घा घ का जन्म काल अभी तक विवादों से घिरा है। शिवसिंह सेंगर ने घाघ का जन्म संवत् 1753 के उपरान्त माना है। 1 इसी आधार पर मिश्रबंधुओं ने उनका ज...
घाघ का जन्म काल अभी तक विवादों से घिरा है। शिवसिंह सेंगर ने घाघ का जन्म संवत् 1753 के उपरान्त माना है।1 इसी आधार पर मिश्रबंधुओं ने उनका जन्म संवत् 1753 और कविता काल संवत् 1780 माना है।2 ‘भारतीय चरिताम्बुधिा’ में इनका जन्म सन् 1696 ई. बताया जाता है।3 पं. रामनरेश त्रिपाठी ने घाघ का जन्म संवत् 1753 माना है।4 यही मत आज सर्वाधिक मान्य है।
घाघ के नाम के विषय में भी निश्चित रूप से कुछ ज्ञात नहीं है। घाघ उनका मूल नाम था या उपनाम था, इसका पता नहीं चलता है। उत्तर प्रदेश का पूर्वी क्षेत्र बिहार, बंगाल एवं असम प्रदेश में डाक नामक कवि की कृषि संबंधी कहावतें मिलती हैं जिसके आधार पर विद्वानों का अनुमान है कि डाक और घाघ एक ही थे।
घाघ की जाति के विषय में भी विद्वानों में मतभेद है। कतिपय विद्वानों ने इन्हें ‘ग्वाला’ माना है।5 किन्तु पं. रामनरेश त्रिपाठी ने अपनी खोज के आधार पर इन्हें ब्राह्मण (देव कली) दुबे माना है। उनके अनुसार घाघ कन्नौज के चौधरी सराय के निवासी थे। कहा जाता है कि घाघ हुमायूँ के दरबार में भी गये थे। हुमायूँ के बाद उनका संबंध अकबर से भी रहा। अकबर गुणज्ञ था और क्षेत्र के प्रतिष्ठित विद्वानों का सम्मान करता था। घाघ की प्रतिभा से अकबर भी प्रभावित हुआ था और उपहार स्वरूप उसने इन्हें प्रचुर धनराशि और कन्नौज के पास की भूमि दान दे दिया था। जिस पर घाघ ने एक गाँव बसाया था जिसका नाम रखा ‘अकबराबाद सराय घाघ’। सरकारी कागजों में आज भी उस गाँव का नाम ‘सराय घाघ’ है। यह कन्नौज स्टेशन से लगभग एक मील पश्चिम में है। अकबर ने घाघ को चौधरी की उपाधि दी थी। इसीलिए घाघ के कुटुम्बी अभी तक अपने को चौधरी कहते हैं। ‘सराय घाघ’ का दूसरा नाम ‘चौधरी सराय’ भी है।6 घाघ की पत्नी का नाम किसी भी श्रोत से ज्ञात नहीं है किन्तु इनके दो पुत्र - मार्कण्डेय दुबे और श्रीधर दुबे हुए। इन दोनों पुत्रों के खानदान में दुबे लोगों के बीस-पच्चीस घर अब उसी बस्ती में हैं। प्राचीन कवियों की भाँति घाघ के सम्बन्ध में भी अनेक किंवदन्तियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि घाघ बचपन में ही ‘कृषि विषय’ समस्याओं के निदान में दक्ष थे। छोटी उम्र में ही उनकी प्रसिद्धि इतनी बढ़ गयी कि दूर-दूर से लोग अपनी कृषि संबधी समस्याओं को लेकर उनका समाधान निकालने के लिए घाघ के पास आया करते थे। ऐसा कहा जाता है कि एक व्यक्ति जिसके पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी किन्तु उसमें उपज इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था, घाघ की गुणज्ञता सुन कर वह घाघ के पास आया। उस समय घाघ अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहे थे। जब उस व्यक्ति ने अपनी समस्या सुनाई तो घाघ सहज ही बोल उठे...
आधा खेत बटैया दे के, ऊँची दीह कियारी।
जो तोर लइका भूँखे मरिहे, घघवे दीह गारी।।7
कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार कार्य करने पर किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
घाघ के सम्बन्ध में जनश्रुति है कि उनकी अपनी पुत्रवधू से नहीं पटती थी. कुछ विद्वानों का अनुमान है कि इसी कारण घाघ अपना मूल निवास स्थान छोड़ कर कन्नौज चले गये थे। पं. राम नरेश त्रिपाठी ने घाघ और उनकी पुत्रवधू की इस प्रकार की नोंकझोक से संबन्धित कतिपय कहावतें प्रस्तुत की है जो इस प्रकार है...
