझे आमंत्रित किए जाने पर वह बहुत खुश था,क्योंकि इस आयोजन में पहले आर.के. नारायण और कई प्रख्यात अमेरिकी लेखक आमंत्रित किए जा चुके थे।
नृतत्व विषय पर मेरा व्याख्यान दूसरे दिन था। मुझे इस संबंध में विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित विज्ञापन की प्रतिलिपि मिली थी। मेरे व्याख्यान का शीर्षक था 'ओड़िशा के तीन जनजातियों के शब्द, भित्तिचित्र और रिचुअल्स’। इस व्याख्यान का आयोजन नृतत्व विभाग और दक्षिण-पूर्व एशियाई सांस्कृतिक संगठन ने संयुक्त रूप से किया था। मेरा व्याख्यान सांथाल, सौरा और कंध, इन तीन आदिवासी समुदायों द्वारा देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपनाए जाने वाले विभिन्न तौर-तरीकों और अनुष्ठानों पर आधारित था। सौरा के भित्ति चित्र, संथालों की 'बाखने' (प्रार्थना संगीत) और कंधों के मारिया स्तोत्र मेरे व्याख्यान के विशेष अंश थे। प्रो॰बी॰एस॰कोन, मैकिन मैरियट और भारतीय नृतत्व पर काम कर रहे कई अन्य शोधकर्ता दर्शकदीर्घा में उपस्थित थे। डा॰ कोन ने बैठक की अध्यक्षता की थी। वे उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में हुए सामाजिक परिवर्तनों और कृषि उपायन में नृतात्विक दृष्टिकोण जैसे विषयों के विशेषज्ञ थे। (श्री बार्नी का इस बीच में निधन हो गया है।) मैंने ओड़िशा के तीन आदिवासी समुदायों के विश्वास, धार्मिक चेतना के उत्स और सामाजिक जीवन में मूल्य-बोधों पर प्रकाश डाला था। मैंने पहले 'बाखने' के बारे में बात की थी, जो अलग-अलग समय पर देवी-देवताओं और पूर्वजों की प्रार्थनाओं से संबंधित है। मैंने चौदह 'बाखने' के विशद विश्लेषण की एक पुस्तक प्रकाशित की है। मैंने अपने व्याख्यान में इसके बारे में कुछ बताया था। दूसरे, मैंने सौरा के देवी- देवताओं को समर्पित भित्ति चित्रों के बारे में कुछ कहा था। मैंने सौरा के इन चिह्नों की और कहीं भी चर्चा की है। सौरा की प्रार्थना प्रवृत्ति संथाल से बहुत भिन्न है, लेकिन उनके उद्देश्य समान हैं। वह उद्देश्य है- व्यक्ति और समाज की मंगल कामना, बेहतर फसल, अच्छा स्वास्थ्य, निरोग जीवन और समुदाय में शांति के लिए अदृश्य देवताओं से प्रार्थना की जाती है।
तीसरा समांतराल उद्देश्य डंगरिया कंधों के मेरिया त्योहार के समय नर-बलि देने की मैंने पूर्व व्याख्या की है। वे धरित्री देवी अर्थात् धरतीनी और आकाश के धर्म देवता अर्थात् धर्म आशीर्वाद के लिए मेरिया श्लोक पढ़ते हैं। एक दृष्टिकोण कोण से मेरिया बलि क्रूर परंपरा है। यह अभी भी प्रचलित है। एकमात्र परिवर्तन यह हुआ है कि नर-बलि की जगह पशु-बलि दी जाती हैं। लेकिन इसके पीछे प्रार्थना से धरती माता और धर्म देवता का समाज के मंगल हेतु आह्वान करना है, इस बात का ध्यान रखना पड़ेगा। इस तरह तीन अलग-अलग आदिवासी समाज अपने-अपने तरीकों से देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना करते हैं। सामाजिक मंगल के लिए वे उनका आशीर्वाद मांगते हैं। वैदिक ऋषियों की प्रार्थना की तरह इन आदिम जनजातियों की प्रार्थना विश्व-संस्कृति का एक मूल्यवान अंग है।
मैं विश्वविद्यालय के अतिथिगृह में ठहरा था, वहाँ रामानुजन और उनकी विदेशी पत्नी नॉर्मन जैड के साथ मेरा तीन दिवसीय प्रवास काफी सुखद रहा। मेरे इस व्याख्यान में मेरे कई भारतीय दोस्त भाग ले रहे थे। उनमें मेरे कॉलेज दिनों के सहपाठी मित्र सूर्य मिश्रा और उनकी पत्नी भी थीं। सूर्य विश्वविद्यालय से करीब 40 किलोमीटर दूर रहते थे। उनके अनुरोध पर मैं रात्रि-भोज के लिए उनके घर गया। उस रात उन्होंने अपने घर अनेक ओड़िया दोस्तों को भी आमंत्रित किया था। विजय मिश्रा, अमिय पटनायक, मिहिर दास और भावेश दास चार लोगों से वहाँ मेरी मुलाक़ात हुई। खाने के बाद विजय ने कुछ ओड़िया गाने गाए। हमारे अनुरोध पर सूर्य की डॉक्टर पत्नी कविता ने भी कुछ गाने गाए। सूर्य ने मुझे विश्वविद्यालय के क्लब में छोड़ा,उस समय आधी रात हो रही थी। अगली सुबह मुझे बोफालो में एक रिश्तेदार के घर जाना था।
इससे पहले मैंने शिकागो का दो बार दौरा किया था। सन 1976 में अंतर्राष्ट्रीय नृतत्व कांग्रेस में दो पेपर पढ़ने के लिए मैं वहां गया था। दूसरी बार अपनी खुशी से मैं वहां गया था। मेरी पहली यात्रा के दौरान मेरे साथ कई भारतीय नृतत्वविद थे। उस समय भी मैंने रामानुजन और नॉर्मन ज़ैड के साथ भी कुछ समय बिताया था। रामानुजन ने 'द क्लोजिंग ऑफ अमेरिकन माइंड' के लेखक से मेरे मिलने की व्यवस्था की थी। इस बहुचर्चित पुस्तक के विषय पर उसके लेखक के साथ मैं कुछ चर्चा करना चाहता था- मैंने रामानुजन को पहले से बता दिया था।
शिकागो महानगर सिर्फ अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा शहर नहीं है, वरन् यह अमेरिका के साहित्य, संस्कृति, जैज संगीत और काले लोगों की जीवन-शैली के लिए प्रसिद्ध है। शिकागो का ‘ओ हेयार’ दुनिया का सबसे बड़ा और व्यस्त हवाई अड्डा है और व्यापार-वाणिज्य का अन्यतम केंद्र है। मिशिगन झील के तट पर स्थित होने के कारण शिकागो से जलमार्ग द्वारा कई वस्तुओं का कनाड़ा और दुनिया के अन्य देशों में निर्यात किया जाता है। अमेरिकी रेलवे इतिहास में शिकागो एक महत्वपूर्ण नाम है। झील तट पर बनी गगनचुंबी इमारतें दर्शनीय हैं।यद्यपि मैंने इस अंचल को पहले देखा था, फिर भी मेरे दोस्त नॉर्मन जैड मुझे दुबारा इस अंचल में ले आए। मिशिगन झील के किनारे बना सीयर्स टॉवर दुनिया की अन्यतम ऊंची इमारत है। अन्य शहरों के साथ शिकागो को जोड़ने वाले हाइवे पर यातायात खूब ज्यादा होता है। आठ-लेन वाले इस हाइवे पर सुबह 8 से 10 बजे और शाम को 5 और 8 बजे के बीच इतनी गाडियाँ चलती है कि अक्सर ट्रैफिक जाम रहता है। नॉर्मन एक बार ऐसे ट्रैफिक जाम में फंस गए थे, जिसकी वजह से हम निर्धारित समय से लगभग पैंतालीस मिनट देर से पहुंचे। संक्षेप में यह कहा जा सकता है, स्थलमार्ग, जलमार्ग और वायुमार्ग, तीनों में शिकागो अमेरिका का अन्यतम विशाल महानगर है।
रामानुजन ने 31 मार्च के पूर्वाह्न 11 बजे सुप्रसिद्ध उपन्यासकार शाल बेलो से मेरी मुलाक़ात तय की थी। शाल बेलो बहुत ही व्यस्त व्यक्ति थे। मैंने उनके अधिकांश उपन्यास और निबंध-संग्रह पहले पढे थे (जैसेकि 'हर्ज़ोग', 'एडवेंचर्स ऑफ औगी मार्च', 'डांगलिंग मैन', 'मिस्टर॰सम्मलर प्लैनेट' और ' द डीन ऑफ दिसम्बर' इत्यादि।) मुझे उनसे मिलने की बहुत इच्छा थी। शिकागो की विगत यात्रा में रमन उनके साथ मेरी मुलाक़ात नहीं करवा पाए थे। इस अवसर पर उन्होंने हमारे लिए आधे घंटे का समय निकाला। रामानुजन उस विश्वविद्यालय की सात सदस्यीय समिति के सदस्य थे। यह समिति अमेरिका के जन-जीवन,संस्कृति,मानवता खोजने,भविष्य में समूचे विश्व में मानवतावाद के संरक्षण और साहित्यिक स्वाधीनता आदि के बारे में चर्चा करती है। शाल बेलो शिकागो के जीवन से ज्यादा जुड़े हुए थे। उन्हें सन 1976 में नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। वे शिकागो में बड़े हुए और निर्विच्छिन्न भाव से सन 1962 से वहां रह रहे थे। उनके अनेक उपन्यासों में उस महानगर के सामान्य जीवन, दैनिक क्रिया-कलाप और नैतिक मूल्यों में संघर्ष को कलात्मक रूप से दर्शाया गया है। सन 1964 में प्रकाशित उपन्यास उनके "हर्ज़ोग" के नायक के जीवन में शिकागो के सभी उल्लेखनीय गुणों का समाहार हैं। बाकी की तुलना में यह उपन्यास ज्यादातर आत्मकथात्मक प्रकृति का है। दूसरे उपन्यासों में उन्होंने शिकागो के महत्त्वपूर्ण निर्माण केन्द्रों,कत्लखानों, मलिन बस्तियों, जेलों, अस्पतालों और स्कूलों के बारे में लिखा है। इनके भीतर 'इस मनुष्य जीवन का नैतिक महत्व' खोजने का उन्होंने प्रयास किया है।
शाल बेलो के साथ पैंतालीस मिनट बिताने के बाद रामानुजम और मैं क्लब लौट आए। शायद उनसे भेंट करने के लिए शिकागो के बारे में मेरा पूर्वार्जित ज्ञान याद आने लगा। थियोडोर ड्रेइजर, रिचर्ड राइट, अप्टन सिल सिंक्लेयर, जेम्स फरेले, शेरवुड एंडरसन इत्यादि शिकागो के उपन्यासकार और लेखक स्मृति में आने लगे। उनकी लेखन-शैली आलोचक अल्फ्रेड काइजिन की भाषा में “ए सर्टेन हैंडबिटन नेचुरलिस्टिक” को अमेरिकी उपन्यासों की प्रसिद्ध शैली के रूप में स्वीकार किया गया है। ग्रिट्टी रियलिज़्म अर्थात् किरकिरा यथार्थवाद शाल बोले की रचनाओं में सुंदरता से परिलक्षित हुआ है, जिसमें सामान्य लोगों के जीवन, सपनों और महानगरों की अवैयक्तिक शक्ति प्रवाह के साथ सदैव संघर्ष होता है। शाल बेलो के उपन्यास 'द एडवेंचर्स ऑफ ओगू मार्च' के नायक की भाषा में, "मैं एक अमरीकी हूं, शिकागो का जन्मा, शिकागो- जो भाराक्रांत शहर है- सारी समस्याओं का मैं अपने तरीके से खुद सामना करता हूँ और अपने तरीके से उनका रिकॉर्ड रखता हूँ।" संक्षेप में कहें, उपन्यासकार की रचनाओं में शिकागो का अद्भूत खिंचाव, अमाप शक्ति, अनुशासित अनुशासनहीनता, व्यक्तिगत स्वातांत्र्य के साथ-साथ एकीभूत सामुदायिक जीवन के छंद–ये सब प्रतिबिम्बित होते है।
