विषादेश्वरी भाग 1 // उड़िया उपन्यास // सरोजिनी साहू // अनुवादक - दिनेश कुमार माली

SHARE:

भाग 1 1. वे लोग तीन महीनों से विधिवत इस खेल में लगे हुए थे। एक अद्भुत खेल, परत-दर-परत खोलते हुए मानो वे एक गहनतम प्रदेश के प्रवेश ...


भाग 1
1.
वे लोग तीन महीनों से विधिवत इस खेल में लगे हुए थे। एक अद्भुत खेल, परत-दर-परत खोलते हुए मानो वे एक गहनतम प्रदेश के प्रवेश द्वार तक पहुंच गए थे। अवश्य हर्षा को यह खेल खेलना नहीं आता था। अल्बर्टो की सबसे पहले इच्छा हुई यह खेल खेलने की।

जब अल्बर्टो ने यह खेल खेलने का प्रस्ताव रखा तो हर्षा को उसका बचपना-सा लग रहा था। अल्बर्टो ने कहा था कि पुर्तगाल में यह खेल एक दूसरे को जानने तथा परस्पर एक दूसरे के नजदीक आने के लिए खेला जाता है।
हर्षा ने सोचा था, उसे अपने जीवन में अनेक लोगों के साक्षात्कार लेने पड़ेंगे, भविष्य में जोड़-तोड़ कर प्रश्न पूछने पड़ेंगे। आज से यदि किसी के प्रश्न का उत्तर देना पड़ेगा तो उसमें चिंता किस बात की? यद्यपि हर्षा जानती थी ये प्रश्नोत्तरी खेल कितना बचकाना और अप्रासंगिक हैं! क्या कोई प्रश्न पूछ कर किसी के हृदय तक पहुंच सकता है?
जैसे अल्बर्टो ने पूछा, तुम्हें अंधेरे से डर लगता है? हर्षा ने उत्तर दिया, मैं जब घर में अकेली होती हूं तो मुझे डर नहीं लगता, मगर अनजान जगह पर मुझे डर लगने लगता है।

अल्बर्टो इस प्रश्न का दूसरे ढंग से उत्तर देता था। मुझे सूरज की चमकती किरणें बहुत अच्छी लगती है, इसलिए तेज धूप मुझे बहुत अच्छी लगती है। मगर जब मैं बिस्तर पर सोने जाता हूं तो मुझे गहन अंधेरा अच्छा लगने लगता है। मगर मेरा दार्शनिक मत क्या है, जानती हो? ‘हमेशा अंधेरे से उजाले की ओर आगे बढ़ना’।

हर्षा जानती थी, अल्बर्टो बौद्ध धर्म का अनुयायी है। बौद्ध धर्म के अनुयायी जैसे दिखाई देते हैं, वह वैसा नहीं दिखाई देता है। उसने बौद्ध धर्म दीक्षा नहीं ली है, मगर बौद्ध धर्म में वह अटूट विश्वास रखता है। अपने आप को बौद्ध कहलवाने में गर्व अनुभव करता है। वह बौद्ध धर्म से इतना ज्यादा प्रभावित है कि सारा जीवन बौद्ध धर्म द्वारा निर्देशित मार्गों पर चलना चाहता है। यद्यपि वह यूरोपियन ईसाई परिवार का एक सदस्य है, छोटे देश पुर्तगाल का एक निवासी है। फिर भी भारत के प्रति इतनी गहरी आसक्ति है कि वह उसकी तारीफ किए बिना नहीं रह सकता। कभी उसके पिताजी पुर्तगाली सेना में काम करते थे। उस समय उनकी पोस्टिंग गोवा में थी। गोवा में उसकी बड़ी बहन का जन्म हुआ था। उसके जन्म के समय उसके पिताजी अंगारा में थे। पिताजी की 50 साल की उम्र में अल्बर्टो का जन्म हुआ था। इसलिए वह अपने माता-पिता की आंखों का तारा था। मां उसे भारत के बारे में अनेक कहानियां सुनाया करती थी। परियों की कहानियों की तरह बचपन में वह अनजान देश की कहानियां सुना करता था। गोवा के उमस भरे वातावरण से लेकर अनेक हिंदू देवी-देवताओं के बारे में विभिन्न कथा-किवदंतियां वह अपनी मां से सुना करता था। अल्बर्टो कहा करता था कि उसकी मां को भारत से प्यार नहीं था, मगर वह भारत से प्यार करता है।

अल्बर्टो ने फिर से पूछा, “तुम्हारा प्रिय रंग कौनसा है?”
“मेरा ऐसा कोई रंग प्रिय नहीं है। मुझे कभी पीला तो कभी हरा रंग अच्छा लगने लगता है। एक साल पहले जो रंग अच्छा लगता था, एक साल बाद उस रंग के बदले दूसरा रंग अच्छा लगने लगता है। अभी मुझे बैंगनी रंग अच्छा लगता है। ”यह कहकर हर्षा अन्यमनस्क हो गई।

“हाना, तुम्हें ऐसा उदास रंग क्यों पसंद है?जीवन के प्रति ऐसे विषाद भाव रखना उचित नहीं है। तुम्हें मेरा प्रिय रंग पता है? नीला रंग, मुझे समुद्र की नीली जलराशि बहुत अच्छी लगती है। ”
“वास्कोडिगामा?” कहते हुए हर्षा मुस्कुराई।

