भाग 1 1. काउल, तुम्हें न किसी प्रकार की पीड़ा है और न ही किसी प्रकार का पश्चाताप। भाग्य के खिलाफ न तुम्हारा कोई विरोध है और न ही आत्मसमर्...
1.
काउल, तुम्हें न किसी प्रकार की पीड़ा है और न ही किसी प्रकार का पश्चाताप। भाग्य के खिलाफ न तुम्हारा कोई विरोध है और न ही आत्मसमर्पण। विजय की न कोई लालसा है और नहीं पराजेय का भय। तुम एक निर्विकार, निर्विछिन्न पुरुष हो। तुम्हारे जीवन में हजारों आंधी-तूफान आने के बाद भी तुम बीथोवन की चौथी सिंफोनी की तरह निश्चल, शांत हो।
तुम्हारा जीवन अनंत पापों की अंतहीन कहानी है। कदम-कदम पर तुमने धर्म और समाज के नीति-नियमों को तोड़ा है। तुमने बाइबल के सर्मन, कुरान की आयतों और गीता के श्लोकों की अवहेलना की है। तुम्हारी कहानी लिखने पर लोग तुम्हारी निंदा करेंगे, सभी तुम्हें पक्षाघात का रोगी कहकर तुम्हारी आलोचना करेंगे। वे कहेंगे कि कहानी का नायक पथभ्रष्ट, चरित्रहीन और लंपट है, वह हमारे समाज को कलंकित करेगा, जिससे हमारे समाज की बनी-बनाई परंपराएं बर्बाद हो जाएगी और भविष्य की विचारधारा कलुषित होगी।
फिर भी मैं तुम्हारी कहानी लिखने जा रहा हूं क्योंकि तुम्हारे चरित्र में कलंक लगने के बावजूद भी एक बलिष्ठ मर्यादा जिंदा है। तुमने अपने जीवन की घुप्प अंधेरी कोठरी में एक दीपक की कोमल आभा प्रज्ज्वलित की है। जो भी कोई तुम्हारे कलंक की तरफ देखेगा, वह उस उजाले को नजरंदाज नहीं कर पाएगा। लोग जानते हैं कि दूसरों को पतित कहना इतना सहज नहीं है। व्यक्ति की परिधि की समीक्षा भी करना अत्यंत ही जटिल है। चरित्रहीनता के भीतर महत्वपूर्ण बात हो सकती है। पाप के भीतर भी गौरव की बात हो सकती है।
तुम्हारे जीवन में न तो किसी प्रकार की विडम्बना है, न किसी प्रकार की प्रताड़ना और पाखंड। तुम मौत की तरह अटल सत्य हो, तुम अंधकार की तरह सदैव चिरंजीवी हो।
मगर लोग कहेंगे, ‘हो सकता है यह सत्य हो। ’ अथवा ‘हो सकता है यह चिरंजीवी हो। ’; मगर श्मशान सत्य है, इसका मतलब यह नहीं है इसका स्थान मंदिर ले सकता है। हमारे पवित्र, शिव-सुंदर समाज के प्रांगण में ऐसे राक्षस, पापी लोगों का स्थान कहां है? कुष्ठ रोगी की तरह गांव के अंतिम छोर पर उनका निवास स्थान होता है।
आदम यानी पहला पुरुष न तो पापी था और न ही पुण्यात्मा। जन्म से हर आदमी निष्पाप होता है। समाज की तत्कालीन परिस्थितियां उसे पापी या पुण्यात्मा बना देती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जिन पर कई कारणों से तत्कालीन समाज उन पर पूरी तरह से हावी नहीं हो पाता है। वे स्वयं को समाज और धर्म से अलग मानते हैं। उन में से पैदा होते हैं ईसा, मोहम्मद, गांधी, सुकरात