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नाटक ‘भोला विनायक’ का खंड 7
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
[मंच रोशन होता है, रेल गाड़ी का मंज़र सामने आता है। ठोक सिंहजी, रशीद भाई और सावंतजी बेंच पर बैठे हैं। और बैठे-बैठे बातें करते जा रहे हैं।]
ठोक सिंहजी – अब आगे का किस्सा सुनिए, परमानन्द और उसकी घरवाली ठीक प्रात: ९ बजे ठाकुर साहब की गढ़ी पहुंच जाते हैं। उनकी बातों से ठाकुर साहब को मालूम हो गया कि ये दोनों वापस जल्दी ही अपने घर लौटना चाहते हैं। क्योंकि, कल ही इनके पुत्र का समवार्त्तन है अत: ठाकुर साहब ने उनको अधिक टिकाये रखने की जिद्द नहीं की। उन्होंने परमानन्द का दिया गया निमंत्रण स्वीकार कर लिया, और जो कुछ उनसे बना दे-दिवाय विदा किया। परमानन्द उतने ही संतुष्ट और रोम-रोम से प्रसन्न हो सपरिवार ठाकुर साहब को आशीर्वाद देकर वहां से चले।
सावंतजी – फिर, आगे क्या? घर तो आराम से पहुंच गए या फिर कही उनका सामना किसी डाकू दल से तो नहीं हो गया?
ठोक सिंहजी – तीन बजते-बजते, वे घर के नज़दीक पहुच गए। उनको बहुत सा काम करना था इसलिए दुपहरिया का भी कुछ ख्याल न कर इतनी जल्दी चले आये। डाकूओं के जाने के बाद विनायक भय से कांपता हुआ बाप के आने की बाट जोहता एक कोने में बैठा था। परमानन्द के आने पर पाँव की आहट पाय और भी डर गया कि कहीं वे ही डाकू फिर न लौटे हों। क्योंकि, डाकू लोगों के जाते ही विनायक घर में घुसा तो फिर उसे बाहर आने की हिम्मत न पड़ती थी...
सावंतजी – कैसे हिम्मत रख पाता, वह नन्हा बच्चा? उसकी हालत तो उस खरहे जैसी हो गयी थी। जैसे कोई खरहा शिकारी के डर से मांद में दुबका बैठा रहे वैसे ही वह सबसे भीतर की कोठरी में चुप्पी साधे बैठा था। और डर या सहम जाने की बड़ी शिला उसकी छाती को दबाये थी पर द्वार पर ‘विनायक’ ‘विनायक’ कहकर पुकारते हुए परमानंद की आवाज़ पहचान कर झट उसने दौड़कर किवाड़ खोला और वह अपनी मां से लिपट-लिपटकर रोने लगा। क्या ठोक सिंहजी, मैं सही कह रहा हूँ ?
ठोक सिंहजी – वज़ा फरमा रहे हैं, हुज़ूर। सुनों, इससे विनायक को कितना आराम मिला होगा? वह जो बड़े भारी रंज और डर का तूफ़ान उसके मन में जकड़ा हुआ-सा जमा था उसको खुलकर उभड़ने देने का उपाय विनायक को केवल अपनी मां की गोद में लिपट जाना ही मिला और इस रोने से उसका दिल कुछ हलका-सा हो चला। मां उसको इस तरह हिचकी बांधकर रोते देखकर चौकन्नी हो गयी और घबराकर सोचने लगी कि यह कहीं से गिर तो नहीं गया अथवा बंदरों ने आकर तो कहीं इसे नहीं काटा पर जब इसके अंगों पर हाथ फेरा तो कहीं चोट या घाव न पाया। देर-तक उसे इस तरह रोता देखकर परमानन्द और उसकी स्त्री कमला घबरा गयी और बहुत सी दिलासा देने के बाद जब विनायक के दु:ख का वेग कुछ कम हुआ तो वह इतना ही बोला कि...