“क्या कहा?”, अल्बर्टो ने पूछा, “तुमने मुझे वास्कोडिगामा कहा है ना? क्या तुम सोच रही हो मैंने कुछ भी नहीं सुना? हां, हम पुर्तगालियों को समुद्र बहुत अच्छा लगता है। तुम जानती हो, हाना, गर्मियों के मौसम में हम लेस्बो में नहीं रहते है। लेस्बो का मतलब लिस्बन। लिस्बन पूरा खाली हो जाता है। लोग छुट्टी बिताने के लिए समुद्र के किनारे इकट्ठे होते हैं। सभी बालू-शैय्या पर मछली की तरह नंगे सो जाते हैं। सूर्य किरणों को सोखने में अद्भुत आनंद मिलता है। इसलिए मुझे बसंत ऋतु और समुद्र तट बहुत पसंद है।

हर्षा को इतने दिनों में पता चल गया था कि अल्बर्टो समुद्र से बहुत प्यार करता है। उसने पहले भी बोटिंग करते हुए अपनी अनेक फोटो हर्षा को दिखाई थी। एक बार उसने कहा था, मेरे पास कोई बोट नहीं है, हाना। काश! मेरे पास भी कोई बोट होती तो मैं पुर्तगाल से सीधे तुम्हारे पास पुरी पहुंच जाता। समुद्र से अगाध प्रेम होने के बाद भी मेरे पास कोई बोट नहीं है।

हर्षा ने हंसते हुए कहा, “तुम प्रोफेसर हो या कोई धीवर?”
“मैं जानता हूं कि मैं प्रोफेसर हूं, फिर भी समुद्र की पुकार सुनकर चुप रहना मेरे लिए संभव नहीं है। ”
समुद्र से प्यार करने वाले इस इंसान ने मुझसे पूछा, “हर्षा, तुम्हें बारिश में भीगना अच्छा लगता है?”
“ हमेशा नहीं। मानसून की पहली बारिश मुझे बहुत अच्छी लगती है। सूखी धरती पर पहली बारिश की बड़ी-बड़ी बूंदें गिरने से जो सोंधी गंध पैदा होती है, वह गीली मिट्टी की खुशबू मुझे बहुत आकर्षित करती है। मैं अपनी उम्र भूल जाती हूं, एक बच्चे की तरह नाचते हुए बारिश का आनंद लेती हूं। लेकिन लगातार चार महीनों तक बारिश होना मेरे लिए बहुत दुखद है। सावन के महीने में तेज बारिश के समय माँ हमें स्कूल नहीं भेजती है, उस दिन वह घर में खिचड़ी बनाती है, पकौड़े तलती है। हम अपनी स्कूल की किताबों के पत्ते फाड़कर कागज की नाव बनाकर पानी में तैराने लगते हैं।

“ओह! वंडरफुल। इसका मतलब तुम्हें भी बोट पसंद है, हाना?”
“धत्, केवट कहीं का!”
“ तुम अपनी भाषा में कहोगी तो मुझे कैसे पता चलेगा?” अल्बर्टो ने अपना दुख प्रकट किया।
“मैंने तुम्हें केवट कहा। केवट का मतलब होता है बोटमेन। ”
अल्बर्टो इस संबोधन से खुश होकर कहने लगा, “हां, मैं बोटमेन हूं। नीले समुद्र के वक्ष-स्थल पर अनवरत दीर्घ यात्रा करना चाहता हूं। ”
“अरे! तुमने तो अभी तक बताया नहीं कि तुम्हें बारिश में भीगना अच्छा लगता है या नहीं?” मानो अल्बर्टो नीले समुद्र के वक्ष स्थल से लौट आया हो।

“अहो, मैं तो भूल ही गई थी। गर्मी के दिनों में मुझे बारिश बहुत अच्छी लगती है। मगर सर्दी के दिनों में जितना जल्दी हो, घर जाना अच्छा लगता है। ”
हर्षा जानती थी कि अल्बर्टो को सूर्य की किरणें प्यारी लगती है। प्राय: उसकी प्रत्येक बातों में उजाला और उत्ताप की इच्छा प्रकट होती है।

“जानती हो, हाना! लेस्बो में कभी-कभी बसंत ऋतु आने में देर हो जाती है। सौभाग्यवश मेरे घर में 20 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान बना रहता है, अन्यथा यहां रहना मुश्किल है। बसंत ऋतु आते ही सब कुछ बदल जाता है। मन के ऊपर से मानो बर्फ की परत हट जाती हो। प्रेम की भावना जागने लगती है। शायद यही कारण है कि ठंडी आबोहवा के कारण यूरोपियन दैहिक प्रेम में ज्यादा ठंडे है। ”