शिकागो अमेरिकी लोकतंत्र की प्रयोगशाला है, यह एक अलग महानगर है, जिसमें अमेरिका के इतिहास, कामना,आशा और संघर्ष स्पष्ट प्रतिफलित होते हैं। साहित्य के अलावा संगीत और वास्तुकला दोनों में शिकागो की अनूठी शैली है।शिकागो सिम्फनी अमेरिका का अन्यतम प्रसिद्ध सिम्फनी ऑर्केस्ट्रा है। इसके निर्देशक जॉर्ज सोलटी के निर्देशन में पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के कई संगीतकारों का ऑर्केस्ट्रा मेरा प्रिय है और मेरे संग्रह में है। दीर्घकाल से शिकागो के लिरिक ओपेरा ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध संगीत कलाकारों को मंच प्रदान किया है। न्यू ऑरलियन्स की तरह शिकागो जैज़ संगीत का केंद्र भी है। इस संगीत से बेनी गुडमैन और लुई आर्मस्ट्रांग विश्व प्रसिद्ध हो गए हैं।
एक बार सन 1871 में भीषण अग्निकांड से शिकागो के कई क्षेत्र विध्वस्त हो गए थे। लुइस सुलिवन, डैनियल बर्नहैम और कई अन्य वास्तुकारों ने शिकागो के पुनर्निमाण के अवसर पर अमेरिका को नई वास्तुशैली प्रदान की थी। गगनचुंबी इमारतों में ग्लास टॉवर, डाउनटाउन के कई विशाल कार्यालयों के प्रवेश द्वार पर पिकासो की चित्रकला, हेनरी सुर और क्लिस ओल्डेनबर्ग की वास्तुकला– ये सब शिकागो की विशेषता है। सुप्रसिद्ध अमेरिकन कवि कार्ल सैंडबर्ग (1878-1967) की कविताओं में शिकागो शायद सबसे ज्यादा शक्तिशाली ढंग से चित्रित हुआ है। पुलित्जर पुरस्कार प्राप्त इस लोकप्रिय कवि ने अपनी युवावस्था में शिकागो में दुकान के विक्रेता, साधारण सिपाही,रिपोर्टर और छोटे-मोटे काम किए थे। उनके प्रसिद्ध संकलन 'शिकागो पोएम्स' की कविता 'शिकागो' का एक अंश नीचे उद्धृत है :-
"दुनिया भर के हॉग बुचर,
टूल मेकर , गेहूं स्टेकर,
रेलरॉड्स प्लेयर और राष्ट्र के फ्रेट हेन्डलर;
तूफानी, उबाऊ, विवादित,
बड़े कंधों का शहर"
शिकागो के 'रफ हेक्सन एनर्जी', 'ठोस, भारी, बड़ी और महान भावना (प्रसिद्ध वास्तुकार फ्रैंक लॉयड राइट) ने विश्व की अन्यतम ऊंची गगनचुंबी इमारत, 110 मंजिला सीयर्स टावर्स को जन्म दिया था। सन 1803 में स्थापित यह शहर अमेरिका में गेहूं की खेती का केंद्र है। रेल यातायात, सूअर के मांस के व्यंजन, सभी प्रकार के व्यापार-वाणिज्य में पारदर्शिता, दुर्घुष अंडरवर्ल्ड के शक्तिशाली व्यक्ति और समुदाय के साथ-साथ साहित्य, संस्कृति, संगीत इत्यादि के अद्भूत मिश्रण ने शिकागो को अमेरिका का असली प्रतिनिधि शहर बना दिया है। जॉर्ज विल की भाषा में, "मैदानों का यह शहर महान अमेरिकी शहर है ...। यह अमेरिकी इतिहास और अमेरिकन यात्राओं का सारगर्भित मिसाल है।" शाल बेलो ने अपने उपन्यास "द डीन ऑफ दिसम्बर" की नायिका के बारे में लिखा है :-"उसे प्रोक या फ्रायड या बाल्ज़ैक या अरिस्टोफेन की कोई आवश्यकता नहीं थी, शिकागो ने ही सब-कुछ कर लिया।"
नृतत्व संगोष्ठी और कविता पाठ के लिए मैं कई बार शिकागो गया था। इस बार मेरा प्रवास काफी आनंददायक था।रामानुजन, नॉर्मन, रिक और अन्य साहित्यिक मित्रों के अलावा ओड़िशा के सहपाठी से मिलने का अवसर मुझे मिला। सूर्य के घर मुझे ओड़िया खाद्य के साथ-साथ ओड़िया गीत सुनने को मिले।अंत में, एअरपोर्ट से बाफ़ेलो के लिए रवाना हुआ।
वहाँ मेरे मौसरे भाई टूना (सुजीत मोहंती) विश्वविद्यालय में शोध कर रहे थे। सुबह 11.30 बजे शिकागो छोड़कर क्लीवलैंड के रास्ते बफ़ेलो पहुंचे। एअरपोर्ट पर लेने के लिए टूना आए, अपनी बेटियों निकी और टीना के साथ में। मौसम बहुत अच्छा था। सूरज आकाश में चमक रहा था,ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। टूना का घर वहाँ से केवल आठ मील की दूरी पर था। घर पहुँचकर थाईसैंडविच खाकर, कॉफी पीकर मैंने टूना के कामकाज के बारे में पूछा। वह काले लेखकों द्वारा लिखे गए उपन्यासों पर शोध कर रहा था। फिर से मुझे ओड़िया खाद्य खाने को मिला, मेरी पसंदीदा मूंगदाल और छोटी मछह ली की तरकारी। उस दिन ‘गुड फ्राइडे’ था। कैथोलिकों के लिए दुःख का दिन था, उस दिन ईसा को सूली पर चढ़ाया गया था। दोपहर में हम रोचेस्टर में श्रीला राय के घर गए। रोचेस्टर विश्वविद्यालय अमेरिका में प्रसिद्ध है। श्रीला कई वर्षों तक अमेरिका में रह रही थीं, अपने अमेरिकी पति हेंड्रिक के साथ। वह अत्यंत ही शांत स्वभाव के व्यक्ति थे। उनके पास दो पुत्र थे। बड़ा पुत्र ग्वेन छात्रावास में रहकर अध्ययन कर रहा था। छोटे बेटे कबीर की आंखें अपनी मां की तरह बहुत सुंदर थीं। श्रीला कटक के एक प्रसिद्ध परिवार की लड़की थी। ब्रिगेडियर संग्राम केशरी राय के परिवार, मेरे अंग्रेजी शिक्षक देवी प्रसन्न पटनायक के परिवार से थी। श्रीला ने अंग्रेजी में अनेक सुंदर कविताएं लिखीं थी। उसके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हुए थे, नई पीढ़ी के अमेरिकी कवियों के इन संग्रहों को जगह मिली थी। उनके पति एक स्कूल में गणित पढ़ाते थे। वह शांत एवं स्नेही व्यक्ति थे। अपने पसंदीदा कवि के नाम पर श्रीला ने अपने छोटे बेटे का नाम कबीर रखा था। डिनर के समय उसने कुछ कविताएं सुनाई थी, और टूना ने कुछ गाने गाए थे। सुनने में आया है कि आजकल श्रीला का स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहता है। भुवनेश्वर में उसकी माँ रहती है, वह हमारे घर बराबर आती-जाती है। खाना खाने के बाद मैं लौट गया।
श्रीला की कविताओं में आत्मीयता, गंभीर आवेग और सरल अभिव्यक्ति मुझे बहुत पसंद आई। हार्वर्ड से भुवनेश्वर लौटने के बाद अमेरिकी कविता, टोनी मॉरिसन के उपन्यास और अमेरिका में काली संस्कृति के खतरों- ऐसे अनेक विषयों पर श्रीला के साथ पत्र व्यवहार होता रहा, उनकी असामयिक मृत्यु पर्यंत। मैंने अभी भी कविता और साहित्य से संबंधित उन मूल्यवान चिट्ठियों को सुरक्षित रखा है।
अगले दिन टूना के साथ मैं फिर से नियाग्रा प्रपात देखने गया। इससे पहले मैं दो बार नियाग्रा प्रपात देख चुका था। पहली बार कनाड़ा के टोरंटो में अपने एक करीबी दोस्त के घर में कुछ दिन रहते समय हम नियाग्रा देखने गए थे। कनाड़ा की तरफ से नियाग्रा बेहद खूबसूरत लग रहा था। अधिकांश पर्यटकों का मत है कि अमेरिका की तरफ से नियाग्रा सुंदर दिखता है,तब भी कनाड़ा की तरफ से बहुत ज्यादा सुंदर दिखता है। दूसरी बार हार्वर्ड प्रवास के दौरान विश्वविद्यालय आयोजित कार्यक्रम के लिए वॉशिंगटन आया था, उस समय मैंने अपने दो मित्रों के साथ नियाग्रा का दौरा किया था। यह नियाग्रा की मेरी तीसरी यात्रा थी। नियाग्रा से लौटने के बाद टूना के पड़ोसी डॉ अरविंद वाधवा के यहाँ रात्रि-भोज किया। उसमें कई डॉक्टरों को आमंत्रित किया गया था। डॉ॰ भयानी उनमें से एक थे। मुझे पता चला कि वह 'उस अंचल में बहुत प्रसिद्ध डॉक्टर थे। वहाँ से दस किलोमीटर दूर रहने वाले श्री विचित्रानंद कर की बेटी और दामाद भी आए थे। उनकी बेटी श्रीमती महापात्रा स्थानीय कैंसर संस्थान में बायो केमिस्ट थी। अगली सुबह न्यूयार्क के पास के शहर नेवार्क की फ्लाइट थी। विमान से हल्के कोहरे से आच्छादित मैनहट्टन, एम्पायर स्टेट बिल्डिंग और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर का नजारा बहुत सुंदर लग रहा था। न्यूयार्क से उड़ान पकड़कर बोस्टन आकर मैं कॉनकॉर्ड एवेन्यू में मेरे अपार्टमेंट में लौट आया। अपार्टमेंट में चाय-नाश्ता कर कुछ समय के लिए मैं अपने सेंटर चला गया, मेरे नाम आए पत्रों को लेने के लिए। फ्रिज में बहुत सारा सामान था, इसलिए मैंने अपना डिनर खुद बनाकर खा लिया, गीत सुनते-सुनते बैठे-बैठे मुझे नींद आ गई।
सैनहोज विश्वविद्यालय, सैन फ्रांसिस्को, मोंटेरी खाड़ी , रेडवुड नेशनल पार्क और चिमनी वृक्ष
मेरा चौथा व्याख्यान सैनहोज विश्वविद्यालय में था। विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग के प्रमुख डॉ॰ जेम्स फ्रीमैन ने मुझे आमंत्रित किया था। उन्होंने मुझे आने-जाने का हवाई जहाज का किराया दिया था और विश्वविद्यालय के अतिथि गृह में मेरे रहने की व्यवस्था की थी, लेकिन मैंने उन्हें मेरे रिश्तेदार गोपीनाथ बाबू की बेटी और दामाद के घर में रुकने के इरादे के बारे में बताया था। फ्रीमैन अपनी पुस्तक 'अनटचेबल:एन इंडियन लाइफ हिस्ट्री' के लिए नृतत्व जगत में जाने जाते थे। इस पुस्तक की कथावस्तु भुवनेश्वर के बाहरी इलाके में रह रहे अछूत बौरी परिवार के 40 वर्षीय आदमी मूली की जीवनी पर आधारित थी। बहुत वर्ष पहले फ्रीमैन ने इस पर शोध किया था। गवेषणा और अध्ययन का मूल प्रतिपाद्य था किसी विशेष व्यक्ति के जीवन इतिहास अर्थात् उस व्यक्ति के जीवन के झरोखे से एक विशेष समाज और उसके आस-पास के बड़े समाज से संबंध का अध्ययन किया जा सकता है।