घाघ- मुवे चाम से चाम कटावै, भुइँ सँकरी माँ सोबै।
घाघ कहैं ये तीनों भकुवा उढ़रि जाइँ पै रोवै।।8
पुत्रवधू - दाम देइ के चाम कटावै, नींद लागि जब सोवै।
काम के मारे उढ़रि गई जब समुझि आइ तब रोवै।।9
घाघ - तरून तिया होइ अँगने सोवै, रन में चढ़ि के छत्री रोवै।
साँझे सतुवा करै बियारी घाघ मरै उनकर महतारी।।10
पुत्रवधू - पतिव्रता होइ अँगने सोवै बिना अन्न के छत्री रोवै।
भूँख लागि जब करै बियारी मरै घाघ ही कै महतारी।।11
घाघ - बिन गौने ससुरारी जाय विना माघ छिउ खींचरि खाय।
बिन वर्षा के पहनै पउवा घाघ कहैं ये तीनों कउवा।।12
पुत्रवधू - काम परे ससुरारी जाय मन चाहे छिउ खींचरि खाय।
करै जोग तो पहिरै पउवा कहै पतोहू घाघै कउवा।।13
हिन्दी साहित्य के ग्रंथों में घाघ के सम्बन्ध में सर्वप्रथम ‘शिवसिंह सरोज’ में उल्लेख मिलता है। इसमें कान्यकुब्ज अंतर्वेद वाले कवि के रूप में उनकी चर्चा की गयी है।14 ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आ. रामचन्द्र शुक्ल ने घाघ का केवल नामोल्लेख किया है।15 ‘हिन्दी शब्द सागर’के अनुसार घाघ गोंड़ा के रहने वाले एक बड़े चतुर और अनुभवी व्यक्ति का नाम है। जिसकी कही हुई कहावतें उत्तरी भारत में बहुत प्रसिद्ध हैं। खेती, बारी, ऋतुकाल तथा लग्न मुहूर्त आदि के सम्बन्ध में इनकी विलक्षण उक्तियाँ किसान तथा साधारण लोग बहुत कहते हैं। श्रीयुत पीर मुहम्मद यूनिस ने घाघ की कहावतों की भाषा के आधार पर उन्हें चम्पारन (बिहार) और मुजफ्फरपुर जिले की उत्तरी सीमा पर स्थित औरेयागढ़ अथवा बैरगनिया अथवा कुड़वा चैनपुर के समीप किसी गाँव में उत्पन्न मानते हैं।16
राय बहादुर मुकुन्द लाल गुप्त ‘विशारद’ ने ‘कृषि रत्नावली’ में घाघ को कानपुर जिला के अंतर्गत किसी गांव का निवासी ठहराया है। श्री दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह ने घाघ का जन्म छपरा जिला में माना है। पं. रामनरेश त्रिपाठी ने ‘कविता कौमुदी’ भाग एक और ‘घाघ और भड्डरी’ नामक पुस्तक मे उन्हें कन्नौज का निवासी माना है। घाघ की अधिकांश कहावते भोजपुरी भाषा में मिलती है। डा. ग्रियर्सन ने भी ‘पीजेन्ट लाइफ आफ बिहार’ में घाघ की कविताओं का भोजपुरी पाठ प्रस्तुत किया है। इस आधार पर इस धारणा को बल मिलता है कि घाघ का जन्म बिहार के छपरा जिले में हुआ था वहाँ से घाघ कन्नौज गये थे।
किसी भी समाज की वास्तविक पहचान उसकी लोक संस्कृति से होती है। वह लोक संस्कृति जिसमें रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, संगीत कला और साहित्य के माध्यम से उसकी गौरवमयी परम्परा सामने आती है। जहाँ तक लोक भाषा का संदर्भ है, कहावतों वा लोकोक्तियों आदि में उसकी सम्पूर्ण गरिमा मुखरित होती है, ये कहावतें, सच कहा जाय तो माटी की सुगन्ध की तरह है और उनमें जीवन के अनेक आरोह-अवरोह स्वाभाविक अभिव्यक्ति पाते हैं। इन्हें समग्रता से देखना-पढ़ना हर दृष्टि से उपयोगी है।
