प्रकाशक राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, जोधपुर. द्वारा प्रकाशित नाटक भोला विनायक लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, जोधपुर...
प्रकाशक राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, जोधपुर.
द्वारा प्रकाशित नाटक
भोला विनायक
लेखक
दिनेश चन्द्र पुरोहित
राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, जोधपुर [राजस्थान]
लेखक एवं अनुवादक - दिनेश चन्द्र पुरोहित
परिचय
दिनेश चन्द्र पुरोहित
लेखक एवं अनुवादक का नाम – दिनेश चन्द्र पुरोहित, जन्म तिथि ११-१०-१९९५४, जन्म स्थान पाली-मारवाड़
B.Sc., L.L.B., Diplomaa course in Criminology, P.G.Diploma coursae in Journalism.
राजस्थांनी भाषा में लिखी किताबें – [१] कठै जावै रै, कढ़ी खायोड़ा [२] गाड़ी रा मुसाफ़िर {ये दोनों हास्य-नाटक की किताबें, रेल गाडी से “जोधपुर-मारवाड़ जंक्शन” के बीच रोज़ आना-जाना करने वाले एम.एस.टी. होल्डर्स की हास्य-गतिविधियों पर लिखी गयी है!} [३] मारवाड़ री कहानियां.. [मानवीय सम्वेदना पर लिखी गयी कहानियां] ! सिटीजंस सोसाइटी फॉर एज्यूकेशन के तत्वाधान मे बुधवार २३ अगस्त २०१७, सांय ५ बजे स्वामी कृष्णानन्द स्मृति सभागृह में महाराजा मान सिंह पुस्तक प्रकाशन के द्वारा मेरी चयनित की गयी पुस्तक ‘मारवाड़ री कहानियां’ का लोकार्पण किया गया !
इस सामारोह के मुख्य अतिथि डॉक्टर अर्जुन देव चारण कन्वीनर [राजस्थांनी भाषा], श्री आईदान सिंह भाटी अध्यक्ष एवं प्रोफ़ेसर ज़हूर खां मेहर प्रमुख वक्ता थे!
पुस्तक “कठै जावै रै, कढ़ी खायोड़ा,” “गाड़ी रा मुसाफ़िर” और “मारवाड़ री कहानियां का हिंदी अनुवाद किया जा चुका है ! हिंदी में अनुवादित की गयी इन पुस्तकों के नाम हैं -: [१] कहाँ जा रिया है, कढ़ी खायोड़ा [२] गाड़ी के मुसाफ़िर और [३] मारवाड़ की कहानियाँ ! अभी हाल में नया नाटक “भोला विनायक” लिखा गया है !
हिंदी भाषा में लिखी गयी किताब – डोलर हिंडो [व्यंगात्मक नयी शैली “संस्मरण स्टाइल” को काम में लेकर लिखे गए वाकये! राजस्थान में प्रारंभिक शिक्षा विभाग का उदय, और उत्पन्न हुई हास्य-व्यंग की हलचलों का वर्णन]
उर्दु भाषा में लिखी किताबें – [१] हास्य-नाटक “दबिस्तान-ए-सियासत” – मज़दूर बस्ती में आयी हुई लड़कियों की सैकेंडरी स्कूल में, संस्था प्रधान के परिवर्तनों से उत्पन्न हुई हास्य-गतिविधियां इस पुस्तक में दर्शायी गयी है! [२] कहानियां “बिल्ली के गले में घंटी. – सरकारी दफ़्तर के मुलाज़िमों की स्वार्थ-लोलुप्तता पर उत्पन्न हुए हास्य-व्यंग !
साहित्य शिल्पी में सहयोग – ई पत्रिका साहित्य शिल्पी में मेरी मारवाड़ी कहानियां हिंदी अनुवाद सहित प्रकाशित होती रही है ! कब्बूड़ा, मैणत री कमाई और हिंज़ड़ो कुण.. अै, कै वै..?, आखा खिलकत में भांग न्हाख्योङी, बैना रा पाट, वगैरा प्रकाशित हो चुकी है ! हास्य-नाटक “कहां जा रिया है, कढ़ी खायोड़ा” खण्ड १ से खंड १५ तक ई पत्रिका ‘साहित्य शिल्पी’ में प्रकाशित हो चुका है ! अभी इस वक़्त ‘गाड़ी के मुसाफ़िर’ नामक नाटक नियमित प्रकाशित हो रहा है !
साहित्य सुधा में सहयोग – ई पत्रिका साहित्य सुधा में हिंदी अनुवादित पुस्तक गाड़ी के मुसाफ़िर का प्रकाशन हो चुका है !