फ्रीमैन ने दो वर्ष(1970-72) शिमला में अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडियन स्टडीज की वरिष्ठ फेलोशिप के लिए यह गवेषणा कार्य किया था।उन्होंने समय पर सभी आवश्यक आंकड़े एकत्र किए थे, और सन 1976-77 में इस किताब को पूरा किया था। वास्तव में किताब ज्यादातर मूली के जीवन पर आधारित थी। उनकी भाषा में उन्होंने उसके जीवन, उसके चारों ओर की दुनिया और परिवेश संबन्धित सामाजिक संबंधों का वर्णन किया है। पुस्तक के प्रारम्भ में फ्रीमैन ने संक्षेप में मूली के गांव, गांव के विभिन्न परिवारों और वहाँ के पर्यावरण पर चर्चा की है। उसके बाद पूरी किताब मूली के समग्र जीवन(1932-72) पर लिखी गई है। चालीस वर्षों के इस 'आत्मजीवनी' में उसकी युवावस्था की आशा-आकांक्षा और उसके परिवार के उतार-चढ़ाव पर चर्चा की गई है। कहने की जरूरत नहीं है, मूली अपने पूर्व जीवन के इतिहास को अपने अनुभवों से प्रकाशित करता है। फ्रीमैन ने उसके परिवार के सदस्यों और गांव के लोगों के साथ विचार-विमर्श कर काफी जानकारी एकत्र की है।मूली का जीवन 12 करोड़ अनुसूचित जाति के लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जिन्हें उस समय अछूत माना जाता था। फ्रीमैन की भाषा में, "यह न केवल भारतीय जाति व्यवस्था की आलोचना है, वरन दुनिया के सभी देशों में प्रचलित सामाजिक असमानता की परतों की आलोचना है।" प्रो॰जी.टी. पिटसन ने इस पुस्तक के बारे में लिखा हैं: "भारत के निम्नतम जाति के स्तर का जीवन हमें बुरी तरह से विचलित कर देता है ....शायद ही कभी ऐसा सबसे निष्पक्ष सांस्कृतिक खाता प्रकाशित हुआ हो।"
हार्वर्ड के आने से पहले ही मैं फ़्रीमेन से परिचित था। हम पहले मिले थे।मैंने बहुत समय पहले फ्रीमैन की किताबें पढ़ी थी और मुझे याद है कि उस पुस्तक में व्यापक आंकड़ों पर आधारित अलग तरह से किया गया सामाजिक विश्लेषण है, जो विशेष सामाजिक रोग की ओर इशारा करता है। मैं फ्रीमैन को तब से जानता था, जब वह भुवनेश्वर में ‘कोरा डुबोएस’ की ओड़िशा शोध संस्थान में सक्षम प्रोफेसर के रूप में काम कर रहे थे। पुस्तक प्रकाशित होने के बाद वे मेरा मंतव्य जानना चाहते थे और उसके लिए काफी पत्रालाप भी हुआ था। उनकी 'अनटचेबल’ प्रकाशित होने से पहले 'स्कार्सिटी एंड ऑपर्च्यूनिटी इन एन इंडियन विलेज' नामक एक और पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इस परिप्रेक्ष्य में उनके विश्वविद्यालय के नृतत्व विभाग में व्याख्यान देने के लिए मैं खुशी से सहमत हुआ था। मेरे व्याख्यान का शीर्षक था: 'जनजातीय जीवन का डाक्यूमेंटेशन- समस्याएं और संभावित समाधान' ।
आदिवासी समाज में नृत्य और संगीत और इन दोनों से जुड़े विभिन्न अनुष्ठान, त्योहार, पूजा-पाठ,प्रार्थना आदि से अपने जीवन और कबीले के प्रति गहरा लगाव प्रकट करते हैं।उनके जीवन-शैली के मूल-सूत्र इन सभी से गूँथे हुए होते हैं। इन सूत्रों को सूक्ष्मता से देखे बिना आदिवासी जीवन, व्यक्तिगत और समाज के परस्परिक अंतरंग संबंध, कर्म में उनके दृढ़ विश्वास को अच्छी तरह से नहीं समझा जा सकता है। कहने की जरूरत नहीं है, आर्थिक विकास की प्रक्रिया भिन्न-भिन्न समाजों में भिन्न-भिन्न होती है, क्योंकि आर्थिक विकास केवल व्यक्तिगत आय या राष्ट्रीय आय में वृद्धि अथवा पूंजी के उपयोग के विश्लेषण तक ही सीमित नहीं है। कई अन्य चीजें भी महत्वपूर्ण हैं जैसे कि पूंजी-निवेश, अर्थ के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण, अर्थ का सामाजिक मूल्य आदि। भारत में आज तक आदिवासी लोगों के संगीत, नृत्य, त्योहार और अनुष्ठानों को व्यवस्थित तरीके से संकलित नहीं किया गया है। विश्लेषण करना तो दूर की बात है, योजनाबद्ध विशद संग्रह और विश्लेषण से आर्थिक विकास के कई मूल्यवान पहलू समझे जा सकते है। दूसरा, विकास के संदर्भ में आदिवासी समाज के संगीत-नृत्य धीरे-धीरे विलुप्त हो रहे हैं। आगामी वर्षों में हमें आदिवासी संस्कृति के इन महत्वपूर्ण पहलुओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। यह बेहद जरूरी है कि हम इन सब पर ध्यान दें। विकास की योजनाओं के लिए ये सारी बातें जितनी आवश्यक हैं, उतनी ही सामग्रिक सांस्कृतिक अमूल्य भंडार को सुरक्षित रखने के लिए महत्वपूर्ण है। मैंने अपने व्याख्यान में संगीत, नृत्य, मिथकों, अनुष्ठानों, कहानियों से संबंधित आंकड़ों के नियोजित संकलन और विश्लेषण पर बल दिया था। भारत के संदर्भ में आंकड़ा-संग्रह प्रणाली, संग्रह करने वाली विभिन्न एजेंसियों के बीच आपसी सहयोग, आदिवासी लोगों की जीवन शैली से संबंधित वस्तुओं के पंजीकरण और सूची तैयार करने के बारे में मैंने अपने व्याख्यान में बात उठाई थी, जिन पर व्याख्यान के बाद अलग-अलग दृष्टिकोण से जीवंत चर्चा हुई थी।
इसी बीच फ्रीमेन ने यूएसए के शरणार्थी वियतनामी बच्चों और कैलीफोर्निया के विभिन्न शिविरों में रहने वाले लोगों के जीवन, शिक्षा और सामाजिक स्थिति पर नई किताब लिखी। पुस्तक का शीर्षक था :'वोइसेस फ्रॉम द कैम्पस”। वियतनामी विद्वान गुइएन-डिब हू इस पुस्तक के सह-लेखक थे। यह वाशिंगटन विश्वविद्यालय प्रेस द्वारा प्रकाशित हुई थी। कहने की जरूरत नहीं है, सन 1988 में हार्वर्ड छोड़ने के बाद मैंने जब भी सैनहोज का दौरा किया है, फ्रीमैन से अवश्य मिला हूँ और आधुनिक पुस्तकों पर हमने चर्चा की है। उनके अनुरोध पर वाशिंगटन यूनिवर्सिटी प्रेस ने वियतनामी बच्चों पर आधारित इस पुस्तक को मेरे पास समीक्षार्थ भेजा था। मैंने उसकी समीक्षा की थी।
सैनफ्रांसिस्को:
मैंने पहले ही उल्लेख किया है कि जब मैं सैनहोज विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने गया था, तब मैं श्री गोपीनाथ मोहंती के साथ उनकी बेटी और दामाद के घर पर रुका था। उस अंचल में घूमने की हमारी योजना पहले से ही बन चुकी थी। मैं सैनहोज में दस दिनों तक रहा, मेरे व्याख्यान के लिए केवल एक दिन निर्धारित था। बाकी दिनों में हम दो बार सैन फ्रांसिस्को गए। एक बार मोंटेरी खाड़ी इलाके में और दूसरी बार प्रसिद्ध हंबोल्द् रेडवुड जंगल में गए थे। उस समय श्री मोहंती सपरिवार सैनहोज में रहते थे। उस समय गोपी बाबू स्वस्थ थे, हमेशा की तरह विभिन्न स्थानों को देखना उन्हें पसंद आता था। उनकी बेटी अंजलिका लंबे अरसे से वहाँ स्थानीय अस्पताल में डॉक्टर थी, उनके दामाद सूर्य आईबीएम के वरिष्ठ अधिकारी थे। मेरी पत्नी और पुत्र सत्यकाम मेरे से पहले सैनहोज पहुंच गए थे। उन्होंने पहली बार बोस्टन से कनाड़ा के मॉन्ट्रियल का दौरा किया था, अपनी मौसी की बेटी अशोका और उनके पति दिलीप के साथ लगभग एक हफ्ते तक वहां रहे थे। अशोका मैकगिल विश्वविद्यालय में काम करती थी और दिलीप आईबीएम में। मॉन्ट्रियल से ओहियो की राजधानी कैन्टोन में दूसरे रिश्तेदार के घर में चार दिन बिताकर वे सैनहोज पहुंचे थे। हम सभी आस-पास के अंचलों में बहुत घूमे, किसी न किसी के यहाँ खाना-पीना करते और गप्पे हाँकते थे। हमारे घूमने के मुख्य तीन स्थान थे। सबसे पहले, सैन फ्रांसिस्को और उसके आस-पास का इलाका। दूसरा मोंटेरी खाड़ी अंचल और तीसरा प्रसिद्ध हम्बोल्ट रेडवुड प्रदेश। सैनहोज प्रवास और इन स्थानों की यायावरी हार्वर्ड के एक साल की अविस्मरणीय अनुभूतियों में हैं।
प्रवास के दौरान हम दो बार सैन फ्रांसिस्को गए थे, यह सैनहोज से बहुत दूर नहीं था।सुनने में आया कि यहाँ के कई लोग सैन फ्रांसिस्को में काम करते थे या विश्वविद्यालय में पढ़ते थे, मगर वे सैनहोज के आस-पास में रहते थे। द्रुतगामी वाहन आसानी से सस्ते में उपलब्ध हो जाते थे। सैनहोज में घरों का भाड़ा भी बहुत कम था। सैनफ्रांसिस्को कैलिफोर्निया और अमेरिका के पश्चिमी तट का अति संभ्रांत और सुंदर शहर है। समुद्र तट पर कई ऊंची इमारतें होने के कारण हवाई जहाज से सैनफ्रांसिस्को कुछ हद तक हांगकांग या न्यूयॉर्क की तरह दिखता है। सैनफ्रांसिस्को का गोल्डन गेट ब्रिज विश्व-विख्यात है। यह हावड़ा ब्रिज की तरह कैंटीलीवर पुल है अर्थात् पानी के अंदर किसी भी स्तंभ पर टिका हुआ नहीं है। हावड़ा ब्रिज ब्रिटिश शासन के दौरान तैयार हुआ था। गोल्डन गेट ब्रिज प्रशांत महासागर के तट पर अधिक ज्वार-भाटे वाली नदी के मुहाने पर स्थित है। यह पुल बनाना बहुत मुश्किल कार्य था। हावड़ा ब्रिज के निर्माण में ऐसी कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि हावड़ा नदी समुद्र से बहुत दूर थी और उसमें ज्वार भी कम आते थे। गोल्डन गेट ब्रिज के निर्माण का इतिहास बहुत अच्छी तरह से लिखा गया है। अमेरिका में इसे असाधारण इंजीनियरिंग विद्या के अद्भूत कौशल के तौर पर माना जाता है। स्टील के कई मोटी रस्सियों से नदी के दोनों किनारों पर बड़े खंभे से झूलते पुल को आकार दिया गया हैं। मैं इस पुल पर कई बार गया हूँ। इस बार हम सभी ने एक साथ पुल के बीचोंबीच जाकर समुद्री ज्वार की लहरें और सूर्यास्त देखने का आनंद लिया। दूर से दिखाई देता है एक छोटा-सा द्वीप। जिसे बेहद अवांछह नीय और दुष्ट अपराधियों के रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, ठीक हमारे अंडमान के ‘कालापानी’ की तरह। इस द्वीप पर अंडमान की जेल की तरह एक सर्कुलर जेल थी, मगर आजकल अव्यवहृत है। पुल देखने के बाद हमने निकट पार्क में कुछ समय बिताया। पार्क बहुत ही खूबसूरत और सैनफ्रांसिस्को का एक अन्यतम दर्शनीय स्थान था। गोल्डन गेट ब्रिज से नीचे उतरने के बाद हम समुद्र तट पर गए। तेज हवाएँ चल रही थीं। बाद में मुझे पता चला कि यहाँ हमेशा तेज हवाएँ चलती हैं। नदी के मुहाने के एक तरफ सैनफ्रांसिस्को की गगनचुंबी इमारतें थीं तो दूसरी तरफ पर्वतमाला। इसलिए महासागर से आने वाली हवा एक फ़नल में बहती है और उसकी गति तेज हो जाती है। गोल्डन गेट ब्रिज बनाते समय समुद्र की गहराई, ज्वार की ऊंचाई और यह तेज हवा उसके निर्माण में अनेक मुश्किलें पैदा कर रही थी। विक्रम सेठ ने गोल्डन गेट ब्रिज पर काव्य-शैली में एक उपन्यास लिखा है। समुद्री तट पर सैनफ्रांसिस्को के मशहूर मछुआरे की दुकानें (ग्रोटो) स्थित हैं, जहां विभिन्न प्रकार के समुद्री भोजन तैयार किए जाते हैं। यह जगह हमेशा सैकड़ों पर्यटकों से भरी रहती है। चारों तरफ विभिन्न समुद्री भोजन की खुशबू महकने लगती है। मैंने पहली बार विशाल कड़ाई और हांडी में केकड़ों की बहु पाकप्रणाली देखी। ये सब खाना पकाने का काम खुले स्थान में किया जाता है और दर्शकों के देखने पर रेस्तरां वालों को कोई आपत्ति नहीं है,बल्कि वे उन्हें इस हेतु उत्साहित करते हैं। शायद दर्शकों की भूख बढ़ाने का उद्देश्य उसमें निहित है। विभिन्न आकार के केकड़ों के अलावा झींगा मछह ली, बड़ी मछह ली, जो हमने कभी नहीं खाई। ऐसी कई प्रकार की मछलियाँ और अनेक प्रकार के ओएस्टर पकाए जाते हैं। समुद्री हवा का आनंद लेते हुए पर्यटक सब-कुछ खा लेते हैं। हमने भूनें लॉबस्टर और विशेष शैली में पकाए झोल रहित स्वादिष्ट केकड़े खाए।
चाइनाटाऊन सैनफ्रांसिस्को की अन्यतम खूबसूरत जगह है। अमेरिका के पश्चिमी तट पर लगभग सभी शहरों में चीनी बस गए थे। चाइनाटाऊन चीनी संस्कृति, चीनी परिधान, घरों की विशिष्टता और सबसे ज्यादा चीनी खाद्यों ने हमें मंत्र-मुग्ध कर दिया था। शहर की अधिकांश रास्तों से समुद्र देखा जा सकता है। सबसे आकर्षक रास्ता है जो सर्पिलाकार पांच सौ फीट नीचे उतरा है। उसके हर मोड़ पर खूबसूरत लॉन और फूल उद्यान हैं।रास्ते का नाम है लोम्बार्ड, जिसके शीर्ष पर खड़े होकर कई बार हमने नीचे देखा और जिसके नीचे खड़े होकर हमने कई बार ऊपर देखा।आती-जाती कारों के दृश्य और फूलों की शोभावली अविस्मरणीय थी। शहर के अन्य प्राचीन क्षेत्रों में घूमने के बाद हम उस दिन वापस लौट आए।
दूसरी बार सैनफ्रांसिस्को में हमने स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय और खाड़ी के पुल के उस तरफ बर्कले के कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय का दौरा किया। स्टैनफोर्ड दुनिया का एक अग्रणी विश्वविद्यालय है। पश्चिमी तट का यह प्रसिद्ध विश्वविद्यालय अमेरिका के पूर्वी तट के हार्वर्ड , येल और प्रिंसटन विश्वविद्यालयों की कोटी का गिना जाता है। स्टैनफोर्ड के अलावा पश्चिमी तट पर बहुत प्रसिद्ध और विशाल कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय है, जिसकी शाखाएं विभिन्न स्थानों पर फैली हुई हैं। उन शाखाओं में बर्कले सबसे प्रसिद्ध हैं। अन्य प्रसिद्ध शाखाओं में सांता क्रूज़, लॉस एंजिल्स, सैनडीगो और रिवरसाइड के नाम आते हैं। बर्कले और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालयों की युगलबंदी हार्वर्ड और एमआईटी के विश्वविद्यालयों की तरह है। मैंने पहले भी स्टैनफोर्ड देखा था। इस बार मेरे साथ थे मेरी पत्नी, मेरा बेटा सत्यकाम और सैनहोज के मेरे अन्य रिश्तेदार थे। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार के दोनों किनारों पर मोटी पत्तियों वाले छोटे खजूर के पेड़ों की कतारें लगी हुई थी। प्रवेश द्वार पर पांच खूबसूरत कांस्य मूर्तियां लगी हुई थीं। विश्वविद्यालय की इमारतों का निर्माण पारंपरिक शैली में हुआ हैं। स्टैनफोर्ड हार्वर्ड , कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की तरह परंपरा बचाए हुए हैं। मैं बहुत भाग्यशाली हूँ, हार्वर्ड से लौटने के बाद मैंने कैम्ब्रिज में एक साल बिताया था। उस दौरान मैं कई बार ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय देखने गया था।उस समय प्राणनाथ पटनायक के सुयोग्य पुत्र श्री प्रभात पटनायक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में रोड्स स्कॉलर के रूप में पढ़ रहे थे। अब वह भारत के अग्रणी अर्थशास्त्रियों में गिने जाते हैं। इस तरह हार्वर्ड के नजदीक मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) और चार्ल्स के नदी की दूसरी तरफ स्थित बोस्टन विश्वविद्यालय से भी कुछ संपर्क स्थापित होने लगा था। ये तीनों विश्वविद्यालय हमेशा अपने उच्च मानकों और अपने स्वातंत्र्य को बचाए रखने में सतत प्रयासरत रहे हैं। स्टैनफोर्ड, हार्वर्ड या ऑक्सफ़ोर्ड की तरह पुराना नहीं है, मगर एमआईटी को दुनिया के प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में से एक माना जाता है।
जब हम स्टैनफोर्ड की यात्रा पर थे, उस समय सर्दी का मौसम था। मुख्य प्रवेश द्वार के सामने फूलों के इतने सारे बगीचे देखकर हम बहुत आनंदित थे। विश्वविद्यालय के विभिन्न विभाग, विशाल पुस्तकालय, प्रशासनिक ब्लॉक, सीनेट हॉल, सिंडिकेट हॉल- ये सब हमने घूम फिरकर देखे थे।स्टैनफोर्ड बिजनेस स्कूल हार्वर्ड बिजनेस स्कूल और केलॉग बिजनेस स्कूल की तरह विख्यात है, जो विश्व के कोने-कोने से छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करता है। स्टैनफोर्ड के खगोल भौतिकी, अंग्रेजी साहित्य और इतिहास विभाग ने विशिष्ट ख्याति अर्जित की है। स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय के अंदर स्टैनफोर्ड बुक शॉप है।यहां स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के अपने प्रकाशन, दुनिया के अन्य अग्रणी विश्वविद्यालयों की प्रकाशित पुस्तकों के साथ-साथ कई अन्य किताबें भी मिलती हैं। जिस तरह अमेरिका के सभी प्रमुख विश्वविद्यालयों जैसे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी प्रेस, शिकागो यूनिवर्सिटी प्रेस की अपनी प्रिंटिंग प्रेस है, उसी तरह स्टैनफोर्ड का अपना प्रकाशन विभाग और प्रिंटिंग प्रेस है। यह भी ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस या कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी प्रेस की तरह ही प्रसिद्ध हैं। मैंने स्टैनफोर्ड बुक शॉप से कई किताबें खरीदी थीं। इसके अलावा, मैंने चार अमेरिकी-इंडियन संगीत एल्बम खरीदे थे। उन्हें वैज्ञानिक तरीके से संकलित किया गया था। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी की देखरेख में चार विभाग थे, अर्थात् मूल: चक्र, मौसम और युद्ध के गाने और नृत्य। खगोल भौतिकी विभाग द्वारा विश्वविद्यालय के नजदीक पहाड़ी की चोटी पर एक केंद्र की स्थापना की गई थी, जहां से एक बड़ी दूरबीन की सहायता से शोध-कार्य किया जाता है।
स्टैनफोर्ड से खाड़ी पुल पार करते हुए दूसरी तरफ बर्कले के कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में गए, जिसे संक्षिप्त में यूसीबी अर्थात् यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया,बर्कले कहा जाता है। ठीक उसी तरह यूसीएलए का मतलब होता है यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स। स्टैनफोर्ड का सौंदर्य एक तरह का है तो बर्कले का दूसरी तरह का। ऊंची-नीची भूमि पर विभिन्न परिसर, प्रशासनिक ब्लॉक, छात्रावास आदि का निर्माण किया गया है। हार्वर्ड की तरह बर्कले का भी नृतत्व विज्ञान, समाजशास्त्र और भौतिकी में बहुत नाम है। नृतत्व विभाग की मेरी सहेली श्रीमती रूथ इंजेज-हेन्ज़ से मुलाक़ात हुई थी। यह भ्रद जर्मन महिला लंबे समय से इंडोनेशिया, म्यांमार और अन्य दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में काम कर रही थी। 'एशियन एंथ्रोपोलोजी ग्रुप' नामक छोटी समाचार पत्रिका की वह संपादिका थी। लगभग एक साल पहले उन्होंने बर्कले में पांचवे अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया था, जिसकी थीम थी ‘शामनिज्म एंड अल्टरनेटिव मोड्स ऑफ़ हीलिंग' । मुझे भी इसके लिए निमंत्रण मिला था, मगर मैं उसमें शामिल नहीं हो पाया था। लेकिन सम्मेलन में मेरे आलेख '' इनवोकेशन एंड रूरल हीलिंग इन संथाल सोसायटी'' का मेरी अनुपस्थिति में पाठ हुआ था और पुस्तकाकार प्रकाशित निबंधों में संकलित भी। यूसीबी के नृतत्व विभाग में श्री एफ॰जी॰बेली ने कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य भी किया था। ओड़िशा के फूलबानी जिले के बिशापाड़ा गांव पर लिखी उनकी पुस्तक काफी प्रसिद्ध है। बर्कले घूमने के बाद हम लौट आए।