हर्षा सहज में अल्बर्टो की बात नहीं मान पाई। वह तर्क करने लगी, “कौन कहता है यूरोपियन ठंडे मिजाज के होते हैं? फ्रांस की गलियों में जितनी वैश्याएँ देखने को मिलती है, क्या असत्य है? जेम्स जॉयस की ‘मल्ली ब्लूम’ में जो वर्णन मिलता है, उसे क्या कहेंगे? मोपसां से लेकर फ्लेबार्ट तक के विवाहेत्तर संबंध क्या कम थे?”
हथियार डालते हुए अल्बर्टो ने उत्तर दिया, ”हां, यह बात सत्य है। मगर मेरी धारणा है कि गर्म देश के लोगों की तुलना में ठंडे देशों में प्रेम की अभिव्यक्ति कुछ कम होती है। ”

अल्बर्टो ने शारीरिक संबंध को प्रेम कहकर अपना काम चला दिया। इस बात को लेकर उन दोनों में बहुत तर्क-वितर्क हो सकता था। मगर उस समय अल्बर्टो ने दूसरा प्रश्न पूछा, “क्या तुम सहजता से रो सकती हो?”
“ हां” हर्षा ने कहा। यद्यपि मेरा नाम आसुओं के विपरीत है फिर भी मैं जल्दी से रो सकती हूं। स्त्रियाँ तो स्वभाव से कुछ ज्यादा ही भावुक होती है। अपने दुख में रोती है और दूसरों के दुख में भी।

अल्बर्टो उसकी बात सुनकर हंसने लगा, “हां, लड़कियां कुछ नरम हृदय की होती है। वे बड़ी दयालु होती है। मगर मैं अनजान लोगों के सामने नहीं रो पाता हूं, जानती हो, हाना, मैं कभी-कभी सिनेमा या डॉक्यूमेंट्री फिल्म देखते-देखते रो देता हूं। लोग मेरी इस भावुकता का मजाक उड़ाते हैं। ”

प्रतिदिन इस प्रकार से साक्षात्कार होता रहा। दोनों अपना-अपना समय निकाल कर आपस में एक दूसरे से मिलते रहे। जिस दिन जो प्रश्न करता था, फिर भी दोनों उन समान प्रश्नों के उत्तर देते थे। खेल का सबसे बड़ा नियम यही था।

जबकि यह खेल उनके बीच शुरू से नहीं चल रहा था। शुरू-शुरू में वे दार्शनिक बातों पर इतना तर्क-वितर्क करते थे कि उनका सिर चकराने लगता था। एक दिन हर्षा ने गुस्से से कहा, “हम क्या शास्त्रों की समीक्षा करते रहेंगे? हमारा देश देश न होकर दर्शनशास्त्र होकर रह गया है? हम जीवन की यथार्थता का चिंतन किए बगैर हमेशा केवल नैतिकता के बारे में सोचते रहेंगे? तुम्हें भारत के बारे में जितनी जानकारी है, क्या मेरे बारे में इतनी जानकारी है? क्या तुम मेरे सुख-दुख, आनंद-विषाद के बारे में जानते हो? मेरी पसंद-नापसंद के बारे में जानते हो? तुम जानते हो कि मैं दर्शनशास्त्र के विद्यार्थी नहीं रही फिर भी मुझे तुम वेद-वेदांत उपनिषद के सवाल पूछते रहते हो? क्या तुम्हें मेरे उत्तरों की सत्यता पर संदेह नहीं होता है ?”

अल्बर्टो ने हर्षा का ऐसा विकराल रूप कभी नहीं देखा था। उसकी डांट-फटकार सुनकर एक छोटे बच्चे की तरह मुंह फुलाकर वह उसके पास बैठ गया। उसका उदास चेहरा हर्षा को अच्छा नहीं लग रहा था। उस बेचारे निसंग आदमी ने विदेश की धरती पर कुछ पलों के सान्निध्य हेतु प्रश्न पूछे थे और तो कुछ नहीं मांगा था। हर्षा को वह अपना मानता है, इसलिए तो इतने सवाल पूछता है, अन्यथा क्या उसके फैकल्टी में सदस्यों की कमी है जो उसके प्रश्नों का कोई उत्तर न दे? कभी-कभी हर्षा सोचती है कि प्रश्न पूछना उसका एक मात्र बहाना है। वह उससे नजदीकी चाहता है, इसलिए प्रश्नोत्तरी उसकी भूमिका मात्र है। अगर हर्षा उसे प्रश्न पूछने से इंकार करेगी तो अल्बर्टो को उसे बार-बार मिलने का मौका नहीं मिलेगा।

तो क्या हर्षा को अल्बर्टो का संसर्ग पसंद नहीं है? क्या उसके निसंग जीवन में खुशियाँ नहीं लाई है अल्बर्टो ने ? गुस्सा ठंडा होने के बाद हर्षा ने धीमे स्वर में उससे पूछा, “अल्बर्टो, क्या तुम मुझसे नाराज हो? मेरे कहने का मतलब था कि हम एक दूसरे के बारे में बिल्कुल नहीं जानते हैं?”