[ठोक सिंहजी किस्सा बयान करते जा रहे हैं, वाकये की सारी घटनाएं चित्र बनकर फिल्म की तरह सावंतजी और रशीद भाई की आँखों के आगे छाने लगी। मंच पर अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच पर रोशनी फ़ैल जाती है। विनायक के घर का मंज़र सामने आता है। इस समय बहुत रोने के बाद, विनायक अपने मां-बाप से कहता है।]
विनायक – [सिसकियाँ भरता हुआ, कहता है] – आपके जाते ही कई डाकू लोग यहाँ आये थे।
कमला – [विनायक को गोद में लेकर, रोती हुई कहती है] – हाय, आज़ विनायक की नयी ज़िंदगी भई, भगवान ने बड़ी दया की मेरे बेटे को काल के मुंह से बचा दिया। तुम्हें कुछ हो जाता तो मैं कहीं की न रहती।
[मां को रोते देखकर, विनायक को और सहारा मिलता है। अब वे दोनों फूट-फूटकर, रोते जा रहे हैं। इन दोनों की यह दशा देखकर परमानन्द कुछ घबरा जाता है। अब दो-दो रोने वालों को चुप कराना उसके लिए एक बड़ी आफ़त हो जाती है। अब वह विनायक को अपनी गोद में लेकर, उससे पूछते हैं।]
परमानन्द – [विनायक को गोद में लेकर, पूछते हैं] – क्या, तुझको इन डाकूओं ने मारा है?
विनायक – नहीं, नहीं।
[अब परमानन्द को शंका होती है, ‘डाकू लोग आये थे। इसे बच्चा समझकर इसे छेड़ा नहीं, मगर माल-असबाब ले गए हों?’ यह दिल में विचार आते ही, परमानन्द को क्षण-भर चिंता होती है। तब वह विनायक के साथ मुलायमी से पूछता है।]
परमानन्द – [मुलायमी से, पूछता हैं] – बताओ तो बेटा। कि, डाकू लोगों ने क्या किया, क्या छोड़ गए? घर से क्या-क्या सामान ले गए?
विनायक – नहीं, नहीं। [रोने लगा]
परमानन्द – [क्रोध और झुंझलाहट से, कहता है] – कुछ कह भी तो जो डाकू लोग आये थे तुमको कुछ मारा पीटा है, यहाँ की कुछ चीज़ लूटकर ले गए हैं, बतलाता क्यों नहीं?
[अब विनायक पिता की गोद से उठकर, मां की ओर जाने की इच्छा प्रगट करने लगा। और पूछने पर, यह कहने लगा।]
विनायक – डाकू लोग आये थे, और उन्होंने आपके वास्ते एक संदेशा मुझसे कह गए।
[अब परमानन्द का आश्चर्य और भी बढ़ा, और बड़ी जल्दी से पूछा]
परमानन्द – मेरे वास्ते क्या संदेशा कह गए। जल्दी कह।
विनायक - [घबराहट कम होने पर, कहता है] – मुझको मारा पीटा नहीं, न कुछ लूटा ही। उनमें एक ऐसा आदमी था जिसे दोनों अपना सरदार मानते थे। उसने चलती बार कहा हम लोग तुम्हारा घर लूटने आये थे पर तुम्हारे बर्त्ताव से हम लोगों ने न लूटा। इतना कह वे तीनों चले गए।
[पहले तो परमानंद को इन बातों को कुछ भी न समझा पर दोहरा के उसको फुसलाते और दिलासा देते जब फिर पूछा तो उसे जान पड़ा कि तीन डाकू यहां आज़ आये थे पर विनायक के भोलेपण और मुलायम बर्त्ताव के कारण घर को न लूटा।]
परमानन्द – [प्रसन्न होकर, कहता है] – बेटा। तुमने बहुत अच्छा किया। चाहे अपने जान-पहचान का आदमी हो या अनजान हो जो अपने घर आये वह अतिथि कहलाता है। उसकी जहां तक बन पड़े सेवा करना। बेटा, जो अपने साथ बुराई करे उसके साथ भी भला करना। वरन दुर्जन और दुष्ट मनुष्य जिनका स्वभाव ही दूसरे की बुराई और हानि करने का है उनका मन भी बुराई की ओर से फेर देने का यही एक उपाय है कि सदा उनके साथ शुद्ध भलाई का बर्त्ताव करे और उनकी बुराई को अपनी भलाई से दबाकर उन्हें लज्जित कर उनका मन अपने वश में कर ले।
[मंच पर, अँधेरा फ़ैल जाता है।]
[क्रमशः अगले खंडों में जारी...]
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