मोंटेरी खाड़ी :
हमने दूसरे दिन मोंटेरी का दौरा किया। मोंटेरी खाड़ी अमेरिका का सबसे बड़ा समुद्री अभयारण्य है। कहा जाता है कि इस अर्द्ध चंद्राकार अभयारण्य में विश्व में सबसे ज्यादा समुद्री जीव पाए जाते है। कैलिफोर्निया और अमेरिका के इतिहास में मोंटेरी का एक विशेष स्थान है। कोलंबस के अमेरिका पहुंचने के पचास साल बाद जुआन रोड्रिग्ज नामक स्पेनिश अंचल में सन 1542 में आया था, उसने इस जगह का नाम मोंटेरी पॉइंट्स रखा था। मैक्सिको के वायसराय के अधीन पहली स्पैनिश कॉलोनी बनी। स्वास्थ्यप्रद जलवायु, उपजाऊ मिट्टी और घने जंगलों के लिए यह जगह प्रसिद्ध हो गई। उस समय समग्र कैलिफ़ोर्निया मेक्सिको के अधीन था। सन 1821 में मेक्सिको की स्पेन से स्वतंत्रता की घोषणा के बाद मोंटेरी कैलिफोर्निया की राजधानी बन गई। उन दिनों से यहाँ नौसैनिक स्नातकोत्तर स्कूल, तट रक्षक केंद्र और रक्षा विभाग के भाषा संस्थान संचालित हो रहे हैं। मोंटेरी के विभिन्न अंचलों में घूमने का हमने निर्णय किया। सैनहोज से मोंटेरी तक जाने वाली सड़क बहुत चौड़ी है। सड़क के दोनों किनारों की मिट्टी बहुत उपजाऊ है। वहाँ हमने शतावरी और एवोकैडो की खेती के लिए बड़ी-बड़ी क्यारियाँ देखी। मोंटेरी छोटा शहर है। समुद्र तट से शहर के मछह लीघर, पार्क और अन्य ऐतिहासिक स्थानों की ओर जाने वाले रास्ते को ‘सत्रह मील’ कहा जाता है। मोंटेरी के अधिकांश महत्वपूर्ण स्थान इस सड़क के किनारे स्थित हैं। मोंटेरी कोस्ट पर एक अद्भूत तितली दिखाई दी,जिसे ‘मोंटेरी बटरफ्लाई’ कहा जाता है। सर्दियों में भारी तादाद में दिखाई देती है। वे सर्दियों में देवदार के पेड़ पर रहती हैं। सर्दियों में वहाँ जाने के कारण हमें एक और अद्भूत दृश्य देखने को मिला। इस समय इस अंचल के बच्चे खुद तितलियों की तरह कपड़े पहनकर 'तितली परेड' करते हैं। सुना हूँ, ये तितलियाँ बहुत दूर कनाड़ा और अलास्का से यहाँ पर आती थीं । हमारे घूमने के दिन मौसम बहुत अच्छा था। तितलियां पेड़ों की शाखाओं को छोड़कर चारों ओर उड रही थी। उनके पंखों का रंग नारंगी था, भारी तादाद में वे उड़ रही थीं। वास्तव में, यह दृश्य अविस्मरणीय था। मुझे पता चला कि मौसम अच्छा नहीं होने पर वे पेड़ की शाखाओं पर बैठ जाती हैं। मोंटेरी तट पर पाए जाने वाले कुछ देवदार के पेड़ पृथ्वी पर सबसे पुराने हैं। प्रशांत महासागर से ऊपर उठने वाले हल्के कोहरे से देवदार के वृक्षों के विकास और उन्हें लंबे समय तक जीवित रखने में मदद मिलती हैं। मोंटेरी से कैलिफोर्निया के उत्तर में प्रशांत महासागर का तटीय देवदार जंगल कैलिफोर्निया का अन्यतम चित्ताकर्षक दृश्य है। कार्नेमल नामक एक छोटी-सी नदी मोंटेरी से होकर बहती है। समुद्र तट पर प्रशांत ग्रोव, मोंटेरी पब्लिक लाइब्रेरी और मेरीटाइम संग्रहालय देखने के बाद हम अमेरिकी कवि रॉबिन्सन जेफर के घर गए। घर का नाम ‘टोर होम’ था। रॉबिन्सन को प्रशांत महासागर के तट और मोंटेरी से बहुत प्यार था। वह घर उसने खुद तैयार किया था। घर समुद्री तट से थोड़ी ऊंचाई पर स्थित था। लगभग दो सौ फुट नीचे उतरने से समुद्र। रॉबिन्सन ने समुद्र तटीय चट्टानों से खुद अपना घर बनाया था और नाम रखा था ‘टोर होम’ । इस घर में ही उन्होंने अपनी अधिकांश कविताएं लिखी थीं। उनकी कविताओं का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। चीन और मिस्र भाषा में अनूदित होने के बाद उनके कुछ प्रिय पाठकों और प्रशंसकों ने उनके लिए चीन की महान दीवार और मिस्र के पिरामिड से पत्थर लाकर उन्हें अपने घर में लगाने के लिए उपहार स्वरूप दिए थे। उनके घर में लगे पत्थर के वे टुकड़े अब पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। हमने वहां कुछ समय बिताया, घर के पास बैठकर महासागर दर्शन का यह आनन्ददायक अनुभव था। रॉबिन्सन ने सन 1919 में यह घर बना लिया था। उन्हें मोंटेरी और देवदार के जंगलों से इतना प्यार था कि वह मृत्यु-पर्यंत (1962) तक सपरिवार उस घर में रहा। अब वहाँ एक स्मारक बन गया है, जिसका संचालन ‘रॉबिन्सन जेफर टोर हाउस फाउंडेशन’ द्वारा किया जाता है। यह अमेरिका के ऐतिहासिक स्थानों के राष्ट्रीय रजिस्टर में शामिल है। असंख्य समुद्री जीव मोंटेरी खाड़ी में रहते हैं और ऐसा कहा जाता है कि इतने समुद्री जीव दुनिया के किसी भी दूसरे अंचल में नहीं देखे जा सकते है। मोंटेरी में सत्रह-मील रास्ते पर घूम-घूमकर हमने कई दर्शनीय स्थान देखे। उनमें ‘पेसेफिक ग्रोव’ अंचल बहुत ही आकर्षक है। इस अंचल में बहुत सारे प्रसिद्ध मोंटेरी देवदार पेड़ों को देखा जा सकता है। पेबल बिच और कार्मेल नदी समुद्र में जहां गिरती है, उस मुहाने के पास ही बिच है। यहाँ समुद्री काई बहुत मात्रा में किनारे तक आ जाती है। उसे समुद्री काई न कहकर समुद्री लता कहना उपयुक्त होगा। समुद्री पानी में तैरती इस लता के जमावड़े में विभिन्न समुद्री जीव रहते हैं। विशेष प्रकार की यह लता समुद्र तट से लगभग एक किलोमीटर तक फैली हुई है, जैसा सुनने को मिला।
मोंटेरी से अलविदा लेने से पहले हम वहाँ के मशहूर एक्वैरियम देखने गए। यह कोई साधारण मछह लीघर नहीं है। इस विशाल मछह लीघर में मोंटेरी खाड़ी में पाए जाने वाले अनेक समुद्री जीव रखे गए हैं। वास्तव में, सब-कुछ देखने के लिए बहुत समय चाहिए। सीमित समय में जितना कुछ देख सकते थे, उतना हमने देखा।
श्री गोपीनाथ मोहंती हमारे साथ थे। उनकी बेटी और दामाद ने मुझे बताया कि उनको मोंटेरी (रॉबिन्सन जेफर की तरह ?) बहुत अच्छा लगता है और एक-दो बार वहाँ गए भी हैं। मोंटेरी समुद्र तट पर उनका व्यवहार कुछ हद तक एक छोटे बच्चे की तरह था। प्रचुर मात्रा में खाद्य पैकेट खरीदकर उन्होंने लगभग आधे घंटे तक समुद्री सारसों को खिलाया था। बहुत सारे सारस खाद्य पाने के लिए उनके सिर के इर्द-गिर्द उड़ रहे थे। यह दृश्य मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा।
रेडवुड राष्ट्रीय उद्यान और चिमनी पेड़:
अमेरिकी दर्शनीय स्थानों में प्रशांत महासागर के तट पर रेडवुड पेड़ों का एक विशाल अंचल है। इस अंचल में कई राष्ट्रीय और राज्य पार्क देख सकते हैं। सैन फ्रांसिस्को के उत्तर में प्रशांत महासागर के निकट इस अंचल को रेडवुड का साम्राज्य कहा जाता है। यहां पर सब-कुछ घूम कर देखने में बहुत समय लगेगा, क्योंकि यहां छोटी-छोटी झीलें, जंगली जानवरों को देखने और पर्यटकों के लिए होटल तथा अन्य सुविधाएं हैं। फिर भी गोपीनाथ बाबू के दामाद सूर्य पटनायक ने एक दिन में देखी जाने वाली चीजों की एक सूची तैयार की। भोर-भोर बहुत जल्दी हम सैनहोज से रवाना हो गए। यह रास्ता सैन फ्रांसिस्को की दायीं तरफ से होते हुए उत्तर की ओर जाता है। इस मार्ग का वानस्पति नाम 'सेक्वाइया सेमपर्विरेंस' है, जिसका अर्थ है–‘चिरंजीवी’। जब डायनोसर इस पृथ्वी पर विचरण करते थे, उस समय एक द्रुम का जन्म हुआ, जिसे कहा जाता है ‘रेडवुड’। हालांकि साढ़े पांच करोड़ साल बीत चुके हैं,फिर भी ‘रेडवुड’ के नाती,पडनाती और उनके वंशज अभी तक बचे हुए हैं । इस अद्भूत अंचल में घूमने का अवसर पाकर मैं बहुत खुश था। इस सजीव जगत में रेडवुड वास्तव में विस्मयकारी है। विशाल तने वाले उस पेड़ के छोटे-छोटे बालों वाला गगनचुंबी मुकुट देखकर विस्मय होता है। एक समय था, जब रेडवुड जंगल उत्तरी गोलार्द्ध के अनेक विस्तृत अंचलों में फैला हुआ था। हालांकि बाद में जलवायु परिवर्तन के कारण अधिकांश प्राचीन रेडवुड जंगल लुप्त हो गए। अब उनके वंशज पृथ्वी पर तीन क्षेत्रों में देख सकते हैं। पहला, सबसे प्रसिद्ध और विस्तृत अंचल है अमेरिका के कैलिफोर्निया और ओरेगन की तटीय आर्द्र जलवायु वाले रेडवुड। दूसरा, सिएरा अंचल में बहुत बड़े और बहुत दुर्लभ रेडवुड। तीसरा, चीन के कुछ सीमित क्षेत्रों में कुछ दुर्लभ रेडवुड हैं।