“नहीं, हाना, मैं तुमसे नाराज नहीं हूँ। बल्कि मैं तुम्हारी बातों का मर्म समझ सकता हूं। मेरे बारे में जो कुछ तुम पूछना चाहती हो, बेधड़क पूछ सकती हो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मैं कभी भी झूठ या मनगढ़ंत उत्तर नहीं दूंगा। ”

“मुझे तुम पर विश्वास है, अल्बर्टो। इसलिए जब तुम मुझे पुकारते हो, मैं तुम्हारे पास दौडी चली आती हूँ। मुझे इस बात पर भरोसा है कि तुम कभी भी मुझसे झूठ नहीं बोलोगे। मैं भी तुम्हें विश्वास दिलाना चाहती हूं कि जो भी प्रश्न तुम पूछोगे, भले ही, व्यक्तिगत क्यों न हो, मैं तुम्हें सही-सही उत्तर दूंगी। ”

“ठीक है हाना, चलो हम एक खेल खेलते हैं। पुर्तगाल का बहुत ही लोकप्रिय खेल। हम कुछ ऐसे प्रश्न तैयार करेंगे जिससे हमें एक दूसरे को अच्छी तरह से जानने में सुविधा हो। क्या तुम सहमत हो?”

इस खेल के भीतर, पता नहीं, किसी भी तरह से दर्शन-शास्त्र की बातें आ जाती थी। निशब्द प्रेम चला आता था। दोनों को लड़ाता था, फिर संबंध को निबिड कर देता था। उनके प्रश्नोत्तरी के खेल में कई पैकेट स्नैक्स खत्म हो जाते थे। कई कप चाय पी ली जाती थी। देखते-देखते दोपहर के आकाश में काली चादर चढ़ने लगती थी। उनका उस तरफ ध्यान नहीं जाता था। आखिरकार ऐसे भी कोई खास प्रश्न नहीं होते थे। जैसे अल्बर्टो पूछता था, तुम कहां पर रहना पसंद करोगी? समुद्र के किनारे? झील के किनारे?जंगल में? गांव में? नहीं तो छोटे शहर में? नगर, महाकाश या गुफा में?

बहुत बार अन्यमनस्क भाव से पॉपकॉर्न के दानों से खेलते हुए अल्बर्टो के प्रश्नों से खीझ कर उसकी तरफ दाने फेंकती हुई वह कहती, “कम से कम कुछ तो ढंग के प्रश्न पूछ लिया करो। ”
फेंके हुए दानों को मुंह में डाल कर अल्बर्टो कहने लगता, “बताओ, तुम्हारी रुचि वाले सवाल बताओ। ”
अल्बर्टो जंगली बंदर की तरह दिखाई देने लगता था। सफ़ेद चेहरा, एकदम गहरे लाल होठ, ललाट का सामने वाला हिस्सा पूरी तरह से खल्वाट, ठोड़ी पर हल्की-हल्की दाढ़ी, आंखों पर बड़े नंबर वाला चश्मा, दुबला-पतला शरीर, लंबे कद वाले इस आदमी और जंगली बंदर में जरूर कुछ समानता रही होगी। फिर भी अल्बर्टो को अपने आप पर गर्व है। कभी-कभी सीना फुलाकर गर्व से कहता, “आफ्टर ऑल आई एम लैटिन मेन” उसे केवल अपने लैटिन चेहरे पर ही नहीं बल्कि लैटिन सभ्यता और संस्कृति पर भी गर्व था।

उसके लैटिन होने के दावे को खारिज करते हुए हर्षा प्रश्न पूछने लगती, “अरे! तुम तो यूरोपियन हो। अपने आपको यूरोपियन कहने की जगह लैटिनीयन कहना क्यों पसंद करते हो?”

हर्षा के प्रश्न को गंभीरतापूर्वक लेते हुए वह इतिहास एवं पुरातत्व विज्ञान के अनुभवों का उल्लेख करने लगता कि किस प्रकार उनके और स्पेन वालों के चेहरों पर छाप है और वे लोग उस मिट्टी से जुड़े हुए हैं, जिसका रक्त पूरी तरह से शुद्ध है, यह इतिहास की बात हैं। अंत में निराश होकर वह कहने लगता कि पुर्तगाल यूरोप के सारे देशों में सबसे ज्यादा गरीब देश है। गरीबी रेखा के नीचे अभी भी बहुत सारे लोग रह रहे हैं। रास्तों में अभी भी भिखारी भीख मांगते हुए नजर आते हैं। आज भी उनके देश में अनपढ़ों की संख्या कुछ कम नहीं है।

“फिर आप लोग भारत को भिखारियों का देश क्यों कहते हैं, बताओ अल्बर्टो?” अपनी उत्सुकता को दबा नहीं सकी हर्षा।
“मैंने ऐसा कभी नहीं कहा। ” जोर से अपना सिर हिलाते हुए वह कहने लगा, “आई लव इंडिया। यू नो वेरी वेल आई रेस्पेक्ट इंडिया। ”

हर्षा जानती थी कि अल्बर्टो की धारणा जिस भारत के बारे में हैं, वह आज का भारत नहीं है। आज से अढ़ाई-तीन हजार साल पुराना भारत है वह। जिसके बारे में उसने केवल किताबों में पढ़ा होगा। जिस समय जंगलों में ऋषि-मुनि झोपड़ियों में रहकर शास्त्र-पुराणों की रचना करते थे। जब वातावरण में ओम की ध्वनि का गुंजन हुआ करता था। जहां मायावी रावण के कपट से सीता का अपहरण हुआ था। जहां राम ने अपनी प्रतिज्ञा के पालन के लिए चौदह वर्ष का वनवास भोगा था। जहां कृष्ण अवतरित हुए थे। जिस भारत में बुद्ध और शंकराचार्य के दर्शन विकसित हुए थे। उस भारत को अल्बर्टो पसंद करता है। मगर आज का भारत?