शौक – व्यंग-चित्र बनाना !
निवास – अंधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, वीर-मोहल्ला, जोधपुर [राजस्थान].
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श्री दिनेश चन्द्रजी, umaid bhavan palace
jodhpur – 342006 Rajasthaan 16 जनवरी 2016
आपकी लिखी हुई किताबें ‘कठै जावै रै, कडी खायोड़ा’, गाडी रा मुसाफिर’, [हास्य-नाटक] और कहानियों की किताब ‘याद तुम्हारी हो..’ मिली ! उसके लिए आपको बहुत, आभार ! आपकी इन किताबों के माध्यम से राजस्थानी भाषा का विकास तो होगा ही, और साथ में राजस्थानी नाटक और कहानियों को चाहने वाले पाठकों के लिए इनका महत्त्व बना रहेगा ! राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने का कार्य, हम कई वर्षों से करते आ रहें हैं ! आपके द्वारा किया जा रहा यह सहयोग सराहना करने योग्य है ! आप इस लेखन-कार्य के लिए, बधाई के हक़दार हैं ! आपकी इन पुस्तकों को मैं ‘महाराजा मान सिंह पुस्तक प्रकाश शोध केंद्र’ के पुस्तकालय में भेज रहा हूं, जहां आगंतुक पाठक गण और शोधार्थी गण लाभान्वित होंगे !
आपके द्वारा रचित नाटक और कहानियां दिल को स्पर्श करने वाली है, जिसमें मारवाड़ की मिट्टी की महक बिखरी हुई महशूस होती है ! मुझे बहुत ख़ुशी है कि मारवाड़ की इस मरू-भूमि पर आप जैसे सुयोग्य कथाकार और रचनाकार सेवा कर रहे हैं ! इस तरह की रचनाओं और लेखन-कार्य हेतु मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई और शुभ कामना !
नववर्ष की मंगल कामनाओं ! भवदीय
सही/-
महाराजा गजसिंह
मारवाड़-जोधपुर
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श्री दिनेश चन्द्र पुरोहित राजस्थानी भाषा लेखक अंधेरी गली, आसोप की पोल के सामने वीर-मौहल्ला जोधपुर [राज.]
Tel : Palace : 0291-2511118 Fax 0291-2510928 e – mail : office@maharajajodhpur.com
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नाटक
“भोला विनायक’
अनुक्रम
[१] मेरा निवेदन पेज नंबर एक
[१] भोला विनायक खंड एक, पेज नंबर तीन
[२] भोला विनायक खंड दो, पेज नंबर पांच
[३] भोला विनायक खंड तीन, पेज नंबर सात
[४] भोला विनायक खंड चार, पेज नंबर नौ
[५] भोला विनायक खंड पांच, पेज नंबर पंद्रह
[६] भोला विनायक खंड छह, पेज नंबर सौलह
[७] भोला विनायक खंड सात, पेज नंबर चौबीस
[८] भोला विनायक खंड आठ, पेज नंबर सताईस
राजवीणा मारवाड़ी साहित्य सदन, जोधपुर [राजस्थान].
मेरा निवेदन - : सर्व प्रथम स्वर्गीय पंडित बालकृष्ण भट्ट द्वारा “नूतन ब्रहमचारी’ नामक एक लघु उपन्यास लिखा गया। जिसे सन १८८६ ई. में “हिंदी-प्रदीप” में क्रमश: कई अंकों में प्रकाशित किया गया। तदुपरांत, इस उपन्यास को पुस्तक के रूप में छापा गया। भट्टजी ने इस पुस्तक को स्कूल में पढ़ने वाले छात्रों के पाठ्य क्रम की उपयोगिता को ध्यान में रखकर लिखा था। लेकिन शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने इसे कभी स्कूलों के पाठ्य पुस्तकों में स्थान नहीं दिया। शिक्षा विभाग के अधिकारियों की आलोचना करते हुए भट्टजी ने लिखा था कि “जो प्रभु कहलाते हैं जिनकी एक बार की कृपा से दृष्टि-प्रोत्साहित हो हम बार-बार ऐसे-ऐसे