सबसे पहले हम रेडवुड नेशनल पार्क के फाउंडर्स ग्रोव में गए। प्रसिद्ध अमेरिकन व्यक्ति हंबोल्ट्ट इस क्षेत्र में 1917 में पहली बार आए थे और वे इस रेडवुड फ़ॉरेस्ट देखकर आश्चर्यचकित हुए थे। उस समय रेडवुड फ़ॉरेस्ट का संरक्षण काफी सुस्त था। भावी पीढ़ी हेतु रेडवुड पेड़ों के संरक्षण के लिए उन्होंने 'सेव द रेडवुड लीग' नामक संस्था खोली। संस्थापक ग्रोव के अदम्य उत्साह और अप्रतिम प्रयासों के कारण पहले ग्रोव के रूप में इसकी स्थापना हुई और इसका नाम हंबोल्ट्ट रेडवुड स्टेट पार्क रखा गया था। लीग ने इसे 1921 में खरीदा। वर्तमान में एक लाख सत्तर हजार एकड़ जमीन रेडवुड जंगलों के लिए संरक्षित है। लीग के एक अधिकारी ने हमें बताया कि इसके संरक्षण के लिए किस तरह लीग को 6 करोड़ डॉलर का अनुदान मिला है। इस विस्तृत अंचल में पच्चीस कैलिफोर्निया राज्य पार्क, एक रेडवुड नेशनल पार्क और एक सेक्वाइया राष्ट्रीय उद्यान हैं। हमने पहले राज्य पार्क में प्रवेश किया, जिसका नाम था 'हम्बोल्ट रेडवुड'। इस अंचल में दुनिया के सबसे बड़े पेड़ों का समाहार है। सबसे पहले हम संस्थापक का पेड़ देखने गए। वृक्ष का नाम डायरेविल्ले जायंट है। लगभग दो हज़ार साल पूरे करने के बाद 24 मार्च 1991 को इस पेड़ को पूरी तरह से उखाड़ा गया। मगर जब हमने यह पेड़ देखा था, उस समय यह खड़ा था। पेड़ 370 फीट लंबा था। गर्दन झुकाकर यथा संभव कोशिश करने के बाद भी हम पेड़ के ऊपरी हिस्से को नहीं देख पाए। वृक्ष का व्यास सत्रह फीट था और परिधि पैंतीस फीट। अमेरिका के वन विभाग ने इसका 'चैंपियन' नाम दिया था। इसकी ऊंचाई नियाग्रा प्रपात से लगभग दो फीट ज्यादा थी और ऐसे पैंतीस मंजिला इमारत से भी ज्यादा। मैं इस विशाल वृक्ष को देखने के लिए फिर से 2003 में वहाँ गया था। पेड़ पहले ही उखड़ चुका था और चार साल से जमीन पर ऐसे ही सो रहा था। पार्क के एक गाइड ने कहा कि लगभग एक मील दूर तक उस पेड़ के गिरने की भयानक आवाज सुनाई पड़ी थी।उसे आँखों देखी भंयकर ट्रेन दुर्घटना याद आने लगी। उसने कहा कि पेड़ कब गिरा, उखड़ी हुई जड़ों से पचास फीट दूर एक और पंद्रह फीट ऊंचा रेडवुड पेड़ गिरा। असहाय भाव से जमीन पर गिरे इस प्राचीन पेड़ के दोनों किनारों पर खड़े होकर मेरे और सूर्य के लिए एक-दूसरे को देखना संभव नहीं था। उसके बाद हम रेडवुड पेड़ के तने से बने एक प्रसिद्ध घर को देखने गए, जिसका नाम था 'वन-लॉग-हाऊस'। नीचे गिरे रेडवुड के तने में यह घर सन 1946 में बनाया गया था। पेड़ 2,100 साल पुराना था और घर के निर्माण में इस्तेमाल हुए तने के हिस्से का वजन 42 टन था। दो लोगों ने अपने अथक प्रयास से आठ महीने तक तने में सात फीट ऊंची और बत्तीस फुट लंबी जगह खोदी। प्रति व्यक्ति एक डॉलर प्रवेश शुल्क देकर हमने इस घर में प्रवेश किया। घर में प्रमुख दो कमरे थे। पहला ड्राइंग रूम और उसके पीछे बेडरूम । ड्राइंग रूम में उसी तने की लकड़ी से दो सोफे बनाए गए थे। सोफे चिकने और पॉलिश किए हुए थे। ड्राइंग रूम और बेडरूम के प्रवेश द्वार खुले थे। बेडरूम के दो बेड भी उसी तने की लकड़ी से बनाए गए थे। मेरी लंबाई साढ़े पांच फीट होने के कारण सात फीट ऊंचे घर में चलते समय सिर झुकाना नहीं पड़ा था। घर के बाहर लिखा हुआ था इसे बनाने वाले दो कारीगरों के नाम, जिन्होंने केवल आठ महीने की अवधि में इसे बनाया था। मुझे याद आ गए 1,200 मिस्त्री, जिन्होंने बारह साल में कोणार्क मंदिर का निर्माण किया था।
उसके बाद हम एक विशाल रेडवुड देखने गए, जिसका नाम था 'चिमनी ट्री' । यह मूल से बहुत ऊंचा पेड़ था, मगर बीच में से यह टूट गया था और उस जगह से कई नई शाखाएं फूट निकली थीं। पर्यटकों को वे इसे जीवंत चिमनी के रूप मेंदिखाते हैं। मिट्टी स्तर पर तने को काटकर उन्होंने एक प्रवेश द्वार बनाया है, भीतर में चूल्हा जलाकर पेड़ के ऊपर से धुआं निकलने की व्यवस्था है। इस प्रकार, यह वास्तव में एक जीवंत चिमनी है, क्योंकि पेड़ जीवित है। तने के अंदर लोगों के उठने-बैठने के लिए विराट जगह बनाई गई है। वहां बैठकर कोई भी जलता हुआ चूल्हा देख सकता है। जीवित पेड़ के ऊपर से धुआं निकलते हुए देखना आमोददायक दृश्य था।
उसके बाद हमने सबसे आकर्षक 'ड्राइव-थ्रू' पेड़ को देखा। जमीन पर तने की परिधि इतनी बड़ी है कि कारों के आवागमन के लिए तने के भीतर एक सड़क बनाई गई है। सूर्य हमें अपनी कार में बैठाकर आनंदपूर्वक दूसरी तरफ ले गया। पेड़ के भीतर कार लेकर जाने की वास्तव में विचित्र अनुभूति थी। इसी कारण कि कई कारें वहाँ पर कतारबद्ध खड़ी थीं। पास वाले रेस्तरां में कुछ नाश्ता खाकर हम नजदीक ईल नदी के तट पर गए। कंकड़ और छोटे पत्थरों से भरी इस संकीर्ण नदीके तट पर हाथ-मुंह धोना बहुत अच्छा लगा। नदी के तट पर रखे लकड़ी के बेंचों पर कई अन्य पर्यटक बैठे हुए थे। हमने अपने साथ लाई खाद्य सामग्री को बैग से बाहर निकाल कर मध्याह्न भोजन वहीं कर लिया। उसके बाद हम ‘एवेन्यूऑफ जियांट्स’ देखने गए। पेड़ों के बड़े आकार या आयतन के कारण उन्हें ' जियांट्स ' या असुर नाम दिया गया है। रास्ते का नाम सुनकर मन ही मन समझ गया यह वास्तव में असुरों की ‘बड़दांड’ है। पेड़ों को देखते-देखते हम बहुत दूर तक गए। हम पेड़ों के शीर्ष भाग को देखने के लिए गर्दन पीछे करने लगे, फिर भी आसानी से वह भाग नहीं दिख रहा था। लोगों के बैठने के लिए सड़क के किनारे बैंच लगे हुए थे। थकान मिटाने के लिए हम भी इधर-उधर बेंच पर बैठ गए। उस दिन रेडवुड साम्राज्य की इतनी परिक्रमा पूरी की। इस जगह को छोड़ने से पूर्व रेडवुड के जादू के बारे में मुझे प्रसिद्ध उपन्यासकार जॉन स्टीनबेक की पंक्तियाँ याद आ गई, "जिसने भी एक बार रेडवुड देखा, उसके मन में हमेशा के लिए उसकी अमिट छाप रह जाएगी, जिससे पैदा होगी एक नीरवता और भय मिश्रित आश्चर्य। रेडवुड की उपस्थिति में सबसे अप्रिय मनुष्य भी आश्चर्य और सम्मान के जादू में डूब जाता है ।"
रेडवुड साम्राज्य से लौटते समय हम प्रशांत महासागर के किनारे कुछ दूरी तय कर मुख्य रास्ते को पकड़ा। सैनहोज पहुंचते-पहुँचते शाम हो गई थी।
बर्मिंघम विश्वविद्यालय, फ्लोरिडा, फिर से न्यू ऑरलियन्स
अलबामा विश्वविद्यालय (बर्मिंघम) के नृतत्व विभाग ने मुझे नृतत्व विषय पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया था। नृतत्व विभाग की प्रमुख श्रीमती जेन क्रिश्चियन अमेरिका के नृतत्व क्षेत्र में सुप्रसिद्ध नाम है। पारस्परिक चर्चा के बाद यह निर्णय लिया गया कि मैं 'राष्ट्र शक्ति और गोष्ठी संस्कृति: संघर्ष और सहयोग' विषय पर अपना व्याख्यान दूंगा। कहने की जरूरत नहीं है, अब विश्व में अनेक प्रबुद्ध लोग इस विषय पर शोधरत हैं। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय सेमिनारों में इस विषय पर चर्चा की जाती है। मैं इस संबंध में भारत के आदिवासी समाज की आशा, आकांक्षा और उनके राजनीतिक-आर्थिक प्रभावों पर कुछ काम कर रहा था। अमेरिका के अल्प-संख्यक प्राचीन आदिवासी अर्थात् अमेरिकी-इंडियन की अपना स्वतंत्र राज्य बनाने की इच्छा नहीं है और न ही वे किसी भी ऐसे मुद्दों पर कभी भी आंदोलन करते हैं,यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है। मगर भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों ने अपनी व्यक्तिगत पहचान स्थापित करने की कोशिश की है और वे राजनीतिक और आर्थिक शक्ति प्राप्त करने लिए काफी सचेत हैं। मानवविज्ञानी इन्हें जातीय और सांस्कृतिक पहचान की अभिव्यक्तियों के रूप में स्वीकार करते हैं।
व्याख्यान के प्रारम्भ में मैंने राज्य सत्ता की संप्रभुता और दो सौ वर्षों के इतिहास में इस संप्रभुता के क्रामिक अवक्षय विषय पर चर्चा की थी। फ्रांसीसी क्रांति के बाद उन्नीसवीं शताब्दी में कई सार्वभौम और शक्तिशाली देशों का अभ्युदय हुआ था, मगर स्थिति धीरे-धीरे बदलने लगी। बांग्लादेश को पाकिस्तान से अलग करना संभवतः ऐसा पहला उदाहरण है। बांग्लादेश के लोग भी मुसलमान थे,लेकिन उनकी भाषा बंगला थी। यह आरोप लगा कि बंगला भाषा की राष्ट्र शक्ति द्वारा उपेक्षा की गई है। समसामयिक राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि इस आरोप में मोटामोटी सच्चाई थी। इसके अलावा, बांग्लादेश की भौगोलिक दूरी और केंद्रीय सरकार द्वारा आर्थिक उपेक्षा ने अलगाववाद की भावनाओं को जन्म दिया। मुख्यत: बंगाली भाषा आंदोलन बांग्लादेश के निर्माण का मुख्य कारण बना। इसी तरह सोवियत संघ से एशियाई इस्लामिक रिपब्लिक, यूक्रेन और जॉर्जिया अलगाववाद के अभ्युदय होने के कारण अलग-अलग राष्ट्र बन गए थे। सोवियत संघ छोटे-बड़े ग्यारह विभिन्न देशों में विघटित हो गया था। इसके कुछ साल बाद यूगोस्लाविया पांच अलग-अलग देशों में विभाजित हो गया था। इन सभी स्वतंत्र देशों के गठन के पीछे सिर्फ एक ही कारण था। देश की भौगोलिक सीमाओं के भीतर रहने वाले विभिन्न सांस्कृतिक और नृतात्विक समूह अपने आज़ादी की मांग करने लगे और एक दिन वे शक्तिशाली देश उन्हें मानने के लिए मजबूर हुए। भारत में ऐसी मांगों का मतलब यह नहीं है कि संबंधित समूह या समुदाय संघीय सरकार से अलग होना चाहते हैं, लेकिन संघीय गणराज्य के भीतर धीरे-धीरे अपने जातीय समूहों के आधार पर अलग-अलग राज्यों की मांग बढ़ने लगी है। भाषा के आधार पर सन 1956 में राज्यों का गठन किया गया था। वर्तमान में नए राज्यों के गठन की मांग में भाषा समेत अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक और नृतात्विक कारण भी जोड़े गए हैं।