कई बार अल्बर्टो असहिष्णु और असंतुष्ट हो जाता था। रास्ते में चलने वाले राहगीर उनकी तरफ घूर-घूर कर देखते थे तो वह कहता था, “दिल्ली के लोग बड़े ही अजीबोगरीब है। दूसरों के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करने में, पता नहीं, उन्हें क्या मजा आता है?हमारे यूरोप में कभी भी कोई किसी की निजी जिंदगी में दखलअंदाजी नहीं करता है। ”

हर्षा को अल्बर्टो का यह मंतव्य बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। वह कहने लगी, “आपको किसी भी तरह का सतही मंतव्य नहीं देना चाहिए। एक तरफ कहते हो कि तुम्हें मेरे देश से प्यार है और दूसरी तरफ इस देश के लोगों की निंदा करते हो। मुझे आपकी यह बात अच्छी नहीं लगी। एक गोरे आदमी के पास इस देश की लड़की क्यों बैठी है? यह देखकर एक पल के लिए कोई भी आकर्षित हो सकता है। इसका मतलब यह तो नहीं है कि वह तुम्हारे व्यक्तिगत जीवन में झांक रहा है?”

ऐसे तर्क-वितर्कों की लड़ाई उन दोनों के बीच में अक्सर होती ही रहती थी। यह कोई नई घटना नहीं थी। इसलिए एक बार अल्बर्टो ने उससे कहा, “हाना, मुझे तुम तीन वरदान दोगी?”

“वरदान?” हर्षा हंसते-हंसते लोट-पोट हो गई, “तुमने यह वरदान शब्द किससे सीखा ? अच्छा मांगो, क्या वर मांग रहे हो? मैं शपथ खाती हूं कि आप जो भी वर मांगोगे, मैं तुम्हें देने के लिए तैयार हूं। ”
“तुम मेरी बात सुन कर हंस रही हो, हाना? दशरथ ने कैकेयी को क्या वर नहीं दिए थे? या यम ने सावित्री को नहीं दिए थे?”
अल्बर्टो की बातें सुनकर हर्षा चकित हो गई। इस आदमी को बहुत कुछ जानकारी है।

अल्बर्टो कहने लगा, “पहला वर, मैं यूरोपीय हूं, इसलिए मेरे व्यवहार में निश्चय भिन्नता आएगी। मेरा अनुरोध है कि मेरी बातों से तुम्हारा दिल दुखने पर भी उन बातों को गंभीरता से न लें।
दूसरा वर, मेरी अंग्रेजी तुम्हारी अंग्रेजी की तरह अच्छी नहीं है, अतः कोई गलती हो भी जाए तो उसे नजरअंदाज कर देना।

तीसरा वर, मैं थोड़ा शर्मीला स्वभाव का हूं। कई बार अपने मन की बात खुलकर नहीं कर पाता हूं। ऐसी परिस्थिति में मुझे गलत मत समझना। ”
हर्षा सोचने लगी कि ये किस तरह के वर है! उसने एक जवान औरत के साथ घूमते रहने के बावजूद उसके प्यार, संसर्ग और शारीरिक सुख जैसे वर न मांगकर ऐसे अजीबो-गरीब वर मांगे हैं। वास्तव में अल्बर्टो बहुत अच्छा इंसान है। उसके पास रहने पर कभी भी हर्षा के मन में असुरक्षा की भावना नहीं आती थी। कभी भी आज तक शब्दों से उसने आघात नहीं किया।

हर्षा ने कहा, “तुम निश्चिंत रहो। मैं वायदा करती हूं कि ये तीनों बातें कभी भी नहीं भूलूंगी। ”
हर्षा को हिलाते हुए अल्बर्टो पूछने लगा, “कहां खो गई हो, हाना?तुम कहां रहना पसंद करोगी? समुद्र-तट के किनारे? झील के पास?जंगल के भीतर? गांव के अंदर? नहीं तो छोटे से शहर में, नगर या महाकाश में?या गुफा में?”

हर्षा सपनों की दुनिया से लौट आई और वह बच्चों की तरह खेल खेलने में शामिल हो गई। वह कहने लगी, “मैं अपनी रुचि के अनुसार क्रमशः उन्हें सजा कर कह देती हूं। इससे आप अंदाज लगा लेना कि मेरी पसंद क्या है? अच्छा, आप मेरी पसंद से मेरे व्यक्तित्व के बारे में जानने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो? तुम्हें जो भी सोचना है, सोचो। मैं तो जंगल में रहना सबसे ज्यादा पसंद करूंगी। चारों तरफ जंगल हो, मगर उसके अंदर मेरा घर सुरक्षित होना चाहिए। उसके बाद मैं झील के पास रहना पसंद करूंगी। उसके बाद नगर, समुद्र-तट, गांव के बाद महाकाश और अंत में गुफा मेरी पसंद है। गुफा के बारे में सोचने-मात्र से अपने आपको आदि मानव जैसा नहीं लगता? महाकाश के बारे में सोचने से अपने आपको अपार्थिव अनुभव होने लगता है। जैसे शरीर न होकर केवल आत्मा हो, एक भटकती आत्मा। जानते हो अल्बर्टो, इस बारे में हमारा हिंदू दर्शन क्या कहता है? एक जीव बारंबार अलग-अलग योनियों में जन्म लेता है। प्रत्येक मृत्यु के बाद दूसरा जन्म। अपने पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर नया जन्म निर्धारित होता है। आत्मा अमर है, उसकी मृत्यु नहीं होती। एक शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर को धारण करने में आत्मा को भिन्न-भिन्न स्तरों पर विचरण करना पड़ता है।

