नाटक // भोला विनायक - खंड 2 // दिनेश चन्द्र पुरोहित

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पिछले खंड  यहाँ देखें - खंड 1 नाटक “भोला विनायक” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित खंड दो [मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, जंगल का मंज़र सामने आता है। कई ...

पिछले खंड  यहाँ देखें - खंड 1

नाटक “भोला विनायक” लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित

खंड दो

[मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है, जंगल का मंज़र सामने आता है। कई पहाड़ी टीले दिखाई दे रहे हैं, इन टीलों की तरफ़ जाती हुई कई पगडंडियां बनी हुई है। यात्री गण यात्रा के लिए इन पगडंडियों को, एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए काम में लेते आये हैं। यह जंगल इतना घना भी नहीं है, जिसके कारण सूरज की किरणें धरा पर नहीं पहंचती हो? कई ऊँचे वृक्ष हैं, जिनकी ऊपर की पत्तियां पूरे साल हरी-भरी दिखाई देती हैं। जिनकी फुनगियों से किरणें फूट-फूटकर अपनी झलक दिखलाती जा रही है। मंद-मंद शीतल वायु बह रही है, प्रात: काल का वक़्त है। अभी लेश मात्र भी गरमी नहीं है। यही वक़्त है, जब पद यात्री यात्रा करने के वास्ते घर से निकलते हैं। सामने एक टीला दिखाई दे रहा है, जहां आपस में बातें करते हुए दो पथिक जा रहे हैं। इस टीले का रास्ता ठाकुर साहेब की गढ़ी को जाता है, इसलिए ये दोनों पथिक भी अभी ठाकुर साहेब की गढ़ी की तरफ़ जाने के लिए अपने क़दम बढ़ा रहे हैं। इन दोनों पथिकों की घरेलू बातें प्रेम भरी है, जिससे बोध होता है ये दोनों पति-पत्नी है। दक्षिण में यवनों के संक्रमण का पूरा असर नहीं हुआ है, इस कारण यहाँ औरतें पर्दा नहीं करती है। यही कारण है, यह औरत अभी बिना पर्दा किये आराम से अपने पति के साथ चल रही है। जो पुरुष पथिक है, उसका नाम है परमानन्द और इसकी जोरू का नाम है, कमला। इस वक़्त परमानन्द ने छज्जेदार मरहठी पगड़ी, घुटने तक का चोलीदार अन्गरका और किनारेदार मोटी धोती पहन रखी है। और इसने, चौड़े किनारे का एक नागपूरी उपरना ओढ़ रखा है। ना तो परमानंद और ना उसकी पत्नी कमला के पहनावे से ऐसा प्रतीत होता है कि, वे कोई अमीर है। और ये दोनों ऐसे ग़रीब भी नहीं दिखायी दे रहे हैं, जिनके घर में एक वक़्त का खाना जुटाना मुश्किल हो। केवल, ये दोनों दम्पति साधारण हैसियत के हैं। अवस्था इन दोनों स्त्री-पुरुष की ३५ और ४० के लगभग है। प्रतिष्ठा और मर्यादा परमानंद के घराने की इसी एक बात से सूचित होती है कि, कई पीढ़ी से ये और इनके पूर्वज ठाकुर साहेब और के पूर्वजों के कृपा पात्र स्नेहभाजन रहे हैं। इसलिए परमानंद अभी अकेले और बहुधा तो सपत्नीक ठाकुर साहेब के घर जाया करते हैं, और उनसे मिल आते हैं। ग़रीब परमानन्द के पास असबाब ही क्या है, जो कुछ था भी वह उन्ही दुष्ट पिंडारी लुटेरों के अत्याचार के कारण थोड़े दिन हुआ लुट गया था..इसी से इधर ये तंग और दुखी रहते हैं। इस कारण पिछली बार ये जब ठाकुर साहेब के यहाँ गए थे तो इन्हें तंग और दुखी देख विप्र समझकर दान आदि दे ठाकुर साहेब ने इनका विशेष उपकार कर दिया था। उस दिन तो इन्होंने कुछ नहीं कहा और ठाकुर साहेब ने जो कुछ दिया ले लिया पर मन में इनके यही विचार आया कि, ‘हमारा सदा ही यहाँ आने का क्रम है अब जो इस तरह आना-जाना नहीं बनाए रहते तो...ठाकुर साहेब कहेंगे देखो। “परमानन्द कृतध्नी है और उसको घमंड हो गया है कि अपना मतलब निकल गया तो अब मुलाक़ात तक छोड़ दी।” इस तरह वार्तालाप करते, वे दोनों आगे बढ़ रहे हैं।]