उस समय तक झारखंड और छत्तीसगढ़ अलग राज्य नहीं बने थे, मगर धीरे-धीरे उनकी मांग बढ़ रही थी। बिहार से अलग होकर झारखंड राज्य के गठन की मांग के पीछे संथाली और मुंडारी आदिवासियों की राजनीतिक और सांस्कृतिक जागरूकता और भाषागत विभेदता प्रमुख कारण थे। मैंने अपने व्याख्यान में इन सब पर चर्चा के दौरान संथाली भाषा के प्रमुख विद्वान पंडित रघुनाथ मुर्मू की रचनाओं का उल्लेख किया था। रघुनाथ मुर्मु खुद शिक्षक थे लेकिन उन्होंने संथाल लिपि 'अल्चिकी' की खोज की थी और उसी लिपि में उन्होंने 'बिदुचंदन' और 'खहरुवाल बीर' नामक दो नाटकों की रचना की थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने संथाली प्रार्थना, मंत्र ‘बाखणे’ संग्रह कर प्रकाशित किये थे तथा प्राथमिक शिक्षा के लिए छात्रों और शिक्षकों के लिए छोटी-छोटी किताबें भी लिखी थीं। संथाली संस्कृति के पुनर्मूल्यांकन के वह जनक थे। अलग राज्य झारखंड की बढ़ती मांग में पंडित रघुनाथ मुर्मू का सबसे बड़ा योगदान था। इस तरह मेरा व्याख्यान सार्वभौम राष्ट्र शक्ति और धीरे-धीरे सांस्कृतिक नृतात्विक समुदायों के भीतर बढ़ते संघर्षों पर केंद्रित था। नृतत्व विभाग के प्रोफेसरों और छात्रों ने मेरे व्याख्यान के अंत में कई सवाल पूछे, इस विषय की अलग-अलग दृष्टिकोण से चर्चा हुई ।
अलबामा प्रदेश की राजधानी बर्मिंघम के माइल्स कॉलेज में अध्यापन कर रहे मेरे मित्र श्री दिगंबर मिश्रा के घर में ठहरा था। विश्वविद्यालय में व्याख्यान देने आने से पहले उन्होंने मुझे उनके साथ रहने का वचन लिया था।
आपसी मुलाक़ात हेतु उन्होंने लुसियाना स्टेट यूनिवर्सिटी के अंग्रेजी प्रोफेसर श्री सुर प्रसाद रथ को सपत्नीक अपने वहाँ आमंत्रित किया था। सपरिवार दोनों दोस्तों को मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई। हम सब कार से चार दिन के लिए फ्लोरिडा गए थे। सुर और उनका परिवार (मंजू, चाना और गिटी), दिगंबर और उनकी पत्नी ज्योत्स्ना, बेटा अनुप, बेटी लिकुन और मैं- इस तरह हम आठ लोग सुबह सात बजे दो कारों से रवाना हुए। रास्ते में भिन्न-भिन्न स्थान मॉन्टगोमेरी, टालाहासी आदि को पार करते हुए शाम को लगभग 6.30 बजे फ्लोरिडा के ऑरलैंडो में पहुंचे। दिगंबर, ज्योत्स्ना और मैं उनके प्रोफेसर मित्र प्रो॰ रामानारायण के घर में रुके। रामानारायण बाबू स्थानीय विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर थे।उनके भाई सूर्यनारायण मेडिकल फिजिसिस्ट थे। दोनों मृत्युंजय महापात्रा के बेटे थे, जो मुझे अच्छी तरह से जानते थे। रामानारायण बाबू की पत्नी झुनु बहुत अच्छा गाना गाती थी। सुर सपरिवार आस-पास की होटल में रुके। अगली सुबह हम प्रसिद्ध एपकोट केंद्र में गए, जो वहाँ से लगभग चालीस मील दूर था। उस जगह के महत्व के बारे में मैंने पहले बहुत कुछ पढ़ रखा था। मुझे पता था कि एक दिन में उस जगह पर सब कुछ देखना संभव नहीं था। फिर भी अनेक भाग जैसे द लैंड, द लिविंग सी और इमेजिनेशन जैसे प्रदर्शनियां सुबह-सुबह हमने देख ली थी। नाश्ता-पानी करने के बाद कृत्रिम झील के दूसरी तरफ लगी प्रदर्शनी देखने गए, जो विभिन्न देशों की संस्कृति से संबंधित थी। हमने दो देशों की स्टालों को सविस्तार देखा। ये देश थे मेक्सिको और चीन। प्रत्येक स्टाल में अपने-अपने देशों की संस्कृति से संबंधित लघु फिल्म दिखाई जा रही थी। नाव में बैठकर कुछ समय कृत्रिम झील में घूमे। कृत्रिम झील के चारों तरफ कपूर के पौधे लगे हुए थे। एपकोट सेंटर में घूमकर उसके विभिन्न भागों को देखना मुझे बहुत अच्छा लगा था। हम सभी ने, खासकर बच्चों ने सोचा कि एक और दिन हमें वहां रुकना चाहिए था। लौटकर उस होटल में हमने डिनर लिया, जिसमें सूर रुके हुए थे। उसके बाद हम रामनारायण बाबू के घर चले गए। भुवनेश्वर, ओड़िशा, बर्मिंघम, लुसियाना और फ्लोरिडा के बारे में चर्चा हुई। झुनू ने कुछ गीत सुनाए। मुझे अपनी कविताएं सुनाने का अनुरोध किया गया। मैं इससे बचना चाहता था, लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। मेरे मित्र के पास मेरे दो कविता-संग्रह थे, मैंने उनमें से दो-तीन कविताएं पढ़ीं। ये सारा मनोरंजन होते-होते रात का एक बज गया था। सुर परिवार अपने होटल में चले गए।
अगले दिन क्रिसमस था, स्थानीय समाचार पत्रों में गाड़ी चालकों के लिए कई नोटिस छह पे थे, ताकि उनकी वजह से कम लोगों की मृत्यु हो। मुझे पता था हर साल की तरह इस साल भी लोग मद्यपान कर गाडियाँ चलाने की घटनाओं की पुनरावृत्ति होगी और सड़क दुर्घटनाओं में कई लोग मौत के शिकार होंगे। अमेरिकी जीवन में क्रिसमस जश्न का दिन होता है और इस वजह से उस दिन घातक दुर्घटनाएं होना स्वाभाविक है, इसे स्वीकार्य तथ्य के रूप में मान लिया गया है। कुछ दिनों पहले ही नशे में धुत्त आदमी ने मैकडॉनल्ड रेस्तरां में अठारह लोगों को गोली से मार दिया था। क्रिसमस आशा और आश्वासन का दिन है। यह ईसाई धर्म के प्रवर्तक ईसा मसीह का जन्मदिन है। मगर जीवन का असीम आनंद लेने के लिए अमेरिकी संस्कृति लोगों को इतना उद्बुद्ध कर रखा हैं कि आनंद उत्सव पालन के दौरान कुछ मौतें अवश्यंभावी होना मान लिया गया हैं।क्रिसमस के दिन अमेरिकी परंपराओं के अनुसार सुबह से उपहारों को वितरण शुरू हो जाता है। उनकी तरफ से मुझे उपहार मिला सैफर्स की बॉल पेन और दिगंबर की बेटी लिकून से टाई। सुर नाश्ते के लिए रामानारायण बाबू के घर आए। सभी बच्चों को मैंने डॉलर में उपहार दिया। रामबाबू के बेटे मानस को उपहार में साइकिल मिली। वह तुरंत आधा घंटा बाहर साइकिल चलाकर आया। क्रिसमस पर राम बाबू और उनके बच्चों के कारण खाने-पीने में कोई कमी नहीं रही। दोपहर के दो बजे हमने उनका घर छोड़ दिया। उनका भतीजा राहुल “आप लोग मत जाओ” कहकर रोना शुरू किया। दो दिन में हमें उनका घर अपना लगने लगा था। घर से विदा लेने में हमें भी दुःख हो रहा था।
हमने ऑरलैंडो से 2 बजे प्रस्थान किया और 4.30 बजे टांपा पहुंचे। दिगंबर ने किरण सेनापति के घर में पहले से रहने का प्रबंध कर लिया था। किरण गोविंद सेनापति के बेटा था। गोविंद बाबू आई.पी.एस. अधिकारी थे और मेरे परिचित भी। किरण की पत्नी लेखा बसंत बेहुरा की बेटी थी। आई एससी में बसंत बाबू मेरे जूलॉजी के अध्यापक थे। किरण और लेखा की एक बेटी है, नाम जेनिफर। उसे जेनी कहकर बुलाते थे।चाय-नाश्ता करने के बाद हम टांपा के सेंटपीटर्सबर्ग समुद्र तट पर गए। वहाँ का सूर्यास्त बहुत शानदार था। सर्दियों में ऐसे भी सूर्यास्त हमेशा बहुत सुंदर होता था, टांपा शहर में लगभग हर जगह से समुद्र देखा जा सकता है और समुद्र तट वाली सड़क पर असंख्य रोशनियाँ दिखाई देती हैं। सूर्यास्त के बाद सारी आलोकमालाएँ जल उठने पर पूरा अंचल पृथ्वी पर स्वर्ग की तरह दिखाई देता है। सर्दी का मौसम होने के बाद भी बिलकुल सर्दी नहीं थी। शरीर पर समुद्री हवा बसंत की हवा की तरह लग रही थी।लौटते समय कुछ समय के लिए रास्ते में पड़ने वाले क्लीयरवॉटर द्वीप की तरफ गए। इस द्वीप में पार्क में घूमते कई पर्यटक, कुछ छोटे-छोटे रेस्तरां और चारों तरफ समुद्र- ये सब मिलकर इस जगह को अत्यंत आकर्षक बना रहा था। वहाँ से हम किरण के घर 8 बजे लौट आए। सुर और दिगंबर ने होटल में खाना खाने का प्रस्ताव रखा, मगर किरण इसके लिए बिलकुल राजी नहीं हुए। उन्होंने अपनी बात रखी, "आप लोग इतनी दूर से आए हो। इसके अलावा, सीताकान्त बाबू भी आए हैं । लेखा और मैं आप लोगों को ओड़िया खाना खिलाए बिना नहीं छोड़ेंगे।" उनकी बात मान ली गई।भात, दालमा, मछह ली की तरकारी, खीर, और कुछ अमेरिकी व्यंजन बनाकर उन्होंने हमारे लिए सच्ची दावत तैयार कर ली। वहाँ मुझे पता चला कि किरण को भी मेरी तरह ताश खेलना पसंद है। खाना खाने के बाद सुर, दिगंबर, किरण और मैं रात के दो बजे तक ताश खेले। बच्चे पहले से ही सो गए थे।
सुबह हम देरी से उठे।पहले हम अमेरिकी इंडियन रिज़र्वेशन में गए। अमेरिका में आदिवासियों के लिए एक विशेष स्थान पर बस्ती बनाई जाती है, उसे रिज़र्वेशन कहा जाता है। इस रिज़र्वेशन में केवल बहत्तर लोग थे,सेमिनोल समुदाय के। उन्होंने अपने घरों को अनूठी शैली में सजाकर रखा था।सभी ने मिलकर एक छोटा-सा तालाब खोदा था,जिसमें बहुत-सी मछह लियाँ छोड़ दी थीं।
उनकी साधारण कला वस्तुओं को एकत्रित कर बिक्री के लिए एक स्थान पर रखा गया था। थोड़ी देर वहाँ घूमने के बाद हम दूसरी जगह पर गए,जिसका नाम था ‘रिवर आइलैंड’। यह द्वीप छोटी नदी के मुहाने पर स्थित है,मगर समुद्र से काफी दूर। पेडल नौकाओं से हम नदी के मुहाने पर घूमे। पास वाली होटल में चाय-नाश्ता करके हम घर लौटे। उस समय हमारे ताश खेलते समय ज्योत्स्ना और किरण दोनों ने गाना गाया। मुझे पता नहीं था कि किरण बहुत अच्छा गाती भी है। उनके गीतों में एक सालवेग भजन भी था।