अल्बर्टो ने सिर हिलाकर हामी भरी और कहने लगा, “हां, मैं जानता हूं। हिंदुओं की तरह बौद्ध धर्म वाले भी पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। गौतम बुद्ध को भी बार-बार जन्म लेने पड़ते हैं, परंतु बौद्ध हिंदू-धर्म की तरह आत्मा-वात्मा में विश्वास नहीं रखता है। मुंडक उपनिषद् कभी पढ़ी हो, हाना?”
“नहीं, मैंने नहीं पढ़ी, अल्बर्टो। ”

“मुंडक उपनिषद् के अनुसार जिस तरह सारथी रथ चलाता है, आत्मा भी शरीर रूपी रथ को चलाती है। मगर बुद्ध ने इस सिद्धांत का विरोध किया। उनके मतानुसार आपके रथ का पहिया टूट जाने पर क्या सारथी उसे चला पाएगा? इसलिए उन्होंने सारथी को ज्यादा महत्व नहीं दिया। ”

हर्षा ने पूछा, “जब बौद्ध-धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है तो फिर पुनर्जन्म होता किसका है, अल्बर्टो? यद्यपि बौद्ध धर्म की उत्पत्ति यहाँ पर हुई, मगर मुझे बौद्ध धर्म के बारे में विशेष जानकारी नहीं है। क्या तुम्हें पता है, अल्बर्टो, अगर आत्मा नहीं है तो कौन बार-बार इस शरीर को बदलता है?”

“हां, मैं जानता हूं। ” उसने उत्तर दिया, “जब एक जीव की मृत्यु होती है, तब वह अपनी तृष्णा के अनुरूप जन्म लेता है। जब नर और मादा संभोग करते हैं तो वह जीव शुक्राणु के रूप में गर्भ में प्रवेश करता है। ”
“क्या यह आत्मा के तत्व नहीं है?”
“ नहीं, नहीं, यह आत्मा के तत्व नहीं है। यह तो विज्ञान, अविद्या की तरह पंचतत्व के अंश है। ”
“छोड़ो, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। ” हर्षा ने कहा, “फिर से हम उसी बोरिंग दर्शनशास्त्र की तरफ आ गए न? हम तो तुम्हारा ओलोंदाज खेल खेल रहे थे। ”

अल्बर्टो दर्शनशास्त्र का विजिटिंग प्रोफेसर था। प्राच्य और पाश्चात्य दर्शनशास्त्र का वह प्रकांड पंडित था। हर्षा को लगने लगा कि अल्बर्टो को भारतीय दर्शन की जितनी जानकारी है, उसका एक रत्ती भर भी उसे मालूम नहीं है। फिलहाल अल्बर्टो से मुलाकत होने पर दर्शनशास्त्र पर उसने आलोचना करना शुरु किया है। कॉलेज में पढ़ते समय वैकल्पिक विषयों में उसने न तो तर्क-शास्त्र लिया था और नहीं दर्शनशास्त्र। वह तो अंग्रेजी साहित्य की विद्यार्थी थी। दर्शनशास्त्र उसकी समझ से परे था। हम लोग दादाजी को बापा कहकर बुलाते थे। पुरी के ब्राह्मण परिवार में यही चलन है कि पिताजी को बापा न कहकर दादाजी को बापा कहते हैं। वह दादाजी को पिताजी कहकर बुलाती थी। मुक्ति-मंडप में पंडित होने के कारण उनकी लोगों के साथ बहस होती थी। घर में कम से कम चालीस-पचास पुराणों की पोथियाँ पड़ी होगी। दादाजी की तरह अल्बर्टो को तर्क करना अच्छा लगता था। दादाजी अगर जिंदा होते तो इन दोनों की जोड़ी खूब जमती। मगर क्या वह उसे अपने घर में आने की अनुमति देते?

अल्बर्टो ने कहा, “हाना, मैं तुम्हारी बातों से दुखी हूं। ”
“क्यों, मैंने तो तुम्हें दुख देने जैसी कोई भी बात नहीं कही। ”
“याद करो, तुमने क्या कहा? तुमने कहा नहीं कि दर्शनशास्त्र बोरिंग है? फिर तुमने इसे ओलोंदाज खेल भी कहा?”

