पिछले खंड यहाँ देखें - खंड 1 // खंड 2 // नाटक ‘भोला विनायक’ का खंड ३ लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित [मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, गाड़ी का मंज़र स...
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नाटक ‘भोला विनायक’ का खंड ३ लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, गाड़ी का मंज़र सामने आता है। शयनयान डब्बे के एक केबिन में ठोक सिंहजी विनायक का किस्सा सुना रहे हैं। नूरिया बैठा-बैठा, ऊंघ ले रहा है। रशीद भाई, सावंतजी और चाचा कमालुद्दीन किस्सा सुन रहे हैं।]
ठोक सिंहजी – सुनिए, परमानन्द के ये दिन आमोद-प्रमोद के थे। अपने इकलौते पुत्र विनायक का यज्ञोपवीत संस्कार बड़े हर्ष और उच्छाव के साथ, वह करना चाहता था। मगर ऐसा कोई संकेत नज़र नहीं आ रहा था, जहां हर्ष और उच्छाव प्रगट होता हो? अलबत्ता यदि आभ्यंतरिक प्रीति-भाव और प्रसन्नता का आविष्कार रुपये को छोड़ किसी दूसरी तरह भी हो सकता है तो यह अवश्य मानना पडेगा कि, यह निष्किंचन ब्राह्मण अपने मन का अंत: संतोष प्रगट करने में किसी से पीछे नहीं हटा था।
सावंतजी – तब परमानन्द ने कौनसी ऐसी बात किया, जिसे हम उनके मुदित होने का चिन्ह मानें?
ठोक सिंहजी – यह आम का वृक्ष कैसा है? जो कि, बसंत काल में जब उसके बौराने का समय आता है तब उसके पास जाने से ही हमें उसकी मीठी सौरभ सनी सुगंधि का अहसास होता है जो हमारे मन को लुभा लेती है। ऐसे ही वह घर कैसा जहां कुछ उत्सव हो और और उस घर में जाने से चित्त भीतर से खुशी से भर जाय। सो उस रम्य निराले स्थान में जहां तपोधन ऋषियों की कुटी समान परमानन्द अपना घर बनाए थे। वह स्थान ही सामान्य रीति पर ऐसा विमल और पवित्र था।
रशीद भाई – ज़नाब, ज़रा परमानन्द का धर्मशील, संयमी और अपने धर्म सम्बंधित नित्य नैमित्तिक क्रियाओं के बारे में बताने का कष्ट करें।
ठोक सिंहजी – यह उसी ठौर देखा गया कि, इसके स्वच्छ और उज्जवल खान-पान रीति और व्यवहार के कारण कृष्णता संकुचित और भयभीत सी हो केवल हरे कृष्ण इत्यादि नारायण के नामोच्चारण में आ बसी और सब और से निराश हो इस होनहार यज्ञोपवित उत्सव के कारण ऐसे रम्य स्थान को भी परमानन्द ने इतना स्वच्छ बना डाला कि, यह कहना सर्वथा अभ्युक्ति न होगा कि, इस स्थान के आस-पास की वायु में भी पवित्र करने वाली एक अद्भुत शक्ति भर गयी थी।
सावंतजी – सत्य कहा, आपने। ऐसा भी मालूम होता होगा कि, इस वायु के संपर्क मात्र ही से वहां जाने के चित्त में न केवल एक विमलता ही होगी वरन उनके शरीर के सब रोग दोष दूर भाग जायेंगे। क्योंकि जिस उद्यान के मंज़र पर कवि मंडली ने उत्तम से उत्तम अपनी कविता के भावों को न्यौछावर किया है। यह बात वहां स्वाभाविक सिद्ध होगी। दूसरे इनके पवित्र होमाग्नि के धूम के कण सब ओर व्याप्त रहे तब वहां के शुद्ध वायु के गुणों का क्या कहना होगा?
कमालुद्दीन – मैं यदा-कदा पंडितों के पास गुफ्तगू करने बैठ जाया करता हूँ, वहां मैंने भी ऐसी बातें सुन रखी है। कभी पुराने ऋषियों के यज्ञों का समय याद आता है तो ब्राह्मणों के यज्ञोपवित संस्कार ही में। जिसको कारण मान लौकिक आनंद बढ़ाने वाले भांति-भांति के उत्सव और अंत:करण को शुद्ध रखने वाली अनेक सुनीति शिक्षा दोनों बहुत ही उत्तम ढंग पर आपस में सम्मिलित दिखाई पड़ती है।
ठोक सिंहजी – आगे सुनिए। परमानन्द को ब्रह्मचर्य की शिक्षा अपने पुत्र को देते हुए एक अलौकिक आनंद मिलता था और साथ ही साथ परमानन्द उस समय को याद करता जाता था जब उसकी बाल्यावस्था थी और उसके आचार्य भी उससे यही सब काम लेते थे। जैसा इस समय वह अपने पुत्र से ले रहा है।
सावंतजी – विनायक की बाल्यअवस्था थी, इसलिए उसमें अज्ञानता के कारण ब्रह्मचारी के गुण नहीं आये हों...?