परमानंद – देखो भागवान, इस तरह हम बराबर ठाकुर साहेब की गढ़ी जाने का क्रम बनाए नहीं रहते तो ठाकुर साहेब यही सोचते कि, यह परमानंद कृतध्नी है और उसको घमंड हो गया कि, अपना मतलब निकलने के बाद इसने तो मुलाक़ात तक छोड़ दी।

कमला – ठाकुर साहेब ने आज हमारा कितना उपकार कर दिया है अब यदि शीघ्र ही अपने क्रम के अनुसार यहाँ आते हैं तो ठाकुर साहेब यही समझेंगे कि, आप बड़े लालची हैं। एक बार इतना ले गये देर नहीं हुई फिर आकर मौजूद हो गए?

परमानंद – इसलिए इस बार मैंने सोच लिया था कि, गढ़ी से कोई बुलावा नहीं आता तब-तक हम वहां नहीं जायेंगे। मगर क्या करूँ, भागवान? बार-बार दिमाग़ में एक ही ख्याल आता है, अगर वहां जाते हैं, तो वहां से कुछ लेकर आयेंगे...मगर, यह अच्छा नहीं है। यही कारण है, मैंने इस बार ठान ली, इस बार बिना बुलावे हम वहां नहीं जायेंगे। मगर क्या करूं, इसी बैशाख में विनायक का यज्ञोपवित संस्कार था...

कमला – जी हाँ, यह काम ठाकुर साहेब की मदद के बिना पूरा नहीं हो सकता। यह अच्छा हुआ भगवान ने हमारी सुन ली, ठाकुर साहेब को हमारी याद आयी उन्होंने हरकारा भेजकर इतने दिन तक नहीं आने का उलाहना देते हुए कहलाया कि, ‘कल परमानंद सस्त्रीक इस गढ़ी में अवश्य आवें।’ यह संदेशा देकर, हरकारा लौट गया। इस तरह आपका मान भी रह गया, और काम का काम भी चल निकला।

परमानंद – अगर बुलावा न आता, तो हम क्या करते? कैसे, काम चलाते? क्योंकि पहली और दूसरी वेदी का उपनयन और वेदारम्भ संस्कार का काम तो हमने किसी तरह निपटा दिया, मगर अब पांच-छ: दिन बाद होने वाले समावर्तन संस्कार को बिना पैसे कैसे निपटाते?

कमला – दूर-दूर से नाते रिश्ते वाले भाई बिरादरी के लोग न्योतहारी आते तो उनके खाने-पीने, लेन-देन के सामान तथा समावर्तन के हवन को पूरा करने की सामग्री बिना रुपये कैसे होती?

परमानन्द – अब फ़िक्र काहे करती हो, आख़िर बुलावा आ गया ना? मैंने हरकारे के साथ यही कहलाया कि, ‘इतने दिन तक मैं ठाकुर साहेब के यहाँ जा न सका, उसके लिए कल आकर मैं माफ़ी मांग लूंगा..’ इससे आगे, क्या कहूं?

[चलते-चलते अब सूरज निकल गया है। उन दोनों के दिल में उमंग भरी है, यह तीन घंटे का रास्ता शीघ्र तय करके हम जल्द ठाकुर साहेब की गढ़ी पहुंच जायेंगे। धीरे-धीरे, मंच पर अँधेरा छाने लगता है।]

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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रचनाकार: नाटक // भोला विनायक - खंड 2 // दिनेश चन्द्र पुरोहित
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