अपने हाथों से अपने कानों को पकड़ते हुए हर्षा ने कहा, “सॉरी, तुम्हारा दिल दुखाना मेरा उद्देश्य नहीं था। सच कहूं तो मैंने दर्शनशास्त्र को बोरिंग नहीं कहा। सही बात तो यह है कि हम खेल-खेलते फिर से उसी अध्याय पर पहुंच गए, इसलिए मुझे अच्छा नहीं लगा और मैंने उसे बोरिंग कहा। मगर मैं यह समझ नहीं पाई कि पुर्तगाली खेल कहने पर तुम नाराज क्यों हो गए?”
“एक बात कहूं कि हम ओलोंदाज लोग नहीं है, हाना। मैं पुर्तगाली हूं और पुर्तगाल में एक-दूसरे को जानने के लिए प्रश्नोत्तरी का यह खेल खेला जाता है। ”

“हां, हम तुम्हें ओलोंदाज कहते हैं। जानते हो, अल्बर्टो, तुम्हारे पूर्वजों का हमारे ओड़िशा के साथ सामुद्रिक व्यापार होता था। आज भी बालासोर के बलरामगड़ी में ओलोंदाज कॉलोनी मौजूद है। ”
“तुम गलत कहती हो, हाना! हालैंड के निवासियों को ओलोंदाज कहा जाता है। ओलोंदाज शब्द की उत्पत्ति हॉलेंड से हुई है। हां, कुछ समय के लिए पुर्तगाल हॉलेंड के अधीन था, इसलिए पुर्तगाली लोग तुम्हारे राज्य में आकर अपना परिचय ओलोंदाज के नाम से देते रहे होंगे। यह हो सकता है। ”

“हे भगवान! तुम्हारे साथ बातचीत करना बहुत ही मुश्किल है। चलो, हम अपने खेल की ओर वापस लौटते हैं। हां उत्तर देने की बारी तुम्हारी थी न? कहो, तुम्हें कहां रहना पसंद है, गुफा में न?” कहते-कहते हर्षा हंसने लगी।
“ तुम यह क्या कह रही हो? गुफा में कौन रहना चाहेगा? तुम तो जानती हो हाना झील का किनारा मेरी पसंदीदा जगह है। उसके बाद समुद्र, उसके बाद छोटा शहर, फिर नगर, गांव होने पर भी चलेगा। फिर जंगल, फिर महाकाश और सबके बाद में गुफा। जानती हो, हाना! मेरा जन्म हुआ था अंगारा बेसिन के पास में। मेरा घर टागोस नदी के मुहाने पर था। बहुत छोटी जगह थी यह कोक्सियास। जानती हो, हाना! कोक्सियास नाम की दो जगहें इस धरती पर है। एक ब्राजील में तो दूसरी पुर्तगाल में। ब्राजील का कोक्सियास एक बड़ा शहर है, मगर मेरा गांव बहुत छोटा है। फिर भी बहुत प्रसिद्ध है। कोक्सियास के पास वेलेम से वास्कोडिगामा ने अपनी जल-यात्रा शुरु की थी। मगर दुख की बात है मेरे गांव में सिनेमा हॉल नहीं है और नहीं शॉपिंग सेंटर। मेरे गांव से आधा किलोमीटर दूर पासोड़ी आरकस गांव है। वहां मगर सब कुछ है। हमें जो कुछ खरीदना होता है, फोन कर देने से घर पर दुकानदार पहुंचा जाता है। ”

अल्बर्टो अपने गांव की कहानी इतनी तन्मयता से सुना रहा था मानो वह टागोस नदी के मुहाने पर बैठा हुआ हो।
उस दिन अल्बर्टो के प्रश्न पूछने की बारी थी। पता नहीं, कितने सपने संजोए रखे होंगे उसने! सारे प्रश्न नहीं पूछने तक वह छोड़ने वाला नहीं था। हर्षा भी उसे रोक नहीं पाई, बल्कि उसका आनंद लेने लगी। बचपन में जैसे वे लोग झूठ-मूठ खेल खेलते थे, वैसा ही यह खेल था। क्या वास्तव में सब कुछ खेला जा सकता है इस खेल में?
अल्बर्टो ने पूछा, “जीवन में सबसे ज्यादा दयनीय अवस्था क्या होती है, हाना?”
जीवन में अनेक दयनीय अवस्थाओं से गुजर चुकी थी वह। मगर क्या एक अनजान आदमी के सामने उन्हें बताया जा सकता है?

“मुझे तुम्हारा प्रश्न समझ में नहीं आया, अल्बर्टो। ”
“ इसमें नहीं समझने की बात क्या है? मुझे कोई ऐसे प्रश्न का उत्तर देने के लिए कहे तो मैं कहूँगा कि यदि कोई तुम्हें प्यार नहीं करता है या तुम्हारा प्यार किसी को समझ में नहीं आता है तो दोनों में कौनसी अवस्था दयनीय होगी?”
“मतलब?” हर्षा अल्बर्टो के चेहरे की तरफ देखने लगी। क्या कहना चाहता है अल्बर्टो? वह अप्रत्यक्ष रुप से कुछ संदेश देना चाहता है ? क्या हर्षा के प्रति अपने प्रेम को तो नहीं दर्शाना चाहता वह ? अचानक हर्षा को अल्बर्टो द्वारा मांगे गए तीसरे वर की बात याद आ गई। “मैं थोड़ा शर्मीला हूं। कई बार अपने मन की बात खुलकर नहीं कह पाता हूं। ”, हो सकता है अल्बर्टो किसी और से प्यार करता होगा, मगर उसके सामने अपने मन की बात रख नहीं पाता होगा?