आदि। वे समाज को अपनी तरफ खींचने का प्रयास करते हैं, अंत में वे सफल भी हो जाते हैं। समाज उनकी ओर आकर्षित होता है, उनके मूल्य-बोध को ग्रहण कर अपने भीतर परिवर्तन लाते हैं। वे बनते हैं महात्मा। यदि समाज उनके नियंत्रण में नहीं आता है या तुम उनके मूल्य-बोध को स्वीकार नहीं करते हो तो उनके रथ के पहिए के नीचे तुम कुचल दिए जाओगे। तुम कहलाओगे भ्रष्ट, पापी, विपथगामी। लक्ष्मण-रेखा की तरह समाज भी एक निषिद्ध रेखा खींचता है। जिसका उल्लंघन करना पाप है तो पालन करना पुण्य। पाप-पुण्य का विचार बस उस सीमा के प्रति अपना सम्मान दिखाना है। अंगूर खाओ, स्वास्थ्य के लिए अच्छे हैं;मगर इन अंगूरों के रस का क्वाथ गिलास में लेकर पियोगे तो तुम्हें मद्यपान करने वाला कहा जाएगा। एक नारी का उपभोग करोगे तो समाज तुम्हें उसका पति कहेगा, मगर ज्यादा नारियों का उपभोग करोगे तो समाज तुम्हें लंपट कहेगा। भविष्य में अपनी आर्थिक उन्नति के लिए जगन्नाथ जी के सामने धन बांटोगे तो समाज कहेगा धार्मिक, मगर रेस-कोर्स में पैसा कमाने के लिए लॉटरी खरीदोगे तो लोग कहेंगे जुआरी, गैंबलर।
एक दिन गुरु रत्नाकर ने अपने शिष्य श्वेतांक और विशाल देव से पूछा, “आपने दोनों को देखा है। अब बताओ, तुम्हारे विचार से कौन पापी है बीजगुप्त या कुमार गिरि?”
श्वेतांक ने कहा, “महाप्रभु! बीजगुप्त तो भगवान का अवतार है। संसार में वह शांति और मानवता की जीती-जागती प्रतिमूर्ति हैं। उनका हृदय विशाल है, उनमें मानवता कूट-कूटकर भरी है और उनका त्याग अतुलनीय है। मगर कुमारगिरि? वह तो स्वार्थी पशु की तरह अपना मतलब निकालने के लिए सारी दुनिया को धोखा दे सकते हैं। अपने तथाकथित स्वगिर्क उपभोग के लिए प्रकृति के नियमों की अवहेलना कर सकते हैं। उनका सारा मनुष्य जीवन बीत गया है अपनी नैसर्गिक कामनाओं को वश में करते-करते। समय और मौकापरस्ती का कैसा अपव्यवहार है यह! जिसका न तो कोई गौरव है और न ही कोई महत्व। वह पापी के सिवाय और क्या है? हमारे बीजगुप्त के सामने अति-तुच्छ है वह!
उस प्रश्न का उत्तर विशालदेव ने इस प्रकार दिया। उसने कहा, “महाप्रभु! योगी कुमारगिरि अदम्य और महान है। उन्होंने अपनी कामवासना, मायामोह पर विजय पाई है। जो किसी भी व्यक्ति को संकुचित करती है, पथ-भ्रष्ट करती है, उनका कुमारगिरि ने दमन किया है। उनकी विद्वता और आध्यात्मिक शक्तियों के बारे में तो कहना ही क्या! और रही बात बीजगुप्त की-वह तो काम-क्रीडा का कीड़ा है, उच्छृंखल भोग-विलास का पुतला है। उसका हृदय, उसकी मनुष्यता और उसके तथाकथित त्याग सभी इन पार्थिव सुखों के लिए नियोजित है। पाप का एक जीवंत उदाहरण है यह म्लेच्छ बीजगुप्त!