प्रबंध की कल्पनाओं में प्रवृत्त होते वहां चाटुकारी के साथ झूठी प्रशंसा और स्वार्थ ऐसा पाँव जमाये हैं कि जिस शिक्षा विभाग के द्वारा उत्तम से उत्तम पुस्तक लिखने का उत्साह बढ़ता और हमारे बालक अच्छी से अच्छी शिक्षा प्राप्त कर देश को उन्नत के शिखर पर पहुंचाते वहां “न देवाय न धर्माय” ऐसी-ऐसी रद्दी पुस्तकें भरी पड़ी हैं कि जिनसे हमारे बालकों को सिवाय अपने हाथ से बाहर हो जाने के और कुछ भी भलाई नहीं दिखाई पड़ती। शिक्षा विभाग में जिस तरह की पाठ्य पुस्तकें प्रचलित हैं उन्हें थोड़ा ही पढ़ने से मालूम हो सकता है कि बालकों पर इसका क्या प्रभाव होगा? हमारी इस पुस्तक के पढ़ने से पाठकों को अवश्य मालूम हो जाएगा कि बालकों के पढ़ने के लिए यह कितनी शिक्षा प्रद है और शिक्षा विभाग में जारी होने से हमारे कोमल बुद्धि वाले बालकों को कितनी उपकारी हो सकती है पर अपनी कंगल टिर्रई का दम भरते मथुरा तीन लोक से न्यारी के समान सुलेखकी के अभिमान में चूर आज़ तक किसी प्रकार की चाटुकारी न बन पड़ी कि प्रभुवरों की झूठी लल्लो-पत्तों में अपना जीवन नष्ट करते तब क्यों शिक्षा विभाग के पदाधिकारी उचित न्याय पर दृष्टि रख उन पुस्तकों को हटाकर इस प्रकार की बालाकोपयोगी पुस्तकों को शिक्षा विभाग में आदर देते।”
इन शब्दों में भट्टजी के आहत दिल की जानकारी मिलती है। इनके उपन्यास को आधार बनाते हुए, मैंने एक मनोरंजक नाटक तैयार किया है। जिसका नाम रखा है “भोला विनायक”। कहानी में कुछ बदलाव लाकर मैंने इस नाटक में हास्य रस लाने की कोशिश की है। मैंने इस पुस्तक के पहले दो हास्य नाटक लिखे हैं उन पुस्तकों का नाम है, कहां जा रिया है, कढ़ी खायोड़ा और गाड़ी के मुसाफ़िर। इन इन नाटकों में किरदार थे ठोक सिंहजी, रशीद भाई, सावंतजी, दीनजी भा’सा और फुठर मलसा। इनके साथ अन्य किरदार गाड़ी में फिरने वाले हिज़ड़े, चाय वाले आदि भी थे। अब हमारी कहानी “भोला विनायक” में भी यही तीन मित्र सावंतजी, रशीद भाई और ठोक सिंहजी भी मौजूद हैं। दफ्तर जाने के लिए ये लोग रोज़ रेल गाड़ी में बैठकर पाली जाया करते हैं, और गाड़ी का वक़्त गुजारने के लिए नाना तरह के किस्से कहते हैं और सुनते हैं। रेल गाड़ी के दूसरे सह यात्री हैं, चाचा कमालुद्दीन, चाची हमीदा बी और उनका नेक दख्तर नूरिया। नूरिया रात को भूतों की फ़िल्में देखा करता है टी.वी. पर। इसलिए नींद पूरी न हो पाने के कारण, वह रेल गाड़ी में बैठा-बैठा ऊंघ लिया करता है। रेल गाड़ी में इस नूरिये के कारण कई हास्य घटनाएं घटती है जो पाठकों को बहुत हंसाती जायेगी। मैं आशा करता हूँ आपको यह नाटक “भोला विनायक” बहुत पसंद आयेगा। इस नाटक को पढ़ने के बाद आप अपने विचार मेरे ई मेल dineshchandrapurohit2@gmail.com में लिखकर ज़रूर भेजकर अपनी प्रतिक्रया से मुझे अवगत करेंगे। आदरणीय स्वर्गीय पंडित बालकृष्णजी भट्ट को नमन कर मैं लिखी गयी पुस्तक “भोला विनायक” उनको समर्पित करता हूँ, आज इनकी प्रेरणा से मैं यह नाटक “भोला विनायक” पाठकों के सामने ला रहा हूँ।
जय श्याम री सा। आपका हितेषी
दिनेश चन्द्र पुरोहित
[लेखक एवं अनुवादक]
निवास -: अँधेरी-गली, आसोप की पोल के सामने, जोधपुर [राजस्थान.]