भारत कृषि प्रधान देश होने के कारण भारत वर्ष की अर्थव्यवस्था में वर्षा का योगदान आदि काल से रहा है, खेती, निराई, गुड़ाई, किसानी, जुताई, बुवाई, सिंचाई, खाद, फसल रोग, कटाई, मड़ाई, पैदावार और पशु आदि से सम्बन्धित होने के कारण यह स्पष्ट करने की पूरी समर्थ है कि लोक कवि घाघ के चिंतन मनन से ग्रामीण अर्थव्यवस्था का स्थान ऊँचा है। यह पहचानते देर नहीं लगती कि घाघ की कहावतें ज्ञान व अनुभव से भरी-पूरी हैं, सर्वकालिक हैं और अपनी सरलता व सारगर्भिता की स्वयं प्रमाण है।
लोक जीवन में गोस्वामी तुलसीदास के बाद सबसे अधिक प्रतिष्ठित कवि घाघ हैं। तुलसी के काव्य की लिखित परम्परा है और घाघ की कहावतों की परम्परा वाचिक। गाँव की भोली-भाली निरक्षर जनता को जहाँ तुलसीदास की अर्धालियाँ संशयग्रस्त क्षणों में कर्तव्य पथ पर चलने की प्रेरणा देती हैं वहीं घाघ की कहावतें जनता के कृषि जीवन की विभिन्न समस्याओं को समाधान उपस्थित करती हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की अधिकतर जनता गाँवों में ही निवास करती है. राष्ट्रकवि सोहन लाल द्विवेदी ने कहा है कि ‘है अपना हिन्दुस्तान कहाँ, वह बसा हमारे गाँवों में’ गाँवों में रहने वाले अधिकतर लोग निरक्षर, धनहीन एवं साधन विहीन होते हैं किन्तु उनमें परम्पराओं और मान्यताओं के प्रति गहरी आस्था रहती है। गाँवों में रहने वाले लोग निरक्षर अथवा अर्धसाक्षर होते हुए भी कहावतें, लोकोक्तियाँ और सूक्तियाँ ग्रामीण लोगों के जुबान पर अपने आप आ ही जाती हैं। कोई समस्या यदि उनके सामने आती है तो उसका समाधाान वे लोग प्रचलित कहावतों एवं सूक्तियों में खोजते है जो उनकी मार्ग दर्शिका है। इस कृषि प्रधान देश में कहावतों को अनुभूत ज्ञान का सागर माना जाता है। संसार का शायद ही ऐसा कोई देश या समुदाय होगा जहाँ कहावतें न प्रचलित हों, बल्कि यह कहा जाता है अनपढ़ से लेकर विद्वान तक अपनी बात की प्रमाणिकता के लिए कहावतों का सहारा लेता हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो कहावतें जीवन का वेद वाक्य है। कहावतें नगरीय जीवन की अपेक्षा ग्रामीण जीवन में अधिक प्रचलित हैं। वे ग्रामीण जनों की छोटी-बड़ी दैनिक समस्याओं का निदान बड़ी सरलता से कर लेती है। लोक जीवन में इन कहावतों के स्रोत का पता लगाना कठिन है। विद्वानों ने कहावतों के आरंभिक रूप की खोज वेदों में की है इस प्रकार कहावतें हमारे आर्ष संस्कृति से जुड़ी है।
संदर्भ ग्रंथ :-
1. सेंगर, शिवसिंह : ‘शिवसिंह सरोज’, पृ. 411
2. मिश्रबन्धु : ‘मिश्रबन्धु विनोद’, पृ. 637
3. त्रिपाठी, पं. राम नरेश : ‘घाघ और भड्डरी’ पृ. 15
4. वही, पृ. 15
5. वही, पृ. 16
6. वही, पृ. 16
7. सिंह, डॉ. रमेश प्रताप, ‘घाघ और भड्डरी की कहावतें’, पृ. 8
8. वही, पृ. 9
9. वही, पृ. 9
10. वही, पृ. 9
11. वही, पृ. 9
12. वही, पृ. 9
13. वही, पृ. 9
14. सेंगर, शिवसिंह : ’शिवसिंह सरोज’, पृ. 411
15. हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 308
16. त्रिपाठी, पं. राम नरेश : ‘घाघ और भड्डरी’, पृ. 15
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अजीत कुमार पटेल
(जे.आर.एफ.)
शोध-छात्र, हिन्दी विभाग,
विनोबा भावे विश्वविद्यालय,
हजारीबाग (झारखण्ड)
सम्पर्क - ग्राम- बहाउद्दीनपुर, पोस्ट-शंकरगंज,
जनपद-जौनपुर (उ.प्र.)- 222145
007ajpatel@gmail.com
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