पाटलिपुत्र में गुरु रत्नाकर के दो शिष्य थे, श्वेतांक और विशालदेव। गुरुकुल में दोनों की शिक्षा पूरी होने के बाद उन्होंने पूछा, “गुरुदेव! सभी विषयों पर हमने ज्ञान हासिल किया है। मगर एक बात बाकी रह गई है, वह है-पाप क्या है?पुण्य क्या है? इन दोनों में अंतर क्या है?”
गुरु ने उत्तर दिया, “यह एक जटिल प्रश्न है। मैंने अनेक बार इसकी व्याख्या करने कोशिश की, मगर कभी भी सही उत्तर नहीं दे पाया। इसके लिए अपना व्यक्तिगत अनुभव होना चाहिए। मैं तुम दोनों को अपने पुराने शिष्यों के पास भेज रहा हूं। दोनों के चरित्र पूरी तरह विपरीत हैं। पहले उन पर नजर रखकर अपना तजुर्बा हासिल करो और फिर आकर मुझे बताओ, कौन पापी है?और कौन पुण्यात्मा?”
श्वेतांक पाटलिपुत्र के युवा महाराज बीजगुप्त के महल में गए और विशालदेव प्रतिष्ठित योगी कुमारगिरि के आश्रम में।
बीजगुप्त पाटलिपुत्र की स्वनाम-धन्य नर्तकी चित्रलेखा के संगीत-नृत्य में डूबे हुए थे। चित्रलेखा के वीणा की तारों की झंकार, घुंघरू की छमछमाहट से सारा महल भर गया था और उसका सम्पूर्ण हृदय भी। चित्रलेखा असीम बुद्धिमती सुदक्ष और अतुलनीय सुंदरी थी। उसके एक इशारे में पाटलिपुत्र का जन-धन उसके पैरों के तले लौटने लगता था। उसकी कला की प्रसिद्धि देश-देशांतर में फैल चुकी थी। वह भी बीजगुप्त की शिक्षा, संस्कृति और सौंदर्य पर मुग्ध थी। पहले बीजगुप्त चित्रलेखा का मानसिक और शारीरिक मिलन सात्विक स्तर पर हुआ। धीरे-धीरे यह मिलन सम्यक, संपूर्ण और गंभीर होता चला गया। दोनों की आत्माएं, दोनों के मन और दोनों के शरीर अविच्छेद्य हो गए।
बीजगुप्त की शादी के लिए अनेक प्रस्ताव राजघरानों से आए। मगर बीजगुप्त ने किसी को भी स्वीकार नहीं किया। किंतु पाटलिपुत्र के तत्कालीन महाराज की राजकुमारी यशोधरा के साथ विवाह के प्रस्ताव को टाल न सके क्योंकि यह प्रस्ताव स्वयं महाराज ने लाया था।
एक शाम को बीजगुप्त के महल में पाटलिपुत्र के योगीराज कुमारगिरि पधारे। उनकी आंखों की ज्योति, शरीर की आभा सभा-स्थल को आलोकित कर रही थी। यौवन ब्रह्मचर्य से उद्दीप्त था। सभी सभासदों और स्वयं महाराज ने दंडवत होकर उन्हें प्रणाम किया। सजी-धजी चित्रलेखा नृत्य के लिए तैयार थी। उसके बालों में लगी फूलों की माला वक्षस्थल तक झूल रही थी, जुड़ा खुला हुआ था, आंखों में काजल डाली हुई थी, अधरों की लालिमा दुनिया की सारी मर्दानगी को चुनौती दे रही थी। पांव में नूपुर की मृदुध्वनि आमंत्रित कर रही थी। सभासदों के अभिवादन करने के बाद चित्रलेखा आगे आई और हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए कहने लगी, “योगीश्रेष्ठ कुमारगिरि को नर्तकी चित्रलेखा का प्रणाम! ”