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नाटक “भोला विनायक”
खंड एक
लेखक दिनेश चन्द्र पुरोहित
[रेल गाड़ी पटरियों पर सरपट दौड़ रही है। शयनयान डब्बे के एक केबिन में रशीद भाई, ठोक सिंहजी, सावंतजी और दीनजी भा’सा यात्रा कर रहे हैं। आज़ है जुम्मेरात, इसलिए पास वाले केबिन में ज़नाब कमालुद्दीन का परिवार भी सफ़र कर रहा है। मियाँ कमालुद्दीन खांसी से परेशान है। इसलिए उनकी बेगम हमीदा बी उनके बार-बार खांसने पर पाबंदी लगा रही है। मगर बड़े बूढ़ों की खांसी को रोकना, उनके हाथ में नहीं होता। आख़िर, हमीदा बी परेशान होकर, कहने लगती है।]
हमीदा बी – अरे नूरिये के अब्बा, कितनी बार कहा तुमको कि, काडा ले लो सोते वक़्त। मगर तुमने तो कसम खा ली, काडा नहीं लेने की। अब भुगतो, अपने कर्मों को। एक बार और कह देती हूँ, तुमको। इस बार खांसे तो मियाँ कान पकड़कर बैठाकर आ जाऊंगी इन ख़बती एम.एस.टी. वालों के पास। फिर वहां बैठे-बैठे, इन कमबख्तों का पाद सूंघते रहना।
कमालुद्दीन – [खांसते हुए, कहते हैं] – खों..खों अरी मेरी नूर महल। कहीं तुमने, भंग तो न चढ़ा डाली? [खांसते हैं] खों..खों तेरा मायका खांडा-फलसा में है, वहां चल रहा है मेला बड़ी गवर का। भंग मिला हुआ प्रसाद ठोक गयी होगी तू, आख़िर तूझे है बुरा शौक मीठा खाने का।
नूरिया [ऊंघ में, बोलता है] – अम्मी ठहरी, चटोखरी। चटोखरी..चटोखरी चटोखरी। मुफ़्त का माल खाने में, है बड़ी उस्ताद।
हमीदा बी – [गुस्से में, कहती है] – अब तुम दोनों बाप-बेटे के, पर निकलने लगे हैं। अभी कान पकड़कर बैठाकर आती हूँ, इन ख़बती एम. एस टी. वालों के पास। वहां बैठे-बैठे अब्दुल अज़ीज़ के नेक दख्तर रशीदिये का पाद सूंघते रहना। ख़ुदा जाने, क्या-क्या खाकर आ जाता है, इस गाड़ी में?
[दोनों को पकड़कर बैठाकर आ जाती है, पास वाले केबिन में। जहां रशीद भाई, अपने दोस्तों के साथ गुफ्तगू में मशगूल है।]
रशीद भाई – [कमालुद्दीन को देखते हुए, कहते हैं] – वाह बड़े मियाँ, सैर-ओ-तफ़रीह में जा रहे हैं, चाची के साथ?
कमालुद्दीन – [गुस्से में, कहते हैं] – तुम और तेरी चाची, जाओ भंगार में। तुमको रहती है कब्जी की शिकायत, और तेरी चाची को शिकायत है मीठा खाने की। मीठा खाती है, मगर बोलती है कड़वे नीम के पत्तों की तरह। ख़ुदा जाने, वह कहाँ से आ जाती है नीम की पत्तियां चाबकर..? और तुम मियाँ, न जाने क्या ठूंसकर आ जाते हो अपने पेट में?
रशीद भाई – [हंसते हुए, कहते हैं] – चाचा आख़िर बात क्या है, क्यों चाची पर गुस्सा करते जा रहे हैं आप? और मैंने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, फिर मुझ पर काहे बरस रहे हैं आप? अगर दिल में कोई बात छुपाकर रखी है आपने, तो कह दीजिएगा...न तो आपको भी कब्जी हो जायेगी, मेरी तरह।
कमालुद्दीन – लीजिये सुनिए, साहेब जादे। तुम्हारी चाची को...
[कमालुद्दीन बताते हैं, किस तरह उनको उस केबिन से हटाकर यहाँ लाकर बैठाया गया? सुनकर, सभी हंसते हैं।]
सावंतजी – [हंसते हुए, कहते है] – बा’सा। सबकी जोरू एक जैसी होती है। कोई थोड़ी नमकीन, तो कोई ज्यादा नमकीन। हुज़ूर, नमकीन बीबी अपने शौहर से बहुत मोहब्बत करती है, उतनी दूसरी बीबियां नहीं करती।
कमालुद्दीन – मगर म्यां, यहाँ तो हमारी बीबी ठहरी नीम की तरह बाड़ी बोलने वाली...और यह हमारा नेक दख्तर ठहरा नीमबाज़। जब देखो तब यह पड़ा रहता है, ऊंघ में।
ठोक सिंहजी – भाग्यशाली इंसानों को मिलती है, अच्छी औलादें। किसी ज़माने में भोला विनायक विनयशील और सुशील बच्चा...