ठोक सिंहजी – सुनिए। बाल्यावस्था की अज्ञानता के कारण परमानन्द के मन में इस ब्रह्मचर्य के गुण तब-तक न आये थे जितना अब उनको याद कर चित्त को दोगुना चौगुना हर्ष होता था। भले ही पच्चीस वर्ष बीत गए थे जबकि एक समय परमानन्द स्वयं ऐसे ही ब्रह्मचारी बना था और इसके बाप भी ऐसे ही शिक्षा देते थे जैसे अब वह अपने पुत्र को दे रहा है पर इसको मालूम ऐसा ही होता था मानों यह सब कल की बात है।
सावंतजी – आगे कहिये, परमानन्द और उसकी घर वाली ठाकुर साहब की गढ़ी जाने के लिए दोनों तड़के उठ गए होंगे? जाते वक़्त इन्होंने विनायक को कुछ समझाया होगा, या नहीं। क्योंकि, अभी-तक वो बेचारा सात साल का नादान बच्चा ठहरा।
ठोक सिंहजी – परमानन्द और उसकी पत्नी कमला बहुत तड़के उठे। दूर जाना था इसलिए उन्होंने सोचा पौ फटते ही अँधेरे मुंह चलेंगे पर ब्रह्मचारी के नियमों में त्रुटि न होने पावे और ऐसा न हो कि विनायक उनका पुत्र जो अभी नया ब्रह्मचारी हुआ था कोई बात नियम की भूल जाय तो बटु और आचार्य दोनों प्रत्यवाय [विहित कर्म {जो कर्म अवश्य करना है } के न करने का प्रायश्चित] दोष के भागी हों और रोज़ा छोड़ नमाज़ गले पड़े।
सावंतजी – ज़नाब, समझ में आ गया। इसलिए बहुत सी बात उस नए ब्रह्मचारी को बतलाते-बतलाते कुछ विलम्ब हो गया होगा? फिर भी सूर्योदय होते होते अपने घर से चल पड़े होंगे?
ठोक सिंहजी – आपकी कही बात सही है। आखिर, यही हुआ। चलते हुए अपने पुत्र से बड़ी ताक़ीद से कहा कि...
[ठोक सिंहजी आगे का किस्सा बयान करते जा रहे हैं, इन लोगों की आँखों के आगे घटित घटना चित्रपट [फिल्म] की तरह छाने लगी। मंच पर अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच रोशन होता है। विनायक के घर का मंज़र सामने आता है। इस समय परमानन्द अपने पुत्र को बड़ी ताक़ीद से कह रहे हैं।]
परमानन्द – [बड़ी ताक़ीद से, पुत्र को कह रहे हैं] – विनायक। सूर्योदय हुवा चाहता है झट स्नान कर सूरज को अर्ध्य दे दे और देख। संध्या आदि नित्य कर्म में त्रुटि न होने पावे। बेटा, नित्य कर्म में जितनी गायत्री जपते थे उतनी आज भी अवश्य जपना जैसे हमने बतलाया है पूरक, कुम्भक, रेचक युक्त तीनों प्राणायाम सविधि करना, भोजन करते समय मौन रहना...
विनायक – पिताजी, तब भिक्षा नहीं लानी क्या?
परमानन्द – लानी है, विनायक। आज भिक्षा का जो अन्न लाना उसे रख छोड़ना, बिना हमारी आज्ञा उसे खर्च मत कर डालना, हमारे सांझ के होम के लिए टटके कुषा और लकड़ी वन से तोड़ लाना। और बेटा, देखो। जो कोई अतिथि आ जाय तो उसका सत्कार विधिपूर्वक करना तुम अभी लड़के हो इससे ऐसा न हो कि किसी बात में चूक जाओ तो जो पाहुने आवें उनका स्वागत सत्कार भरपूर न बन पड़े। इस बात की अधिक चौकसी रखना।
[इस तरह अपने पुत्र को सिखा-पढ़ाकर परमानन्द अपनी घर वाली के साथ घर से बाहर आये, त्योंही इनके घर की मज़दूरिन पास के झरने से पानी भरने को छूंछा घड़ा लिए घर से बाहर निकलती दिखाई देती है। यात्रा के समय इसे असुगन समझ परमानन्द फिर लौट आये और विनायक को आने वाले अतिथियों के सत्कार की भरपूर ताक़ीद कर टीले से नीचे उतरने लगे। छूंछा घड़ा सामने आने का असगुन का अर्थ यह तो नहीं कि उन दोनों को ठाकुर साहब के घर से छूंछा लौटना पड़े..? या फिर ठाकुर साहब जैसे सज्जन आदमी उनकी अप्रतिष्ठा और अनादर करें? तब यह असुगन क्यों हुआ? कमला के स्त्री जाति सुलभ भीरु प्रकृति की होने के कारण वह परमानन्द से भी अधिक शंकित हो गयी है जिसे आश्वासन देते दोनों चले आते हैं। ये दोनों तर्क-वितर्क में ऐसे डूबे हुए हैं और उनको यह भान नहीं होता है कि पास ही पेड़ की आड़ में जो तीन सवार खड़े हैं उन पर इनका बिलकुल ध्यान नहीं गया है। जब ये दोनों कुछ दूर निकल गए तब जिस रास्ते से ये आये थे उसी टीले की और ये तीनों सवार हो अपने-अपने घोड़ों को ले जाने लगे। मंच पर, अँधेरा छा जाता है।]
[क्रमशः अगले खंडों में जारी...]
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