कुमारगिरि ने उत्तर दिया, “इस अंधकार को आलोक का आशीर्वाद! ”
“आलोक के संस्पर्श से अंधकार प्रकट हो, परंतु अंधकार की छाया में आलोक कहीं विलुप्त न हो जाए। ” चित्रलेखा ने कहा।
कुमारगिरि ने कहा, “गहन आत्मविश्वास का भ्रम भी सदैव सम्माननीय होता है। मगर यह आत्मविश्वास उचित होने से मानव अतिमानव बन सकता है। भगवान का आश्रय लो, नर्तकी! शुद्ध हो जाओगी, निष्पाप बन जाओगी। ”
चित्रलेखा ने उत्तर दिया, “जिस पर दाग है, उसे धोना आवश्यक है। मगर जो पवित्र- अपवित्र की सीमा से परे है, उसके लिए पाप-पुण्य के विचार व्यर्थ है। उसके लिए भगवान की स्थिति भी निष्प्रयोजन है। अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए मनुष्य ने भगवान की सृष्टि की है। ”
कुमारगिरि और चित्रलेखा की इस वार्तालाप को सभासद ध्यानपूर्वक सुन रहे थे।
कुमारगिरि बेचैनी अनुभव करने लगे, उनकी आंखे लाल हो गई, नाड़ियों की गति तेज हो गई, स्नायु फड़कने लगे। गंभीर स्वर में वह कहने लगे, “यदि सभासद चाहते हैं तो मैं अभी भगवान के अस्तित्व का प्रमाण दे सकता हूं। ”
सभा में हलचल-सी मच गई। सभी निस्तब्ध होकर कुमारगिरि की ओर देखने लगे। चित्रलेखा के अहंकारी बडबोलेपन के लिए सहम से गए।
कुमारगिरि ने आंखें बंद कर ली। कक्ष में अंधेरा किया गया। योगी श्रेष्ठ ध्यानस्थ हो गए। कुछ समय नीरवता में व्यतीत हो गया। धीरे-धीरे चारों तरफ से आँधी-तूफान की गर्जना सुनाई देने लगी। ऐसा लगने लगा मानो एक भयंकर तूफान कमरे के भीतर प्रवेश कर रहा हो। फिर अचानक दिखाई देने लगी, बीजगुप्त के सिंहासन के ऊपर लपलपाती एक विशाल अग्नि-शिखा। कुछ समय तक यह अग्नि-शिखा कुमारगिरि की साधना की पराकाष्ठा और अस्तित्व प्रतिपादित करती रही। इसके बाद शिखा बुझ गई।
कमरे में फिर रोशनी कर दी गई। सभासदों ने कुमारगिरि के चरणों में गिरकर प्रणाम किया। भगवान के दर्शन कर वे कृतार्थ अनुभव करने लगे।
कुमारगिरि ने सभासदों से प्रश्न किया, “क्या आपको भगवान के अस्तित्व का प्रमाण मिला?”