रशीद भाई – अब आप किस्सा ही बयान कर लीजियेगा, हम अपने-आप समझ जायेंगे कि बच्चों का पालन किस तरह करना चाहिए? जिससे अपनी औलादों में, विनायक के गुण मौजूद हो।
कमालुद्दीन – कहो भाई, कहो। हम भी सुनेंगे और समझ जायेंगे कि, बच्चो के पालन-पोषण में कमी कहाँ रह गयी?
ठोक सिंहजी – तब सुनिए, हिन्दुस्तान के दक्षिण हिस्से में पिंडारियों की लूट-मार की बड़ी धूम थी। गावों का, क्या पूछना? बड़े-बड़े शहर और राजधानियां भी, इससे अछूती न रही। मुस्लिम राज्य और मराठा राज्य के उथल-पुथल के कारण, सब जगह अंधेर नगरी चौपट राजा का राज चलने लगा। जो लोग अमन-चैन के वक़्त ईमानदार और भले मानुष थे, उनकी भी नीयत इस बुरे वक़्त डोलने लगी। उन दिनों में बैशाख के महीने में नासिक से दस कोस दूर एक जंगल में...
[सभी दतचित्त होकर किस्सा सुनने लगे, सुनते-सुनते उनकी आँखों के आगे किस्से की घटनाएं चित्र बनकर छाने लगी। मंच पर, अँधेरा छा जाता है। थोड़ी देर बाद, मंच रोशन होता है। जंगल का मंज़र सामने आता है। सांझ का समय है, तीन आदमी हथियारबंद घुड़सवार बातें करते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं। इन तीनों में एक आदमी रोबदार और विवेक वाला लग रहा है, लगता है वह इन दोनों आदमियों का सरदार है। दूसरे दो आदमी डरावने और हत्यारे किस्म के लग रहे हैं..ऐसा लगता है कि, इन दोनों ने कई इंसानों का खून कर डाला है। इन में रत्ती मात्र दया, प्यार और मित्रता के भाव कहीं नज़र नहीं आते। इन लोगों के फुर्तीले बदन से यह बात प्रतीत होती है कि, ये सभी घुड़सवारी, मार-पीट, और छापा मारने में पूरे निपुण हैं। इनकी चुस्त पोशाक, भयंकर चेष्टा और इनके रंग-ढंग इस बात की गवाही देते हैं कि, ये निसंदेह लुटेरे हैं। चलते-चलते ये लोग थक गए हैं। इसलिए अब ये एक पेड़ के नीचे, विश्राम के लिए रुक गए हैं। इनका सरदार जो है, उसके चेहरे पर निर्दयता नहीं बरसती है, जितनी इसके साथियों के चेहरे पर निर्दयता झलकती है। भले ही इसके ढंग लुटेरों जैसे हैं, मगर इसकी आँखों में दया और शील की कहीं-कहीं झलक दिखाई देती है। अब ये तीनों वार्तालाप कर रहे हैं।]
पहला लुटेरा – घंटे दो घंटे और चलिए, यहाँ ठहरने से क्या फ़ायदा?
दूसरा लुटेरा – ठीक तो है, थोड़ी दूर और चलिए जितने में आठ बजे तक चांदनी निकल आयेगी। और हम जंगल की बहार देखते हुए चले चलेंगे, और आधी रात तक हम ठाकुर साहेब की गढ़ी के पास पहुँच जायेंगे।
सरदार – नहीं, नहीं। ठाकुर साहेब की गढ़ी पर कल चलेंगे, आज़ हम यहीं विश्राम करेंगे।
पहला – [कुछ क्रोध में] – यहाँ रहेंगे, तो खायेंगे क्या?
सरदार – [मुलाइमियत से हुक्म देता हुआ, कहता है] – जो फेंट में बंधा है, वह आज़ की रात खाता क्यों नहीं? कल की कल, देखेंगे।
[यह ऐसे ढंग से कहा गया कि, भले वे दोनों लुटेरे क्रोध से भुने जा रहे हैं....मगर उन दोनों में, आगे बोलने की हिम्मत दिखाई नहीं दे रही है। फिर क्या? तीनों घोड़ों से उतर पड़े, और उन घोड़ों को पेड़ से बाँध देते हैं। फिर यह सरदार, पेड़ पर बैठी चिड़िया का शिकार कर डालता है। अब ये लोग, उस चिड़िया को भूनने की तैयारी करने लगे। मंच पर, अँधेरा छा जाता है।]
[क्रमशः अगले खंड में जारी...]
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