"मैं माफी चाहता हूँ, वास्तव में मुझे खेद है, हाना। " हर्षा के हाथ को कसकर पकड़ते हुए वह कहने लगा, " मैं तुम्हें चोट पहुँचाना नहीं चाहता था। तुमने जिस तरह से अपना हाथ ऊपर उठाया था, उस पर मुझे हंसी आ गई। आई एम सॉरी, आई एम वेरी सॉरी। "
" ठीक है, अब मेरा हाथ तो छोड़ दीजिए। तुम किससे डरते हो, अल्बर्टो? "
"क्रूर लोग, हाना, मैं क्रूर लोगों से ज्यादा डरता हूं। " अल्बर्टो के पास एक्स-रे जैसी आँखें थीं, जिससे वह किसी भी व्यक्ति के मन को पढ़ सकता था। उसे हर्षा के मन की बात कैसे पता चल गई ? वह अल्बर्टो के उत्तर से चौंक गई थी। वह कहने लगी, " ठीक कह रहे हो अल्बर्टो, क्रूर लोगों से डरना चाहिए। "
सिर हिलाते-हिलाते अल्बर्टो ने एक और सवाल पूछ लिया, "तुम्हें किससे शर्म आती हैं?"

"हे, अल्बर्टो, तुम्हारे प्रश्न खत्म ही नहीं हो रहे हैं? क्या तुम इन सवालों पूछकर मेरे व्यक्तित्व का आकलन कर रहे हो? "
"किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का अनुमान लगाने में क्या समस्या है? तुम भी तो मेरे उत्तरों से मेरी प्रकृति के बारे में जान सकती हो। इसके अलावा, तुम्हें इस प्रश्नोंत्तरी खेल से विव्रत होने की जरूरत नहीं है, क्योंकि महाभारत में प्रश्न-उत्तर वाले कई अध्याय नहीं हैं? ‘युधिष्ठिर-यक्ष संवाद', में यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न नहीं पूछे?”
हर्षा ने बड़बड़ाते हुए कहा, "यह गोरा पंडित सब-कुछ जानता है। "
" क्या कहा ?"

"मैंने तुम्हें बुद्धिजीवी कहा। अच्छा, अल्बर्टो, पहले तुम बताओ तुम्हें किससे लज्जा आती है?'
" जानती हो, हाना, बुद्ध ने एक बार कहा था कि हमेशा स्वयं को प्राज्ञ बनाए रखना संभव नहीं है, क्योंकि हम अपने दोषों और कमजोरियों को अच्छी तरह देख सकते हैं। इसके अलावा, हम खुद के प्रशंसक बन जाते हैं। भले ही, हम जानते हैं, हम एक-न-एक दिन सब-कुछ पीछे छोड़ देते हैं, चाहे वह शरीर हो या मन हो। क्या ऐसा नहीं होता है? लेकिन मैं अपने जीवन में एक चीज़ को नहीं छोड़ सका, तुम्हें पता है कि वह चीज क्या है ? वह है मेरी शर्मीली प्रकृति। यही कारण है कि मैंने अध्यापक बनने का फैसला किया।

अध्यापक होने पर मुझे मंच से हरदिन भाषण देना पड़ता है। मैंने अठारह साल की उम्र में अध्यापक की नौकरी शुरू की। फिर भी, क्या मैं अपनी शर्मीली प्रकृति को छोड़ पाया? और शर्मीली प्रकृति के कारण मैं दूसरों से मिल नहीं पाता था, मुझे बहुत शर्म आती थी। "

जैसे मन हल्का होने के बाद चेतना शून्य हो जाती है, वैसे ही अल्बर्टो ने पीठ पर अपने दोनों हाथों को रखकर दीर्घश्वास लेते हुए ऊपर की ओर देखने लगा।

(क्रमशः अगले अंकों में जारी...)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: विषादेश्वरी भाग 1 // उड़िया उपन्यास // सरोजिनी साहू // अनुवादक - दिनेश कुमार माली
विषादेश्वरी भाग 1 // उड़िया उपन्यास // सरोजिनी साहू // अनुवादक - दिनेश कुमार माली
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihr8Aswpkzu3BML8BY-PUvg9Y8w4YYPXgFLizlkTxNGBdSEt8BCSdfyGZ95VP5yGpNcYpa-Vn6lLS9m5ejy9v380rk9sLOICP3BLcOYn8tqxJzIUOrHWd23qh5vMJB43YO0Z0J/s320/vishadeshvari.jpg
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihr8Aswpkzu3BML8BY-PUvg9Y8w4YYPXgFLizlkTxNGBdSEt8BCSdfyGZ95VP5yGpNcYpa-Vn6lLS9m5ejy9v380rk9sLOICP3BLcOYn8tqxJzIUOrHWd23qh5vMJB43YO0Z0J/s72-c/vishadeshvari.jpg
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2018/04/1_6.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2018/04/1_6.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content