समवेत स्वर में उपस्थित जनता ने स्वीकार किया। मगर चित्रलेखा और महामंत्री चाणक्य ने इसे स्वीकार नहीं किया। वे कहने लगे, “उन्होंने ऐसा कोई दृश्य नहीं देखा। ”
आखिरकार कुमारगिरि को इस बात को स्वीकार करना पड़ा कि इन दोनों का मानसिक शक्ति प्रखर और आत्मविश्वास दृढ़ है। जिसके फलस्वरूप उन्होंने उसकी इस मानसिक शक्ति की प्रक्रिया को अनदेखा किया।
सारे सभासद निरुत्साहित हो गए। मगर चित्रलेखा का उत्साह कम नहीं हुआ। कुमारगिरि के दंभ, सौरभ, रूप और ज्ञान से वह अभिभूत हो गई। उसके मन में आया कि वह कुमारगिरि के पास जाकर योग-साधना सीखेगी और ऐसे रूपवान, गुणवान और तरुण योगी कुमारगिरि को वश में करेगी। वह योग-साधना पर विजय पाएगी और यह प्रमाणित करेगी कि वह भी एकाग्रता के बल पर कुमारगिरि के तथाकथित भगवान को प्राप्त कर सकती है। इसके अलावा, बीजगुप्त को यशोधरा से शादी करने के लिए मुक्त कर देगी, ताकि वह अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन कर सके। समाज और राज्य में बीजगुप्त को सम्मानित पद मिल सके।
बीजगुप्त का महल छोड़कर चित्रलेखा कुमारगिरि के आश्रम में योग साधना सीखने के लिए चली गई।
इसी बीच, यशोधरा श्वेतांक की ओर आकृष्ट हो जाती है, उसके ज्ञान-रूप के कारण। उसके आगे प्रेम निवेदन करती है, श्वेतांक भी उसे स्वीकार करते हैं। मगर महाराज बीच में रुकावट बन गए। वह कहने लगे, “सब-कुछ ठीक है, रूप है, रंग है, मगर श्वेतांक की आर्थिक स्थिति सही नहीं है, इसलिए यशोधरा का विवाह श्वेतांक के साथ असंभव है। ”
नशेड़ी, लंपट बीजगुप्त का मन अस्थिर हो गया। चित्रलेखा के बिना उन्हें सारा राज्य अंधकारमय लगने लगा। उन्होंने निश्चय किया कि अपना सारा राज्य श्वेतांक को देकर वह निर्वासन ले लेंगे। श्वेतांक देश का शासन संभालेगा, उसे प्रतिष्ठा मिलेगी और यशोधरा के साथ उसकी शादी हो सकेगी। वह यशोधरा के प्रति अपना कर्तव्य भी निभा पायेगा।
एक दिन सभासदों को बुलाकर बीजगुप्त ने अपना निर्णय सुनाया। अपना सम्पूर्ण साम्राज्य यशोधरा और श्वेतांक को समर्पित कर दिया। उधर चित्रलेखा के रूप ने कुमारगिरि को स्खलित कर दिया, उनकी एकाग्रता नष्ट हो गई और उनका योग- भ्रष्ट होने लगा। कुमारगिरि ने एक दिन अचानक चित्रलेखा के सामने अपना मन्तव्य प्रकट किया और उसके साथ शारीरिक-संसर्ग से अपने को नहीं बचा पाए। चित्रलेखा ने अनिच्छापूर्वक उस रात अपने आपको कुमारगिरि की अतृप्त भूख के पांवों तले बिछा दिया।
उस दिन योगी ने चित्रलेखा का शारीरिक उपभोग किया, मगर वह चित्रलेखा की नजरों में हमेशा-हमेशा के लिए गिर गया। मन-ही-मन चित्रलेखा अपने आपसे घृणा करने लगी क्योंकि उसके कारण एक साधक को अपनी साधना से भ्रष्ट होना पड़ा। वह योगी के आत्म-नियंत्रण की कमी और अपनी गुप्त इच्छा प्रकट करने के लिए उनसे नफरत करने लगी। उसी रात चित्रलेखा ने कुमारगिरि का आश्रम छोड़ दिया और बीजगुप्त के पास चली गई। वह उन्हें प्रणाम कर कहने लगी, “बीजगुप्त! मैं तुम्हारे चरणों में लौट आई हूँ। ”
“चित्रलेखा, तुम लौट आई हो सो तो ठीक है, मगर अब बहुत देर हो गई। अब मेरे पास राज्य नहीं है, धन-दौलत नहीं है, मान-सम्मान नहीं है। तुम्हारी सेवा-सुश्रुषा के के लिए भी मेरे पास कुछ नहीं है। ” बीजगुप्त ने कहा।
“बीजगुप्त! मेरे पास धन की कोई कमी नहीं है। बस, एक ही अभाव है जो केवल आप उसे दूर कर सकते हो। मैं एक ऐसे मनुष्य को चाहती हूं। चाहे वह कुरूप हो, निर्धन हो, गौरवहीन हो- मगर वह बीजगुप्त होना चाहिए। ”
चित्रलेखा ने अपनी सारी संपत्ति और दुनियावी रिश्तों का परित्याग कर दिया।
बीजगुप्त मुक्त हो गया तो चित्रलेखा भी मुक्त हो गई। दोनों उस दिन प्रभाती सूर्य की दिशा की ओर बढ़ते चले गए।
बीजगुप्त और कुमारगिरि के संदर्भ में गुरुदेव ने प्रश्न किया, “पाप क्या है?और पुण्य क्या है?”