अगले दिन सुबह साढ़े आठ बजे हमने बर्मिंघम के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में इधर-उधर घूमते-घामते, लंच लेकर छह ह बजे बर्मिंघम पहुंचे। अगले दिन 28 तारीख थी। सुर, दिगंबर और मैं न्यू ऑरलियन्स के लिए रवाना हुए। रास्ते में मिसिसिपी पार करनी पड़ी। न्यू ऑरलियन्स से पहले ‘आयरिश बाउओ’ नामक विशाल जलराशि के बगल से होते हुए जाना पड़ता है। शहर पहुंचने से पहले हम मिसिसिपी नदी के तट पर गए। मैंने मिसिसिपी के बारे में बहुत कुछ पढ़ा था। नदी के किनारे पर कई छोटे-छोटे रेस्तरां थे। हमने वहाँ चाय-नाश्ता किया और कुछ समय नदी के तट पर बैठे रहे। मिसिसिपी नदी का मुहाना न्यू ऑरलियन्स शहर से बहुत दूर नहीं था। अमेरिका की सबसे बड़ी नदी न्यू ऑरलियन्स के पास गहरी हैं। कई स्टीमरों का नदी पर आवागमन हो रहा था। शाम की हवा मुझे अपने गांव की नदी की याद दिला रही थी। नदी कूल से हम शहर के भीतरी भाग में गए। हमारे पास अपनी कार थी,इसलिए शहर के भीतर घूमना आसान था। फ्रेंच भाषा-संस्कृति ने न्यू ऑरलियन्स पर अपना अमिट प्रभाव छोड़ा है, यह विशाल शहर अमेरिका के अन्य शहरों से बहुत अलग है। सबसे पहले, न्यू ऑरलियन्स के खाने के कारण। प्रचुर मात्रा में मछह ली की कई किस्में यहाँ उपलब्ध हैं। अधिकांश होटलों में पर्यटकों को लुभाने के लिए सीफ़ूड, प्लेटेटर्स परोसे जाते हैं। उसमें झींगा से लेकर मछह ली की कई किस्में,जिसमें कस्तूरी भी शामिल है। न्यू ऑरलियन्स का दूसरा मुख्य आकर्षण जैज संगीत है। यह शहर जैज संगीत की प्रसवशाला है। सड़क के किनारे जैज संगीत बजाते युवा लोगों के दल सहजता से देखे जा सकते हैं। न्यू ऑरलियन्स के फ्रेंच क्वार्टर अंचल में हम बहुत घूमे। इस अंचल की सड़कें संकीर्ण थीं। सड़क के दोनों किनारों पर लगभग घरों की बालकनी पर लोहे की सुंदर ग्रिल बनी हुई थी। इसलिए उस अंचल की सारी सड़कें किसी चित्रपट्ट से कम नहीं थी। वहाँ कुछ समय बिताकर हम शहर के केन्द्रांचल में गए। केन्द्रांचल की विस्तृत सड़कें और सुंदर आलोकमालाएँ पर्यटकों को आकर्षित कर रही थीं। सड़कों के दोनों तरफ होटल और रेस्टोरेंट भरे हुए हैं। ठाए,ठाए चारों तरफ जैज संगीत की ध्वनि। ऐसा प्रतीत होता था कि इस महानगर में केवल दो ही मुख्य काम हैं, खाना और गीत गाना।
हमें उसी दिन बर्मिंघम लौटना पड़ा। खाना खाने के बाद हम वापस लौटे। हार्वर्ड के फ़ेलो को अमेरिकी सरकार ने अमेरिका के पंद्रह दिवसीय दौरे का निमंत्रण दिया था, उसमें न्यू ऑरलियन्स की यात्रा भी शामिल थी। मैंने पहले भी न्यू ऑरलियन्स यात्रा के बारे में अन्यत्र लिखा है, इसलिए यहां उन्हें दोहराने की आवश्यकता नहीं है। बर्मिंघम पहुंचते-पहुँचते आधी रात हो गई थी। घूमते-फिरते,तरह-तरह का खाना खाते,गपशप करते, मजे से समय पार हो रहा था फिर भी बर्मिंघम पहुँचने से पहले थकान लगने लगी थी, बीच-बीच में नींद से आँखें भी बोझिल हो रही थीं। दिगंबर के घर पहुंचते ही मैंने बिस्तर पकड़ा।अगले दिन सुबह उठते-उठते 9 बज गए थे।
बर्मिंघम में मेरा यह आखिरी दिन था। हम तीनों और दिगंबर की पत्नी ज्योत्स्ना बहुत समय तक ताश खेलते रहे। ज्योत्स्ना और मंजू ने घर पर भोजन की प्रचुर व्यवस्था की थी। दिगंबर की बेटी ने भी खाना बनाने में उनकी बहुत मदद की। मध्याह्न और रात्रि के भोजन में ओड़िया और अमेरिकन खाद्यों का एक अद्भूत सम्मिश्रण था। बहुत दिन बाद मुझे अच्छा ओड़िया खाना मिला। सुर, दिगंबर और मैंने अपने आपको 'द थ्री मस्केटियर्स' का नाम दिया था। शाम को हम बर्मिंघम के केंद्रांचल में फिर से चले गए। न्यूयॉर्क की मेरी उड़ान अगले दिन सुबह दस बजे थी। मैंने हार्वर्ड लौटने से पहले नए साल के कुछ दिन न्यूयॉर्क में बिताने की योजना बनाई थी। मेरे न्यूयॉर्क जाने के दिन सुर भी सपरिवार अपने शहर श्रावपोर्ट (लुसियाना) गाड़ी में गए। दिगंबर और उनकी पत्नी कहने लगी, कल से उनका घर खाली-खाली लगेगा। बर्मिंघम हवाई अड्डे पर दिगंबर से विदा लेने के बाद बहुत समय तक मैंने अपने भीतर निर्वात अनुभव किया।
क्लेयरमाउंट पिट्जर कॉलेज समूह, लॉस एंजिल्स: कविता-पाठ और समालोचना
मुझे और एक निमंत्रण मिला था क्लेरमोंट पिट्जर कॉलेज (वास्तव में, यह कॉलेजों का समूह है) के नृतत्व विभाग के डीन सुसान सेमूर ग्रैहम की तरफ से, वहाँ अंग्रेजी विभाग में मुझे अपनी कविताएं पढ़ने और इस विषय पर कुछ कहने के लिए अनुरोध किया गया था।
क्लेरमॉन्ट लॉस एंजिल्स के बाहरी इलाके में स्थित है।यह सैनहोज के नजदीक है। ऑरेंज काउंटी की तरह क्लेरमॉन्ट को लॉस एंजिल्स का हिस्सा माना जाता है। क्लेरमोंट में एक छोटा हवाई अड्डा है। सैनहोज के जिस विमान से मैं आया था, वह भी बहुत छोटा था।यहाँ तक कि यात्रियों के सामने सामान रखा जा रहा था। जिस दिन मैं क्लेरमॉन्ट आया था, उसी दिन मेरी पत्नी, बेटा सत्यकाम, गोपीनाथ मामा और मामी सिंगापुर एयरलाइंस की उड़ान से सैनफ्रांसिस्को से कोलकाता जाने वाले थे। कार से उनके सैन फ्रांसिस्को जाने से दो घंटे पहले मैं सैनहोज हवाई अड्डे पर पहुँच गया था, वे सब मुझे मिलने आए थे।
सुजान और उनके पति लॉरी क्लेरमोंट हवाई अड्डे पर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे, अपने घर ले जाने के लिए। लॉरी ग्राहम सुजान के दूसरे पति थे। इसलिए अब उनका नाम है सुजान सेमूर ग्राहम। मैंने पहले भी क्लेरमॉन्ट की मेरी पहली यात्रा और कैलिफ़ोर्निया के मोहावे रेगिस्तान के बारे में लिखा है।मगर इस यात्रा का उद्देश्य बहुत सीमित था। सुजान ने मुझे उनके कॉलेज में अपनी कुछ कविताएं पढ़ने तथा उनके बारे में कुछ कहने के लिए अनुरोध किया था।पहुँचने वाले दिन अपराह्न में हम क्लेरमोंट और लॉस एंजिल्स के हॉलीवुड के आसपास घूमने गए। अंत में डिज़नीलैंड घूमकर, वहीं डिनर लेने के बाद हम सुज़ान के घर वापस आए।
सुजान के घर मानव विज्ञान की पुस्तकों की काफी बड़ी लाइब्रेरी थी। उसके अलावा, उसमें उसकी पसंदीदा साहित्य और कविता की कई किताबें थीं। उनके पति लॉरी गणित के प्रोफेसर थे। उनका बेटा इलियट मोहवे क्षेत्र में अपने स्कूल द्वारा आयोजित सात दिवसीय शिविर में भाग लेने गया हुआ था। घर में हमने भारतीय नृतत्व और विभिन्न अमेरिकी विश्वविद्यालयों में नृतत्व अध्यापन के बारे में बहुत चर्चा की। सुजान ने 'ट्रांसफ़ॉर्मेशन ऑफ ए टेम्पल टाउन' नामक पुस्तक का संपादन किया है। पुस्तक पुराने भुवनेश्वर पर लिखी गई है। इसके अलावा, उन्होंने 'भारत में बाल-पालन और शिक्षा' पर शोध-ग्रंथ भी लिखा है। वह दीर्घ समय से पिट्जर कॉलेज में पढ़ा रही थी। यह कॉलेज कटक में हमारे रैवेनशॉ कॉलेज से बड़ा है, छात्रों और प्रोफेसरों की संख्या के दृष्टिकोण से। पिट्जर कॉलेजों का समूह है। कैलिफ़ोर्निया के बाहर भी इसके कैंपस हैं और एक शाखा काठमांडू में भी है।
अगले दिन अंग्रेजी विभाग में मेरा कार्यक्रम था। उस विभाग से जुड़ा हुआ विभाग था-रचनात्मक लेखन विभाग। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि वहाँ कविता या साहित्यिक रचनाओं की एक कक्षा होती है, लेकिन कई अमेरिकी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में ऐसे विभाग है, जिनमें ज्यादातर कवि और लेखक पढ़ाते हैं। ऐसे विभाग सैनहोज और हार्वर्ड में भी थे। रचनात्मक लेखन वहाँ विशिष्ट पाठ्यक्रम है, विश्वविद्यालय या कॉलेज जिसकी स्नातक डिग्री प्रदान करता है। छात्रों को रचनात्मक लेखन के विभिन्न पहलुओं के बारे में ही नहीं पढ़ाया जाता है,बल्कि उन्हें धीरे-धीरे कुछ लिखने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है। कक्षा में छात्र द्वारा लिखित पाठ पर चर्चा की जाती है, प्रोफेसर और सहपाठी उसकी समालोचना करते हैं।
आरंभ में ही मैंने उन्हें बता दिया था कि मैंने सामाजिक, साहित्यिक और नृतत्व संबंधित कई चीजें अंग्रेजी में लिखी हैं, लेकिन कविताएं मैंने केवल मेरी मातृभाषा ओड़िया में लिखी हैं। क्योंकि मेरे विचार से कविता केवल उसी भाषा में लिखी जा सकती है, जिस भाषा में वह व्यक्ति सपने देखता है। मैंने अंग्रेजी में अनूदित मेरी छह ह कविताएं पढ़ी थीं और उनके ओड़िया संस्करण भी। मुझे खुशी हुई कि वहाँ के छात्रों में किसी अन्य भाषा को पढ़ने और जानने के बारे में उत्सुकता थी। सुजान के कहने के अनुसार मैंने एक-एक कर कविताएं पढ़ी थीं। छात्रों ने मुझे प्रत्येक कविता पर सवाल पूछे, प्रत्येक कविता की समालोचना भी हुई थी। विशेष रूप से उनकी मेरी कविताओं के उत्स, आभिमुख्य, विषय-वस्तु,काव्य-परंपरा और भाषा-शैली के बारे में जानने में रुचि थी। उदाहरण स्वरूप अँग्रेजी अनुवाद सहित पढ़ी कविता दादी माँ में 'धान खेतों के हिड', 'गुगुचिया(भाला घास)', 'दियासिलाई की तरह बस' आदि- उनके लिए अपरिचित और अननुभूत थे। संक्षेप में कहूँ तो, मुझे उनके जिज्ञासु मान ने बहुत प्रभावित किया। कार्यक्रम डेढ़ घंटे से अधिक चला। सुजान के अलावा दो अन्य प्रोफेसरों ने मेरे व्याख्यान पर टिप्पणी की थी। विभाग में अनौपचारिक मध्याह्न भोजन कर मैं घर लौट आया। सुजान ने अपने कुछ प्रोफेसर-सहकर्मियों और लेखकों को अपने घर में रात्रि भोज के लिए आमंत्रित किया था। वहाँ अनेक साहित्यिक और नृतात्विक विषयों पर आलोचना हुई ।
सैनहोज विश्वविद्यालय में व्याख्यान,पिट्जर कॉलेज में काव्य-पाठ और काव्य-समालोचना- ये दोनों कार्य समाप्त कर क्लेरमॉन्ट से लॉस एंजिल्स के रास्ते हार्वर्ड लौट गया।
(क्रमशः अगले भागों में जारी...)
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