विषय का उपसंहार करते हुए गुरुदेव ने कहा, “पाप और पुण्य केवल मानसिक प्रक्रिया का परिणाम है। व्यक्ति के सोचने का ढंग है। ”
साधारण दृष्टिकोण से बीजगुप्त एक पापी है, मगर उसकी उन्नत मानसिकता योगी कुमारगिरि की साधना को पराजित कर देती है।
व्यक्ति की समीक्षा के लिए तत्कालीन मूल्यबोध की सीमा ही पर्याप्त नहीं है। युगों-युगों से व्यक्ति की समीक्षा उसकी मनुष्यता के जरिए की जाती है।
और काउल मद्यप, लंपट, भ्रष्ट, चरित्रहीन भले ही है;मगर उसकी महान मानवता के सामने ये सारे कलंक निष्प्रभ गौण हो जाते हैं।
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प्रिय काउल,
तुम्हारी आज तक कोई खोज-खबर नहीं है।
तुम्हें बहुत खोजा। दिल्ली, मुंबई, मद्रास चारों तरफ खोज लिया। जितने ठिकाने याद आए सबजगह। हाँग-काँग, लंदन, वियना में तुम्हारे दोस्तों को भी पत्र लिखा, परंतु कहीं पर तुम्हारा पता नहीं चला। अखबारों में तुम्हारा फोटो छपवाया। तुम्हारे व्यापारी मित्र भी तुम्हारे बारे में कुछ नहीं बता पाए। तुम कहां पर हो ?यह जान ना अब संभव नहीं है। यह कहते हुए अत्यंत कष्ट हो रहा है कि तुम जिंदा हो भी या नहीं, यह भी पता नहीं है।
मेरे पास तुम्हारी एक अमानत है। मनीषा की अंतिम चिट्ठी जो उसने तुम्हारे लिए लिखी थी। अब इसका क्या करुं, कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। यह कोई कोरी चिट्ठी नहीं है, यह जिगर का खून है। तुम्हारी मनीषा ने नारीत्व के गौरव की, सौरभ की और जिस पर किसी को गर्व होता है, उसके अर्घ्य से तुम्हारी जीवनबेदी के नीचे त्यागी गौरीशंकर की सृष्टि की है। पता नहीं, किस अशुभ घड़ी में तुमने उसे अपना बनाया था, उसका परिचय इतिहास के पन्नों में नहीं रहेगा। उसके लिए कोई ताजमहल नहीं बनाएगा। उसकी जरूरत भी नहीं है उसे। वह स्वयं महाताजमहल है। वह ताजमहल पत्थर का नहीं है, जिसे काल क्षय कर देगा। उसने आँसू, दीर्घश्वास और प्राणों की आहूति देकर उसकी सृष्टि की है। वह इसी कारण त्रिकाल-विजयी, सनातन, मृत्युंजयी और शाश्वत है।
काउल, कभी वक्त मिले तो मनीषा की कोठरी में जाना। वह स्थान किसी मंदिर या मस्जिद से ज्यादा पवित्र है, ज्यादा महान है। शायद तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारे दर्शन पाने के लिए कोई क्षुब्ध, अशांत आत्मा घूमती फिर रही है, तुम्हारे स्पर्श के लिए। तुम अवहेलना मत करना, काउल! यही है तुम्हारे प्रति मेरा महत्वपूर्ण दायित्व।
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